________________
संघ का इतिहास और कन्धों से लेकर जाँघों तक लटकता रहता था। वह कमर में एक डोरी से बाँध लिया जाता था। उपासकों या गृहस्थ बौद्धों के लिये यह बड़े पुण्य का कार्य गिना जाता था कि वे संघ के भिक्षुओं को वस्त्र देकर उनकी आवश्यकता पूरी करें । हर वर्षा ऋतु के अनन्तर प्रत्येक संघ में वस्त्रों का वितरण होता था।
भिक्षुओं के लिये खड़ाऊँ पहनना भोग-विलास समझा जाता था । बौद्ध ग्रन्थों में कई प्रकार के जूतों का पहनना खास तौर पर मना किया गया है । छाता अनावश्यक गिना जाता था । हाँ, पंखा और चौरी काम में लाना मना नहीं था । इन तीन वस्त्रों के सिवा भिक्षुओं की सामग्री एक भिक्षा-पात्र, एक मेखला ( कर्धनी), एक वासि ( उस्तरा ), एक सूची ( सूई ) और एक परिस्रावण ( छन्ना) था । उस्तरा सिर और दादी के बाल बनाने के लिये काम में लाया जाता था। आम तौर पर भिक्षु लोग हर पन्द्रहवें दिन एक दूसरे का मुण्डन कर दिया करते थे ।
वर्षा ऋतु में भिक्षुओं को भ्रमण करने की आज्ञा न थी। वर्षा काल उन्हें एक ही जगह रहकर बिताना पड़ता था। "वर्षावास" या चातुर्मास्य आषाढ़ की पूर्णिमा से प्रारम्भ होकर कार्तिक की पूर्णिमा को समाप्त होता था । यह पता नहीं लगता कि जब बौद्ध संघ का प्रारम्भ हुआ, तब भिक्षु लोग चातुर्मास्य में तथा अन्य ऋतुओं में कहाँ रहते थे। कहा जाता है कि शुरू शुरू में भिक्षुओं के रहने का कोई निश्चित स्थान न था। वे या तो वनों में रहते थे, या पेड़ों के नीचे पड़े रहते थे, या पहाड़ की गुफाओं में रहते थे, या श्मशान में रहते थे, या खुली हवा में रहते थे,
या फूस का ढेर बिछाकर रात काट देते थे। यह देखकर राजShree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com