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संघ का इतिहास सार तै होता था। संघ का साधारण कार्य चलाने के लिये संघ की ओर से कुछ भिक्षु नियुक्त थे । ऐसे पदाधिकारियों की संख्या संघ के भिक्षुओं की संख्या के अनुसार भिन्न भिन्न होती थी; पर निम्नलिखित पदाधिकारी प्रायः प्रत्येक संघ में रहते थे-(१) "भक्तोद्देशक"-जो भिक्षुओं को भोजन बॉटता था; (२) “भण्डागारिक"-जो भण्डार का प्रबन्ध करता था; (३) “शयनासनवारिक"-जो भिक्षुओं के सोने और रहने का प्रबन्ध करता था; (४) "चीवर प्रतिग्राहक"-जो भिक्षुओं के लिये वस्त्रों का प्रबन्ध करता था; (५) चीवरभाजक"-जो भिक्षुओं को वस्त्र बाँटता था; (६) “पात्रग्राहापक" जो भिक्षुओं को भिक्षा-पात्र बाँटता था; (७) "आरामिक प्रेक्षक"-जो मालियों का निरीक्षण करता था; और (८) “पानीयवारिक"-जो पीने के लिये पानी का प्रबन्ध करता था * । किसी किसी संघ में "नवकर्मिक" नाम का एक और पदाधिकारी रहता था, जिसका काम नई इमारतें बनवाना और पुरानी इमारतों की देखभाल करना होता था ।
प्रत्येक संघ में जितने भिक्षु होते थे, उन सब के अधिकार बराबर होते थे। हाँ, वृद्ध और विद्वान् भिक्षुओं का उनकी विद्वत्ता
और वृद्धावस्था के कारण अधिक आदर होता था । भिक्षुओं में अवस्था और विद्या के अनुसार थेर (स्थविर) तथा दहर, उपाध्याय तथा सार्धविहारी, आचार्य तथा अन्तेवासी होते थे। पर उनमें भी आपस में और किसी तरह का भेद-भाव न था।
भिक्षुनियों का संघ बिलकुल अलग ही था । भिक्षुनियों के
* इन सब पदाधिकारियों के नाम “चुल्लवग्ग" (४-४ और ६-२१) में दिये हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com