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बौद्ध-कालीन भारत उद्दश्यवाले समूह के अर्थ में व्यवहृत होता था। इससे प्रकट है कि भिन्न भिन्न उद्देश्यों के अनुसार भिन्न भिन्न प्रकार के धार्मिक, सामाजिक या राजनीतिक संघ अथवा गण होते थे।
प्राचीन धार्मिक संघ या गण का सब से अच्छा उदाहरण बौद्धों का भिक्षु-संघ है। यह समझना ठीक नहीं है कि पहले पहल बुद्ध ही ने अपने भिक्षु-संप्रदाय के लिये "संघ" शब्द का उपयोग किया । प्राचीन बौद्ध ग्रंथों से ही पता लगता है कि बुद्ध के समकालीन पूरण-कस्सप, मक्खलि-गोसाल आदि कम से कम सात बड़े बड़े धार्मिक आचार्य हो गये हैं, जो "संघिनो" ( संघ के अगुआ) "गरिमनो” (गण के अगुआ ) और "गणाचरिया" (गणाचार्य या मणों के आचार्य) कहलाते थे । इससे यह भी पता लगता है कि केवल बुद्ध का ही धार्मिक संप्रदाय "संघ" नहीं कहलाता था, बल्कि उनके समय में ही कम से कम सात ऐसे धार्मिक समूह थे, जो "संघ" या "गण" कहलाते थे। ये सब "संधिनः" और "गणिनः" (अर्थात् संघ और गण के अगुआ) "समण-ब्राह्मण" (श्रमण ब्राह्मणाः) कहे गये हैं, जिसका अर्थ यह है कि कुछ संघ श्रमण अथवा बौद्ध धर्मावलंबी थे और कुछ ब्राह्मण-धर्मावलंबी। इससे स्पष्ट है कि ब्राह्मणों के संप्रदाय भी "संघ"या “गण" कहलाते थे। ऊपर छठे अध्याय में बौद्ध संघ का विस्तार-पूर्वक वर्णन किया जा चुका है।
व्यापारिक संघ-बौद्ध काल में बहुत से संघ ऐसे भी थे, जो व्यापार और व्यवसाय के उद्देश्य से बनाये जाते थे। इस बरह
* महापरिनिब्बान सुच; ५८. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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