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तीसरा अध्याय
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास जैन धर्म की स्थापना-ईसा के पूर्व छठी शताब्दी के उत्तर भाग में भारतवर्ष में कई नये नये धर्मों और संप्रदायों का जन्म हुआ था। बौद्ध ग्रंथों से पता लगता है कि बद्ध के समय में प्रायः तिरसठ संप्रदाय ऐसे प्रचलित थे, जिनके सिद्धांत ब्राह्मण धर्म के विरुद्ध थे। जैन साहित्य से तो इससे भी अधिक संप्रदायों का पता लगता है । इनमें से कुछ संप्रदाय कदाचित् बुद्ध के भी पहले से चले आ रहे थे। इन संप्रदायों में से वर्धमान महावीर का स्थापित किया हुआ जैन संप्रदाय भी एक है। बुद्ध की तरह महावीर ने भी वेदों,यज्ञों और ब्राह्मणों की पवित्रता और श्रेष्ठता का खंडन करके अपने धर्म का प्रचार किया था। पर यह एक विचित्र बात है कि बुद्ध की तरह महावीर ने भी भिक्षुओं के नियम तथा उनके जीवन का क्रम ब्राह्मणों के धर्म से हीग्रहण किया। स्मृतियों और धर्म-शास्त्रों में हिंदुओं का जीवन ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और परिव्राजक इन चार आश्रमों में विभक्त है । कौटिलीय अर्थशास्त्र में परिव्राजक के कर्तव्यों का वर्णन इस प्रकार किया है-" इंद्रियों का दमन करना, सांसारिक व्यवहारों को त्यागना, अपने पास धन न रखना, लोगों का संग न करना, भिक्षा'
*कौटिलीय अर्थ शाब, १० ८. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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