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बौद्ध-कालीन भारत
६४ अर्थात् न भोग-विलास में ही आसक्त रहना चाहिए और न अनिद्रा, अनाहार, तपस्या आदि कठोर कष्ट-साधनाओं के द्वारा आत्मा को क्लेश ही देना चाहिए। इन दोनों के बीच में होकर चलना चाहिए। यही बुद्ध भगवान् का “मध्यम पथ" है ।
अनित्य, दुःख और अनात्मा बुद्ध भगवान के धर्म को एक और प्रसिद्ध तत्व यह है कि उन्होंने समस्त दृश्यमान वस्तुओं को अनित्य, दुःख और अनात्मा (आत्मा-रहित) कहा है। इस विषय में उनका उपदेश इस प्रकार है
बुद्ध-भिक्षुगण, रूप नित्य है या अनित्य ? भिक्षुगण-भगवन् , वह अनित्य है।
बुद्ध-अच्छा; जो अनित्य है, वह दुःख है या सुख; अर्थात् दुःखकर है या सुखकर ?
भिक्षुगण-दुःखकर है ।
बुद्ध-जो अनित्य है, दुःखकर है और स्वभावतः विविध प्रकार से परिवर्तनशील है, उसके सम्बन्ध में क्या यह सोचना युक्तिसंगत है कि “यह हमारा है", "यह हम हैं" और "यह हमारी मात्मा है" ?
भिक्षुगण-नहीं भगवन् , ऐसा सोचना उचित नहीं है। बुद्ध भगवन् ने और भी कहा है
“ भिक्षुगण, रूप अनात्मा है; अर्थात् रूप आत्मा नहीं है। रूप यदि आत्मा होता, तो उससे पीड़ा कदापि न होती। किन्तु
. महावग्ग, १. ६. १७.
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