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बौद्ध-कालीन भारत
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निम्नलिखित वाक्य में दिया है--" कम्मस्स कोम्हि कम्मदायादो कम्मयोनि कम्मबन्धु कम्मपरिसरणो, यं कम्मं करिस्सामि कल्याणं वा पापकं वा तस्स दायादो भविस्सामि"। यह वाक्य " अंगुत्तर निकाय " और " नेत्तिपकरण" आदि कई स्थानों में मिलता है। इसका अर्थ यह है—“कर्म ही हमारा निज का है, हम कर्म फल के उत्तराधिकारी हैं, कर्म ही हमारी उत्पत्ति का कारण है, कर्म ही हमारा बन्धु है, कर्म ही हमारा शरण्य है। पुण्य हो या पाप, हम जो कर्म करेंगे, उसके उत्तराधिकारी होंगे; अर्थात् उस का फल हमको भोगना होगा।"
संक्षेप में इस सिद्धान्त का तात्पर्य यह है कि मनुष्य के कर्म का नाश नहीं हो सकता और उसका यथोचित फल अवश्य मिलता है । इस सिद्धान्त के अनुसार मनुष्य के इस जीवन की अवस्था उसके पूर्वजन्म के कर्मों का फल है। बौद्ध ग्रन्थकारों ने एक जन्म से दूसरे जन्म के सम्बन्ध का उदाहरण दीपशिखा से दिया है। जिस तरह एक दीए से दूसरा दीआ जला लिया जाता है, उसी तरह एक जन्म के कर्म से दूसरे जन्म की अवस्था निश्चित होती है। पर अब प्रश्न यह उठता है कि यदि आत्मा ही नहीं है, तो वह कौन सी वस्तु है, जिसे कर्मों का फल भोगना पड़ता है ? इसका उत्तर यह है कि जब मनुष्य मरता है, तब रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार नामक जिन पाँच स्कन्धों या तत्वों से उसका शरीर बना रहता है, वे भी उसके साथ मर जाते हैं। पर उसके कर्मों के प्रभाव से तुरन्त ही नवीन पंचस्कन्धों का प्रादुर्भाव हो जाता है और किसी दूसरे लोक या जगत् में एक नया प्राणी या जीव अस्तित्व में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com