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आगम आगम
नमो नमो निम्मलदं
पूज्य आनंद-क्षमा ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नमःाम्
सवृत्तिक- आगम-सुत्ताणि
आगम
:
आग
भाग
23
आगम १८
“जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति” मूलं एवं वृत्तिः [१]
~1~
आगम आगम आगम आगम आगम आगम आगम मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
आगम
14-T
अभिनव संकलनकर्ता
आगम
ABUDHT
म आजम पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से 'वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था' पालिताणा
आगम
भागम
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ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
श्री आगम मंदिर
पालिताणा
SOFIEO
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नमो नमो निम्मलदसणस्स
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
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मूल संशोधक
अभिनव-संकलनकर्ता
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज
आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरनसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
प्रत-प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका
मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 982559885519825306275
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ਵਾਸ਼ ਉਸ ਨੂੰ
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आगम
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[भाग-२३] श्री जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति (उपांगसूत्रम्-७१)
नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं वृत्ति:
[मूलं एवं शांतिचंद्र विहिता वृत्तिः ] '
[आद्य संपादकश्री] पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा.
(किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि)
28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५
'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग-१८
श्री आगमोद्धारक-वाचना-शताब्दी-वर्ष-निमित्त 'आगम-वृत्ति-मुद्रण-प्रोजेक्ट'
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सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र-मेधावी, समाधिमृत्यु-प्राप्त, बहुमुखीप्रतिभाधारक पज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसरीश्वरजी महाराज साहेब |
.जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक् श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक : | अभ्यंतर-तप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फ़िर भी । गरुभक्ति बद्धि से श्रद्धांजली स्वरुप एक मामली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है।
.चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ कर्मो का प्रभाव मानकर अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज
एकासणा तप के साथ बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, । प्राचीन लिपिओ का, व्याकरण-न्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए।
.एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े | देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हए सिर्फ अकेले ही "जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक
हस्तप्रतो से शुद्ध-पाठ तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और निर्यक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया : || फिर पालीताणामें आगम मंदिर बनवाकर आरस-पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा, सूरतमें तामपत्र पर भी अंकित करवाए और । : "आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ |
.सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति, अवचूरी, संस्कृत-छाया आदि का | • भी संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत नए ग्रंथो की रचना भी की | कितने ही ग्रंथो : की प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक्-श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की। |
.ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक-दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं। को प्रतिबोध कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन-प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे | सत्य-पक्षमें अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था |
. सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ८७० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये | ...ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी"...
......मुनि दीपरत्नसागर... - .. - .. - .. - .. - .. - ..
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संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र-मार्ग-रागी, प्रवचन-पटु, सुपरिवार-युक्त पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब
... परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक । | पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये | फ़िर क्या । शिष्यो कि संख्या बढ़ती चली, बढ़ते हुए पुन्य के • साथ-साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान-तप' की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापन्य के कारण उन के उपदेश-प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्य-परिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे। ... ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेल दिखाए | एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवनमें देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष)दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि : आराधना कभी नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम-आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही | रटण बारबार चालु हो गया- “अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनु शरण' इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे : | समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना |
... मुनि दीपरत्नसागर.... ... श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था, पालिताणा ... पूज्यपाद आनंदसागर-सूरीश्वरजी की बौद्धिक-प्रतिभा का मूर्तिमंत स्वरुप ऐसी इस संस्था की स्थापना विक्रम संवत १९९९ मे महा-वद ५ को हुइ । पूज्य आचार्य हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से जिन की तरफ़ से इस सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि के लिए संपूर्ण द्रव्य-सहाय की प्राप्ति हुइ । शिल्प-स्थापत्य, शिलोत्कीर्ण आगम और समवसरण स्थित नयनरम्य ४५ चौमुख जिन-प्रतिमाजी से सुशोभित ऐसा ये 'आगममंदिर' है, जो शत्रुजय-गिरिराज कि तलेटीमे स्थित है | वर्तमान २४ जिनवर, २० विहरमान जिनवर और १ शाश्वत मिलाकर ४५ चौमुखजी यहा बिराजमान है | जहां : |४० समवसरण की रचना मेरु पर्वत के तिनो काण्ड के वर्षों के अनुसार चार अलग-अलग रंगो के आरस-पत्थर से बना है, देवो द्वारा रचित समवसरण | : के शास्त्र वर्णन-अनुसार आगम-मंदिर कि समवसरण का स्थापत्य है | ऐसी अनेक विशेषता से युक्त ये आगममंदिर है।
*मुनि दीपरत्नसागर...
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____ 'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ-उद्धार-कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ४० के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादाता पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब
पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर-सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये "सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि" के मुद्रण के लिए संपूर्ण द्रव्यराशि प्राप्त हुई, उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे| समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीन-अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं | समय मिलने पर शास्त्र-वांचनमें भी रूचि रखते है | समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर
का वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे-छोटे कार्यों के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के | पुराने जिनालयो में १८ अभिषेक की प्रेरणा की, उस वक्त लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हुए अपनी मेधावी बुद्धि का : परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से पुजारी या विधि करानेवाले को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हुए कुछ धन-राशि प्रदान करवाई | ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर-सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है।
- मुनि दीपरत्नसागर
[कात्रजपूना, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यासु, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर-सूरीश्वरजी महाराज साहेब
(एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय-रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र
परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब
इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ :-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार -,------------------------
----------- मूलं [-1 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रेष्ठि देवचन्द्र लालभाई-जैनपुस्तकोद्धारे-पन्थाङ्कः ५२. श्रीमद्धीरविजयसूरीश्वरशिष्योत्तमश्रीमच्छान्तिचन्द्रविहितवृत्तियुतं श्रीमज्जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः।
(पूर्वभागः.) प्रसिद्धिकर्ता-श्रेष्ठि नगीनभाई घेलाभाई जढेरी, अस्यैकः कार्यवाहकः । इदं पुस्तकं.मोहमयां शाह नगीनभाई घेलाभाई जव्हेरी बाजार इत्यनेन निर्णयसागरमुद्रणागारे कोलभाटवीध्या २३ तमे निलये रामचंद्र येसू शेडगेद्वारा मुद्रयित्वा प्रकाशितम् ।
श्रीवीरसंवत् २४४६. विक्रमसंवत् १९७६. काइष्टसन् १९२०. प्रथमसंस्कारे प्रतयः १०.०] वेतनम् १०४-०-० [Ra4-0-0]
जम्बूदवीप-प्रज्ञप्ति (उपांग)सूत्रस्य मूल “टाइटल पेज"
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मूलाड़का: १७८+१३१
जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति (उपांग) सूत्रस्य विषयानुक्रम
दीप-अनुक्रमा: ३६५
मलाक:
विषयः
पृष्ठाक:
मूलाक:
विषय:
पष्ठाक:
००१
२
मूलाक:
विषय: विषयः
| पृष्ठांक: ०५४ वक्षस्कार: ३
भरतनाम्नस्य हेत्, विनीतानगरी भरतचक्रवर्ती-वक्तव्यता, चक्ररत्नस्य उत्पत्ति,षटखंडयात्रा मागध-प्रभास-वरदानानां कथनं | चतुर्दश-रत्नानि, रत्नानाम् कार्य |-एवं उत्पतिस्थानानि | भरतचक्रवर्त्या: निधय:, देवा:
राजानः, सेना:, ग्रामाय: - | इत्यादि वर्णन
| वक्षस्कार: जंबुद्वीपस्य प्रमाण, संस्थान, स्वरुप, जगति, गवाक्ष. पद्मवरवेदिका, वनखंड, विजयद्वार एवं राजधानी, भरतक्षेत्रस्य स्थान, प्रमाण, विभाग, दक्षिणार्धभरत वैताद्यपर्वत, सिद्धायतनवर्णन उत्तरार्धभरत.
वक्षस्कार: ५ जिनजन्माभिषेकस्य वर्णनं, दिक्कुमार्याणां वक्तव्यता, इन्द्राणां आगमनम्, पण्डकवनं -एवं अभिषेकशीला, सुघोषाघंटा
वक्षस्कार:६ २४५ | जम्बूदवीपगता पदार्थाः,
जम्बूद्वीपे स्थिता: वर्षक्षेत्राः, - -पर्वता:, कूटा:, तीर्थानि, गुफ़ा;, द्रहाः, नद्य: आदि वक्तव्यता
०२२
१८९
१२७
२५०-३६५
| वक्षस्कार: २ काल- अवसर्पिणि, उत्सर्पिणि, औपमिककाल- पल्योपम, ... सागरोपम, कल्पवृक्षवर्णन. कालस्य षविधत्व व तस्मिन् तस्मिन्काले वास्तव्या मनुष्या कुलकर वक्तव्यता, रुषभदेवस्य वर्णन, नन्दीश्वरद्वीपे अष्टाह्निका-महोत्सव, पंचभेदे मेघवर्षा
| वक्षस्कार: ४ | चुल्लहिमवंत-वर्षधरपर्वत-वर्णनं, पद्मद्रहवर्णनं, पद्मस्य कथनं, गंगा-सिंधु आदि नद्यानां वर्णनं, | सिद्धायतन-आदि कुटा:, | हेमवन्त-हरिवर्ष-महाविदेह-कुरु-रम्यक आदि क्षेत्राणां वर्णनं, निषध-नीलवंत-रुक्मि-हिमवंतादि -पर्वतानां वक्तव्यता, | मेरुपर्वतस्य वर्णनं.
वक्षस्कार: ७ जम्बूद्वीपे अवस्थित चन्द्र - -सूर्य-नक्षत्र-तारादि वक्तव्यता, सूर्यमंडल एवं तस्य आयाम, विष्कंभः, परिधि:, अंतर आदि. चंद्रमंडल एवं तस्य आयामादि -वर्णनं, नक्षत्रमंडल-वक्तव्यता, संवत्सराणां भेदा:, तिर्थकरआदि उत्तम पुरुषाणाम् वक्तव्यता
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८],उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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['जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति' - मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति सूत्रम्” के नामसे सन १९२० (विक्रम संवत १९७६) में 'देवचन्द्र-लालभाइ-जैनपुस्तकोद्धार' द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब |
इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई , जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया , मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद् सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा , और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और श्रीमदसागरानंदसूरिजी तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया |
हमारा ये प्रयास क्यों? + आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया , जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी , ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम , फिर वक्षस्कार और मूलसूत्र के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा वक्षस्कार एवं मूलसूत्र चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है , उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है , इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस दिए है और जहां गाथा है वहाँ । ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है।
हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है , जिसमे प्रत्येक वक्षस्कार और मूलसूत्र लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है , जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते विषय तक आसानी से पहुँच शकता है |अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है , जिसमे उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है |
शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म.सा. की प्रेरणासे और श्री वर्धमान जैन आगममंदिर, पालिताणा की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' भाग-२३ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है ।
......मुनि दीपरत्नसागर.
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार -,------------------------
----------- मूलं - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रेष्ठिदेवचन्द्र- लालभाई जैनपुस्तकोद्धार-ग्रन्था -
_ अहम् । __ श्रीमत्पूर्वधरस्थविरव्यवस्थापितं । श्रीमच्छान्तिचन्द्रवाचकेन्द्रविहितविवरणयुतं । श्रीमज्जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्युपाङ्गम् ।
- - जयति जिनः सिद्धार्थः सिद्धार्थनरेन्द्रनन्दनो विजयी । अनुपहतज्ञानषचाः सुरेन्द्रशतसेव्यमानाज्ञः ॥१॥ . सर्वानुयोगसिद्धान् वृद्धान् प्रणिदध्महे महिमऋद्धान् । प्रवचनकाश्चननिकषान् सूरीन् श्रीगन्धहस्तिमुखान् ॥२॥ यज्जातवृत्तिमलयजराजिजिनागमरहस्यरसनिवहः । संशयतापमपोहति जयति स सत्योऽत्र मलयगिरिः ॥३॥
श्रीमद्गुरोविजयदानसहनभानोः, सिद्धान्तधामधरणात् समयाप्तदीप्तिः। यो दुषमारजनिजातमपास्तपारं, प्राणाशयद् भरतभूमिगतं तमित्रम् ॥४॥
Reeseseseseae
Reseiserseksee
भीजन
वृत्तिकार-रचिता मंगलिक-गाथा:
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार -,-----------------------
----------- मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रस्तावना.
श्रीजम्यू
दीपः स रसमय एष परानपेक्षं, प्रोद्दीपयन् विशदयन स्वप समाभिः । द्वीपशा
गौरैर्गुणैरिह निदर्शितपूर्वसूरिः, श्रीसूरिहीरविजयो विजयाप बोलु ॥५॥ युग्मम् ॥ न्तिचन्द्रीया वृत्तिः
परमभाषावश्मनोऽपि, मम पाणीरसोऽभवत् । ते श्रीसफलचन्द्राख्या, जीयासुर्षाचकोत्तमाः॥
जम्मूढीपाविप्रवेष्टशास्त्रानुसारतः। प्रमेयरत्नमञ्जूषा, नामा वृत्तिषिधीयते ॥ ७॥ || ह तावविकटभवाढवीपर्यटनसमापतितशारीराद्यनेकदुःखादितो देही अकामनिर्जरायोगतः समाप्तकर्मलाघवस्तजि
शहासया सकलकर्मक्षयलक्षणं परमपदमाकाङ्क्षति, तच्च परमपुरुषार्थत्वेन सम्यग्ज्ञानादिरशत्रयगोचरपरमपुरुषकारोपार्जIनीयं, स चेष्टसाधनताजातीयज्ञानजन्यः, तचाप्तोपदेशमूलकं, आप्तश्च परमः केवलालोकावलोकितलोकालोकनिष्कारण
परोपकारकप्रवृत्त्यनुभूयमानतीर्थकृन्नामका पुरुष एव, तदुपदेशश्च गणपरस्थविरादिभिरङ्गोपाङ्गादिशास्त्रेषु अपश्चितः, तत्र अङ्गानि द्वादश, उपाङ्गान्यपि अङ्गैकदेशप्रपश्वरूपाणि प्रायः प्रत्यङ्गमेकैकभावात् तावन्त्येव, तत्राङ्गानि आचाराजादीनि प्रतीतानि, तेषामुपाङ्गानि क्रमेणामूनि-आचाराङ्गस्यौपपाप्तिकं १ सूत्रकृदङ्गास्य राजप्रश्नीयं २ स्थानाङ्गस्य जीवाभिगमः ३ समवायाङ्गस्य प्रज्ञापना ४ भगवत्याः सूर्यप्रज्ञप्तिः ५शाप्ताधर्मकथाङ्गस्य जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः ६ उपास- || कदशाङ्गस्य चन्द्रप्रज्ञप्तिः ७ अन्तकृद्दशाङ्गादीनां दृष्टिवादपर्यन्तानां पश्चानामप्यङ्गानां निरयावलिकाश्रुतस्कन्धगतकRT 1 पाक्षिकरती महाप्रमापनापि, परमेकार्थता द्वयोः (हीर.) २ प्रकीर्णकरूपति स्थानानि (हीर.)
Seceseeeeeeeee
॥१॥
Sanileoning
वृत्तिकार-रचिता मंगलिक-गाथा:, 'आचार अंगसूत्रादेः उपांगसूत्रस्य नाम-कथनं
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार -,------------------------
----------- मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
स्पिकादिपञ्चवर्गाः पञ्चोपाङ्गानि, स्थाहि-अन्तकृदशांगख कस्पिका अनुसरोपपातिकदशाशस्य पाल्पावतंक्षिका प्रश्नव्याकरणस्य पुष्पिता १० विपाकश्रुतस्य पुष्पचूलिका ११ दृष्टिवादस्य वृष्णिदशा १२ इति । अनाज सामाचार्यादौ कश्चि रोऽप्यस्लि, अंगानां च मध्ये दे माघे अङ्गे श्रीशीलांकाचार्चिवते ला, शेषाणि नवाशामि श्रीअभयदेवसूरिपादेर्विवृतानि सन्ति, दृष्टिवादस्तु वीरनिर्वाणात् वर्षसहने चयच्छिन्न इति न तद्विवरणप्रयोजन, पा-19 शानां च मध्ये प्रथममुपाझं श्रीअभयदेवसूरिभिषिवृतं, राजप्रश्नीयादीनि पट् श्रीमलयगिरिपादविवृतानि, पानीपानमयी || निरयावलिका च श्रीचन्द्र [प्रभ] सूरिभिर्विवृता, तत्र प्रस्तुतोपानस्य रतिः श्रीमलगिरिकताऽपि संप्रति कासदोषण।
बापच्छिन्ना, इदं च गम्भीरार्थतयाऽतिगहनं तेनानुयोगरहितं मुद्रितराजकीयकमनीयकोलगृहमिव सदार्थिनां हतातिसिद्धिकं सञ्जायत इति कस्सितार्थकल्पनकल्पगुमायमाणबुगमधानसमामसम्पतिविजयमानगच्छनायकपरमगुरुत्रीहीरविजयसूरीश्वरनिर्देशेन कोशाध्यक्षाज्ञया प्रेष्येणेवोन्मुद्रणमिष मया सदमुयोगः मारभ्यते, स च चतुर्दा-धर्मकथानुयोग उत्तराध्ययनादिका गणिसानुयोगः सूर्यप्रज्ञत्यादिकः द्रव्यामुयोगः पूर्वाणि समस्यादिकच चरणकरणानुयोगवा | आचाराङ्गादिकः, प्रस्तुतशास्त्रस्य क्षेत्रप्ररूपणात्मकत्वात् तस्याश्च गणितसाध्यस्याद् गणितानुयोगेऽन्तर्भावः, मन्ये चरणकरणात्मकाचारादिशास्त्राणामिव नास्य मुक्त्यजता, साक्षात् मोक्षमार्गभूतरक्षयानुपदेशकत्वात् इति चेत्, न, १ समुद्रातपरे परिधिपरिमामानयनं गणितं च जमदीपप्रवत्यादायनेको माविर्त-क्षेत्रसमावटीकातो जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिीकातो वा वैदितम्वेति जीवा (हीर.
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वृत्तिकारस्य मतानुसार 'आचार' अंगसूत्रादेः उपांगसूत्रस्य नाम-कथनं एवं एतत्कथनस्य सामाचारी-भेदोल्लेख:, अंग-उपांगस्य वृत्तिकारस्य नाम-कथनं
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार -1,------------------------
----------- मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
न्तिचन्द्री
18 साक्षादुपदेशकत्वाभावेऽपि तदुपकारितया शेषाणामपि त्रयाणामनुयोगानां मुक्त्यङ्गत्वाविरोधात् , तथा चोकम्-"चर-1 प्रस्तावना. द्वीपशा-हाणपदिवत्तिहेऊ धम्मकहा कालि दिक्खमादीया । दविए दंसणसोही सणसुद्धस्स चरणं तु ॥१॥" अत्र व्याख्या-|| या वृत्तिः 18 अन्न वृत्तावतिदेशोतसम्मत्युक्तग्रन्थयोर्दुर्गपदव्याख्याने आपरिसमाप्ति अत्र व्याख्या इति संकेतो बोध्यः । परणप्रति-181
पसिहेतुर्धर्मकथानुयोगः काले-गणितानुयोगे दीक्षादीनि प्रतानि, कोऽर्थः-शुद्धगणितसिद्धे प्रशस्ते काले गृहीतानि प्रश-18 ॥२॥ स्तफलानि स्युः, कालच ज्योतिश्चाराधीनः, स च जम्बूद्वीपादिक्षेत्राधीनव्यवस्थस्तेनायं कालापरपर्यायो गणितानुयोग
इति, द्रव्ये-द्रन्यानुयोगे शुद्धे दर्शनशुद्धिर्भवति, कोऽर्थः।-धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां द्रव्यानुयोगतः सिद्धौ सत्यां तदा-8 |स्तिक्ये प्रतिपन्ने दर्शनशुद्धिर्भवतीति, दर्शनशुद्धस्य चरणानुयोगो भवतीति । इह यद्यपि श्रीमलयगिरिपादानां क च | परकृताक्षेपपरिहारप्रभविष्णुवचनरचनाचातुर्य क च तथाविधसम्प्रदायसाचिव्यं क च तत्तनिवन्धवन्धुरतानैपुण्यं || क कुशाग्रसमः प्रतिभाविभवश्च क च मे तत्तत्पूर्वपक्षोत्तरपक्षरचनास्वकुशलत्वं, कच ताहसंप्रदायराहिल्यै कच कठोरग्रन्थग्रथनकर्मठत्वं क च मुशलायमतित्वमिति महति हेति (तु) संहतिविभेदेऽपि प्रवृत्तिरपि रामसिकी प्रवृत्तिरहो । महती धृष्टतावृत्तिः कटरिकठिनः कुण्ठजनहग्रह इत्युपहासपात्रतामात्रफलतया चन्द्राकर्षकमृगेन्द्रानुयायिनः शृगाल-IN
स्वेव ममानौचितीमश्चति, तथापि लोहशालाविकीर्णानां लोहसारकणानां चुम्बकाश्मप्रयोगेणैव महता प्रयलेन प्रायस्तशत्तत्याचीनजीवाभिगमादिवृत्तिषु दृष्टानामेव व्याख्यालवानामेकत्र मीलनमनुविचिन्त्य अन्याख्यानरूपमेवेदं व्याख्यानं श
प्रास्ताविक-कथनं
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार -,------------------------
----------- मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
बीयत इति नानौचितीलेशोऽपीति सर्व सुस्थ इति शास्त्रप्रस्तावना ॥ 8 तस्य चानुयोगस्य फलादिद्वारमरूपणतः प्रवृत्तिर्भवति, यत उक्तम्-"तस्स फलजोगमंगलसमुदायत्था तहेव दाराई।
तम्भेयनिरुत्तिकमपओयणाई च वच्चाई ॥१॥" ति, तत्र प्रेक्षावतां प्रवृत्तये तस्य-अनुयोगस्य फलमवश्यं वाच्य, अन्यबाऽस्य निष्फलत्वमाकलय्य व्याख्यातारः श्रोतारश्च कण्टकशाखामईन इव नात्र प्रवर्तेरनिति, तच्च द्विधा-कर्तुः श्रोतुश्च, एकैकमपि द्विधा-अनन्तरं परम्परं च, तत्र कर्तुरनन्तरं द्वीपसमुद्रादिसंस्थानपरिज्ञानेऽतिपरिकर्मितमतिकत्वेन स्पष्टतया । यथासंभवं संस्मरणात् स्वात्मनः सुखेनैव संस्थानविचयाभिधानधर्मध्यानसमवाप्तिर्मन्दमेधसामनुग्रहश्च, श्रोतुः पुनर्जम्बू-11
द्वीपवर्तिपदार्थपरिज्ञानं, परम्परं तु द्वयोरपि मुक्त्यवाप्तिः, यदाह-"सर्वज्ञोकोपदेशेन, यः सत्त्वानामनुग्रहम् । करोति 18| दुःखतताना, स प्रामोत्यचिराच्छिवम् ॥१॥" तथा-"सम्यग्भावपरिज्ञानाद्विरक्ता भवतो जनाः । क्रियासका ह्यविनेन,
गच्छन्ति परमां गतिम् ॥२॥", तथा योगः-सम्बन्धो वाच्यः, तेन हि ज्ञातेन फलव्यभिचारमनाशङ्कमानाः प्रेक्षावन्तः प्रवर्तन्त इति, स द्विधा-उपायोपेयभावलक्षणो गुरुपर्वक्रमलक्षणश्च, तत्र आद्यस्तर्कानुसारिणः प्रति, अनुयोग उपायो
विगमादि चोपेयं, स च फलाभिधानादेवाभिहितः, अन्यश्च केवलनानुसारिणः प्रति, स चैवम्-अर्थतो भगवता 18 वर्द्धमानस्वामिना जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिरुक्ता सूत्रतो गणधरैर्द्वादशाक्यामुपनिबद्धा, ततोऽपि मन्दमेधसामनुग्रहाय सातिशय
श्रुतधारिभिः षष्ठादङ्गादाकृष्य पृथगध्ययनत्वेन व्यवस्थापिता, अमुमेव च सम्बन्धमनुविचिन्त्य सूत्रकृदुपोद्घातमाधास्यति
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प्रास्ताविक-कथनं
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार -,-----------------------
----------- मूलं - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
पणं,बहि विरिपरफलादि.
श्रीजम्बू- द्वीपशा- न्तिचन्द्री
*
या चिः
अथवा 'शास्तुःप्रामाण्ये शाखप्रामाण्य मिलि आधसम्बन्धस्यैव प्रामाण्यग्रहार्थमपरसम्बन्धनिरूपणं, बहिलिदिपरम- अनुयोगतस्याः सत्त्वानुग्रहैकमवृत्तिमन्तो भगवन्तो जातूपेयानुपयोगि भापते, भगवचाभावादिति, अथवा योगा-अवसर, ततः फलादि. प्रस्तुतोपाजस दाने कोऽवसर इति ?, उच्यते, ज्याङ्गस्याङ्गार्थानुवादकतयाऽङ्गस्य सामीप्येन वर्तमानाब एवैतदीयाजस्था-11 बसरः स एवास्थापीति, तत्रावसरसूचिका इमा गाथा:-"तिवरिसपरियायम्स र भाचारपकप्पनाममान । किसस्स यसर्म सूअगडं नाम अंगति ॥१॥दसकष्पव्यवहारा संवच्छरपणगदिक्खियस्लेव । वाणं समवाजोविना अंगे । बहवासस्स ॥२॥दसषासस्स विवाहो एगारसवासगस्स य इमे छ । खुद्धियविमाणमाई अमायणा पंच नावका MES बारसवासस्स सहा अरुणोवायाइ पंच अजायणा । तेरसवासस्त्र तहा उहाणमुबाइया परोपाचजबसवासास बहा जासीविसभावणं जिणा विति ॥ पण्णरसवासगस्स व विडीविसभावणं तहव ॥५॥ सोलसवासाईसु यमुत्तरहिस। जहसंखं । चारणभावणमहसुविणभावणा तेअगनिसग्गा ॥६॥ एणवीसगस्स विडीवाओ तुषार बनण्यबीसवरिसो अणुवाई सव्वसुत्तस्स ॥७॥" ईति, अन पचवस्तुकसूत्रे दशवर्षपर्यायस्य साधोः भगवन्यमहाडक्सरख
॥३॥ १० ए०० म० स्था० स० व्या हि ५ अ० ५ सयो । माशी हि. चार महास्व. जो. पहिलाच सर्वभुतं |
प्रास्ताविक-कथनं, आगम-अनुज्ञा एवं दीक्षा-पर्याय
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [-], ------------------------
------- मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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प्रतिपादनात् षष्ठाङ्गतया ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्य प्रदाने तदनन्तरमवसरः, कारणविशेषे गुर्वाज्ञावशादर्वागवि, वस्तदुपा-181 अत्वादस्य तदनन्तरमवसर इति संभाव्यते, बोगविधानसामाचाामपि अङ्गयोगोहनानन्तरमेवोपाङ्गयोगोद्वहन | विधिप्राप्तत्वादिति २। तभेदमुपागमपि प्रायः सकलजम्बूद्वीपवर्तिपदार्थानुशासनाच्छावं, तस्त्र च सम्यग्ज्ञानस्य | परमपदप्रापकत्वेन श्रेयोभूतता, अतो भा भूदत्र विघ्न इति तदपोहाय मङ्गलमुपदर्शनीयं, यत:-"बहुचिग्याई बाई 1 तेण कयमंगलोवयारेहिं । घेसको सो सुमहानिहिब जह वा महाविजा ॥१॥" इति, वच्च विविध-आदिमध्यावधान-10 भेदातू, तत्र आदिमङ्गलं णमो अरिहंताण' मित्यविनतया शाखस्य परिसमाप्त्यर्थ, मध्यमङ्गलं 'जया णं पक्षमा चावहिविजए भगवंतो तित्थगरा समुपजति'त्ति तस्यैव स्वैर्याय, अस्य च द्वितीयाधिकारादिसूत्रस्य विभुवनोतजिन-11 बन्मकल्याणकसूचकत्वेन परममङ्गलत्वात्, अन्त्यमङ्गलं तु 'समणे भगवं महावीरे मिहिलाए अगरीए' इत्यादिनिगमजसूत्रे श्रीमन्महावीरनाममहणमिति, तस्यैव शिष्यप्रशिष्यादिपरम्परया अव्यवच्छेदार्थ, नन्विदं सम्यग्ज्ञानरूपत्वेन निर्जरार्थ- ॥1
त्वात् अथवा "जो जं पसत्थमत्थं पुच्छइ तस्सस्थसंपत्ती" इति निमित्तशास्त्रे द्वीपसमुद्राभिधामग्रहणस्य परममङ्गलत्वेना ||| निवेदनादस्य द्वीपप्ररूपणात्मकत्वात् स्वयमेव सर्वात्मना मङ्गलं (लता) किं मालान्तरोपम्यासेन , बनबस्थाप्रसङ्गात्,181 मैवं, मङ्गलतया हि परिगृहीतं शारखं मङ्गलमिति व्यवहियते फलदं च भवति, साधुवत् , अन्यथोपहासनमस्कारादेरपि १ बहुविनानि श्रेयांनि तेन तमलोपचारैः। महीतम्यः सः (अनुयोगः) मुमहानिपिरिव गया वा महाविद्या ॥१॥ २ मो में प्रभासमर्थ पृच्छति तरूपार्थनपत्तिः।।
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प्रास्ताविक-कथनं, 'मंगल'स्य निरूपणं
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार -,------------------------
----------- मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
न्तिचन्द्री
श्रीजम्बू-18 मङ्गलत्वं स्यात्, न हि लोकेऽपि स्वरूपसता दधिदूर्वादीनां द्रव्यमङ्गलत्वं किन्तु मङ्गलाभिप्रायेण प्रयुक्तानाम् , अन्यथा द्वापशा- तद्विषयकदर्शनस्पर्शनादीनां निर्मूलकतापातात् , इह अस्य शास्त्रस्य फलादि निरूपितं तदनुयोगस्य द्रष्टव्यं, तयोः कथ-18
विदभेदादिति ।। अथेदानी समुदायार्थश्चिन्त्यते, तत्र समुदायः सामान्यतःशास्त्रसङ्घहणीयः पिण्डस्तद्रूपोऽर्थो वक्तव्यः, या वृत्तिः
18 किमुक्तं भवति?-अवयबविभागनिरपेक्षतया शास्त्रगतं प्रमेयं प्रकटनीयं, तच्च वर्द्धमानादिवत् यथार्थनामतो भवति, ॥४॥ तत्रैव समुदायार्थपरिसमाप्तेः, न तु पलाशादिवदयधार्थनामतो डित्यादिवदर्धशून्यनामतश्च, प्रस्तुते च जम्बूद्वीपप्रज्ञ-18
प्तिरितिनाम्नः कः शब्दार्थ इति !, उच्यते, जम्ब्वा-सुदर्शनापरनाच्याऽनाहतदेवावासभूतयोपलक्षितो द्वीपो जम्बूद्वी-20 पस्तस्य प्रकर्षण-निःशेषकुतीर्थिकसार्थागम्ययथावस्थितस्वरूपनिरूपणलक्षणेन ज्ञप्तिः-ज्ञापनं यस्यां मन्थपद्धती ज्ञप्तिर्शानं वा यस्याः सकाशात् सा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः, अथवा जम्बूद्वीपं प्रान्ति-पूरयन्ति स्वस्थित्येति जम्बूद्वीपप्राः जगतीवर्षवर्षधराधास्तेषां ज्ञप्तिर्यस्याः सकाशात् सा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिरिति साम्यर्थशास्त्रनामप्रतिपादनेन जम्बूद्वीपप्रज्ञयाः पिण्डार्थों दर्शितः, अत एवाभिधेयशन्यतामाकलयन्तस्सन्तोऽत्र प्रवृत्तौ मा मन्दायन्तामित्यभिधेयसूचापि कृतैव, नामनिक्षेपचिन्ता तु द्वितीयानुयोगयोजनायां करिष्यत इति समुदायार्थः ४ । तथैवानुयोगद्वाराणि वाच्यानि, तथाहि- ती मस्तुताध्ययनस्य महापुरस्येव चत्वारि अनुयोगद्वाराणि भवन्ति-उपक्रमो निक्षेपोऽनुगमो नयब, तत्र अनुयोजनमनु-1॥ योगः-सूत्रस्यार्थेन सह सम्बन्धनं, अथवाऽनुरूपोऽनुकूलो वा योगो-व्यापारः सूत्रस्थार्थप्रतिपादनरूपोऽनुयोगः, आह
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प्रास्ताविक-कथनं, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' शब्दस्य अर्थकथनं, अनुयोग-कथनं
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार -1, ------------------------------------------ ----------- मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
वर्युजोजणमणुजोगो सुअस्स णियएण जमभिएण । वावारो वा जोगो जो अणुरूवोऽणुकूलो वा ॥१॥” इति, बिदा अर्थापेक्षया अणोः-लषोः पश्चाजाततयां वाऽनुशब्दवाच्यस्य योऽभिधेयो योगो-व्यापारस्तत्सम्बन्धो वाऽणु
बोगोऽनुयोगो वेति, आह च-"अहेवा जमत्थओ थोवपच्छभावेहिं सुअमणुं तस्स । अभिधेये वाबारो जोगो तेणं व | संबंधो ॥१॥"सि, तस्य द्वाराणीव द्वाराणि-प्रवेशमुखानि, अस्याध्ययनपुरस्यार्थाधिगमोपाया इत्यर्थः, पुरहटान्तश्चात्र, | यथा हि अकृतद्वारकं पुरमपुरमेव, कृतैकद्वारमपि दुरधिगम कार्यातिपत्तये च स्यात् , चतुर्मूलद्वारं तु प्रतिद्वारानुगत | सुखाधिगर्म कार्यानतिपत्तये च, एवं जम्बूद्वीपप्रज्ञध्यध्ययनपुरमप्याधिगमोपायद्वारशून्यमशक्याधिगर्म भवति एक-15 द्वारानुगतमपि च दुरधिगम सप्रभेदचतुर्दारानुगतं तु सुखाधिगम कार्यानतिपत्तये च स्यादतः फलेगहिरोपन्यास IST इति ५। तानि च द्वित्रिद्विद्विभेदानि क्रमेण भवन्तीति तनेदाः ६ । निरुक्तिस्तु उपक्रमणमुपक्रम इति भावसाधनः ||व्याचिख्यासितशास्त्रस्य समीपानयनेन निक्षेपावसरप्रापणं, उपक्रम्यते वाऽनेन गुरुवाग्योगेनेत्युपक्रम इति करणसाधनः, ISI || उपक्रम्यतेऽस्मिन्निति वा शिष्यश्रमणभावे सतीत्युपक्रम इत्यधिकरणसाधनः, उपक्रम्यतेऽस्मादिति वा विनेयविनया-18 | दित्युपक्रमः इत्यपादानसाधन इति, एवं निक्षेपणं निक्षेप्यतेऽनेनास्मिन्नस्मादिति वा निक्षेपः-उपक्रमानीतच्याचि
१ अनुयोजनमनुयोगः श्रुतस्य (सूत्रस्य ) निजकेन यदभिधेयेन । व्यापारो वा योगो योऽनुरूपोऽनुकूलो वा ।। १ ।। २ मथवा यदर्थतः स्तोकपश्चाद्भावाभ्यां | | सूत्रमा (अनु) तस्य । भनिधेये व्यापारी योगस्तेन वा संबन्धः॥१॥
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अनुयोग-कथनं एवं फलादि, उपक्रम-निक्षेप'-'अनुगम' आदि शब्दस्य विविध-अर्थाः, भेदा: इत्यादिः
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार -,------------------------
----------- मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्मू- क्यासितशास्त्रस्य नामादिभियंसनमित्यर्थः निक्षेपो न्यासः स्थापनेति पर्यायाः, एवमनुगमनमनुगम्यतेऽनेनामिक्षमा-18 उपक्रमान्तिचन्द्री-1
था- दिति वाऽनुगमः-निक्षिप्तसूत्रस्थानुकूलः परिच्छेदोऽर्धकथन मितियावत् , एवं नयनं नीयतेऽनेनास्मिन्नरमादिति वामप:- दीने या वृत्तिः
अनम्तधर्मात्मकस्य वस्तुन एकांशपरिच्छेदः, एकेनैव धर्मेण पुरस्कृतेन बस्त्वङ्गीकार इत्यर्थः । उपक्रमावितासगाबि
शल्यंन्यासे किं प्रयोजनमिति !, उच्यते, न ह्यनुपक्रान्तमसमीपीभूतं निक्षिप्यते न चानिक्षिप्तं नामादिभिरर्थतोऽमुनग्यवे, ॥५॥शन चार्थतोऽननुगतं नयैर्विचार्यते इतीदमेव क्रमप्रयोजन, उक्तं च-"दारकमोऽयमेष र निक्खिम्पा जेण मासपीवस्थं ।
अणुगम्मइ नाणत्थं नाणुगमो नयमयविहूणो ॥१॥"ति। तदेवं फलादीन्युकानि, साम्प्रतमनुयोगद्वारभेदभावनपुरस्सरमिदमेवाध्ययनमनुर्विचिन्त्यते, तत्रोपक्रमो द्विधा-लौकिका शाखीयश्च, सत्र आयः पोटा-मामलामाइन्योवकालभावभेदात्, नामस्थापने सुप्रतीते, द्रव्योपक्रमो द्विधा-आगमतो मोआगमतच, आगमत उपक्रमब्दार्थव ज्ञाता, तत्र चानुपयुक्तः 'अनुपयोगो द्रव्य'मिति वचनात् , नोआगमतखिविधो-शशरीरभध्वशरीरतव्यतिरिक्तमेतद, तत्र यदुपक्रमशब्दार्थज्ञस्य शरीरं जीवविप्रमुक्त सिद्धशिलातलादिगतं तद्भूतभावत्वात् शरीरच्योपक्रमी, यस्तु पाल-18 को नेदानीमुपक्रमशब्दार्थमवबुध्यते अथ चावश्यमावस्या भोत्स्यते स भाविभावनिबन्धमत्त्वात् भव्यशरीरदब्योपकमा,181
शरीरभव्यशरीरव्यतिरिकत्रिविधः-सचित्ताचित्तमिश्वमेदात् , तत्र सचित्तव्योपक्रमो द्विपदरतुष्पदापदोपाधि-181 दभिन्नविविधः, पुनरेकैको द्विविधः-परिकर्मणि वस्तुविनाशे च, तत्रावस्थितस्यैव द्रव्यस्य गुणविशेषापादनं परिकर्म
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उपक्रम-'निक्षेप'-'अनुगम' आदि शब्दस्य विविध-अर्थाः, भेदा: इत्यादिः
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार -,-----------------------
----------- मूलं [-1 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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18| तस्मिन परिकर्मणि, सचित्तद्विपदव्योपक्रमो वया मनुष्याणां वर्णकर्णस्कन्धनकवृक्ष्याविकरणं, सचित्तचतुष्पदन्यो-18
पक्रमो यथा हस्त्यादीनां शिक्षाघापादनं सचित्तापदन्योपक्रमो यथा वृक्षादेवावुर्वेदोपदेशाद् पद्यादिगुणकरण,81 | वस्तुविनाशे पुनखिविधोऽपि सचित्तद्रव्योपक्रमस्तेषामेव मनुध्यादीनां खड्गादिभिर्विनाशकरणं, अचिचद्रव्योपको द्विविध:-परिकर्मणि वस्तुविनाक्षे च, सत्र परिकर्मणि यथा पद्मरागमणेः क्षारमृतपुटपाकादिना नैर्मस्यांपादन, बस्तु विनाशे च तेषामेव विनाशनं, मिश्रब्वोपक्रमोऽपि विषिषः परिकर्मणि वस्तुविनाशे च, तत्र परिकर्मणि कटकाविभूपितपुरुषादिद्रष्यस्य गुणविशेषकरणं, वस्तुविनाशे विवक्षितपर्यायोच्छेदः, तथा क्षेत्रकालोपकमावपि द्विविधा-परि-1 कर्मणि वस्तुविनाशेच, तत्र क्षेत्रम्-आकाशं तच्चामूर्त नित्यं चेति न तस्य परिकर्मरूपो विनाशरूपो पा उपकनो बरते
तथापि मंचाः कोशन्तीत्यादिन्यायादुपचारेण तदाश्रितस्येक्षुक्षेत्रादेहलादिभिः परिकर्म गजबन्धमादिभिस्तु विमा ॥ इति, एवं कालस्थापि पूर्वोक्तन्यायेन उपक्रमासम्भवेऽपि शंक्वादिग्छायादिभिर्यधार्थपरिज्ञाम सपरिकर्मणि कालोप
क्रमः, यत्र प्रहनक्षत्राविचारैरनिष्टफलदायकतया परिणमनै स विनाशे कालोपकमः, तथा च लौकिकी वागपि-ममुख्य है। 18 ग्रहेण नक्षत्रेण वा इत्थमित्थं गच्छता विनाशितः काल इति, भावोपक्रमो द्विधा-आगमतो नोआगमता, प्रगत
उपक्रमशब्दार्थस्य ज्ञाता तत्र चोपयुक्तः 'उपयोगो भाषनिक्षेप' इति वचनादिति, नोआगमतो द्विधा अयशान्तः । 18स्ता , सत्रायो जामातूपरीक्षकब्राह्मणीषेश्यामात्यानामिष संसाराभिवर्षिनाऽध्यवसायेन परभावोपकमणमा
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उपक्रम-'निक्षेप'-'अनुगम' आदि शब्दस्य विविध-अर्थाः, भेदा: इत्यादिः
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार -,------------------------
----------- मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
उपक्रमा
श्रीजम्यू-18| श्रुतादिनिमित्तमाचार्यभावावधारणरूपः, अनेनेहाधिकारः, अथानुयोगाङ्गप्रतिपादनाधिकारे गुरुभावोपक्रमाभिधानNAमनर्थकम् , अतदङ्गत्वात्, तदसम्यक्, तस्याप्यनुयोगाङ्गत्वाद्, यद्भाष्यकार:-"गुरुचित्तायत्ताई वक्खाणंगाई जेण या वृत्तिः
18 सपाई। तेण जह सुप्पसन होइ तयं तं तहा कर्ज ॥१॥" आह-ययेवं तर्हि गुरुभावोपक्रम एव दर्शनीयः न शेषाः, | निष्प्रयोजक (न) त्वादिति, न, गुरुचित्तप्रसादनार्थ तेषामप्युपयोगित्वात् , तथाहि-बालग्लानादिसाधून पथ्यानपानादिना| प्रतिजाप्रति वैयावृत्त्यनियुक्त साधौ द्रव्योपक्रमात् गुर्वासनशयनाद्युपभोगिभूतलप्रमार्जनादिना संस्कुर्वति क्षेत्रोपक्रमात् भव्यस्य छायालग्नादिना दीक्षादिसमयं सम्यक् साधयति कालोपक्रमाच गुरुः प्रसीदति, नामस्थापनोपक्रमौ तु प्रस्तुतेऽनुपयोगिनाविति, अथवा उपक्रमसाम्यात् ये केचन संभविन उपक्रमभेदास्ते सर्वेऽपि दर्शनीयाः, यतोऽनुपयो-||2|| गिनिरासेनोपयोगिनि निष्पतिपक्षा प्रतिपत्तिरुपजायते, तथा चाप्रस्तुतार्थापाकरणं प्रस्तुतार्थव्याकरणं च नामादिन्यासव्याख्यायाः फलमुपवर्णयन्ति महाधियः । उक्तः लौकिक उपक्रमः, अथ शास्त्रीय उच्यते-सोऽपि पोटैव, आनु-10 पूर्वीनामप्रमाणवक्तव्यतार्थाधिकारसमवतारभेदात् , एतब्यस्यर्थिना तु अनुयोगद्वारसूत्रं विलोक्यं, अन्धविस्तरभयात्तु || | नेह तन्यते, केवलं आनुपूर्व्यादिषु पंचसूपक्रमभेदेषु षष्ठे समवतारभेदे विचार्यमाणे इदमध्ययनं समवतारयेत्, ततश्चा-15 नुपूादिरुपक्रमः पविधोऽप्यभिहितो भवति, तथाहि-दशविधायामप्यानुपूामस्याध्ययनस्योत्कीर्तनगणनानुपूर्योः
गुरुचित्तायत्तानि व्याख्यानानि येन सर्वांगि। तेन यथा तरसमस भवति तत्तथा कार्यम् ॥१॥
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उपक्रम-'निक्षेप'-'अनुगम' आदि शब्दस्य विविध-अर्थाः, भेदा: इत्यादिः
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार -1, ------------------------
----------- मूलं [-1 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
समतारः, तत्रोत्कीर्तनं-संशब्दनं नामकथनमात्रं यथा द्वादशाङ्गोपाङ्गानां मध्ये औपपातिकं राजप्रश्नीयं जीवाभिग-1 माध्ययनं प्रज्ञापना सूर्यप्रज्ञप्तिः चन्द्रप्रज्ञप्तिः जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिरित्यादि, गणनं-परिसंख्यानं एक द्वे त्रीणीत्यादि सा च, गणनानुपूर्वी त्रिधा-पूर्वानुपूर्वी पश्चानुपूर्वी अनानुपूर्वी चेति, तत्र पूर्वानुपूर्व्या इदं षष्ठं पश्चानुपूा सप्तमं अनानुपूर्व्या अनियतं, नाम च एकनामादिदशनामपर्यन्तं, तत्र पड्नाम्न्यस्यावतारः, तत्र च षट् भावा श्रीदयिकादयो निरूप्यन्ते, | तवास्थ क्षायोपशमिके भावेऽवतारः, सर्वश्रुतस्य क्षायोपशमिकभावरूपत्वात् , प्रमाणं चतुओं-द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात्, । तत्रेदमध्ययनं क्षायोपशमिकभावात्मकत्वाद् भावप्रमाणविषयं, तदपि भावप्रमाणं त्रिधा-गुणनयप्रमाणसंख्याभेदात्, तत्राय जीवाजीवगुणप्रमाणभेदात् द्विधा, तत्र जीवोपयोगरूपत्वाजम्बूद्वीपप्रज्ञत्यध्ययनस्य जीवगुणप्रमाणे समवतारः, तदपि ज्ञानदर्शनचारित्रभेदात् विधा, तत्र बोधात्मकत्वादस्य ज्ञानगुणप्रमाणे, तदपि प्रत्यक्षानुमानोपमानागमभेदाच-16 तुष्पकारं, तत्रास्य आप्तोपदेशरूपत्वादागमे, सोऽपि लौकिकलोकोत्तरभेदाद द्विविधः, तत्र परममुनिप्रणीतत्वेन लोकोत्तरे,18
सोऽपि द्विधा-आवश्यकमावश्यकव्यतिरिक्तश्च, तत्रेदमावश्यकव्यतिरिक्त, आवश्यकव्यतिरिक्को द्विधा-अङ्गप्रविष्टानङ्ग-18 18 प्रविष्टभेदात् , तत्रेदमनङ्गप्रविष्टे, सोऽपि द्विधा-कालिकोत्कालिकभेदात, तत्रेदं कालिके, सोऽपि सूत्रार्थोभयभेदात् । विधा, तत्रेदं सूत्रार्थरूपत्वात् तदुभये, सोऽपि आत्मानन्तरपरम्परागमभेदात् त्रिविधः, तत्र चेदं गणभृतां सूत्रत || आत्मागमस्तच्छिष्याणामनन्तरागमः तत्प्रशिष्याणां तु परम्परागमः, अर्थतोऽर्हतामात्मागमः गणधराणामनन्तरागमः
उपक्रम-'निक्षेप'-'अनुगम' आदि शब्दस्य विविध-अर्थाः, भेदा: इत्यादिः, 'प्रमाण'स्य भेद-प्रभेदस्य कथनं
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार -,----------------------
----------- मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्यू- द्वीपशा- न्तिचन्द्रीया वृत्तिः
ततः परम्परागम इति त्रिप्वप्यागमेष्वस्याध्ययनस्यावतार इति, ननु अङ्गप्रविष्टसूत्रं गणधरमणीतमिति भवतु नेपामा-18 प्रस्तावना मागमः, इदं तूपाङ्गत्वेनानङ्गप्रविष्टत्वात् स्थविरकृतं, यदाह-"गणधरकयमंगसुअं जं कय थेरेहिं बाहिरं संतु। लियचं | अंगपबिई मणियबसुप बाहिरं तं तु ॥१॥" ततः कथं गणधराणामारमागमत्येम भाव्यते ।, उच्यते, गणधरैर्वादशाङ्गी-18 विरचने परमार्थतस्तदेकदेशरूपोपाङ्गानामपि विरचनमाख्यातमिति तेषामपीदमुपाङ्गं सूत्रत आत्मागम इति न कश्चि-18 द्विरोधः, व्यवहारतस्तु स्थविरकृतत्वेनेदमुपाङ्गं स्थविराणामेव सूत्रत आत्मागमः, "सुत्तं थेराण अत्तागमोत्ति" इति श्रीउत्तराध्ययनबृहद्वृत्तिवचनादिति, अयमेव शास्त्रप्रामाण्यसूचकोऽर्थः पूर्व गुरुपर्वक्रमरूपसम्पन्धावसरे निरूपित इति । नयप्रमाणे तु नास्थ सम्प्रत्यवतारो, मूढनयत्वात् आगमस्य, उक्तं च-"मूढनइयं सुर्य कालियं च (तु)" इत्यादि। | संख्या नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालौपम्यपरिमाणभावभेदात् अष्टप्रकारा, तत्र चास्य परिमाणसंख्यायामवतारः, तत्रापि
कालिकश्रुतपरिमाणसंख्यायां समवतारः, साऽपि द्विधा-सूत्रतोऽर्धतश्च, तत्र सूत्रतः परिमितपरिमाणं (अर्थतोऽनन्तागर्थत्वात् सर्वेषां सूत्राणामपरिमाणं)। सम्पति वक्तव्यता, सा च त्रिधा-स्वपरोभयसमयवक्तव्यताभेदात्, तत्र स्वसम-1 | यवक्तव्यतायामस्यावतारः, तथाऽर्थाधिकारो वकव्यताविशेष एव, स चेह जम्बूद्वीपषतव्यतालक्षणः समुदायाथेकव-हा |नादेव उक्तः, उक्त उपक्रमः । अथ निक्षेपः, स च विधा-ओपनामसूत्रालापकनिष्पन्नभेदात् , तत्रीयो यत् सामान्यमध्य-18
१ गणधरकृतमजवुतं यत् कृतं स्थविरमातां तत्तु । नियतमन प्रमिष्टमनियतश्रुतं बातो तत् ।। र अविभागस्थनय श्रुतं कालिकं ॥1॥
उपक्रम-'निक्षेप'-'अनुगम' आदि शब्दस्य विविध-अर्थाः, भेदा: इत्यादिः, 'प्रमाण'स्य भेद-प्रभेदस्य कथनं
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार -1, ------------------------
----------- मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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यनादि नाम, तन्निक्षेपोऽनुयोगद्वारादिभ्योऽवसेयः, तत्रेह भावाध्ययनादिनाऽधिकारः, नामनिष्पन्ने तु निक्षेपेऽस्य जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिरिति नाम, ततो जम्बूशब्दस्य प्रज्ञप्तिशब्दस्य च निक्षेपो वाच्यः, तत्र जम्बूशब्दस्य नामस्थापनाद्रव्यभावभेदात् चतुर्धा निक्षेपः, तत्र नामजम्बूर्यस्य जम्बूरिति नाम, यथा जम्बूरन्तिमकेवली जम्ब्बा अभिधानं वा, स्थापना| जम्बूर्या जम्बूरिति स्थापना क्रियते यथा चित्रलिखितजम्बूवृक्षादिः, द्रव्यजम्बूद्धिधा-आगमतो नोआगमतश्च, आग-18 मतस्तदर्थज्ञाताऽनुपयुक्तो, नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरोभयव्यतिरिक्तभेदात् त्रिधा, तत्राद्यौ भेदी सुप्रतीतो, उभयव्यतिरिक्तद्रव्यजम्बूरपि त्रिधा-एकभविकबद्धायुष्काभिमुखनामगोत्रजन्तुभेदात् , तत्रैकमविको नाम य एकभवान-18 न्तरं जम्बूवेनोत्पत्स्यते, बद्धायुष्कस्तु येन जम्ब्वायुर्बद्धं, अभिमुखनामगोवस्तु यस्य जम्ब्वा नामगोत्रकर्मणी अन्तर्मुहूतोनन्तरमुदयमायावत इत्ययं त्रिविधोऽपि भाविभावजम्बूकारणत्वाद्र्व्यजम्बूरिति, भावजम्बूरपि द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमतो ज्ञातोपयुक्तः, नोआगमतस्तु जम्बूद्रुम एव जम्बूदुमनामगोत्रकर्मणी वेदयन्निति, आह-यथा अभिमुखजम्बूभावस्य जीवस्य द्रव्यजम्बूत्वं 'भाविनि भूतवदुपचार' इति न्यायात् तथा आसन्नपश्चात्कृतजम्बूभावस्थापि 'भूतपूर्वकस्तबदुपचार' इति न्यायात् कथं न द्रव्यजम्बूत्वं निर्दिष्टं !, उच्यते, इदमुपलक्षणं, तेन तस्यापि द्रव्यनिक्षेप 18 एवान्तर्भावः 'भूतस्य भाविनोवे'स्याविद्रव्यलक्षणस्य सद्भावात् , अनानिर्देशकारणं तु श्रीउत्तराध्ययनदुमपत्रीयाध्ययन|| नियुक्ती श्रीभद्रबाहुस्वामिपादैः दुमनिक्षेपेऽविवक्षणं, तत्तुल्यन्यायवादस्य निक्षेपस्येति, प्रस्तुते च नोआगमतो भावज-18
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'जम्बू, द्वीप, प्रज्ञप्ति' इति त्रयाणाम-शब्दानाम् निक्षेप-आदेः कथनं
