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बौद्ध-कालीन भारत
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हिलने लगी । इन परिव्राजकों ने धीरे धीरे नये विचारों का बीज बोने के लिये क्षेत्र तैयार कर दिया था। पर अभी बीज बोनेवाले की कमी थी; और लोग उसी की प्रतीक्षा कर रहे थे ।
बुद्ध-जन्म के पहले प्राचीन उपनिषद् भी लिखे जा चुके थे। उपनिषदों के बनानेवालों ने यह विचारने का प्रयत्न किया था कि सब जीवित तथा निर्जीव वस्तुएँ एक ही सर्वव्यापी ईश्वर से उत्पन्न हुई हैं और वे सब एक ही सर्वव्यापी आत्मा के अंश हैं । इन उपनिषदों में कर्म की अपेक्षा ज्ञान की प्रधानता दिखाई गई थी। उनमें ज्ञान के द्वारा अज्ञान का नाश और मोह से निवृत्ति बतलाई गई थी। उनमें पुनर्जन्म का भी अनुमान किया गया था । अज्ञान, जीव के सुख-दुःख के कारण, परमात्मा की सत्ता और
आत्मा-परमात्मा का संबंध आदि सब विषयों पर बहुत ही बुद्धिमत्ता के साथ गूढ़ विचार किया गया था। धीरे धीरे उपनिषदों का अनुशीलन करनेवालों की संख्या बढ़ने लगी। उनमें प्रतिपादित विचारों का अध्ययन और मनन होने लगा। किसी ने उपनिषदों में अद्वैत वाद पाया, तो किसी ने उनमें से विशिष्टाद्वैत निकाला। इसी तरह अनेक प्रकार के मत-मतांतर हो गये और भिन्न भिन्न शाखों का प्रादुर्भाव हुआ। वर्तमान षड्दर्शन उस समय के आचार्यों की व्याख्याएँ हैं । जिन बहुत सी व्याख्याओं में परस्पर अधिक विरोध न था, उनमें से बहुतों का नाश हो गया । कहा जाता है कि पहले कम से कम ७८ प्रकार के दार्शनिक संप्रदाय थे; पर मुख्य यही छः थे । भिन्न भिन्न आचार्य सृष्टि के रहस्य का पृथक् पृथक् रूप के उद्घाटन करते थे । पर इन सब से प्रबल दो तरह के सिद्धान्त थे। एक सिद्धान्त सांख्य का था, जो आत्मा और
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