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सामाजिक अवस्था बात नहीं है। बौद्ध धर्म का प्रचार होने के बाद भी वर्ण-भेद बना रहा । जैसा कि ऊपर लिखा गया है, बौद्ध ग्रन्थों में अनेक स्थलों पर वर्ण-विभाग का उल्लेख आया है। बौद्ध भिक्षुओं के संप्रदाय में भी वर्ण विभाग का भाव दूर नहीं हुआ था । “तित्तिर जातक' में लिखा है कि एक बार बुद्ध भगवान् ने भिक्षुओं की सभा में पूछा कि सब से अधिक और सब से पहले किसका आदर होना चाहिए ? इसके उत्तर में कुछ भिक्षुओं ने कहा"जो मनुष्य क्षत्रिय कुल से भिक्षु-संप्रदाय में आया हो, वही अधिक पूजनीय है *" दूसरे भिक्षुओं ने कहा-"जो मनुष्य ब्राह्मण या वैश्य कुल से भिक्षु-संप्रदाय में आया हो, वही अधिक पूजनीय है ।" इस उल्लेख से पता लगता है कि उस समय समाज में ऊँच और नीच का भाव फैला हुआ था; यहाँ तक कि संसार से विरक्त भिक्षु लोग भी इस भाव से रहित न थे ।
समान वर्ण में विवाह सम्बन्ध-जातक कथाओं से पता लगता है कि उस समय विवाह-सम्बन्ध आम तौर पर समान वर्ण में होता था। लोग इस बात का बड़ा ध्यान रखते थे कि समान जाति या पेशे के लोगों में विवाह-सम्बन्ध किया जाय, जिसमें रुधिर की पवित्रता बनी रहे । जब माता-पिता अपने पुत्र का विवाह करना चाहते थे, तब वे अपने ही वर्ण की कन्या ढूँढते थे; या अपने पुत्र को यह सलाह देते थे-"समान जाति की कन्या का पाणिग्रहण करो" (एकं समजातिककुला कुमारिक गराह )। एक जातक-कथा में ब्राह्मण माता-पिता अपने पुत्र से
* “खत्तिय कुला पब्बजितो” ।
+ "ब्राह्मणकुला गहपतिकुला पब्बजितो"। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com