________________
बौर-कालीन भारत सुख और आत्मा समझते हैं । इस विषय में पातंजल दर्शन में जो कुछ कहा गया है, वह इस प्रकार हैअनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्य शुचिसुखात्मख्यातिरविद्या । (२.५.)
अर्थात् अनित्य को नित्य, दुःख को सुख और अनात्मा को आत्मा समझनेवाली बुद्धि ही अविद्या है।
(६) बुद्धदेव ने सब दुःखों का मूल अविद्या को ही माना है। यह भी प्रायः सभी दर्शनों और विशेषतः वेदान्त की मूल बात है।
(७) बुद्धदेव ने तृष्णा के नष्ट होने को ही निर्वाण कहा है । यह भी नई बात नहीं है। उपनिषदों में यह बात कई स्थानों पर लिखी गई है। प्रमाण स्वरूप दो एक उदाहरण दिये जाते हैं
यदा सर्व प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदिस्थिताः । अथ मोऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ॥
(बृहदारण्यक, ४. ४०.) अर्थात् जब मनुष्य के हृदय की सब कामनाएँ दूर हो जाती हैं, तभी वह अमर होकर ब्रह्म को प्राप्त होता है। गीता में भी कहा है
विहाय कामान् यः सर्वान् पुमांश्चरति निःस्पृहः । निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥
(गीता, २.७१.) अर्थात् जो पुरुष सब कामनाओं को छोड़कर और निःस्पृह होकर व्यवहार करता है और जिसे ममत्व तथा अहंकार नहीं होता, उसी को शांति मिलती है।
(८) बुद्धदेव ने हिंसात्मक वैदिक याग-यज्ञों का भी खण्डन किया है । वेदों का प्रामाण्य भी उन्होंने स्वीकृत नहीं किया । पर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com