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार -,------------------------
----------- मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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श्रीजम्बू-18म्ब्वा अधिकारः। द्वीपोऽपि पूर्ववञ्चतुर्दा, तत्र नामद्वीपो यस्य द्वीप इति नाम, स्थापनाद्वीपो या द्वीपस्य स्थापना, यथा
या प्रस्तावना. दीपशा- चित्रलिखितजम्बूद्वीपादिः, द्रव्यद्वीपो द्विधा-आगमतो नोआगमतच, तत्र आगमतस्तदर्थज्ञाताऽनुपयुक्तः, नोआगमन्तिचन्द्री
तस्तु ज्ञशरीरभव्यशरीरद्रव्यद्वीपी सुबोधौ, तद्व्यतिरिक्तद्रव्यद्वीपो द्विधा-सन्दीनोऽसन्दीनश्च, तत्र यो हि संदीयते-जलया वृतिः
प्लावनात् पक्षमासादावुदकेन प्लाव्यते स सन्दीनो विपरीतस्त्वसन्दीनः सिंहलद्वीपादिः, भावद्वीपोऽपि द्विधा-आगमतो ॥८॥
नोआगमतश्च, तत्रागमतस्तदर्थज्ञानोपयुक्तः, नोआगमतस्तु साधुः, कथमित्याह-यथा हि नदीसमुद्रबहुमध्यप्रदेशे सांयात्रिका द्रव्यद्वीपमवाप्याऽऽश्वसन्ति तथा पारातीतसंसारपारावारान्तरचारसेदमेदस्विनो देहिनः परमपरोपकारैकप्रवृत्तं साधु | समवाप्याऽऽश्वसन्ति अतो भावत:-परमार्थतो द्वीपो भावद्वीप उच्यते, सोऽपि सन्दीनासन्दीनभेदाद् द्विधा, तत्र परीपहो-II पसर्गाद्यैः क्षोभ्यः सन्दीनः तदितरस्त्वसन्दीनः, अथवा भावद्वीपः सम्यक्त्वं, तच्च प्रतिपातित्यादौपशमिकं क्षायोपशमिक च सन्दीनो भावद्वीपः, क्षायिक चासन्दीन इति । ननु कचित्तत्पर्यायापन्नं वस्तु भावनिक्षेपे निक्षिप्यते यथाऽत्रैव जम्बूपर्यायमनुभवन् भावजम्बूत्वेन निक्षिप्तः, कचित्तदन्यपर्यायापन्नं वस्तु भावनिक्षेपे निक्षिप्यते, यथाऽत्रैव भावद्वीपपर्यायमनुभवन् साधुः सम्यक्त्वं चेति परस्परमुदाहरणवैषम्यं कथं युक्तिमदिति ?, अत्रोच्यते, वस्तुगत्या तत्पर्यायाधारतया भवनं भाव इतिकृत्वा तत्पर्यायधार्येव वस्तु भावनिक्षेपे निक्षिप्यते, यत्तु तदन्यद्वस्तु भावनिक्षेपे निक्षिप्यते तत्तद्गत-80८॥ [भावगत ] गुणारोपादौपचारिकमिति न दोषः, विवक्षाया विचित्रत्वादिति, प्रस्तुते च द्विधा गता लवणोदस्य आपो
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'जम्बू, द्वीप, प्रज्ञप्ति' इति त्रयाणाम-शब्दानाम् निक्षेप-आदेः कथनं
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार -,------------------------
------- मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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यनादि नाम, तन्निक्षेपोऽनुयोगद्वारादिभ्योऽवसेयः, तत्रेह भावाध्ययनादिनाऽधिकारः, नामनिष्पन्ने तु निक्षेपेऽस्य जम्बू-11 द्वीपप्रज्ञप्तिरिति नाम, ततो जम्बूशब्दस्य प्रज्ञप्तिशब्दस्य च निक्षेपो वाच्यः, तत्र जम्बूशब्दस्य नामस्थापनाद्रव्यभाव9 भेदात् चतुर्धा निक्षेपः, तत्र नामजम्बूर्यस्य जम्बूरिति नाम, यथा जम्बूरन्तिमकेवली जम्बा अभिधानं वा, स्थापना
जम्बूर्या जम्यूरिति स्थापना क्रियते यथा चित्रलिखितजम्बूवृक्षादिः, द्रव्यजम्बूद्धिधा-आगमतो नोआगमतच, आग-15 मतस्तदर्थज्ञाताऽनुपयुक्तो, नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरोभयन्यतिरिक्तभेदात् त्रिधा, तत्राद्यौ भेदी सुप्रतीती, उभयव्यतिरिक्तद्रव्यजम्बूरपि त्रिधा-एकभविकवद्धायुष्काभिमुखनामगोत्रजन्तुभेदात् , तत्रैकभविको नाम य एकभवान-1॥ न्तरं जम्बूत्वेनोत्पत्स्यते, बद्धायुष्कस्तु येन जम्ब्वायुर्वद्धं, अभिमुखनामगोत्रस्तु यस्य जम्ब्वा नामगोत्रकर्मणी अन्तर्मुहनिन्तरमुदयमायास्यत इत्ययं त्रिविधोऽपि भाविभावजम्बूकारणत्वाइव्यजम्यूरिति, भावजम्बूरपि द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमतो ज्ञातोपयुक्तः, नोआगमतस्तु जम्बूदुम एव जम्बूदुमनामगोत्रकर्मणी वेदयन्निति, आह-यथा | | अभिमुखजम्बूभावस्य जीवस्य द्रव्यजम्बूत्वं 'भाविनि भूतवदुपचार' इति न्यायात् तथा आसन्नपश्चात्कृतजम्बूभावस्यापि 'भूतपूर्वकस्तबदुपचार' इति न्यायात् कथं न द्रव्यजम्बूत्वं निर्दिष्टं १, उच्यते, इदमुपलक्षणं, तेन तखापि न्यनिक्षेप एवान्तर्भावः 'भूतस्य भाविनो वेत्यादिद्रव्यलक्षणस्य सद्भावात् , अवानिर्देशकारणं तु श्रीउत्तराध्ययनदुमपत्रीयाध्ययननिर्युक्तौ श्रीभद्रबाहुस्वामिपादैः द्रुमनिक्षेपेऽविवक्षणं, तत्तुल्यन्यायवादस्य निक्षेपस्येति, प्रस्तुते च नोआगमतो भावज
'जम्बू, द्वीप, प्रज्ञप्ति' इति त्रयाणाम-शब्दानाम् निक्षेप-आदेः कथनं
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ------------------------
-------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीजम्यू- द्वीपशा- न्तिचन्द्रीया कृति:
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धा-प्रशस्ताप्रशस्तभावप्रज्ञप्तिभेदात् , तत्राप्रशस्तभावप्रज्ञप्तिर्यथा ब्राह्मण्याः स्वसुताः प्रति जामातृभावनिवेदनं, प्रशस्त-18 प्रस्तावना. भावप्रज्ञप्तिरियमेव अर्थतोऽहतां गणधरान् सूत्रतो गणघराणां स्वशिष्यान् प्रति, उक्कावोधनामनिष्पन्नौ निक्षेपो, सम्पति 8 सूत्रालापकनिष्पन्नः, स चावसरप्राप्तोऽपि न निक्षिप्यते, तस्य सूत्रपदाविनाभावित्वात् , सूत्रं च सूत्रानुगमे समयमाझं भवति, ततो लाघवार्थ सूत्रानुगमसमय एव निक्षेप्स्यते, निक्षेपसाम्यमात्रत्वाच्चोपदर्शनं, अधानुगमो व्याख्यानरूपः, सच 8 विधा-निर्युक्त्यनुगमः सूत्रानुगमश्च, तत्र आद्यनिधा-निक्षेपनियुक्तिउपोद्घातनियुक्तिसूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमभेदात, तत्र निक्षेपनियुक्त्यनुगमो जम्बादिशब्दानां निक्षेपप्रतिपादनादनुगत एव) उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमस्तु 'उद्देसे निहेसे अं' इत्यादिगाथाद्वयादवसेयः, सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यनुगमस्तु संहितादौ पविधे व्याख्यालक्षणे पदार्थपदविग्रहचालनामत्यव|स्थानलक्षणव्याख्यानभेदचतुष्टयस्वरूपः, स च सूत्रानुगमे संहितापदलक्षणव्याख्यानभेदद्वयलक्षणे सति भवतीत्यतः सूत्रानुगम एवोच्यते, तत्र चाल्पग्रन्थं महार्थ द्वात्रिंशदोषविरहितमष्टगुणोपेतं स्खलितादिदोषवर्जितं सूत्रमुचारणीयं, तच्चेदम्,
ॐ नमः ।। णमो अरिहंताणं । ते ण कालेण ते ण समए णं मिहिला णार्ग णयरी दोत्था, रित्यिमियसमिद्धा वणओ, तीसे मिहिलाए गयरीष बहिया उत्तरपुरच्छिमे विसीभाए एत्थ णं माणिभदे णाम चेहए होत्था, वण्णओ। जियसत्तु राया, धारिणी देवी, वण्णो । ते गं काले ण ते णं समए ण सामी समोसढो, परिसा णिग्गवा, धम्मो कहिओ, परिसा पधिगया (सू०१)
अनुक्रम
'जम्बू, द्वीप, प्रज्ञप्ति' इति त्रयाणाम-शब्दानाम् निक्षेप-आदेः कथनं
अत्र प्रथम-वक्षस्कार: आरभ्यते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
-------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
णमो अरिहंताण'मित्यादि, अस्य च व्याख्या संहितादिक्रमेण, तत्रास्खलितसूत्रपाठः संहिता, सूत्रे चास्खलितादिगुणोपेते उच्चारिते केचिदर्था अवगताः प्राज्ञानां भवन्त्यतः संहिता व्याख्याभेदो भवति, अनधिगतार्थाधिगमाय च पदादयो व्याख्याभेदाः प्रवर्तन्त इति, तत्र पदानि नमः अहन्यः इति, एवं पदकरणे सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपावसरः, तत्र नमस्कारस्य नामादिभिश्चतुर्दा निक्षेपः, तत्र नामनमस्कारो नम इत्यभिधानं, स्थापनानमस्कारो नमस्कारकरणप्रवृत्तख संकोचितकरचरणस्य काठपुस्तचित्रादिगतः साध्वादेराकारः, द्रव्यनमस्कार आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमतस्तदर्थ|ज्ञाताऽनुपयुक्तः, नोआगमतो शरीरभव्यशरीरनमस्कारौ प्रतीतो, ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यनमस्कारो निह-18 वादीनां, तेषां मिथ्याष्टित्वेनाप्रधानत्वात् , सम्यग्दृष्टेरप्यनुपयुक्ततया नमस्कुर्वतो द्रव्यनमस्कारः, राजादेव्यार्थ वा नमस्करणं तस्यैव वा भयादिना द्रमकादेमस्करणं बलवन्नरपुरुषाक्रान्तस्य धनुरादेवीभावो वा द्रव्यनमस्कारः, भाव-18 नमस्कारोऽपि आगमतो नोआगमतच, तत्र आगमतस्तदर्थज्ञातोपयुक्तो, यदा तु मनसोपयुक्तो बचनेन नमोऽर्हच इति
ब्रुवाणः कायेन तु सङ्कोचितकरचरणो नमस्कारं करोति तदा नोआगमतो भावनमस्कारः, अनेन चानाधिकारः, अथ ॥ अर्हन-जिनः सोऽपि नामादिभेदैश्चतुर्की, ते च नामादयो भेदाः-"नामजिणा जिणनामा ठवणजिणा पुण जिणिदपडिमाओ । दवजिणा जिणजीबा भावजिणा समवसरणत्था ॥१॥" अनया गाथया अवगन्तव्याः, अत्र प्रकारान्तरे
नामजिना जिननामानि स्थापनाजिना जिनेन्द्रप्रतिमाः पुनः । द्रव्यजिना जिनजीचा भावजिनाः समवसरणस्थाः ॥ १॥
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'नमो' एवं 'अरहंत' शब्दस्य नामादि निक्षेपा:
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१],-------------------------
------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्यूद्वीपशा
प्रत सूत्रांक
न्तिचन्द्रीया वृत्तिः
॥१०॥
292920200303809200020200000
णापि निक्षेपः सम्भवति परं स विस्तरभयानोपदय॑ते, एवमन्येष्वपि सूत्रालापकेषु स्वधिया यथासम्भवं निक्षेपः कार्यनमस्कारइति । उक्तः सूत्रालापकनिष्पन्न निक्षेपः, पदार्थः पुनरेवं-नम इति नैपातिक पदं द्रव्यभावसंकोचार्थ, आह च-'नेवाइयं || | निक्षेपाः पर्य दवभावसंकोयण पयत्यो" नमः-करचरणमस्तकसुप्रणिधानरूपो नमस्कारो भववित्यर्थः, केभ्य इत्याह-'अर्हज्यः'। अमरवरविनिर्मिताशोकायष्टमहामातिहार्यरूपां पूजामहन्तीत्यर्हन्तस्तेभ्यः, इह च चतुर्थ्यर्थे षष्ठी प्राकृतशैलीवशात् , अब द्रव्यसङ्कोचनं करशिरपादादिसङ्कोचः, भावसकोचनं तु विशुद्धस्य मनसोऽहंदादिगुणेषु निवेशः, तत्र च भङ्गचतुष्कद्रव्यसङ्कोचो न भावसङ्कोचो यथा पालकादीनाम् १ भावसङ्कोचो न द्रव्यसङ्कोचो यथाऽनुत्तरसुरादीनां २ द्रव्यसकोचो भावसकोचश्च यथा शाम्बस्य ३ न द्रव्यसङ्कोचो न भावसकोच इति भङ्गः शून्यः ४, इह च तृतीयभङ्गस्योपयोगः, भाव| सङ्कोचप्रधानद्रव्यसङ्कोचरूपत्वात् प्रस्तुतनमस्कारस्य, अनेन च मङ्गलान्तरस्य फलव्यभिचारित्वेनानकान्तिकत्वाचदपहाय तदन्यस्वरूपतयाऽवश्यं भावेनाभिलषितार्थसाधनसमर्थत्वादत्यन्तोपादेयं परमेष्ठिनमस्कारलक्षणं भावमङ्गलमुपात, | सत्स्वपि तपःप्रभृतिवन्यभावमङ्गलेषु यदस्योपादानं तत् शास्त्रादावस्यैव व्यवहारप्राप्तत्वमिति ज्ञापनार्थ, अत्र च बहुवचनं व्याप्त्यर्थ, तेन सकलनिक्षेपगतजिनपरिग्रहः । अथ पदविग्रहः, स च समस्तपदे सति सम्भवतीत्यत्र नोकः।
॥१०॥ || अथ चालनाप्रत्यवस्थाने-नन्बर्हतां परममङ्गलत्वेन नमस्काराभिधानतोऽप्यादौ तदुपादानमुचितमिति, सत्यं, स्वयं मङ्ग
१ नेपातिक पदं । द्रव्यभावसंकोचः पदार्थः ।
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -------------------------
-------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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लभूता अप्यहन्तः परेषां नमनस्तवनादिनैवाभीष्टफलदा भवन्तीति ज्ञापनायाईयोऽपि नमस्कारस्थादावुपन्यास इति, किश-'अरिहंताण'मित्यत्र जात्यपेक्षयैकवचनेनापि सर्वाहतां ग्रहणे सिद्धे बहुवचनेन नामस्थापनाद्रव्यभावाहतां चतुर्णा-10 मपि तुल्यकक्षतया नमस्कार्यत्वस्य ज्ञापितत्वादेकान्ततः स्वमतप्राधान्यवादितया परस्परं विवदमानेषु नामनयादिषु प्रथमतः स्वोत्प्रेक्षितयुक्त्युपदर्शनपुरस्सरं नामनयः प्राह-तथा च प्रयोगः-वस्तुस्वरूपं नाम, तत्प्रत्ययहेतुत्वात् , स्वधर्मवत् , इह यद्यस्य प्रत्ययहेतुस्तत्तस्य धर्मों यथा घटस्य स्वधर्मरूपा घटादयः, यद्यस्य धर्मों न भवति न तत्तस्य | प्रत्ययहेतुः, यथा घटस्य धर्माः पटस्य, सम्पद्यते च घटाभिधानाद् घटे सम्प्रत्ययः, तस्मात्तत्तस्य धर्म इति, सिद्धश्च | हेतुर्घटशब्दात् पटादिन्यावृत्त्या घटप्रतिपत्तेः प्रतीतत्वात् , किञ्च-लक्ष्यलक्षणसंव्यवहाराणामात्मलाभो नामायत्त एव,
तत्र लक्ष्य जीवत्वादि लक्षणमुपयोगः संव्यवहारः प्रेपणाध्येषणादिरिति, तथा यदि नानो वस्तुधर्मत्वं नाभ्युपगम्यते तदा 10 संशयादयोऽपि (दय एव) भवेयुः, यदुक्तम्-"संसयविवज्जओ वाऽणज्झवसाओऽहवा जहिच्छाए। होजऽत्थे पडिवत्ती न |
वत्थुधम्मो जया नामं ॥१॥" अत्र व्याख्यालेश:-केनचिद् घटशब्दे समुच्चारिते श्रोतुः किमयमाहेत्येवं संशयः अथवा
पटप्रतिपत्तिलक्षणो विपर्ययः अथवा न जाने किमप्यनेनोक्तमिति वस्त्वप्रतिपत्तिरूपोऽनध्यवसायः यदिवा यहच्छयाऽर्थे | 8 प्रतिपत्ति:-कदाचिद् घटस्य कदाचित्पटस्वेत्यादि, ततोऽवश्य वस्तुधर्मो नामाभ्युपगन्तव्यमित्यादि, तदेवं नामनयेन
संशयो विपर्ययो वाऽनभ्यवसायोऽथवा यरच्छया। भवेदर्थे प्रतिपत्तिन वस्तुपर्मो यदा नाम ॥१॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
-------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
चतुर्क
सूत्रांक
श्रीजम्बू-18 स्वमते व्यवस्थापिते स्थापनानयः प्राह-नानो वस्तुसंज्ञामात्ररूपस्य वाच्यवाचकभावसम्बन्धमात्रेणैव स्थितत्वाद्वस्तुनोऽति-18 निक्षेप
द्वीपशा- 18 दूरत्वं स्थापनायास्तु वस्तुसंस्थानरूपायास्तादात्म्यसम्बन्धेनार्वस्थितत्वाद्भावप्रत्यासन्नत्वं, किश्च-देशान्तरकालान्सरविप्रकन्तिचन्द्री
टमपि वस्तु स्थाप्यप्रतिमादौ सन्निदधाति अन्यथा मन्त्रागमे सन्निधापन्यादिमुद्राप्ररूपणानां नैष्फल्यप्रसङ्गा, यथा या वृतिः
स्थापनेन्द्रः शचीकुलिशादिसाचिव्येन निर्विलम्ब तदेकतानानां भावधियं जनयति न तथा नामेन्द्रः, तस्यानाकारत्वात् , तस्मात् स्थापनैव प्रधानाऽस्तु, स्थापनानयेनैवमुक्के द्रव्यनयः स्वाशयमाविर्भावयति-को हि नाम स्थापनानयस्याकारग्रहो? यस्मादनादिमदुत्प्रेक्षितपर्यायशृङ्खलाधारस्य मृदादिद्रव्यस्य पूर्वपर्यायमात्रतिरोभावेऽग्रेतनपर्यायमात्राविर्भावल-18 क्षणपरिणामव्यतिरेकेण नान्यत् किमयाकारदर्शनं, किन्तूत्पादव्ययरहितं उत्फणविफणकुण्डलिताकारसमन्वितसर्प-101 द्रव्यवनिर्विकारं द्रव्यमेवास्ति, न ह्यत्र किमप्यपूर्वमुत्पद्यमानं वा विनश्यति (वा) येन विकारः स्यात् , ननु कथमुत्पादा-1 |दिरहितं द्रव्यं ?, यावता सादिके द्रव्ये उत्फणविफणादयः पर्याया उत्पद्यमाना निवर्तमानाश्च साक्षादेव दृश्यन्ते | इति चेत्, न, आविर्भावतिरोभावमात्रपरिणामस्य कारणं द्रव्यं, यथा सर्प उत्फणविफणावस्थयोरिति, न यथापूर्व
किश्चिदुत्पद्यते, किं तहिं ?, छन्नरूपतया विद्यमानमेवाविर्भवति, नाप्याविर्भूतं सद् विनश्यति, किन्तु छन्नरूपतया तिरो[ भावमानमेवासादयति, एवच सत्याविर्भावतिरोभावमात्र एव कार्योपचारात्कारण(त्व)मस्यौपचारिकमेव, तस्मादुत्पादा-18
दिरहितं द्रव्यमुच्यत इति, ननु योकस्वभाव निर्विकारं द्रव्यं तनन्तकालभाविनामनम्तानामप्याविर्भावतिरोभावा-15
अनुक्रम
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
-------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
I|नामेकहेलयैव कारणं किमिति न भवतीति !, उच्यते, अचिन्त्यस्वभाव हि द्रव्यं, तेनैकस्वभावस्थापि तस्य क्रमेणवा-1
विर्भावतिरोभावमात्रप्रवृतिः सादिद्रव्येष्वकस्वभावेष्वप्युत्फणविफणादिपर्यायाणां क्रमवृत्तेः प्रत्यक्षसिद्धत्वादिति, ननु यद्येवमुत्फणविफणादिबहुरूपत्वात् पूर्वावस्थापरित्यागेन चोत्तरावस्थाधिष्ठानादनित्यता द्रव्यस्य किमिति न भवति P.M उच्यते, वेषान्तरापन्ननटवद् बहुरूपमपि द्रव्यं नित्यमेव, न हि नटो वेषान्तराणि कुर्वाणोऽप्यनित्यो भवति, तस्य स्वयमविकारित्वादिति द्रव्यमेव प्रधानमिति । एवं द्रव्यनयन स्वमते व्यवस्थापिते भावनयः प्राह-भावेभ्यः पर्याया
रनामभ्योऽर्थान्तरभूतं किमपि द्रव्यं नास्ति, किन्तु भाव एव यदिदं दृश्यते त्रिभुवने वस्तुनिकुरम्बमिति, यतः प्रसिशक्षणं भवेनमेवानुभूयते, किमुक्तं भवति :-भावस्यैकस्यापत्तिः परस्य तु विपत्तिः, न च भावापत्तिविपत्ती हेत्वपेशे, या
हेतुः स एव द्रव्यमिति वाच्यं, न हि भावो घटादिरुत्पद्यमानो भावान्तरं मृत्पिण्डादिकमपेक्षसे किन्तु निरपेक्षमेवोत्प-11 ॥॥ यते, अपेक्षा हि विद्यमानस्यैव भवति, न च मृत्पिण्डादिकारणकाले घटादि कार्यमस्ति, अविद्यमानस्य चापेक्षायां ||
खरविषाणस्यापि तथाभावप्रसङ्गात्, यदिचोत्पत्तिक्षणात् प्रागपि घटादिरस्ति, तर्हि किं मृत्पिण्डाद्यपेक्षया, तख स्वत एव विद्यमानत्वात् , अथोत्पन्नः सन् घटादिः पश्चात् मृत्पिण्डादिकमपेक्षते, हन्त ! तदिदं मुण्डितशिरसी विनशुद्धिप-18 योलोचन, यदि हि स्वत एष कथमपि निष्पक्षो घटादिः किं तस्य पश्चात् मृत्पिण्डाद्यपेक्षयेति, तथा विनाशोऽमि || निसुक एप, मुहरोपनिपातादिसव्यपेक्षा एव घटादयो विनाशमाविशन्तो दृश्यन्ते च हि निहतुका इति चेत्, नैव, विका-RA
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
-------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
निक्षेप
प्रत
सूत्रांक
श्रीजम्बू- द्वीपशा- न्तिचन्द्री- या वृत्तिः ॥१२॥
शहेतोरयोगात् , तथाहि-मुद्रादिना विनाशकाले किं घटादिरेव क्रियते आहोश्वित्कपालादय उत तुच्छरूपोऊभाव। इति त्रयी गतिः, तत्र न तावद् घटादिस्तस्य स्वहेतुभूतकुलालादिसामग्रीत एवोत्पत्तेः, नापि कपालादयस्तत्करणे | घटादेस्तदवस्थत्वप्रसङ्गात् , न ह्यन्यकरणे अन्यस्य निवृत्तियुक्तिमती, एकनिवृत्ती शेषभुवनत्रयस्यापि निवृत्तिप्रसङ्गात् , नापि तुच्छरूपोऽभावः, खरशृङ्गास्येव नीरूपस्य तस्य कर्तुमशक्यत्वात् , करणे वा घटादेस्तदवस्थताप्रसङ्गाद्॥ अन्यकरणेऽन्यनिवृत्त्यसम्भवादिति विनाशे मुद्गरादिकं सहकारिकारणमेव न तु तजनक, घटादिस्तु क्षणिकत्वेन नि:तुकः स्वयमेव निवर्तते, तस्माजन्मविनाशयोर्न किश्चित्केनचिदपेक्ष्यते, अपेक्षणीयाभावाच न किश्चित्कस्यचित्कारणं, तथा च सति न किश्चिद्रव्यं, किन्तु पूर्वापरीभूताः परापरक्षणरूपाः पर्याया एव सन्तीति । अत्र नामादिनयाधिकारे | बहु वक्तव्यं तत्तु विशेषावश्यकादवसेयमिति, एवमसम्पूणार्थनाहित्वाद् गजगात्रभिन्न देशसंस्पर्शने बहुविधविवादमुखरजात्यन्धवृन्दवद्विवदमाने नयवृन्दे मिथ्यादृष्टित्वमुद्भाव्य तत्तिरस्करणाय सर्वनयसमूहात्मकस्याद्वादसुधारसास्वादरसिकतामनुभवतामयमुगारः, तथाहि-लोके यत्किमपि घटपटादिकं वस्त्वस्ति तत् सर्वमन्योऽन्यसापेक्षनामादिचतु-| टयात्मकं, न पुनः केवलनाममयं वा केवलाकाररूपं वा केवलद्रव्यताश्लिष्टं वा केवलभावात्मकं वा, यतः एकस्मिन्नपि शचीपत्यादौ इन्द्र इति नाम तदाकारस्तु स्थापना उत्तरावस्थाकारणत्वं तु द्रव्यत्वं दिव्यरूपसम्पत्तिकुलिशधारणपरमैश्वर्यादिसम्पन्नत्वं तु भाव इति नामादिचतुष्टयमपि प्रतीयते, एतदर्थसंवादका उत्तराध्ययनवृहद्वृत्त्युक्ताः श्लोका अपि
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अनुक्रम
॥१२॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
-------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
यथा-"संविनिष्ठय सर्वापि, विषयाणां व्यवस्थितिः । संवेदनश्च नामादिविकलं नानुभूयते ॥१॥ तथाहि-पटोऽयमिति
नामैतत् , पृथुबुभादि चाकृतिः। मृद्रव्यं भवनं भाषो, घटे दृष्ट चतुष्टयम् ॥२॥ तत्रापि नाम नाकारमाकारो नाम नो विना। IS ती विना नाम नान्योऽन्यमुत्तरावपि संस्थिती॥ ३॥ मयूराण्डरसे यद्ववर्णा नीलादयः स्थिताः । सर्वेऽप्यन्योऽन्यमु-11 |म्मिश्रास्तद्वनामादयो घटे ॥४॥” इति, तदेवं सर्व वस्तु नामादिचतुष्टयात्मकमेव, तेनात्र नामस्थापनाद्रव्यभावान्त-11 श्चत्वारोऽपि नमस्कार्या एवेत्यागतमिति । अत्र कश्चिदग्राह्यनामधेयो भक्षितलशुनपिशुनभूतमुद्गिरति-भवतु नाम ||
वाच्यवाचकभावसम्बन्धेन भावसन्निहितत्वान्नानो नमस्कार्यत्वं, स्थापनायास्तु भावविप्रकृष्टत्वेन तत्कथमिति चेत्, 1 उच्यते, तस्या अपि जिनयुक्त्पादकत्वादिभिर्हेतुभिः सुतरां भावासन्नत्वान्नमस्कार्यत्वमुपपक्षमिति मा मुग्ध मुधाऽनन्त-18
तीर्थकृदनुज्ञातस्थापनाऽपलापपापपलितां कलय, कलयसि न किं स्थापनाद्रोणाचार्यसम्यग्विनयोपनां जगदतिशा-॥६॥ यिनीमर्जुनसन्तर्जनी धनुर्वेदसिद्धिं, तथा च प्रतिक्रमणादी बन्दनकप्रदाने रजोहरणादिक गुरुचरणतया व्यपदिशसि || || स्थापनानिक्षेपं चापलपसि अहो वदव्याघातस्तव, अपिच-चित्रापितनिजजनकवदनमुपानयां प्रहरते नराय कुप्यसि || |चित्रन्यस्तकुम्भस्तनीं निध्यायन हप्यसि मिथ्यावादं कुर्वस्तथापि न तृप्यसि, किमपराद्धं तष पुरुषधुरन्धरस्थापनया
तथा वदामि सुहावन-भावकारणतया द्रव्यमपि स्वीकुरु नमस्कार्यतया, अन्यथा पद्मनाभादीन् द्रव्यजिनान् नम स्कुर्वतः द्रव्यनृपं च भावी राजेतिया उपचरतश्च तवार्द्धनारीश्वरवेषविडम्बना समापतिता, तेन त्यज टिभिमान
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ---------------------
------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रस्तावना..
प्रत सूत्रांक
श्रीजम्यू-18 भज श्रीजिनाज्ञा सबहुमानं, ततस्तवापि युक्तियुक्तं सर्वेषामर्हन्निक्षेपाणां नमस्कार्यत्वमित्यर्स प्रसङ्गेन, अब प्रकृतं प्रस्तु- द्वीपशान्तिचन्द्री-18
18 मः, उक्तः सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्त्यनुगमः, तदेवं मङ्गलसूत्रमधिकृत्य सूत्रानुगमसूत्रालापकनिक्षेपसूत्रस्पर्शिकनिषुसवनुगमSHAHIR नया उपदर्शिताः, एवं प्रतिसूर्य स्खयमनुसरणीयं । अथ यस्यां नगर्या यस्मिन्नुघाने यथा भगवान् गौतमस्वामी भग-
18वतः श्रीमन्महावीरस्यान्ते पृष्टवान् यथा च तस्मै भगवान् व्यागृणाति स्म तथोपोद्घातमुपदिदर्शविकुरिदमाह- ते
ति, अख व्याख्या-ते इति प्राकृतशैलीवशात्तस्मिन्निति द्रष्टव्यं, अस्थायमर्थों-बदा भगवान् विहरति स्म तस्मिन्निति 'काले' वर्तमानावसर्पिणीचतुर्थारकविभागरूपे, उभयत्रापि णमिति वाक्यालङ्कारे, अथवा सप्तम्यर्थे तृतीया आपत्वात् , 8 बदाहुः श्रीहेमसूरिपादाः, स्वप्राकृतलक्षणे-"आ तृतीयापि दृश्यते-तेणं कालेणं तेणं समएण, तस्मिन् काले तस्मिन् । समये इत्यर्थः, (सि०८-३-१३७)” 'तेणं समएणं'ति समयोऽवसरवाची, तथाच लोके वक्तारो-नाद्याप्येतस्य समयो। वर्त्तते, नास्त्यस्यावसर इत्यर्थः, तस्मिन्निति यस्मिन् समये भगवान् प्रस्तुतां जम्बूद्वीपवक्तव्यतामचक्थत् वस्मिन् समये मिथिला नाम नगरी अभवत् , नन्विदानीमपि सा नगरी वते ततः कथमुक्तमभवदिति', उच्यते, वक्ष्यमा[णवर्णकमन्थोकविभूतिसमेता तदैवाभवत्, नतु विवक्षितप्रकरणकर्तुः प्रकरणविधानकाले, एतदपि कथमवसेयमिति
चेत् , उच्यते, अयं चावसर्पिणीकालः, अस्यां च प्रतिक्षणं शुभा भावा हानिमुपगच्छन्ति, एतच्च सुप्रतीतं जिनप्रवचनवे18 दिनामतोऽभवदित्युच्यमानं न विरोधमाक्, सम्पति अस्या नगर्या वर्णकमाह-रिथिमियसमिद्ध'त्ति ऋया-भवनः
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ------------------------
-------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
(१)
पौरजनैश्चातीव वृद्धिमुपागता, 'ऋधुच् वृद्धा चितिवचनात् , स्तिमिता-स्खचक्रपरचक्रादिसमुत्थभयकल्लोलमालावर्जिता, समृडा-धनधाम्यादिविभूतियुक्ता, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, 'वण्णओ'ति ऋद्धसिमितसमजा इत्यादि जीप-II पातिकोपाङ्गप्रसिद्धः समस्तोऽपि वर्णको द्रष्टव्यः, (उ० सू०१) अत्रालिखनं तु ग्रन्थगौरवमयादिति । तस्याः गमिति || | पूर्ववत् , मिथिलाया नगर्या बहिस्तात् उत्तरपौरस्त्वे-उत्तरापूर्वान्तरालरूपे दिग्भाग ईशानकोण इत्यर्थः, अत्र एकारो 18 मागधभाषानुरोधतः प्रथमैकवचनप्रभवः, यथा-'कयरे आगच्छइ दित्तरूवें' (उत्त०१२-६) इत्यादौ, 'अब' अस्मिनु||त्तरपौरस्त्ये दिग्विभागे माणिभद्रं नाम चैत्यमभवत् , चिते:-लेप्यादिचयनस्य भावः कर्म या चैत्य, तच संज्ञाशब्द|| त्वाद्देवताप्रतिबिम्बे प्रसिद्धं, ततस्तदाश्रयभूतं यदेवताया गृहं तदप्युपचाराचैत्यमुच्यते, तच्चेह व्यन्तरायतनं द्रष्टव्यं, न तु भगवतामहतामायतनं, तस्य च चिरातीतमित्यादिवर्णकस्तत्परिक्षेपिवनखण्डवर्णकसहित औपपातिकतोऽयसेवा, (उ० सू०२) तस्यां मिथिलायां नगर्या जितशत्रुर्नाम राजा, तस्य सकलखीगुणधारिणी धारिणी नामा देवी, कृताभिपेका पट्टराज्ञी इत्यर्थः, उभयत्राप्यभवदिति शेषः, 'वण्णओ'त्ति अत्र राज्ञो 'महयाहिमवन्तमहन्ते'त्यादिको राश्याश्च 'सुकुमालपाणिपाये'त्यादिको वर्णकः प्रथमोपाङ्गप्रसिद्धोऽभिधातव्यः (उ० सू०६-७) अथात्र यज्जातं तदाह-18 'तेणं कालेणं तेणं समएणं'ति पूर्ववत् , स्वामीति समर्थविशेषणं विशेष्यमाक्षिपति तेनात्र श्रीमम्महावीरः समक्सत इत्यर्थः, आत्यन्तिक स्वामित्वं तस्यैव त्रिभुवनविभोरिति, अत्र च यथा निष्प्रतिमप्रातिहार्यादिसमृख्या समन्वितो
अनुक्रम [१]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ------------------------
-------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बूद्वीपशा- न्तिचन्द्री- या वृत्ति
॥१४॥
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% यथा च श्रमणादिपरिवारेण परिवृतः समवसृतः यथा च समवसरणवर्णकं तचौपपातिकमन्धादवसेयं (ज. सू०१०/ प्रस्तावना
यावत् २६)। पर्षनिर्गता-मिथिलाया नगर्या वास्तव्यो जनः समस्तोऽपि भगवन्तमागतं श्रुत्वा विवन्दिपया स्वस्मात् ॥ स्वस्मात् आश्रयाद्विनिर्गत इत्यर्थः, 'तए णं मिहिलाए णयरीए सिंघाडगे'त्यादिक 'जाव पंजलिउडा पजुवासंती'ति पर्यन्तमीपपातिकगतमवगन्तव्यं (उ० सू०२७)। तस्याः पर्षदः पुरतो निःशेषजनभाषापरिणामिन्याऽर्द्धमागधभाषया । धर्मः कथितः, स चैवं-"अस्थि लोए अस्थि अलोए अत्थि जीवा अत्थि अजीवा" इत्यादि, तथा-"जह जीवा बझंती | मुचंती जय संकिलिस्संति । जह दुक्खाण अंतं करेंति केई अपडिबद्धा ॥१॥ अट्टदुहट्टियचित्ता जह जीवा दुक्स-IM सागरमुषिति । जह वेरग्गमुधगया कम्मसमुग्गं विहाडेंति ॥२॥ जह रागेण कढाणं कम्माणं पापओ फलविवागो । ||जह य परिहीणकम्मा सिद्धा सिद्धालयमुर्विति ॥३॥ तहा आइक्वति"त्ति (उ० सू०३४)। पर्षत् प्रतिगता
स्वस्थानं गता, प्रतिगमनसूवमपि 'तए णं सा महइमहल्लिया परिसा' इत्यादि तामेव दिसं पडिगया' इति पर्यन्तं तत |एवोपाकादवगन्तव्यमिति ( उ० सू०३५-३६-३७) । अथ पर्षत्प्रतिगमनानन्तरं यज्जातं तदाह
तेणं कालेणं तेण समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेडे अंतेवासी इंदभूई णाम अणगारे गोअमगोत्तेणं सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणे जाव [ तिखुत्तो आयाहिणं पयाहिण करेइ बंदइ णमंसइ बंदिता णमंसित्ता ] एवं व्यासी (सू०२) कहि ण भंते | अंबु
M ॥१४॥ दीवे ! फेमहालए णं भवे ! जंबुद्दीवे ! २ किंसंठिए थे भंते ! जंबुद्दीवे ३ किमायारभावपडोयारे ण भंते ! जंबुद्दीचे ४ पण्णत्ते,
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
---------- मूलं [२-३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२,३]
दीप अनुक्रम [२,३]
गोवमा ! अयण जंबुद्दीवे २ सवदीवसमुदाणं सत्रमंतराए १ सन्नखुड्डाए २ वट्टे तेल्लापूयसठाणसंठिए बट्टे रहचवालसंठाणसंठिए - बट्टे पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिए बढे पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए ४ एग जोयणसयसहस्सं आयामविक्खमेणं तिणि जोयणसयसइस्साई सोलस सहस्साई दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसए तिणि य कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचिविसेसाहिवं परिक्सेवेणं पण्णत्ते ॥ (सू०३)
तेणं कालेणं'ति तस्मिन् काले-भगवतो धर्मदेशनाव्युपरमकाले तस्मिन् समये-पर्षत्प्रतिगमनावसरे श्राम्यति-तपस्थति नानाविधमिति श्रमणस्तस्य भगः-समग्रैश्वर्यादिलक्षणः सोऽस्यास्तीति भगवान् तस्य 'शूर वीर विक्रान्ती' वीरयति || कपायान प्रति विकामति स्मेति वीरः महांश्चासौ वीरश्च महावीरस्तस्य ज्येष्ठः-प्रथमः अन्तेवासी-शिष्यः, अनेन पदर-18॥ येन तस्य सकलसहाधिपतित्वमाह, इन्द्रभूतिरिति मातापितृकृतनामधेयः 'णामन्ति विभक्तिपरिणामेन नाम्नेत्यर्थः, अन्तेवासी किल विवक्षया श्रावकोऽपि स्यादित्यत आह-नास्यागारं-गृहं विद्यत इत्यनगारः, अयं च विगीतगोत्रोऽपि स्यादत आह-गौतमो गोत्रेण, गोतमाह्वयगोत्रजात इत्यर्थः, अयं च तत्कालोचितदेहमानापेक्षया न्यूनाधिकदेहोऽपि स्यादिति 'सप्तोत्सेधः' सप्तहस्तप्रमाणकायोच्छायः, मयूरव्यंसकादित्वात् मध्यपदलोपः सहस्रार्जुनशब्दवत्, अयं च |8|
लक्षणहीनोऽपि स्यादिति 'समचतुरस्रा' समाः-शरीरलक्षणशास्त्रोक्तप्रमाणाविसंवादिन्यश्चतम्रोऽनय:-चतुर्दिग्विभागो18पलक्षिताः शरीरावयवा यस्य स तथा, अन्ये वाहुः-समा अन्यूनाधिकाश्चतस्रोऽप्यश्रयो यस्खेति पूर्ववत्, अनयश्च
10s00080920080999
श्रमण, भगवन, महावीर, अनगार आदि शब्दस्य अर्था:
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
---------- मूलं [२-३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [२,३]
दीप अनुक्रम [२,३]
श्रीजम्यू-18|| पर्यासनोपविष्टस्य जानुनोरन्तरं आसनस्य ललाटोपरिभागस्य चान्तरं दक्षिणस्कन्धस्य जानुनश्चान्तरं वामस्कन्धखरगौतमवर्णन
18 दक्षिणजानुनश्चान्तरमिति, यावच्छन्दादिदमवसेयं-बजरिसहनारायसंघयणे कणगपुलगनिघसपम्हगोरे उग्गतवे ओरान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
ले घोरे पोरगुणे पोरतबस्सी पोरबंभचेरवासी उच्छुढसरीरे संखित्तविउलतेउलेसे चउदसपुषी चउणाणोवगए सब-||
क्खरसन्निवाई समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते उहुंजाणू अहोसिरे शाणकोट्टोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं है •॥१५॥ भावमाणे विहरइ।तए ण से भगवं गोअमे जायसहे जायसंसए जायकोऊहले उप्पण्णसहे ३ संजायसहे। समुप्पण्णसहे ॥४॥
8३ उहाए उहेइ २ चा जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २त्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं
पयाहिण करेइ २त्ता वंदह नमसइ वंदित्ता नमसित्ता पच्चासन्ने नाइदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंज|लिउडे पज्जुवासमाणे एवं बयासी' अत्र व्याख्या-अनन्तरोक्तविशेषणो हीनसंहननोऽपि स्यादत आह-'वज'चि, वज्र
भनाराचसंहननः, तत्र नाराचम्-उभयतो मर्कटबन्धः ऋषभः-तदुपरि वेष्टनपट्टः कीलिंका-अस्थित्रयस्यापि भेदकमस्थि एवंरूपं संहननं यस्य स तथा, अयं च निन्द्यवर्णोऽपि स्यादत आह-कणग'त्ति कनकस्य-सुवर्णस्य पुलकोलवस्तस्य यो निकष:-कपपट्टके रेखारूपः तद्वत, तथा 'पम्ह'त्ति अवयवे समुदायोपचारात् पद्मशब्देन परकेसरा||ण्युच्यन्ते तदद गौर इति, अयं च विशिष्टचरणरहितोऽपि स्यादत आह-उग्रम्-अप्रधृष्यं तपा-अनशनादि यख स | तथा, यदन्येन चिन्तितुमपि न शक्यते तद्विधेन तपसा युक्त इत्यर्थः, तथा दीर्घ-जाज्वल्यमानदहन इव कर्मकनग
हर
इन्द्रभूति गौतमस्य वर्णनं- मूलं एवं परिभाषा सहितं
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
---------- मूलं [२-३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [२,३]
दीप
| हनदहनसमर्थतया ज्वलितं तपो-धर्मध्यानादि यस्य स तथा, तथा तत तपो येन स तथा, एवं हि तेन तप्तं तपो येन | सर्वाण्यशुमानि कर्माणि भस्मसात्कृतानीति, तथा महत्-प्रशस्तमाअंसादिदोषरहित्त्वात् तपो यस्य स तथा, तथा उदार:प्रधानः, अथवा 'ओरालो' भीष्मः, उग्रादि विशेषणविशिष्टतपःकरणतः पार्थस्थानामल्यसत्त्वानां भयानक इत्यर्थः, तथा घोरो-निर्पणः, परीपहेन्द्रियादिरिपुगणविनाशनमाश्रित्य निर्देय इत्यर्थः, अन्ये तु आत्मनिरपेक्ष घोरमाहुः, तथा| घोरा-इतरैर्दुरनुचरा गुणा:-मूलगुणादयो यस्य स तथा, तथा घोरस्तपोभिस्तपस्वी, तथा घोरं-दारुणमल्पसत्वैर्दुरनुचरत्वात् यद् ब्रह्मचर्य तत्र वस्तुं शीलं यस्य स तथा, उच्छूढ-उज्झितं संस्कारपरित्यागात् शरीरं येन स तथा, सङ्क्षि
मा-शरीरान्तर्गतत्वेन इस्वतां गता विपुला-विस्तीर्णा अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रितवस्तुदहनसमर्थत्वात् तेजोलेश्याA विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेषप्रभवा तेजोज्वाला यस्य स तथा, चतुर्दश्च पूर्वाणि विद्यन्ते यस्य स तथा, तेन तेषां रचि
तत्वात् , अनेन तस्य श्रुतकेवेलितामाह, स चावधिज्ञानादिविकलोऽपि स्यादत आह-'चतुर्ज्ञानोपगतः' मतिश्रुतावधि18| मनःपर्यायरूपज्ञानचतुष्कसमन्वित इत्यर्थः, उक्तविशेषणद्वयकलितोऽपि कश्चिन्न समग्रश्रुतविषयव्यापिज्ञानो भवति,
चतुर्दशपूर्वविदां पटूस्थानपतितत्वेन श्रवणात् , अत आह-सर्वे च ते अक्षरसन्निपाताच-अक्षरसंयोगास्ते ज्ञेयतया सन्ति 18| यस्य स तथा, किमुक्तं भवति !-या काचिजगति पदानुपूर्वी वाक्यानुपूर्वी वा सम्भवति ताः सर्वा अपि जानाति,
अथवा अय्याणि-श्रुतिसुखकारीणि अक्षराणि साङ्गत्येन नितरां वदितुं शीलमस्येति स तथा, एवंगुणविशिष्टो भगवान्
poectsesesesestaeoececestaes
अनुक्रम [२,३]
Cassesses
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
---------- मूलं [२-३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२,३]
दीप अनुक्रम [२]
& विनयराशिरिव साक्षादितिकृत्वा शिष्याचारत्वाच्च श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अदूरसामन्तेन विहरतीति योगः, तत्र
दूर-विप्रकृष्ट सामन्त-संनिकृष्टं तत्प्रतिषेधाद् अदूरसामन्तं तत्र, नातिदूरे नातिनिकटे इत्यर्थः, किंविधः सन् तत्र विहन्तिचन्द्री- रतीति ?-ऊर्ध्व जानुनी यस्य स तथा, शुद्धपृथिव्यासनवर्जनादौपग्रहिकनिषद्याया अभावाच्चोत्कटुकासन इत्यर्थः, अधःया वृतिः
शिरा-नोखं तिर्यग्वा विक्षिप्तदृष्टिः, किन्तु नियतभूभागनियमितदृष्टिरित्यर्थः, ध्यानं धर्म शुक्ल वा तदेव कोष्ठः-कुशूलो ॥१६॥ ध्यानकोष्ठस्तमुपागतः, यथा हि कोष्ठके धान्यं निक्षिप्तमविप्रस्तं भवति एवं भगवानपि ध्यानतोऽविप्रकीर्णेन्द्रियान्त:-IN
करणवृत्तिरित्यर्थः, संयमेन-पश्चाश्रवनिरोधादिलक्षणेन तपसा-अनशनादिना चशब्दोऽत्र समुच्चयार्थों लुप्तो द्रष्टव्यः, MS | संयमतपसोर्ग्रहणं चानयोः प्रधानमोक्षाङ्गत्वख्यापनार्थ, प्राधान्य च संयमस्य नवकर्मानुपादानहेतुत्वेन तपसश्च पुराण- IST
कर्मनिर्जराहेतुत्वेन, भवति चाभिनवकर्मानुपादानात् पुराणकर्मक्षपणाच सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्ष इति, आत्मानं
| 'भावयन्' वासयन् 'विहरती'ति तिष्ठतीत्यर्थः, ततो ध्यानकोष्ठोपगततया विहरणादनन्तरं, 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे, 11'से' इति प्रस्तुतपरामर्शार्थः, अनेन गतार्थत्वे यत्पुनर्भगवान् गौतम इत्युपादानं तत्पुनः पुनरुपात पापापनोदकं भग-118
वतो गौतमस्य नामेति सुगृहीतनामधेयत्वमाह, 'जायसहे' इत्यादि, जातश्रद्धादिविशेषणः सन्नुत्तिष्ठतीति योगः, तत्र जाता-प्रवृत्ता श्रद्धा-इच्छा वक्ष्यमाणार्थतत्त्वज्ञानं प्रति यस्य स तथा, तथा जातः संशयो यस्य स तथा, संशयो नामा|| नवधारितार्थ ज्ञानं, स चैव-तीर्थान्तरीयैर्जम्बूद्वीपवक्तव्यताऽन्यथाऽम्यथोपदिश्यते ततः किं तत्वमिति संशयः, तथा
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
---------- मूलं [२-३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [२,३]
दीप
जातं कुतूहलं यस्य स तथा, जातौत्सुक्य इत्यर्थः, कथमेनां जम्बूद्वीपवक्तव्यतां सर्वज्ञो भगवान् प्रज्ञापयिष्यतीति, तथा उत्पन्ना-पागभूता सती भूता श्रद्धा यस्यासौ, अथ जातश्रद्ध इत्येतावदेवास्तु किमर्थमुत्पन्नश्रद्ध इत्यभिधीयते !, ॥ प्रवृत्तबद्धत्वेनैवोत्पन्नश्रद्धत्वस्य लब्धत्वात् , न ह्यनुत्पन्ना श्रद्धा प्रवर्तते इति, अत्रोच्यते, हेतुत्वप्रदर्शनार्थ, हेतुत्वम-11
दर्शनं च उचितभेव, वाक्यालकारत्वात्तस्य, यथाहुः-"प्रवृत्तदीपामप्रवृत्तभास्करां, प्रकाशचन्द्रां बुबुधे विभावरीम् ।" || इह यद्यपि प्रवृत्तदीपत्वादेवाप्रवृत्तभास्करत्वमवगतं तथाप्यप्रवृत्तभास्करत्वं प्रवृत्तदीपत्वादेर्हेतुतयोपन्यस्तमिति सम्यक् ॥ || तथा 'उप्पण्णसंसये उप्पण्णकोउहले' इति प्राग्वत् , तथा 'संजायसहे'इत्यादिपदपदं प्राग्वत्, नवरमिह संशब्दः प्रकपादिवचनो वेदितव्यः, अन्ये त्वाः-जातश्रद्धत्वाद्यपेक्षयोत्पन्नश्रद्धत्वादयः समानार्था विवक्षितार्थस्य प्रकर्षप्रतिपादनाय हैं स्तुतिमुखेन ग्रन्थकृतोताः, न चैवं पुनरुक्तदोषः, यदाह-"वका हर्षभयादिभिराक्षिप्तमनाः स्तुवंस्तथा निन्दन् । यत्प-| दमसकृद् जूते तत्पुनरुक्तं न दोषाय ॥१॥"इति, उत्थानमुत्था-ऊर्ध्व वर्णनं तया उत्तिष्ठति-उदो भवति, ऊद्देति पाठा-18 न्तरम् , इह 'उढेई'त्युक्ते क्रियारम्भमात्रमपि प्रतीयते यथा वक्तुमुत्तिष्ठत इति ततस्तद्व्यवच्छेदार्थमुक्तमुत्थयेति, उपाग-18 च्छतीत्युत्तरक्रियापेक्षया उत्थानक्रियायाः पूर्वकालताभिधानायोत्थायेति क्त्वाप्रत्ययेन निर्दिशति, यद्यपि द्वयोः क्रिययोः | पूर्वोत्तरनिर्देशाभ्यां पूर्वकाल आक्षेपलभ्य एव तथापि भुञ्जानो प्रजति इत्यादौ द्वयोः क्रिययोयौंगपद्यदर्शनादानन्तर्यसूचनार्थमित्थमुपन्यासः, उत्थानक्रियासध्यपेक्षत्वादुपागमनक्रियाया इति, तथा प्राकृतशैलीवशादव्ययत्वाद्वा 'येने ति |
अनुक्रम [२,३]
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
---------- मूलं [२-३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२,३]
दीप अनुक्रम [२,३]
श्रीजम्य- यस्मिन्नित्यर्थे द्रष्टव्यं, यस्मिशेव दिग्भागे श्रमणो भगवान महावीरो वर्चते 'तेणेवेति तस्मिन्नेव दिग्भागे पागच्छति, गौतमवर्णन द्वीपशा-18 इह वर्तमानकालनिर्देशस्तरकालापेक्षया उपागमनक्रियाया वर्तमानत्वात्, परमार्थतस्तूपागतयानिति द्रष्टव्य, उपागम्य
च श्रमणं भगवन्तं महावीरं कर्मताऽऽपन्नं विकृत्व:-चीन वारान् 'आदक्षिणप्रदक्षिणं करोति' आदक्षिणाद्-दक्षिण-18 या वृत्तिः
तादारभ्य प्रदक्षिणः-परितो भ्राम्यतो दक्षिण एव आदक्षिणप्रदक्षिणस्तं करोति, कृत्वा बन्दते-वाचा स्तौति नमस्पति-18 ॥१७॥ कायेन मणमति, वन्दित्वा नमस्थित्वा च नैवात्यासन्न:-अतिनिकटोऽवग्रहपरिहारात् , अथवा नात्यासने खाये वर्चमान 8
इति गम्यं, तथा नैवातिदूरे-अतिविप्रकृष्टेऽनौचित्यपरिहारात् , अथवा नातिदूरे स्थाने वर्तत इति गम्यं, 'शुश्रूषन् | भगवद्वचनानि श्रोतुमिच्छन् अभि-भगवन्तं लक्षीकृत्य मुखमस्येत्यभिमुखः विनयेन प्रकृष्टः-प्रधानो ललाटतटघटिलत्वे-181 8 नाञ्जलिः-संयुतहस्तमुद्राविशेषः कृतो-विहितो येन स प्राञ्जलिकृतः, आहिताइयादेराकृतिगणतया कृतशब्दस्य परनि-18
पातः, 'पर्युपासीना' सेवमानः, अनेन विशेषणकदम्बकेन च अवणविधिदर्शितः, यदाह-"निंदाविगहापरिवजिपहिं | गुत्तेहिं पंजलिउडेहिं । भत्तिबहुमाणपुर्व उवउत्तेहिं सुणेयचं ॥१॥” एवं' वक्ष्यमाणप्रकारेणावादीत्-जम्बूद्वीपवक्तव्य-18 ताविषयं प्रश्नमुक्तवान् , जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिमातृकारूपचतुःप्रश्री हृदयाभिसंहितां भगवत्पुरतो वाग्योगेन प्रकटीचकारे-12॥१७॥ त्याशयः । ननु गौतमोऽपि चतुर्दशपूर्वधारी सर्वाक्षरसन्निपाती सम्भिन्नश्रोताः सकलप्रज्ञापनीयभावपरिज्ञानकुशलः सूत्र
परिवर्जित निद्राविक तिः कृतप्राबलिपुटैः । मक्किबहुमानपूर्ववपयुकै श्रोतव्यम् ॥ १॥
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
---------- मूलं [२-३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२,३]
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18| तश्व प्रवचनस्य प्रणेता सर्वज्ञदेशीय एव, उक्तं च-"संखाईएवि भवे साहइ जं वा परो र पुच्छिज्जा नबणं अणा
इसेसी वियाणई एस छउमत्थो ॥१॥” इति कथं तस्य संशयसम्भवः ? तदभावाच कथं पृच्छतीति !, उच्यते, यद्यपि । भगवान् गौतमो यथोक्तगुणविशिष्टस्तथापि तस्याद्यापि छद्मस्थत्वात् कदाचिदनामोगोऽपिजायते, यत उक्तम्-"न हि नामानाभोगश्छद्मस्थस्येह कस्यचिन्नास्ति । ज्ञानावरणीयं हि ज्ञानावरणप्रकृति कर्म ॥१॥" ततोऽनामोगसम्भवादुपपचते भगवतो गौतमस्यापि संशयः, न चैतदनार्प, यदुक्तमुपासकदशासु आनन्दश्रमणोपासकावधिनिर्णयविषये-"तेणं भंते । किं आणंदेणं समणोवासएणं तस्स ठाणस्स आलोइयवं जाव पडिकमियर सदाहु मए, सओ णं गोअमाइ समणे | भगवं महावीरे एवं बयासी-गोजमा तुर्म घेवणं तस्स ठाणस्स आलोयाहि जाव पडिकमाहि, आणंदं च समणोवासयं| । पयमई खामेहि, तए ण समणे भगवं गोअमे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंसिए एभमाई विणएणं पहिसुणइ २ ता
तस्स ठाणस्स आलोपइ जाव पडिक्कमइ, आणंदं च समणोवासयं एअमह खामेइत्ति, अथवा भगवानपगतसंशयोऽपि स्वकीयबोधसंवादार्थमज्ञलोकबोधनार्थ शिष्याणां वा स्ववचसि प्रत्ययोत्पादनार्थ पृच्छति, अथवा इत्थमेव सूत्ररचनाक-18 ल्प इति न कश्चिद्विरोधः। किमुकवानित्याह-'कहिणं' इतिक-कस्मिन् देशे, भंतेसि गुरोरामन्त्रणं, अब एकारो माग-121 धभाषाप्रभवः ततक्ष हे भदन्त ! हे सुखकल्याणस्वरूप। 'भदुङ् सुखकल्याणयो'रिति बचनात् प्राकृतल्या वा भव
संख्यातीतानपि भवान् कथयति यदा परस्म पुरोत् । न बागतिशयी विजानीयात् एष सगस्थः ॥१॥
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अनुक्रम [२,३]
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
---------- मूलं [२-३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२,३]
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दीप अनुक्रम [२३]
श्रीजम्ब- स्व-संसारस्य भयस्य वा-भीतेरन्तहेतुत्वात् भवान्तो भयान्तो वा तस्यामन्त्रणं हे भवान्त ! भयान्त ! वा प्राग्वर्णिता-१ वक्षस्कारे द्वीपशा- न्वर्थको जम्बूद्वीपो नाम द्वीपो वर्चत इति शेषः, अनेन जम्बूद्वीपस्य स्थान पृष्ट १, तथा भदन्त! किंप्रमाणो महा- मा न्तिचन्द्री
K स्थानादिः नालयः-आश्रयो व्याप्यक्षेत्ररूपो यस्य स तथा, कियत्प्रमाणमस्य महत्त्वमित्यर्थः, एतेन प्रमाण पृष्टं २, अथ भदन्त | या वृत्तिः
किं संस्थानं यस्य स तथा, एतेन संस्थान पृष्टं ३, तथा भदन्त ! आकारभावः-स्वरूपविशेषः कस्याकारभावस्य प्रत्य-1
वतारो यस्य स किमाकारभावप्रत्यवतारः, बहुलग्रहणाद्वैयधिकरण्येऽपि समासः, यद्वा आकारश्च-स्वरूप भावाश्च-ज18|गतीवर्षवर्षधराधास्तद्गतपदार्था आकारभावास्तेषां प्रत्यवतार:-अवतरणं आविर्भाव इतियावत् आकारभावप्रत्यवतारः18
काकीदृग् आकारभावप्रत्यवतारो यस्मिन् स तथा, अनेन जम्बूद्वीपस्वरूपं तद्गतपदार्थाश्च पृष्टाः ४, इति इन्द्रभूतिना| प्रश्नचतुष्टये कृते प्रतिवचःश्रवणसोत्साहताकरणार्थ जगत्पसिद्धगोत्राभिधानेन तमामन्त्र्य निर्वचनचतुष्टयीं भगवानाह-13 गौतमेत्यत्र दीर्घत्वमामन्त्रणप्रभवं तेन हे गौतम! 'अयं यत्र वयं वसामा, अनेन समयक्षेत्रबहिर्वर्तिनामसोयानां || जम्बूद्वीपानां व्यवच्छेदः, जम्बूद्वीपो नाम द्वीपः, कथम्भूत इत्याह-'सर्वद्वीपानां' धातकीखण्डादीनां 'सर्वसमुद्राणां' लवणोदादीनां सर्वात्मना-सामस्त्येन अभ्यन्तरः सकलतिर्यग्लोकमध्यवत्ती सर्वाभ्यन्तर एव सर्वाभ्यन्तरकः स्वार्थे कम
॥१८॥ त्ययः, अभ्यन्तरमात्र धातकीखण्डेऽपि पुष्करवरद्वीपापेक्षयाऽस्ति अतः सर्वशब्दोपादानमिति, अनेन जम्बूद्वीपस्थाव-|| | स्थानमुक्तं १, तथा सर्वेभ्योऽपि-शेषद्वीपसमुद्रेभ्यः क्षुल्लको-लघुः, तथाहि-सर्वे लवणादयः समुद्राः धातकीखण्डादयश्च
Jaesettesesecretsee
0 000000raep
जम्बूद्वीपस्य स्थानादिः
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
---------- मूलं [२-३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२,३]
दीप अनुक्रम [२,३]
दीपा जम्बूद्वीपादारभ्य द्विगुणरविष्कम्भायामपरिधयः, ततः शेषद्वीपसमुद्रापेक्षयाऽयं लघुरिति, दीर्घत्वं प्राकृतत्वात्, अनेन सामान्यतः प्रमाणमभिहितं, विशेषतस्त्वायामादिगतं प्रमाणमने वक्ष्यति, अत्र विशेषप्रमाणमवसरप्राप्तमपि यन्नोकं तत्सूत्रकाराणां विचित्रा प्रवृत्तिरिति, तथा वृत्तः, स च शुपिरवृत्तोऽपि स्याद् अत आह-'तैलापूपसंस्थानसं-15 |स्थितः' तैलेन पकोऽपूपस्तैलापूपः, तैलेन हि पक्कोऽपूपः प्रायः परिपूर्णवृत्तो भवति न घृतपक्क इति तैलविशेषणं, तस्येव | यत्संस्थानं तेन संस्थितः, अत्र तैलादित्वाल्लकारस्य द्वित्वं, तथा वृत्तो रथचक्रबालसंस्थानसंस्थितः, रथस्य-अवयवे | समुदायोपचारात् रथाङ्गस्य चक्रस्य चक्रवालं-मण्डलं तस्येव संस्थानेन संस्थितः, अथवा चकवालं-मण्डलं मण्डलत्व-11 धर्मयोगाच रथचक्रमपि रथचक्रवालं शेष प्राग्वत्, एवं वृत्तः 'पुष्करकर्णिकासंस्थानसंस्थितः' पुष्करकर्णिका-पनवी-110
जकोशः कमलमध्यभाग इतियावत , वृत्तः परिपूर्णचन्द्रसंस्थानसंस्थितः प्राग्वत् पदद्वयं भावनीर्य, एकेनेव चरितार्थंक-18 Iत्वेऽपि नानादेशजविनेयानां क्षयोपशमवैचित्र्यात् कस्यचित् किञ्चिद्वोधकमित्युपमापदनानात्वं, अत एव प्रत्युपमापदं
| योज्यमानत्वात् वृत्तपदस्य न पौनरुक्त्यशङ्कमऽपि, एतेन संस्थानमुक्तं ३ । अथ सामान्यतः प्रागुक्तं प्रमाणं विशेषतो
निर्वक्तुमाह-एक योजनशतसहस्र, प्रमाणाङ्गलनिष्पन्नं योजनलक्षमित्यर्थः आयामविष्कम्भेन' अत्र च समाहारद्वन्द-18 र स्तेन क्लीवे एकवद्भावः, आयामविष्कम्भाभ्यामित्यर्थः, अत्राह परः-जम्बूद्वीपस्य योजनलक्षं प्रमाणमुक्तं तच्च पूर्वप|श्चिमयोर्जगतीमूलविष्कम्भसत्कद्वादशद्वादशयोजनक्षेपे चतुर्विशत्यधिकं भवति, तथा(च) यथोकं मान विरुध्यत इति,
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जम्बूद्वीपस्य स्थानादिः
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
---------- मूलं [२-३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२,३]
दीप अनुक्रम [२३]
श्रीजम्बू- म, जम्बूद्वीपजगतीविष्कम्भेन सहव लक्षं पूरणीयं, लवणसमुद्रजगतीविष्कम्भेन सवणसमुद्रलक्षवयं, पषमन्येष्वपि १ वक्षस्कारे द्वीपशा- द्वीपसमुद्रेषु, अन्यथा समुद्रमानाजगतीमानस्य पृथग्भणने मनुष्यक्षेत्रपरिधिरतिरिकः स्यात्, सहि पश्चचत्वारिष-18 जाम्बूद्वीन्तिचन्द्री-1 या चिः
क्षप्रमाणक्षेत्रापेक्षयाऽभिधीयते, अयमेवाशयः श्रीमभयदेवमूरिभिः चतुर्थाङ्गवृत्ती पश्चपञ्चाशत्तमे समयावे पादुष्कृतो-18 पापामा:
||सीति, तथा श्रीणि योजनशतसहस्राणि पोडश सहस्राणि दे योजनशते सप्तर्षिशे-सप्तविंशत्यधिके त्रयः क्रोशा अष्टा-18 ॥१९॥ शिं-अष्टाविंशत्यधिकं धनुःशतं त्रयोदशाङ्गुलानि अाङ्गुलञ्च किञ्चिद्विशेषाधिकमित्येतावाम् परिक्षेपेण-परिचिना !
