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बौद्ध-कालीन भारत
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लिये भी वही सब नियम थे, जो भिक्षुओं के लिये थे । आम तौर पर भिक्षुनिओं का संघ भिक्षुओं के संघ के अधीन रहता था। वौद्ध ग्रन्थों में भिक्षुनिओं का दरजा भिक्षुओं से नीचा रक्खा गया है; क्योंकि बुद्ध भगवान का यह मत था कि स्त्रियों का प्रवेश होने से बौद्ध संघ की पवित्रता कदाचित् जाती रहेगी। इस हानि से बचने के लिये बहुत से नियम और उपनियम बनाये गये थे। पर सिद्धांतों में भिक्षु-संघ और भिक्षुनी-संघ में कोई भेद न था। भिक्षुनी-संघ के विषय में सब बातें "चुल्लवग्ग" में विस्तार के साथ लिखी हैं।
ऊपर बौद्ध संघ का जो वर्णन दिया गया है, उससे तीन बातें सिद्ध होती हैं । एक तो यह कि बौद्ध काल में सहयोग का प्रचार बहुत अधिक था। संघ शब्द ही सहयोग का सूचक है। इसी सहयोग के भाव की बदौलत बौद्ध धर्म इतनी उन्नति कर सका था। दूसरी बात यह सिद्ध होती है कि बौद्ध काल में बहुमत का बड़ा आदर था। बहुमत से जो बात तै हो जाती थी, वही सर्वमान्य होती थी। तीसरी बात जो सिद्ध होती है, वह यह है कि बौद्ध काल में ऊँच नीच का भेद बहुत कम था। ब्राह्मण की भाँति शूद भी संघ में प्रवेश कर सकता था; और अपनी योग्यता तथा चरित्र से उच्च से उच्च प्रतिष्ठा का अधिकारी हो सकता था। यही तीन बातें ऐसी हैं, जिनके कारण बौद्ध काल का इतिहास. भारतवर्ष के इतिहास में सदा अमर रहेगा।
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