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धान-कालीन भारत
१९६ हुआ था, वह सब नष्ट हो रहा है। अतः वह काम कीजिए, 'जिसमें हम लोगों का कल्याण हो।" इस पर ब्रह्मा ने एक लाख अध्यायों का एक शास्त्र बनाया जिसमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का वर्णन था। उस शास्त्र को लेकर देवता लोग विष्णु भगवान् के पास गये और बोले- "हे भगवन् , जो सम्पूर्ण प्रालियों पर प्रभुता कर सके, ऐसे किसी पुरुष को श्राप नियुक्त कीजिए।" तब विष्णु भगवान् ने अपने तेज से "विरजस्" नामक मानस'पुत्र उत्पन्न किया । इस विरजस् की छठी पीढ़ी में जो पुत्र उत्पन्न हुआ, वह राज्याभिषिक्त किया गया । ब्रह्मा ने जो दण्ड-नीति बनाई थी, उसके अनुसार वह राज्य करने लगा। उसका नाम "पृथु" रक्खा गया। उसका राज्याभिषेक स्वयं ब्रह्मा और विष्णु ने किया था । स्वयं विष्णु ने अपने तप के प्रभाव से उस भूपति के शरीर में प्रवेश किया था। इसी कारण अखिल संसार उस की आज्ञा के अनुसार चलने लगा। "देव" और "नरदेव" (राजा) में कोई भेद न रहा । तभी से राजा लोग विष्णु के अंश माने और "नरदेव" (नर के रूप में देवता ) कहे जाते हैं।
पर अच्छे और बुरे सभी राजा “नरदेव" नहीं कहलाते थे। जो राजा धर्म के अनुसार प्रजा का पालन करते थे, वही "नरदेव" की पदवी पाते थे। जो राजा अपनी प्रजा को कष्ट देते थे, वे "नर-पिशाच" कहलाते थे। शुक्रनीति (१-७०) में लिखा है"जो राजा धार्मिक है, वह देवताओं का अंश-रूप है; और जो इसके विपरीत है, वह नर के रूप में पिशाच है।" प्राचीन भारत के अर्थशास्त्रकारों ने कहीं राजा के अत्याचार और व्यभिचार की उपेक्षा या समर्थन नहीं किया है। बल्कि उन्होंने सदा यही
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