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बौद्ध-कालीन भारत
१०० एक बड़ी कमी थी, जिसका अनुभव बुद्ध के समय में ही होने लगा था * । इस कमी का परिणाम यह हुआ कि सब संघ अपनी अपनी डफली लेकर अपना अपना राग अलापने लगे थे । कदाचित् इसी कारण पीछे से संध का हास और अधःपतन भी हुआ। बुद्ध के बाद कोई ऐसी संस्था या व्यक्ति न था, जो सब संघों पर अपना दबाव रखता । बुद्ध ने अपना कोई उत्तराधिकारी भी नहीं नियुक्त किया था । हाँ, उन सब में एक बात की समानता थी । वह यह कि संघ के बारे में जो कुछ बुद्ध ने कहा था या जो निमम उन्होंने बनाये थे, उनके विरुद्ध कोई संघ न जा सकता था; और न उन नियमों में कोई परिवर्तन कर सकता था। "महापरिनिब्बानसुत्त" में अपने निर्वाण के समय बुद्ध भगवान् ने अपने प्रिय शिष्य आनन्द से कहा था-"आनन्द, कदाचित् तुममें से कुछ लोग यह सोचें कि भगवान् के निर्वाण के उपरांत हम लोगों को शिक्षा देनेवाला अब कोई न रहेगा। पर ऐसा सोचना ठीक नहीं है। संघ के लिये जो सत्य सिद्धान्त और जो निमय हमने बना दिये हैं, वही तुम्हारे लिये गुरु और आचार्य का काम देंगे।" __ आइये अब यह देखें कि प्रत्येक संघ का प्रबन्ध किस प्रकार होता था। इस सम्बन्ध में ध्यान देने योग्य पहली बात यह है कि संघ का कुल प्रबन्ध सब भिक्षुओं की राय से या बहुमत से होता था । प्रत्येक संघ में एक परिषद् होती थी। उस परिषद् की बैठक कब होनी चाहिए, कैसे होनी चाहिए, किन किन लोगों को उसमें राय देनी चाहिए, और कैसे राय देनी चाहिए, इन सब __ * महावग्ग (१०.१-५.)
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