|| मज्ञप्तः । अत्र सप्तविंशमष्टाविंशमित्यादिकाः शब्दाः 'अधिकं तसंख्यमस्मिन् शतसहने शतिशदशान्ताथा " इति । सूत्रेण अप्रत्यये (श्रीसिद्ध०७-१-१५४ ) सप्तविंशत्यधिकमष्टाविंशत्यधिकमित्यर्थः परिध्यानयनोपायस्त्वयं चूर्णिका-18
रोक:-"विक्वंभवग्गदहगुणकरणी वट्टरस परिरो होइ। विखंभपायगुणिओ परिरओ तस्स गणियपयं ॥१॥"अत्र 5|| व्याख्या-जम्बूद्वीपस्य विष्कम्भो-प्यासः, स्थापना यथा १०००००, सद्वर्गः क्रियते तद्गुणो वर्ग' इति वचनालक्ष लोण || | गुण्यते, जातं १००००००००००, स च दशगुणः क्रियते, शून्यानि ११, तदनु 'करणी'ति वर्गमूलमानीयते, सथाहि'विषमात्पदतस्त्यक्त्वा वर्ग स्थानच्युतेन मूलेन । द्विगुणेन भजेच्छेषं लब्धं विनिवेशयेत् पक्याम् ॥ १॥ तद्वर्ग संशो- ॥१९ ॥ ध्य द्विगुणीकुर्वीत पूर्ववल्लब्धम् । उत्सार्य ततो विभजेच्छे द्विगुणीकृतं दलयेत् ॥२॥" इत्यनेन करणेनानीते वर्ग-1 मूले जातोऽधस्तनच्छेदराशिः ६३२४४७, अत्र सप्तकरूपोऽन्त्योऽको न द्विगुणीकृत इति तर्ज शेष सर्वमप्यक्रि
जम्बूद्वीपस्य स्थानादिः
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
---------- मूलं [२-३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२,३]
दीप अनुक्रम [२]
यते, लब्धं योजनानि ३१६२२७, छेदराशिश्च सप्तकेऽपि द्विगुणीकृते जातः १५२५५४, उपरि शेषांशाः ४८४४७१,
एते च योजनस्थानीया इति क्रोशानयनार्थ चतुर्भिगुणिताः जाताः १९३७८८४, छेदराशिना भागे सम्ध कोशाः ३, SIशेष ४०५२२, धनुरानयनाथ द्विसहवगुणं, जातं ८१०४४०००, छेदराशिना भागे लब्धानि धपि १२८, शेष | 131८९४४८, पण्णवत्यङ्गुलमानत्वानुषोऽङ्गलानयनार्थ षण्णवतिगुणं, जातं ८६२९२५८, छेदेन भागे लब्ध अङ्गुलामि
१३, शेषं ४.७३४६, अत्र 'व्याख्यातो विशेषप्रतिपत्ति'रिति म्यायात् यवादिकमप्यानीयते, तथाहि-ते बङ्गुलाशा
अष्टभिर्यवैरङ्गसमिति अभिर्गुण्यन्ते, जाताः ३२५८७६८ छेदः स एव लब्धाः ययाः ५, ततोऽप्यष्टगुणमे यूकापादयः स्पुः, तत्र चूका १, पतत्सर्वमप्योकुलस्य किश्चिद्विशेषाधिकत्वकथनेन सूत्रकारेणापि सामान्यतः संगृहीतमिति | बोभ, गणितपदं तत्करणं च सोदाहरणमने भावयिष्यत इति । अथाकारभावप्रत्यवतारविषयक प्रश्न निर्षक्तुमाह
से एगाए बरामईए जगईए सबओ समंता संपरिक्खित्ते, सा गं जगई अट्ट जोयणाई उड्डू उच्चत्तेणं मूले बारस जोअणाई विसंभेणं मझे अह जोयणाई विसंमेणं उरि चत्वारि जोषणाई विक्संभेणं मूले विरिछना मल्झे संक्खिता सवरि तणुया गोपुच्छसंठाणसंठिया सन्नवदामई अच्छा सहा लण्हा घड्ढा मट्ठा जीरया णिम्मला णिपंका णिककटच्छाया सप्पभा समिरीया सोवा पासादीया परिसणिमा अभिरुवा पहिरूवा, सा णं जगई एगेणं महंचगवक्सकरएणं सव्वओ समता संपरिक्खित्ता, से णं गवक्खकडए अबूजोअणं गं उबत्तेणं पंच धणुसयाई विक्खंभेयं सवरवणामए अच्छे जाव पडिलवे, तीसे पं जगईए
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जम्बूद्वीपस्य स्थानादिः, आकार-जगति आदेः वर्णनं
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
-------- मूलं [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्यू-18| उपि बहुमज्जादेसभाए एत्य णं महई एगा पउमवरवेझ्या पण्णत्ता, अवजोपणं उल उच्चत्तेर्ण पंच धणुसयाई विक्खंभेणं जगईस- विक्षस्कारे द्वीपशा- मिया परिक्खेवण सबरवणामई अच्छा जाच पडिरूवा । तीसे णं पउमवरखेड्याए अयमेयारूवे पण्णावासे पण्णत्ते, वंजहा-पइरा- वेदिकावन्तिचन्द्री
नं .४ मया णेमा एवं जहा जीवाभिगमे जाव अहो जाव धुवा णियया सासया जाव णिचा।। (सूत्र ४) या वृत्तिः
'से ण मिति, सोऽनन्तरोदितायामविष्कम्भपरिक्षेपपरिमाणो जम्बूद्वीपः, णमिति पूर्ववत् , 'एकया' एकसंख्यया ॥२०॥ अद्वितीयया (वा) 'वज्रमय्या' बजरतात्मिकया 'जगत्या' जम्बूद्वीपमाकाररूपया द्वीपसमुद्रसीमाकारिण्या महानगर-2
प्राकारकल्पया सर्वतो दिक्षु समन्ताद्विदिक्षु सम्परिक्षिप्त:-सम्यग्वेष्टितः, प्राकृतत्वाद्दीर्घत्वं वजशब्दस्य, सा जगती अष्ट योजनान्यूोच्चत्वेन, वस्तुनो ह्यनेकधोच्चत्वं ऊर्द्धस्थितस्यैकं अपरं तिर्यस्थितस्य अन्यद् गुणोन्नतिरूपं, तत्रेतरापोहेनोईस्थितस्य यदुश्चत्वं तदूर्वोच्चत्वमित्यागमे रूढमिति, अत्रानुस्वारः प्राकृतत्वात् , मूले द्वादश योजनानि विष्कम्भेन मध्येऽष्टौ उपरि चत्वारि, अत एव मूले विष्कम्भमधिकृत्य विस्तीर्णा मध्ये सजिता त्रिभागोनत्वात् उपरि तनुका मूलापेक्षया त्रिभागमात्रविस्तारभावात्, एतदेवोपमया प्रकटयति-गोपुच्छन्त्येव संस्थानं तेन संस्थिता, जीकृतगोपुच्छाकारेति भावः, सर्वात्मना-सामस्त्येन वज्रमयी-वज्ररत्नामिका, दीर्घत्वं च प्राकृतशैलीपभवं, 'अच्छा' आकाश- IN॥२०॥ स्फटिकवदतिस्वच्छा 'सहा' श्लक्ष्णा श्लक्ष्णपुद्गलस्कन्धनिष्पन्ना श्लक्ष्णदलनिष्पन्नपटवत् , 'लहा' मसूणा पुंटितपट-II वत्, 'घट्टा' वृष्टा इव घृष्टा खरशाणया पाषाणप्रतिमावत् , तथा मृष्टा इव मृष्टा सुकुमारशाणया पाषाणप्रतिमावत्,
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आकार-जगति आदेः वर्णनं
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ------------------------
-------- मूलं [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
४
या 'नीरजा' सहजरजोरहिता, तथा 'निर्मला' आगन्तुकमलरहिता, तथा निष्पक्का' कलङ्कविकला कईमरहिता वा, तथा निष्कन्कटा-निष्कवचा निरावरणा छाया-दीतिर्यस्याः सा तथा, सप्रभा-स्वरूपतः प्रभावती अथवा खेन
आत्मना प्रभाति-शोभते प्रकाशते वेति स्वप्रमा, तथा समरीचिका-सकिरणा वस्तुस्तोमप्रकाशकरी इत्यर्थः, तथा 18 प्रसादाय-मनःप्रसत्तये हिता तत्कारित्वात् प्रासादीया मनःमहादकारिणीति भावः, तथा 'दर्शनीया' दर्शनयोग्या यां
पश्यतश्चक्षुषी श्रमं न गच्छत इति, तथा 'अभिरुवा' अमि-सर्वेषां द्रष्टुणां मनःप्रसादानुकूलतया अभिमुखं रूपं यस्याः। सा, अत्यन्तकमनीया इति भावः, अत एव प्रतिविशिष्टम्-असाधारणं रूपं यस्याः सा प्रतिरूपा, अथवा प्रतिक्षणं नवं नवमिव रूपं यस्याः सा तथा, अथ अत्र सूत्रेऽनुक्तोऽपि वाचयितणामधिकार्थजिज्ञापयिषया जगत्या इष्टस्थाने विस्तारानयनोपायः प्रदर्यते, तत्र मूले मध्ये उपरि च विष्कम्भपरिमाणं साक्षादेव सूत्रे उभ्यते, अपान्तराले उपरिष्टादधोगमनेऽयमुपाय:-जगतीशिखरादधो यावदुत्तीर्ण तस्मिन्नेकेन भक्ते सति यलब्धं तच्चतुर्भिर्युतमिष्टस्थाने विस्तारः, | तथाहि-उपरितनभागाद्योजनमेकं गव्यूताधिकमवतीर्ण ततोऽस्य राशेः एकेन भागे हुते लब्धमेकं योजनं गव्यूता
धिकं, तच्च योजनचतुष्कयुतं क्रियते, जातानि पञ्च योजनानि गन्यूताधिकानि, एतावांस्तत्र प्रदेशे विष्कम्भः, एवं ॥ सर्वत्र भाव्यं, सम्पति मूलादूर्द्धगमने विस्तारानयनोपायः-मूलादूगमने यावदूर्ख गतं तस्यैकेन भागे हते यल्लब्ध
तस्मिन्मूलविस्ताराच्छोधिते यच्छेषं स तत्र योजनादावतिक्रान्ते विस्तारः, तद्यथा-मूलादुत्पत्य योजनमेकं गन्यूतद-8
अनुक्रम
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
------- मूलं [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
विचन्द्री
श्रीजम्याधिक गतस्ततो योजनस्य गम्यूतद्वयाधिकस्यैकेन भागे हते यल्लम्धं योजनं गन्यूतदयाधिक, एतन्मूलसम्बन्धिको ९१ वक्षस्कारे
बादशयोजनप्रमाणविस्तारादपनीयते, स्वितानि दश योजनानि गन्यूतद्वयाधिकानि, एतावत्प्रमाणः सार्बयोजना-18 वेदिकाव18|तिक्रमे विस्तारः, एवं सर्वत्रापि भाव्यं, एवं ऋषभकूटजम्बूशाल्मलीवृक्षवनगतकूटानामिष्टवाने विस्तारानयनार्थमिदमेव 18 णन स. ५
करणं भाव्य, अधास्वां गवाक्षकटकवर्णनायाह-'सा' अनन्तरोदितस्वरूपा 'जगती प'मिति प्राग्वत् जगती एकेन महा-18 गवाक्षकटकेन-बहज्जालकसमूहेन सर्वतः सर्वासु विक्षु समन्तात् सामस्त्येन संपरिक्षिता व्यासत्वर्थः, स गवाक्षकटक8 पोचत्वेनाईयोजन द्वे गच्यूते विष्कम्भेन पञ्च धनु शतानि, सर्वात्मना रक्षमयः, तथा अच्छः, अत्र यावत्करणात् प्राग्ज्यावर्णितं विशेषणपर्व ग्राह्य, इयश गवाक्षश्रेणिलवणोदपार्षे जगतीभित्तिबहुमध्यभागगताऽवगन्तच्या, रिरं-18 सुदेवविद्याधरवृन्दरमणस्थानं । अथ जगत्युपरिभागवर्णनायाह-'तस्या' यथोकस्वरूपाया जगत्या 'उपरि' अपरितने । तले यो बहुमध्यदेशलक्षणो भागः, भागश्च प्रदेशलक्षणोऽपि खात् तत्र च पनवरवेदिकाया अवस्थामासम्भवः अतो देशग्रहणेन महान् भाग इत्यर्थः स प चतुर्योजनात्मकजगत्युपरितनतलख मध्ये पञ्चधनु शतात्मक इति, सूत्रे एकारान्तता मागधभाषालक्षणानुरोधात्, 'ब' एतस्मिन् बहुमध्यदेशभागे णमिति प्राग्वत् महती एका पत्रवरवे-1 ॥२१॥ | दिका-देवभोगभूमिः प्रशसा मया शेपेक्ष तीर्थकरैः, सा च ऊोच्चत्वेनाईयोजन पश्च धनुशतानि विष्कम्भेन जगल्याः | समा-समामा जगतीसमा सैच जगतीसमिका परिक्षेपेण-परिरयेण, कोऽर्थः -जम्बूद्वीपस्य सर्वतो वलयाकारेण व्यव-1
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-------- मूलं [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
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स्थिताया जगत्या याबदुपरितन तल चतुर्योजनविस्तारात्मकं तस्मालवणविशि देशोनयोजनद्वये त्यक्ते अदि बाबान। जगतीपरिरयस्तावानस्या अपीति, सर्वरसमयी-सामस्त्येन रलखचिता, 'अच्छा सण्डा' इत्यादिविशेषणकदम्बकं पाठ-18 सोऽर्थतब माग्वत् ॥ अथावा अत्तिदेशगर्भवर्णकसूत्रमाह- . श तस्याः पनवरषेधिकाया 'भय'मिति वक्ष्यमाणतया प्रत्यक्षः स चोच्यमानो न्यूनाधिकोऽपि स्यादिति एतद्रूपः-एतदेव रूप-स्वरूपं यस्य स तथा 'वर्णावासों' वर्ण:-लाघा यथावस्थितस्वरूपकीर्तन तस्यावासो-निषासो अन्धपद्धतिरूपो वर्ण-18 कनिवेश इत्यर्थः, अथवा वर्णव्यासो-वर्णकमन्थविस्तरः प्रज्ञप्तः, तद्यथेत्युपदर्शने, 'वरामय'त्यादि, 'परामया नेमा
इत्यादिक 'ए' मिति अनेन प्रकारेण यथा जीवाभिगमे पनवरयेदिकावर्षकविस्तर उक्तः (जीवा.३ प्र.स.१२. ११) 18था बोध्य इति शेषः, सच किवस्पर्वन्त इत्याह-'जाब भट्ठों' इति, यावदर्थः पमबरवेदिकाशम्यस्यार्थनिर्वचन, सतोऽपि || किषत्पर्यन्त इत्याह-जाप धुषा णिचा सासया' इति, पुनस्ततोऽपि कियत्पर्यम्त इत्याह-जाव णिचा इति,सच समन-1
पाठोऽयं-'बरामया गेमा रिटामया पइहाणा वेरुलियामया खंभा सुषण्णमया फलगा लोहियक्षमईमो सूईयो बहराबाई संधी णाणामणिमया कलेवय पाणामणिमया कलेवरसंघाडा जाणामणिमया रूया णाणामणिमया रूपसघाडा अंकामया पक्ता पक्लबाहाओ प जोइरसामया सावंसकबेल्लुया य रवयामईओ पट्टियागो जावरूवमईयो ओहाडणीओ बह-18 रामईमो सवरि छपीओ सबसेए रययामए छापणे, साणं पउमवरइया एगमेगेणं हेमजालेणं एगमेगेणं कणगव-1॥
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१],-------------------------
-------- मूलं [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
द्वीपशा
श्रीजम्यू-18 खजालेणं एगमेगेणं खिंखिणीजालेणं एगमेगेणं घण्टाजालेणं एगमेगेणं मुत्ताजालेणं एगमेगेणं मणिजालेणं एगमेगेणं १ वधस्कारे
कम्यगजालेणं एगमेगेणं रयणजालेणं एगमेगेणं पउमजालेणं सबरयणामएणं सबओ समंता संपरिक्खिता, ते ण जाला वेदिकावन्तिचन्द्रीया वृत्तिः
तषणिजलंबूसगा सुवण्णपयरगर्मडिया णाणामणिरयणहारद्धहारउवसोभियसमुदया ईसिमण्णमण्णमसंपत्ता पुवावरदा
|हिणुत्तरागएहिं वाएहिं मंदाय मंदायं पइजमाणा एइजमाणा पलंबमाणा पलंबमाणा पझंझमाणा पक्षमाणा ओरालेणं ॥२२॥ मणुण्णेणं मणहरेणं कण्णमणनिाइकरेणं सद्देणं ते पएसे सबओ समंता आपूरेमाणा सिरीए अईव २ उबसोभेमाणा २
चिइंति । तीसे णं पजमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे ह्यसंघाडा गयसंघाडा णरसंघाडा किंनरसंघाडा किंपुरिससंघाडा महोरगसंघाडा गंधवसंघाडा वसहसंघाडा सबरयणामया जाव पडिरूवा, एवं पंतीओवि विहीओवि . मिहुणगाइवि का तीसे णं पउमवरवेश्याए तत्थ तत्थ देसे तहिं २ बहुईओ पउमलयाओ नागळयाओ असोगलयाजो चंपगलयाओ वणलयाओ बासंतीलयाओ अइमुत्तलयाओ कुंदलयाओ सामलयामो णिचं कुसुमियाओ णिचं || मउलियाओ णिचं लवइयाओ णिचं थवइयाओ णिचं गुलइयाओ णिचं गुच्छि आओ णिचं जमलियाओ णिचं जुअ-MS लियाओ णिचं विणमियाओ णिच्चं पणमियाओ णिचं सुविभत्तपडि (पिंड) मंजरिवर्डिसगधरीओ णिचं कुसुमियम-3॥२२॥ उलियलवायथवइयगुलइयगुच्छियजमलिअजुअलियविणमियपणमियसुविभत्तपडि (पिंड) मंजरीवडिंसगधरीओ सबर-191 यणामईओ अच्छा जाव पडिरूवा, तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहिं २ बहवे अक्खयसोत्थिया पण्णता
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
------- मूलं [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सबरयणामया अच्छा जांच पडिरूबा, से केणत्थेणं भंते! एवं बुच्चइ-पउमवरयेश्या (२), गोयमा ! पउमवरवेइयाए
सत्य तत्थ देसे तहिं तहिं वेड्यासु वेड्यावाहासु वेड्यापुडंतरेसु खंभेसु खंभवाहासु खंभसीसेसु खंभपुढंतरेसु सूईसु २॥ सूइमुहेसु सूईफलएसु सूईपुडंतरेसु पक्खेसु पक्खबाहासु बहूई उप्पलाई पउमाई कुमुयाई सुभगाई सोगंधियाई |
पॉडरीयाई (महापोंडरीयाई) सयवत्ताई सहस्सवत्ताई सबरयणामयाई अच्छाई जाव पडिरूवाई महावासिकछत्तसमाणाई 1 पण्णत्ताई समणाउसो!, से एएणटेणं गोअमा! एवं बुच्चर-पउमवरवेइया २, अदुत्तरं च गं गोअमा! पउमवरवेइया | सासए णामधेजे पण्णत्ते । पचमवरवेइया णं भंते । किं सासया असासया, गोअमा! सिअ सासया सिअ असासया, (से केणडेणं०१,) गोमा दवडयाए सासया वण्णपज्जवेहिं गधपज्जवेहिं रसपजवेहिं फासपजवेहिं असासया, से तेणढेणं |एवं वुच्चइ-सिय सासया सिय असासया । पउमवरवेझ्या गंभंते! कालओ केवचिरं होइ, गोअमा! ण कयाइ णासी पण कयाइ ण भवइ ण कयाइ ण भविस्सइ भुविं च भवई य भविस्सइ य धुवा णियया सासया अक्खया अवया अव-|| 18| द्विआ णिचा" इति, अत्र व्याख्या-अनन्तरोक्कायाः पद्मवरवेदिकायाः वज्रमवा-वजरकमया नेमा, नेमा नाम भूमि-| 18 भागादूई निष्कामन्तः प्रदेशाः, वनशब्दस्य दीर्घत्वं प्राकृतत्वात् , एवमन्यत्रापि द्रष्टव्यं, तथा रिष्ठरत्नमयानि प्रतिष्ठा
|नानि-मूलपादाः, तथा वैडूर्यरतमयाः स्तम्भाः, सुवर्णरूप्यमयानि फलकानि-पद्मवरयेदिकाङ्गभूतानि, लोहिताक्षरत-॥8॥ ॥४॥ मय्यः सूचय:-फलकद्वयस्थिरसम्बन्धकारिपादुकास्थानीयाः, वज्रमयाः सन्धयः-सन्धिमेलाः फलकानां, किमुक्कं भव-॥४॥
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अनुक्रम
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Sanelem
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
-------- मूलं [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्- ति!-अरलापूरिताः फलकानां सन्धयः, नानामणिमयानि कलेवराणि-मनुष्यशरीराणि, सवा नानामनिया का वक्षस्कारे द्वीपशा-18
शा- बरसवाटा:-मनुष्यशरीरयुग्मानि, सहाटशब्दो युग्मवाची यथा साधुसङ्घाट इति, गानामणिमयानि रूपावि-हस्वादिकार न्तिचन्द्री
वर्णनं म.४ 18दीनां रूपकाणि, रूपसाटा अपि सवैच, सानि कानिचिच्छोमार्थ कानिचिद्धिनोदार्थ कानिचिव रग्दोपविवारणार्थ या चिः
यथा राजद्वारादिषु हस्त्यादिरूपाणि कम्पमानलम्बकूर्चकचूद्धरूपाणि च क्रियन्ते, सदाऽत्र फलकेषु रसमयाबि सम्ती-18 ॥ २३ ॥ त्यर्थः, अको-रसविशेषस्तन्मयाः पक्षा:-तदेकदेशाः पक्षबाहवोऽपि तदेकदेशभूता एवाङमया, ज्योतीरसं नाम रखें 18|तन्मया वंशा-महान्त:, पृष्ठवंशा मध्यवलकारस्यर्थः, महता पृष्ठवंशामामुभवततिर्यक स्थाप्यमाना बंशाः कावेलुकानि।
प्रतीतानि, अब द्वितीयवंशशब्दाद्विभक्तिलोपः माकृतत्वात् , अक्रमप्राप्तामामपि कवेलुकानां पृथ्वशीर्वकीय मह18 यदेकत्र विशेषणे बोजनं तत्र ज्योतीरसरममवत्वं हेतुरिति, रजतमय्यः पट्टिका:-वंशानामुपरि कम्बाखानीयाः, जातरूप-सुवर्णविशेषस्तन्मय्यः अवघाटिम्यः-आच्छादनहेतुकम्बोपरिस्थाप्यमानमहाप्रमाणकिलिचस्थानीयाः, वज़मय्य: अवघाटिनीनामुपरि पुग्छन्यो-निविडतराच्छादमहेसुलक्षणतरतृणविशेषस्थानीयाः, सर्ववेतं रजतम पुज्छनीनामुपरि कवेलुकानामध आच्छादन, सा पावरवेदिका एकैकेन किङ्किणीजालेन किङ्किण्या-शुपण्टिका एकैकेन घण्टा- ॥२३॥ जालेन-किङ्किण्यपेक्षया किनिम्महत्यो घण्टा बकैकेन मुक्काजालेन-मुक्ताफलमयेन दामसमूहेन एकैकेज मणिजालेनमणिमयेन दामसमूहेन एकैकन 'कमकजालेन' कनक-पीसरूपः सुवर्णविशेषस्तन्मयेन दामसमूहम एकैकेन रक्षा
दरवर
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
------- मूलं [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
४
ररररररररब्य
लेन-रसमथदामसमूहेन, अब स्थलजाता मणथो जखजासानि रक्षानीति रकमण्योर्मेंदा, एकैफेन सर्वरसमयपद्मात्माकन दामसमूहेन, सर्वतः समन्तादिति प्राग्वत्, संपरिक्षिक्षा, एतानि दामरूपाणि हेमजालादीनि जालानि लम्बमानानि वेदितव्यानि, सथा च आह-ते णं जाला' इति, अत्र पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात्तेन तानि जालानि सपनीयम्-आरके सुवर्ण सम्मयो लम्बसगो-दानामनिमभागे मण्डनविशेषो येषां तानि तथा, पार्वतः सामस्त्येन सुवर्णस्य प्रतरकेणपत्रेण मण्डितामि, अन्तरा अन्तरा लम्बमानहेमपत्रकालङ्कतानि, तथा मानारूपाणी-जातिभेदेनानेकप्रकाराणां मणीनां रसानां च ये विचित्रवर्णा हारा-अष्टादशसरिका अर्द्धहारा-नवसरिकास्तरुपशोभितःसमुदायो वेषांतानि तथा, ईषत्मयाक् अन्योऽज्य-परस्परमसम्पाप्तानि-असंलग्नानि पूर्वापरदक्षिणोत्तरागसातैर्मन्दार्थ भन्दापमिति-मन्द मन्दं एज्य-N मानानि-कम्प्यमानानि "मृशाभीक्ष्ण्याविच्छेदे द्विः प्राक्कमबादे" (श्रीसि०७-४-७३) रिस्थविच्छेदे द्विर्षचनं क्या | पचति पचतीत्यत्र, एवमुत्तरत्रापि, ईषत्कम्पनवशात् प्रकर्षत इतस्ततो मनाक्चलनेन लम्बमानानि २, ततः परस्पर | सम्पर्कवशतः 'पझंझमाणा पझंझमाणा' इति शब्दायमानानि २, उदारेण-स्फारेण शब्देनेति योगः, सब स्फार-IST | शब्दो मनःप्रतिकलोऽपि भवति तत आह-मनोज्ञेन' मनोऽनकलेन, सच मनोनुकूलत्वं लेशतोऽपि खादत आह-18 'मनोहरेण' मनांसि श्रोतां हरति-आत्मवस नयतीति मनोहरो, लिहादेराकृतिगणवादमस्ययः तेन, सदपि मनो-18 हरत्वं कुत इत्याह-'कर्णमनोनिवृतिकरण' "निमित्तकारणहेतुषु सर्वासा विमकीनां प्रायो दर्शन मिति वचनात् हेती,
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ------------------------
-------- मूलं [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्यूजीपशा
न्तिचन्द्रीया वृत्तिः
॥२४॥
तृतीया, ततोऽयमर्थः-प्रतिश्रोत कर्णयोर्मनसश्च निवृतिकरः-मुखोत्पादकस्ततो. मनोहरस्तेन इत्थंभूतेन शब्देन तान् । १ वक्षस्कारे प्रत्यासन्नान् प्रदेशान् सर्वतः समन्तात् आपूरयन्ति २ शतप्रत्ययान्तस्य शाविदं रूपम् अत एव 'श्रिया' शोभया । वैदिकावअतीव २ उपशोभमानानि २ तिष्ठन्ति । पुनरस्यां यदस्ति तदुपदर्शयति-तस्याः पद्मपरवेविकायाः 'तत्र तत्र देशे | तहिं तहिं' इति तस्यैव देशस्य तत्र तत्र एकदेशे, एतावता किमुक्कं भवति यत्र देशे एकस्तत्रान्येऽपि विद्यन्त इति, बहवो हयसकाटा अपि वाच्याः, एते च सर्वे सर्वात्मना रत्नमयाः अच्छा यावत् प्रतिरूपा इत्यादि सर्व प्राग्वत्, एते च सर्वेऽपि हयसङ्घाटादयः सङ्घाटाः पुष्पावकीर्णका उक्काः, सम्प्रत्येषामेव हयादीनां पङ्कवादिप्रतिपादनार्थमाहएवं'मिति, यथाऽमीषां हयादीनामष्टानां सवाटा उक्तास्तथा पङ्कयोऽपि वीथ्योऽपि मिथुनकानि च वाच्यानि, तानि चैवम्-'तीसे णं पउमवरवेश्याए तत्थ तत्थ देसे तहिं २ ब(आओ हयपतीओ गयपंतीओ' इत्यादि, नवरमे-18 कस्यां दिशि या श्रेणिः सा पकिरभिधीयते, उभयोरपि पार्श्वयोरेकैकश्रेणिभावेन यत् श्रेणिद्वयं सा वीथी, एते च । वीथीपतिसङ्घाटा हयादीनां पुरुषाणामुक्काः, साम्प्रतमेतेषामेव हयादीनां स्त्रीपुरुषयुग्मप्रतिपादनार्थ 'मिहुणाई' इत्युकं, उकेनैव प्रकारेण हयादीनां मिथुनकानि-स्त्रीपुरुषयुग्मरूपाणि वाच्यानि, यथा 'तत्थ तत्थ देसे तहिं तर्हि बडूइं| इयमिहुणाई' इत्यादि । 'तीसे ण' मित्यादि, तस्याः-पद्मवरवेदिकायाः 'तत्र तत्र देशे तहिं तहिं' इति तस्यैव देशस्य तत्र तत्र एकदेशे अत्रापि 'तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं' इति वदता यत्रैका लता तवान्या अपि बहुचो लताः सन्तीति
अत्रात् पद्मवरवेदिकाया: वर्णनं आरभ्यते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ------------------------
------- मूलं [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
४
प्रतिपादितं द्रष्टव्यं, बहूयः पद्मलता:-पग्रिन्यः नागलताः-नागा दमविशेषास्त एवं लतास्तिर्यकशाखाप्रसराभावात् । नागलताः, एवमशोकलताः चम्पकलताः 'वणलता' वणा-तरुविशेषा वासन्तिकालताः अतिमुक्तलताः कुन्दलताः | श्यामलताः, कथंभूता एता इत्याह-'नित्यं सर्वकालं षट्स्वपि ऋतुष्वित्यर्थः 'कुसुमिताः' कुसुमानि सजातान्यास्थिति कुसुमिताः, तारकादिदर्शनादितप्रत्ययः, एवं नित्यं मुकुलिताः मुकुलानि नाम-कुड्मलानि कलिका इत्यर्थः, तथा नित्यं । | लवकिताः लव एव लवकः स्वार्थे कः प्रत्ययः स सजात आस्विति लवकिताः, सञ्जातपल्लवलवा इत्यर्थः, तथा नित्यं स्तवकिता:-सञ्जातपुष्पस्तवकाः, तथा नित्यं गुल्मिताः-सञ्जातगुल्मकाः, गुल्मकं च लतासमूहा, तथा नित्यं गुच्छिता:-सजातगुच्छाः, गुच्छश्च पत्रसमूहः, यद्यपि च पुष्पस्तबकयोरभेदो नामकोशेऽधीतस्तथाऽप्यत्र पुष्पपत्रकृतो विशेषो ज्ञेयः, नित्यं यमलिताः, यमलं नाम समानजातीययोर्लतयोयुग्मं तत्सञ्जातमाखिति यम|लिताः, नित्यं युगलिताः, युगल-सजातीयविजातीययोलतयोर्द्वन्द्वं, तथा नित्यं विनमिता नित्यं फलपुष्पादिभारेण 1. विशेषेण नमिता-नीचैर्भावं प्रापिताः, तथा नित्यं प्रणमिता:-तेनैव नमयितुमारब्धाः, प्रशब्दस्यादिकमार्थत्वात्,
अन्यथा पूर्वविशेषणादभेदः स्यात्, नित्यं सुविभकेत्यादि, सुविभक्ता-सुविच्छित्तिकः प्रतिविशिष्टो मञ्जरीरूपी योऽवतंसकस्तद्धरा:-तद्धारिण्यः औपपातिकादौ तु 'सुविभत्तपडि (पिंड) मंजरीवडिंसगधराओं' इति पाठस्तत्र सुविभक्का-अतिविविकाः सुनिष्पन्नतया पिण्यो-लुम्ब्यो मञ्जर्यश्च प्रतीताः, शेषं तथैव, एषः सर्वोऽपि कुसुमि
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जीवन
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ---------------------
-------- मूलं [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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श्रीजम्ब- तत्वादिको धर्म एकैकस्याः २ लताया उक्तः, साम्प्रतं कासाश्चिल्लतानां सकलकुसुमितत्वादिधर्मप्रतिपादनार्थमाह- वक्षस्कारे द्वीपशा- णिचं कुसुमिय'त्ति (इत्यादि) नित्य कुसुमितमुकुलितलवकितस्तवकितगुल्लितगुच्छितयमलितंयुगलितविनमित- जगत्यधि
प्रणमितसुविभक्तप्रतिमञ्जर्यवतंसकधर्य इति, अर्थस्तु प्राग्वत् , एताश्च सर्वा अपि लताः किंरूपा इत्याह-सर्धात्मना रस- कारे, या वृत्ति
मय्यः, अच्छा सण्हा' इत्यादिविशेषणानि प्राग्वत् । अत्र तीसे णमित्यादि अक्सयसोत्थियासूत्रं दृश्यते, परं पतिका-1 ॥ २५॥ रेण न व्याख्यातमिति न व्याख्यायते । अधुना पद्मवरवेदिकाशब्दप्रवृत्तिनिमित्तं जिज्ञासुः पृच्छति-सेशब्दोऽथशब्दार्थः ।
|| अथ 'केनार्थेन' केन कारणेन भदन्त । एवमुच्यते-पद्मवरवेदिका पायरवेदिकेति, किमुक्तं भवति !-पपरवेविके-11
त्येवंरूपस्य शब्दस्य तत्र प्रवृत्ती किं निमित्समिति एवमुक्ते भगवानाह-गौतम ! पनवरवेदिकायां तत्र तत्र देशे तस्यैव ॥ | देशस्य तत्र तत्र एकदेशे वेदिकामु-उपवेशनयोग्यमसवारणरूपासु वेदिकाबाहासु-वेदिकापार्वेषु वेड्यापुढंतरेसु इति-18 |ढे वेदिके वेदिकापुटं तेषामन्तराणि तेषु, स्तम्भेषु सामान्यतः, स्तम्भवाहासु-स्तम्भपार्थेषु, स्तम्भशीर्षेषु (स्तम्भामभागेषु स्तम्भपुटान्तरेषु)-द्वौ स्तम्भौ स्तम्भपुटं तेषामन्तराणि तेषु, सूचीषु फलकसम्बन्धविघटनाभावहेतुपादुकास्थानीयासु। तासामुपरि इति तात्पर्यार्थः, सूचीमुखेषु-यत्र प्रदेशे सूची फलक भित्त्वा मध्ये प्रविशति तत्प्रत्यासन्नो देशः सूचीमुखं ॥२५॥ || तेषु, तथा सूचीफलकेषु-सूचीभिः सम्बन्धिता ये फलकप्रदेशास्तेऽप्युपचारात् सूचीफलकानि तेषु सूचीनामध उपरि ।
मित्र जम्बूद्वीपप्राप्तिसूत्रादशेषु २ वृत्तिकारेष-श्रीमग्णीवाभिगमसूत्रपतिकारेण पूज्यश्रीमलय गिरिणा (जगतीव्याख्यानावसरे) (नीला सू. १२४-१२५-१२६). anthan
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४
पाच वर्तमानेषु, तथा सूचीपुटान्तरेषु द्वे सूच्यो सूचीपुटं तेषामन्तरेषु, पक्षाः पक्षवाहा वेदिकैकदेशविशेषाः तेषु पनि ॥ उत्पलानि-गईभकानि ईपक्षीलानि वा पद्मानि-सूर्यविकासीनि ईपल्वेतानि वा, नलिनानि-ईषद्रतानि कुमुदानि-चन्द्रवि-19 | कासीनि सुभगानि-पद्मविशेषाः, सौगन्धिकानि-कल्हाराणि पुण्डरीकाणि-घेतपद्मानि तान्येव महान्ति महापुण्डरीकाणि ।
शतपत्राणि-दलशतकलितानि सहस्रपत्राणि-सहस्रदलकलितानि एतौ च पद्मविशेषौ पत्रसमाविशेषात् पृथगुपाचौ, है। सर्वरलमयानि चैतानि, अच्छा इत्यादिविशेषणानि प्राग्वत्, महान्ति-महाप्रमाणानि वार्पिकाणि-वर्षाकाले पानी४ यरक्षणार्थ यानि कृतानि तानि वार्षिकाणि तानि च तानि छत्राणि च २ तत्समानानि प्रज्ञप्तानि, हे श्रमण !-तपःप्रवृत्त !
हे आयुष्मन् !-प्रशस्तजीवित !, 'से एपणवण मित्यादि, तदेतेनार्धन-अम्बर्थेन गौतम | पवमुच्यते-पनवरवेविका 18| पनवरवेदिकेति, तेषु तेषु यथोक्तरूपेषु यथोक्तरूपाणि पानि पद्मवरवेदिकाशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तमिति भावः, व्युत्प-1
त्तिश्चैवं-पनवरा-पद्मप्रधाना वेदिका पावरवेदिकेति, अथापरच प्रवृत्तिनिमिर्च, किन्तदित्याह-पद्मवरवेदिकायाः 8 शाश्वतं नामधेयं प्रज्ञप्तमिति, अयमभिप्राय:-प्रस्तुतपुद्गलपचयविशेषे पद्मवरवेदिकेतिशब्दस्य निरुक्तिनिरपेक्षाऽनादिRIकालीना रूढिः प्रवृत्तिनिमित्तमिति । पचमवरवेइया ण भंते'त्ति पद्मवरवेदिका शाश्वती उताशाश्वती', "प्रत्यये डी
न वा" (श्रीसि०८-३-३१) इत्यनेन प्राकृतसूत्रेण डीप्रत्ययस्य वैकल्पिकत्वेन आचन्ततया सूत्रे निर्देशः, किं नित्या उत8 अनित्येतिभावः, भगवानाह-गौतम! स्थाच्छाश्वती स्वादशाश्वती, कथञ्चिद् नित्या कथश्चिदनित्येत्यर्थः, स्वाच्छब्दो
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-------- मूलं [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
कारे पचव
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥२६॥
निपातः कथचिदित्येतदर्थवाची, एतदेव सविशेष जिज्ञासुः पृच्छति-से केणद्वेण'मित्यादि, सेशब्दोऽथशब्दार्थः सच प्रश्ने, केनार्थेन-केन कारणेन भदन्त! एवमुच्यते-यथा स्वाच्छाश्वती स्थादशाश्वतीति, भगवानाह-गौतम! द्रव्यार्थतया | शाश्वती, तत्र द्रव्यं सर्वत्रान्वयि सामान्यमुच्यते द्रवति-गच्छति तान् तान् पर्यायान् विशेषानिति वा द्रव्यमिति | व्युत्पत्तेः, द्रव्यमेवार्थ:-ताविकः पदार्थः प्रतिज्ञायां यस्य न तु पर्यायाः स द्रव्यार्थःद्रव्यमानास्तित्वप्रतिपादको नयविशेषः तद्भावो द्रव्यार्थता तया-द्रव्यमानास्तित्वप्रतिपादकनयाभिप्रायेणेतियावत् शाश्वती, द्रव्यार्थिकनयमतपर्यालोचनायामुक्तरूपस्य पद्मवरवेदिकाया आकारस्य सदाभावात् , तथा वर्णपर्यायैः-कृष्णादिभिः गन्धपर्यायैः-M |सुरभ्यादिभिः रसपर्याय:-तिकादिभिः स्पर्शपर्यायैः-कठिनत्वादिभिः अशाश्वती-अनित्या, तेषां वर्णादीनां प्रतिक्षणं |कियत्कालानन्तरं याऽन्यथा अन्यथा भवनात्, अतादवस्थस्य चानित्यत्वात् , न चैवमपि भिन्नाधिकरणे नित्यत्वा| नित्यत्वे, द्रव्यपर्याययोर्भेदाभेदोपगमात्, अन्यथोभयोरप्यसत्त्वापत्तेः, तथाहि-शक्यते वक्तुं परपरिकल्पितं द्रव्यमसत्, पर्यायव्यतिरिक्तत्वात् , बालत्वादिपर्यायशून्यवन्ध्यासुतवत्, तथा परपरिकल्पिताः पर्याया असन्तो, द्रव्यव्यतिरिक्तत्वात्, वन्ध्यासुतगतवालवादिपर्यायवत्, उक्तं च-"द्रव्यं पर्यायवियुत, पर्याया द्रव्यवर्जिताः।क कदा केन किं-18 | रूपा, रटा मानेन केन वा ॥१॥" इति कृतं प्रसङ्गेन, से एएणद्वेण'मित्यायुपसंहारवाक्यं सुगम, इह द्रव्यास्तिकनयवादी स्वमतप्रतिष्ठापनार्थमेवमाह-"नात्यन्तासत उत्पादो नापि सतो विद्यते विनाशो वा।" "नासतो विद्यते
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-------- मूलं [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
४
पा , नाभावो विद्यते सतः" इति वचनात् , यौ तु दृश्येते प्रतिवस्तु उत्पादविनाशी तवाविर्भावतिरोभावमात्र, यथा सर्पस्य उत्फणत्वविफणत्वे, तस्मात् सर्व वस्तु नित्यमिति, एवं च तन्मतचिन्तायां संशयः-किं घटादिवत् द्रव्यार्थवया शाश्वती उत सकलकालमेवंरूपेति । ततः संशयापनोदार्थ भगवन्तं भूयः पृच्छति-'पउमवरवेइया ण'मित्यादि, ॥ पद्मवरवेविका णमिति पूर्ववत् भदन्त !-परमकल्याणयोगिन् कियचिर-कियन्तं कालं यावद्भवति, एवंरूपा कियन्त || कालमवतिष्ठते इति, भगवानाह-गौतम ! न कदाचिन्नासीत् , सर्वदेवासीदितिभावा, अनादित्वात् , तथा न कदाचिन्न || |भवति, सर्वदैव वर्तमानकालचिन्तायां भवतीति भावः, सर्वदेव भावात, तथा न कदाचिन्न भविष्यति, किन्तु भवि-1
व्यचिन्तायां सर्वदेव भविष्यतीति प्रतिपत्तव्यं, अपर्यवसितत्वात् , तदेवं कालत्रयचिन्तायां नास्तित्वमतिषेधं (विधाय) ॥ सम्पत्यस्तित्वं प्रतिपादयति-'भुर्विच'इत्यादि, अभूच्च भवति च भविष्यति चेति, एवं त्रिकालावस्थायित्वात् भुवा मे
वोदिवत् ध्रुवत्वादेव सदैव स्वस्वरूपेति नियता, नियतत्वादेव च शाश्वती-शश्ववनस्वभावा शाश्वत्वादेव च सततगङ्गा-1 | सिन्धुप्रवाहप्रवृत्तावपि पीण्डरीक(पद्म)इद इवानेकपुद्गलविघटनेऽपि तावन्मात्रान्यपुनलोचटनसम्भवात् अक्षयान्न विद्यते क्षयो-यथोक्तस्वरूपाकारपरिभ्रंशो यस्याः सा अक्षयत्वादेवाव्यया-अव्ययशब्दवाच्या, मनागपि स्वरूपचलनस्य जातु-| चिदयसम्भवातू, अव्ययत्वादेव स्वप्रमाणेऽवस्थिता मानुषोत्तरपर्वताद्वहिः समुद्रवत् , एवं स्वस्वप्रमाणे सदावस्थानेन चिन्त्यमाना नित्या धर्मास्तिकायादिवत् । अब जगल्या उपरि पावरवेदिकायाः परतो यदस्ति तदावेदयति
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-------- मूलं [५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्यूद्वीपशाविचन्द्रीया पतिः
॥२७॥
taesestaesese taccessontee
तीसे णं जगईए उप्पिं बाहि पउमवरवेश्याए पत्ल गं मई एगे वणसंडे पण्णते, देसूणाई दो जोमणाई विक्वंभेणं जगईसमएपरि- 18|१वक्षस्कारे क्खेवणं वणसंडवण्णओ णेयव्यो (सूत्रं ५)
वनपण्डा'तीसे 'मिति माग्वत् , जगत्या उपरि पनवरवेदिकायाः बहिः परतो यः प्रदेशस्तन, एतस्मिन् णमिति पूर्ववत् 181 महानेको वनखण्डः प्रज्ञप्ता, अनेकजातीयानामुसमानां महीरुहाणां समूहो वनखण्डः, पदुक्तम्-"एगजाइपहिं रुक्खेहि वर्ण, अणेगजाइएहिं उत्तमेहिं रुक्खेहि वणसंडे" इति, स च वनखण्डो देशोने किश्चिदूने हे योजने विष्कम्भतो-विस्तारतः, देशश्चात्र सार्द्धधनुःशतद्वयरूपोऽवगन्तव्यः, तथाहि-चतुर्योजनविस्तृतशिरस्काया जगत्या बहुमध्यभागे पञ्चधनु:-- || शतव्यासा पद्मवरवेदिका, तस्याश्च बहिभागे एको वनखण्डोऽपरश्चान्तभोगे, मतो जगतीमस्तकविस्तारो दिकाविस्ता-1
रचनु शतपञ्चकोनोऽधीक्रियते, ततो यथोक्त मान लभ्यत इति, तथा जगतीसम एव जगतीसमका-जगतीतुल्यः परि-र |क्षेपेण-परिरयेण, वनखण्डवर्णकः सर्वोऽप्यत्र प्रथमोपाङ्गगतो नेतन्यः-स्मृतिपथं प्रापणीयः, स चाय "किण्हे किण्होभासे नीले नीलोभासे हरिए हरिओभासे सीए सीओभासे गिद्धे गिद्धोभासे तिथे तियोभासे किण्हे किण्हच्छाए नीले नील|च्छाए हरिए हरियच्छाए सीए सीअच्छाए णिद्धे णिच्छाए तिथे तिवच्छाए घणकडियच्छाए रम्मे महामेहणिकुरंगभूए.॥ ॥२७॥ ते गं पायवा मूलमंतो कंदमंतो खंधमतो तयामतो सालमंतो पवालमंतो पत्तमंतो पुष्फमतो फलमंतो बीममंतो अणुपु-18 विमुजावरुइलबहभावपरिणया एगखंधी अणेगसाहप्पसाहविडिमा अणेगणरवामसुष्पसारियागेज्मघणविउलबहसंघा ||
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अत्रात् वनखण्डस्य वर्णनं आरभ्यते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१],-------------------------
------- मूलं [५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
अच्छिहपत्ता अविरलपत्ता अघाईणपत्ता अणईईपत्ता णियजरढपंडुरपत्ता णवहरिमभिसंतपत्तभारंपयारगंभीरदरिसणिज्जा उघविणिग्गयनवतरुणपसपल्लवकोमलुज्जलचलंतकिसलयसुकुमालपवालसोभियवरकुरग्गसिहरा णिचं कुसुमिया | | णिचं मउलिआ णिचं लवइया णिचं थवइया णिचं गुलइया णिचं गुच्छिया णिचं जमलिया णिचं जुअलिया णिचं।
विणमिया णिचं पणमिया णिचं कुसुमिअमउलिअलवइअथवइगुलइअगोच्छिअजमलिअजुअलिअविणमियपणमियसु| विभत्तपडिमंजरिवटिंसयधरा सुअवरहिणमयणसलागकोइलकोरगभिंगारगोंडलकजीवंजीवगणंदीमुहकविलपिंगलक्खगिकारंडवचकवायकलहंससारसअणेगसउणगणविरइअसहुबइअमहुरसरणाइआ सुरम्मा संपिंडिअदरियभमरमहुअरिपह-13
करपरिळिंतमत्तछप्पयाकुसुमासबलोलमहुरगुमगुतगुंजतदेसभागा अम्भितरपुप्फफला बाहिरपसमा पुष्फेहि फलेहि || व उच्छन्नपलिच्छन्ना जीरोअया अकंटया साउफला जाणाविहगुच्छगुम्ममंडवगसोहिया विचित्तसुहकेजभूया पाविपु-18 क्खरिणीदीहियामुनिवेसियरम्मजालघरगा पिंडिमनीहारिमसुगंधिसुहसुरभिमणहरं च मया गंधडणि मुअंता सुहसेउकेउबहुला अणेगरहजाणजुग्गसिबिअसंदमाणिापविमोअणा पासादीया जाव पडिरूवा" इति (स०सू०३) अत्र व्याख्या| इह प्रायो मध्यमे वयसि वर्तमानानि पत्राणि कृष्णानि भवन्ति, ततस्तद्योगाद्वनखण्डोऽपि कृष्णः, न चोपचारमात्रतः | कृष्ण इति व्यपदिश्यते, किन्तु तथाप्रतिभासनात् , तथा चाह-कृष्णावभासः, यावति भागे कृष्णानि पत्राणि सन्ति 8 तावति भागे स वनखण्डोऽतीव कृष्णोऽवभासते-प्रतिभाति द्रष्टुजनलोचनपथ इति कृष्णोऽवभासो यस्य स कृष्णावभासः,
200000000000000000000000000
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Sentileon
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
-------- मूलं [५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री
या वृत्तिः
॥२८॥
Reacoccaee
तथा प्रदेशान्तरे नीलपत्रयोगाद्वनखण्डोऽपि नीला, एवं नीलावभासः, तथा प्रदेशान्तरे हरितो हरितावभासक्ष, तत्र नीलो ||8| वक्षस्कारे मयूरकण्ठवत् हरितस्तु शुकपिच्छवत् हरितालाभ इति वृद्धाः, तथा प्रायो दिनकरकराणामप्रवेशावृक्षाणां पत्राणि शीतानि ||8|| वनपण्डाभवन्ति तद्योगात् वनखण्डोऽपि शीतः, न चासावुपचारमात्रत इत्यत आह-शीतावभास इति, अधोवर्तिव्यन्तरदेव- वि० देवीनां तद्योगशीतवातस्पर्शतः शीतो वनखण्डोऽवभासते, तथा एते कृष्णनीलहरितवर्णा यथास्वं स्वस्मिन् २ स्वरूपेड-18|| त्यर्थमुत्कटाः स्निग्धाः भण्यन्ते तीवाश्च ततस्तद्योगाद्वनखण्डोऽपि स्निग्धस्तीत्रश्चोक्तः, न चैतदुपचारमात्र किन्तु प्रतिभा-1 सोऽपि, तत उक-स्निग्धावभासस्तीत्रावभास इति, इह चावभासोधान्तोऽपि स्याद्यथा मरुमरीचिकासु जलावभासस्ततो नावभासमात्रोपदश्यते (र्शनेन) यथावस्थितं वस्तुस्वरूपमुपवर्णितं भवति किन्तु तथास्वरूपप्रतिपादनेन ततः कृष्णस्वा-17 दीनां तथास्वरूपप्रतिपादनार्थमनुवादपुरस्सरं विशेषणान्तरमाह-किण्हें इत्यादि, कृष्णो वनखण्डः, कुत इत्याह-कृष्णच्छायः, 'निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शन मिति वचनात् हेतौ प्रथमा, ततोऽयमर्थः-यस्मात् कृष्णा । छाया-आकार। सर्वाविसंवादितया तस्यास्ति तस्मात् कृष्णः, एतदुक्तं भवति-सर्वाविसंवादितया तत्र कृष्ण आकार उप-15 लभ्यते, न च भ्रान्तावभाससम्पादितसत्ताकः सर्वाविसंवादी भवति, ततस्तत्त्ववृत्त्या स कृष्णो नभ्रान्तावभासमात्रव्य-15
॥२८॥ वस्थापित इति, एवं नीलो नीलच्छाय इत्याद्यपि भावनीय, नवरं शीतःशीतच्छाय इत्यत्र छायाशब्द आतपप्रतिपक्षवस्तुवाची द्रष्टव्या, 'पण'त्ति इह शरीरस्य मध्यभागे कटिस्ततोऽन्यस्यापि मध्यभागः कटिरिव कटिरित्युच्यते, कटितटमिव ||
Sanilon
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
------- मूलं [५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
HS कटितट धनी-अन्योऽन्यशाखापशाखानुप्रवेशतो निबिडा कटितटे-मध्यभागे छाया यस्य(स)धनकटितटच्छायः, मध्यभागे 19|| निबिडतरच्छाय इत्यर्थः, वाचनान्तरे 'घणकडिअकडच्छाए'त्ति पाठे तु कटः सञ्जातोऽस्येति कटितः कटान्तरेणोपर्या-1 |वृत इत्यर्थः कटितश्चासौ कटश्च कटितकटः, घना निविडा कटितकटस्येवाधोभूमौ छाया यस्य स धनकटितकटच्छायः, अत एव रम्यो-रमणीयः, तथा महान्-जलभारावनतः प्रावृट्कालभावी यो मेघनिकुरम्बो-मेघसमूहस्तं भूतो-गुणैः प्राप्तो महामेघवृन्दोपम इत्यर्थः, 'ते णं पायव'त्ति यत्सम्बन्धी वनखण्डस्ते पादपाः 'मूलमन्त इत्यादीनि दश पदानि, 12 तत्र मूलानि प्रभूतानि दूरावगाढानि च सन्त्येषामिति मूलवन्तः, यानि कन्दस्याधः तानि मूलानि तेषामुपरिवर्तिनः। |कन्दाः स्कन्धः-स्थुडं यतो मूलशाखाः प्रभवन्ति त्वक्-छल्ली शाला-शाखा प्रवाला-पल्लवाङ्गुरः, पत्रपुष्पफलबीजानि ||
प्रसिद्धानि, सर्वत्रातिशायने कचिद् भूम्नि वा मतुपू प्रत्ययः, 'अणुपुबि'त्ति आनुपूज्यों-मूलादिपरिपाव्या सुषु जाता | 18| आनुपूर्वीसुजाताः रुचिराः-स्निग्धतया दीप्यमानच्छविमन्तः तथा वृत्तभावेन परिणता वृत्तभावपरिणताः, किमुक्त | 18 भवति -एवं नाम सर्वासु दिक्षु. विदिक्षु च शाखादिभिः प्रसूता यथा वर्तुलाकृतयो जाता इति, ततः पदत्रयस्य
कर्मधारयः, तथा ते पादपाः प्रत्येकमेकस्कन्धाः, प्राकृते चास्य स्त्रीत्वमिति एगक्खंधी इति सूत्रपाठः, अनेकाभिः 18| शाखाभिः प्रशाखाभिश्च मध्यभागे विटपो-विस्तारो येषां ते तथा, तथा तिर्यग्वाहुद्वयमसारणप्रमाणो च्यामः अनेकहा
नरव्यामैः-पुरुषव्यामः सुप्रसारितैरग्राह्यः-अमेयो घनो-निविडो विपुलो-विस्तीर्णः स्कन्धो येषां ते तथा, अच्छिद्राणि
Dasa000000sowse
अनुक्रम
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ---------------------
------- मूलं [५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
जीपचा
श्रीजम्यू
|| पत्राणि येषां तेऽच्छिद्रपत्राः, किमुक्तं भवति ।-न तेषां पत्रेषु वातदोषतः कालदोषतो वा गडरिकादिरीतिरूपमायते ३१ वक्षस्कारे
येन तेषु छिद्राण्यभविष्यन्नित्यच्छिद्रपत्राः, अथवा एवं नामान्योऽन्य शाखाप्रशासानुप्रवेशात् पवाणि पत्राणामुपरि वा- नाण्ड न्तिचन्द्री
वि० 18|| तानि पेन मनागष्यन्तरालरूपं छिद्रं नोपलक्ष्यत इति, अच्छिद्रपत्राः कुत इत्याह-अविरलपत्ता इति, बत्र हेती प्रथमा,18॥ या प्रति
|| ततोऽयमर्थ:-यतोऽविरलपत्रा अतः अच्छिद्रपत्राः, अविरलपत्रा अपि कुत इत्याह-वाईन'त्ति पातीनानि-बातोप-18 हतानि वातेन पातितानीत्यर्थः, न पातीनानि अवातीनानि पत्राणि येषां ते तथा, किमुकं भवति :- तत्र प्रबलो वातः सरपरुषो वाति येन पत्राणि त्रुटित्वा भूमी पतन्ति, ततोऽयातीनपत्रत्वादविरलपत्रा इति, अच्छिद्रपना इत्यत्र 8 प्रथमव्याख्यापक्षे हेतुमाह- अणीइपत्ता'इति न विद्यते ईति:-गडरिकादिरूपा येषु तान्यनीतीनि अनौतीनि पत्राणि येषां ते तथा, अनीतिपत्रत्वाचाच्छिद्रपत्राः, तथा नि तानि-अपनीतानि जरठानि-पुराणत्वात् कर्कशानि तत एष पाण्डराणि पत्राणि येषां ते तथा, अयमाशयः-यानि वृक्षस्थानि उक्तखरूपाणि पत्राणि तानि वातेन निय २ भूमी पात्य-RI न्से तसोऽपि च प्रायो निर्द्धय निर्धयान्यत्रापसार्यन्त इति, तथा नवेन-सद्यस्केन हरितेन-शुकपिच्छाभेन 'मिसम्त'सि
भासमानेन स्निग्धत्वचा दीप्यमानेन पत्रभारेण-दलसञ्चयेन यो जातोऽन्धकारस्तेन गम्भीरा-अलब्धमध्यभागाः सम्तो ॥ || वर्शनीयाः नवहरितमासमानपभभारान्धकारगम्भीरदर्शनीया, तथा उपविनिर्गत:-निरन्तरविनिर्गतैर्नवतरुणपषप
लवैस्तथा कोमल-मनोजैरुज्वलैः शुद्धैश्चलभिः परकम्पमानैः किशलयैः-अवस्थाविशेषोपेतैः पल्लव विशेषैस्तथा कुमारी
Gossroose
Snellennius
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
------- मूलं [५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
प्रवा-पालवारैः शोभितानि वराङ्कराणि-वराङ्कुरोपेतानि अप्रशिखराणि येषां ते तथा, इह चागुरमवालयोः कालक-18 K|| तावस्थाविशेषाद्विशेषो भाषनीय इति, "णिचं कुसुमिया इत्यादिक 'वडेंसयधरा'इत्यन्तं सूत्रं पूर्ववद् व्याख्येयं, तथा शुक-18
चर्हिणमदनशलाकाकोकिलकोरकभृङ्गारककोण्डलकजीवंजीवकनन्दीमुखकपिलपिङ्गलाक्षककारण्डवचक्रवाककलहंससारसाख्यानामनेकेषां शकुनिगणाना-पक्षिकुलानां मिथुनैः-स्त्रीपुंसयुग्मविरचितं शब्दोशतिकं च-उन्नतशब्दकं मधुर-IN स्वरं च नादिसं-लपितं येषु ते तथा, अत एव सुरम्या-अतिमनोज्ञाः, अत्र शुका:-कीराः बहिणा-मयूराः मदनशला-IN
काः सारिकाः कोकिल चक्रवाककलहंससारसाः प्रतीताः, शेषास्तु जीवविशेषाः लोकतोऽवसेयाः, संपिंडिता-एकत्र पिण्डीS भूता हप्ता-मदोन्मत्ततया दध्मिाता भ्रमरमधुकरीणां पहकरा:-संघाताः यत्र ते तथा, तथा परिलीयमाना-अन्यत
आगत्यागत्याश्रयन्तो मत्ताः षट्पदाः कुसुमासवलोला:-किंजल्कपानलम्पटा मधुरं गुमगुमायमाना गुञ्जन्तब-शब्दI|| विशेष विदधाना देशभागेषु येषां ते तथा, गमकत्वादेवमपि समासः, ततो भूयः पूर्वपदेन सह विशेषणसमासः, तथा||
अभ्यन्तराणि-अन्तर्वचीनि पुष्पफलानि येषां ते तथा तथा बहिः पत्रः छन्ना-व्याप्ता, तथा पत्रैश्च पुष्पैश्च छन्न-1ST परिच्छन्ना-एकार्थिकशब्दद्वयोपादानात् अत्यन्तमाच्छादिताः, तथा नीरोगका-रोगवर्जिता वृक्षचिकित्साशास्त्रेषु येषां प्रतिक्रिया तेः रोगैः स्वत एष विरहिता इत्यर्थः, तथाऽकण्टकाः न तेषु मध्ये बदयोदयः सन्तीतिभावः, तथा स्वादूनि फलानि येषां ते स्वादुफलाः, निग्धफला इत्यपि कचित्, नानाविधैर्गुच्छ:-वृन्ताकीप्रभृतिभिर्गुल्मैः-नवमालिकादिभि
अनुक्रम
RA
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ------------------------
------- मूलं [५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
AAAA
A
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.
