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मांपत्तिक अवस्था संपत्ति का बँटवारा होता था, तो सब पुत्रों में खेत बराबर बराबर 'बॉट दिये जाते थे। स्त्रियों के आभूषण और वस्त्र उनकी अपनी
सम्पत्ति माने जाते थे। लड़कियाँ माता की संपत्ति की अधिकारिणी होती थीं; पर वे खेतों में हिस्सा न पा सकती थीं।
कोई व्यक्ति गाँव के चरागाह या जंगल के किसी हिस्से को मोल लेकर अपने कब्जे में न कर सकता था। उन सब का समान अधिकार माना जाता था। अधिकार की इस समानता पर बड़ा जोर दिया जाता था। गाँव का सब काम पंचायत और मुखिया के द्वारा होता था । गाँववालों से कोई बेगार न ली जाती थी। जब कोई ऐसा काम आ जाता था, जिसमें सब गाँववालों की स्वीकृति की आवश्यकता होती थी, तब वे सब पंचायत या सभा में आकर एकत्र होते थे। पंचायत के लिये एक अलग स्थान नियत रहता था। पंचायत ही सभा गृह, अतिथिति-शाला, सड़क, आराम, उपवन, कूप इत्यादि बनवाती थी। स्त्रियाँ भी सर्व साधारण के लाभ के कार्यों में सम्मिलित होती थीं।
गाँव का जीवन बहुत सीधा सादा था। गाँववाले न तो बहुत धनी होते थे, और न भूखे ही मरते थे। लोगों को खाने पीने की कमी न थी। उनकी सब आवश्यकताएँ अच्छी तरह से पूरी हो जाती थीं। सब से बड़ी बात यह थी कि कोई उनकी स्वतंत्रता में बाधा डालनेवाला न था । सारांश यह कि उस समय गाँव एक तरह के छोटे मोटे प्रजातंत्र राज्य थे। लोगों का प्रधान उद्यम खेती बारी था और उसी की उपज से वे चैन से रहते थे। गाँवों में जमींदार न होते थे । वहाँ अपराध भी बहुत कम होते थे। जो
अपराध होते थे, वे गाँव के बाहर होते थे । मेगास्थिनीज़ ने लिखा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com