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बौद्ध-कालीन भारत
१८४ नागरक रहता था। प्रान्त की तरह प्रत्येक नगर कई भागों में विभक्त रहता था। प्रत्येक भाग एक "स्थानिक" के अधीन रहता था, जिसके नीचे कई “गोप" होते थे । प्रत्येक "गोप" दस, बीस या चालीस घरों का हिसाब रखता था। गोप केवल प्रत्येक घर के स्त्री-पुरुषों की जाति, गोत्र, नाम, काम आदि का ही लेखा नहीं रखते थे, बल्कि उनके आय-व्यय का भी पता लगाते थे। धर्मशालाओं के अधिकारियों को और प्रत्येक गृहस्थ को भी अपने यहाँ आने जानेवाले अतिथियों की सूचना "स्थानिक" को देनी पड़ती थी। जो इस नियम का पालन नहीं करता था, वह दण्ड का भागी होता था। वन, उपवन, देवालय, तीर्थस्थान, धर्मशाला, राजपथ, श्मशान, चरागाह आदि का लेखा भी इसी विभाग को रखना पड़ता था।
आय-व्यय विभाग-राज्य के सभी काम राजकोष पर निर्भर रहते हैं; इसलिये कर लगाना राजा के लिये परम आवश्यक होता है। अर्थशास्त्र में मौर्य साम्राज्य की आय के निम्नलिखित द्वार दिये गये हैं-(१) राजधानी, (२) प्रान्त और ग्राम, (३) खाने, (४) सरकारी बाग, (५) जंगल, (६) जानवर और चरागाह तथा (७) वणिक्पथ *।
(१) राजधानी से निम्नलिखित मदोंसे आय होती थी-सूती कपड़े, तेल, नमक, शराब आदि पर कर; वेश्याओं, व्यापारियों और मंदिरों पर कर; नगर के फाटक पर वसूल किये हुए कर; और जूए पर कर इत्यादि ।
• क टिलीय अर्थशास्त्र; अधि० २, अध्या० ६. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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