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द्वीपशा-
॥३०॥
Sassass
मण्डपकैः-द्राक्षामण्डपकैः शोभिताः उक्तरूपैर्गुच्छादिभिस्तं संश्रिता इत्यर्थः, तथा 'विचित्तसुहकेउभूया'इति विचि-18 १वक्षस्कारे बान शुभान केतून-बजान् प्राप्ताः 'विचित्तसुहकेउबहुला' इतिपाठान्तरं, तत्र विचित्रैः शुभैर-मङ्गलभूतैः केतुभिः-11 ध्वजैर्बहुला-व्याप्ताः, तथा वाप्यश्चतुरस्राकारास्ता एव वृत्ता:-पुष्करिण्यः दीर्घिका-ऋजुसारिण्यः, तासु सुछु निवेशि
भूमिव० तानि रम्याणि जालगृहकाणि यत्र ते तथा, अयमर्थः-यत्र ते वृक्षा आसन् तत्र वाप्यादिषु गवाक्षवन्ति गृहाणि व्यन्त-18 रमिथुनानां जलकेलिकृते बहूनि सन्तीति, पिंडिमनिहारिमा-पुद्गलसमूहरूपां दूरदेशगामिनी च सुगन्धि-सद्गन्धिकां शुभ-11 सुरभिभ्यो गन्धान्तरेभ्यः सकाशान्मनोहरा या सा तथा तां च महता-मोचनप्रकारेण प्राकृतत्वाद्वा द्वितीयार्थे तृतीया महतीमित्यर्थः गन्धप्राणिं-यावनिर्गन्धपुद्गलैर्घाणेन्द्रियस्य तृप्तिरुपजायते तावती पुद्गलसंहतिरुपचाराद् गन्धप्राणिरित्यु-18 च्यते तां निरन्तरं मुञ्चन्त इत्यर्थः, तथा शुभाः-प्रधानाः सेतवो-मार्गाः आलवालपाल्यो वा केतवो-ध्वजा बहुलाअनेकरूपा येषां ते तथा, रथा:-क्रीडारथादयः यानानि-उक्तवक्ष्यमाणातिरिक्तानि शकटादीनि-वाहनानि युग्यानि-गोल्ल-8 विषयप्रसिद्धानि द्विहस्तप्रमाणानि चतुरस्रवेदिकायुतानि जम्पानानि शिविका:-कूटाकारणाच्छादिताः जम्पानविशेषाः स्यन्दमानिकाः-पुरुषप्रमाणजम्पान विशेषाः, अनेकेषां रथादीनामधोऽतिविस्तीर्णत्वात् प्रविमोचनं येषु ते तथा, 'पासा- ॥३०॥ दीया' इत्यादि प्राग्वत् । अथ वनखण्डस्य भूमिभागवर्णनमाह
तस्स णं वणसंङस्स अंतो बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाब णाणाविहपंचवण्णेहि मणीहिं
3299992809200002929062629000
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
-------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
सणेहि नबसोभिए, तंजहा-किण्हेहिं एवं वणो गंधो रसो फासो सहो पुक्खरिणीओ पायगा परगा मंडवगा पुडविसिलावट्टया गोयमा!
यशा, तत्य णं बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य आसयंति सयंति [चिट्ठति णिसीति तुअति रमंति ललंति कीलंति मोहंति] | पुरापोराणाणं सुपरवंताण सुभाणं कल्लाणाणं फसाणं कम्माणं कल्याणफलवित्तिविसेसं पञ्चणुभवमाणा विहरति । तीसे णं जगईए
सप्पि अंतो परमवरवेशआए एत्य गं एगे महं वणसंडे पण्णते, देसूणाई दो जोअणाई विक्खंभेणं वेदियासमएण परिक्खेवेणं किण्हे जाव तणविहूणे णेअबो (सूत्रं ६)
तस्य णमिति पूर्ववत् वनखण्डस्यान्तः-मध्ये बहु-अत्यन्तं समो बहुसमः स चासौ रमणीयश्च स तथा, भूमिभागः मज्ञप्तः, कीरश इत्याह से इति तत् सकललोकप्रसिद्ध 'यथेति दृष्टान्तोपदर्शने 'नामे'ति शिष्यामन्त्रणे 'ए' इति ।
वाक्यालकारे, आलिङ्गो-मुरजो वाद्यविशेषस्तस्य पुष्कर-चर्मपुटक तत्किलात्यन्तसममिति तेनोपमा क्रियते, इतिशब्दाः॥ TR| सर्वेऽपि स्वस्वोपमाभूतवस्तुसमाप्तिद्योतकाः, वाशब्दाः समुच्चये, यावच्छब्देन बहुसमत्ववर्णको मणिलक्षणवर्णका प्राह्म।
इति, स चार्य 'मुइंगपुक्खरेइ वा सरतलेइ वा करतलेइ वा चंदमंडलेइ वा सूरमंडलेइ वा आर्यसमंडलेइ वा उरम्भचम्मेइ वा वसहचम्मेइ वा वराहचम्मेइ वा सीहचम्मेइ वा वग्घचम्मेइ वा छगलचम्मेइ वा दीवियचम्मेइ वा अणेगसंकुकीलगसहस्सवितते आवत्तपञ्चायत्तसेढिपसेढिसोत्थियसोवत्थियपूसमाणवद्धमाणगमच्छंडकमगरंडकजारमारफुल्लावलिपउमपत्तसागरतरंगवासंतीपउमलयभत्तिचित्तेहिं सच्छाएहिं सप्पभेहिं समिरीइएहिं सउज्जोपहि' इति, अत्र व्या
eacronosaceae0a5000saal
59090020009929899028888
अनुक्रम
श्रीजम्बू.
अथ वनखण्ड-भूमिभागस्य वर्णनं क्रियते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
-------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
या वृत्तिः
श्रीजम्बू-18Jल्यावको लोकप्रतीती मदलस्तव पुष्कर मृदंझपुष्कर तथा परिपूर्ण-पानीयेन भृतं तडार्ग-सैरतस्यै तलै-उपरि- १ वक्षस्कारे द्वीपशा18 सनी माग सरसल, मत्र व्याख्याती विशेषप्रतिपत्ति'रिति निर्वातं जलपूर्ण सरी प्रार्थ, अन्यथा वातीयमानतयो- पनवेदिकाबावजलत्वेन विधक्षितः समभावी म खादित्यर्थः, करतलं प्रतीतं, चन्द्रमण्डल सूर्यमण्डलंच मद्यपि बस्तुगल्या उत्सा
| वनखण्डव. गीतापित्याकारपीठपासादापेक्षया वृत्तालेखमिति तद्तो दृश्यमानो भागो म समतलस्तथापि प्रतिभासते समतल ३१॥ ति सदुपादाम, आदर्शमण्डल सुप्रसिद्ध उरभचम्मेइ वा इत्यादि, अत्र सर्वत्रापि 'अणेगसकुकीलगसहस्सवितते ॥
इति पर्व योजनीय, रच-करणः वृषभवराहसिंहव्यानछगलाः प्रतीताःद्वीपी-चित्रकी, एतेषां प्रत्येक वर्मा अनेकः18। पप्रमाणः कीलकसहस्रर्यतो महन्द्रिः कीलकैस्ताडितं पायो मध्ये क्षार्म भवति न समतलं सथारूपताडासम्भवात् अतः शप्रहण विततं-विततीकृतं ताडितमित्ति भावः, यथाऽत्यन्तं बहुसमै भवति तथा तस्थापि वनखण्डस्यान्तर्वहुसमी भू-18 मिभागः। पुनः कथंभूत इत्याह-'माणाविहर्पचवण्णेहिं मणीहि तणेहिं (मणितणेहि) उबसोभिए'इति योगः, नानावि-181 |धा-जातिभेदानामाप्रकारा ये पञ्चवर्णा मणवस्तूणानि च तैरुपशोभितः, कथंभूतैर्मणिभिरित्याह-आवर्चादीनि-मणीनां |
॥३१॥ | लक्षणामि, तत्र आवतः प्रतीतः एकस्पावर्चस्व प्रस्यभिमुखः आवर्तः प्रत्यावर्तः श्रेणिः तथाविधविन्दुजातादेः पतिः तस्वास श्रेणे; विनिर्गताऽन्या श्रेणिः सा प्रश्रेणिः स्वस्तिका-प्रतीतः, सौवस्तिकपुष्पमाणवी च लक्षणविशेषौ डोकात् प्रत्येतन्यौ, वर्धमानक-शरावसपुट मस्त्यापटकमकराण्डके जलचरविशेषाण्डके प्रसिद्धे, 'जारमारेति लक्षणविशेषी सम्य
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अथ वक्षस्कारे पद्मवरवेदिका एवं वनखण्डस्य वर्णनं क्रियते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
-------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
मणिलक्षणवेदिनी लोकाइदितव्यो, पुष्पाबलिपनपत्रसागरतरङ्गवासन्तीलतापमलताः प्रतीता, तासां भक्त्या-विच्छि-18 स्था चित्र-नालेखो येषु ते तथा, किमु भवति-आवादिलक्षणोपेतैः तथा सती-शीभमा छाया-शोभा येषां ते
तथा त, "सप्पहि'इत्यादि विशेषणप्रय प्राग्वत् , एवंभूतः नानाविधैः पश्चवण: मणिभिस्तृणैश्योपशोभिता, तवेIS खुपदर्शने, कृष्णा-कृष्णवर्णोपेतः एवं 'वण्णोति एवं अमुंना प्रकारेण शेषोऽपि नीलादिको वर्णी मणितॄणविशे॥षणतया योजनीयो बंधा नीलवर्णोहितवर्णः हारिद्रवण शुक्लवर्णैवेति, तथा तेषां मणितॄणानां गन्धः स्पर्शःशब्दच
तध्या, तवा तस्य बनखण्डस्य भूमिभागे पुष्करिण्यः पर्वतका गृहकाणि मण्डपकाः पृथिवीशिलापट्टकाच नेतन्या:बुद्धिपचे प्रापणीयाः, भवन्ति हि सूत्रकाराणां गतेचिध्यादौरशानि लाघवार्थकानि एवं जाव तहेव इचाई वण्णओN रासस अहा' इत्याद्यनेकप्रकारकपदाभिव्यजयानि अतिदेशरूपाणि सूत्राणि, यदाह-कह देसग्गहण कत्थई भण्णति हामिरवसेसाई। रकमकमजुत्ताई कारणवसयो निसत्ताई॥इति, अत्रैतत्सूत्राभिप्रावाभिव्यक्तये जीवाभिगमादिप्रन्यो
का कियान पाठो लिख्यते, 'तत्थ णजे ते किण्हा मणी तणा व सेसि णं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णते, तं०-से जहा-18 माम एजीभूतेर वा अंजणेइ वा खंजणेइ वा कजलेइ वा मसीह वा मसीगुलियाई वा गवला या गवलगुलिखाइ वा । भिमरेइ वा भमरावलीइ वा भमरपसारेइ का जंबूफलेइ वा अद्दारिटेइ वा परपुढेइ वा गएर पा गयकलभेइ वा किण्ह
पिदेशनहर्ण कुत्रचित् भण्यन्ते गिरनशेषाणि । उरकमकमयुक्तानि कारणवशतः सूत्राणि ॥५॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ---------------------
-------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
पापातHATHA...
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श्रीजम्यू-18सप्पेइ वा किण्हकेसरेइ वा आगासधिग्गलेइ वा किण्हासोएइ वा किण्हकणवीरेइ वा किण्हवंधुजीवेश वा, भवे एयारूवे?, वक्षस्कारे द्वीपशा- 18गोअमा। णो इणढे समडे, ते णं कण्हा मणी तणा य इत्तो इट्टतरिया चेव कंततराए चेव मणुण्णतराए चेव मणामत- पनवेदिकान्तिचन्द्री- राए चेव वण्णेणं पण्णत्ता"इति, अत्र व्याख्या-तस्थ 'मित्यादि, तत्र-तेषां पञ्चवर्णानां मणीनां तृणानां च मध्ये | वनखण्डव.
णमिति प्राग्वत्, ये ते कृष्णा मणयस्तृणानि च, ये इत्येव सिद्धे ये ते इति वचनं भाषाक्रमार्थ, 'तेसि णमित्यादि से ॥३२॥8 | जहाणामए' इत्यन्तं च सूत्र पूर्ववत् , जीमूतो-मेघः, स चेह प्रावृप्रारम्भसमये जलपूर्णो वेदितव्यः, तस्यैव प्रायोऽति
कालिमसम्भवात् , इतिशब्द उपमाभूतवस्तुनामपरिसमाप्तिद्योतकः वाशब्द उपमानान्तरापेक्षया समुच्चये, एवं सर्वत्र | इतिवाशब्दो द्रष्टव्यो, अञ्जन-सौवीराजन रत्नविशेषो वा खञ्जनं-दीपकमल्लिकामलः स्नेहाभ्यक्तशकटाक्षधर्पणोद्भवमित्यपरे |१|| | कज्जलं-दीपशिखापतितं मपी-तदेव कज्जलं ताबभाजनादिषु सामग्रीविशेषण घोलितं मपीगुलिका-घोलितकज्जालगुटिका || || | गवलं-माहिषं शृङ्गं तदपि चापसारितोपरितनत्वग्भागं ग्राह्य, तत्रैव विशिष्टस्य कालिनः सम्भवात् , तथा तस्यैव माहिपशृङ्गस्य निविडतरसारनिर्वत्र्तिता गुटिका गवलगुटिका भ्रमरः-प्रतीतः भ्रमरावली-भ्रमरपङ्किः तथा भ्रमरपत्रसार:धमरस्य पत्रं-पक्षस्तस्य सारः-तदन्तर्गतो विशिष्टश्यामतोपचितः प्रदेशः जम्बूफलं-प्रतीतं आरिष्ठ:-कोमलकाकः |
परपुष्टा-कोकिल: गजो गजकलभश्च प्रसिद्धः कृष्णसर्पः-कृष्णवर्णः सर्पजातिविशेषः कृष्णकेसर:-कृष्णबकुल: 'आका- ॥३२॥ ISHशथिग्गलं' शरदि मेघमुक्तमाकाशखण्ड, तद्धि कृष्णमतीव प्रतिभातीति तदुपादानं, कृष्णाशोककृष्णकणवीरकृष्णबन्धु-11
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
-------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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जीवाः अशोककणवीरवन्धुजीववृक्षभेदाः, अशोकादयो हि पञ्चवर्णा भवन्ति ततः शेषज्युदासार्थ कृष्णग्रहणं, एतावत्युक्ते श भगवन्तं गौतमः पृच्छति-भवे एयारूवें' इति भवेत् मणीनां तृणानां च कृष्णो वर्ण एतद्रूपो-जीमूतादिरूपः, काकु
पाठाच्चास्य प्रश्नसूत्रता वेदितव्या, भगवानाह-गौतम ! नायमर्थः समर्थः-नायमर्थ उपपन्नो, यदुत-एवंभूतः कृष्णो | वर्णो मणीनां तृणानां च, किन्तु ते कृष्णा मणयस्तृणानि च इतो-जीमूतादेः सकाशादिष्टतरका एव-कृष्णेन वर्णन 18| ईप्सिततरका एव, तन्त्र किश्चिदकान्तमपि केषाञ्चिदिष्टतरं भवति ततोऽकान्तताब्यवच्छित्यर्थमाह-कान्ततरका एव|| अतिस्निग्धमनोहारिकालिमोपचितया जीमूतादेः कमनीयतरका एव, अत एव मनोज्ञतरका-मनसा ज्ञायन्ते अनुकूल|| तया स्वप्रवृत्तिविषयीक्रियन्ते इति मनोज्ञा-मनोऽनुकूलाः ततः प्रकर्षविवक्षायां तरप्प्रत्ययः, तत्र मनोज्ञमपि किचिन्म|| ध्यम भवति ततः सर्वोत्कर्षप्रतिपादनार्थमाह-मनआपतरका एव-द्रष्टुणां मनांसि आमुवन्ति-आत्मवशतां नयन्तीति मनापाः ततः प्रकर्षविवक्षायां तरप्प्रत्ययः, प्राकृतत्वात् पकारस्य मकारे मणामतरा इति भवति, अथवा कोऽपि शब्दः कस्यापि प्रसिद्धो भवतीति नानादेशजविनेयानुग्रहार्थ एकाथिका एवैते शब्दा इति । 'तत्थ णं जे ते नीलगा | मणी तणा य तेसि णं अयमेयारूवे वपणावासे पण्णते तंजहा-से जहा णामए भिंगेइ वा भिंगपत्तेइ वा चासेइ वा चासपिच्छेद वा सुएइ वा सुअपिच्छेइ वा णीलीइ वा णीलीभेएइ वा नीलीगुलियाइ वा सामाएइ वा उच्चंतएइ वा वणराईड वा हलधरवसणेइ वा मोरगीवाइ वा पारेवयगी वाइ वा अयसिकुसुमेह वा वाणकुसुमेह वा अंजणकेसियाकुसु
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ---------------------
-------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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श्रीजम्-18 मेवाणीलुप्पोमानीलासोपा पाणीलकणधीरे वा पीलबंधुजीवह वा, भवे एपारवे, मोभमा मोइण समई, 18 वक्षस्कारे द्वापशा-INणीला मणी सणापतो हहतरपा व तितरवा व मणुण्णतरचा वेष मणामतरथा व वणेणं पण्णते'ति. पियवादका
बनखण्डव. या चिः RIपदयोजमा प्रापल्, भृक्षा-कीटविशेषः पक्षमलः भृङ्गपत्रं-तस्वैव कीटविशेषस्य पश्म शुक:-कीरः शुकपि-शुक्र पर्व
सिपाप-पक्षिविशेषः चापपिच्छ-तस्यैव पिच्छे नीली-प्रसिद्धा नीलीभेदो-नीलीच्छेदः नीलीगुलिका-नीली-18 विका श्यामाकी-धाम्यविशेषः, प्रज्ञापनायां तु 'सामा इति पाठः, तत्र श्यामा-प्रियः, उचंतगो-दन्तरागा वनराजी-18 मतीता, हलधरो-बलभद्रः तख वसन, तञ्च किल नीलं भवति, सर्वदेव बलो गौरशरीरत्वाच्छोभाकारीति नीलमेव वस्त्रं परिधत्ते, मेथूरग्रीवापारापतग्रीवाअलसीकुसुमधाणकुसुमानि प्रतीतानि, अञ्जनकेशिका-पनस्पतिविशेषः तस्याः कुसुमं 8 नीलोत्पल-कुवलय नीलाशोकनीलकणवीरमीलबन्धुजीवा अशोकादिवृक्षविशेषाः, 'भवे एयारूवे' इत्यादि प्राग्वत् व्या-18 बेध। 'तस्थ ण जे ते लोहिअगा मणी तणा य तेसि* अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णते तं०-से जहा णाम ए ससग-18 रुहिरेह वा उरम्भरुहिरे वापराहरुहिरेई वा मणुस्सरुहिरेइ वा महिसरुहिरेद वा बालिंदगोवेइ वा बालविवायरेइमा संझम्भरागेह वा गुजद्धरागई वो जायहि मुखएर वा सिलप्पवालेइवा पवालकुरेह वा लोहिअक्खमणीइ वा सक्स-11 रसह वा किमिरागकंपलेद वा चीणपिरासीह था जामुअणकुसुमेह या किसुअकुसुमेह या पालियायकुसुमेह वा रतुप्पखेड या रसासोपा वा रसकणवीरेर पा रत्तवेधुजीवर वा, भवे एवारवे, गोममाणिोणढे समढे, ते णे खोहिजना मेणी
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
-------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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समाय पसी हितरवा पेय कंततरणा व मणुनतरचा चेष मणामतरचा वेष वणणं पण्य ति, शक्षकरुधिर-प्रतीत, परभा-रणस्तख रुधिर वराह-कराल रुधिरं मनुष्यरुधिरं महिषरुधिरं प्रतीतं, एसानि हि शेषरुधिरेभ्यो लोहिसवर्णोत्कटाणि भवन्ति तेषामुपादा, बालेन्दगोपका-सद्योजात इन्द्रगोपका, स हि पूरी सन् पिताण्डरको भवति । सती पालग्रहणं, इन्द्रगोपका-पाटकालभावी कीटविशेषः बालदिवाकरा-प्रथममुद्गन्छन् सूर्यः, स हि पदयेरको भवतीति बालपदोपादानं, सन्ध्याचरागो-वर्षासु सन्ध्यासमयभावी अधरागः गुञ्जा-रक्तिका तस्साः अर्द्ध तस्स रागः मुजाईरागः, गुखाया हि अर्द्धमतिरकं भवति अर्द्धभतिकृष्णं अतो गुञ्जार्द्धग्रहण, जात्यहिजसको व्यक्ती, शिलामवालंमवालनामा रखविशेषः प्रथालाकुरा-तस्यैवाकुर, स हि प्रथमोद्गतत्त्वेनात्यन्तरको भवत्वतस्तदुपादान, लोहिताक्ष-18 मणिर्माम रसविशेष लाक्षारसा प्रसिद्धः कृमिरागेण रक्तः कम्बला कृमिरागकम्बला पीमपिष्ट-सिग्दर तल राशिः, राजपाकुसुमकिंशुककुसुमपारिजातकुसुमरकोत्पखरकाशोकरककणवीररतबन्धुजीवाः प्रतीत्ता, 'भो एयारूचे' इत्यादि प्राग्वत् । "सत्य पजे ते हालिद्दा मणीसणी व तेसिणं अपमेयारूबे पण्णावासे पण्णते, तंजहा से अहा णाम |
पगेइ वा पगच्छलीद या पगएर वा हालिहाइ था हालिहाभेएइ वा हालिदागुलियाइ वा हलिवालियाह। वा हरियालियागुलियाइ वा चिउरेइचा चिरिंगरागेहवा बरकणगेइ वापरकणगमिषसेहवा बरपुरिसंवसह वा जलाकुसुमहा पगकुसुमेह या कोहंडिपाकुसुमेह या कोरटमल्लदामेइ वा सारडाकुसुमे या घोसारिपालने का सुबष्णमूहि-RI
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ------------------------
-------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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याकुसुमेइ वा सुहिरणियाकुसुमेह था बीअगकुसुमेइ वा पीयासोएइ वा पीतकणवीरेइ वा पीअबंधुजीवेइ वा, भवे एआ-18 १ वक्षस्कारे द्वीपशा स्वे, गोजमा णो इणटे समढे, ते ण हालिद्दा मणी तणा य एत्तो इडतरा चेव जाव वण्णेणं पण्णत्ता' 'तत्रेत्यादि पदयोजना पनवेविकान्तिचन्द्री
प्राग्वत् , चम्पकः-सामान्यतः सुवर्णचम्पको वृक्षा, चम्पकच्छली-सुवर्णचंपकत्वक चम्पकभेदः-सुवर्णचम्पकच्छेदः हरिद्रावनखण्डव. या चिः
व्यका, हरिद्राभेदो-हरिद्राच्छेदः हरिद्रागुलिका-हरिद्रासारनिर्वतिता गुटिका हरितालिका-पृथिवीविकाररूपा प्रतीता ॥३४॥ हरितालिकाभदो-हरितालिकाच्छेदः हरितालिकागुलिका-हरितालिकासारनिर्मिता गुटिका चिकुरो-रागद्रव्यविशेषः, ॥
चिकुरागरागः-चिकुरसंयोगनिमित्तो वस्त्रादौ रागः, वरं-प्रधानं यत् कनकं पीतसुवर्णमित्यर्थः वरकनकं तस्य निघर्षः। निकषो वा-कपपट्टके रेखारूपः वरपुरुषो-वासुदेवस्तस्य वसन-वखं, तद्धि किल पीतमेव भवतीति तदुपादानं, अल्लकीकुसुमं लोकतोऽवसेयं, चम्पककुसुमं सुर्वणचम्पककुसुमं कूष्माण्डिकाकुसुम-पुंस्फलीपुष्पं, कोरण्टकमाल्यदाम-कोरण्टक:
पुष्पजातिविशेषः स च कण्टासेलिआख्यः सम्भाव्यते तस्य मालायै हितानीति कृत्वामाल्यानि-पुष्पाणि तेषां दाम-माला, ३ समुदाये हि वीत्कव्यं भवतीति दामग्रहणं, तडवडा-आउली तस्याः कुसुमं तडवडाकुसुम, तथा पोषातकीकुसुमं सुव
र्णयधिकाकुसुमं च प्रतीतं, सहिरण्यिका-बनस्पतिविशेषः, बीअको वृक्षविशेषः प्रतीतस्तस्य कुसुमं, पीताशोकादयो व्यक्काः,18॥३४॥
शेष पूर्ववत् । “तत्थ णं जे ते सुकिला मणीय तणा य तेसि णं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा से जहाणाम ए 19 अंकह वा खीरेर वा खीरपूरेर वा कोंचावलीह वा हारावलीइ वा बलायावलीइ वा सारहअबलाहएइ वा धंतधोअरुप्पप
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
-------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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छवा सालिपिहरासीह वा कुंदपुप्फरासीइ वा कुमुअरासीह वा सुकछिवाडिआइ वा पेहणमिजिआइ वा भिसेइ वा|| मुणालेइ वा गयदंतेइ वा लवंगदलेइ वा पोंडरीयदलेइ वा सिंदुवारमल्लदामेइ वा सेआसोपइ वा सेअकणवीरेइ वा सेअबंधुजीवेइ वा, भवे एयारूवे, गोअमा । णो इण समढे, ते णं सुकिल्ला मणी तणा य इत्तो इट्टतरा व जाव वण्णेणं पण्णत्ता," 'तत्थ ण'मित्यादिपदयोजना प्राग्वत् , अडो-रमविशेषः शङ्खचन्द्रौ प्रसिद्धी कुन्द-पुष्पविशेषः दक-गङ्गाजलादि दकरजः-उदककणास्ते ह्यतिशुभ्रा भवन्तीत्युपात्ताः, दधिषनो-दपिपिण्डः क्षीर-प्रतीतं, क्षीरपूर कथ्यमानामतितापादूर्ध्व गच्छत् क्षीरं क्रौञ्चावलिहारावलिहंसावलिबलाकावलयः प्रकटार्थाः, आवलिपदोपादानं | वर्णोत्कव्यप्रतिपादनार्थ, चन्द्रावली-तटागादिषु जलमध्ये प्रतिविम्बिता चन्द्रपति, शारविकबलाहकः-शरत्काल
भावी मेघः ध्मातधौतरूप्यपट:-ध्मात:--अग्निसम्पर्कतोऽतिनिर्मलीकृतो धौतो-भूतिखरण्टितहस्तसम्मार्जनेनातितेजितो || | रूप्यमयपट्टः, अन्ये तु व्याचक्षते-ध्मातेन-अग्निसंयोगेन धौतः-शोधितो रूप्यपट्टः, शालिपिष्ठ-शालिचूर्ण तस्य राशि:
शुक्ला भवत्यतस्तराशिः कुमुदराशिश्च स्पष्टः, छेवाडीनाम-बल्लादिफलिका सा च क्वचिद्देशविशेषे शुष्का सती अतीव ।। ॥४॥ पुनः कुन्दपुष्पदुपादानं, "पेहुणमिंजिका' पेहुणं-मयूरपिच्छं तन्मध्यवर्तिनी मिजा सा चातिशुक्लेति तदुपन्यासः,
विसं-पद्मिनीकन्दः मृणालं-पद्मतन्तुः, शेषा गजदन्तादिका उत्तानार्थाः, नवरं सिंदुवारो-निर्गुण्डी तस्य माल्यं-दाम 8 |शेष प्राग्वत्, 'भवे एयारूवे'इत्यादि भावितार्थ, तदेवमुक्तं वर्णस्वरूपं, सम्प्रति गन्धस्वरूपप्रतिपादनार्थमाह-"तेसि |
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ------------------------
-------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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श्रीजम्यू-18 मणीणे तणाण 4 कैरिसए पंधे पण्णते,से मही० को पुडाण वा तमरपुडाण वा एलापुराण पापीमपुडाण वक्षस्कारे
द्वीपक्षा-18 चपगपुडाण पा दमणेगपुडाण वा कुंकुमपुराण वा पदणपुडाण वा ओसीरपुडाण वा मरुअगपुडा वा जाइपुडाण या पनवेदिकान्तिचन्द्री- 18 हिआपुडाण वा महिआपुडाण वा हाणमल्लिापुडाण वा केअइपुडाण वा पाडलपुडाण वाणीमालियापुडाम वा अग-18वनखण्डव.
imun या वृतिः
गपुडाण वा सवंगपुटाणे वा वासपुडाण की कापूरपुडाणं वा अणुवायंसि सम्भिजमाणाण वा णिम्भिजमाणाण वा ॥३५॥ कुट्टिनमाणाण वा रुचिजमाणाण वा उकिरिजमाणाण वा परिभुजमाणाण का भंडाओ अंडे साहरिजमाणाणं पराला ||
मणुष्णा मणोहरा घाणमणनिधुइकरा सबओ समता गंधा अभिणिस्सर्वति, भवे एथारूपे, गोषमा जो इण्डे | शसमटे, तेसिणं मणीण य तणाण य इत्तो इट्टतरए चेव व मणामतरए चेव मंधे पण्णते" तेषां जगतीपमवरषेदिका
बनखण्डस्थानां भदन्त मणीनां तृणानां च कीदृशो गन्धः प्रज्ञप्तः, भगवानाह-गौतम ! से जहा णाम ए इत्यादि, समाकृतत्वात् से इंति बहुवचनार्थः, ते यथा नाम 'ए'इति वाक्यालङ्कारे गन्धा अभिनिःश्रवन्तीत्ति सम्बन्धः, कोष्टगन्धद्रव्यं तख पुटाः कोष्ठपुटाः तेषां, वाशब्दः सर्वत्र समुच्चयार्थः, इह एकस्य पुटख प्रायो मताहशो गन्धः प्रसरति गम्पद्रव्यस्यास्परवीत् ततो पहुवचन, तगरमपि गन्धद्रव्यं एला:-प्रतीताः चोभ-गन्धद्रव्य चम्पकदममककुमचन्द-11॥३५॥ मीशीरमरुबकजातीयूयिकामल्लिकालाममलिकाकेतकीपाटलानवमालिकाअगुरुलवङ्गवासकर्पूराणि प्रतीतानि, वरमुसीरं-वीरणं मूल, अत्र कचित् 'हिरिबेरपुडाण वा' इति, तत्र हीबेरपुटाना-पालपुटानां मानमल्लिका-खानयोग्यो।
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
-------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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भलिकाविशेषः एतेषामनुवाते-आघ्रायविवक्षितपुरुषाणामनुकूलवाते बाति सति नियमानाना-याव्यमानानां 8 निर्भिद्यमानानां-नितरां-अतिशयेन भिद्यमानानां 'कोट्टिजमाणाण वा' इति इह पुटैः परिमितानि बानि कोठादिग-8 धद्रव्याणि तान्यपि परिमेये परिमाणीपचारात् कोष्टपुटादीनील्युच्यन्ते तेषां कुचमानाना-उदूषलादिषु कुदृधमानाना रुचिजमाणाण था इति-लक्ष्णखण्डीक्रियमाणानां, एतच्च विशेषणद्वयं कोठाविद्रव्याणामवसेये, तेषां प्रायः कुट्टनमणखण्डीकरणसम्भवात् , न तु यूधिकादीना, तथा उत्कीर्यमाणानां क्षुरिकादिभिः कोष्ठाविपुटामां कोष्ठादिद्रयाणां वा उल्लिख्यमानाना, तथा विकीर्यमाणामां-इतस्ततो विप्रकीर्यमाणानां परिभुज्यमानानां परिभोगायोपयुज्यमामाना कचित् परिभाएजमाणाण वा' इति पाठः, तत्र परिभाज्यमानाना-पार्श्ववर्तिभ्यो मनाक् मनाक् दीयमानाना, तथा माण्डात्-स्थानादेकस्मादन्यज्ञाण्ड-भाजनान्तरे संहियमाणानां, उदारा:-स्फारास्ते चामनोज्ञा अपि भवम्त्यत आह| मनोज्ञा-मनोऽनुकूलाः तच्च मनोज्ञत्वं कुत इत्याह-मनोहरा-मनो हरम्ति-आत्मयतां नयन्तीति मनोहराः यससती | 18|| ममीज्ञाः, तदपि मनोहरत्वं कुत इत्याह-प्राणमनोनिवृतिकरा:-नासासचिवचेतःमुखोत्पादकाः, एवम्भूताः सर्वतः-1॥ || दिक्षु समन्ततः-सामस्त्येन गन्धा अभिनिःश्रवन्ति-जिघ्रतामभिमुखं निस्सरग्ति, एवमुक्ते शिष्यः पृच्छति-भवेदेत
प:१, भगवानाह-गौतम । नायमर्थः समर्थः, सेषां मणीनां तृणानां च इत इष्टतरकश्चैव यावन्मनापतरकशेव गन्धः || प्रज्ञप्त इति । तेसि भैते ! मणीण तणाण व केरिसए फासे पण्णते, से जहा णाम ए आइणगेइ वा रूएर वा पूरे ॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ------------------------
-------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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श्रीजम्यू-18 द्वीपशान्तिचन्द्री
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श्वश्वस्कारे पनवेदिकावनखण्डव.
वा णवणीएइ वा हंसगम्भतूलीइ वा सिरीसकुसुमनिचएइ वा बालकुमुदपत्तरासीइ वा, भये एयारूवे, गोमा ! णो इणहे समढे, तेसि णं मणीणं तणाण य इत्तो इट्टतरए चेव जाव फासेणं पण्णत्ते" तेषां भदन्त ! मणीनां तृणानां च
कीदृशः स्पर्शः प्रज्ञप्तः, भगवानाह-गौतम! 'से जहा णाम प'इत्यादि, तद्यथा-अजिनक-चर्ममयं वस्त्रं रूतं-को- या वृत्तिः
| सपक्ष्म बूरो-वनस्पतिविशेषः, नवनीत-म्रक्षणं, हंसगर्भतूली शिरीषकुसुमनिचयश्च प्रकटः, बालानि-अचिरकालजातानि यानि कुमुदपत्राणि तेषां राशिः, क्वचिद्बालकुसुमपत्रराशिरिति पाठः, 'भवे एयारूवे'इत्यादि पूर्ववत् , 'तेसिणं भंते ! मणीणं तणाण य पुषावरदाहिणुत्तरागएहिं वाएहिं मंदाय मंदायं पइयाणं वेइयाणं कंपियाणं चालियाणं फंदियाणं घट्टियाणं खोभिआणं उदीरियाणं केरिसए सद्दे पण्णत्ते, गो०1 से जहा णाम ए, सिविआए वा संदमाणिआए वा रहस्स वा सच्छत्तस्स सज्झयस्स सघंटायस्स सपडायस्स सतोरणवरस्स सणंदिघोसस्स सखिखिणीअहेमजालपेरंतपरिक्खित्तस्स हेमवयचित्ततिणिसकणगणिज्जुत्तदारुआगस्स सुपिणद्धारगमंडलधुरागस्स कालायससुकवणेमिर्जतकम्मस्स
आइण्णवरतुरगसुसंपउत्तस्स कुसलतरछे असारहिसुसंपगहियस्स सरसयवत्तीसतोणपरिमंडियस्स सकंकडवयंसगस्स 19॥ सचावसरपहरणावरणभरिअजोहजुज्झसज्जस्स रायंगणंसि वा अंतेजरंसि वा रम्मंसि वा मणिकुहिमतलंसि अभिपट्टि- ॥जमाणस्स जे पराला मणुण्णा कण्णमणणिषुईकरा सद्दा सबओ समता अभिणिस्सरति, भवे एयारूवे सिमा?, णो| इणद्वे समझे' अत्र व्याख्या-तेषां मणीनां तृणानां च भदन्त ! पूर्वापरदक्षिणोत्तरागतैर्वातैर्मन्द मन्दमेजितानां-कम्पि
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१],-------------------------
-------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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तानां तथा व्यंजिताना-विशेषतः कम्पितानां, एतदेव पर्यायशब्देन व्याचष्टे-कम्पितानामिति, तथा चालितानां-15 इतस्ततो विक्षिप्तानां, एतदेव पर्यायेणाह-स्पन्दितानामिति तथा घट्टितानां-परस्परं घर्षयुक्तानां, कथं घट्टिता इत्याह-क्षोभितानां-स्वस्थानाचालितानां, स्वस्थानाञ्चालनमपि कुत इत्याह-उदीरितानां-उत्-पावल्येनेरिताना-प्रेरि-18 तानां, कीदृशः शब्दः प्रज्ञप्तः !, भगवानाह-गौतम! स यथानामकः शिबिकाया वा स्यन्दमानिकाया वा रथस्य । वा, तत्र शिविका-जम्पानविशेषरूपा उपरिच्छादिता कोष्ठाकारा, तथा दीर्घा जम्पानविशेषः पुरुषस्य स्वप्रमाणाधका|| शदायी स्यन्दमानिका, अनयोश्च शब्दः पुरुषोत्पाटितयोः क्षुद्रहेमघण्टिकादिचलनवशतो वेदितव्या, रथश्चेह रणरथा
प्रत्येतव्यः न क्रीडारथा, तस्यायेतनविशेषणानामसम्भवात् , तस्य च फलकवेदिका यस्मिन् काले ये पुरुषास्तदपेक्षया ॥९॥ कटिप्रमाणावसेया, तस्य च रथस्य विशेषणान्यभिधत्ते-सच्छत्रस्य सध्वजस्य सघण्टाकस्य-उभयपाश्वावलम्बिमहाप्र- 18
माणघण्टोपेतस्य सपताकस्य-सलघुध्वजस्य, सतोरणवरस्प-प्रधानतोरणोपेतस्य सनन्दिघोषस्य-द्वादशविधतूय निनादो
पेतस्य, द्वादश तूर्याणि च "भंभा १ मकुन्द २ मद्दल ३ कडंब ४ सालरि ५ हुडकर कंसाला७ । काहल ८ तलिमा R९वंसो १० संखो ११ पणयो १२ अ बारसमो ॥१॥" तथा 'सकिहिणीकहेमजालपर्यन्तपरिक्षिप्तस्य' सह किङ्कि-18 Mणीभिः-क्षुद्रघण्टाभिर्वन्त इति सकिङ्किणीकानि यानि हेमजालानि-हेममयदामसमूहास्तैः पर्यन्तेषु-बहिःपदेशेषु परि-18
क्षिप्तो-व्याप्तः तस्य, तथा हैमवतं-हिमवत्पर्वतभावि चित्र-विचित्रं मनोहारि तैनिश-तिनिशद्रुमसम्बन्धि कनकनियु
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
-------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
द्वीपशा
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श्रीजम्बू- क-कनकविच्चरितं कनफपहिकासंचलितमित्यर्थः (सत् ) तथाविधं दारु-काठ यख स तथा सत्य, प्रथमो पहनीही वक्षस्कार का द्वितीयः स्वार्थिकः, पूर्वस्य च दीर्घत्वं प्राकृतत्वात् , तथा सुष्ठु-अतिशयेन सम्यक् पिनवभरकमण्डल धूश्च यस्य |
पावरवे
दिकावनस सुसंपिनद्धारकमण्डलभूष्कस्तस्य, तथा कालायसेन-लोहेन सुष्टु-अतिशयेन कृतं नेमेः-बाह्यपरिपर्यन्त्रस्य चारकोपरि
खण्डवा फलकचक्रवालस्य कर्म यस्मिन् स कालायससुकृतनेमियन्त्रकर्मा तस्य, आकीर्णा-गुणैाप्ता ये बरा:-अधानास्तुरगास्ते 18 ॥३७॥ सुष्ठ-अतिशयेन सम्यक् प्रयुक्ता-योत्रिता यस्मिन् स तथा तस्य, बहुव्रीहावपि निष्ठान्तस्य परनिपातःप्राकृतत्वात् , तथा 18
सारथिकर्मणि ये कुशलनरास्तेषां मध्ये अतिशयेन छेको-दक्षः सारथिस्तेन सुष्टु-सम्यकपरिगृहीतस्य, तथा शराणां शतं प्रत्येकं येषु तानि शरशतानि तानि च द्वात्रिंशत्तूणानि च-बाणाश्रयाः शरशतद्वात्रिंशत्तूणानि तैमण्डितः, किमु-18
कं भवति -पवं नाम तानि द्वात्रिंशत् शरशतानि तूणानि रथस्य सर्वतः पर्यन्तेष्ववलम्बितानि तस्य रणायोपकल्पि19 तस्यातीव मण्डनाय भवन्तीति, तथा कङ्कट:-कवचं अवतंस:-शिरस्त्राणं ताभ्यां सह वर्तते यः स तथा तस्य, सह चापेन ये शरा यानि च कुन्तादीनि प्रहरणानि यानि च खेटकादीन्यावरणानि तै तः-पूर्णस्तथा योधानां युद्धं तन्नि
॥३७॥ मित्तं सज:-प्रगुणीभूतो यः स योषयुद्धसज्जस्ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः, तस्य इत्थंभूतस्य राजाङ्गणे वा अन्तःपुरे वा || ही रम्ये वा मणिकुट्टिमतले-मणिबद्धभूमितले अभीक्ष्ण-मुहुर्मुहुर्मणिकोट्टिमतलप्रदेशः राजाङ्गणादिप्रदेशैर्वा 'अभिघट्टि-1
जमाणस्से ति अभिषयमानस्य-वेगेन गच्छतो ये उदारा-मनोज्ञाः कर्णमनोनिवृतिकराः सर्वतः समन्तात् शब्दाः
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ------------------------
-------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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अभिनिस्सरन्ति-श्रोणामभिमुखं निस्सरन्ति, 'भवे एथारूवे सिआ । इति स्यात्-कथञ्चिद्भवेदेतद्रूपस्तेषां मणीना तृणानां च शब्दः !, भगवानाह-मौतम ! नायमर्थः समर्थः, पुनरपि गौतमः प्राह-से जहाणामए वेआलियाए वीणाए उत्तरमंदामुच्छिआए अंकेसुपइडियाए कुसलणरणारिसुसंपग्गहियाए चंदणसारकोणपरिघट्टियाए पचूसकालसमयंसि मंद मंदं एझ्याए बेड्याए चालियाए घट्टियाए फंदियाए खोभियाए उराला मणुण्णा कण्णमणणिबुइकरार सबओ समंता सद्दा अभिणिस्सर्वति, भवे एयारूवे सिया', णो इणडे समडे" अत्र व्याख्या-स यथानामकः प्रातः सन्ध्यायां देवतायाः पुरतो या वादनायोपस्थाप्यते सा किल मङ्गलपाठिका, तालाभावे च वाद्यते इति विताले-ताला-| भावे भवतीति वैतालिकी तस्या वैतालिक्या वीणाया 'उत्तरमंदामुच्छ्यिाए' इति मूर्छनं मूर्छा सा सञ्जाता अस्या इति मूळिता उत्तरमन्दया-उत्तरमन्दाभिधया गन्धारस्वरान्तर्गतया सप्तम्या मूर्छनया मूछिता तस्याः, अयमाशय:गन्धारस्वरस्य सप्त मूर्छना भवन्ति, तथाहि-"नंदी य खुड्डिमा पूरिमा य चोत्थी य सुद्धगंधारा । उत्तरगंधारावि अS | हवई सा पंचमी मुच्छा ॥१॥ मुहत्तरमायामा छट्ठी सा नियमसो उ बोद्धया । उत्तरमंदा य तहा हवाई सा सत्तमी | | मुच्छा ॥२॥" अथ किस्वरूपा मूर्छना', उच्यते, गन्धारादिस्वरस्वरूपामोचनेन गायतोऽतिमधुरा अन्यान्यस्वरविशेषा यान् कुर्वन् आस्तां ओवन मूच्छितान् करोति किन्तु स्वयमपि मूर्षित इव तान् करोति, यदिवा स्वयमपि साक्षान्मूच्छा करोति, यदुक्तम्-"अन्नन्नसरविसेसे उप्पायंतस्स मुच्छणा भणिया । कत्तावि मुच्छिओ इव कुणए मुच्छ
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१],-------------------------
-------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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18 व सो वत्ति ॥ १॥" गन्धारस्वरान्तर्गतानां च मूर्च्छनानां मध्ये सप्तमी उत्तरमन्दा मूर्छना किलातिप्रकर्षप्राप्ता ततस्त-18 हीपशा-18| दुपादानं, तवा च मुख्यवृत्त्या वादविता मूच्छितो भवति परमभेदोपचाराद्वीणापि मूर्षिलतेत्युक्ता, साऽपि यद्यङ्के।
पञ्चवरवेन्तिचन्द्री- सुप्रतिष्ठिता न भवति ततो न मूर्च्छना प्रकर्ष विदधाति तत आह-अङ्के-उत्सङ्गे स्त्रियाः पुरुषस्य वा सुप्रतिष्ठितायाः दिकावनया वृतिः
| तथा कुशलेन-वादननिपुणेन नरेण नार्या वा सुषु-अतिशयेन सम्यगृहीतायाः तथा चन्दनस्य सारो-गर्भस्तेन | खण्डव. ॥३८॥
निर्मापितो यः कोणो-वादनदण्डः तेन परिघट्टितायाः-संघट्टितायाः प्रत्यूपकालसमये-प्रभातकालसमये, कालश्च वर्णोऽपि स्यादत आह–'समयेति' समयश्च सह्येतोऽपि स्वादत आह-काले ति मंदं मंद-शनैः शनैः एजिताया:-चन्दन-1 | सारकोणेन मनाक् कम्पितायाः तथा व्ये जिताया:-विशेषतः कम्पितायाः, एतदेव पर्यायेण व्याचष्टे-चालितायाः तथा । घट्टितायाः-ऊर्ध्वाधोगच्छता चन्दनसारकोणेन गाढतरं वीणादण्डेन सह तन्न्याः स्पृष्टाया इत्यर्थः, तथा स्पन्दितायाः नखाग्रेण स्वरविशेषोत्पादनार्थमीपञ्चालितायाः क्षोभिताया-मूर्छा प्रापिताया ये उदारा मनोहरा मनोज्ञाः कर्णमनोनितिकराः सर्वतः समन्ताच्छब्दा अभिनिस्सरन्ति, स्यात्-कथञ्चिद्भवेदेतद्रूपस्तेषां मणीनां तृणानां च शब्दः १, भग
वानाह-गौतम ! नायमर्थः समर्थः, पुनरपि गौतमः प्राह-से जहाणामए किनराण वा किंपुरिसाण वा महोरगाण वा 18|गंधवाण वा भदसालवणगयाण वा णंदणवणगयाण वा सोमणसवणगयाण वा पंडगवणगयाण वा महाहिमवंतमलय
मंदरगिरिगुहासमन्नागयाण वा एगओ सहियाणं संमुहागयाणं समुपविट्ठाणं सन्निविट्ठाणं पमुइयपक्कीलियाणं गीयरइ गं
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-------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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(६)
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|घषहरिसिअमणाणं गेलं पजं कत्थं पयवद्धं पायपद्धं उक्खिचार्य पवत्तायं मंदाय रोइयावसाणं संत्तसरसमण्णागेयं । अहरससंपउत्तं इकारसालंकारं छद्दोसविप्पमुकं अद्वगुणोववेयं रत्तं तिहाणकरणसुद्धं सकुहरगुंजतर्वसततीतलताललय-18 ग्गहसुसंपउत्तं महुरं समं सुललि मणोहरमउयरिभियपयसंचारं सुरई सुणई वरचारुरूवं दिवं णट्टसज्जं गेयं पगीयाण, | भवे एयारूवे सिया, गो! एवंभूए सिआ," अत्र व्याख्या-स यथानामकः किन्नराणां वा किंपुरुषाणां वा महोरगाणां वा गन्धर्वाणां वा, वाशब्दाः सर्वेऽपि विकल्पार्थाः, एते किन्नरादयो रसप्रभायाः उपरितनयोजनसहनवतिव्यन्तरनिकायाष्टकमध्यगतपञ्चमषष्ठसप्तमाष्टमनिकायरूपा व्यन्तरविशेषाः, तेषां कथम्भूतानामित्याह-भद्रशालवनगतानां वा इत्यादि, तत्र मेरोः समन्ततो भूमौ भद्रशालवनं, तत्र प्रथममेखलायां नन्दनवनं, द्वितीयमेखलायां सोमनसवन, शिरसि चूलिकायाः पार्थेषु सर्वतः पण्डकवनं तत्र गतानां, महाहिमवान्-हेमवतक्षेत्रस्योत्तरतः सीमाकारी|| वर्षधरपर्वतस्तस्य, उपलक्षणं चैतत् शेषवर्षधरपर्वतानां मलयपर्वतस्थ मन्दरगिरेश्व-मेरुगिरेगुहां समन्वागताना-गुहा| प्राप्ताना, वाशब्दा विकल्पार्थाः, एतेषु स्थानेषु प्रायः किन्नरादयः प्रमुदिता भवन्ति, तत एतेषामुपादानं, एकत:एकस्मिन् स्थाने सहितानां समुदितानां तथा परस्परं सम्मुखागताना-सम्मुखं स्थितानां नैकोऽपि कस्यापि पृष्ठं दत्त्वा | स्थित इत्यर्थः, पृष्ठदाने हर्षविघातोत्पत्तेः, तथा सम्यक्-परस्परानाबाधया उपविष्टाः-समुपविष्टास्तेषां, तथा सन्निवि-13 टानां सम्यक्-स्वशरीरानाबाधया नतु विषमसंस्थानेन निविष्टास्तेषां, तथा 'प्रमुदितप्रक्रीडितानां' प्रमुदिताः-हर्ष गताः
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
-------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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या पतिः
॥३९॥
प्रक्रीडित्ता:-क्रीडितुमारब्धवन्तस्ततो विशेषणसमासः तेषां, तथा गीते रतिर्यमा ते गीतरतयो गन्धः कृतं गान्धर्व-18 १ वक्षस्कारे
पावरवेनाव्यादि तत्र हर्षितमनसः गान्धर्वहर्षितमनसः, तत्तः पूर्वपदेन विशेषणसमासस्तेषां, 'रागगीत्यादिकं गीतं पदस्थरता-18|
दिकावनलावधानात्मकं गान्धर्व'मिति भरतादिशात्रवचनात् गद्यादिभेदादष्टधा गेयं, तत्र गचं यत्र स्वरसञ्चारेण गचं गीयते 81
खण्डव. || यत्र तु पर्य-वृत्तादि यद् मीयते तत्पर्य यत्र कधिकादि गीयते तत् कथ्य पदपत्रं यदेकाक्षरादि यथा ते ते इत्यादि पादबद्धं यत्तादिचतुर्भागमाने पादे बळ परिक्षप्तकं प्रथमतः समारभ्यमार्ण, अत्र ककारात्पूर्व दीर्घत्वं प्राकृतत्वात्,18 एवमुत्सरत्रापि द्रष्टव्यं, प्रवृत्तक-प्रथमसमारम्भादूग्रंमाक्षेपपूर्वकं प्रवर्त्तमान, तथा मन्दाक-मध्यभागे सकलमूर्च्छनादिगुणोपेतं मन्दं मन्दं सञ्चरन् अथवा मन्दमयते-गच्छति अतिपरिघोलनात्मकत्वात् मन्दायं रोचितावसानं-रोचित । अवसानं यस्य तत् रोचितावसानं, शनैः शनैः प्रक्षिष्यमाणस्वरं यस्य गेयस्थावसानं सद्रोपिसावसाममित्यर्थः, इह हिर पचं पादवर्ड बैक एवं भेदः, उभयत्रापि वृत्तपत्तामतिकमात् , तेम गेयस्याष्टप्रकारताकथनं न विरुयमिति, तथा |'सप्तस्वरसमन्वागत' सप्त स्वराः पडादयः, सच-सज्जे रिसह गंधारे, मज्झिमे पंचमे सरे। धेवए चेव नेसाए, सरा|2||
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॥३९॥ सत्त विआहिमा ॥१॥" ते च सप्त स्वराः पुरुषस्य स्त्रिया वा नाभीतः समुद्भवन्ति, सत्त सरा नाभीजों' इति || | पूर्वमहर्षिवचनात् , तथा अटभी रस-भरादिभिः सम्यक्-प्रकर्षेण युक्तं, तथा एकादशालङ्काराः पूर्वान्तर्गते खरणाभृते सम्यगभिहितास्तानि च पूर्वाणि सम्पति भवच्छिमानि तेन तेभ्यो लेशतो विनिर्गतानि पानि मरतविशाखिल
