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आगम के अनमोल रत्न
से स्वप्न का फल सुनकर मरुदेवी बड़ी खुश हुई और यत्नपूर्वक गर्भ का पालन करने लगी।
इस तरह नौमास और साढ़े आठ दिन बीतने पर चैत्र मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी की अद्ध रात्रि में उत्तराषाढा नक्षत्र का चन्द्र के साथ योग होने पर महारानी मरुदेवी ने त्रिलोक्पूज्य पुत्र को जन्म दिया । साथ में एक कन्या का भी जन्म हुआ। पुत्र का जन्म होते ही आकाश निर्मल हो गया । दिशाएँ स्वच्छ और दिव्य प्रकाश से आलोकित हो उठीं । शीतल मन्द-मन्द सुगन्धित वायु बहने लंगी । वादल सुगन्धित जल बरसाने लगे। उस समय क्षणमात्र के लिए नरकवासियों को भी ऐसा अपूर्व सुख और आनन्द का अनुभव हुआ जैसा पहले कभी नहीं हुआ था। - भगवान के जन्म से अधोलोकवासिनी आठ दिशाकुमारियों के आसन चलायमान हुए। वे तत्काल अपने विशाल परिवार के साथ भगवान के जन्मस्थान पर आई और बालतीर्थकर तथा उसकी माता को तीन वार प्रदक्षिणा करके वन्दना की और अपना परिचय देती. हुई वोली- हे जगज्जननी ! हे विश्वोत्तम लोक-दोपक महापुरुषः को जन्म देने वाली महामाता ! हम अधोलोकवासिनी आठ दिशाकुमारियाँ भगवान का जन्मोत्सव करने के लिए यहाँ आई हैं। आप हमें देख कर भयभीत न होवें । इसके बाद उन अधोलोकवासिनी · दिशाकुमारिकाओं ने संवर्तक वायु चलाकर आसपास एक योजन भूमि साफ की और एक विशाल सूतिकागृह का निर्माण किया । . इसके बाद मेरु पर्वत पर रहने वाली आठ दिशाकुमारिकाएँ आई। उन्होंने सुगन्धित जल वर्षाकर उस जगह की धूल शान्त की।
मेरु पर्वतपर रहनेवाली ऊर्ध्वलोकवासिनी आठ दिशाकुमारियाँ भी भाई । उन्होंने पाँच वर्ण के पुष्पों की वृष्टि की । इसी प्रकार