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बौद्ध-कालीन भारत
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कूल न समझी जाती थी, जब तक सम्मति देने का अधिकार पाये हुए कुल सभ्य उसमें उपस्थित न हों; या किसी कारण अनुपस्थित होने पर उन्होंने नियमानुसार अपनी सम्मति न प्रकट की हो।
अधिवेशन के लिये कम से कम उपस्थिति या कोरमकम से कम कितने सभ्यों की उपस्थिति होने पर परिषद् की बैठक हो सकती थी, इसके नियम का बड़ा खयाल रखा जाता था। भिन्न भिन्न कार्यों के लिये भिन्न भिन्न संख्या नियत थी। कुछ कार्य तो ऐसे थे, जिनके लिये केवल चार सभ्यों की उपस्थिति आवश्यक थी; और कुछ ऐसे थे, जिनके लिये कम से कम बीस भिक्षुओं की उपस्थिति परमावश्यक थी। यदि बिना “कोरम" या निर्दिष्ट संख्या के परिषद् की बैठक होती, तो वह नियम-विरुद्ध समझी जाती थी। यदि किसी उपस्थित सभ्य की राय में परिषद् की बैठक नियम-विरुद्ध होती, तो वह उसका विरोध कर सकता था ।
गण-पूरक या ह्विप (Whip)- यदि यह समझा जाता था कि परिषद् की किसी बैठक में "कोरम" या निर्दिष्ट संख्या न पूरी होगी, तो "कोरम" पूरा करने का प्रयत्न किया जाता था। इस काम के लिये एक सभ्य नियत किया जाता था, जो "गण-पूरक" कहलाता था। इसे अँगरेज़ी में “द्विप" कह सकते हैं।
परिषद् की बैठक के संबंध में इसी तरह के अनेक छोटे बड़े नियम थे, जिनका यहाँ उल्लेख करना असंभव है। यहाँ केवल मोटी मोटी बातों का उल्लेख किया गया है। पर जो कुछ ऊपर लिखा गया है, उससे पाठकों ने समझ लिया होगा कि आज कल के सभ्य देशों में पार्लिमेंट या काउन्सिल आदि की बैठकों के जो नियम हैं,प्रायः वे सब बौद्ध काल के संघों और गण-राज्यों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com