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प्रभृतीनि तेभ्यो वेदितव्याः, तथा पहदोषविप्रमुक पडिदौर्णिममुक्त, ते पामी पड्दोषा:-"भी दुअ २ मुष्पिच्छ ई उत्तालं च कमसो मुषेयर्ष । काकस्सरमणुण्णास छद्दोसा हुँति गेयस्स ॥१॥" अत्र व्याख्या-भीत-वग्रस्त, | किमुक्तं भवति -पत् उन्नतेन मनसा गीयते तबीतपुरुषनिबन्धनत्वात् तजुर्मानुवृत्तत्वाद्रीतमुच्यते, द्रुत-पत् त्वरित गीयते, त्वरितगाने हि रागवानादिपुष्टिरक्षरभ्यक्तिय न भवति, 'उप्पिच्छं' श्वाससंयुक्तमिति, पाठान्तरेण 'रहस्तति इस्वस्वरं लघुशब्दमित्यर्थः, उत्ताल' उत्-प्राबल्येन अतितालं अस्थानतालं वा, तालस्तु कतिकादिस्वरविशेषा, | काकस्वर-लक्ष्णानन्यस्वरं जनुनासं-नासिकाघिनिर्गतस्वरानुगतमिति, तथा अष्टभिर्गुणैरुपेत अष्टगुणोपेतं, ते चाष्टामी गुणा:-"पुण्ण रत्तं असंकिर्ष च वसं तहेव अविषुई। महुरं समं सुललिज, अह गुणा हुति गेयस्स ॥१॥" तत्र यत्।। खरकलाभिः पूर्ण गीयते तत् पूर्ण गेयरागानुरकेन यत् गीयते तद्रक्तं २ अन्योऽन्यस्फुटशुभस्वरविशेषाणां करणा
दलहत ३ अक्षरखरस्फुटकरणाद् व्यर्फ ४ विक्रोधानमिव यद्विखरं न भवति तदविघुष्टं ५ मधुरं-मधुरस्वरं कोकिहालारुतवत् १ तालवंशस्वरादिसमनुगतं सम स्वरघोलनाप्रकारेण सुष्टु-अतिशयेन ललतीव यत् सुललितं, यदिवा बत्।
श्रोत्रेन्द्रियस शब्दस्पर्शनमतीव सूक्ममुत्पादयति सुकुमारमिव (प) प्रतिभासते तत् सुललितं ८, एते अष्टौ गुणा | गेयस्य भवन्ति, एतद्विरहितं तु विडम्बनामात्र तदिति, इदानीमेतेषामेवाष्टानां गुणानां मध्ये कियतो गुणान अन्यच 8 प्रतिपिपादयिधुराह-'रत्त'मित्यादि रक्त-पूर्वोक्तस्वरूपं तथा त्रिस्थानकरणशुद्ध त्रीणि स्थानानि-उरःप्रभृतीनि तेषु कर-18
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
-------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
श्रीजम्ब- न-क्रियया शुद्धं त्रिस्थानकरणशुद्ध, तद्यथा-उरःशुद्धं कण्ठशुद्धं शिरोविशुद्धं च, तत्र यारसि स्वरो विशालस्त -18 वक्षस्कारे
| रोविशुद्धं, स एव यदि कण्ठे वर्तितोऽस्फुटितश्च ततः कण्ठविशुद्धं, यदि पुनः शिरसि प्राप्तः सन्नानुनासिको भवतिपयवरवे
| ततः शिरोविशुद्धं अथवा उरःकण्ठशिरस्सु श्लेष्मणा अव्याकुलेषु विशुद्धेषु प्रशस्तेषु यद् गीयते तदुराकण्ठशिरोविशुद्ध- दिकावनया वृत्तिः त्वात् त्रिस्थानकरणविशुद्धं, तथा सकुहरः-सच्छिद्रो गुञ्जन्-शब्दायमानो यो वंशो ये च तन्त्रीतलताललयग्रहास्तैः
| खण्डव. ॥४०॥
सह सुष्ठ-अतिशयेन सम्मयुक्त-अविरुद्धतया प्रवर्तितं, किमुक्तं भवति ?-सकुहरे वंशे गुजति तकयां च वाद्यमानायां | यवंशतन्त्रीस्वरेणाविरुद्धं तत् सकुहरगुजवंशतन्त्रीसुसम्पयुक्त, तथा परस्पराहतहस्ततालस्वरानुवर्ति यद् गीतं तत्तालसुसम्प्रयुक्तं, यत् मुरजकंशिकादीनामातोद्यानामाहतानां यो ध्वनिर्यश्च नृत्यन्त्या नर्तक्याः पादोत्क्षेपस्तेन समं तत् तालसुसम्प्रयुक्त, तथा शृजदारुदन्तादिमयो योऽङ्गुलिकोशकस्तेनाहतायास्तच्याः स्वरप्रकारो लयस्तमनुसरद् गेयं लयसुसंप्र
युक्तं, तथा प्रथमतो वंशतन्न्यादिभिर्यः खरो गृहीतस्तत्समेन स्वरेण गीयमानं ग्रहसुसंप्रयुक, तथा मधुरमित्यादि 8. विशेषणत्रयं प्राग्वत्, अत एव मनोहर, पुनः कथम्भूतमित्याह-मृदुकं-मृदुना स्वरेण युक्तं न निष्ठुरेण, तथा यत्र
स्वरोऽक्षरेषु घोलनास्वरविशेषेषु च सञ्चरन् रागेऽतीव प्रतिभासते स पदसञ्चारो रिभितमुच्यते मृदुरिभितपदेषु-गेय-13 | निबद्धेषु संचारो यत्र गेये तत् मृदुरिभितपदसंचार, तथा सुष्टु-शोभना रतिः श्रोतां यस्मिन् तत् सुरति, सुप्तु-III | शोभना नतिः-अवनामोऽवसाने यस्मिन् तत् सुनति, पर्यन्ते मन्द्रस्वरस्य विधानात् , तथा वरं-प्रधान विशिष्टचङ्गि-1
Saasaamaaca000000000000000rses
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(६)
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[६]
दीप
अनुक्रम
[६]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति " मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
inimi
मोपेतं रूपं स्वरूपं यस्य तत्तथा, कुत इत्याह- दिव्यं देवसम्बन्धि, यतः नाव्ये नृत्यविधी सज्जं नाव्य सज्जं गीतवाद्ये तथाविधे हि नाव्यविधिरपि सुमनोहरः स्यादिति, उक्तस्वरूपं गेयं प्रगीतानां गातुमारब्धवतां यादृशः शब्दोऽतिमनोहरो भवति, स्यात् कथञ्चिद्भवेदेतद्रूपस्तेषां मणीनां तृणानां च शब्दः १, दृष्टान्तस्य सर्वसाम्याभावात् स्यादिति पदोपादानं, एवमुक्ते भगवानाह - गौतम ! स्यादेवंभूतः शब्द इति । अथ पुष्करिणीसूत्रं यथा-'तस्स णं वणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहइओ खुड्डाखुड्डियाओ वावीओ पुक्खरिणीओ दीहियाओ गुंजालियाओ सराओ सरपंतीओ सर २पंतीओ बिपतीओ अच्छाओ सण्हाओ रययामयकूलाओ समतीराओ वयरामयपासाणाओ तवणिजतलाओ सुवण्णसुम्भरययवालुयाओ वेरुतियमणिफालियपडलपच्चो अडाओ सुओयार सुहोत्ताराओ णाणामणितित्थसुबद्धाओ चाउकोणाओ अणुपुवसुजायवप्पगंभीरसीयलजलाओ संछन्नपत्तभिसमुणालाओ बहुउप्पलकुमुयणलिणसुभगसोगंधियपुंडरीयमहापुंडरी यसयपत्तसहस्सपत्तफुलकेसरोचचियाओ छप्पयपरिभुज्जमाणकमलाभ अच्छविमलसलिलपुण्णाओ परिहत्थभमंतम च्छकच्छभ अणेगसउणमिहुणपविअरियाओ पत्तेयं २ पउमवरवेइयापरिक्खित्ताओ पत्तेयं २ वणसंडपरिक्खित्ताओ अप्पेगइयाओ आसवोदगाओ अप्पेगइयाओ वारुणोदगाओ अप्पेगइयाओ खोदोदगाओ अप्पेगइयाओ अमवरससमरसोदगाओ अप्पेगइयाओ उदगरसेणं पण्णत्ताओ पासादीयाओ ४" अत्र व्याख्या- 'तस्येत्यादि प्राग्वत् बहुचः क्षुद्रा:अखातसरस्यस्ता एव लघ्व्यः क्षुल्लिका वाप्यः चतुरस्राकाराः पुष्करिण्यो - वृत्ताकाराः दीर्घिकाः- सारण्यः ता एव
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ------------------------
-------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
द्वीपञ्चा-
प्रत सूत्रांक
य
श्रीजम्यू- 18वका गुञ्जालिकाः, बहूनि केवलकेवलानि पुष्पावकीर्णकानि सरांसि,सूत्रे खीत्वं प्राकृतत्वात् , बहूनि सरांति एकपडया१वक्षस्कार व्यवस्थितानि सरःपक्तिः ता बहुधः सरापतयः, तथा येषु सरस्सु पतथा व्यवस्थितेषु एकस्मात् सरसोऽन्यस्मिन्
पभवरवेन्तिचन्द्री तस्मात्तदन्यत्रैवं संचारकपाटफेनोदकं संचरति सा सरःसरःपशिस्ता बहधः सरासरःपक्कया, बिलानि-कूपास्तेषां ||
दिकावनया वृत्तिः
खण्डक. पतयो बिलपतयः, एताश्च सर्षा अपि कथम्भूता इत्याह-अच्छा:-स्फटिकबद् बहिर्निर्मलप्रदेशाः श्लक्ष्णा:-लक्ष्णपु॥४१॥ दलनिष्पादितबहिःप्रदेशाः रजतमयं-रूप्यमयं कूलं यासां तास्तथा, समं न ग सद्भावतो विषम तीरवर्तिजलापू-18
रितं स्थानं यासां ताः समतीरा, तथा वज़मयाः पाषाणाः यासा तास्तथा, तथा तपनीयं-हेमविशेषस्तन्मयं तलं यासां 8
तास्तथा, तथा 'सुवण्णसुब्भरययवालुवाओ' इति सुवर्ण-पीतं हेम सुम्भ-रुप्यविशेषः रजतं-प्रतीतं तन्मय्यो वालुका सायासु ताः सुवर्णसुम्भरजतवालुकाः, तथा 'वेरुलियमणिफलिहपडलपश्चोयडाओ' इति वैडूर्याणि-बैर्यमणिमयानि
स्फाटिकपडलमयानि-स्फाटिकरमसम्बन्धिपटलमयानि प्रत्यवतटानि-तटसमीपवर्त्यभ्युमतप्रदेशा यास तास्तथा, तथा । सुखेनावतारो-जलमध्ये प्रवेशनं यासु ताः स्ववताराः तथा सुखेनोत्तारो-जलाहिर्विनिर्गमनं यासु ताः सुखोत्ताराः, ॥ ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, तथा नानामणिभिः सुषद्धानि तीर्थानि यासां तास्तथा, अत्र बहुव्रीहावपि कान्तस्य ||
॥४१॥ परनिपातो भार्याविदर्शनात् प्राकृतशैलीवशाद्वा, 'चाउकोणाओ' इति चत्वारः कोणा यासां ताः तथा, दीत्वं च || 'अतः समृध्यादौ वा'(श्रीसि०८-१-३४) इति सूत्रण प्राकृतलक्षणवशात् , एतच्च विशेषणं वापीः कूपांश्च प्रति
yasaa029292920200090090805
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
-------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
द्रष्टव्यं, तेषामेव चतुष्कोणत्वसम्भवात् न शेषाणां, आनुपूयेण-क्रमेण नीचैनींचैस्तरभावरूपेण सुटु-अतिशयेन यो जातो वप्रः-केदारो जलस्थानं तत्र गम्भीर-अलब्धस्ताचं शीतलं जलं यासु ताः आनुपूर्व्यसुजातवप्रगम्भीरशीतलजलाः, तथा संछन्नानि-जलेनान्तरितानि पत्रविशमृणालानि यासु ताः तथा, इह विशमृणालसाहचर्यात् पत्राणि | पद्मिनीपत्राणि द्रष्टव्यानि बिशानि-कन्दाः मृणालानि-पद्मनालानि, तथा बहूनामुत्पलकुमुदनलिनसुभगसौगन्धिकपु|ण्डरीकमहापौण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्राणां फुल्लाना-विकस्वराणां केशरैः-किञ्जल्कैः उपचिता-भृताः, विशेषणस्याव्यव॥स्थिततया निपातः प्राकृतत्वात् , तथा षट्पदैः-भ्रमरैः परिभुज्यमानानि कमलानि उपलक्षणमेतत् कुमुदादीनि यासु ताः तथा, अच्छेन-स्वरूपतः स्फटिकवत् शुद्धेन निर्मलेन-आगन्तुकमलरहितेन सलिलेन पूर्णाः तथा 'पडिहत्या'IN अतिरेकिताः अतिप्रभूता इत्यर्थः, देशीशब्दोऽयं पडिहस्थमुडुमायं अइरेइयं च जाण आउणं' इति वचनात्,
उदाहरणं चात्र-'घणपडिहत्थं गयणं सराई नवसलिलमुद्धमायाई । अइरेइयं मह उण चिंताए मणं तुहं विरहे ॥१॥ ॥ इति, भ्रमन्तो मत्स्यकच्छपा यत्र ताः पडिहत्यधमन्मत्स्यकच्छपाः, अनेकैः शकुनिमिथुनकैः प्रविचरिता-इत-|
स्ततो गमनेन सर्वतो व्याप्ताः, ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, एता पाप्यादयः सरस्सरःपतिपर्यवसानाः 'प्रत्येक'मिति एकं एक प्रति प्रत्येकं अत्राभिमुख्य प्रतिशब्दो न पीप्साविवक्षायां पश्चात्प्रत्येक शब्दस्य द्विर्षचनमिति, पद्मवरवेदिकया परिक्षिप्ताः प्रत्येकं २ वनखण्डपरिक्षिप्ताश, अपि|ढार्थे, बाढमेककाः काश्चन वाप्यादय आसवमिव-चन्द्र-1
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१],-------------------------
-------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीजम्ब- हासादिपरमासवमिव उदकं यासा ताः तथा, अप्येकिकाः वारुणस्येव-बारुणसमुद्रस्येव उदकं यासां ताः, अप्येकिकाःश्वक्षस्कारे
द्वीपशा- क्षीरमिवोदकं, यासां ताः अप्येकिकाः घृतमिवोदकं यासां ताः अप्येकिकाः क्षोद इव-इक्षुरस इवोदकं यास ताः न्तिचन्द्री-18 अप्येकिकाः अमृतरससमरसं उदकं यासां ताः अमृतरससमरसोदकाः अप्येकिकाः उदकरसेन-स्वाभाविकेन ||
दिकावनया पृत्तिः मज्ञप्ताः 'पासाईया' इत्यादि प्राग्वत् । “तासि णं खुड्डाखुड्डियाणं वावीण जाव बिलपंतीणं पत्तेयं पत्तेयं चउद्दिसि ।
खण्डव. ॥४२॥ चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, तेसि णं तिसोवाणपडिरूवाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा
वइरामया णेमा रिट्ठामया पइट्टाणा वेरुलियामया खंभा सुवण्णरूपमया फलगा वइरामया संधी लोहिअक्खमईओ सूईओ णाणामणिमया अवलंबणवाहाओ पासाईया ४" इति, अत्र व्याख्या-तासां क्षुद्राणां क्षुद्रिकाणां यावद्विलपशीनां प्रत्येकं २ चतसृणां दिशां समाहारश्चतुर्दिक तस्मिंश्चतुर्दिशि, चत्वारि एकैकस्यां दिशि एकैकभावात् त्रिसोपानप्रतिरूपकाणि, तथा प्रतिविशिष्टं रूपं येषां तानि प्रतिरूपकाणि, त्रयाणां सोपानानां समाहारः त्रिसोपानं, त्रिसोपा-18 नानि च तानि प्रतिरूपकाणि चेति विशेषणसमासः, विशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् , तानि प्रज्ञप्तानि, तेषां च | त्रिसोपानप्रतिरूपकाणामयं-वक्ष्यमाणः एतद्रूपो वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-वजरलमया नेमा:-भूमेरूयं निष्का
॥४२॥ मन्तः प्रदेशाः रिष्ठरलमयानि प्रतिष्ठानानि-त्रिसोपानमूलपादाः वैडूर्यमयाः स्तम्भाः सुवर्णरूप्यमयानि फलकानि|| त्रिसोपानाङ्गभूतानि बजरलमयापूरिताः सन्धयः-फलकद्वयापान्तरालप्रदेशाः लोहिताक्षमय्यः सूचया-फलकद्वयसम्बन्ध
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ------------------------
-------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
विघटनाभावहेतुपादुकास्थानीयाः, नानामणिमया अवलम्व्यन्ते इति अवलम्बना-अवतरतामुत्तरतामवलम्बनहेतुभूता, अवलम्बनबाहातो विनिर्गताः केचिदवयवाः 'अवलम्बनबाहाओ' इति अवलम्बनबाहा अपि नानामणिमय्यः, अवलम्बनवाहा नाम उभयोः पार्श्वयोः अवलम्बनाश्रयभूता भित्तयः 'पासाईयाओ'४ इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् । "तेसि
तिसोवाणपडिरूवगाणं पुरओ पत्तेयं २ तोरणा पण्णता" तेसि णं तोरणार्ण अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, ते पण तोरणा णाणामणिमएसु खंभेसु उवनिविट्ठसंनिविट्ठा विविहमुर्ततरोविया विविहतारारूवोविया ईहामिगउसभतुरगण-19
गरमगरविहगवालगकिंनररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ता खंभुग्गयवरवइरवेइयापरिगयाभिरामा विज्जाहरजमलजुअलजंतजुत्ताविव अञ्चीसहस्समालणीया रूवगसहस्सकलिया भिसमाणा भिब्भिसमाणा चक्खुल्लोअणलेसा सुहफासा सस्सिरीयरूवा पासाईया ४" इति, अत्र व्याख्या-'तेसि ण' मित्यादि, तेषां त्रिसोपानप्रतिरूपकाणां पुरतः प्रत्येकं २ तोरणानि प्रज्ञप्तानि, तेषां तोरणानामयमेतद्रूपो वर्णावासो-वर्णकनिवेशः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-'ते णं तोरणा' | इत्यादि, तानि तोरणानि नानामणिमयानि मणय:-चन्द्रकान्तादयः विविधमणिमयानि नानामणिमयेषु स्तम्भेषु उप-18 |निविष्टानि-सामीप्येन स्थितानि, तानि च कदाचिच्चलानि अथवाऽपदपतितानि शङ्करन् , तत आह-सम्यग-निश्चलतयाऽपदपरिहारेण च निविष्टानि, ततो विशेषणसमासः, विविधा-नानाविधविच्छित्तिकलिता मुक्का-मुक्काफलानि अन्त-18 राशब्दोऽगृहीतवीप्सोऽपि वीप्सां गमयति, अन्तरा अन्तरा 'ओविया' इति आरोपिता यत्र तानि तथा, विविधैस्ता
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१],---------------------
-------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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द्वीपशा
सूत्रांक
श्रीजम्बू
रारूप:-तारिकामापषितामि, तोरणेj हि शोमा तारकानि बध्यन्ते इति प्रतीतं लोकेऽपि, हामृगा-वृकाः ऋष-१वश्वस्कारे भा-वृषभाः ज्याला-भुजंगा: रुरवो-मृगविशेषाः शरभा-अष्टापदाः पमरा-भाटव्यो गावः, वनलता-अशोकलतायाः18 वनखण्डा
पद्मलता-पनिम्बा, शेषाः प्रतीवाः, पतासां भत्तया-विच्छित्त्या चित्र-आलेखो येषु तामि तथा, सम्भोगतया-स्तम्भो-18 घि० या वृचिः
परिवर्तिन्या वजरलमय्या वेदिकया परिगतानि-परिकरितानि सन्ति यानि अतिरमणीयानि तानि तथा, विद्याध-18 ४३॥ शरयो:-विशिष्टशक्तिमरपुरुषविशेषयोर्चमल-समवेणी युगलं-द्वन्द्वं तेनैव यन्त्रेण संचरिष्णुपुरुषप्रतिमाद्वयरूपेण युक्ता
शनि, आपत्वाचवविधः समासा, तथा अर्षिषां-मणिरसप्रभाणां सहस्रर्मालनीयानि-परिवारणीयानि रूपकसहस्रकलि
तानि स्पष्ट 'भिसमाणा' इति दीप्यमानानि 'निम्भिसमाणा' इति अत्यर्थ दीप्यमानानि, तथा चक्षुः कर्तृ लोचनेअवलोकने लिसतीव-दर्शनीयतातिशयतः ग्लिप्यतीव यत्र तानि तथा, 'सुहफासा' इति शुभस्पर्शानि सश्रीकानिसशोभाकानि रूपकाणि यत्र तानि सश्रीकसपाणि, 'पासाईया' इत्यादि विशेषणचतुष्टयं प्राग्वत्, "तेसि ण तोरणाण
उप्पिं अहमंगलगा पण्णत्ता, सोरिषय १ सिरिवच्छ दियावत्स ३ वडमाणग ४ भदासण ५ कलस ६ मच्छ ७-18 1 दप्पणा ८ सवरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा," अत्र व्याख्या-तेषां तोरणानामुपरि इत्यादि सुगम, नवरं 'जावई
पडिरूवा' इति यावत्करणात् घट्टा मट्ठा णीरया इत्यादिग्रहः, तेसि णं तोरणाणं उपरि किण्हचामरज्झया णीलचामर-18 ज्या लोहियचामराया हालिहचामरझया सुकिलचामराया अच्छा सण्हा रुप्पपट्टा बहरदंडा जलयामलगंधिया |
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
-------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
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Sसुरम्मा पासाईया ४" इति, तेषां तोरणानामुपरि बहवः कृष्णचामरयुक्ताः ध्वजाः कृष्णचामरध्वजाः एवं बहवो नील
लोहितहारिद्रशुक्लचामरयुक्ताः ध्यजा वाच्याः, कथम्भूता एते सर्वेऽपीत्याह-'अच्छा सहा' इति स्पष्ट रूप्यमयो। वज्रमयस्य दण्डस्योपरि पट्टो येषां ते तथा, वज्रो-बनमयो दण्डो रूप्यपट्टमध्यवर्ती येषां ते तथा, जलजानामिच-पद-। मानामिवामलो न तु कुद्भव्यगन्धसम्मिश्रो यो गन्धः स विद्यते येषां ते जलजामलगन्धिकाः, 'अतोऽनेकखरा'दितीकप्रत्ययः [श्रीसि०७-२-६] अत एव सुरम्याः 'पासादीया' इत्यादि प्राग्वत्, "तेसि गं तोरणाणं उप्पिं बहवे छत्ता| इछत्ता पडागाइपडागा घंटाजुअला चामरजुअला उप्पलहत्थगा पउमहत्थगा जाव सहस्सपत्तहत्थगा सवरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा" तेषां तोरणानामुपरि बहूनि छत्रातिच्छत्राणि-छत्रालोकप्रसिद्धादेकसंख्याकाद् अतिशायीनि द्विसंख्यानि त्रिसंख्यानि वा छत्राणि छत्रातिच्छत्राणि बह्वधः पताकाभ्योऽतिशायिन्यो दीर्घत्वेन विस्तरेण च पताकाः | पताकातिपताकाः बहूनि घण्टायुगलानि बहूनि चामरयुगलानि बहव उत्पलहस्तकाः-उत्पलाख्यजलजकुसुमसमूहविशेषाः, एवं पद्महस्तकाः बहवो नलिनहस्तकाः बहवः सुभगहस्तकाः बहवः सौगन्धिकहस्तकाः बहवः पुण्डरीकहस्तकाः बहवः | शतपत्रहस्तकाः बहवः सहस्रपत्रहस्तकाः, उत्पलादीनां व्याख्यानं प्राग्वत्, एते च छत्रातिच्छनादयः सर्वेऽपि सर्वरसमयाः, 'जाव पडिरूबा' इति यावत्करणात् 'अच्छा सण्हा लण्हा' इत्यादिविशेषणकदम्बकपरिग्रहः । अथ पर्वतकसूत्रं यथा-"तासि गं खुड्डियाणं बाबीणं जाव बिलपंतियाणं तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे उपायपववा नियइ-16
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति " मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूडीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
॥ ४४ ॥
| पवया जगईपवया दारुपययगा दगमंडवगा दगमंचगा दगमालगा दगपासाया उसडा खुड्डा अंदोलना पसंदोलगा सबरयणामया अच्छा जाव पडिरुवगा" अत्र व्याख्या - तासां क्षुल्लिकानां वापीनां यावद्विलपङ्कीना अत्र यावत्करणात् पुष्करिण्यादिग्रहः, अपान्तरालेषु तत्र तत्र देशे 'तहिं तहिं' इति तस्यैव देशस्य तत्र तत्रैकदेशे बहव उत्पातपर्वताः- यत्रागत्य बहवो व्यन्तरदेवा देव्यश्च विचित्रक्रीडानिमित्तं वैक्रियशरीरमारचयन्ति नियत्या-नैयत्येन पर्वताः, | क्वचिन्निययपवया इति पाठः, तत्र नियताः सदा भोग्यत्वेनावस्थिताः पर्वताः यत्र व्यन्तरा देवदेच्यो भवधारणी| येन वैक्रियशरीरेण प्रायः सदा रमन्ते इति भावः, जगतीपर्वताः पर्वतविशेषाः, दारुपर्वतका - दारुनिर्मापिता इव | पर्वतकाः दकमण्डपकाः-स्फटिकमण्डपकाः एवं दकमञ्चका: दकमालकाः दकप्रासादाः एते च दकमण्डपकादयः | केचित् उत्सृता-उच्चा इत्यर्थः केचित् क्षुल्ला-उघवः क्वचित् खुडखुडगा इति पाठः थुलथुलका अतिलघवः आयताश्च तथा अन्दोलकाः पश्यन्दोलकाश्च तत्र यत्रागत्य २ मनुष्या आत्मानमन्दोलयंति इति, आन्दोलका इति लोके प्रसिद्धाः, यत्र तु पक्षिण आगल्यागत्यात्मानमन्दोलयंति ते पश्यन्दोलकाः, ते चान्दोलकाः पक्ष्यन्दोलकाश्च तस्मिन् वनखण्डे तत्र तत्र प्रदेशे वानमन्तरदेवदेवीक्रीडायोग्या बहवः सन्ति, ते चोत्पातपर्वतादयः कथम्भूता इत्याह-सर्व| रक्षमया अच्छा इत्यादिविशेषणजातं प्राग्वत् “तेसु णं उप्पायपवयसुं जाव पक्लंदोलएसु बहूई हंसासणाई को चासणाई गरुलासणाई उण्णयासणारं पणयासणाई दीहासणाई भद्दासणाई पक्खासणाई मगरासणाई पउमासणाई सीहा
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१ वक्षस्कारे वनखण्डा
घि०
॥ ४४ ॥
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[६]
दीप
अनुक्रम
[६]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
सणाई दिसासोवत्थियासणाई सवरयणामयाई अच्छाई जाव पडिरूच "त्ति, अत्र व्याख्या - तेषु उत्पातपर्वतेषु यावपक्ष्यन्दोलकेषु अत्र यावत्करणात् नियतपर्वतादिपरिग्रहः बहूनि हंसासनानि, तत्र येषामासनानामधोभागे हंसा व्यवस्थिता यथा सिंहासने सिंहास्तानि हंसासनानि, एवं क्रीशासनानि गरुडासनानि भाव्यानि, उन्नतासनानि यान्युवासनानि प्रणतासनानि निम्नासनानि दीर्घासनानि शय्यारूपाणि भद्रासनानि येषामधोभागे पीठिकावन्धः पक्ष्या| सनानि येषामधोभागे नानारूपाः पक्षिणः, एवं मकरासनानि सिंहासनानि च भावनीयानि, पद्मासनानि-पद्माका| राणि आसनानि दिक्सीवस्तिकासनानि येषामधोभागे दिक्सौवस्तिका - दिक्प्रधानाः स्वस्तिकाः आलिखिताः सन्ति, | अत्र यथाक्रममासनानां संग्राहिका संग्रहणीगाथा - "हंसे को गरुले उण्णय पणए य दीह भद्दे य । पक्खे मयरे | परमे सीह दिसासोअ वारसमे ॥ १ ॥ एतानि सर्वाण्यपि कथम्भूतानीत्याह- 'सबरयणामयाई' इत्यादि प्राग्वत् । अथ गृहकसूत्रं यथा-"तस्स णं वणसंडस्स तत्थ तत्थ देते तहिं तहिं बहवे आलिघरगा मालिघरगा कयलीघरगा अच्छण| घरगा पेच्छणघरगा मज्जणघरगा पसाहणघरगा गम्भघरगा मोहणघरगा मालघरगा जालघरगा कुसुमघरगा चित्तघरगा गंधवघरगा आयंसघरगा सवरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा" इति, अत्र व्याख्या - तस्य वनखण्डस्य मध्ये तत्र तत्र प्रदेशे तस्यैव प्रदेशस्य तत्र तत्र एकदेशे बहूनि आलिगृहकाणि, आलि:- वनस्पतिविशेषस्तन्मयानि गृहकाणि आलिगृहाणि मालिरपि वनस्पतिविशेषः तन्मयानि गृहकाणि मालिगृहकाणि, कदलीगृहकाणि लतागृहकाणि च प्रती
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
-------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
द्वीपशा
सुत्रांक
श्रीजम्बू-18तानि, 'अच्छणघरगा' इति अवस्खानगृहकााण येषु यदा तदा वाऽऽगल बहवः सुखासिकया अवतिष्ठन्ते, प्रेक्षणक-विक्षस्कारे
गृहकाणि प्रेक्षणकानि विदधति निरीक्ष्यन्ते च, मज्जनगृहकाणि यत्रागस्य स्वेच्छया मजनं कुर्वन्ति, प्रसाधनगृहकाणि वनखण्डाविचन्द्री
| यत्रागत्य स्वं परं च मण्डयन्ति, गर्भगृहकाणि गर्भगृहाकाराणि मोहनगृहकाणि मोहन-मैथुनसेवा तत्प्रधानानि गृह-18। या वृचिः
| काणि वासभवनानीति भावः, शालागृहकाणि-पट्टशालाप्रधानानि गृहकाणि जालगृहकाणि-जालयुकानि गृहकाणि ॥४५॥ कुसुमगृहकाणि-कुसुमप्रकरोपचितानि गृहकाणि चित्रगृहकाणि-चित्रप्रधानानि गृहकाणि गन्धर्वगृहकाणि-गीतनृत्या
भ्यासयोग्यानि गृहकाणि, आदर्शगृहकाणि-मादर्शमयानीव गृहकाणि, अत्र सूत्रे सर्वत्र ककारः वार्षिकोऽयसेयः, एतानि कर्थभतानीत्याह-सबरयणामयाई' इत्यादि माग्वत्, "तेसु णं आलिघरेसुं जाप आर्थसघरेस बहई हंसासणाई जाव दिसासोवत्थियासणाई सबरवणामयाई जाव पडिरूवाई" इति गतार्थम्, अथ मण्डपकसूत्रं क्या-"तस्स णं वणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे तहि तहिं वहये जाइमंडवगा जूहियामटवगा मल्लियामंडवगा जोमालियामंडवगा वासंतीमंडवगा दधिवासुयामवगा सूरिधिमंडवना संबोलीमंडवगा णागलयामंडवगा अतिमुत्तवमरवगा अष्फोलामंडवगा मालुआमरवगा सबरवणामया भावणिर्थ कुमुमिया जाच परिसवा" अत्र व्याख्या-तो त्यादि पदयोजना सुगमा, ॥१५॥ जाति:-मालती तन्मया मण्डपकाः जातिमपपकार, एवं उत्तरत्रापि पदयोजना कार्या, थिका प्रतीता मलिका-1 विचकिला, बनमासिका वासन्ती स्पष्टे, एतेष पुण्यपकाना वनस्पतयः, दधिवातुका नाम धनस्पतिविशेषः, सूरिल्लिरपि।
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अनुक्रम
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[६]
दीप
अनुक्रम
[६]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति " मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
Jan Ebensiting
स एष, ताम्बूली - नागवली नागो-मविशेष स एव तता नामलता, इह यत्य तिर्यं तथाविधा शाखा प्रशाखा वा प्रसृता सा लतेत्यभिधीयते, अतिमुक्तकः-पुन्नप्रधानवनस्पतिः 'अन्फोआ' वनस्पतिविशेषः, मालुका-एकास्थिकफला | वृक्षविशेषात्तद्युक्ता मण्डपका मालुकामंडपका, एते च कथंभूता इत्याह- 'सघरयणामया' इत्यादि प्राग्वत् । 'तेसु णं जाइमंडवगेसु जाव मालुमंडवगेषु बहवे पुढविसिलाक्गा पण्णत्ता, अप्पेगइया हंसासणसंठिया अप्पेगइया कोंचासणसंठिआ अप्पेगइया मरुडासनसंठिया अध्येगइया उण्णवासणसंठिया अप्पेगइया पणयासणसंठिआ अप्पेगइया दीहासअसंठिया अप्पेगइया भद्दारुणसंठिया अप्पेमइया पक्लासणसंठिया अप्पेगश्या मगरासणसंठिया अप्पेगइया पउमासणसंठिआ अप्पेगइया तीहासणसंठिया अप्पेगहना विसासोवत्वियासणसंठिया अप्पेगे बहवे वरसयणासणविसिद्वठाणसंठिया पण्णत्ता समणाउसो ! आईणगरुजश्णवणीयतूलफासमडआ सवरयणामया अच्छा जाब पडिरूवा" अत्र व्याख्या- तेषु जातिमण्डपकेषु यावत् मालुकामण्डपकेषु यावत्करणात् यूथिकामण्डपकादिपरिग्रहः, बहवः शिलाप| दृकाः प्रशष्ताः, तद्यथा-अपिर्वाहार्थे एकके शिलापट्टकाः हंसासनवत् संस्थितं भावे कप्रत्ययविधानात् संस्थानं येषां ते तथा, एवं क्रोशासनसंस्थितादिष्वपि वाच्यं जन्ये च बहवः शिलापट्टकाः यानि विशिष्टचिन्हानि विशिष्टनामानि च वराणि - प्रधानानि शयनानि आसनानि च तद्वत् संस्थिता वरशयनासनविशिष्टसंस्थानसंस्थिताः कचित् 'मांसल - | सुघट्टविसिद्वठाणसंठिया' इति पाठः, तत्रान्ये च बहवः शिलापट्टका: मांसला इव मांसला - अकठिना इत्यर्थः
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ------------------------
-------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बू
वक्षस्कार वनखण्डाघि०
|| सुघृष्टा इव सुघृष्टा-अतिशयेन महणा इति भावः, विशिष्टसंस्थानसंस्थिताश्च प्रज्ञप्ताः, हे श्रमण! हे आयुष्मन् ! द्वीपशा-8 आईणगेल्यादि सुगममिति । अथ प्रस्तुतसूत्रमनुश्रियते, 'तत्थ णमिति अत्र व्याख्या-तत्रैतेषु उत्पातपर्वतादिगतहंसासन्तिचन्द्री- नादिषु यावन्नानारूपसंस्थानसंस्थितपृथिवीशिलापट्टकेषु, णमिति पूर्ववत्, बहवो वनानामन्तरेषु भवाः पृषोदरादिया चिः
त्वान्मागमे वानमन्तरा देवा देव्यश्च यथासुखमासते आश्रयन्ति वाऽऽश्रयणीयं स्तम्भादि शेरते दीर्घकायप्रसारणेन ॥४६॥ वर्चन्ते, नतु निद्रा कुर्वन्ति, तेषां देवयोनिकतया निद्राया अभावात् , अत्रोपलक्षणात् 'चिटुंती'त्यादिकः पाठो जीवा
| भिगमोक्को लिखितोऽस्ति, तिष्ठन्ति-कर्वस्थानेन वर्तन्ते निषीदन्ति-उपविशन्ति 'तुभट्टति'त्ति त्वग्वर्तनं कुर्वन्ति वाम
पार्वतः परावृत्त्य दक्षिणपानावतिष्ठन्ते दक्षिणपार्वतो वा परावृत्त्य वामपार्चेनावतिष्ठन्त इति, रमन्ते-रतिमाबशान्ति, तथा ललन्ति-मनईप्सितं यथा भवति तथा वर्तन्ते इति भावः, तथा क्रीडन्ति-यथासुखमितस्ततो गमनविनो
देन गीतनृत्यादिविनोदेन वाऽवतिष्ठन्ते, तथा मोहन्ति-मैथुनसेवां कुर्वन्ति, इत्येवं 'पुरा पोराणाण' मित्यादि पुरा-पूर्व 18 प्राग्भवे इति भावः कृतानां कर्मणामिति योगः अत एव पौराणानां सुचीर्णानां-सुचरितानां, इह सुचरितजनितं कर्मापि
कार्ये कारणोपचारात् सुचरितमिति विवक्षितं, ततोऽयं भावार्थ:-विशिष्टतथाविधधर्मानुष्ठानविषयाप्रमादकरणक्षान्त्या18 दिसुचरितानामिति, तथा सुपराकान्तानां अत्रापि कार्य कारणोपचारात् सुपराकान्तजनितानि कर्माणि सुपराक्रान्तानि
इत्युक्तं भवति, सकलसत्त्वमैत्रीसत्यभाषणपरद्रज्यानपहारसुशीलादिरूपं सुपराक्रमजनितानामिति, अत एव शुभाना
॥४६॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१],-------------------------
-------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
Sasreesasras30000sae
शुभफलानां इह किशिदशुभफलमपि इन्द्रियमतिविपर्यासात् शुभफलमाभाति ततस्तात्त्विकशुभफलप्रतिपत्त्यर्थमस्यैव पर्यायमाह-कल्याणानां-तत्त्ववृत्त्या तथाविधविशिष्टफलदायिनां अथवा कल्याणानां-अनर्थोपशमकारिणां कल्याणकल्याणरूपं फलविपाक पचणुभवमाणा' प्रत्येकमनुभवन्तो विहरन्ति-आसते । तदेवं पद्मवरवेदिकाया बहिःस्थितषन-18 खण्डवक्तव्यतोक्ता, सम्पति तस्या पवास्थितवनखण्डवक्तव्यतामभिधित्सुराह-तीसे णं जगईए' इत्यादि, तस्या। जगत्या उपरि पद्मवरवेदिकाया अन्तर्मध्ये यः प्रदेशः एतस्मिन् महानेको वनखण्डः प्रज्ञप्तः, देशोने द्वे योजने विष्कम्भेन वेदिका-पद्मवरवेदिका तस्याः समकातुल्यः परिक्षेपेण, अयं भावः-पद्मवरवेदिकाया यावान् (तावान् ) अस्यापि, पद्मवरवेदिकाबहिःप्रदेशात् अन्तः पंचधनुःशतागमने यत् परिक्षेपन्यूनत्वं तन्न विवक्षितमल्पत्वादिति, 'किण्हे'त्ति कृष्णो यावदितिपदेन च बहिर्वनखण्डवदविशेषेण वनखण्डवर्णको ग्राह्यः, नवरं तृणविहीनो ज्ञातव्यः, अत्र तृणजन्यः | | शब्दोऽपि तृणशब्देनाभिधीयते उपचारादतस्तृणशब्दविहीनों ज्ञातव्यः, उपलक्षणत्वादस्य मणिशब्दविहीनोऽपि, पद्मवरवेदिकान्तरिततया तथाविधः वाताभावतो मणीनां तृणानां चाचलनेन परस्परं संघर्षाभावात् शब्दाभावः, उपपन्नश्चायमर्थः, जीवाभिगमसूत्रवृत्त्योस्तथैव दर्शनादिति । सम्पति जम्बूद्वीपस्य द्वारसंख्यामरूपणार्थमाहजंबुद्दीवस्स णं भंते ! दीवस्स का दारा पण्णत्ता, गो०। चत्तारि दारा पं०, ०-विजए १ वेजयंते २ जयंते ३ अपराजिए ४, एवं चत्वारिचि वारा सरापहाणिमा भाणियवा (सूत्र ७) कहिणं मंते! जंबुद्धीवस्स दीवस्स विजए णामं दारे पण्णते ?, गो०
Emerserotistatistiserseseseserce-secestiseas
अनुक्रम
Simritinnitinnite
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
---------- मूलं [७-८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्यूद्वीपशा
प्रत सूत्रांक [७,८]
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दीप
जंयुहीये वीवे मेघरस्स पायस पुरथिमेणं पणयालीसं जोयणसहस्साई वीइयत्ता जंबुरीवदीपपुरस्थिमपेरते लवणसमुधपुर- विक्षस्कारे
थिमद्धस्स पचत्यिमेणं सीआए महाणईए उप्पि पत्थ णं जंबुद्दीवस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते अट्ठ जोषणाई उद्धं उचणं चत्तारि न्तिचन्द्री- जोयणाई विकर्णभेण तावइयं चैव पवेसेणं, सेए वरकणगथूमियाए, जाव दारस्स बण्णओ जाव रायहाणी। (सूत्र ८)
द्वारा या वृचिः
अत्र सूत्रे प्रश्ननिर्वचने उभे अपि सुगमे, नवरं पूर्वातः प्रादक्षिण्येन विजयादीनि द्वाराणि ज्ञेयानि, द्वाराणामेव 8 ॥४७॥18 स्थानविशेषनियमनायाह-'कहिणं भंते।' इत्यादि, क भदन्त ! जम्बूद्वीपस्य दीपस्य विजयमिति प्रसिद्धं 'नाम'
ति8 18| प्राकृतत्वात विभक्तिपरिणामेन नाम्ना द्वारं प्रशत, भगवानाह-गौतम! जम्बूद्वीपे द्वीपे यो मन्दरपर्वतो-मेरुगिरिः तस्य 18
'पुरथिमेण ति पूर्वस्यां दिशि पञ्चचत्वारिंशतं योजनसहस्राणि व्यतिव्रज्य-अतिक्रम्य जम्बूद्वीपे द्वीपे पौरस्त्यपर्यन्ते 8 लवणसमुद्रपूर्वार्धस्य 'पञ्चत्थिमेणं'ति पाश्चात्यभागे शीताया महानद्या उपरि यः प्रदेश इति गम्यं, एतस्मिन् जम्बू-18 द्वीपस्य द्वीपस्य विजयं नाम्ना द्वार प्रज्ञप्तम् , अष्टौ योजनान्यूोच्चत्वेन चत्वारि योजनानि विष्कम्भेन-विस्तारेण, इदं च द्वारविष्कम्भमानं स्थूलन्यायेनोकं, सूक्ष्मेक्षिकया तु विभाव्यमानं द्वारशाखाद्वयविष्कम्भसत्कक्रोशद्वयप्रक्षेपे । साईयोजनप्रमाणं भवति, तन्न विवक्षितमिति, 'तावइयं चेव पवेसेणं ति तावदेव चत्वारीत्यर्थे।, योजनानि प्रवेशेन- ॥४७॥ भित्तिवाहल्यलक्षणेन कथंभूतमित्याह-वेत-श्वेतवर्णपितं बाहुल्येनारतमयत्वात् , 'वरकनकस्तूपिकाक' परकनका-वरकनकमयी स्तूपिका-शिखरं यस्य तत् । अथ शेष द्वारवर्णक राजधानीवर्णकं चातिदेशेनाह-'जा'लादि,
अनुक्रम [७,८]
अथ जम्बूद्वीपे विजयादि दवाराण्य: कथनं आरभ्यते
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[ ७,८]
दीप
अनुक्रम
[७,८]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [ ७-८ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
यावद् द्वारस्य वर्णको वर्णन ग्रन्थो 'जाव रायहाणी'ति यावद्राजधानीवर्णकश्च जीवाभिगमोपाङ्गोको निरवशेषो वक्तव्यः, तत्र प्रथमं द्वारवर्णको यथा- 'ईहामिगंउसभतुरगणरमग रविहगवालग किन्नररुरुसरभचम र कुञ्जरवणलयपउमलयभत्तिचित्ते संभुग्गयवरवेइयापरिगयाभिरामे बिज्जाहरजमलजुअलजंतजुत्ते इव अच्चीसहस्समालणीए, रूवगसहस्सकलिए भिसमाणे भिन्भिसमाणे चक्खुहोअणलेसे सुहफासे सस्सिरीयरूवे वण्णओ दारस्स तस्सिमो होइ, तंजहावइरामया णेमा रिट्ठामया पट्ठाणा वेरुलिअरुइलखंभे जायरूवोवचियपवरपंचवण्णमणिरयणकुट्टिमतले हंसगब्भमएलए गोमेज्जमए इंदकीले लोहिअक्खमईओ दारचेडाओ जोईरसामए उत्तरंगे वेरुलिआमया कवाडा धरामया संधी लोहिअक्खमईओ सूईओ णाणामणिमया समुग्गया वइरामया अग्गठा अग्गलपासाया रययामया आवत्तणपेढिया अंकुत्तरपासए निरंतरिए घणकवाडे भित्तींमु चैव भित्तिगुलिया छप्पण्णा तिष्णि होंति गोमाणसीओ तत्तिआओ णाणामणिरयणवालरूवगठीलट्ठि असालभंजिआगे वइरामए कूडे रययामए उस्सेहे सवतवणिज्जमए उहोए णाणामणिरयणजालपंजरमणिवंसगलोहियक्खपडिवंसगरययभोमे अंकामया पक्खा पक्खवाहाओ जोईसामयावंसा | वंसकवेया य रययामईओ पट्टिआओ जायस्वमइओ ओहाडणीओ बहरामइओ उवरिपुच्छणीओ सबसेए रययामयच्छाणे अंकामयकणगकूडतवणिज्जयूभिआए सेए संखतलविमलनिम्मलदधिघणगोखीरफेणरयणिगरपगासे तिलगरयणद्धचंदचि णाणामणिदामालंकिए अंतो वाहिं च सण्हे तवणिज्जवालुआपत्थडे सुहफासे सस्सिरीअरूवे पासाईए ४"
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(१८)
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सूत्रांक
[७,८]
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[७,८]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [ ७-८ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्मूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥ ४८ ॥
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इति, अत्र व्याख्या- 'ईहामिगे त्यादि विशेषणदशकं पद्मवरवेदिकागतवापीतोरणाधिकारे व्याख्यातार्थमिति ततोऽवसेयं, 'वण्णो दारस्स तस्सिमो होइ' इति वर्णको वर्णकनिवेशो द्वारस्य - विजयाभिधानस्यायं वक्ष्यमाणो भवति, तमेवाह- 'तंज' त्यादि, तद्यथा- 'वयरामया णेमा' इत्यादि, अत्र च द्वारवर्णनाधिकारे यत्र केवलं विशेषणं तत्र साक्षात् | द्वारस्य विशेषणता यत्र तु विशेष्यसहितं तत्र तस्येति गम्यं तेन तस्य विजयद्वारस्य वज्रमया नेमा- भूमिभागादूर्ध्वं निष्क्रामन्तः प्रदेशाः रिष्ठरत्नमयानि प्रतिष्ठानानि मूलपादाः वैडूर्याः- वैडूर्यरत्नमयाः रुचिराः स्तम्भाः यस्य तत्तथा, तथा जातरूपेण सुवर्णेनोपचितैः- युक्तैः प्रवरं पञ्चवर्णमणिरत्नैः कुट्टिमतलं-बद्धभूमित ं यस्य तत्तथा तथाऽस्य विजयद्वारस्य हंसगर्भरलमय एलुको देहली गोमेदकरत्नमय इन्द्रकीलो - गोपुरकपाटयुगसन्धिनिवेशस्थानं लोहिताख्यंपद्मरागाख्यं रक्षं तन्मय्यौ द्वारपिण्ड्यौ द्वारशाखे सूत्रे स्त्रीत्वनिर्देश आर्यत्वात् ज्योतीरसमयं उत्तर-द्वारस्योपरि तिर्यग्व्यवस्थितं काष्ठं वैडूर्यमयी कपाटी लोहिताक्षमय्यो- लोहिताक्षरलात्मिकाः सूचयः - फलकद्वयसम्बन्धविघटनाभावहेतुपादुकास्थानीयाः तत्र वज्रमयाः सन्धयः- सन्धिमेलाः फलकानां, किमुकं भवति ? - बज्ररक्षापूरिताः फलकानां सन्धयः, तथा नानामणिमयाः समुद्रका इव समुद्रका:- चूलिकागृहाणि तानि नानामणिमयानि यत्र न्यस्तौ कपाटी निश्चलतया तिष्ठतः, वज्रमया अर्गला अर्गलाप्रासादाः, तत्रार्गलाः प्रतीताः अर्गलाप्रासादा यत्रार्गला नियम्यन्ते, रजतमयी आवर्त्तनपीठिका, आवर्त्तनपीठिका च यत्रेन्द्रकीलो भवति, तथा अङ्का-अङ्करत्नमया उत्तरपार्श्वा यस्य तत्तथा,
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१ वक्षस्कारे
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
---------- मूलं [७-८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
स्व
प्रत सूत्रांक
[७,८]
निरन्तरितधनकपाटमिति निर्गता अन्तरिका-लघ्वन्तररूपा ययोस्ती निरन्तरिको अत एव घनकपाटौ यस्य तत्तथा। | भित्तिसु चेव भित्तिगुलिया छप्पण्णा तिण्णि होति' इति तस्य द्वारस्योभयोः पार्थयोभित्तिषु भित्तिषु गता भित्तिगु-12 लिकाः पीठकसंस्थानीयाः तिस्रः षट्पञ्चाशत:-षट्पञ्चाशत्रिकप्रमिता भवन्ति, अष्टपट्यधिकं शतमित्यर्थः, तथा गोमानस्य:-शय्याः तावन्मात्रा:-पट्पनाशत्रिकप्रमिताः, नानामणिरत्नमयानि व्यालरूपाणि-फणिरूपकाणि, लीलास्थितशालभञ्जकाच-लीलास्थितपुत्रिका यत्र तत्तवा, तथा तस्य द्वारस्य वज्रमयः कूटो-माढभागः रजतमय उत्सेधः, शिखरं केवलं, शिखरमत्र तस्यैव माढभागस्य सम्बन्धि द्रष्टव्यं न द्वारस्य, तस्य प्रागेवोक्तत्वात्, सर्वोत्मना तपनी-1 यमय 'उल्लोकः' उपरिभागः 'नानामणिरयणजालपञ्जरमणिवंसगलोहिअक्खपडिवंसगरययभोम्में' इति मणयो-मणि-10
मया वंशा येषां तानि मणिवंशकानि तथा लोहिताक्षा-लोहिताक्षमयाः प्रतिवंशाः येषां तानि लोहिताक्षप्रतिवंश18|| कानि, तथा रजतमयी भूमिर्येषां तानि रजतभूमानि, प्राकृतत्वात् समासान्तो मकारस्य च द्वित्वं, मणिवंशकानि लोहि| ताक्षप्रतिवंशकानि रजतभूमानि, नानामणिरत्नानि-नानामणिरत्नमयानि जालपंजराणि-गवाक्षापरपयोयाणि यस्मिन् |
द्वारे तत्तथा, पदानामन्यथोपनिपातः प्राकृतत्वात्, 'अङ्कामया पक्खा इत्यत आरभ्य रययामए छाणे' इत्यन्तानि | 1 पद्मवरवेदिकायदावनीयानि, 'अंकामयकणगकूडतवणिजथूभियागे' इति, अङ्कमयं-बाहुल्येनाङ्करलमयं पक्षबाहादीना-18
मङ्करलात्मकत्वात् कनक-कनकमयं कूट-महच्छिखरं यस्य तत्तथा, तपनीया-तपनीयमयी स्तूपिका-लघुशिखररूपा
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अनुक्रम
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श्रीजम्.
