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बौद्ध-कालोन भारत
श्वेतांबर और दिगंबर संप्रदाय-जैन ग्रंथों से पता लगता है कि महावीर के निर्वाण के दो शताब्दी बाद मगध में बड़ा अकाल पड़ा था। उस सकय मगध में चंद्रगुप्त मौर्य का राज्य था । अकाल के कारण जैन कल्पसूत्र के रचयिता भद्रबाहु, जो उस समय जैन समाज के प्रसिद्ध अगुआ थे, अपने शिष्यों और साथियों को लेकर मगध से कर्नाटक चले गये । बहुत से जैन मगध ही में रह गये थे और उनके नेता स्थूलभद्र थे । जो जैन चले गये थे, वे अकाल दूर होने पर फिर मगध को लौट आये । पर इस बीच में जो लोग कर्नाटक चले गये थे, उनकी
और जो लोग मगध में रह गये थे, उनकी चाल ढाल में बहुत अन्तर न पड़ गया था। मगध के जैने श्वेत वस्त्र पहनने लगे थे; पर कर्नाटकवाले जैन अब तक नग्न रहने की प्राचीन रीति पकड़े हुए थे। इस प्रकार वे दोनों क्रम से श्वेतांबर और दिगंबर कहलाने लगे। कहा जाता है कि ये दोनों संप्रदाय अंतिम बार सन् ७९ या ८२ ईसवी में अलग हुए । जिस समय दिगंबर लोग कर्नाटक में थे, उस समय श्वेतांबरों ने अपने धर्म-ग्रंथों का संग्रह करके उनका निर्णय किया। पर श्वेतांबरों ने जो धर्म-ग्रंथ एकत्र किये थे, उन्हें दिगंबरों ने स्वीकृत नहीं किया। कुछ समय में श्वेतांबरों के धर्म-ग्रंथ तितर बितर हो गये और उनके लुप्त हो जाने का डर हुआ । अतएव वे सन् ४५४ या ४६७ ईसवी में वल्लभी (गुजरात) की सभा में लिपि-बद्ध किये गये। इस सभा में जैन धर्मग्रंथों का उस रूप में संग्रह किया गया, जिस रूप में हम आज उन्हें पाते हैं। इन घटनाओं और कथानकों के अतिरिक्त
मथुरा में बहुत से जैन शिलालेख भी मिले हैं, जिनमें से अधिकतर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com