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सिद्धान्त और उपदेश श्रा जाता है। यद्यपि इस प्राणी या जीव का रूप और स्कन्ध इत्यादि भिन्न होता है, तथापि वास्तव में यह वही प्राणी है, जो 'अभी गत हो गया है; क्योंकि कर्म दोनों का वही है। अत. एव कर्मरूपी श्रृंखला ही एक जन्म को दूसरे जन्म से बाँधती है ।
प्रज्ञा या ज्ञान यज्ञ-" दीघनिकाय ” में राजा महाविजित के यज्ञ का वर्णन करते हुए बुद्धदेव ने कहा है-“हे ब्राह्मण, उस यज्ञ में गोबध नहीं हुआ, छागबध नहीं हुआ, मेषबध नहीं हुआ, कुक्कुटबध नहीं हुआ, शूकरबध नहीं हुश्रा, और अन्य प्राणियों का भी बध नहीं हुआ। इसी तरह यूप के लिये वृक्ष का छेदन नहीं हुआ और आसन के लिये कुशोच्छेदन भी नहीं हुआ। उस स्थान पर भृत्य, सेवक इत्यादि को दण्ड द्वारा ताड़ना नहीं करनी पड़ी। वे लोग रोते रोते काम नहीं करते थे। जो उनकी इच्छा हुई, वह किया; जो इच्छा न हुई, वह न किया । वह यज्ञ वृत, तैल, नवनीत, दही, गुड़ और मधु के द्वारा ही संपन्न हुआ था।"
इस प्रकार बुद्धदेव ने हिंसात्मक यज्ञ की अपेक्षा अहिंसात्मक यज्ञ की श्रेष्ठता का वर्णन करके उत्तरोत्तर दान आदि के रूप में उत्कृष्ट यज्ञों का उल्लेख किया है। अन्त में बुद्ध ने कहा है कि शील, समाधि और प्रज्ञा-यज्ञ ही सब से उत्कृष्ट और महान् फल के देनेवाले यज्ञ हैं। ब्राह्मण कूटदन्त ने यज्ञ करने के लिये बहुत से पशु एकत्र किये थे। भगवान के इस सर्वोत्कृष्ट .यज्ञ की बात सुनकर वह बहुत प्रसन्न हुआ और बोला-"भगवन् , मैंने आपकी शरण ली है। मैं ये सात सौ बैल, सात सौ बछड़े, सात सौ बछियाँ, सात सौ छाग और सात सौ मेष छोड़े Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com