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[७,८]
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अनुक्रम
[७,८]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [ ७-८ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥ ४९ ॥
यस्य तत्तथा ततः पदत्रयस्य पदद्वयमीलनेन २ कर्मधारयः, एतेन यत्प्राक् सामान्येनोत्क्षिप्तं 'सेए वरकणगथूभियागे' १ वक्षस्कारे | इति तदेव प्रपञ्चतो भावितमिति, सम्प्रति तदेव श्वेतत्वमुपसंहारव्याजेन भूय उपदर्शयति-श्वेतं, श्वेतत्वमेवोपमया द्रढ- १४ विजयद्वारयति - विमलं निर्मलं यत् शङ्खतलं- शङ्खस्योपरितनो भागो यश्च निर्मलो दधिघनो - घनीभूतं दधि गोक्षीरफेनो रजत- १४ वर्णनं सृ. ८ | निकरश्व-रूप्यराशिस्तद्वत्प्रकाशः - प्रतिमता यस्य तत्तथा, 'तिलगरयणद्धचंदचित्ते' इति तिलकरलानि-पुण्डविशेषाः तैरर्द्धचन्द्रैश्च-अर्द्धचन्द्राकारैः सोपानविशेषश्चित्रं चित्रकारि तिलकरलार्द्धचन्द्रचित्रं, तथा नानामणयो - नानामणिम
| यानि दामानि - मालास्तैरलङ्कृतं नानामणिदामालङ्कृतं, तथा अन्तर्बहिश्च श्लक्ष्णं श्लक्ष्णपुद्गलस्कन्धनिर्मापितं तपनी| याः- तपनीयमय्यो वालुकाः सिकतास्तासां प्रस्तदः - प्रस्तारो यत्र तत्तपनीयवालुकाप्रस्तटं, 'सुहफास' इत्यादि प्राग्वत् । "विजयस्स णं दारस्स उभओ पासिं दुहओ णिसीहियाए दो दो चंदणकलसा पण्णत्ता, ते चंदणकलसा वरकमलपइट्ठाणा सुरभिवरवारिपडिपुण्णा चंदणकयचञ्चागा आविद्धकंठेगुणा पउप्पलपिहाणा सघरयणामया अच्छा सहा जाव पडिरूवा महया मया महिंदकुंभसमाणा पण्णत्ता समणाउसो !" अत्र व्याख्या - विजयस्य द्वारस्योभयोः पार्श्व|योरेकैकनैषेधिकीभावेन 'दुहओ'ति प्राकृतत्वात् इस्वत्वे द्विधातो-द्विप्रकारायां नैषेधिक्यां, नैषेधिकी चात्र निषदनस्थानं, तत्र प्रत्येकं द्वौ द्वौ बन्दनाय कलशौ वन्दनकलशी-मांगल्यघटी प्रज्ञप्तौ ते च यन्दनकलशा वरकम प्रतिष्ठानं आधारो येषां ते तथा, तथा सुरभिवरवारिपरिपूर्णाः, चन्दनकृतचर्चाका:- चन्दनकृतोपरागाः, 'आविद्ध
Fra&ae Cy
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॥ ४९ ॥
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
---------- मूलं [७-८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[७,८]
कण्ठेगुणा' इति आविद्धः-आरोपितः कण्ठे गुणो-रक्तसूत्ररूपो येषां ते तथा, कण्ठेकालवत् सप्तम्या अलुप, तथा | पद्ममुत्पलं च यथायोगं पिधानं येषां ते तथा, 'सब्बरयणामया' इत्यादि प्राग्वत्, 'महया महया' इति अतिशयेन महान्तो 'महेन्द्रकुम्भसमानाः' कुम्भानामिन्द्र इन्द्रकुम्भो, राजदन्तादिदर्शनादिन्द्रशब्दस्य पूर्वनिपातः, महांश्चासा-|| |विन्द्र कुम्भश्च तस्य समाना महेन्द्रकुम्भसमाना-महाकलशप्रमाणाः यद्वा महीन्द्रो-राजा तदर्थ तस्य सम्बन्धिनो वा | कुम्भा-अभिषेककल शाः तत्समानाः प्रज्ञप्ताः, हे श्रमण ! हे आयुष्मन् !, 'विजयस्स णं दारस्स उभोपासिं दुहओ णिसीहियाए दो दो णागदंतगा पण्णता, ते णं णागदंतगा मुत्ताजालंतरूसिअहेमजालगवक्खजालखिंखिणीघंटाजालपरिक्खित्ता अब्भुग्गया अभिनिसिट्टा तिरि सुसंपग्गहिया अहेपण्णगद्धरूवा पण्णगद्धसंठाणसंठिया सबबइरामया अच्छा जाव पडिरूवा महया २ गयदंतसमाणा पण्णत्ता समणाउसो!" विजयस्य द्वारस्येत्यादिपदयोजना प्राग्वत् , द्वी ही नागदन्तकौ-नर्कटिको अङ्कटिकावित्यर्थः प्रज्ञप्ती, ते च नागदन्तका मुक्काजालानामन्तरेषु यानि उरिछूतानि-1 लम्बमानानि हेमजालानि-हेममया दामसमूहा यानि च गवाक्षजालानि-गवाक्षाकृतिरलविशेषाः दामसमूहा यानि च कि
किणीघण्टाजालानि-क्षुद्रघण्टासमूहास्तः परिक्षिता:-सर्वतो व्याप्ताः, अभिमुखमुन्नता अभ्युद्गता-अग्रिमभागे मनागुन्नता| 18| इति भावः, येन तेषु माल्यदामानि सुस्थितानि भवन्ति, अभिमुखं-बहिर्भागाभिमुखं निसृष्टा-निर्गताः अभिनिसृष्टाः & तिर्यग-भित्तिप्रदेशः सुप्-अतिशयेन सम्यग-मनागप्यचलनेन परिगृहीताः 'अहेपण्णगद्धरूवा' इति अध:-अधस्तन
दीप
अनुक्रम [७.८०
coccesectiotice
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
---------- मूलं [७-८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
escoccerceroes
[७,८]
दीप
श्रीजम्बू
18 यत् पन्नगस्य-सर्पस्याद्धं तस्येव रूपं-आकारो येषां ते तथा अधःपन्नगार्द्धवदतिसरला दीर्घाश्चेति भावः, एतदेव व्या-8/१ वक्षस्कारे द्वीपशा-18|चष्टे- पन्नगार्द्धसंस्थानसंस्थिताः' अधःपन्नगार्द्धसंस्थानसंस्थिताः सर्वात्मना वज्रमयाः 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत् , 'महया | विजयद्वारन्तिचन्द्री-18
महया' इति अतिशयेन महान्तो गजदन्तसमाना:-गजदन्ताकाराः प्रज्ञप्ताः, हे श्रमण! हे आयुष्मन्! | "तेसु ण वणेनं सुरू या वृत्तिः
णागदंतएसु बहवे किण्हसुत्तबद्धवग्धारिअमलदामकलावा एवं नील० लोहिअ हालिद सुकितसुत्तबद्धवग्धारिअमलदा-1 ॥५०॥
मकलावा, ते णं दामा तवणिज्जलंबूसगा सुवण्णपयरगमंडिया णाणामणिरयणविविहहारद्धहारउवसोभियसमुदया जाव। सिरीइ अईव उवसोभेमाणा २ चिट्ठति" अब व्याख्या-तेषु च नागदन्तकेषु बहवः कृष्णसूत्रबद्धा 'बग्घारित्ति | अवलम्बिताः माल्यदामकलापा:-पुष्पमालासमूहाः, एवं नीललोहितहारिद्रशुक्लसूत्रबद्धा अपि माल्यदामकलापा वाच्याः, |'ते णं दामा' इत्यादि, तानि दामानि तवणिज्जलंबूसगा' इति तपनीयः-तपनीयमयो लम्बूसगो-दानामग्रिमभागे प्राङ्गणे लम्बमानो मण्डनविशेषो गोलकाकृतिर्येषां तानि तपनीयलम्बूसकानि, तथा पार्श्वत:-सामस्त्येन सुवर्णप्रतरकेण-|| सुवर्णपत्रकेण मण्डितानि सुवर्णप्रतरकमण्डितानि तथा नानारूपाणां मणीनां रत्नानां च ये विविधा विचित्रवर्णा हाराअष्टादशसरिकास्तैरुपशोभितः समुदायो येषां तानि तथा, 'जाव सिरीए अईव उवसोभेमाणा२चिहति' अत्र यावत्कर-II
॥५०॥ णात् एवं परिपूर्णः पाठो द्रष्टव्यः ईसिमण्णोण्णमसंपत्ता पुधावरदाहिणुत्तरागएहिं वाएहिं मंदाय २ एइज्जमाणा २ पलंबIS माणा २ पझंझमाणा २ उरालेणं मणुण्णेणं मणहरेणं कण्णमणनिव्वुइकरेणं सद्देणं ते पएसे सपओ समंता आपूरेमाणा
अनुक्रम [७.८०
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
---------- मूलं [७-८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[७,८]
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|सिरीए अतीव उपसोभेमाणा २ चिट्ठति" एतच्च पूर्व पद्मवरवेदिकावर्णने व्याख्यातमिति न भूयो व्याख्यायते,
"तेसि णं णागदंतगाण उवरिं दो दो णागदंतगा पण्णत्ता, ते णं णागर्दतगा मुत्ताजालंतरूसिया तहेव जाव समणा| उसो, तेसु णं णागदतएम बहवे रययामया सिकया पण्णत्ता, तेसुणं रययामएसु सिकपसु बरईओ बेरुलियामईओ ||
धूवघडीओ पण्णताओ, ताओ णं धूवघडीओ कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुक्कधूवमघमघंतगंधुडुआभिरामाओ सुगंधवर|गंधिआओ गंधवट्टिभूयाओ ओरालेणं मणुण्णेणं घाणमणनिबुइकरेणं गंघेणं ते पएसे सवओ समंता आपूरेमाणीओ, |सिरीए ईव स्वसोभेमाणा २ चिट्ठति" अत्र व्याख्या-तेषां नागदन्तानामुपरि अन्यी द्वौ द्वी नागदन्तकी प्रज्ञप्ती.।। ते च नागदन्तका मुत्ताजालंतरूसिअहेमजालगवक्खजाल इत्यादि प्रागुक्तं सर्व द्रष्टव्यं, यावद् गजदन्तसमानाः प्रज्ञप्ताः हे श्रमण! हे आयुष्मन् !, 'तेसु ण'मित्यादि तेषु नागदन्तकेषु बहूनि रजतमयानि सिककानि प्रज्ञप्तानि, तेषु रजतमयेषु सिक्यकेषु बढयो वैडूर्य्यमय्यो धूपघव्यः-धूपघटिकाः प्रज्ञप्ताः, ताश्च धूपघटिकाः कालागुरुश्च-कृष्णागुरुः। प्रवरकुन्दुरुकं च-चीडाभिधानो गन्धद्रव्यविशेषः तुरुष्कं च-सिहकं धूपश्च-दशाङ्गादिः गन्धद्रव्यसंयोगज इति द्वन्द्वे18 तेषां सम्बन्धी यो 'मघमत'त्ति मघमघायमानोऽतिशयवान् उदुतः-इतस्ततो विप्रसतो गन्धस्तेनाभिरामाः, उडुतश-1 ब्दस्य परनिपात आपत्वात्, सुष्ठ-शोभनो गन्धो येषां ते तथा, समासान्तविधेरनित्यत्वादत्रेद्पस्य समासान्तस्याभावो | यथा सुरभिगन्धेन वारिणेति,ते च ते घरगन्धाश्व-प्रधानवासास्तेषां गन्धः स आसु अस्तीति सुगन्धवरगन्धगन्धिकाः अतो-18
अनुक्रम [७.८०
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
---------- मूलं [७-८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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वर्णन मू.८
सूत्रांक
या पृत्तिः
[७,८]
दीप
श्रीजम्बू-18ऽनेकस्वरा'दितीकप्रत्ययः (श्रीसिद्ध०७-२-६) अत एव गन्धवर्तिभूताः-सौरभ्यातिशयागन्धद्रव्यगुटिकाकल्पाः उदारेण 8 वक्षस्कारे द्वीपशा- स्फारेण मनोज्ञेन-मनोऽनुकूलेन, कथं मनोऽनुकूलत्वमत आह-याणमनोनितिकरण गन्धेन तान्-प्रत्यासन्नान् प्रदेशान | विजयद्वारन्तिचन्द्री
| आपूरयन्त्यः २ श्रिया अतीव शोभमानाः२ तिष्ठन्ति,"विजयस्स णं दारस्स उभओ पासिं दुहओ निसीहियाए दो दो साल-18 भंजियाओ पण्णताओ, ताओणं सालमंजियाओ लीलवियाओ सुपइडिआओ सुअलंकियाओ णाणाविहरागवसणाओ रत्तावंगाओ असियकेसीओ मिउविसयपसत्थलक्खणसंवेल्लियग्गसिरयाओ णाणामल्लपिणद्धाओ मुट्टिगेज्मसुमज्झाओ आमेलगजमलजुअलवट्टिअअम्भुन्नयपीणरइअसंठियपयोहराओ ईसिं असोगवरपायवसमुट्ठियाओ वामहत्थगहियग्गसालाओ ईसिं अद्धच्छिकडक्खचिद्विपहिं लुसेमाणीओविव चक्सुलोअणलेसहिं अण्णमण्णं खिजनमाणीओविव पुढवीपरिणामाओ सासयभावमुवगयाओ चंदाणणाओ चंदविलासिणीओ चंदद्धसमणिडालाओ चंदाहियसोमदसणाओ उक्का इच उज्जोएमाणीओ विजुषणमरीचिसूरदिपंततेअअहिअयरसण्णिगासाओ सिंगारागारचारुवेसाओ पासादीयाओ तेभसा आईक | उखसोभेमाणीगो चिट्ठति' अत्र व्याख्या-विजयस्य द्वारस्योभयोः पाश्वयोरेकैकनैपेधिकीभावेन द्विधातो-द्विप्रकारायां नैपेधिक्या देखे शालभजिके-पश्चाल्यौ प्रज्ञप्ते, ताच शालभजिका लीलया-ललिताङ्गनिवेशरूपया स्थिताः लीला-18| स्थिताः सुठु-मनोज्ञतया प्रतिष्ठिताः सुप्रतिष्ठिताः सुष्ठ-अतिशयेन रमणीयतया अलंकृताः स्वळंकृताः, तथा 'नानाविह-181 रागवसणाओं' इति नानाविधो-नानाप्रकारो रागो-रञ्जनं येषां तानि तादृशानि बसनानि-वस्त्राणि संवृततया यासां|
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---------- मूलं [७-८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[७,८]
तास्तथा, रक्तोऽपाङ्गो-नयमप्रान्तं यास ताः रकापाङ्गतः, असिताः-श्यामाः केशाः यासां ता असितकेशाः मृदवः-IN S कोमला विशदा-निर्मलाः प्रशस्तानि-शोभनान्यस्फुटिताप्रत्वप्रभृतीनि लक्षणानि येषां ते प्रशस्तलक्षणाः, संवेल्लितं-संवृतं | किञ्चिदाकञ्चितं अग्रं येषां शेखरकरणात् ते संवेल्लितायाः शिरोजा: केशाः यासां ता मृदुविशदप्रशस्तलक्षणसंवेलिता-18 प्रशिरोजाः, नानारूपाणि माल्यानि-पुष्पाणि पिनद्धानि-आविद्धानि यथोचितस्थानेषु स्थापितानि यासां ता नाना-1 माल्यपिनद्धाः, निष्ठाम्तस्य परनिपातो भार्यादिदर्शनात् , मुष्टिग्राह्यं तनुतरत्वात् सुष्टु मध्यं-मध्यभागो यासांता मुष्टि-18 ग्राह्यसुमध्याः, 'आमेलगजमलजुअलवद्दिअअन्भुण्णयपीणरइअसंठिअपयोहराओं' आपीड:-शेखरकस्तस्य यमल-सम-18 श्रेणीकं युगलं तद्वद्वर्तितौ-बद्धस्वभावावुपचितकठिनभावाविति भावः, अत एवाभ्युन्नती-तुङ्गो पीनरतिदसंस्थितौ-19 | पीवरसुखदसंस्थानी पयोधरी-स्तनी थासा तास्तथा, तथा 'ईर्सि असोगपायवसमुट्टियाओं' इति, ईपत्-मनाक् अशोक-10 वरपादपे समवस्थिता-आश्रिताः तथा वामहस्तेन गृहीतमनं शालायाः-शाखाया अर्थादशोकपादपस्य याभिस्ताः वामहस्तगृहीतामशाखा:, "ईसिं अद्धच्छिकसक्खचिट्ठिएहिं लूसेमाणीओ विवे'ति ईषत्-मनाक् अर्द्ध-तिर्यग्वलितं अक्षि-चक्षुर्येषु कटाक्षरूपेषु चेष्टितेषु शृङ्गाराविर्भावकक्रियाविशेषेष्वित्यर्थः तैर्मुष्णन्त्य इव सुबजनमनांसीति गम्यं, || तथा 'चक्खुल्लोअणलेसेहिं' अन्नम-परस्परं चक्षुषां लोकनेन-अवलोकनेन लेशाः-संश्लेपास्तैः खिद्यमाना इव, किमुक्त भवति ?-एवं नाम ताः तिर्यग्वलिता कटाक्षः परस्परमवलोकमानाः अवतिष्ठन्ति यथा नूनं परस्परसौभाग्यासहनतः
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अनुक्रम [७,८
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आगम
(१८)
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[७,८]
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[७,८]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [ ७-८ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूडीपशातिचन्द्री - या वृचिः
॥ ५२ ॥
Elean
| तिर्यग्वलिताक्षिकटाक्षैः परस्परं खिद्यन्त इवेति, तथा 'पुढवीपरिणामाओ' इति पृथ्वीपरिणामरूपाः शाश्वतभावमुपगता बिजयद्वारवत्, चन्द्राननाः- चन्द्रमुख्यः चन्द्रवन्मनोहरं विलसन्तीत्येवंशीलाश्चन्द्रविलासिन्यः चन्द्रार्जेन - अष्टमी| चन्द्रेण समं सदृशं ललाटं यासां ताः चन्द्रार्द्धसमललाटाः, चन्द्रादप्यधिकं सोमं सुभगं कान्तिमदर्शनं-आकारो यासां | ताः तथा, उल्का इब-गगनाग्निज्वाला इवोद्योतमानाः विद्युतो - मेघवहयस्तासां घना - निविडा मरीचयस्तेभ्यो यच सूर्यस्य दीप्यमानं घनाद्यनावृतं तेजस्तस्मादधिकतरः सन्निकाशः - प्रकाशो यासां तास्तथा, शृङ्गारो-मण्डनभूषणाटोपस्तत्प्रधान आकारो यासां तास्तथा, चारुवेषा:-मनोहरनेपथ्याः, पश्चात्कर्मधारयः, अथवा शृङ्गारस्य- प्रथमरसस्थागारमिव-गृहमिव चारु वेषो यासां तास्तथा, प्रासादीया इत्यादिपदचतुष्टयं प्राग्वत्, "विजयस्स णं दारस्स उभओ पासिं दुहओ णिसीहियाए दो दो जालकाडगा पण्णत्ता, ते णं जाठकडगा सवरयणामया अच्छा सण्हा जाव पडिरूवा" विजयस्येत्यादि प्राग्वत्, द्वौ द्वौ जालकटकौ - जालकाकीर्णौ रम्यसंस्थानों प्रदेश विशेषौ प्रज्ञप्तौ, ते च जालकटकाः सर्वरत्नमया: 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत् । "विजयस्स णं दारस्स उभओपासिं दुहओ णिसीहियाए दो दो घंटाओ पण्णचाओ, तासि णं घंटाणं अयमेयारूये वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा-जंबूणयामईओ घंटाओ वइरामईओ लालाओ णाणामणिमया घंटापासगा तवणिज्जमईओ संकलाओ रययामईओ रज्जूओ, ताओ णं घंटाओ ओहस्सराओ मेहस्सराओ हंसस्सराओ कोंचस्सराओ सीहस्सराओ दुंदुभिस्सराओ णंदिस्सराओ दिघोसाओ मंजुघोसाओ सुस्सराओ
Fur Fraternae Cy
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२ वक्षस्कारे विजयद्वारवर्णनं सू.८
॥ ५२ ॥
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
---------- मूलं [७-८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[७,८]
सुस्सरघोसाओ उरालेणं मणुण्णेणं मणहरेणं कण्णमणनिव्वुइकरेण सद्देणं जाव चिट्ठति" अक्षरगमनिका प्राग्वत् , IS वेढे घण्टे प्रज्ञप्ते, 'तासि थे' तासां घण्टानामयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-जाम्बूनदमय्यो घण्टा, वज़मय्यो लालाः नानामणिमया घण्टापा -पण्टैकदेशविशेषाः, तपनीयमय्यः शृङ्खला यासु ता अवलम्बितास्तिष्ठन्ति, रजतमय्यो रजवः प्रतीताः ताश्च घण्टा ओपेन-प्रवाहेण स्वरो यासां तास्तथा, मेघस्येवातिदीर्घः स्वरो यासां तास्तथा, हंसस्येव मधुरः स्वरो यास तास्तथा, एवं क्रोश्चस्वराः, सिंहस्येव प्रभूतदेशव्यापी स्वरो यासां तास्तथा, एवं दुन्दुभिस्वराः, नन्दिः-द्वादशतूर्यसंघातस्तद्वत्स्वरो यास तास्तथा, नन्दिवत् घोषो-निनादो यासा तास्तथा, मञ्जः-प्रियः कर्णमनः-||
सुखदायी स्वरो यासां तास्तथा, एवं मञ्जुघोषाः, किंबहुना !, सुस्वराः सुस्वरघोषाः, अथवा सुष्ठ यत् स्व-स्वकीयं || 18 अनन्तरोक्तं वर्ण श्लादिकं तेन राजन्ते इति सुखराः तथा शोभनौ वरघोषौ यास ताः, 'उरालेण' मित्यादि।
प्राग्वत्, "विजयस्स णं दारस्स उभओ पासिं दुहओ णिसीहियाए दो दो वणमालाओ पण्णत्ताओ, ताओ णं वणमा-18 लाओ णाणादुमलयकिसलयपलवसमाउलाओ छप्पयपरिभुज़माणसोभंतसस्सिरीयाओ पासादीयाओ४" अत्र व्याख्या-1 पदयोजना प्राग्वत्, द्वे द्वे वनमाले प्रज्ञप्ते, ताश्च वनमाला द्रुमाणां नानालतानां च ये किशलयरूपा अतिकोमला
इत्यर्थः पल्लवास्तैः समाकुला:-सम्मिश्राः षट्पदैः परिभुज्यमानाः सत्यः शोभमानाः षट्पदपरिभुज्यमानशोभमानाः,8 18|| अत एव सश्रीकाः, ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः 'पासाईया' इत्यादि प्राग्वत् , “विजयस्स णं दारस्स उभओ पासि |
दीप
अनुक्रम [७.८०
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
---------- मूलं [७-८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[७,८
दीप
श्रीजम्ब-1 | दुहओ णिसीहियाएं दो दो पकंठगा पण्णत्ता ते णं पकंठगा चत्तारि जोअणाई आयामविक्वंभेणं दो जोअणाई बाह-|| मकर द्वीपशा-18 लेणं सबवइरामया अच्छा आव पडिरूवा" इति, अत्र व्याख्या-पदयोजना प्राग्वत् द्वौ द्वौ प्रकण्ठको प्रज्ञप्ती, प्रक-18 विजयद्वारन्तिचन्द्री
ण्ठको नाम पीठविशेषः, चूर्णौ तु "आदर्शवृत्ती पर्यम्तावनतप्रदेशौ पीठौ प्रकण्ठा"विति, ते च प्रकण्ठकाः चत्वारि 8 वर्णन सू.८ या वृतिः
योजनान्यायामविष्कम्भेन-आयामविष्कम्भाभ्यां वे योजने बाहल्येन-पिण्डेन 'सघवइरामया' इति सर्वात्मना वज्र-18 ॥५३॥ 18 मयाः ते प्रकण्ठकाः 'अच्छा' इत्यादि विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् , "तेसि ण पकंठगाणं उवरि पत्तेयं पत्तेयं पासायव-8
डिसगा पण्णता, ते णं पासायडिंसगा चत्तारि जोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं अभुग्ग-18 | यमूसिअपहसिया विविहमणिरयणभसिचित्ता पाउदुअविजयजयंतीपडागच्छत्तातिच्छत्तकलिया तुंगा गगणतलमणु8 लिहंतसिहरा जालंतररयणपंजरुम्मीलिआ इव मणिकणगधूभिआगा विअसियसयवत्तपोंडरीयतिलगरयणद्धचन्दचित्ता
अंतो बाहिं च सण्हा तवणिज्जवालुआपस्थडा सुहफासा सस्सिरीयरुया पासाईया ४" तेषां प्रकण्ठकानामुपरि प्रत्येक प्रासादावतंसकाः प्रज्ञप्ताः, प्रासादावतंसको नाम प्रासाद विशेषः, तत्युत्पत्तिश्चैव-प्रासादामामवतंसक इव-शेखरक इव || प्रासादावतंसका, ते च प्रासादावतंसकाः प्रत्येकं चत्वारि योजनान्यूर्योच्चत्वेन द्वे योजने आयामविष्कम्भाभ्यां 'अम्मु-1॥
॥५३॥ ग्गये त्यादि, अभ्युद्गता-आभिमुख्येन सर्वतो विनिर्गताः उत्सृताः-प्रबलतया सर्वासु विक्ष प्रसता या प्रभा तया सिता |इव-बद्धा इव तिष्ठन्तीति गम्यते, अन्यथा कथमिव तेऽत्युच्चा निरालम्बास्तिष्ठन्तीति भावः, तथा 'विविहमणिरयण-II
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
---------- मूलं [७-८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[७,८]
Caeseseseseseseeeeakkesese
दीप
शभत्तिचित्ता' इति विविधा-अनेकप्रकारा ये मणय:-चन्द्रकान्तायाः यानि च रलानि-कर्केतनादीनि तेषां भक्तिमिःविच्छित्तिभिश्चित्रा-नानारूपा आश्चर्यवन्तो वा, नानाविधमणिरलभक्तिचित्राः, तथा 'वाउडुअविजयवेजयंतीपडागच्छत्ताइछत्तकलिया' वातोडुता-वायुकम्पिता विजयः-अभ्युदयस्तत्संसूचिका वैजयन्तीनाम्यो याः पताकाः, अथवा विजया इति वैजन्तीनां पार्थकर्णिका उच्यन्ते, तत्प्रधाना वैजयन्त्यो विजयवैजयन्त्यः-पताकास्ता एव विजयवर्जिता वैजयन्त्यः, छत्रातिछत्राणि-उपर्युपरिस्थितान्यातपत्राणि तैः कलिता वातोद्भूतविजयवैजयन्तीपताकाछत्रातिछत्रक| लिताः, तुङ्गा-उच्चाः, उच्चस्त्वेन चतुर्योजनप्रमाणत्वात्, अत एव गगनतलं-अम्बरमनुलिखन्ति-अभिलंघयन्ति शिखराणि येषां ते तथा, तथा जालानि-जालकानि गृहभित्तिषु लोके यानि प्रतीतानि, तदन्तरेषु विशिष्टशोभा| निमित्तं रलानि येषु ते जालान्तररलाः, सूत्रे चात्र विभक्तिलोपः प्राकृतत्वात्, तथा पञ्जरादुन्मीलिता इव-बहिष्कृता इव पञ्जरोन्मीलिताः, यथा किल किमपि वस्तु वंशादिमयप्रच्छादनविशेषाद्वहिष्कृतमत्यन्तमविनष्टच्छायं भवति, एवं तेऽपि प्रासादावतंसका इति भावः, अथवा जालान्तरगतरत्नपञ्जरै-रत्नसमुदायविशेषैरुन्मीलिता इव-उन्मिपितलोचना | इवेत्यर्थः, मणिकनकस्तूपिका इति प्रतीत, विकसितानि-विकस्वराणि शतपत्राणि पुण्डरीकाणि च-कमलविशेषाः द्वारादी प्रतिकृतित्वेन स्थितानि तिलकरतानि-भित्त्यादिषु पुण्डूविशेषाः अर्द्धचन्द्राश्च द्वारादिषु तश्चित्रा-नानारूपा आश्चर्यभूता वा नानामणिमयदामालंकृता इति व्यक्तं अन्तर्बहिश्च श्लक्ष्णा-मसणाः, तपनीयस्य-रक्कसुवर्णस्य वा
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
---------- मूलं [७-८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
वक्षस्कारे जहार
प्रत सूत्रांक
San3030
[७,८]
दीप
श्रीजम्यू- लुकास्तासां प्रस्तट:-प्रस्तरः प्राङ्गणेषु येषां ते तथा, शेषं पूर्ववत्, "तेसि णं पासायवडिंसगाणं उल्लोआ पउमलयाभ-
द्वीपशा-तिचित्ता असोगलयाभत्तिचित्ता चंपगलयाभत्तिचित्ता चूअलयाभत्तिचित्ता वणलयाभत्तिचित्ता वासंतिलयाभत्ति- न्तिचन्द्री
चित्ता सवतवणिजमया जाव पडिरूवा" तेषां प्रासादावतंसकानामुल्लोकाः-उपरितनभागाः पद्मलताभक्तिचित्राः अया वृत्तिः
शोकलताभक्तिचित्राः पम्पकलताभक्तिचित्राः चूतलताभक्तिचित्राः बनलताभक्तिचित्राः वासन्तिकलताभक्तिचित्राः, ॥५४॥ सर्वात्मना तपनीयमयाः 'अच्छा सण्हा जाव पडिरूवा' इति विशेषणकदम्बकं प्राग्वत् , "तेसि णं पासायवडिंसगाणं
| अंतो बहुसमरमणिले भूमिभागे पण्णते, से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव मणीहिं उवसोभिए मणीणं षण्णो ॥ गंधो फासो अ णेअधो"त्ति, तेषां प्रासादावतंसकानामन्तर्बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, 'से जहाणामए आलिंग
युक्खरेइ वा' इत्यादि समभूमिवर्णनं वर्णपञ्चकसुरभिगन्धशुभस्पर्शवर्णनं च प्राग्वद् ज्ञेयं, "तेसि णं बहुसमरमणिज्जाणं
भूमिभागाणं बहुमझदेसभाए पत्तेयं सीहासणाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तंजहा-रययामया सीहा 1. सोबणिया पाया तवणिजमया चकला जाणामणिमयाई पायसीसगाई जंबूणयामयाई पत्चाई बदरामया संधी Aणाणामणिमयं चेचं ते णं सीहासणा ईहामिगउसभ जाव पउमलयाभत्तिचित्ता, संसारसारोबचिअविविहमणिरय-1 Aणपायपीढा अस्थरयमिउमसूरगणवतयकुसंतलिच्चकेसरपञ्चत्थुयाभिरामा आईणगरूअवूरनवणीयतूलफासा सुविरइय-|
रयत्ताणा ओअविअखोमदुगुल्लपट्टपडिच्छायणा उवरिं रत्तंसुयसंवुडा सुरम्मा पासाइया ४" इति, 'तेसि णमित्यादि,
अनुक्रम [७.८
॥५४॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
---------- मूलं [७-८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[७,८]
हा तेषां प्रासादावतंसकानामन्तर्बहुसमरमणीयानां भूमिभागानां बहुमध्यदेशभागे प्रत्येक सिंहासनं प्रज्ञप्तं, तेषां च सिंहा
सनानामयमेतद्रूपो वर्णावासो-वर्णकनिवेशः प्रशप्तः, तद्यथा-रजतमयाः सिंहाः, यैरुपशोभितानि सिंहासनानि, सौव-II र्णिकाः-सुवर्णमयाः पादाः, तपनीयमयानि चकलानि-पादानामधःप्रदेशाः भवन्ति, मुक्कानानामणिमयानि पादशीर्ष-18 काणि-पादानामुपरितना अवयवविशेषाः, जाम्बूनदमयानि गात्राणि-ईपादीनि यज्ञमया-वजरलापूरिताः सन्धयो-1 गात्राणां सन्धिमेलाः नानामणिमयं चेचं-न्यूतं विशिष्टं वानमित्यर्थः, तानि च सिंहासनानि ईहामृगऋषभतुरगनरमकरव्यालकिन्नररुरुसरभचमरकुञ्जरवनलतापद्मलताभक्तिचित्राणि, तथा सारसारैः-प्रधानप्रधानविविधैर्मणिररुपचितैः पादपीठैः सह यानि तानि तथा, प्राकृतत्वादुपचितशब्दस्यान्तरुपन्यासा, 'अत्थरयमउअमसूरगनवतयकुसंतलिचकेसर| पञ्चत्थुआभिरामा' इति आस्तरक-आच्छादनं मृदु येषां मसूरकाणां तान्यास्तरकमृदूनि, विशेषणस्य परनिपातः प्राकृत-18 ॥ त्वात् , नवा त्वक् येषां ते नवत्वचः कुशान्ता-दर्भपर्यन्ता नवत्वचश्च ते कुशान्ताच नवत्वक्कुशान्ताः-प्रत्यग्रत्वग्दर्भ-1101 पर्यन्तरूपा लिच्चानि-कोमलानि नम्रशीलानि च केसराणि, कचित् सिंहकेसरेतिपाठः तत्र सिंह केसराणीव केसराणि ||४ मध्ये येषां मसूरकाणां तानि नवत्वक्कुशान्तलिच्चकेसराणि, सिंहकेसरेति पाठपक्षे एकस्य केसरशब्दस्य शाकपार्थि
वादिदर्शनालोपः, आस्तरकमृदुभिर्मसूरकैर्नवत्वक्कुशान्तलिचकेसरैः प्रत्यवस्तृतानि-आच्छादितानि सन्ति यानि । अभिरामाणि तानि तथा, विशेषणपूर्वापरनिपातो यादृच्छिकः प्राकृतत्वात् , तथा 'आईणगरूअबूरनवनीयतूलफासा'
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दीप
अनुक्रम [७.८०
धीमा
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
---------- मूलं [७-८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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प्रत
सूत्रांक
[७,८]
दीप
श्रीजम्ब-18 इति आजिनक-चर्ममयं वखं तब स्वभावावतिकोमलं स्यात् रूत-कर्पासपक्षा यूरोन्जनस्पतिविशेष: नवनीत- विजयहार द्वीपशा-18 पक्षणं तुल-अर्कतुलं तेषामिक पर्यो वेषां तानि स्था, सुविरचितं रजखाणं प्रत्येकमुपरि येषां तावि तथा, 'ओवित्ति वर्णनं सूर न्तिचन्द्री- परिकम्मितं यत क्षौम-दुकलं कासिकं वस्त्रं तत्प्रतिच्छादन-रजवापस्योपरि द्वित्तीयमाच्छादनं बेषां तानि तथा या तिः
'उवरि रत्तंसुअसंवुआ'इति रक्ताशुकेच-अतिरमणीयेन वस्त्रेण संवृतानि-आच्छादितानि रक्तांशुकसंवृतानि, अत एव । ॥५५॥ सुरम्याणि, 'पासाईया'इत्यादि पदचतुष्टयं प्राग्वत् , "तेसि णं सीहासणाणं उप्पिं विजयदूसे पम्पत्ते, ते णं विजवदूसा
|| संखकुंददगरयमयमहिअफेणपुंजसनिकासा सबरवणामया अच्छा जाव पडिरूवा" तेषां सिंहासनानामुपरि प्रत्येकं २ || प्रतिसिंहासनमेकैकभावात् विजयदूष्यं-वितानकरूपो वस्त्र विशेषः प्रज्ञप्तः, तानि च विजयष्याणि शकः प्रतीतः कुंदे'ति!
कुन्दकुसुमं दकरजः-उदककणाः अमृतस्व-क्षीरोदधिजलस्य मथितस्य य: फेनपुञ्जो-डिण्डीरोत्करस्तत्सन्निकाशानि-18 | तत्समप्रमाणि, पुनः कथंभूतानीत्याह- सवस्यणामया' इति सर्वात्मना रत्नमयानि, शेष प्राग्वत् , "तेसि णं विजवदू-101 | साणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेय पत्तेयं बहरामया अंकुसा पण्णता, तेसु णं बरामएसु अंकुसेसु पत्तेयं २ कुंभिक्का मुत्ता|दामा पण्णत्ता, ते णं कुंभिका मुचादामा अमेहिं चउहिं तदबुञ्चत्तप्पमाणमित्तेहिं अद्धकुंभिकेहिं मुत्तादामेहिं सक्नो || ॥५५॥
समंता संपरिक्खित्ता, ते णं दामा तवणिज्जलंबूसया सुवण्णपयरगमंडिया जाव चिट्ठति" तेषां सिंहासनोपरिस्थिताचा |विजयदूष्याणां प्रत्येकं २ बहुमध्यदेशभागे अशा अङ्कशाकारा मुक्कादामावलम्बनाश्रयभूताः प्रज्ञताः, तेषु वजमये
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
---------- मूलं [७-८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक
[७,८]
म्वङ्कुशेषु प्रत्येक प्रत्येकं कुम्भ्राम-समपदेशप्रसिद्धं कुम्भपरिमाणं मुक्कामयं मुक्तादाम प्रज्ञप्त, अत्र वृत्त्वनुसारेण 'कुंभिक | मुत्तादामे पण्णत्ते' इति पाठः सम्भाव्यते, कुम्भमाचं तु उत्तरत्र चर्मरकछत्ररत्नसमुद्कस्थितस्य चक्रिणो गृहपतिरलेन
धान्यराशिसमर्पणाधिकारे वक्ष्यते, तानि च कुम्भामाणि मुक्कादामानि प्रत्येक प्रत्येकमन्यैश्चतुर्भिः कुम्भाप्रैर्मुक्कादाम|| भिस्तदर्बोच्चत्वप्रमाणमात्रैः सर्वतः सर्वासु विक्षु समन्ततः-सामस्त्येन संपरिक्षिक्षानि, 'अद्ध कुंभिकेहि' इत्यत्र अर्द्धश्वब्दः
सूत्रे दृश्यमानोऽपि वृत्तावव्याख्यातत्यान्न व्याख्यात इति, ते ण दामा'इत्यादि दामवर्षकसूत्रं पद्मवरवेदिकादामवर्ण
कवद् व्याख्येय, अत्र सूत्रादर्शेषु कचित् 'तेसि णं पासायवडिंसमाणं उप्पि अमंगलगा पण्णत्ता, सोत्थियसीहासका Kजाव छत्ताइछत्ता' इति सूत्रं दृश्यते,तद्व्याख्यानं च व्यक्तमिति, विजयस्स पां दारम्स उभओपासिं दुहोणिसीहियाए ।
दो दो तोरणा पण्णत्ता, ते ण तोरणा णाणामणिमया तहेव जाव अहममलगा झवा छत्ताइच्छता, तेसि तोरणाणं | पुरओ दो दो सालभंजिआ पण्णत्ता जव हेडा तहेव, तेसिप तोरणा पुरओ दो दोणागतमा पण्णचा, ते णं णाग-II 18 दंतगा मुत्ताजालंतरूसिव तहेव, तेसु गं पागदत्तपसु बहवे किण्हसुत्तबद्धबग्धारियमझदामकलावा जाव चिटुंति' सर्व ॥॥चेतत् सूत्रं प्राग्वत् क्षेयं, नवरं नागदन्कसूत्रे उपरि नागदन्तका न बक्कच्या अभावादिति, "तेखि गं तोरणाणं पुरोगा। | दो दो हरसंघाडगा जाव उसहसंघाङगा सकरपणामया अच्छा जाव पहिलवा, एवं पंतीओ कीही मिहुणगा, तेसि || तोरणाणं पुरचो दो दो पउमलयाओ जाय सामख्यायो णिचं कुसुमियायो नाच सवस्यणामया जाव पडिरूवाओ"
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
---------- मूलं [७-८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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श्रीजम्बू
सूत्रांक
[७,८]
दीप
अत्र व्याख्या-तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वा हयसंघाटको द्वौ द्वौ गजसंघाटको द्वौ द्वौ नरसंघाटको द्वौ द्वौ किंपुरुषसं- विजयद्वारपाटको द्वौ दो महोरगसंघाटको द्वौ द्वौ गन्धर्वसंघाटको द्वौ द्वौ वृषभसंघाटको, एते च कथंभूता इत्याह-'सबरयणा
वर्षेनं सू.८ द्वीपशान्तिचन्द्री- मया अच्छा सहा' इत्यादि प्राग्वत् , एवं पंक्तिचीथीमिथुनकान्यपि प्रत्येकं वाच्यानि, 'तेसि णमित्यादि, तेषां तोरणानां या वृत्तिः पुरतो वे द्वे पालते यावत्करणात् दे द्वे नागलते वे द्वे अशोकलते द्वे द्वे चम्पकलते द्वे द्वे चूतलते द्वे द्वे वासन्तीलते ॥५६॥
देखे कुन्दलते द्वे द्वे अतिमुक्कलते इति परिग्रहः, द्वे द्वे श्यामलते, एताश्च कथंभूता इत्याह-निच्चं कुसुमियाओ' इत्यादि Is यावत्करणात् 'निच मउलियाओ निच लवइयाओ निच्चं थवइयाओ निच्च गुलइयाओ निचं गुच्छियाओ निश्चं जमलियाओ निश्चं जुअलियाओ निच्चं विणमियाओ निच्चं पणमियाओ निच्चं सुविभत्तपडिमंजरिवळिसगधरीओ निच्चं कुसुमियम-8
उलियलवइयथवइयगुलइयगोच्छियविणमियपणमियसुविभत्तपडिमंजरिवर्डिसगधरीओ'इति परिगृह्यते, अस्य व्याख्यानं 18|| प्राग्वत्, पुनः कथंभूता इत्याह-सबरयणामया जाव पडिरूवा' इति अत्रापि यावत्करणात् 'अच्छा सण्हा' इत्यादिवि
शेषणकदम्बकपरिग्रहः, स च प्राग्वदावनीयः, "तेसि ण तोरणाणं पुरओ दो दो वंदनकलसा पन्नत्ता, ते णं बंदणकलसा वरकमलपाइहाणा तहेव सवरयणामया जाव पडिरूवा"इति, तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ बन्दनकलशी प्रज्ञप्ती, वर्ण
॥५६॥ कश्च प्राक्कनो वक्तव्यः, "तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो भिंगारगा पण्णत्ता वरकमलपाइहाणा तहेव सवरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा मत्तगयमहामुहागिइसमाणा पण्णत्ता समणाउसो!' तेषां तोरणाना पुरतो द्वौ द्वौ भृङ्गारको कन
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
---------- मूलं [७-८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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कालुकापरपर्यायी प्रज्ञप्ती, तेपामिव-वन्दनकलशानामिव वर्णको वक्तव्यः, नवरं पर्यन्ते 'मत्तगयमहामुहागिईसमाणा|| पण्णत्ता समणाउसो' इति वक्तव्यं, मत्तो यो गजस्तस्य महद्-अतिविशालं यन्मुखं तस्याकृति:-आकारस्तत्समानाः प्रज्ञप्ताः हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! "तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो आदंसगा पण्णता, तेसि णं अयमेयारूवे वण्णा-18 | वासे पण्णत्ते, तंजहा-तवणिजमया पगंठगा वेरुलियमया छरुहा वइरामया बारगा णाणामणिमया बलक्खा अंकामया| मण्डला अणोग्यसिअनिम्मलाए छायाए सबओ चेव समणुबद्धा चंदमंडलपडिनिकासा महया २ अद्धकायसमाणा पण्णत्ता समणाउसो!" तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वावादर्शकौ-दर्पणी प्रज्ञप्तौ, तेषां चादर्शकानामयमेतद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-तपनीयमया प्रकंठका-पीठविशेषाः वैडूर्यमयाः थासका:-आदर्शगण्डप्रतिबद्धप्रदेशाः, आदर्शगण्डानां मुष्टिन-18 हणयोग्याः प्रदेशा इति भावः, वज़मया वारगा-गंडा इत्यर्थः, नानामणिमया वलक्षाः, वलक्षो नाम श्वलादिरूपमव-18
लम्बनं येन सम्बद्ध आदर्शः सुस्थिरो भवति, तथा अद्यरत्नमयानि मण्डलानि यत्र प्रतिबिम्बसंभूतिः, तथा अवघर्षण-18 8| मवर्षित भावे क्तप्रत्ययः भूत्यादिना निर्माजनमित्यर्थः अवघर्षितस्याभावोऽनवर्पितं तेन निर्मला अनवघर्षितनिर्मला ||
तया छायया-कान्त्या समनुबद्धा-युक्ताः, तथा 'चंदमंडलपडिनिकासा इति चन्द्रमण्डलसदृशाः 'मयामया इति8 अतिशयेन महान्तोऽर्द्धकायसमानां-आलोककव्यन्तरादिकाया प्रमाणा इत्यर्थः, "तेसिणं तोरणाणं पुरओ दो दो वइरनाभा थाला पण्णत्ता, ते णं अच्छतिच्छडियसालितंदुलनहसंदपडिपुण्णाविव चिट्ठति सबजंबूणयामया अच्छा
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
----------- मूलं [७-८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [७,८]
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श्रीजम्यूमर पडिरूया मक्या मस्या रहचकसबाचा मण्णासा समणालो !" अस बोरवाना पुरतो वे कामो माभिः-- विजय द्वीपशा-18भागो स्योस्ले बनायेखाले प्रज्ञ, सानिरस्थाखावि विन्तीति किवायोगा, अच्छा-निर्मला शुक्षकटिकवत विचा-वर्णनं सू.८ न्तिचन्द्री
चन्द्रीटिता: जीन वारान् छदिता--तियस्वचित्ता अत एव 'बससंदष्टा' नसा-नखिकाः संवता-गुरुवादिमिधुम्मिता येमा । या कृति:
ते तथा, अत्र निष्ठारतस्य परनिपात: भार्योचादिदर्शनात् , अक्छ। त्रिच्छति। बालितन्दुलै बससंदः परिपूर्णाचीच | ॥५७॥ 18| अच्छत्रिच्छटितचालितन्दुलनखसंवटपरिपूर्यानि, पृथिवीपरिणामरूपाणि तानि तथा खिसानि केक्समेषमाकाराणीत्यु-181
पमा, तथा चाह-सषजंबूणयामया' इति सर्वात्मना जाम्बूनदमयानि 'सच्चा सम्हाइलादि प्राग्वत्, 'महवामहया'। 18| इति अतिशयेन महाम्सि रथचक्रसमानानि प्राप्तानि, हे श्रमण! हे आयुष्म। तेसि तोरणाणं पुरजो दो दो18 |पाईओ पण्णतायो, ताओ णं पाईओ अच्छोदगपडिहत्थाओ सामाविहरूस फलहरिशरस बहुपतिपुषणामो विष चिति,IRI सबरयणामईओ आप पडिरूवाओ, महयामहया गोकलिंजचकसमायामो रण्यात्तामो समणाउसो" तेषां तोरणानां || पुरतो वे द्वे पात्र्यौ प्रशसे, ताश्च पात्र्योऽच्छेनोदकेन 'पडिहत्याओ'त्ति परिपूर्णाः देशीशब्दोऽयं, 'शाणाविहस्स फलरिअस बहपटिपण्णासो विवे'प्ति बच पठी तृतीयाथै बहुवचने चैकवचनं प्राकृतत्वात् , मानाविधैः हरितफलैः बहु-॥ ॥ ५७॥ प्रशतं प्रतिपूर्णा इव तिवन्ति, न खलु तानि फलानि जलं वा किन्तु तथारूपाः शाश्वतभावमुपगताः पृथिवीपरिणामा-1 | सत्त उपमानमिति, 'सबरयणामईओ' इत्यादि धाग्वत् , 'महयामझ्या इति अतिशवेन महत्वः, गवां चरणार्थ यश
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
---------- मूलं [७-८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[७,८]
| बलमवं महन्नाजनं उल्लेति प्रसिद्धं तद् मोकलिसमुध्यसे, तदेच च वृत्ताकारत्वा तत्समाचार प्रसार हे अमन 11% रहे आयुष्मन् ! "तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो सुपइडमा पण्णत्ता, ते गं सुपइडगा सुसबोसहिपठिपुण्णा णानावि
हस्स पसाहणगभंडस्स बहुपडिपुण्णाविव चिट्ठति, सबरवणामया अच्छा जाव पडिरूवा" तेषां तोरणानां पुरतो वो द्वौ सुप्रतिष्ठको-आधारविशेषौ प्रजाती, ते च सुप्रतिष्ठकाः सुसौंपधिप्रतिपूर्णा नानाविधैः पश्चवणः प्रसाधनभाण्डैश्च बहुपरिपूर्णा इव तिष्ठन्ति, अत्रापि तृतीचार्थे पष्ठी बहुवचने चैकवचनं प्राकृतत्वात् , उपमानभावना प्राग्वत् , 'सबरव
मामया' इत्यादि प्राग्वत् "तेसि मं तोरणाणं पुरओ दो दो मणोगुलियाओ पण्णत्ताओ, ताजो गं मणोगुलिआओ सबरावेरुलियामईओ जाव पडिरूवाओ, तासु पं मणोगुलियासु बहवे सुचण्यारूप्पमया फलगा पक्षणचा, सेसु सुवष्णरुप्पामसु फलपसु बहवे वइसममा कागदंतमा पण्णता, तेसण घागदंतपसु बहवे रबयामया सिकका पण्णता" सर्वमेतत् सूत्रं जाण्याप्तपूर्व, नवरं मनोगुलिका-पीठिका इति, "तेसु पं रपयामएस सिकरम पहवे वायकरगा पण्णचा, ते णं वायकरगा किषहमुत्तसिझगमवच्छिा जाव मुकिल्लमुत्तसिकगलवच्छिया सबबेरुलियामया अच्छा जाव पहिरुवा" इति, तेषु रजतमयेषु शिक्यकेषु बहवो वातकरका जलशून्याः करका श्मः प्रशसार, 'ते 'मित्यादि, ते च वातक-18 | रका: 'कृष्णसूत्रसिक्कगगवच्छिता' इति आच्छादनं क्वच्छः, गच्चाः सजाता एष्विति गवच्छिताः कृष्णसूवैः-कृष्ण1 सूत्रमयैः गवरिति गम्यते शिक्यकेषु गवचिताः कृष्णसूत्रसिक्यकमवच्छिता, एवं नीलसूत्रशिक्षकगवच्छिता इत्या
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
---------- मूलं [७-८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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विजयद्वार
प्रत
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[७,८]
भीजम्प पि भावनीयं, ते च चातकरकाः सर्वात्मना वैडूर्यमयाः, 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत् , 'तेसि ण तोरणाणं पुरओ दो दो
द्वीपशा- चिसा रयणकरंडगा पण्णता, से जहा णामए रण्णो चाउरंतचकवट्टिस्स चित्ते रयणकरंडगे वेरुलिअमणिफालिअपडलपन्तिचन्द्री- चोअडे साए पभाए ते पएसे सबओ समंता ओभासेइ उज्जोवेइ तावेइ पभासेइ एवामेव तेवि चित्ता रयणकरंडगा बेरु-1 या चिः
लिय जाव पभासिंति"त्ति, अत्र व्याख्या-तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ चित्री-चित्रवर्णोपेतौ नानाश्चर्यकरौ वा रन॥५८॥ करण्डकी प्रज्ञप्ती, एतावेव दृष्टान्तेन भावयति-से जहा णाम ए' इत्यादि स यथा नाम राज्ञश्चतुरन्तचक्रवर्तिनः चतुर्यु
दक्षिणोत्तरपूर्वापररूपेषु पृथिवीपर्यन्तेषु चक्रेण वर्सितुं शीलं यस्य स चातुरन्तचक्रवत्तीं तस्य चित्रा-आवर्यभूतो नाना-1 I8 मणिमयत्वेन नानावों वा 'वेरुलिअमणिफालिअपडलपच्चोअडे'त्ति बाहुल्येन वैडूर्यमणिमयस्तथा स्फाटिकपटलप्रत्यव-17
तट:-स्फाटिकपटलमयाच्छादनः स्वकीयया प्रभया तान् प्रवेशान् सर्वतः सर्वासु दिक्षु समन्ततः-सामस्त्येन अवभासयति, एतदेव पर्यायत्रयेण व्याचष्टे-उद्योतयति तापयति प्रभासयति, 'एवमेवे त्यादि सुगमं, "तेसि णं तोरणाणं पुरओ
दो दो हयकंठा पण्णता जाव उसभकंठा पण्णता सवे रयणामया जाव पडिरूवा" तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ हयक॥ण्ठौ-हयकण्ठप्रमाणी रक्षविशेषी प्रज्ञप्ती, एवं गजनरकिनारकिंपुरुषमहोरगगान्धर्ववृषभकण्ठा अपि वाच्याः, तथा चाह-
1 1५८॥ सवे रयणामया' इति, सर्वे रत्नमया इति रत्नविशेषरूपाः 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत्, “तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो पुप्फचंगेरीओ पण्णचाओ, एवं मल्लचुण्णगंधवत्थाभरणसिद्धत्थगलोमहत्थगचंगेरीओ सबरयणामईओ अच्छाओ जाव
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
---------- मूलं [७-८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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[७,८]
दीप
पडिरूवाओ" इति, तेषां तोरणानां पुरतो वे द्वे पुष्पचङ्गेय्यौं प्रज्ञप्ते, एवं माल्यचूर्णगन्धवस्त्राभरणसिद्धार्थकलोमहस्त-18 कचनेर्योऽपि वक्तव्याः, एताच सर्वा अपि सर्वात्मना रस्लमयाः 'अच्छा' इत्यादि प्राग्वत्, "तेसि णं तोरणाणं पुरओ | दो दो पुष्फपडलगाई जाच लोमहत्थगपडलगाई सबरयणामयाई अच्छाई जाव पडिरूवाई" एवं पुष्पादिचङ्गेरीवत्र पुष्पादीनामष्टानां पडलकान्यपि द्विद्विसंख्याकानि वाच्यानि, "तेसि णं तोरणाणं पुरओ दो दो सीहासणाई पण्णत्ताई, तेसिणं सीहासणाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तहेव जाव पासादीया ४" इति, तेषां तोरणानां पुरतो वे दे | सिंहासने प्रशसे, तेषां च सिंहासनानां वर्णकः प्रागुतो निरवशेषो वक्तव्यो यावदामवर्णन, 'तेसि ण तोरणाणं पुरओ | दो दो रुप्पच्छदा छत्ता पण्णत्ता, ते णं छत्ता वेरुलियविमलदंडा जंबूणयकण्णिया वइरसंधी मुत्ताजालपरिगया अट्ठसह-18 ॥8 स्सवरकंचणसलागा दहरमलयसुगंधिसबोग्यसुरहिसीयलच्छाया मंगलभत्तिचित्ता चंदागारोवमा"इति, अत्र व्याख्या-18
तेषां तोरणानां पुरतो वे द्वे रूप्यच्छदे-रजतमयाच्छादने छत्रे प्रज्ञप्ते, तानि च छत्राणि बैडूर्यरत्नमयविमलदण्डानि 8
जाम्बूनदं-सुवर्ण तन्मयी कर्णिका येषां तानि जाम्बूनदकर्णिकानि, तथा वज्रसन्धीनि-वजरलापूरितदण्डशलाका-118॥ 8सन्धीनि मुक्काजालपरिगतानि अष्टौ सहस्राणि-अष्टसहनसंख्याका वरकाश्चनशलाका-वरकाश्चनमय्यः शलाका
येषु तानि अष्टसहस्रवरकांचनशलाकानि, तथा 'दहरमलयसुगंधिसबोउयसुरहिसीअलच्छाया' इति दर्दर:-चीवराबनखं कुण्डिकादिभाजनमुखं तेन गालिताः तत्र पक्का वा ये मलय इति-मलयोदय श्रीखण्ड तत्सम्बन्धिनः सुगन्धयो ||
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
---------- मूलं [७-८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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[७,८
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श्रीजम्- मरवासासर्वेषु ऋान मुरविः चीलाप छाया वेषा तानि तथा, कात्तिचिता' महावाकालिकासको विजयद्वार
द्वीपशा- अष्टानां भक्त्या-विच्छित्वा चियालेखो वेषां तानि सया, चंदामारोवाति घनाकारस-पन्द्राकृतिक सा वर्णनं सू.८ न्तिचन्द्री-18 उपमा वेषां तानि तथा, चन्द्रमण्डछचत् बचानीति भावः, "तेसि तोरणावं पुरमओ दो दो घामसो पण्णालो या वृचिः
ताओ जे चामराओ पंतप्पभवावेरुलियणाजामगिरवणखचियविचित्वंशाओ सुझुकारयवदीहवालामो संखककुंदर॥ ५९॥18॥
| गरयअमवपाहिजफेणपुंजसपिणगासाओ अच्छाओ जाच पखिरूवाओ" तेषां तोरणा पुरत्तो हे चामरे प्रशसे, सूबे चामरशब्दस खीत्वं प्राकृतत्वात्, तानि च चामराणि 'चंदप्पचकारवेसबियणाणामपिरयणलचिअदंडागो' इति । चन्द्रप्रभा-चन्द्रकान्तो वजं वैडूर्य च प्रतीतं चन्द्रप्रभवजवैडूर्याणि शेषाणि च नानामणिरक्षानि सचितानि येषु ईण्डेषु ते तवा, एवंरूपाश्चित्रा-नानाकारा दण्डा येषां चामराणां तानि सथा, सूरमा रजतमया दीर्घा वाला ये तामि तथा, तथा 'संसंककुंदक्षगरयअमयमहिजफेणपुंजसन्निकासाओ' इति शङ्कः-प्रतीतः अझोरजविशेषः कुंदेसि कुन्दपुष्पं दकरजः-उदककणाः अमृतमथितफोनपुजा-क्षीरोदजलमथनसमुत्था फेबजास्तेपामिव सनिकाश-प्रभा॥ वेषां तानि सथा, 'अच्छाओं' इत्यादि मावस्, "तेसि गं तोरणाणं पुरओ दो दो तेल्लसमुग्गया पण्णता कोहसमुग्गा ५९॥ पत्तसमुग्गा चोअसमुग्गा तगरसभुग्गा एलासमुग्ला हरिआलसबुग्गा हिंदुलक्समुग्गा मणोसिलासमुग्गा अंजनसमुग्गा सबरवणामया अच्छा जाव पडिरूवा" तेषां तोरणानां पुरतो द्वौ द्वौ तैकसमुनकी-सुगन्धितलाधारविशेषौ प्रती,
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
---------- मूलं [७-८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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एवं कोहाविन्युनका जति वाक्यात, अवर
बोचावविशेषा -समासयमादि गोरक्यामकं मन्धवम्ब अवाकसौवीराजामं, अब माणिनाथा-वेले बोड़ साल पसे चोए अतार एला छ । हरिबाले हिंगुलए ममोसिता अंजणसमुग्गे ॥१॥" इति, एते सर्वेऽपि समुजका सर्वातामा रकमया इत्यादि शाक्त्, "विजए सारे बसयं चक
याणं अट्ठसय मिगझयाण अडलयं मरुज्याय असर्व विजयाणं अत्यंत्तज्झचाणं असर्य पिळग्शयाणे II अहस्पं सानिमायाण मयुसर्य सिंहावा बहुलवं वसाहन्झचा अहसर्व सेवाणं बाविसाणवरनालकेजर्ण एवामेच
सवावरेणं रिजयबारे असीर्थ केजसहसं मपरिसिमक्खा" पत्र वाक्या-तमिन विजयद्वारे अष्ट्वातं--प्राधिक शतं चक्रध्वजामा पक्कालेखरूपचिन्होपेलालां जाना, एवं मारुउच्छवापिच्छाकुनिसिंहपृश्यचतुर्दन्तहस्तिध्वजानामपि प्रत्येकमासमष्टात यकाय, "एवामेव पुवाचरेणाति एवामेव-अनेव प्रकारेण सह पूर्व यख बेन का सपूर्व || सपूर्व च तदपरं च तेन सपूर्वापरेण पूर्वापरसमुदायेनेत्यर्थः, विजषद्वारेऽशीत-अशीवधिकं केतुसहसं भवतीत्या-1 ख्यातं, मयाऽन्यैश्च तीर्थकृतिरिति शेषः, "विजयस्त णं दारा पुरओ णव भोमा पण्णता, तेसिक भोमाण अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागत पण्णता आव मणीणं फासो, तेसि पं भोमाणं उप्पिं उल्लोमा पउमलया जाव सामलयाभत्तिचित्ता जाव समतपणिजमवा अच्छा जाव पडिरूवा, तेसिणं भोमाणं बहुमजादेसभाए जे से पंचमे भोमे तस्स में भोमस्स बहुमज्झदेसभाए महं एगे सीहासणे पण्णते, सीहासणवण्णओ, विजयचूसे जाव अंकुसे जाव दामा चिट्ठवि"
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
---------- मूलं [७-८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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अत्र व्याख्या-विजयस्य द्वारस्य पुरतो नव भौमानि-विशिष्टानि स्थानानि प्रज्ञप्तानि, तुर्याङ्गे तु 'विजयस्स में दारस्स || विजयद्वारद्वीपशा
र एगमेगाए बाहाए णव णय भोमा पण्णत्ता' इति संख्याशब्दस्य पुरतो वीप्सावचनेन उभयवाहासत्कमीलनेनाष्टादशसं- वर्णनं सू.८ न्तिचन्द्री
ख्या अङ्कतो भीमाना सम्भाव्यते, तत्त्वं तु सातिशयजनगम्यमिति, तेषां च भौमानां भूमिभागः उल्लोकाश्च पूर्वबद्धकव्याः, या वृत्तिः
तेषां च भीमानां पहुमध्यदेशभागे यत्पञ्चमं भीम तस्य बहुमध्यदेशभागे विजयद्वाराधिपविजयदेवयोग्य सिंहासन 8 ॥६॥1 प्रज्ञप्न, तस्य च सिंहासनस्य वर्णनं विजयदूप्यकुम्भारमुक्तादामवर्णनं च प्राग्वत् 'उत्तरपुरच्छिमेणं एत्थ णं विजयस्स |
| देवस्स चउण्हं सामाणिअसाहस्सीणं चत्वारि भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तस्स णं सीहासणस्स पुरच्छिमेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं चत्वारि भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तस्स सीहासणस्स दाहिणपुरच्छिमेणं एस्थ णं विजअस्स देवस्स अम्भितरिआए परिसाए अढण्हं देवसाहस्सीणं अट्ठ भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तस्स णं सीहासणस्स दाहिणेणं पत्थ णं विजयस्स देवस्स मज्झिमियाए परिसाए दसहं देवसा-19 हस्सीणं दस भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तस्स णं सीहासणस्स दाहिणपञ्चच्छिमेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स बाहिरियाए परिसाए पारसण्हं देवसाहस्सीणं बारस भदासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तस्स णं सीहासणस्स पञ्चस्थिमेणं ॥६ ॥ एत्य णं विजयस्स देवस्स सत्तण्हं अणीआहिवईणं सत्त भद्दासणा पण्णचा, तस्स णं सीहासणस्स पुरच्छिमेणं दाहि
पञ्चच्छिमेणं उत्तरेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स सोलसायरक्खदेवसाहस्सीणं सोलस भदासणसाहस्सीओ पण्ण
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
