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राजनीतिक विचार शिक्षा दी है कि राजा को काम, क्रोध, लोभ और मोह से रहित होकर प्रजा का पालन करना चाहिए। ऐसे कई राजाओं के उदाहरण मिलते हैं, जो प्रजा पर अत्याचार करने के कारण कुल-परिवार सहित उस की कोपानि में पड़कर नष्ट हो गये ।
राजा पर अंकुश या दबाव-पर हिन्दू अर्थशास्त्र या राजनीति शास्त्र के अनुसार राजा अपने काम में पूर्ण निरंकुश न था । हमारी प्राचीन राजनीति के अनुसार राजा अपनी प्रजा का सेवक समझा जाता था। धान्य का जो छठा भाग या पण्य (क्रयविक्रय की वस्तुओं) का जो दसवाँ भाग उसे दिया जाता था, उसे वह प्रजा की सेवा करने के बदले में भृति (वेतन) के रूप में पाता था । यह मत केवल कौटिल्य और महाभारत (शान्तिपर्व) का ही नहीं है, बल्कि धर्मशास्त्रों का भी है। बौधायन, जो ईसवी पाँचवीं शताब्दी में हुए हैं, कहते हैं—“षङ्भाग-भृतो राजा रक्षेत् प्रजाम्" * अर्थात् “वेतन के तौर पर धान्य का छठा भाग पाकर राजा अपनी प्रजा की रक्षा करे"। महाभारत (शान्ति पर्व, अध्याय ७१, श्लोक १०) में लिखा है कि राजा को कर के रूप में जो कुछ, मिलता है, वह उसका वेतन है, जिसके बदले में वह प्रजा की रक्षा करता है । उसमें (अध्याय ७५, श्लोक १०) यहाँ तक कहा गया है कि राजा यदि अपनी प्रजा का धन, जो चोरों ने चुरा लिया हो, न दिला सके, तो उसे चाहिए कि वह अपने खजाने से वह नुकसान भर दे। ऐसा ही नियम कौटिल्य ने भी राजाओं के लिये बनाया है-“यदि राजा चोरों से चुराया हुआ धन उसके मालिक को न दिला सके, तो उसे चाहिए कि वह उसके बदले में
* बौधायन धर्मसूत्र; १-१०-१. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com