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संघ का इतिहास बुद्ध ने यह नियम बताया था-“हे भिक्षुओ, उपाध्याय को चाहिए कि वह “सद्धिविहारिक" या शिष्य को अपने पुत्र की तरह समझे; और सद्धिविहारिक को भी चाहिए कि वह उपाध्याय को अपने पिता की तरह माने। इस तरह दोनों एक दूसरे का श्रादर, विश्वास और सहयोग करते हुए धर्म और विनय की उन्नति करें।"
सद्धिविहारिक अपने उपाध्याय की सेवा दास या भत्य को तरह करता था । वह प्रातःकाल उपाध्याय को कुल्ला दातुन करने के लिये पानी, और तब जलपान देता था। वह उपाध्याय के साथ भिक्षा माँगने के लिये जाता था, उसे पीने के लिये पानी देता था, उसके स्नान के लिये पानी लाता था, उसके वस्त्र सुखाता था
और उसके रहने का स्थान झाड़ता बुहारता था। तात्पर्य यह कि वह उपाध्याय की हर प्रकार से सेवा करता था।
इसी तरह उपाध्याय भी अपने सद्धिविहारिक की आत्मिक और शारीरिक उन्नति का पूरा पूरा ध्यान रखता था । वह उसे शिक्षा देता था, बीमारी में उसकी सेवा टहल करता था और हर प्रकार से उसकी देखभाल रखता था। यदि शिष्य कोई बहुत ही अनुचित कार्य करता था, तो उपाध्याय उसे निकाल देता था; किन्तु क्षमा माँगने पर उसे क्षमा भी कर देता था। यदि उपाध्याय संघ छोड़कर कहीं चला जाता था, या मर जाता था, या गृहस्थाश्रम में लौट जाता था, या किसी दूसरे संप्रदाय का अनुयायी हो जाता था, तो सद्धिविहारिक को अपने लिये दूसरा आचार्य चुनना पड़ता था।
उपाध्याय के साथ दस वर्षों तक इसी तरह रहने के बाद
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