---------- मूलं [७-८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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ताओ, तंजहा-पुरच्छिमेणं चत्तारि साहस्सीओ, एवं चउसुवि जाव उत्तरेणं चत्वारि साहस्सीओ, अवसेसेसु मोमेसु । पत्तेयं पत्तेयं सीहासणं सपरिवारं पण्णत्तं" अत्र व्याख्या-तस्य सिंहासनस्य 'अवरोत्तरेणं'ति अपरोत्तरस्यां वायव्यकोणे इत्यर्थः, 'उत्तरेण ति उत्तरस्यां दिशि उत्तरपूर्वस्यां च-ईशानकोणे सर्वसङ्कलनया तिसृषु दिक्षु अत्र विजयदेवस्य चतुर्णा || १ समाने-विजयदेवसदृशे आयुर्युतिविभवादौ भवाः सामानिकास्तेषां 'साहस्सीणं'ति प्राकृतत्वाद् दीर्घत्वं स्त्रीत्वं च सह1 स्राणां चत्वारि भद्रासनसहस्राणि प्रज्ञतानि, तस्य च सिंहासनस्य पूर्वस्यामत्र विजयदेवस्य चतसृणामग्रमहिषीणां, इह |
'कृताभिषेका देवी महिषी'त्युच्यते, सा च स्पारिवारभूतानां सर्वासामपि देवीनाममा प्रधाना, ताश्च ता महिष्यश्च अग्रKR महिष्यस्तासामग्रमहिषीणां प्रत्येकमेकैकसहस्रसंख्यदेवीपरिवारसहितानां चत्वारि भद्रासनसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, तस्य सिंहासनस्य दक्षिणपूर्वस्यामाग्नेय्यां विदिशीत्यर्थः, अत्र विजयस्य देवस्य अभ्यन्तरिकायाः पर्षदः-अभ्यन्तरपष—पाणामष्टानां देवसहस्राणां योग्यान्यष्ट भद्रासनसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, तस्य सिंहासनस्य दक्षिणस्यां दिशि अत्र विजयदेवस्य
मध्यमिकायाः पर्षदो दशानां देवसहस्राणां योग्यानि दश भद्रासनसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, तस्य सिंहासनस्य दक्षिणापरस्यां || दिशि नैर्ऋत्यां विदिशीत्यर्थः, अत्र विजयदेवस्थ बाह्यपर्षदो द्वादशानां देवसहस्राणां योग्यानि द्वादश भद्रासनसहस्राणि || 18 प्रज्ञप्तानि, ननु केऽभ्यन्तरमध्यबाह्यपर्षका देवाः यैरभ्यन्तरपर्षदादिव्यवहारो भवति ?, उच्यते, अभ्वन्तरपर्षका देवा
आहूता एवं स्वामिनोऽन्तिकमायान्ति न त्वनाहूताः, परमगौरवपात्रत्वात् , मध्यमपर्षत्कास्तु आहूता अपि अनाहूता
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StotStotratserce
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आगम
(१८)
प्रत
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[ ७,८]
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अनुक्रम
[७,८]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [ ७-८ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री
या वृत्तिः
॥ ६१ ॥
अपि स्वामिनोऽन्तिकमायान्ति, मध्यमप्रतिपत्तिविषयत्वात्, बाह्यपर्षत्काः पुनरनाहूताः स्वामिनोऽन्तिकमायान्ति, १वक्षस्कारे तेषामाकारण लक्षणगौरवानर्हत्वात्, अथवा यया सहोत्तममतित्वात् पर्यालोच्य विजयदेवः कार्यं विदधाति सा गौरवे है जम्बूद्वीप| पर्यालोचनायां चात्यन्तमभ्यन्तराऽस्तीत्यभ्यन्तरिका, यस्याः पुरोऽभ्यन्तरपर्षदा सह पर्यालोच्य दृढीकृतं पदं गुणदो- 8 द्वारा०सू.८ पकथनतः प्रपञ्चयति सा गौरवे पर्यालोचनायां च मध्यमे भावेऽस्तीति मध्यमिका, यस्याश्च पुरः प्रथमपर्षदा सह पर्यालोचितं द्वितीयपर्षदा संह प्रपञ्चितं पदमाशाप्रधानः सन्निदं विधेयमिदं न विधेयं वेति प्ररूपयति सा गौरवात्पर्यालोचनाञ्च वहिर्भावेऽस्तीति बाह्या, तस्य सिंहासनस्य पश्चिमेन-पश्चिमायां दिशि अत्र विजयस्य देवस्य सप्तानामनीकाधिपतीनां सप्त भद्रासनानि प्रज्ञप्तानि, अथ परिक्षेपान्तरमाह - तस्य सिंहासनस्य पूर्वस्यां दक्षिणस्यां पश्चिमाया उत्तरस्यां एवं चतसृषु दिक्षु अत्र विजयस्य देवस्य षोडशानामात्मरक्षकदेवसहस्राणां योग्यानि षोडश भद्रासन सहस्राणि प्रज्ञतानि, तद्यथा- पूर्वस्यां चत्वारि भद्रासनसहस्राणि, एवं चतसृष्वपि दिक्षु यावदुत्तरस्यां चत्वारि भद्रासनसहस्राणि प्रज्ञप्ता - नीति, एतद् व्याख्यानं साम्प्रतदृश्यमानजीवाभिगमसूत्रबह्लादर्शपाठानुसारि, वृत्तौ तु तस्य सिंहासनस्य सर्वतः - सर्वासु दिक्षु समन्ततः- सामस्त्येनेत्यादि व्याख्यानमस्ति तत्पाठान्तरापेक्षयेति सम्भाव्यते, अवशेषेषु भीमेषु पूर्वापरमीलनेनाष्टयकेषु प्रत्येकं प्रत्येकं सिंहासनं सपरिवारं सामानिकादिदेवयोग्यभद्रासन रूपपरिवारसहितं प्रज्ञतं, 'विजयस्स णं दारस्स उवरिमागारे सोलसविहेहिं रयणेहिं उवसोभिए, तंजहा - रयणेहिं १ वइरेहिं २ वेरुलिएहिं ३ लोहिअ
Fur Erate&ione Cy
~ 133~
॥ ६१ ॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
---------- मूलं [७-८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[७,८]
क्खेहिं ४ मसारगल्लेहिं ५ हंसगब्भेहिं ५ पुलएहिं ७ सोगंधिएहिं ८ जोइरसेहिं ९ अंकेहिं १० अंजणेहिं ११ रयएहि १२/8i जायसवेहिं १३ अंजणपुलएहिं १४ फलिहेहिं १५ रिटेहिं १६" विजयस्य द्वारस्य उपरितन आकार-उत्तरङ्गादिरूपः, | षोडशविधैः रलैरुपशोभितः, तद्यथा-रलैः १ वजेः रवैडूर्यैः ३ लोहिताक्षैः ४ मसारगलैः५ हंसगभैः ६ पुलकै ७ सौग-18| |न्धिकैः ८ ज्योतीरसैः ९ अङ्कः १० अञ्जनैः ११ रजतैः १२ जातरूपैः १३ अञ्जनपुलकै १४ स्फटिकैः १५ रिठ्ठः १६, तत्र रक्षानि सामान्यतः कर्केतनादीनि, वज्रादीनि तु रलविशेषाः प्रतीता एव, नवरं रजतं-रूप्यं जातरूपं-सुवर्ण, एते अपि रले एवेति, "विजयस्स णं दारस्स उवरिं अमंगलगा पण्णत्ता, तंजहा-सोत्थिय सिरिवच्छ जाव दप्पणा सबरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा" "विजयस्स ण'मित्यादि, विजयस्य द्वारस्योपरि अष्टावष्टौ स्वस्तिकादीनि मङ्गलकानि प्रज्ञतानि, 'तद्यथे'त्यादिना तान्येवोपदर्शयति, 'सबरयणामया इत्यादि प्राग्वत्, "विजयस्स णं दारस्स उप्पिं बहवे किण्हचामरज्झया जाव सबरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा, विजयस्स ण दारस्स उप्पिं बहवे छत्ताइछत्ता तहेव" | विजयस्स णं दारस्स उप्पि बहवे किण्हचामरज्झया" इत्यादि सूत्रपाठः जीवाभिगमसूत्रबहादशेषु दृष्टत्वाल्लिखितोऽस्ति, || स च पूर्ववद् व्याख्येयः, वृत्तौ तु केनापि हेतुना व्याख्यातो नास्तीति, 'से केणडेणं भंते ! एवं वुच्चइ विजए दारे २१,
गोयमा विजए ण दारे विजए णाम देवे महिड्डिए महज्जुईए महाबले महायसे महासोक्खे पलिओवमठिइए परिवसइ, 18 से णं तत्थ चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणे सत्तण्हं अणीयाणं सत्तह
00000000000000000000000000
दीप
Resercerserseserveeerasaceae
अनुक्रम [७.८०
JatiennilJAI
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
---------- मूलं [७-८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[७,८]
दीप
॥ अणियाटियईण सोलसण्हं आयरक्खदेवंसाहस्सीणं विजयस्स णं दारस्स विजयाए अ रायहाणीए अन्नेसिं च बहूर्ण वक्षस्कारे द्वीपशा- विजयारायहाणीवत्थवाणं देवाणं देवीण य आहेवच्चं पोरेवचं सामितं भट्टित्तं महत्तरगतं आणाईसरसेणावच्चं कारेमाणे जम्मूद्वीपन्तिचन्दी-1| पालेमाणे महययनहगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं दिखाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरदद्वारा०सू.८ या से तेणडेणं एवं बुचा विजए दारे २"इति, अथ केनार्थेन भदन्त । एवमुच्यते-विजयद्वारं विजयद्वारमिति ! भग॥६॥रवानाह-गौतम विजये द्वारे विजयो नाम प्राकृतत्वादव्ययत्वाद्वा नामशब्दात्परस्य टावचनस्य लोपस्ततोऽयमर्थः
प्रवाहत:-अनादिकालसन्ततिपतितेन विजय इति नाम्ना देवो महर्द्धिको-महती ऋद्धिः-भवनपरिवारादिका यस्यासौ
महर्द्धिकः, 'महाद्युतिका महती द्युतिः शरीरगता आभरणगता च यस्यासौ महाद्युतिकः, तथा महत् बलं-शारीरः प्राणों IST यस्य स महाबलः, तथा महत् यश:-ख्यातियेत्यासी महायशाः, तथा 'महेसक्खे' इति महान् ईश इत्याख्या-प्रसिद्धि-18 Bास्यासौ महेशाख्यः, अथवा ईशनं ईशो भावे घञ्प्रत्ययः ऐश्वर्यमित्यर्थः, 'ईश ऐश्वर्ये' इति वचनात् , तत ईश-ऐश्वर्य IS आत्मनः ख्याति-अन्तर्भूतण्यर्थतया ख्यापयति-प्रथयति स ईशाख्यः महांश्चासावीशाख्यश्च महेशाख्यः, कचिन्महा-18 हासोक्खे इति पाठः, तत्र महसौख्य-प्रभूतसद्धेयोदयवशायस्य स महासौख्यः, पल्योपमस्थितिकः परिवसति, स च तत्र ।
॥६२॥ चतसृणां सामानिकसहस्राणां चतसूणामनमहिषीणां सपरिवाराणां प्रत्येकमेकैकसहस्रसंख्यपरिवारसहितानां तिसृणाम-181 म्यन्तरमध्यमबाह्यरूपाणां यथाक्रममष्टदशद्वादशदेवसहस्रसङ्ख्याकानां पर्षदां, सप्तानीकानां-हयानीकगजानीकरथानी
अनुक्रम [७.८०
~135
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
---------- मूलं [७-८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[७,८]
दीप
कपदात्यनीकमहिषानीकगन्धर्वानीकनाव्यानीकरूपाणां सप्तानामनीकाधिपतीनां पोडशानामात्मरक्षकसहस्राणां विजयस्थ द्वारस्व विजयायाश्च राजधान्या अन्येषां च बहूनां विजयराजधानीवास्तव्यानां देवानां देवीनां च अधिपतेः कर्म आ-18 धिपत्यं रक्षा इत्यर्थः, सा च रक्षा सामान्येनाप्यात्मरक्षकेणेव क्रियते तत आह-पौरपत्यं पुरस्य पतिः पुरपतिः तस्य कर्म
पौरपत्र, सर्वेषामग्रेसरत्वमिति भावः, तच्चाग्रेसरत्वं नायकत्वमन्तरेणापि स्वनायकनियुक्ततथाविधगृहचिन्तकसामान्य॥ पुरुषस्येव, ततो नायकत्वप्रत्तिपत्त्यर्थमाह-'स्वामित्व' स्वमस्यास्तीति स्वामी तद्भावः स्वामित्वं नायकत्वमित्यर्थः, तदपि
|घ नायकत्वं पोषकत्वमन्तरेणापि भवति यथा मृगयूथाधिपतेर्मगस्य, तत आह-भर्तृत्व-पोषकत्वं, 'डभृञ् धारणपोषण॥ यो रिति वचनात् , अत एव महत्तरकत्वं, महत्तरकत्वं कस्यचिदाज्ञाचिकलस्थापि भवति यथा कस्पचिद्वणिजः स्वदास-8
दासीवर्ग प्रति, तत आह-आज्ञया ईश्वरः आज्ञेश्वरः सेनायाः पतिः सेनापतिः आज्ञेश्वरश्चासौ सेनापतिश्च आज्ञेश्वरसे-18 | नापतिः तस्य कर्म आशेश्वरसेनापत्यं स्वसैन्य प्रत्यद्भुतमाज्ञाप्राधान्यमित्यर्थः कारयन् अन्यैर्नियुकैः पुरुषः पालयन स्वय-131
मेव, महता 'रवेणे'ति योगः 'अहय'त्ति आख्यानकप्रतिबद्धानि यदिवा अहतानि-अव्याहतानि नित्यानुबन्धानीति भावः, 18| ये नाट्यगीते नाव्य-नृत्यं गीत-गानं यानि च वादितानि तन्त्रीतलतालटितानि, तन्त्री-वीणा तलो-हस्ततलस्ताल:--
शिका त्रुटितानि-शेषतूर्याणि, तथा यश्च घनमृदङ्गो-मेघसदृशध्वनिर्मुरजः पटुना पुरुषेण प्रवादितस्तत एतेषां द्वन्द्वस्तेषा रवेण-नादेन सहकारिभूतेन दिवि भवान् दिव्यान् अतिप्रधानानिति, तथा भोगार्हाः भोगाः-शब्दादयो भोगभोगाः, अथवा ||
अनुक्रम [७.८०
Locaekeseceaeewanaरहस्य
Rectersecenesentestatese
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
---------- मूलं [७-८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[७,८]
दीप
श्रीजम्बू
भोगेभ्य-औदारिककायभावेभ्योऽतिशयिनो भोगा भोगभोगास्तान भुञ्जान:-अनुभवन् विहरति-आस्ते, अन व्यत्ययः वक्षस्कारे द्वीपशा- 18|| प्राकृतत्वात् , से एएणद्वेण मित्यादि, तत एतेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते-विजयं द्वारं विजयं द्वारमिति, विजयाभिधान-
1जम्बूद्वीप न्तिचन्द्री
|| देवस्वामिकत्वाद्विजयो देवः स्वामित्वेनास्यास्तीति वा अभ्रादित्वादप्रत्यये विजयमिति भावः, देवस्य विजयाभिधानता या चिः
118 च यो यः पूर्वद्वाराधिपतिरुत्पद्यते देवः स स तत्सामानिकादिभिर्देवैः विजयो विजय इत्याहूयते, तत्स्थितिप्रतिपादके 18 ॥६३॥ कल्पपुस्तके तथाभिधानात् , “अदुत्तरं च णं गोअमा! विजयस्सणं दारस्स सासए णामधिजे पण्णत्ते, जंण कयाइ णासि 8
ण कयाइ णस्थिण कयाइण भविस्सइ जाव अवहिए णिचे विजए दारे" अथापरमपि विजयद्वारनामप्रवृत्ती कारणं गौतम!8 विजयस्य द्वारस्य विजयमिति नामधेयं शाश्वतम्-अनादिसिद्धं प्रज्ञप्त, शेष सुगम, एतत्सूत्र वृत्तावदृष्टव्याख्यानमपि जीवाभिगमसूत्रबहादशेषु दृष्टवाल्लिखितमस्तीति । एतेन विजयद्वारवर्णकः उक्तः, अथ राजधानीवर्णको यथा-कहिण भंते ! विजयस्त देवस्स विजया णामं रायहाणी पण्णता, गोयमा विजयस्स दारस्स पुरथिम तिरिअमसंखिजे दीवसमुद्दे बीईवइत्ता अण्णमि जंबुदीचे दीये पारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता, एत्थ ण विजयस्स देवस्स विजया णामं रायहाणी || पण्णत्ता इत्यारभ्य विजए देवे २'इत्यन्तं सूत्रं ज्ञेयं, अत्र प्रश्नसूत्रं सुगम, निर्वचनसूत्रे विजयद्वारस्य पूर्वस्यां दिशि तिर्यगसोयान द्वीपसमुद्रान् व्यतिव्रज्य-अतिक्रम्यानान्तरे योऽन्यो जम्बूद्वीपोऽधिकृतद्वीपतुल्याभिधानः, अनेन जम्बूद्वीपानामसाधेयत्वं सूचयति, तस्मिन् द्वादश योजनसहस्राण्यवगाह्य अत्रान्तरे विजयस्य देवस्य विजया नाम राजधानी प्रज्ञप्ता
90908090090982900000
अनुक्रम [७,८]
SO9092c
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
----------- मूलं [७-८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[७,८]
मयाऽन्यैश्च तीर्थकृद्भिरित्यादि तावद् वाच्यं-यावनिर्गमनसूत्रे विजयो देवो २ इति, अत्र च प्रारब्धोऽपि जीवाभिगमोतविजयानामराजधानीवर्णकः सामस्त्येन यन्न लिखितस्तद् ग्रन्थविस्तरभयात् वक्ष्यमाणयमकाराजधाम्यधिकारे एवंवि-|| धवर्णकस्य साक्षाद्विद्यमानत्वेन ब्याख्यास्यमानत्वाञ्चेति, अन प्रस्तुतसूत्रे शेषद्धाराणां सराजधानीकानां स्वरूपकथनायातिदेशमाह-एवं चत्तारिवी'त्यादि, एवं विजयद्वारप्रकारेण चत्वार्यपि जम्बूद्वीपस्य द्वाराणि सराजधानीकानि भणितव्यानि, ननु विजयद्वारस्य वर्णितत्वात् सूत्रे कथं चतुरिविषयकोऽतिदेशः समसूत्रि!, उच्यते, अतिदेश्यातिदेशप्रतियोगिनोरत्यन्ततुल्यवर्णकत्वप्रतिपादनार्थ, ततश्च यथा विजयद्वारस्य वर्णकस्तथा वैजयन्तजयन्तापराजितद्वाराणामपि यथा चामीषां त्रयाणां तथा विजयद्वारस्यापि, यथा विजयराजधान्या वर्णकस्तथा वैजयन्ताजयन्तापराजि
ताराजधानीनामपि यथा च तासां तिसृणां तथा विजयाराजधान्या अपीत्यर्थः सिद्धः, अस्ति चायं न्यायः, 'एगे जिए, IS| जिआ पंच'इत्यादी तथा दर्शनात् , अमूनि च द्वाराणि पूर्वद्विक्तः प्रादक्षिण्येन नामतो ज्ञेयानि, तथाहि-पूर्वस्या विजय
दक्षिणस्यां वैजयन्तं पश्चिमायां जयन्तं उत्तरस्यामपराजितं चेति, अत्र वैजयन्तादिद्वाराणामपि जीवाभिगमत एव प्रश्न
निर्वचनरूपा आलापका वेदितव्याः, तथाहि-कहि णं भंते! जंबुद्दीवस्स दीवस्स वेजयंते णाम दारे पण्णते?, गोअमा! ॥ जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पबयस्स दाहिणेणं पणयालीसं जोअणसहस्साई अबाहाए जंबुद्दीवदीवदाहिणपेरते लवणसमुद्ददा
हिणद्धस्स उत्तरेण एत्थ णं जंबुद्दीवस्स २ वेजयंते णाम दारे पण्णत्ते अहजोअणाई उई उचत्तेणं सच्चेव सबा वत्तबया
easeenaceaeseserwesents
दीप
अनुक्रम [७.८०
JinEliminatemaions
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
---------- मूलं [७-८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[७,८]
दीप
श्रीजम्बू- शिजाव णिचे, रायहाणी से दाहिणेणं जाव वेजयंते देवे २' इति, तथा 'कहिणं भंते ! जंबुद्दीवस्स दीवस्स जयंते णामं जाव णिच, रायहाणार
वक्षस्कारे द्वीपशा- दारे पण्णते?, गोअमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पबयस्स पञ्चत्थिमेणं पणयालीसं जोअणसहस्साई अचाहाए जंबुद्दीव- जम्बूद्वीपन्तिचन्द्री- पञ्चत्थिमपेरते लवणसमुद्दपञ्चस्थिमद्धस्स पुरथिमेणं सीओआए महाणईए उपि एत्य णं जंबुद्दीवस्स दीवस्स जयंते बारा
राणामं दारे पण्णत्ते, तं चेव से पमाणं, जयंते देवे, पचत्थिमेणं से रायहाणी जाव जयंते देवे २"इति, तथा "कहिणं भंते! जंबुदीवस्स २ अपराजिए णामं दारे पण्णते?, गो०! मंदरस्स उत्तरेणं पणयालीसं जोअणसहस्साई अबाहाए जंबुद्दीवे दीवे उत्तरपेलंते लवणसमुद्दे उत्तरस्स दाहिणणं एत्थ ण जंबुद्दीवे दीवे अपराइए णामं दारे पण्णते, तं चेव पमाणं, राय| हाणी उत्तरेणं जाव अपराइए देवे २, चउण्हवि अण्णंमि जंबुद्दी'इति, अत्र व्याख्या-क भदन्त ! जम्बूद्वीपस्य २ वैज-15 यन्त नाम द्वारं प्रज्ञप्तं ?, भगवानाह-गौतम! मन्दरस्य दक्षिणेन-दक्षिणस्यां दिशि पञ्चचत्वारिंशद्योजनसहस्राण्यबाधया बाधनं बाधा-आक्रमणमिति न वाधा अबाधा-दूरवर्तित्वेनानाक्रमणमपान्तरालमित्यर्थः, तथा (या) कृत्वेति । गम्यते, अपान्तराले मुक्त्वा इति भावः, जम्बूद्वीपद्वीपदक्षिणपर्यन्ते लवणसमुद्रदक्षिणार्द्धस्योत्तरेण जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य | वैजयन्तं नाम्ना द्वारं प्रज्ञप्त, अष्टौ योजनान्यूर्वोचत्वेनेत्यादिका सैव विजयद्वारसम्बन्धिन्येव सर्वा वक्तव्यता याव- ॥६ ॥ नित्यं वैजयन्तमिति नाम, क्व भदन्त ! वैजयन्तस्य देवस्य वैजयन्तानाम्नी राजधानी इत्यादि सर्व प्राग्वत् , वैजयन्तो देवो वैजयन्तो देव इति, एवं जयन्तापराजितद्वारवक्तव्यतापि वाच्या, नवरं जयन्तद्वारस्य पश्चिमायां दिशि
अनुक्रम [७.८]
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आगम (१८)
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [१], ----------------- --------------------------- मल [९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
गाथा
जयन्ता राजधानी अपराजितद्वारस्य चोत्तरस्यां दिशि अपराजिता राजधानी तिर्यगसोयान द्वीपसमुद्रान व्यतित्रज्येति | वाच्यं । सम्पति विजयादिद्वाराणां परस्परमन्तरं प्रतिपिपादयिषुराह
जंबुद्दीवस्स णं भंते ! दीवस्स दारस्स य दारस्स य केवइए अबाहाए अंतरे पण्णते ?, गो०! अउणासीई जोअणसहस्साईबावणं | च जोगाई येसूणं च अद्धजोअणं दारस्स य २ अबाहाए अंतरे पण्णते, अषणासीइ सहस्सा बावणं चेव जोअणा हुँति । ऊर्ण
च अद्धजोमण वारंतर जंबुद्दीवस्स ॥१॥ (सूत्रं ९)
'जंबुद्दीषस्स ण'मित्यादि, जम्बूद्वीपस्य, णमिति प्राग्वत् , भदन्त ! द्वीपस्य सम्बन्धिनो बारस्य च द्वारख च किवत्|किंप्रमाणं 'अवाहाए अंतरे'त्ति बाधा-परस्परं संश्लेषतः पीडन न बाधाऽबाधा तयाऽबाधया यदन्तरं व्यवधानमित्यर्थः प्रज्ञप्त, इहान्तरशब्दो मध्य विशेषादिष्वर्थेषु वर्तमानो दृष्टस्ततस्तव्यवच्छेदेन व्यवधानार्थपरिग्रहार्थमबाधाग्रहणं, अत्र निर्वचनं भगवानाह-गौतम! एकोनाशीतियोंजनसहस्राणि द्विपञ्चाशयोजनानि देशोनं चाईयोजनं द्वारस चहा द्वारस्य चाबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तं, तथाहि-जम्बूद्वीपपरिधिः प्राग्निर्दिष्टो योजनानि तिम्रो लक्षाः पोडश सहस्राणि द्वे शते सप्तविंशत्यधिके ११६२२७ कोशत्रयं । अष्टाविंशं धनुःशतं १२८ त्रयोदशाङ्गुलानि १३ एकम ङ्गल १ मिति, अस्माद् द्वारचतुष्कविस्तारोऽष्टादशयोजनरूपोऽपनीयते, यत एकैकस्य द्वारस्य विस्तारो योजनानि चत्वारि ४ प्रतिद्वारं 81 द्वारशाखाद्वयविस्तरश्च कोशद्वयं २, अस्मिंश्च द्वारस्य शाखयोश्च परिमाणे चतुर्गुणे जातान्यष्टादश योजनानि १८,18
दीप अनुक्रम [९-१०]
S
Elemminine
अथ विजय-आदि द्वाराणां परस्पर अंतरं कथ्यन्ते
~140
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आगम
(१८)
***
प्रत
सूत्रांक
[s]
गाथा
दीप
अनुक्रम [९-१०]
वक्षस्कार [१],
मूलं [९] + गाथा
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र- [७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री
या वृचि
॥ ६५ ॥
Jemim
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्ति:)
ततस्तदपनयने शेषपरिधिसत्कस्यास्य योजनरूपस्य २१६२०९ चतुर्भागे लब्धानि योजनानि एकोनाशीतिः सहस्राणि द्विपञ्चाशदधिकानि ७९०५२ कोशश्चैकः १, तथा परिधिसत्कस्य क्रोशत्रयस्य धनुःकरणे जातानि धनुषां षट् सहस्राणि ६०००, एषु च परिधिसत्काष्टाविंशत्यधिकधनुः शतस्य क्षेपे जातानि धनुषामेकषष्टिश तान्यष्टाविंशत्यधिकानि ६१२८ ततोऽस्य चतुर्भिर्भागे लब्धानि पंचदश शतानि द्वात्रिंशदधिकानि १५३२, यानि च परिधिसत्कत्रयोदश १३ अङ्गुलानि | तेषामपि चतुर्भिर्भागे लब्धानि त्रीण्यङ्गुलांनि ३, शेषे चैकस्मिन्नङ्गुले यवाः अष्टौ ८ एषु परिधिसत्कयवपञ्चक ५ क्षेपे जातात्रयोदश यवाः १३ एषां च चतुर्भिर्भागे लब्धास्त्रयो यवाः ३, शेषे चैकस्मिन् यवे यूकाः अष्टौ ८ आसु परिधिसकैकयूकाक्षेपे जाता नव ९ आसां चतुर्भिर्भागे लब्धे द्वे यूके २, शेषस्याल्पत्वान्न विवक्षा, एतच्च सर्व देशोनमेकं गव्यू| तमिति जातं पूर्वलब्ध गन्यूतेन सह देशोनमर्द्धयोजनमिति, इममेवार्थ 'द्विर्वद्धं सुबद्ध' मिति अबद्धसूत्रतो बद्धसूत्रं लाघ| वरुचिसत्त्वानुग्राहकमिति वा गाथथाऽऽह - 'अउनासी 'ति, अत्र विभक्तिलोपः प्राकृतत्वात् । अथ चतुर्थप्रश्न एव आका|रभावप्रत्यवताररूपे भरतवर्षस्वरूपं जिज्ञासुः पृच्छति
कहि णं भंते! जंबुद्दीचे दीवे भरद्दे णामं वासे पण्णचे १, गो० ! चुतहिमवंतस्स वासहरपवयस्स दाहिणेणं दाहिण लवणसमुदस्स उत्तरेणं पुरस्थिमलवणसमुद्दस्स पश्चत्थिमेणं पश्चत्थिमलवणसमुद्दस्स पुरत्थिमेणं, एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे भरहे णामं वासे पण्णत्ते, खाणुबहुले कंटकबहुले विसमबहुले दुग्गाबहुले पवयबहुले पवायबहुले उज्झरबहुले णिज्झरबुदुले खड्डाबहुले दरिबहुले गईबहुले दरबहुले रुक्खबहुले
अथ भरतक्षेत्रस्य स्वरुपम् वर्ण्यते
Fur Ele&ae Cy
~ 141 ~
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१वक्षस्कारे
विजयादिद्वारान्तरा०
सू. ९
114 11
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ----------------------
-------- मूलं [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०]
गुच्छबहुले गुग्गपहले लबाबहुले वल्लीबहुले अडवीबहुले सावयवहुले तणबहुले तकरबहुले डिम्बबहुले डमरबहुले दुभिक्खबहले दुकालबहुले पासंडबहुले किवणबहुले वणीमगबहुले ईतिबहुले मारिबहुले कुबुट्टिबहुले अणावुट्ठिबहुले रायबहुले रोंगबहुले संकिलेसबहुले अभिक्षण अभिक्खणं संखोहबहुले पाईणपढीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे उत्तरओ पलिअंकसंठाणसंठिए वाहिणओ धणुपिट्ठसंठिए तिधा लवणसमुदं पुढे गंगासिंधूहि महाणईहि वेअड्डेण य पञ्चएण छब्भागपविभत्ते जंबुरीवदीवणव्यसयभागे पंचछवीसे जोअणसए छच एगूणवीसइभाए जोअणस्स विक्रमेणं । भरहस्स णं वासस्स बहुमंझदेसभाए एत्थ णं वेअ णामं पबए पण्णत्ते, जे णं भरहं वासं दुहा विभयमाणे २ चिट्ठई, तं०-दाहिणभरहं च उत्तरतुभरहं च (सूत्रं १०) 'कहिणं भते'त्ति मच्छकापेक्षया आसन्नत्वेन प्रथम भरतस्यैव प्रश्नसूत्र,क भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतं नाम्ना वर्ष प्रज्ञप्तं !,१॥ भगवानाह-गौतम! 'चुल्लहिमवंते'त्यादि, चुल्लशब्दो देश्यः क्षुल्लपर्यायस्तेन क्षुल्लो-महाहिमषदपेक्षया लघुयों हिमवान् वर्षधर-1
पर्वतः क्षेत्रसीमाकारी गिरिविशेषस्तस्य दक्षिणेन दक्षिणस्यां दिशि दाक्षिणात्यलवणसमुद्र स्योत्तरस्यां पौरस्त्यलवणसमुद्रस्य । पश्चिमायां पाश्चात्यलवणसमुद्रस्य पूर्वस्यां दिशि अत्रावकाशे भरतं नाम्ना वर्ष प्रज्ञप्त,किंविशिष्टं तदित्याह-स्थाणवः-कीलकाये | || छिन्नावशिष्टवनस्पतीनां शुष्कावयवाः कुंठा इति लोकप्रसिद्धाः तैर्बहुलं-प्रचुरं व्याप्तमित्यर्थः अथवा स्थाणवो बहुला यत्र तत्त
था, एवं सर्वत्र पदयोजनाज्ञेया, तथा कण्टका-वदर्यादिप्रभवाः विषम-निनोक्षत स्थानं दुर्ग-दुर्गमं स्थान पर्वता:-क्षुद्रगिरयः181 प्रपाता-भृगवो यत्र मुमूर्षचो जना झम्पां ददति अथवा प्रपाता-रात्रिधाव्यः अवझरा-गिरितटादुदकस्याधःपतनानि तान्येव
अनुक्रम [११]
అని వివరించింది అని
-
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१०]
दीप
अनुक्रम
[११]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [१०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बद्वीपशाविचन्द्री
या वृचिः
॥ ६६ ॥
Jan Eikentinienatini
| सदावस्थायीनि निर्झराः गर्दाः- प्रसिद्धाः दय-गुहाः नद्यो द्रहाश्च प्रतीताः वृक्षाः रूक्षा वा सहकारादयः गुच्छा-वृन्ता| कीप्रभृतयः गुल्मा-नवमालिकादयः छताः- पद्मलताद्याः वल्ल्यः -- कूष्माण्डी प्रमुखाः, अत्र नदीद्रहवृक्षादिवनस्पतीना| मशुभानुभावजनितानामेव बाहुल्यं बोध्यं नतु एकान्तसुषमादिकालभावि तथाविधशुभानुभावजनितानां तेषां प्रायः प्रशापककालेऽल्पीयस्त्वात्, अटव्यो- दूरतरजननिवासस्थाना भूमयः श्वापदा-हिंस्रजीवाः स्तेना:- चीराः तदेव कुर्व| न्तीति निरुकितस्तस्कराः-सर्वदा चौर्यकारिणः डिम्बानि - स्वदेशोत्थविशवा डमराणि परराजकृतोपद्रवाः दुर्भिक्षं-भिक्षाचराणां भिक्षादुर्लभत्वं, दुष्कालो धान्यमहार्घतादिना दुष्टः कालः पाखण्डं पाखण्डिजनोत्थापितमिथ्यावादः कृपणाः प्रतीताः वनीपका-याचका ईतिः- धान्याद्युपद्रवकारिशलभमूषिकादिः मारि:- मरकः कुत्सिता दृष्टिः कुदृष्टिः कर्षकजनानभिलषणीया दृष्टिरित्यर्थः, अनावृष्टिः वर्षणाभाव इति राजानः- आधिपत्यकर्त्तारः तद्वाहुल्यं च प्रजानां पीडाहेतुरिति रोगाः संक्केशाश्च व्यक्ताः, अभीक्ष्णं २- पुनः पुनर्दण्डपारुष्यादिना संक्षोभाः - चित्तानवस्थितता प्रजानामिति शेषः, इदं च सर्व विशेषणजातं भरतस्य प्रज्ञापकापेक्षया मध्यमकालीनानुभावमेव व्यावर्णितं, तेनोत्तरसूत्रे एकान्तसुषमादावस्य बहुसमरमणीयत्वातिस्निग्धत्वादिकमेकान्तदुष्पमादी निर्वनस्पतिकत्वाराजत्वादिकं च वक्ष्यमाणं न विरुध्यते इति । प्रागेव प्राचीनं, स्वार्थे ईनप्रत्ययः, दिग्विवक्षायां प्राचीनं पूर्वा इत्यर्थः एवं प्रतीचीनोदीचीने अपि वाच्ये, तेन पूर्वापरयोर्दिशोरायतं उदीचीदक्षिणयोदिशोविंस्तीर्ण, अथवा प्राचीनप्रतीचीनावयवयोरायतमेवमुत्तरत्रापि, अथ तदेव
Fur Fate & Pune Cy
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१वक्षस्कारे भरतक्षेत्र
.
१०
॥ ६६ ॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [8], -----------------------
------ मूलं [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१०]
13 संस्थानतो विशिनष्टि-उत्तरतः-उत्तरस्यां दिशि पर्यङ्कस्येव संस्थितं-संस्थानं यस्य तत्तथा, दक्षिणतो-दक्षिणस्यां दिशि || | आरोपितज्यस्य धनुषः-कोदण्डस्य पृष्ठ-पाश्चात्यभागस्तस्येव संस्थितं-संस्थानं यस्य तत्तथा, अत एवास्य धनुःपृष्ठशरजीवाबाहानां सम्भवः, एषां च स्वरूप स्वस्वावसरे निरूपयिष्यति, त्रिधा-पूर्वकोटिधनुःपृष्ठापरकोटिभिलवणसमुद्रक्रमेण पूर्वदक्षिणापरलवणसमुद्रावयर्व स्पृष्टं-धातूनामनेकार्थत्वात् प्राप्त, ग्रामप्राप्त इत्यादिवत् कर्तरि प्रत्ययः, अयमर्थः-पूर्वकोठ्या पूर्वलवणसमुद्रं धनुःपृष्ठेन दक्षिणलवणसमुद्रं अपरकोठ्या पश्चिमलवणसमुद्रं संस्पृश्य स्थितमित्ति, अथेदमेव पट्खण्डविभजनद्वारा विशिनष्टि-गङ्गासिन्धुभ्यां महानदीभ्यां वैताढ्येन च पर्वतेन पटसंख्या भागाः पड्भागा-14 | स्तर्विभक्तं, अयमर्थ:-अनन्तरोदितैत्रिभिर्दक्षिणोत्तरयोः प्रत्येकं खण्डत्रयकरणेन भरतस्य षट् खण्डानि कृतानीति । अथ यदि जम्बूद्वीपैकदेशभूतं भरतं तर्हि विष्कम्भतः तस्य कतितमे भागे तदित्याह-'जंबुद्दीवे'त्यादि, जम्बूद्वीपद्वीपस्य-जम्बूद्वीपविष्कम्भस्य नवत्यधिकशततमो यो भागस्तस्मिन् इति, अथ नवत्यधिकशततमभागे कियन्ति योजनानीत्याह-'पश्च पड्विंशत्यधिकानि योजनशतानि षट् च योजनस्यैकोनविंशतिभागान् , कोऽर्थः?-यादशैरेकोनविंशतिभागैः समुदि-18
योजनं भवति तादृशान् षट् भागान् इति, विष्कम्भेन-विस्तारेण शरापरपर्यायेणेति, अबाकस्थापना यथा-५२६पा, अर्थ भावः-जम्बूद्वीपविस्तारस्य लक्षयोजनरूपस्य नवत्यधिकशतेन भागे लब्धं ५२६ योजनानि एतावानेव च। । भरतविस्तारः, ननु भाजकराशिर्नवत्यधिकशतरूपः षड्भागास्तु योजनकोनविंशतिकलारूपा इति विसदृशमिव प्रति
Secesesecenes
KartootBeatata.ccccceletstrees
अनुक्रम [११]
भीजम्यू. १२
~144
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१०]
दीप
अनुक्रम
[११]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [१०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृतिः
॥ ६७ ॥
Junketintemat
भाति, उच्यते, गणितनिपुणानां सर्वं सुज्ञानमेव, तथाहि - जम्बूद्वीपव्यासस्य योजनलक्ष १००००० मितस्य नवत्य|धिकशतभक्तस्यावशिष्टः षष्टिरूपो राशिर्भागदानासमर्थ इति भाज्यभाजकराश्योर्दशभिरपवर्त्ते जाता भाग्यराशी षट् ६ भाजकराशी १९ इति सर्वं सुस्थं, ननु नवत्यधिकशतरूपभाजकाङ्कोत्पत्तौ किं वीजमिति १, उच्यते, एको भागो भरतस्य द्वौ भागौ हिमवतः पूर्वक्षेत्रतो द्विगुणत्वात् चत्वारो हैमवतक्षेत्रस्य, पूर्ववर्षधरतो द्विगुणत्वात्, अष्टौ महाहिमवतः पूर्वक्षेत्रतो द्विगुणत्वात् षोडश हरिवर्षस्य, पूर्ववर्षधरतो द्विगुणत्वात्, द्वात्रिंशन्निषधस्य, पूर्वक्षेत्रतो द्विगुणत्वात्, 'सर्वे मिलिताः ६३, एते मेरोर्दक्षिणतस्तथोत्तरतोऽपि ६३ विदेहवर्षं तु ६४ भागाः, सर्वाग्रेण एतैर्भागैर्दक्षिणोत्तरतो जम्बूद्धीपयोजनलक्षं पूरितं भवति, तत एतावान् भाजकाङ्कः १९० नवत्यधिकं शतं भागानामिति । अथ यदुक्तं “गंगासिंधूहिं महाणईहिं वेयद्वेण य पवएणं छम्भागपविभत्ते" इत्यत्र वैताढ्यस्य स्वरूपप्ररूपणाय सूत्रमाह-'भरहस्य ण'मित्यादि, भरतस्य वर्षस्य बहुमध्यदेशभागे वैजयन्तद्वारात् त्रिकलाधिकसाष्टत्रिंशदद्विशतयोजनातिक्रमे पञ्चाशयोजनक्षेत्रखण्डे, अत्र वैताढ्यो नाम पर्वतः प्रज्ञप्तः, यो णमिति प्राग्वत् भरतं वर्ष द्विधा विभजन् २, समांशतया चक्रवर्त्तिकाले च समस्वामिकतया तथाऽम्बैरपि प्रकारैर्द्वयोरपि तुल्यताद्योतनार्थमि (थं विभजनमि) ति । तत्रादावासन्नत्वेन दक्षिणार्द्धभरतं कास्तीति प्रश्नयति
कहि णं भंते! जंबुद्दी दीवे दाहिणडे भरहे णामं वासे पण्णत्ते ?, गो० । वेवद्धस्स पवयस्स दाहिणेणं दाहिणलवणसमुदस्स
अथ दक्षिणार्धभरतक्षेत्रस्य वर्णनं क्रियते
For Prat&P Cy
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१ वक्षस्कारे भरतखरूपं
सू. १००
॥ ६७ ॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
-------- मूलं [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[११]
उत्तरेणं पुरस्थिमलवणसमुदस्स पचत्यिमेणं पञ्चत्थिमलवणसमुरस्स पुरथिमेणं एत्य णं जंबुदीचे दीवे दाहिणभरहे णामं वासे पण्णत्ते पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे अद्धचंदसंठाणसंठिए तिहा लवणसमुदं पुढे, गंगासिंधूहि महाणईहिं विभागपवि. भचे दोणि अद्वतीसे जोअणसए तिणि अ एगूणवीसइभागे जोयणस्स विक्खंभेणं, तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहा लवणसमुदं पुहा पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिनिलं लवणसमुदं पुट्ठा पञ्चस्थिमिलाए कोटीए पञ्चथिमिलं लवणसमुदं पुट्ठा णव जोयणसहस्साई सत्त य अडयाले जोयणसए दुवालस य एगूणवीसइभाए जोयणस्स आयामेणं तीसे धणुपुढे दाहिणेणं णव जोयणसहस्साई सत्तछाबडे जोयणसए इक्कं च पगूणवीसहभागे जोयणस्स किंचिविसेसाहिलं परिक्खेवणं पण्णत्ते, दाहिणभरहस्स ण भंते ! बासस्स कॅरिसए आयारभावपढोयारे पण्णत्ते!, गो०! बहुसमरमणिज्ने भूमिभागे पण्णत्ते, से जहा णामए आलिंगपुक्खरेइवा जाव णाणाविह पचवण्णेहिं मणीहि वणेहिं उवसोभिए, तंजहा-कित्तिमेहिं चेव अकित्तिमेहिं चेव, वाहिणभरहे णं भंते! बासे मणुयाणं केरिसए यारभावपडोयारे पण्णत्ते !, गोयमा। ते णं मणुआ बहुसंघयणा बहुसंठाणा बहुलचत्तपज्जवा बहुभाउपज्जवा बहूई वासाइं आउं पालेंति, पालिसा अप्पेगइया णिरयगामी अपेगइया तिरियगामी अप्पेगइया मणुषगामी अप्पेगइया देवगामी अप्पेगइआ सिजति बुझंति मुञ्चंति परिणिवायति सबदुक्खाणमंत करेंति (सूत्र ११)
'कहि णं भंते !' इत्यादि, इदं च सूत्रं पूर्वसूत्रेण समगमतया विवृतमार्य, नवरं अर्द्धचन्द्रसंस्थानसंस्थितत्वं तु दक्षिणभरतार्द्धस्य जम्बूद्वीपपट्टादावालेखदर्शनाद् व्यक्तमेव, तथा त्रिसंख्या भागास्त्रिभागास्तैः प्रविभक्तं, तत्र पौरस्त्यो भागो
अनुक्रम [१२]
SNElecomnitiNI
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[११]
दीप
अनुक्रम
[१२]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [११]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र- [७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्विचन्द्री - या वृत्तिः
॥ ६८ ॥
गङ्गया पूर्वसमुद्रं मिलन्त्या कृतः, पाश्चात्यो भागस्तु सिध्वा पश्चिमसमुद्रं मिलन्त्या कृतः, मध्यमभागस्तु गङ्गासिन्धुभ्यां कृत इति द्वे अष्टत्रिंशदधिके योजनशते त्रीकोनविंशतिभागान् योजनस्य विष्कम्भेन, किमुक्तं भवति ! - पट्कलाधिकषविंशपञ्चशतयोजन ५२६ भरतविस्तारा द्वैताद्व्य विस्तारे ५० योजनमिते शोधितेऽवशिष्टं चत्वारि योजनशतानि षट्सप्तत्यधिकानि षट् च कलाः ४७६ एतदर्जे द्वे योजनानां शते अष्टत्रिंशदधिके तिस्रश्चापराः कलाः २३८३ | इत्येवंरूपं यथोक्तं मानं भवति, एतेनास्य शरप्ररूपणा कृता, शरविष्कम्भ योरभेदादिति । अथ जीवासूत्रमाह- 'तस्स जीवेत्यादि, तस्य दक्षिणार्द्धभरतस्य जीवेव जीवा-ऋज्वी सर्वान्तिमप्रदेशपक्तिः, उत्तरेण- उत्तरस्यां मेरुदिशीत्यर्थः, प्राचीने पूर्वस्यां प्रतीचीने-अपरस्यां चाऽऽयता - आयामवती द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टा-छुप्तवती इदमेषार्थं द्योतयति' पुरत्थिमिहाए' इति पूर्वया कोट्या-अग्रभागेन पौरस्त्यं लवणसमुद्रावयवं स्पृष्टा पाश्चात्यया कोव्या पाश्चात्यं लवणसमुद्रावयवं स्पृष्टा, नव योजनसहस्राणि अष्टचत्वारिंशानि - अष्टचत्वारिंशदधिकानि सप्त योजनशतानि द्वादश चैकोनविंशतिभागानू योजनस्यायामेन ९७४८ २ यच्च समवायाङ्गसूत्रे - ' दाहिणहभरहस्स णं जीवा पाईणपडीणायया दुहओ लवणसमुई पुट्ठा णव जोअणसहस्साई आयामेण मित्युक्तं तत्सूचामात्रत्वात् सूत्रस्य शेषविवक्षा न कृता, वृत्तिकारण तु जयमवशिष्टराशिरूपो विशेषो गृहीत इति, अत्र सूत्रेऽनुकापि जीवानयने करणभावना दर्श्यते, तथाहि--जम्बूदीपव्यासाद्विवक्षितक्षेत्रेषुः शोध्यते, ततो यज्जातं तत्तेनैवेषुणा गुण्यते, ततः पुनञ्चतुर्भिर्गुण्यते, इत्थं ससंस्कारो दे
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Fur Fate &P Cy
१वक्षस्कारे दक्षिणंभरतार्थ सू. ११
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ------------------------
------ मूलं [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[११]
दीप
Recenecesseeeeeees
रासिर्विवक्षितक्षेत्रस्य जीवावर्ग इत्युच्यते, अस्माच्च मूले गृह्यमाणे यल्लभ्यते तज्जीवाकलामानं, तस्य चैकोनविंशत्या भागे योजनराशि शेषश्च कलाराशिः, तत्र जीवादिपरिज्ञानं चेषुपरिमाणपरिज्ञानाविनाभावि, तच्चन परिपूर्णयो-101 जनसंख्या किन्तु कलाभिः कृत्वा सातिरेकमिति विवक्षितक्षेत्रादेरिपुः सवर्णनाथं कलीक्रियते, सच कलीकृतादेव जम्बूद्वीपच्यासात् सुखेन शोधनीय इति मण्डलक्षेत्रव्यासोऽपि १ शून्य ५ रूपः कलीकरणायकोनविंशत्या गुण्यते, जातः १९ शून्यः ५, ततो दक्षिणभरतार्थेषोः साष्टत्रिंशद्विशतयोजन मितस्य कलीकृतस्य प्रक्षिप्तोपरितनकलात्रिकस्य ४५२५ रूपस्य शोधने जातः १८९५४७५, ततश्च दक्षिणा षुणा ४५२५ रूपेण गुण्यते जातः, ८५७७०२४३७५, अयं चतुर्गुणः ५४३०८०९७५००, एष दक्षिणभरतार्द्धस्य जीवावर्गा, एतस्य वर्गमूलानयनेन लब्धाः कलाः १०५२२४,18 शेष कलांशाः १६७३२४, छेदराशिरषः १७०४४८, लब्धकलानां १९ भागे योजन ९७४७ कलाः १२, इवं दक्षिणभरतार्बजीचा, एवं वैताब्यादिजीवास्वपि भाव्य, यावद्दाक्षिणात्यविदेहार्द्धजीवा, एवमुत्तररावतार्द्धजीवा यावदुत्तरार्ज-18 विदेहजीवापीति । अथ दक्षिणभरतार्द्धस्य धनुःपृष्ठं निरूपयति-तीसे धणुप?' इत्यादि, तस्याः अनन्तरोकाया जीवाया दक्षिणतो-दक्षिणस्यां दिशि लवणदिशीत्यर्थः धनुःपृष्ठं अधिकारात् दक्षिणभरतार्द्धस्येति, यद्वा प्राकृतत्वा-18 लिङ्गव्यत्यये तीसे इति तस्य-दक्षिणार्श्वभरतस्येति व्याख्येयं, नव योजनसहस्राणि षट्पष्टपधिकानि सप्त च योजनशतानि एक कोनविंशतिभागं योजनस्य किञ्चिद्विशेषाधिक परिक्षेपेण-परिधिना प्रज्ञप्त, अत्र करणभावना यथा
अनुक्रम [१२]
SHEle
immitraryaru
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[११]
दीप
अनुक्रम
[१२]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [११]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपा - न्तिचन्द्री
या वृचिः
॥ ६९ ॥
JE(intemat
विवक्षितेषी विवक्षितेषुगुणे पुनः पद्गुणे विवक्षितजीवावर्गयुते च यो राशिः स धनुःपृष्ठवर्ग इति व्यपदिश्यते, तस्माच्च वर्गमूले लब्धाना कलानां १९ भागे लब्धं योजनानि, अवशिष्टं कलाः, तथाहि दक्षिणभरतार्थेषुकलाः ४५२५, अस्य वर्ग: २०४७५६२५, अयं षड्गुणः १२२८५३७५० अथ दक्षिणभरतार्द्धस्य जीवावर्गः ३४३०८०९७५००, अनयोयुतिः ३४४३०९५१२५०, धनुःपृष्ठवर्गोऽयं, अस्य वर्गमूले लब्धं कलाः १८५५५५, शेषं कलांशाः २९३२२५, छेदकराशिरधस्तात् ३७१२१०, कलानां १९ भागे योजन ९७६६ कला १, ये च वर्गमूलावशिष्टाः कठांशास्तद्विवक्षयां च सूत्रकृता कलाया विशेषाधिकत्वमभ्यधायि, आह एवं जीवाकरणेऽपि वर्गमूलावशिष्टकलांशानां सद्भावात् तत्राप्युक्तकलानां साधिकत्वप्रतिपादनं न्यायप्राप्तं कथं नोक्तमिति, उच्यते, सूत्रगतेवैचित्र्यादविवक्षितत्वात्, 'विवक्षाप्रधानानि हि सूत्राणी 'ति, एवं वैताढ्यादिधनुःपृष्ठेष्वपि भाव्यं यावद्दाक्षिणात्य विदेहार्द्धधनुः पृष्ठं, एवमुत्तरत उत्तरैराव| तार्द्धधनुःपृष्ठं यावदुत्तरार्द्धविदेहधनुः पृष्ठमपीति, अत्र च दक्षिणभरतार्थे बाहाया असम्भवः अथ दक्षिणभरतार्थ स्वरूपं पृच्छन्निदमाह-'दाहिणदे'त्यादि, दक्षिणार्द्ध भरतस्य भगवन्! कीदृशः आकारस्य स्वरूपस्य भावा:- पर्यायास्तेषां प्रत्यवतारः प्रादुर्भावः प्रशप्तः १, कीदृशः प्रस्तुतक्षेत्रस्य स्वरूपविशेष इति भावः, भगवानाह - गौतम ! भरतस्य बहुसमरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः 'से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वे'त्यादिको बहुसमत्ववर्णकः सर्वोऽपि ग्राह्यः यावन्नानाविधपञ्चवर्णैः मणिभिस्तृणैश्चोपशोभितः, तद्यथेत्युपदर्शने, किंविशिष्टैर्मणिभिस्तृणैश्च १- कृत्रिमैः क्रमेण शिल्पि
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१वक्षस्कारे दक्षिणभर
तार्थ सू. ११
॥ ६९ ॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ------------------------
------ मूलं [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [११]
|कर्षकादिप्रयोगनिष्पन्नैः अकृत्रिमैः क्रमागलखानिसंभूतानुप्तसम्भूतैरुपशोभितो दक्षिणार्द्धभरतस्य भूमिभागः, अने-1॥ नास्थ कर्मभूमित्वमभाणि, अन्यथा हैमवताधकर्मभूमिष्वपि इदं विशेषणमकथयिष्यदिति, चकारौ समुच्चयायौं पवकाराववधारणाओं, अथवा चैवेत्यखण्डमव्ययं समुचयार्थ, अपिचैत्यादिवत, नन अनेन सूत्रेण वक्ष्यमाणेनोत्तरभर-113 तार्द्धवर्णकसूत्रेण च सह 'खाणुबहुले विसमबहुले कंटगबहुले' इत्यादिसामान्यभरतवर्णकसूत्र विरुध्यति, न चैते सूत्रे अरकविशेषापेक्षे सामान्यभरतसूत्रं तु प्रज्ञापककालापेक्षमिति न विरोध इति वाच्यं, मणीनां तृणानां च कृत्रिमत्वाकृत्रिमत्वभणनेनानयोरपि प्रज्ञापककालीनत्वस्यैवौचित्यात्, कृत्रिममणितृणानां तत्रैव सम्भवात्, प्रज्ञापककालश्चाव
सर्पिण्यां तृतीयारकमान्तादारभ्य वर्षशतोनदुष्पमारकं यावदिति चेत् , उच्यते, अत्र 'खाणुबहुले विसमबहुले'इत्यादि॥ सूत्रस्य बाहुल्यापेक्षयोकत्वेन कचिद्देशविशेषे पुरुषविशेषस्य पुण्यफलभोगार्थमुपसम्पद्यमानं भूमेबहुसमरमणीयत्वादिकं ।
न विरुध्यति, भोजकवैचित्र्ये भोग्यवैचित्र्यस्य नियतत्वात् , अनेनास्यैकान्तशुभैकान्ताशुभमिश्रलक्षणकालत्रयाधारकत्वमसूचि, एकान्तशुभे हि काले सर्वे क्षेत्रभावाः शुभा एव एकान्ताशुभे हि सर्वे अशुभा एव मित्रे तु क्वचिच्छुभाः कचिदशुभाः, अत एव पश्चमारकाद् यावद्भूमिभागवर्णकं बहुसमरमणीयत्वादिकमेव सूत्रकारेणाभ्यधायि षष्ठेऽरके तु एकान्ताशुभे न तथेति सर्व सुस्यं । अथ तत्रैव मनुष्यस्वरूपं पृच्छति-'दाहिणभरहे'त्यादि प्रश्नसूत्रं प्राग्वत् , निच-1 नसूत्रे भगवानाह-गौतम ! येषां स्वरूपं भवता जिज्ञासितं ते मनुजा बहूनि बज्रऋषभनाराचादीनि संहननानि-वपुढे-16
अनुक्रम [१२]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [8], ------------------------
------ मूलं [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
बलcare
प्रत
सूत्रांक
[११]
श्रीजम- बीकारकारणास्थिनिचयात्मकानि येषां ते तथा, तथा बहूनि-समचतुरस्रादीनि संस्थानानि-विशिष्टावयवरचनात्मकशरी-श्वक्षस्कारे द्वीपशा- राकृतयो येषां ते तथा, बहवो-नानाविधा उच्चत्वस्य-शरीरोच्छ्यस्य पर्यवा:-पञ्चधनुःशतसप्तहस्तमानादिका विशेषा बेताबखन्तिचन्द्रीयेषां ते तथा बहवः आयुष:-पूर्वकोटिवर्षशतादिकाः पर्यवा-विशेषा येषां ते तथा, बहूनि वर्षाणि आयुः पालयन्ति,
| रूपंसू.१२ IN पालयित्वा अपिः संभावनायां एके-केचन निरयगतिगामिनः-नरकगतिगन्तारः एवमप्येकके तिर्यग्गतिगामिनः अप्ये॥७॥ कके मनुजगतिगामिनः अप्येकके देवगतिगामिनः अप्येकके सियन्ति-सकलकर्मक्षयकरणेन निष्ठिता भवन्ति बुद्ध-1॥
न्ते-केवलालोकेन वस्तुतत्त्वं जानन्ति मुच्यन्ते भवोपमाहिकाशेभ्यः परिनिर्वान्ति-कर्मकृततापविरहाच्छीतीभवन्ति, | किमुकं भवति? -सर्वदुःखानामन्तं कुर्वन्ति, इदं च सर्व स्वरूपकथनं अरकविशेषापेक्षया नानाजीवनपेक्ष्य मन्तव्यं, | अन्यथा सुषमासुषमादावनुपपन्न स्यात् । अधास्य सीमाकारी ताब्यगिरिः वास्तीति पृच्छति
कहिणं भंते! जंबुद्दीवे २ भरे वासे वेबद्धे णामं पम्बए पण्णते?, गो! उत्तरदभरहवासस्स दाहिणणं दाहिणभरहवासस्स उत्तरेणं पुरस्थिमलवणसमुहस्स पञ्चत्थिमेणं पञ्चत्यिमलवणसमुदस्स पुरथिनेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे २ भरहे वासे वेगवे णामं पाए पण्णसे, पाईणपसीणावए उदीणवाहिणविच्छिण्णे दुहा लवणसमुदं पुढे पुरथिमिल्लाए कोटीए पुरथिमि सवणसगुर पुढे पञ्चत्थि- ॥७ ॥ मिल्लाए कोडीए पञ्चत्विमिडं लवणसमुदं पुढे, पणवीसं जोयणाई उद्धं सच्चत्तेणं छस्सकोसाई जोगणाई उहेणं पण्णास जोजणाई विक्छभेणं. ५०, तस्स बाहा पुरयिमपञ्चस्थिमेणं चचारि अवासीए जोयणसए सोलम य पीतामा जोस अद्धभाग
अनुक्रम [१२]
VAATEEKRI
अथ दक्षिणार्धभरतक्षेत्रस्य सीमाकारी वैतादयगिरि स्वरुपम् वर्ण्यते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
------- मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१२]
चं आयामेणं पण्णत्ता, तस्स जीवा उत्तरेणं पाईणपडीणायया दुहा लवणसमुदं पुठ्ठा पुरथिमिलाए कोडीए पुरथिमिलं लवणसमुई पुष्टा पञ्चथिमिलाए कोडीए पञ्चस्थिमिदं लवणसमुदं पुट्ठा दस जोयणसहस्साई सत्त य वीसे जोअणसए दुवालस व एगूणवीसइभागे जोअणस्स आवामेणं तीसे धणुपट्टे दाहिणेणं दस जोधणसहस्साई सत्त य तेआले जोयणसए पण्णरस य एगूणवीसहभागे जोषणस्स परिक्खेषेणं रुअगसंठाणसंठिए सबरययामए अच्छे संण्हे लढे घढे मढे जीरए णिम्मले णिपके णिक्कंकडच्छाए सप्पमे समिरीए पासाईए दरसणि अभिरूवे पडिरूवे। उभओ पासिं दोहिं पउमवरवेइयाहि वोहि अवणसंडेहिं सबओ समंता संपरिक्खित्ते । ताओ णं पउमवरवेइयाओ अद्धजोयणं उर्दू उत्तेणं पंचधणुसयाई विक्संभेणं पवयसमियामो आयामेणं वण्णओ भाणियो । ते णं वणसंडा देसूणाई दो जोषणाई विक्खंभेणं पउमवरवेझ्यासमगा आयामेणं किण्हा किण्होभासा जाव वण्णओ। वेयद्धस्स पञ्चयस्स पुरच्छिमपञ्चच्छिमेणं दो गुहाओ पण्णत्ताओ, उत्तरदाहिणाययाओ पाईणपढीणविस्थिष्णाओ पण्णास जोमणाई आयामेण दुवालस जोभणाई विक्रमेणं अट्ठ जोषणाई उद्धं उच्चत्तेणं वइरामयकवाडोहाहिआमओ, जमलगुअलकवानपणदुष्पवेसाओ णिश्चंधयारतिमिस्साओ ववगवगहचंदसूरणक्खत्तजोइसपहाओ जाव पडिरुवाओ तंजहा-तमिसगुहा चेव खंडप्पवायगुहा चेव, सत्थ णं दो देवा महिनीया महायुईया महाबला महायसा महासुक्खा महाणुभागा पलिओवमटिईया परिपसंति, तंजहा--- कर्यमालए चेव णमालए चेव । तेसि गं वणसंडाणं बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ वेअद्धस्स पायस्स उभो पासिं दस दस जोअणाई उद्धं उप्पइत्ता एस्थ ण दुवे विजाहरसेटीओ पण्णतामो पाईणपढीणाययाओ उदीणदाहिणविरिणामओ दस दस जोअणाई विक्खंमेणं पचयसमियाओ आयामेणं जमलो पासिं दोहि पउमवरवेइयाहिं दोहि वणसंटेहि संपरिक्खित्ताओ, ताओ गं
अनुक्रम [१३]
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250000000
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१२]
दीप
अनुक्रम [१३]
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [१२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृचि
॥ ७१ ॥
Jan Ekemiintena
पडमवरवेड्याओ अद्धजोजणं उद्धं उच्चणं पञ्च धणुसबाई विक्संभेणं पवयसमियाओ आयामेणं वण्णओ पेयो, वणसंडावि पठमबरवेइयासमगा आयामेणं वण्णओ । विवाहरसेटीणं भंते! भूमीणं केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ?, गोजमा ! बहुस मरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते से जहा णाम ए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव णाणाविह पंचबण्णेहिं मणीहिं तणेहिं उवसोभिए, जहाकित्तिमेहिं चेव अकिन्तिमेहिं चैव तत्थ णं दाहिणिल्लाए विजाहरसेटीए गगणवहभपामोक्खा पण्णासं विज्ञाहरणगरावासा पण्णत्ता, उत्तरिल्लाए विजाइरसेढीए रहनेउरचकवालपामोक्खा सहि विजाहरणगरावासा पष्णता, एवामेव सपुचावरेणं दाहिणिल्लाए उत्तरिहाए विज्जाहरसेडीए एगं दसुतरं विज्जाहरणगरावासस्यं भवतीतिमवखायं, ते विज्चाहरणगरा रिद्धत्थिमियसमिद्धा पमुइयजाणवया जाव पडिरुवा, तेसु णं विज्जाहरणगरेषु विज्जाहररायाणो परिवसंति महयाहिमवंतमलयमंदरम हिंदूसारा रायवण्णओ भाणि । विजाहरसेढीणं भंते! मणुआणं केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते गोयमा ! ते णं मणुआ बहुसंघयणा बहुसं ठाणा बहुउयतपाना बहुआउपावा जाव सखदुक्खाणमंत करेंति, तासि णं विजाहरसेढीणं बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ बेअद्धस्स पश्चयस्स उभओ पासेिं दस दस जोअणाई उद्धं उप्पइत्ता एत्थ णं दुबे आभिओगसेढीओ पण्णत्ताओ पाईणपढीणाययाओ उदीणदाहिणविच्छिष्णाओ दस दस जोजणा विक्खंभेणं पद्ययसमियाओ आयामेणं उभओ पासिं दोहिं पडमवरचेइयाहि दोहि अ वणर्सदेहिं संपरिक्खिताओ वण्णओ दोहवि पडयस मियाओ आयामेणं, अभिओगसेदीर्ण भंते । केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते !, गोमा ! बहुसमरमणि भूमिभागे पण्णत्ते जाव तहिं उबसोमिए वण्णाई जाव वणाणं सद्दोति, तासि णं अभिओगढीणं तत्थ तत्थ देसे तहिं नहिं जाव वाणमंतरा देवा य देवीओ अ आसयति सयंति जाब फलवित्तिविसेसं पचणुभवमाणा
