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राजनीतिक विचार
होकर राजा अपनी प्रजा के योग और क्षेम की रक्षा करता है
और उनके पापों को दूर करता है । वन में रहनेवाले तपस्वी भी यह समझकर कि यह हमारी रक्षा करता है, अतएव इसके बदले में इसे कुछ देना चाहिए, राजा को उस धान्य का छठा भाग कर के तौर पर देते हैं, जिसे वे एक एक दाना करके बिनते हैं।" __ महाभारत के शान्ति पर्व, अध्याय ६७ में इस सामाजिक या राजा-प्रजा के पट्ट के बारे में इस प्रकार लिखा है
“पूर्व समय में अराजकता होने से लोग एक दूसरे को पीड़ा पहुँचा रहे थे। बलवानों से निर्बलों की रक्षा का कोई उपाय न था। तब सब लोग इकट्ठे हुए और कुछ नियम बनाकर ब्रह्मा के पास गये और बोले-'हे भगवन् , हम लोगों में कोई राजा नहीं है, इससे हम सब नष्ट हो रहे हैं। हम लोगों के लिये कृपाकर एक राजा नियुक्त कीजिए, जो हमारी रक्षा करे और जिसकी हम सब लोग पूजा करें।' यह सुनकर ब्रह्मा ने मनु को उनके राजा होने की आज्ञा दी। पर मनु ने ब्रह्मा का प्रस्ताव स्वीकृत नहीं किया और कहा-'पाप-पूरित कर्म का आचरण करते हुए मुझे बहुत भय होता है। विशेषतः मिथ्यात्व-युक्त मनुष्यों पर राज्य करना अत्यन्त कठिन है ।' प्रजा ने मनु के ऐसे वचन सुनकर कहा-'आप मत डरिए । जो लोग पाप करेंगे, वही उसके फल के भागी होंगे। हम लोग आपके कोष की वृद्धि के लिये अपने पशु और सुवर्ण का पचासवाँ भाग और अपने धान्य का दसवाँ 'भाग आपको देंगे।' इसके बाद मनु ने प्रजा का यह 'समय'
* अर्थशास; पृ० २२-२३. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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