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सिद्धान्त और उपदेश
भाहितामिरनस्वांस ब्रह्मचारी व ते प्रयः । अनन्त एवं सिद्यन्ति नैषां सिदिरनभतः ॥ गृहस्थो ब्रह्मचारी वा योऽनभंस्तु तपश्चरेत् ।
प्रणानि होत्रलोपेन अवकीर्णी भवेत्तु सः॥ ये दोनों श्लोक अनशन तपश्चर्या के विरोधी हैं। गीता (६. १६-१७) में भी कहा है
नात्यभतस्तु योगोस्ति न चैकान्तमनभतः । न चाति स्वमशोलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन ॥ युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तरस्वमावबोधस्य योगो भवति दुःखहा। अर्थात् बहुत अधिक खानेवाले या बिलकुल न खानेवाले और खूब सोनेवाले अथवा जागरण करनेवाले को योग सिद्ध नहीं होता । जिसका आहार विहार नियत है, कर्मो का आचरण नपा तुला है और सोना-जागना परिमित है, उसी को योग सुखावह होता है।
यही तो है मध्यम मार्ग। आहारादि अधिक करने और न करने, इन दोनों के मध्य होकर चलना ही योग है । बुद्धदेव की उक्तियों से इन उक्तियों में कुछ भी मित्रता नहीं। अतः कहना पड़ता है कि बुद्धदेव का यह मध्यम मार्ग कोई नई कल्पना नहीं है।
(५) अनित्य, दुःख और अनात्मा ये तीन तत्व बुद्धदेव के प्रकाशित किये हुए कहे जाते हैं। पर यथार्थ में ऐसा नहीं है। बुद्धदेव के बहुत पहले ही वे दर्शन शास्त्रों में आलोचित हो चुके हैं। प्रायः सभी दर्शनों में यह जगत्प्रपंच अनित्य, दुःख और अनात्मा कहा गया है । जो अविद्या से ग्रस्त हैं, वही इसको नित्य, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com