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बौद्ध-कालीन भारत
१६० का कर्त्तव्य था। इस विभाग के अधिकारी बड़ी सावधानी से इस बात का निरीक्षण करते थे कि बनिये तथा व्यापारी राजमुद्रांकित बटखरों और मापों का प्रयोग करते हैं या नहीं। प्रत्येक व्यापारी को व्यापार करने के लिये राज्य से परवाना या लाइसेन्स लेना पड़ता था और इसके लिये उसे एक प्रकार का कर भी देना पड़ता था। एक से अधिक प्रकार के व्यापार करने के लिये व्यापारी को दूना कर देना पड़ता था ।
पंचम विभाग कारखानों और उनमें बनी हुई वस्तुओं की देखभाल करता था। पुरानी और नई वस्तुएँ अलग अलग रखने की आज्ञा थी। राजाज्ञा के बिना पुरानी वस्तुएँ बेचना नियम के विरुद्ध और दण्डनीय समझा जाता था ।
षष्ठ विभाग विकी हुई वस्तुओं के मूल्य पर दशमांश कर वसूल करता था। जो कोई कर न देकर इस नियम का भंग करता था, उसे प्राणदण्ड दिया जाता था ।
अपने अपने विभाग के कर्तव्यों के अतिरिक्त सभासदों को एक साथ मिलकर भी नगर के शासन के संबंध में सभी श्रावश्यक कार्य करने पड़ते थे । हाट, बाट, घाट और मन्दिर आदि लोकोपकारी स्थानों का प्रबन्ध भी इन्हीं लोगों के हाथ में था । ___ मालूम होता है कि साम्राज्य के तक्षशिला, उज्जयिनी आदि सभी बड़े बड़े नगरों का शासन इसी विधि से होता था।
• कौटिलीय अर्थशास्त्र; अधि० ४, अध्या० २ और ७.
+ Mc. Criadle's Ancient India; p. 54. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com