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राजनीतिक विचार कोई अधिकार नहीं है; मैं उसका स्वामो और प्रभु नहीं हूँ। मेरा अधिकार सिर्फ उन लोगों पर है, जो विद्रोह या अनुचित काय करते हैं। अतएव मैं तुम्हें अपने राज्य का अधिकार नहीं दे सकता। हाँ, अपने महल पर मेरा अधिकार है। वह मैं तुम्हें देता हूँ।"
इससे प्रकट है कि प्राचीन काल में, और कम से कम वौद्ध काल में, राजा की शक्ति निरंकुश न रहती थी; अर्थात् वह अपनी स्वतंत्र इच्छा के अनुसार कोई काम नहीं कर सकता था । उसका अधिकार केवल प्रजा की रक्षा करना, अराजकता या विद्रोह को दबाना और अपराधियों को दण्ड देना था। इससे अधिक वह कुछ न कर सकता था।
प्रजातन्त्र राज्य प्रणालो-हम ऊपर लिख आये हैं कि प्राचीन बौद्ध काल में उत्तरी भारत में एक-तंत्र राज्यों के साथ साथ बहुत से प्रजातंत्र राज्य भी फैले हुए थे। प्राचीन भारत के प्रजातंत्र राज्य संघ अथवा गण-राज्य कहलाते थे। मनुष्यों का वह समुदाय या समूह, जिसका कोई निश्चित उद्देश्य या अर्थ हो “संघ" या "गण" कहलाता है । ई० पू० सातवीं शताब्दी में पाणिनि ने “संघ" और "गण" दोनों शब्दों का व्यवहार किया है। पाणिनि का एक सूत्र "संघौद्धौ गणप्रशंसयोः” है। इसका अर्थ यह है कि सं पूर्वक हन् धातु से "संघ" तभी बनता है, जब उसका अर्थ गण या विशेष प्रकार का समूह हो । अन्यथा साधारण समूह के अर्थ में सं पूर्वक हन् धातु से “संघात" शब्द . बनता है । अतएव सिद्ध होता है कि पाणिनि के समय में और
उसके बाद बौद्ध काल में भी "संघ" या "गण" शब्द साधारण समूह के अर्थ में नहीं, बल्कि एक विशेष प्रकार के तथा निश्चित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com