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संघ का इतिहास चाहते थे और दूसरे वे लोग थे, जिनकी उम्र पंद्रह वर्ष से अधिक और बीस से कम होती थी। जो लोग कोई दूसरा धर्म छोड़कर संघ में भर्ती होना चाहते थे, उन्हें संघ की ओर से यह आज्ञा मिलती थी कि तुम चार मास तक "परिवास" करो; अर्थात् चार महीने तक यहाँ रहकर अपने चाल चलन की परीक्षा दो । यदि वे चार महीने के अन्दर अपने चाल चलन से भिक्षुओं को प्रसन्न न कर सकते थे, तो उनका उपसम्पदा संस्कार नहीं किया जाता था । जो व्यक्ति पंद्रह वर्ष से अधिक, पर बीस वर्ष से कम का होता था, वह केवल “प्रव्रज्या" संस्कार के योग्य समझा जाता था; और "उपसम्पदा" के लिये उसे बीस वर्ष की उम्र तक रुकना पड़ता था। इस बीच में उसे बहुत कड़े नियमों का पालन करके किसी उपाध्याय के अधीन रहना पड़ता था। इस अवस्था में वह "सामणेर", "श्रामणेर" या "श्रमणोद्देश" (जिसका उद्देश्य श्रमण होना हो) कहलाता था । उसे (१) हिंसा न करना, (२) चोरी न करना, (३) झूठ न बोलना, (४) नशा न करना, (५) व्यभिचार न करना, (६) असमय भोजन न करना, (७) सुगन्धि इत्यादि का व्यवहार न करना, (८) खाट या गद्देदार बिछौने पर न सोना, (९) नाचने, गाने और बजाने तीनों से प्रेम न करना, (१०) सोना और चाँदी काम में न लाना, इन दस शीलों का नियमपूर्वक पालन करना पड़ता था। यदि वह पहले पाँच शील या नियम तोड़ता था, या बुद्ध, धर्म और संघ के विरुद्ध कुछ कहता था, या असत्य सिद्धान्तों का पोषण करता था, या भिक्षुणियों के साथ व्यभिचार करता था, तो वह संघ से निकाल दिया जाता था। यदि वह पूर्वोक्त अन्तिम पाँच Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com