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बुद्ध की जीवनी
पड़ी थी और उसका एक हाथ बच्चे के सिर पर था। उनके हृदय में बड़ी अभिलाषा उठी कि सब सांसारिक सुखों को छोड़ने के पहले अंतिम बार अपने बच्चे को अपनी गोद में लें; परंतु वे ऐसा करने से रुक गये। यह सोचकर कि कदाचित् बचे की माता जाग जाय और उस प्रियतमा की प्रार्थनाएँ कदाचित् मेरा हृदय हिला दें और मेरे संकल्प में बाधा डाल दें, वे वहाँ से चुपचाप निकल गये । । उसी एक क्षण में, उसी रात्री के अंधकार में उन्होंने सदा के लिये अपने धन, सम्मान और अधिकार, अपनी ऊँची मर्यादा और अपने "राजकुमार" नाम को, और सब से बढ़कर अपनी प्यारी पत्नी की प्रीति और उसकी गोद में सोये हुए सुकुमार बच्चे के स्नेह को तिलांजलि दे दी। आधी रात के समय उन्होंने "छंदक" नामक सेवक से "कंठक" नामक अश्व मँगाकर और उस पर सवार होकर पूर्व दिशा का रास्ता लिया। मार्ग में घने जंगलों, सुनसान मैदानों और अनेक छोटे मोटे नदी-नालों को पार करके वे कोलिय राज्य में पहुंचे
और वहाँ से अनामा नदी के किनारे गये। वहाँ उन्होंने अपने शरीर पर दो एक साधारण वस्त्र रखकर शेष वस्त्राभूषण तथा अश्व छंद्रक को देकर उसे हठ-पूर्वक कपिलवस्पु को वापस भेज दिया। फिर उन्होंने तलवार से अपनी शिखा काट डाली
और आगे चलकर अपने बहुमूल्य वसों के बदले में साधारण वख ले लिये । उन्होंने छंदक के द्वारा अपने पिता को कहला भेजा कि मैं "बुद्ध" पद प्राप्त करके कपिलवस्तु में फिर आपके दर्शन करूँगा। उनके वियोग में शोक-विह्वल राज-परिवार
रो पीटकर इसी वचन के सहारे किसी प्रकार बैठ रहा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com