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बौद्ध-कालोन भारत
थे, वे सब उसे प्राप्त होते थे। प्रारम्भ में बुद्ध के समय जो लोग संघ में भर्ती होना चाहते थे, वे बुद्ध के पास जाते थे; और बुद्ध भगवान् स्वयं उनका प्रव्रज्या और उपसम्पदा दोनों संस्कार करते थे। सब से पहले जिन लोगों ने बुद्ध के हाथों प्रव्रज्या और उपसम्पदा प्रहण की, वे पाँच भिक्षु थे, जो पहले बुद्ध का साथ छोड़कर काशी चले गये थे। पर जब संघ बढ़ा और लोग अधिक संख्या में भिक्षु बनने लगे, तब बुद्ध भगवान् ने अपने शिष्यों को भी प्रव्रज्या और उपसम्पदा देने का अधिकार दे दिया। जो व्यक्ति उपसम्पदा ग्रहण करने के लिये आता था, पहले उसका मुण्डन कराया जाता था। मुण्डन के बाद उसे पीत या काषाय वस्त्र धारण करने के लिये दिया जाता था । वस्त्र धारण करके वह भिक्षुओं को प्रणाम करता था और उकडूं होकर बैठ जाता, था। इसके बाद वह कहता था-"अहं बुद्धं शरणं गच्छामि । अहं धर्म शरणं गच्छामि । अहं संघं शरणं गच्छामि ।"
बाद को "उपसंपदा" के लिये एक नई विधि निकाली गई । इस नई विधि के अनुसार जिस “उपज्झाय" (उपाध्याय)से उपसंपदा ग्रहण की जाती थी, उसका दरजा बहुत महत्व का सममा जाता था। जो मनुष्य उपसंपदा ग्रहण करने के लिये उपाध्याय या आचार्य के पास आता था, वह “सद्धिविहारिक" (साविहारिक) या “अन्तेवासिक" कहलाता था । उपसंपदा ग्रहण करने के बाद जिस भिक्षु के दस वर्ष बीत चुकते थे और जो योग्य तथा विद्वान् होता था, वही प्राचार्य हो सकता था। अन्तेवासी अपने उपाध्याय से जिस प्रकार उपसंपदा ग्रहण करता था, उसका क्रम नीचे लिखा जाता है।
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