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जैन धर्म का इतिहास के संबंध में कोई ग्रंथ नहीं छोड़ गये हैं। जैन ग्रंथों में गोसाल के संबंध में बहुत ही कटु शब्दों का व्यवहार किया गया है। उनमें गोसाल के संबंध में धूर्त, वंचक, दांभिक आदि शब्द कहे गये हैं। इससे पता चलता है कि जैनों और अजीविकों में बहुत गहरा मत-भेद था और इसी मत-भेद के कारण महावीर के प्रभाव को प्रारंभ में बड़ा धक्का पहुँचा। गोसाल का प्रधान स्थान श्रावस्ती में एक कुम्हार की दुकान में था । यह दूकान हालाहला नाम की एक स्त्री के अधिकार में थी। मालूम होता है कि गोसाल ने श्रावस्ती में बड़ी प्रसिद्धि प्राप्त कर ली थी।
बारह वर्षों तक कठोर तप करने के बाद तेरहवें वर्ष महावीर ने वह सर्वोच्च ज्ञान या कैवल्य पद प्राप्त किया, जो दुःख और सुख के बंधन से पूर्ण मोक्ष प्रदान करता है । उसी समय से महावीर स्वामी “जिन" या "अर्हत" कहलाने लगे। उस समय उनकी आयु ४२ वर्ष की थी। तभी से उन्होंने अपने धर्म का प्रचार प्रारंभ किया और “निग्रंथ" नाम का एक संप्रदाय स्थापित किया ।
आजकल “निग्रंथ” (बंधन-रहित) के स्थान पर “जैन" (जिन के शिष्य) शब्द का व्यवहार होता है । महावीर स्वामी स्वयं “निर्ग्रथ" भिक्षु और “ज्ञात" वंश के थे; इससे उनके विरोधी बौद्ध लोग उन्हें “निग्रंथ ज्ञात्पुत्र" कहा करते थे। महावीर स्वामी ने तीस वर्षों तक अपने धर्म का प्रचार करते हुए और दूसरे धर्मवालों को अपने धर्म में लाते हुए चारों ओर भ्रमण किया। वे विशेष करके मगध और अंग के राज्यों में, अर्थात् उत्तरी और दक्षिणी बिहार में, घूमते हुए वहाँ के सभी बड़े बड़े नगरों में गये । वे अधिकतर चंपा, मिथिला, श्रावस्ती, वैशाली या राजगृह में रहते थे । वे
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