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बौद्ध-कालीन भारत
२२० जातियों की सेवा करते थे; पर धन कमाने के लिये परिश्रम भी कर सकते थे । उनके लिये वेद पढ़ना मना था।
धर्म-सूत्रों में आठ प्रकार के विवाह लिखे हैं। एक गोत्र में विवाह करना मना था । उन दिनों छोटी उम्र की कन्याओं का विवाह नहीं होता था । वशिष्ठ कहते हैं-"जो कुमारी युवावस्था को प्राप्त हो गई हो, उसे तीन वर्ष तक ठहरना चाहिए। इस के उपरान्त वह अपनी समान जाति के किसी पुरुष से विवाह कर सकती है।" विवाह एक नये जीवन अर्थात् गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने का द्वार समझा जाता था। विवाह के पहले नवयुवक केवल विद्यार्थी होता था।
ब्राह्मण बालक आठ वर्ष से सोलह वर्ष के अंदर, क्षत्रिय बालक ग्यारह वर्ष से बाइस वर्ष के अंदर और वैश्य बालक बारह वर्ष से चौबीस वर्ष के अंदर विद्यारंभ करता था। विद्यार्थी दशा में वह अपने गुरु के घर बारह, चौबीस, छत्तीस या अड़तालीस वर्षों तक अपने इच्छानुसार एक, दो, तीन या चारो वेद पढ़ने के लिये रहता था। उस समय वह सब प्रकार की विलाससामग्री से दूर रहता था । वह दण्ड और मृगचर्म धारण करता था; भिक्षा माँगकर पेट पालता था; जंगलों से हवन के लिये लकड़ी लाता था; और गुरु के घर का सब काम काज करता था। उस समय ग्रंथ नहीं लिखे जाते थे, इससे शिक्षा जबानी ही दी जाती थी। विद्यार्थी जो कुछ पढ़ते थे, सब कण्ठ कर लेते थे। जब गुरु से पढ़कर वे अपने घर लौटते थे, तब यथाशक्ति उन्हें दक्षिणा देते थे। इसके बाद वे विवाह करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते थे। सूत्रकारों ने गृहस्थों के लिये अपने अतिथियों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com