F Frale & Pune Cy
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१वक्षस्कारे वैताढ्यखरूपं सू. १२
॥ ७१ ॥
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१२]
दीप
अनुक्रम
[१३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [१२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
Jan Eben
विरंति, तासु णं आभियोगसेटी सकस्स देविंदस्स देवरण्णो सोमजम वरुणवेसमणकाइआणं आभिओगाणं देवाणं बहवे भवणा पण्णत्ता, ते णं भवणा बाहिं वट्टा अंतो चउरंसा वण्णओ जाब अच्छरघणसंघविकिण्णा जाव पढिरूथा, तत्य णं सक्करस देविंदस्स देवरण्णो सोमजमवरुणवेसमणकाइआ बहवे आभिओगा देवा महिद्धीआ महज्जुईआ जाव महासुक्खा पलिभोवमडिया परिवसंति । तासि णं आभिओगसेढीणं बहुसमरमंणिखाओ भूमिभागाओ वेयङ्करस पवयस्स उमओ पासि पंच २ जोयणाई उद्धं उप्पइत्ता, एथ णं वेयद्धस्स पञ्चयस्स सिहरतले पण्णत्ते पाईणपडियायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे दस जोअणाई विक्संभेणं पवयसमगे आयामेणं, से णं इकाए पउमवरवेट्याए इकेणं वणसंडेणं सङ्घओ समता संपरिक्खित्ते, पमाणं वण्णगो दोण्डंपि, वेयस्स णं भंते! पवयस्स सितलस्स फेरिसए आगारभावपटोआरे पण्णत्ते, गोअमा बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते से जहा णाम ए आर्टिगपुक्खरेह वा जाव णाणाविपंचवण्णेहिं मणीहिं उबसोमिए जाव बाबीओ पुक्खरिणीओ जाब वाणमंतरा देवा व देवीओ अ आसवंति जाव भुंजमाणा विहरंति, जंबुद्दीवे णं मंते! दीवे भारहे वासे वेअङ्कपञ्चए कइ कूडा पं० १, गो० णव कूडा पं० सं०सिद्धाययणकूडे १ दाहिणड्डूभरहकुडे २ खंडप्पवायगुहाकूडे ३ माणिभद्दकूडे ४ बेअडकूडे ५ पुष्णभद्दकूडे ६ तिमिसगुहाकूडे ७ उत्तरङ्कुमरहकूडे ८ बेसमणकूडे ९ (सूत्रं १२ )
'कहि णं भंते!' इत्यादि, इदं प्रायः पूर्वसूत्रेण समगमकत्वात् कण्ठ्यं, नवरं उत्तरार्द्ध भरतादक्षिणस्यामित्यादि दिक्स्वरूपं गुरुजनदर्शितजम्बूद्वीपपट्टादेः ज्ञेयं, तथा पञ्चविंशतियोजनान्यूर्ध्वोच्चत्वेन पट् सक्रोशानि योजनान्युद्वे
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ------------------------
------- मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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ह्रीपशा
प्रत सूत्रांक [१२]
श्रीजम्यू- धेन-भूमिप्रवेशेन, मेरुवर्जसमयक्षेत्रवर्तिगिरीणां निजनिजोत्सेधचतुर्थांशेन भूम्यवगाहस्योकत्वात् , योजनपश्चविंशतेश्व- वक्षस्कारे
तुर्थाशे एतावत एव लाभात् , तथा पश्चाशद्योजनानि विष्कम्भेनेति, अन प्रस्तावादस्य शरः प्रदश्यते, स चाष्टाशी-IN वैतायखन्तिचन्द्रीत्यधिके द्वे शते योजनानां कलात्रयं च २८८३, अस्य च करणं-दक्षिणभरतार्द्धशरे २३८३ इत्येवंरूपे वैताढ्य-1
रूपं सू.१२ या वृत्तिः
1 पृथुत्वे पञ्चाशद् ५० योजनरूपे प्रक्षिप्ते यथोक्तं मानं भवति, आह-दक्षिणभरतार्द्धवदस्यापि विष्कम्भ एव शरोऽस्तु, ॥७२॥
18| मैवं, खण्डमण्डलक्षेत्रे आरोपितज्यधनुराकृतिः प्रादुर्भवति, तत्र चायामपरिज्ञानाय जीवा परिक्षेपप्रकर्षपरिज्ञानाय
धनुःपृष्ठं व्यासप्रकर्षपरिज्ञानाय शरः, स च धनुःपृष्ठमध्यमत एवास्य भवति, प्रस्तुतगिरेश्च केवलस्य धनुराकृतेरभा
वेन धनुःपृष्ठ स्याप्यभावात् शरोऽपि न सम्भवति, तेन दक्षिणधनु-पृष्ठेन सहैवास्य धनुःपृष्ठवत्त्वमिति प्राच्यशरमि-19] Mश्रित एवास्य विष्कम्भः शरो भवति, अन्यथा शरव्यतिरिक्तस्थाने न्यूनाधिकत्वेन प्रकृष्टव्यासप्राप्तेरेवानुपपत्तेरित्यलं|
प्रसङ्कन, इदमेव शरकरणं दक्षिणविदेहार्द्ध यावद् बोध्यम् , एवमुत्तरतोऽपि ऐरावतवैताढ्यतः प्रारभ्योत्तरविदेहाई || यावदिति । अथास्य चाहे आह–'तस्स बाह'त्ति तस्य-वैताव्यस्य बाहा-दक्षिणोत्तरायता वक्रा आकाशप्रदेशपंक्तिः 'पुरथिमपचरिथमेणं'ति समाहारात् पूर्वपश्चिमयोरेकैका अष्टाशीत्यधिकानि चत्वारि योजनशतानि पोडश कोनविंश-|| तिभागान् योजनस्य एकस्यैकोनविंशतिभागस्य चा-अर्धकला. योजनस्याष्टत्रिंशत्तम भागमित्यर्थः आयामेन-दैर्येण ॥ प्रज्ञता, ऋजुबाहायास्तु पर्वतमध्यवर्तिन्याः पूर्वापरायताया मान क्षेत्रविचारादिभ्योऽवसेय, अत्र करणं-वथा गुरुध
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [8], -----------------------
-------- मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक
[१२]
नु:पृष्ठालघुधनुःपृष्ठं विशोध्य शेषस्यार्धे कृते बाहा, यथा गुरुधनु:पृष्ठं वैताव्यसत्कं कलारूपं २०४१३२, अस्माल्लधुधनुःपृष्ठं कलारूपं १८५५५५ शोध्यते जातं १८५७७, अर्द्धं कृते कलाः ९२८८, तासामेकोनविंशत्या भागे योजनानि ४६८ कलाः १६ कलार्द्ध चेति, एवं यावदक्षिणविदेहार्बबाहा, एवमुत्तरत ऐरावतवैताब्यवाहा यावदुत्तरविदेहार्द्ध-18| | चाहा तावदिदं करणं भावनीयं, अथास्य जीवामाह-तस्स जीवे'त्यादि, तस्य-वैतादधस्य जीवा 'उत्तरेणे'त्यादि प्राग्वत्, नवरं दश योजनसहसाणि सप्त च विंशानि-विंशत्यधिकानि योजनशतानि द्वादश चैकोनविंशतिभागान्, योजनस्थायामेनेति, अन करणभावना यथा-पूर्वोक्तकरणक्रमेण जम्बूद्वीपव्यासः कलारूप: १९ शून्यः ५, अस्माब-1131 ताब्यशरकलानां ५४७५ शोधने जातं १८९४५२५, अस्मिन् वैताब्यशर५४७५गुणे जातं १०३७२५२४३७५, तस्मिन् पुनश्चतुर्गुणे जातं ४१४९००९७५००, एष पैतान्यजीवावर्गः, अस्य मूले जातं छेदराशिः४०७३८२, लब्धं कलाः २०३६९१, शेष कलांशाः ७४०१९, लब्धकलानामेकोनविंशत्या भागे लब्धानि योजनानि १०७२० कलाः, शेषकलांशानां अर्धाभ्यधिकत्वात् , अर्धाभ्यधिके रूपं देयमिति एककलाक्षेपे जाताः कलाः द्वादशेति अधास्य धनु:| पृष्ठमाह-'तीसे धणुपुट्ट दाहिणेण मिति, गतार्थमेतत् , नवरं दश योजनसहस्राणि सप्त च त्रिचत्वारिंशानि-त्रिचत्वा-18 रिंशदधिकानि योजनशतानि पञ्चदश चैकोनविंशतिभागान योजनस्येति, अत्र करणं यथा वैताद्व्येषुः कलारूप:५४७५, अस्य वर्गः २९९७५६२५, अयं षड्गुणः १७१८५३७५०, ताब्यजीवावर्गश्च ४१४९००९७५०० उभयोर्मीलने
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श्रीजम्बू
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [१२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृचिः
॥ ७३ ॥
| जातं ४१६६९९५१२५० एप वैताढ्यधनुः पृष्ठवर्गः अस्य मूले छेदराशि: ४०८२६४ लब्धकलाः २०४१३२ शेषकलांशाः ७७८२६ लब्धकलानामेकोनविंशत्या भागे लब्धं यथोक्तं मानं १०७४३ अथ किंविशिष्टोऽसी वैताढ्य | इत्याह- 'रुअगे 'त्यादि, रुचकं - ग्रीवाभरणभेदः तत्संस्थानसंस्थितः सर्वात्मना रजतमयः 'अच्छे'त्यादिपदकदम्बकं प्राग्वत्, उभयोः पार्श्वयोर्दक्षिणतः उत्तरतश्च द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनखण्डाभ्यां सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः | अत्र यत्पद्मवरवेदिकाद्वयं तत्पूर्वापरतो जगत्या रुद्धत्वान्निरवकाशत्वेनैकी भवनासम्भवात्, अन्यथा 'सबओ समंता संपरिक्खित्ते 'ति वचनेनैकैव स्थादिति, 'ताओ णमिति, सर्व गतार्थ, नवरं पर्वतसमिका आयामेन, वैताढ्य| समाना आयामेनेत्यर्थः, अथैतद्गतगुहाद्वयप्ररूपणायाह- 'बेयद्धस्स णमित्यादि, वैताढ्यस्य पर्वतस्य 'पुरच्छिमपचच्छिमेणं'ति, अत्र सूत्रे पूर्वस्या दिशः पूज्यत्वात् आर्यत्वाद्वा पुरच्छिमेतिशब्दस्य प्रानिपातेऽपि पश्चिमायां पूर्वस्यामिति व्याख्येयं, अत्र प्रन्थे ग्रन्थान्तरे च पश्चिमायां तमिस्रगुहायाः पूर्वस्यां च खण्डप्रपातगुहायाः अभिधानात्, द्वे गुहे प्रज्ञठे, प्राकृतशैल्या च बहुवचनं, उत्तरदक्षिणयोरायते, एतावता य एव वैताढ्यस्य विष्कम्भः स एवानयोरायाम इति भावः, प्राचीनप्रतीचीनविस्तीर्णे इत्याद्यर्थतो व्यक्तं, अत्र च उमाखातिवाचककृतजम्बूद्वीपसमासप्रकरणे गुहाया विजयद्वारप्रमाणद्वारेतिविशेषणदर्शनात् चतुर्योजनविस्तृतद्वारा इत्यपि विशेषणं ज्ञेयं, वज्रमयकपाटाभ्यामवघाटिते, आच्छादिते इत्यर्थः एते च द्वे अपि चक्रवर्त्तिकालवज दक्षिणपार्श्वे उत्तरपार्श्वे च प्रत्येकं सदा
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१वक्षस्कारे |वैताव्यवं र्णनं स. १२
॥ ७३ ॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ------------------------
------ मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१२]
सम्मीलितवज्रमयकपाटयुगले स्याता, अत एव यमलानि-समस्थितानि युगलानि-द्वयरूपाणि धनानि-निश्छिद्राणि । कपाटानि तेः दुष्प्रवेशे, तथा नित्यं अन्धकारतमिस्र, द्वौ तुल्याची प्रकर्षपराविति प्रकृष्टान्धकारं ययोस्ते तथा, विशेषणद्वारा अबार्थे हेतुमाह-व्यपगतं ग्रहचन्द्रसूर्यनक्षत्राणां ज्योतिर्यतः स एतादृशः पन्था ययोस्ते तथा, अथवा व्यप|गता ग्रहादीनां ज्योतिषश्च-अग्नेः प्रभा ययोस्ते तथा यावत्प्रतिरूपे, अन यावत्करणात् 'पासाईया' इत्यादि विशेषणत्रयं 'अच्छाओं' इत्यादीनि वा विशेषणानि यथासम्भवं ज्ञेयानि, ते गुहे नामतो दर्शयति, तद्यथा-'तमिस्रा गुहा ।
चैव खण्डप्रपाता गुहा चैव चैवशब्दौ द्वयोस्तुल्यकक्षताद्योतनाएँ, तेन पश्चिमभागवर्तिनी तमिस्रा पूर्वभागवर्तिनी | खण्डमपाता, इमे वे अपि समस्वरूपे वेदितव्ये इति, 'तत्थ 'मित्यादि, सर्वमेतद् विजयदेवसमगमकमिति व्याख्या-1 तपायं, नवरं कृतमालकस्तमिस्राधिपतिः नृत्तमालकः खण्डप्रपाताधिपतिरिति । अथात्र श्रेणिप्ररूपणायाह-'तेसि । वणसंडाण'मित्यादि, तयोर्वैताग्योभयपार्श्ववर्तिनोभूमिगतयोर्वनखण्डयोबहुसमरमणीयाद् भूमिभागादूचं वैताब्यगिरेरुभयोः पार्थयोर्दश दश योजनान्युत्पत्य-गत्वा अत्र द्वे विद्याधरश्रेण्यो-विद्याधराणामाश्रयभूते प्रज्ञप्ते, एका
दक्षिणभागे एका चोत्तरभागे इत्यर्थः, प्रागपरायते उदग्दक्षिणविस्तीणे, उभे अपि विष्कम्भेन दश २ योजनानि, ६। अत एव प्रथममेखलायां वैताब्यविष्कम्भस्त्रिंशद्योजनानि, पर्वतसमिके आयामेन, वैताब्यवदिमे अपि पूर्वापरोदधि। स्पृष्टे इत्यर्थः, तथा प्रत्येकमुभयोः पार्श्वयोः द्वाभ्यां पद्मवरयेदिकाभ्यां द्वाभ्यां च वनखण्डाभ्यां संपरिक्षिप्ते, एवमे
अनुक्रम [१३]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [8], ------------------------
------- मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
18| कैकस्यां श्रेण्या द्वे पद्मवरवेदिके द्वे च वनखण्डे इत्युभयोः श्रेण्योर्मीलने चतस्रः पदावर वेदिकाश्चत्वारि वनखण्डानीति ||४|श्वक्षस्कारे द्वीपशा-18ज्ञेयं, संवादी चायमर्थः श्रीमलयगिरिकृतवृहत्क्षेत्रसमासवृत्त्या, तथा च तत्रोक्तम्-"एकैका च श्रेणिरुभयपार्थवन्तिचन्द्री
| बूताब्यबवचन्द्रातिभ्यां चैताट्यप्रमाणायामाभ्यां द्वाभ्यां पद्मवरवेदिकाभ्यां द्वाभ्यां २ वनखण्डाभ्यां समन्ततः परिक्षिप्ते"ति, शेष सूत्रणेने स.१२ या चिः
18गतार्थमिति, अथ तयोः श्रेण्योः स्वरूपं पृच्छति-'विजाहरे'त्यादि गतार्थ, नवरं अत्र बहुम्वादशेषु 'नाणामणिपंच॥७४ ॥ वण्णेहि मणीहिं' इति पाठो न दृश्यते, परं राजप्रश्चीयसूत्रवृत्त्योदृष्टत्वात् सङ्गतत्वाच 'नाणाविहपंचवण्णेहिं मणीहि ।
तणेहिं' इति पाठो लिखितोऽस्तीति बोध्यं, अथोभयश्रेण्योनगरसयामाह-तत्थ णं दाहिणिलाए'इत्यादि, तत्र। तयोः श्रेण्योर्मध्ये दक्षिणस्यां विद्याधरश्रेण्यां गगनवल्लभप्रमुखाः पंचाशद्विद्याधरनगरावासाः प्रज्ञप्ताः, 'व्याख्यातो |
विशेषप्रतिपत्ति'रिति तेन नगरावासा राजधानीरूपा ज्ञेयाः, स्वस्वदेशप्रतिबद्धाः, यदाह-'ते' दसयोजणपिहुलेहि सेढीसु जम्मुत्तरासु सजणवया । गिरिवरदीहासु कमा खयरपुरा पण्ण सट्ठी या ॥१॥" इति, उत्तरस्यां विद्याधरश्रेण्यां | रथनूपुरचक्रवालप्रमुखाः पष्टिविद्याधरनगरावासाः प्रज्ञप्ताः, दक्षिणश्रेणेः सकाशादस्या अधिकदीर्घत्वात् , ऋषभचरि-18 त्रादौ तु दक्षिणश्रेण्या रथनुपूरचक्रवालं उत्तरश्रेण्यां गगनबल्लभमुक्त, तत्त्वं तु सातिशयश्रुतधरगम्य, अनयोर्मुख्यता
उपत ॥७४॥ च श्रेण्यधिपराजधानीत्वेनेति, 'एवमेवे'त्युक्तन्यायेनैव सह पूर्वेण यदपरं तत् सपूर्वापरं-संख्यानं तेन दक्षिणस्या
१ तानि दशयोजनगृथक्त्वयोः श्रेण्योगांम्वेतरयोः सजनपदानि । गिरिवरदीर्थयोः कमात् खबरपुराणि पंचायात् षष्टिः ॥1॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [8], ------------------------
------ मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक
[१२]
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॥ मुत्तरस्यां च विद्याधरश्रेण्यामेकं दशोत्तरं विद्याधरनगरावासशतं भवतीति आख्यातं मया अन्यैश्च तीर्थकरैरिति, श्रेणिद्व-IS
| यगतपंचाशत्पष्टिसङ्कालने यथोक्तसंख्याभवनादेषां च दशोत्तरशतसंख्यानगराणां नामानि श्रीहेमाचार्यकृतश्रीऋष-18 || भदेवचरित्रादवगन्तव्यानीति, 'ते विजाहरेत्यादि, तानि विद्याधरनगराणि ऋद्धानि-भवनादिभिवृद्धिमुपगतानि स्तिमि३ तानि-निर्भयत्वेन स्थिराणि समृद्धानि-धनधान्यादियुक्तानि ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, तथा प्रमुदिता-हृष्टाः प्रमो-13
दवस्तूनां सद्भावाजना-नगरीवास्तव्यलोका जानपदाश्च-जनपदभवास्तत्रायाताः सन्तो येषु तानि तथा, यावत्करणात्
सर्वोऽपि प्रथमोपाङ्गगतश्चम्पावर्णको ग्राह्यः(सू.१), स च विस्तरभयान्नेह लिख्यते, अथ कियत्पर्यन्तः स ग्राह्य इत्याह-प1 डिरूवा इति प्रतिरूपाणि-प्रतिविशिष्टं-असाधारणं रूपं-आकारो येषां तानि तथा तेषु, णमिति प्राग्वत् , विद्याधर-18
नगरेषु विद्याधरराजानः परिवसन्ति, अत्र समासान्तविधेरनित्यत्वान्नादन्तता, कथंभूतास्ते इत्याह-महाहिमवान्हैमवतक्षेत्रस्योत्तरतः सीमाकारी वर्षधरपर्वतः मलयः-पर्वतविशेषः सुप्रतीतो मन्दरो-मेरुः माहेन्द्रः-पर्वतविशेषः, शको वाते इव सारा:-प्रधानाः, 'राययण्णओ भाणियोति,अत्रापि सर्वः प्रथमोपाङ्गगतो राजवर्णको भणितव्य (सू.६).8 इति 'विजाहरसेढी णमिति सूत्रं गतार्थ, अथात्रैव वर्तमानामाभियोगश्रेणिं निरूपयति-तासि (सु) णमित्यादि, तयोविद्याधरश्रेण्योबहुसमरमणीयाभूमिभागाद् वैताव्यस्य पर्वतस्योभयोः पार्श्वयोर्दश दश योजनान्यूर्वमुत्पत्य अत्र र दे आ-समन्तात् आभिमुख्येन युज्यन्ते-प्रेष्यकर्मणि व्यापार्यन्ते इत्याभियोग्याः-शक्रलोकपालप्रेष्यकर्मकारिणो 18
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सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [१२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र- [७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
१ वक्षस्कारे
व्यन्तरविशेषास्तेषामावासभूते श्रेण्यौ-आभियोग्यश्रेण्यौ प्रज्ञप्ते, शेषं गतार्थं, नवरं 'वण्णओ दोन्हवि'त्ति द्वयोरपि | जात्यपेक्षया पद्मघरवेदिकावनखण्डयोर्वर्णको वाच्य इति शेषः, तथा 'पचयसमियाओ आयामेणं'ति पर्वतसमिकान्तिचन्द्री - 8 चतस्रोऽपि पद्मवरवेदिका आयामेन दैर्येण, अत्र तत्सम्बन्धानि वनखण्डान्यपि पर्वतसमान्यायामेनेति बोध्यं ९ या वृत्तिः
वैतायवर्णनं सू.१२
1104 11
श्रीजम्मूद्वीपशा
'आभिओगे' त्यादि, प्रागधस्तनसूत्रे जगती पद्मवरवेदिका समभूभागमणितृणवर्णादिकं व्यन्तरदेवदेवीक्रीडादिकं च येनैव गमेन व्यावर्णितं स एवात्र गम इति न पुनर्व्याख्यायते, 'तासि णमित्यादि, तासु आभियोग्य श्रेणिषु शक्रस्यआसनविशेषस्याधिष्ठाता शक्रस्तस्य दक्षिणार्द्धलोकाधिपतेरित्यर्थः, देवेन्द्रस्य - देवानां मध्ये परमैश्वर्ययुक्तस्य देवराज्ञः| देवेषु कान्त्यादिगुणैरधिकं राजमानस्य सोमः -पूर्वदिक्पालो यमो - दक्षिणदिक्पालो वरुणः - पश्चिमदिक्पालो वैश्र| मणः- उत्तरदिक्पालस्तेषां कायो- निकाय आश्रयणीयत्वेन येषां ते तथा तेषां शक्रसम्बन्धिसोमादिदिक्पालपरिवारभूतानामित्यर्थः, आभियोग्यानां देवानां बहूनि भवनानि प्रज्ञतानि तानि सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात्, णमिति प्राग्वत्, भर्वनानि बहिर्वृत्तानि - बहिर्वृत्ताकाराणि अन्तः चतुरस्राणि - समचतुरस्राणि 'वण्णओ'त्ति अत्र भवनानां वर्णको वाच्यः, स च किंपर्यन्त इत्याह- 'जाब अच्छरगण संघविकिरण' ति, ततोऽपि कियत्पर्यन्त इत्याह- 'जाव पडिरू'व'त्ति, स च प्रज्ञापनास्थानाख्य(सू.४६) द्वितीयपदोक्तः, यथा - 'अहे पुक्खरकण्णिआसंठाणसंठिया उकिणंतरविलगं|भीरखायपरिहा पागारट्ठालयकवाडतोरणपडिदुवारदेसभागा जंतसयग्धिमुसलमुसुंढिपरिवारिआ अउज्झा सयाजया
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।। ७५ ।।
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
------ मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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|सयागुत्ता अड्यालकोवगरहा अडयालकयवणमाला खेमा सिवा किंकरामरदंडोवरक्खिा लाउलोइअमहिआ गोसीससरसरत्तचंदणददर(दिण्ण)पंचंगुलितला उवचिअचंदणकलसा चंदणघडसुकयतोरणपडिवुवारदेसभागा आसत्तोसत्तविउलबट्टबग्घारियमल्लदामकलावा पंचवण्णसरससुरहिमुकपुष्फपुंजोवयारकलिया कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकधूवमघमधेतगंधुदुआभिरामा सुगंधवरगंधिआ गंधवटिभूया अच्छरगणसंघसंविकिण्णा दिवतुडियसहसंपणदिआ सबरयणामया अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा नीरया णिम्मला णिप्पंका णिकंकडच्छाया सप्पहा समरीइआ सउज्जोआ पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवत्ति, अत्र व्याख्या-अधस्तनभागे पुष्करकर्णिकासंस्थानसंस्थितानि तथा उत्कीर्णमिवोत्कीर्ण अतीव व्यक्तमित्यर्थः उत्कीर्णमन्तरं यासां खातपरिखाणां ता उत्कीर्णान्तराः, किमुक्तं भवति ?-खातानां च परिखाणां च स्पष्टवैविक्त्योन्मीलनार्थमपान्तराले महती पाली समस्तीति उत्कीर्णान्तराः, विपुला-विस्तीर्णा गम्भीरा-अलब्धमध्यभागाः खातपरिखा येषां भवनानां परितस्तानि तथा, खातपरिखाणामयं विशेष:-परिखा उपरि विशाला अधः सचिता खातं तूभयत्रापि सममिति, तथा प्राकारेषु-वप्रेषु प्रतिभवनं अट्टालका:-प्रकारस्योपरिवाश्रयवि-18 | शेषाः कपाटानि-प्रतोलीद्वारसत्कानि, एतेन प्रतोल्यः सर्वत्र सूचिताः, अन्यथा कपाटानामसम्भवात्, तोरणानि-1 प्रतोलीद्वारेषु प्रसिद्धानि प्रतिद्वाराणि-मूलद्वारापान्तरालवर्तिलघुद्वाराणि एतद्रूपा देशभागा-देशविशेषा येषु तानि । तथा, यत्राणि नानाविधानि शतध्यो-महायष्टयो महाशिला वा या उपरिष्टात् पातिताः सत्यः पुरुषाणां शतानि |
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
------ मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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[१२]]
श्रीजम्यु-18|मन्तीति, मुसलानि-प्रतीतानि मुषड्यः-शनविशेषास्तैः परिवारितानि-समन्ततो वेष्टितानि, अत एवायोप्यानि- वक्षस्कारे
द्वीपशा-18 पर्योदुमशक्यानि अयोध्यत्वादेव 'सदाजयानि' सदा-सर्वकालं जयो येषु तानि सदाजयानि, सर्वकालं जयवन्तीति | 8 ताब्यवन्तिचन्द्र- भावःतथा सदा-सर्वकालं गुप्तानि प्रहरणैः पुरुषैश्च योदृभिः सर्वतो निरन्तरपरिवारिततया परेपामसहमानानां मनाग-2
र्णनं सू.१२ या वृत्तिः |
पि प्रवेशासम्भवात् , तथा अष्टचत्वारिंशद्भेदभिन्नविच्छित्तिकलिताः कोष्ठकाः-अपवरका रचिताः-स्वयमेव रचनां प्राप्ता ॥७६॥ येषु तानि तथा, सुखादिदर्शनात् पाक्षिको निष्ठान्तस्य परनिपाता, तथा अष्टचत्वारिंश दभिन्नविच्छित्तयः कृता वन
माला येषु तानि तथा, अन्ये त्यभिदधति-अडयाल इति देशीशब्दः प्रशंसायाची, ततोऽयमर्थः-प्रशस्तकोष्ठकरचितानि प्रशस्तकृतवनमालानीति, तथा क्षेमाणि-परकृतोपद्रवरहितानि शिवानि-सदा मङ्गलोपेतानि, तथा किङ्कराः-किङ्करभूता येऽमरास्तैः दण्डैः कृत्वोपरक्षितानि, सर्वतः समन्ततोऽपरक्षितानि, तथा लाइअमिव लाइअं-छगणादिना भूमेरुपलेपनमिव 'उलोइआ' उल्लोइयमिव उल्लोइअं च सेटिकादिना कुड्याविषु धवलनमिव ताभ्यां महितानीव-पूजितानीव, तथा गोशीण-पन्दनविशेषेण सरसेन-रक्तचन्दनेन च दईरेण-बहलेन दर्दराभिधानाद्रिजातश्रीखण्डेन वा दत्ता:-न्यस्ताः | पञ्चाङ्गलयस्तला-हस्तका येषु तानि तथा, उपचिता-निवेशिता वंदनकलशा-माङ्गल्यघटा येषु तानि तथा, वन्दन-18||७६ ॥ घटैः-माङ्गल्यकलशैः सुकृतानि-सुष्टु कृतानि शोभनानीत्यर्थः यानि तोरणानि तानि प्रतिद्वारदेशभाग-द्वारदेशभागे येषु तानि तथा, देशभागाश्च देशा एव, तथा आसक्तो भूमौ लगा उत्सतश्व-उपरि लग्नो विपुल:-अतिविस्तीर्णो वृत्तः
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
------ मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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अतिनिचिततया वर्तुलो वग्धारिअत्ति-प्रलम्बितो माल्यदामकलापः-पुष्पमालासमूहो येषु तानि तथा, पश्चवर्णाः सरसाः131 सुरभयो ये मुक्ताः-करप्रेरिताः पुष्पपुजास्तैर्य उपचार:-पूजा भूमेस्तेन कलितानि, 'कालागरु' इत्यादि विशेषणत्रयं || प्राग्वत् , अप्सरोगणानां संघः-समुदायः तेन सम्यम्-रमणीयतया विकीर्णानि-व्याप्तानि, तथा दिव्यानां त्रुटितानां-IN आतोद्यानां ये शब्दास्तैः सम्यक्-श्रोतृमनोहारितया प्रकर्षण-सर्वकालं नदितानि-शब्दवन्ति 'सबरयणामया' इत्यादि पदानि माग्वत् , 'तत्थ ण' मित्यादि, गतार्थमेतत् । अथ वैताव्यस्य शिखरतलमाह-'तासि ण'मित्यादि, तयोःआभियोग्यश्रेण्योर्बहुसमरमणीयाभूमिभागाद्वैताव्यस्य पर्वतस्योभयोः पार्श्वयोः पञ्च पञ्च योजनान्यूर्द्धमुत्पत्य-गत्वा
अत्रान्तरे वैताट्यस्य पर्वतस्य शिखरतलं प्रज्ञप्त, पाईणेत्यादि प्राग्वत्, तच्च शिखरतलं एकया पद्मवरवेदिकया तत्प-18 1 रिवेष्टकभूतेन चैकेन बनखण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तं, अयं भावः-यथा जगती मध्यभागे पद्मवरवेदिकैफैव
जगती दिक्षु विदिक्षु चेष्टयित्वा स्थिता तथेयमपि सर्वतः शिखरतलं पर्यन्ते वेष्टयित्वा स्थिता, परमेषा आयतचतुरस्राकार-18 | शिखरतलसंस्थितत्वेनायतचतुरस्रा बोच्या, अत एवैकसंख्याका, तत्परतो बहिर्ति बनखण्डमप्येक, न तु वैताब्य-18 18 मूलगतपावरवेदिकावने इष दक्षिणोत्तरविभागेन द्वयरूपे इति, श्रीमलयगिरिपादास्तु क्षेत्रविचारवृद्धत्ती "तन्मध्ये ॥3 18 पद्मवरवेदिकोभयपाययोर्वनखण्डा"वित्याहुः, प्रमाणं-विष्कम्भायामविषय, वर्णकश्च द्वयोरपि पावरवेदिकावनख-18 8ण्डयोः, प्राग्वद्भणितव्य इत्यध्याहार्य, अथ शिखरतलस्य स्वरूपं पृच्छति-वेअद्धस्स 'मित्यादि, एतत्सर्व जगतीगत
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
------ मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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पद्मवरवेदिकाया वनखण्डभूमिभागवद् व्याख्येयं, अथास्य कूटवक्तव्यता पृच्छति-'जंबुद्दीवे 'मित्यादि, जम्बूद्वीपे | || वक्षस्कारे द्वीपशा- |णमिति वाक्यालङ्कारे भदन्त! द्वीपे भरते वर्षे वैतान्यपर्वते कति कूटानि प्रज्ञप्तानि ?, भगवानाह-गौतम! नव कू-1
सिद्धायतन्तिचन्द्री- 118 टानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-सिद्धानि-शाश्वतानि सिद्धानां वा-शाश्वतीनामहत्प्रतिमानामायतनं-स्थानं सिद्धायतनं तदा-18|| या वृचिः ग धारभूतं कूटं सिद्धायतनकूट, दक्षिणार्द्धभरतनाम्ना देवस्य निवासभूतं कूट दक्षिणार्धभरतकूट, खण्डप्रपातगुहाधिपदे
वनिवासभूतं कूटं खण्डप्रपातगुहाकूट, माणिभद्रनाम्नो देवस्य निवासभूतं कूट माणिभद्रकूट, बैताढचनानो देवस्य || निवासभूतं कूट वैताळ्यकूट, पूर्णभद्रनाम्नो देवस्य निवासभूतं कूटं पूर्णभद्रकूट, अन्यत्र माणिभद्रकूटादनन्तरं पूर्ण-18
भद्रकूटं दृश्यते, तमिस्रगुहाधिपदेवस्य निवासभूतं कूटं तमिरगुहाकूट, उत्तरार्द्धभरतनाम्नो देवस्य निवासभूतं कूट | उत्तरार्द्धभरतकूट, वैश्रमणलोकपालनिवासभूतं कूटं वैश्रमणकूट, सर्वत्र मध्यपदलोपी समासः। अथ 'यथोद्देशं निर्देश' इति प्रथमसिद्धायतनकूटस्थानप्रश्नमाहकहिणं भंते। जंयुरीचे दीवे भारहे मासे वेअद्धपवए सिद्धायतणकूडे णानं कूडे पण्णत्ते!, गो०! पुरच्छिमलषणसमुहस्स पचच्छिमेणं दाहिणद्धभरहकूडस्स पुरच्छिमेणं पत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे बेअद्धे पवए सिद्धायतणकूडे णामं कूडे पण्णत्ते, छ सक्को- ॥ ७॥ साई जोगणाई उद्धं उत्तेणं मूले छ सकोसाइं जोअणाई विक्वंमेणं मझे देसूणाई पंच जोअणाई विखंभेणं उवरि साइरेगाई तिणि जोषणाई विक्खंभेणं मूले देसूणाई बावीस जोअणाई परिक्वेवणं मजो देसूणाई पण्णरस जोमणाई परिक्खेवणं उवरि
अनुक्रम [१३]
वैताढ्यपर्वते सिद्धायतनकूटस्य स्वरुपम् एवं शाश्वत-जिनप्रतिमाया: स्वरुपम् कथ्यते
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१३]
दीप
अनुक्रम [१४]
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [१३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
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साइरेगाई णव जोअणाएं परिक्लेवेणं, मूले विच्छिष्णे मज्झे संखित्ते उप्पि तणुए गोपुच्छसंठाणसंठिए, सवरयणामए अच्छे सहे जाब पढिरुवे । से णं एगाए पउमवरवेश्याए एमेण य वणसंडेणं सबओ समता संपरिखित्ते, पमाणं वण्णओ दोपि सिद्धायतणकूडस्स णं उपिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते से जहाणामए आलिंगपुक्सरेइ वा जाव वाणमंतरा देवा व जाव विहति । तस्स पण बहुसमरमणिजास्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभागे एत्य णं महंएगे सिद्धाययणे पण्णत्ते को आयामेणं अद्धकोसं विक्खभेणं देसूणं कोसं उद्धं उच्चचेणं अणेगसंभसयसन्निविट्टे खंभुग्गयसुकयवइरत्रेइ आतोरणवररइअसालभंजिअसुसिलिडविसिङ्करसंठिअपसत्यवेरुलिअविमलखंभे णाणामणिरयणख चिञउज्जल बहु समसुविभत्तभूमिभागे ईहानिगाउसभतुरगणरमगरविहगवा लग किन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलयजावप मलयभत्तिचित्ते कंचणमणिरयणधूमियाए णाणाविहपंच० वण्णओ घंटापडागपरिमंडिअग्गसिहरे धवले मइकवयं विणिग्मुअंते लाउहोइअम हिए जाव सया, तस्स णं सिद्धायतणस्स तिदिसिं तज दारा पण्णत्ता, ते णं द्वारा पंच ध सयाई उद्धं उच्चणं अद्धाइबाई धणुसयाई विक्खमेणं तावइयं चैव पवेसेणं सेआवरकणगधूभिआगा दारवण्णओ जाव वर्णमाला, तस्स णं सिद्धाययणस्स अंतो बहुसमरमणि भूमिभागे पण्णत्ते से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव तरस णं सिद्धाययणस्स णं बहुसमरमणिज्जरस भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे देवच्छंदए पण्णत्ते पंचधणुसयाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाई पंच घणुसयाई उद्धं उत्तेणं सबरयणामए, एत्व णं असयं जिणपडिमाणं जिणुस्सहेत्यमाणमित्ताणं संनिक्खितं चि एवं जाब धूवकडुच्छुगा (सूत्रम् १३ )
'कहि णमित्यादि कण्ठ्यम्, नवरं दक्षिणार्द्धभरतकूटं ह्यस्मात्पश्चिमदिग्वत्तति ततः पूर्वेणेति, तच्चोञ्चत्वादिना
Fu Frale & Pinunate Cy
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ----------------------
------ मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१३]]
पीप
श्रीजम्बू-II कियत्प्रमाणमित्याह-'छ सकोसाई' इत्यादि, सक्रोशानि षड्योजनान्यूलोंचत्वेन मूले सक्रोशानि षट् योजनानि विष्क-१ वक्षस्कारे द्वीपशा- म्भेन मध्ये देशोनानि पञ्च योजनानि, सपादकोशन्यूनानि पश्च योजनानीत्यर्थः, विष्कम्भेन, उपरि सातिरेकाणि श्रीणि सिद्धायतन्तिचन्द्री
योजनानि, अर्बकोशाधिकानि त्रीणि योजनानीत्यर्थः, विष्कम्भेनेति, अथास्य शिखरादधोगमनेन विवक्षितस्थाने पृ-शनवर्णन सू. या वृत्तिः
त्वज्ञानाय करणमुच्यते-शिखरादवपत्य यावद्योजनादिकमतिक्रान्तं तावत्प्रमाणे योजनादिके द्विकेन भक्के कूटोत्सेधा॥७८॥ र्बयुक्ते च यज्जायते तदिष्टस्थाने विष्कम्भः, तथाहि-शिखरात् किल त्रीणि योजनानि क्रोशा धिकान्यवतीर्णः,
ततो योजनत्रयस्य क्रोशा धिकस्य द्विकेन भागे लब्धाः षट् क्रोशाः क्रोशस्य च पादः, कूटोत्सेधश्च सक्रोशानि षड्। 1 योजनानि, अस्यार्द्ध योजनत्रयी क्रोशार्दाधिका, अस्मिंश्च पूर्वराशौ प्रक्षिप्ते जातानि सपादकोशोनानि पञ्च योजनानि, 18 इयान मध्यदेशे विष्कम्भः, एवमन्यत्रापि प्रदेशे भावनीयं । तथा मूलार्ध्वगमने इष्टस्थाने विष्कम्भपरिज्ञानाय करण
मिद-मूलादतिक्रान्तयोजनादिके द्विकेन भक्के लब्धं मूलव्यासाच्छोध्यतेऽवशिष्टमिष्टस्थाने विष्कम्भः, तथाहि-मूलात्
त्रीणि योजनानि क्रोशार्दाधिकानि ऊर्ध्व गतः, अस्य द्विकेन भागे लब्धाः ६ कोशाः क्रोशस्य च पादः, एतावान् । ॥ मूलव्यासात् शोध्यते, शेष पञ्च योजनानि सपादकोशोनानि, इयान् मध्यभागे विष्कम्भः, एवमन्यत्रापि प्रदेशे ॥ ७८॥
। भान्यं, इमे चारोहावरोहकरणे शेषेषु वैताध्यकूटेषु पञ्चशतिकेषु हिमवदादिकूटेषु सहस्साङ्केषु च हरिस्सहादिकूटेषु । । अष्टयोजनिकेषु च ऋषभकूटेष्ववतारणीये, वाचनान्तरोकमानापेक्षया तु ऋषभकूटेषु करणं जगतीचदिति । अस्य च |
अनुक्रम
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ------------------------
------ मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१३]]
| पद्मवरवेदिकादिवर्णनायाह-से णमित्यादि व्यक्तं, अथ सिद्धायतनकूटस्योपरि भूभागवर्णनायाह-सिवायतण' इत्यादि प्राग्वत् , अथात्र जिनगृहवर्णनायाह-'तस्स ण' मित्यादि, तस्य-बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्य-12 देशभागे अत्र महदेकं सिद्धानां-शाश्वतीनामहत्प्रतिमानामायतनं-स्थानं चैत्यमित्यर्थः प्रज्ञप्तं क्रोशमायामनार्द्धक्रोश || विष्कम्भेन देशोनं क्रोशमूर्बोच्चत्वेन, देशश्चात्र षष्ट्यधिकपञ्चशतधनूरूप इति, यत उक्तं वीरंजयसेहरेत्यादिक्षेत्रविचारस्य वृत्तौ-'ताणुवरि चेइहरा दहदेवीभवणतुल्लपरिमाणा' इत्यस्या गाथाया व्याख्याने "तेषां वैताब्यकूटानामुपरि
चैत्यगृहाणि द्रहदेवीभवनतुल्यपरिमाणानि वर्तन्ते, यथा श्रीगृहं क्रोशैकदीर्घ क्रोशार्द्धविस्तारं चत्वारिंशदधिकचतुर्द-1 | शशतधनुरुच"मिति, तथा अनेकेषु स्तम्भशतेषु संनिविष्टं, तदाधारकत्वेन स्थितमित्यर्थः, तथा स्तम्भेषु उगता-संस्थिता ।। सुकृतेव सुकृता निपुणशिल्पिरचितेवेति भावः ततः पदद्वयस्थ कर्मधारयः, तादृशी बज्रवेदिका-द्वारशुण्डिकोपरि बजरलमयी वेदिका तोरणं च स्तम्भोगतसुकृतं यत्र तत्तथा, तथा वरा:-प्रधाना रतिदा-नयनमनःसुखकारिण्यः सालभंजिका येषु ते तथा सुश्लिष्ट-सम्बद्धं विशिष्ट-प्रधान लष्ट-मनोज्ञं संस्थित-संस्थानं येषां ते तथा ततः पदद्वयकर्म
धारये तादृशाः प्रशस्ताः-प्रशंसास्पदीभूता वैडूर्यविमलस्तम्भा यत्र तत्तथा, ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः, तथा नानामरणिरतानि खचितानि यत्र स नानामणिरलखचितः, निष्ठान्तस्य परनिपातः भार्यादिदर्शनात्, ताहश उज्वलो-निर्मलो ॥ बहुसमः-अत्यन्तसमः सुविभक्तो भूमिभागो यत्र तत्तथा, 'ईहामिगे'त्यादि प्राग्वत् व्याख्येयं, नवरं मरीचिकवचं-किर-1॥
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दीप
ॐaasaamsassss
अनुक्रम
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श्रीजम्मू.१४४
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
------ मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१३]
श्रीजम्बूबालपरिक्षेपं विनिर्मुनत, तथा लाइ नाम यमेर्गोमयादिना उपलेपनं उल्लेइ-कुख्यानां मालस्य च सेविका-II,
वक्षस्कारे पी-| दिभिः संमृष्टीकरणं लाउलोइ ताभ्यामिव महितं-पूजितं लाउल्लोइअमहिलं, यथा गोमयादिनोपपलिप्तं सेटिकादिना ATTA न्तिचन्द्री- |च धवलीकृतं यद् गृहादि सश्रीकं भवति तथेदमपीति भावः, तथा 'जाव झया' इति अत्र यावत्करणात् पश्य- नकटवर्णनं या वृत्तिः MRI माणयमिकाराजधानीप्रकरणगतसिद्धम्यतनवर्णकेऽतिदिष्टः सुधासभागमो वाच्यो, यावत्सिद्धायतनोपरि ध्वजाम.३० ॥ ७९ ॥
18|| उपवर्णिता भवन्ति, यद्यप्यत्र यावत्पदग्राह्ये द्वारवर्णकप्रतिमावर्णकधूपकडच्छादिकं सर्वमन्तर्भवति तथापि स्थाना
शून्यतार्थ किचित् सूत्रे दर्शयति-तस्स णं सिद्धायतणस्स' इत्यादि, तस्य-सिद्धायतनस्य तिसूणां दिशां समाहार-18। [खिदिक तस्मिन् , अनुस्वारः प्राकृतत्वात्, पूर्वदक्षिणोत्तरविभागेषु त्रीणि द्वाराणि प्रज्ञप्तानि, तानि द्वाराणि पश्चधनु:-18
शतान्यूयोंच्चत्वेन अर्धतृतीयानि धनुःशतानि विष्कम्भेन, तापम्मानमेव प्रवेशेन, अर्द्धतृतीयानि धनुशतानीत्यर्थः, || 'सेआ वरकणगधूभिआगा' इतिपदोपलक्षितो द्वारवर्णको मन्तब्यो विजयद्वारवद् यावद्धनमालावर्णनम् । अत्रैव
भूभागवर्णनायाह-'तस्स प मित्यादि सुगम, सिद्धाययणस्स' इत्यादि, तस्य बहुसमरमणीयस्य भूमिभागस्य बहुमध्य
देशभागे अत्र महानेको देवच्छन्दको-देवोपवेशस्थानं प्रज्ञप्तः, अत्रानुक्कापि आयामविष्कम्भाभ्यां देवच्छन्दकसमाना 18| उच्चस्त्वेन तु तदर्धमाना मणिपीठिका सम्भाव्यते, अन्यत्र राजप्रश्नीयादिषु देवच्छन्दकाधिकार तथाविधमणिपी-1
ठिकाया दर्शनात् यथा सूर्याभविमाने 'तस्स णं सिद्धायतणस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगा मणिपेढिया पण्णता
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ----------------------
-------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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[१३]]
सोलसजोषणाई आयामविक्खंभेणं अट्ठ जोअणाई उच्चत्तण ति, तथा विजयाराजधान्यामपि तस्स णं सिद्धाययणस्स
बहुमज्झदेसभाए, पत्थ णं महं एगा मणिपढिआ पण्णत्ता दो जोअणाई आयामविक्संभेणं जोअणं बाहल्लेणं सवमणि॥ मया अच्छा जाव पडिरूवा' इति, स च देवच्छन्दकः पञ्चधनुःशतान्यायामविष्कम्भाभ्यां सातिरेकाणि साधिकानि | पञ्चधनुःशतान्यूर्वोच्चत्वेन सर्वारमना रनमयः, तत्र देवच्छन्दकेऽष्टशर्त-अष्टोत्तरं शतं जिनप्रतिमानां जिनोत्सेधप्रमाणमात्राणां-जिनोत्सेधः-तीर्थकरशरीरोच्छ्रायः, तस्य च प्रमाणं उत्कृष्टतः पञ्चधनु शतात्मकं जघन्यतः सप्तहस्तात्मक इह च पश्चधनुशतात्मकं गृह्यते, तदेव मात्रा-प्रमाणं यासां तास्तथा तासां, तथा जगत्स्वाभाव्यात्, देवच्छन्दकस्य चर्दिा प्रत्येक सप्तविंशतिभावेन सन्निक्षिप्तं तिष्ठति, ननु पद्मवरवेदिकादय इव शाश्वतभावरूपा जिनप्रतिमा भवन्तु, परं प्रतिष्ठितत्वाभावेन तासामाराध्यत्वं कथमिति चेत् !, उच्यते, शाश्वतभावा इव शाश्वतभावधर्मा अपि सहजसिद्धा
एव भवन्ति, तेन शाश्वतप्रतिमा इव शाश्वतप्रतिमाधर्मा अपि प्रतिष्ठितत्वाराध्यत्वादयः सहजसिद्धा एवेति, किं॥४ 181 १ तत्र जिनोत्सेधो जघन्यतः सप्त हस्ताः उत्कर्षतः पश्च धनुःशतानि, परमिह तिर्यग्लोकवर्तित्वेन पञ्चधनु:शतानामित्यर्थः, यदुक्तं "तत्थुस्सेइंगुलो सतकरा
उलोखमहलोए । सासयपडिमा वंदे पणवणुसममाण तिरिलोए ॥1॥" इति, यत्तु राजप्रश्नीयोपांगवृत्ती सूर्याभविमाने जिनप्रतिमानामुत्सेधममिक्रय बना पंचधानःशतानि संभाव्यन्ते इति भणितं तत्र सूक्ष्मदशां पर्यालोचनायाः संभावनाया अपि संभावनैव विजृम्भते, पोलोचनाश्वेव-देवाना भवधारणीयशरीरेण | तारप्रतिमानां पूजाकरणादावसंगतमिवाभाति, न चैवं निर्यग्लोकेऽपि समानं, यतो देवानां वैकियशरीरेण मनुजानां च भरतादिकारितजिनप्रतिमापूजने तदुचितप्र-10 माणवतेच पारीरेण नासंगतिगन्धोऽपि, (उभयत्रापि वैकियतिरस्लेव, तिर्यग्लोके विद्याधराणां सातिशयत्यान्न क्षतिः) (हीर प्रत्ती)
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [8], ------------------------
-------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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[१३]
श्रीजम्यू-18 प्रतिष्ठापनान्तरविचारण!, ततः शाश्वतप्रतिमासु सहजसिद्धमेवाराध्यत्वमिति न किश्चिदनुपपन्नमिति, अत्र प्रतिमानां वक्षस्कारे
| उत्सेधाङ्गुलमानेन पञ्चधनुःशतप्रमाणानां प्रमाणाङ्गुलमानेन पञ्चधनुःशतायामविष्कम्भे देवच्छन्दकेऽनवकाशचिन्ता न सिद्धायत: विधेयेति, अन्न प्रतिमावर्णकसूत्रं एवं-'जाव धूवकडुच्छुगा' इति सूत्रेण सूचितं जीवाभिगमायुक्तमवसेयं, तच्चेदम्
नकूटवर्णन या चिः
सू. ३० 'तासि णं जिणपडिमाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णते, तंजहा-तवणिजमया हत्थतलपायतला अंकामयाई णक्खाई 18 अंतोलोहियक्खपडिसेगाई कणगामया पाया कणगामया गुप्फा कणगामईओ जंघाओ कणगामया जाणू कणगामया 81 18|| ऊरू कणगामईओ गायलट्टीओ रिद्वामए मंसू तवणिज्जमईओ णाभीओ रिद्वामईओ रोमराईओ तवणिज्जमया ||
चुचुआ तवणिजमया सिरिवच्छा कणगमईओ बाहाओ कणगामईओ गीवाओ सिलप्पवालमया उद्या फलिहामया दंता तवणिज्जमईओ जीहाओ तवणिजमया तालुआ कणगमईओ णासिगाओ अंतोलोहिअक्सपडिसेगाओ। अंकामयाई अच्छीणि अंतोलोहिअक्खपडिसेगाई पुलगामईओ विट्ठीओ रिहामईओ तारगाओ रिद्वामयाई अच्छिपत्ताई रिद्वामईओ भमुहाओ कणगामया कवोला कणगामया सवणा कणगामईओ णिडालपट्टियाओ वइरामईओ || सीसघडीओ तवणिजमईओ केसंतकेसभूमिओ रिहामया उपरिमुद्धया, तासि णं जिणपडिमाणं -पिट्टओ पत्तेयं ॥८॥ छत्तधारपडिमा पण्णत्ता, ताओ णं छत्तधारपडिमाओ हिमरययकुंदिंदुष्पगासाई सकोरंटमल्लदामाई धवलाई आयवशताई सलील ओहारेमाणीओ चिट्ठति, तासि णं जिणपडिमाणं उभओपासिं पचे २ दो दो चामरधारपडिमाओ
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [१३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
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पण्णत्ताओ, ताओ णं चामरधारपडिमाओ चंदप्पहवइरवेरुलियणाणामणिकणगरयणखइ अमह रिहतवणिज्जुज्जलवि चित्तदंडाओ चिलियाओ संखंककुंद दगरयमयमहिअफेणपुंजसन्निकासाओ सुहुमरययदीहवालाभो धवलाओ चामराओ सलीलं धारेमाणीओ चिठ्ठति, तासि णं जिणपडिमाणं पुरओ दो दो णागपडिमाओ दो दो जक्खपडिमाओ दो दो भूअपडिमाओ दो दो कुंडधारप डिमाओ विणओणयाओ पायवडियाओ पंजलिउडाओ सन्निक्खित्ताओ चिति सवरयणामईओ अच्छाओ सण्हाओ लण्हाओ घट्टाओ मट्ठाओ नीरयाओ निप्पंकाओ जान पढिरुवाओ, तत्थ णं जिणपरिमाणं पुरओ अट्ठसयं घंटाणं अट्ठसयं बंदणकलसाणं एवं भिंगाराणं आयंसगाणं थाठाणं पाईणं सुपट्टगाणं मणोगुलिआणं वातकरगाणं चित्ताणं रयणकरंडगाणं हयकंठाणं जाव उसभकंठाणं पुष्कचंगेरीणं जाव लोमहत्यचंगेरीणं पुप्फपडलगाणं जाव लोमहत्थपडलगाणं” तासां जिनप्रतिमानामयमेतद्रूपो वर्णव्यासः प्रज्ञतः, तद्यथातपनीयमयानि हस्ततलपादतलानि तथा कनकमयाः पादाः तथा कनकमया गुल्फाः अङ्कुमयाः - अङ्करलमया अन्तलोहिताख्यर लप्रतिसेका नखाः, कनकमय्यो जङ्घाः, कनकमयानि जानूनि, कनकमया ऊरवः, कनकमथ्यो गात्रयष्टयः, तपनीयमया नाभयः रिठरलमय्यो रोमराजयः, तपनीयमया श्रुशुकाः- स्तनाग्रभागाः, तपनीयमयाः श्रीवत्साः, तथा कनकमय्यो बाहाः, तथा कनकमय्यो ग्रीवा रिष्ठरत्नमयानि श्मश्रूणि शिलाप्रवालमया-विद्रुममयां ओष्ठा स्फटिकमया दन्ताः तपनीयमध्यो जिह्वाः तपनीयमयानि तालुकानि कनकमय्यो नासिका अन्तर्दोहिताक्षरक्षप्रतिसेका अङ्कमया
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
------ मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक [१३]
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न्यशीणि अन्तलोहिताक्षप्रतिसेकानि, रिवरसमयोऽविमध्यगतास्तारिकाः रिसरममयाम्बक्षिपत्राणि नेत्ररोमाणि रिवरसमय्यो भ्रवः कनकमयाः कपोलाः कनकमया श्रवणा: कनकमग्यो ललाटपट्टिका: यजमय्यः शीर्षपटिकाः तपनीयमबा सिद्धायात
वक्षस्कारे द्वीपशा-18 न्तिचन्द्री- केशान्तकेशभूमयः, केशान्तभूमयः केशभूमयश्चेति भावः, रिष्ठरतमया उपरि मूर्बजा:-केशार, ननु केशरहितशी-1 नकूटवर्णनं या वृत्ति: | मुखाना भावजिनानां प्रतिरूपकत्वेन सद्भावस्थापना, जिनानां कुतः शकूर्चाविसम्भवः ।, उच्यते, भावजिनानामपि सू. ३०
| अवस्थितकेशादिप्रतिपादनस्य सिद्धान्तसिद्धत्वात्, यदुक्तं श्रीसमवायाोतियाधिकारे-"अवडिअकेसमंसुरोमणहे। ॥८ ॥
॥ ति, तथा औपपातिकोपाझे-'अवद्विअसुविभत्तचित्तमंसू इति, अवस्थितत्व र देवमाहात्म्वतः पूर्वोत्पमानां केशादीनां
तथैवाचस्थानं न तु सर्वथाऽभावत्वं, इत्यमेव शोभातिरेकदर्शनं पुरुषत्वपतिपषिय, तेम प्रस्तुते न तत्पतिरूपताव्या-13॥ पाता, नन्वेवं सति अर्चनकेन किमालम्ब्य तेषां श्रामण्यावस्था भावनीवेति चेत् 1, उच्यते, परिकर्मितरितमणिमय-18 | तथाविधाल्पकेशाविरमणीयमुखादिस्वरूपमिति, यत्तु श्रीतपागच्छनायक्रमीदेवेन्द्रसूरिशिष्यश्रीधर्मपोषसूरिपादैर्भाच्यवृत्तौ भगवतोऽपगतकेशशीर्षमुखनिरीक्षणेन श्रामण्यावस्था सुज्ञानैवेत्यामिदघे वववर्धिष्णुत्वेनास्यत्वेन चाभास विवक्षणात् श्रामण्यावस्थाया अप्रतिवन्धकत्वाचेति न किमप्यनुपपर्ण, तासां जिनप्रतिमानां पृष्ठत एकैका जत्रास प्रतिमा प्रज्ञता, ताश्च छत्रधारप्रतिमा हिमरजतकुन्देन्दुप्रकाशानि सकोरण्टमास्यदामानि धवलानि आतपत्राणि-पत्राणि सलीलं धारयन्त्यस्तिष्ठन्ति, तासां जिनप्रतिमानामुभयोः पार्श्वयोः प्रत्येकं दे चामरधारमतिमे प्रशसे, ताश्च चामर
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अनुक्रम
[१४]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ----------------------
-------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[१३]]
धारप्रतिमाः चन्द्रप्रभ:-चन्द्रकान्तो बजं-हीरकमणिः वैडूर्य च-प्रतीत तानि शेषाणि च नानामणिरत्नानि खचितानि येषु दण्डेषु वे सथा, पवरूपा महार्हस्य-महाघस्य तपनीयस्य सत्का उज्वला विचित्रा दण्डा येषु तानि तथा, 'चिल्लियाओ' इत्यादि प्राग्वत्, नवरं 'चामराओ'त्ति प्राकृतत्वात् खीत्वं चामराणि सलीलं धारयन्त्यो-वीजयन्त्यो वीजय-18 न्त्यस्तिष्ठन्ति, तासां जिनप्रतिमानां पुरतो हे द्वे नागप्रतिमे द्वे द्वे यक्षप्रतिमे द्वे द्वे भूतप्रतिमे द्वे द्वे कुण्डधारप्रतिमेआज्ञाधारमतिमे, विनयावनते पादपतिते प्राञ्जलिपुटे सन्निक्षिसे तिष्ठतः, ताश्च 'सबरयणामईओं' इत्यादि प्राग्वत्, 'तत्य ण' मित्यादि, तस्मिन् देवच्छन्दके जिनप्रतिमानां पुरतोऽष्टशतं घण्टानां अष्टशतं वन्दनकलशाना-माङ्गल्यघटानां अष्टशतं भृङ्गाराणामष्टशतमादर्शानामष्टशतं स्थालानामष्टशतं पात्रीणामष्टशतं सुप्रतिष्ठकानामष्टशतं मनोगुलि-13 काना-पीठिकाविशेषरूपाणामष्टशतं वातकरकाणामष्टशतं चित्राणां रक्षकरण्डकानामष्टशतं हरकण्ठानामष्टशतं गजकपठानामधशतं नरकण्ठानामष्टशतं किस्मारकण्ठानामष्टशतं किंपुरुषकण्ठानामष्टशतं महोरगकण्ठानामष्टशतं गन्धर्वकण्ठा-॥ | नामष्टशतं वृषभकण्ठानामष्टशतं पुष्पचङ्गेरीणामष्टशतं माल्यचङ्गेरीणामष्टशतं चूर्णचङ्गेरीणामष्टशतं गंधचङ्गेरीणामष्टक्षत वखचनेरीणामष्टशतमाभरणचोरीणामष्टपतं सिद्धार्थकचङ्गेरीणामष्टशतं लोमहस्तकचनेरीणां लोमहस्तका-मयूरपिग्छ-10
पुञ्जनिका अष्टशतं पुष्पपटलकानामष्टशतं मास्यपटलकाना मुत्कलानि पुष्पाणि अथितानि माल्यानि अष्टशतं चूर्णपटस-1 18 कानामेवं गन्धवस्त्राभरणसिद्धार्थकलोमहस्तकपटलकानामपि प्रत्येक प्रत्येकमष्टशतं द्रष्टव्यं, अष्टशतं सिंहासनानामहा ।
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दीप
अनुक्रम
[१४]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [8], -------------------------
------ मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्वक्षस्कारे दक्षिणार्थकूटादिक्
[१३]]
दीप
श्रीजम्मू-18| छत्राणामष्टशतं चामराणामष्टशतं तैलसमुद्गकानामष्टशतं कोष्ठसमुद्गकानामष्टशतं चोअकसमुद्गकानामष्टशतं तगरसमु-
नकानामष्टशतमेलासमुद्रकानामष्टश्चतं हरितालसमुद्भकानामष्टशतं हिंगुलकसमुद्रकानामष्टशतं मनःशिलासमुद्कानाम-
शतमञ्जनसमुद्गकानां, सर्वाण्यप्येतानि तैलादीनि परमसुरभिगन्धोपेतानि द्रष्टव्यानि, अष्टशतं ध्वजाना, अत्र सङ्घहणीया चिः
गाथे-'वंदणकलसा भिंगारगा य आयंसगा य थाला य। पाईओ सुपट्टा मणगुलिया वायकरगा य॥१॥चित्ता ॥८२॥ रयणकरंडय हयगयनरकंठगा य चंगेरी । पडलगसीहासणछत्त चामरासमुगयझया य॥२॥ अष्टशतं धूपकडुच्छु
कानां सशिक्षिप्त तिष्ठति । उक्का सिद्धायतनकूटवक्तव्यता, अथ दक्षिणार्द्धभरतकूटस्वरूपं पृच्छन्नाह
कहिणं मते ! वेअड्डे पथए वाहिणभरहकूले णामं कूडे पण्णते?, गो. खंडप्पवायकूडस्स पुरच्छिमेण सिद्धाययणकूडस्स पश्चच्छिमेणं एत्थ णं वेअपचर दाहिणभरहकूडे णामं कूडे पण्णत्ते, सिद्धाययणकूडप्पमाणसरिसे जाव तस्सणं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमजसदेसभाए एत्थ णं महं एगे पासायडिंसए पण्णत्ते, कोसं उर्दू उच्चत्तेणं अद्धकोस विक्खंभेणं अम्भुमायमूसियपहसिए जाव पासाईए ४, तस्स णं पासायवढंसगस्स बहुमज्झदेसभाए एत्व गं महं एगा मणिपेढिआ पण्णता, पंच धणुसयाई आयामक्क्सिभेणं अढाइल्याहिं धणुसयाई पाहलेणं सक्षमणिमई, तीसे णं मणिपेढिआए उप्पि सिंहासणं पण्णत्त, सपरिवार भाणियचं, से केणद्वेणं मते ! एवं बुबह-दाहिणभरहकूले २१, गो०। दाहिणभरहकूडे णं दाहिणभरहे णाम देवे महिडीए जाव पलिओवमट्टिईए परिवसइ, से ण तत्व पाउण्डं सामाणिअसाहस्सीणं चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्डं परिसाणं सत्तहं अणिवाणं सत्तण्हं
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अनुक्रम
[१४]
॥८२॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [१], -------------------- --------------------------------- मलं [१४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४]
गाथा:
अणियाहिवईणं सोलसह अयारक्सदेवसाहस्सीणं दाहिणभरहकूडस्स दाहिणट्टाए रायहाणीए अण्णेसि बहूर्ण देवाण व देवीण य जाब विहय ।। कहि णं भंते ! दाहिणभरहकूडस्स देवस्स दाहिणड्डा णामं रायहाणी पण्णता !, गो०! मंदरस्स पचतस्स दक्षिणेणं तिरियमसंखेजदीवसमुरे वीईवदत्ता अयणं जंबुद्दीवे दीवे दक्षिणेणं बारस जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्य ण दाहिणवृभरहकूलस्स देवस्स पाहिणभरहा णामं रायहाणी भाणिअबा जहा विजयस्स येवस्स, एवं सबकूदा यया जाय वेसमणकूले परोप्परं पुरच्छिमपञ्चस्थिमेणं, इमेसिवण्णावासे गाहा-'मझे वेअथस्स उ कणयमया तिण्णि होति कूडा उ । सेसा पञ्चयकूडा सो रयणामया होति ॥ १॥ माणिभरफूडे १ बेअदृकूले २ पुण्णभकूडे ३ एए तिणि कूडा कणगामया सेसा छप्पि रयणमया, दोण्हं विसरिसणामया देवा कयमालए चेव गट्टमालए चेव, सेसाणं छहं सरिसणामया-जण्णामया प फूटा तन्नामा खलु हवंति ते देवा । पलिओवमहिईया हवंति पत्तेअपत्तेयं ॥१॥ रायहाणीओ जंबुरीचे दीवे मंदरस्स पवयस्स दाहिणेणं विरि असंखेज्जदीवसमुरे वीईवइत्ता अण्णंमि जंबुद्दीवे दीवे वारस , जोमणसहस्साई ओगाहित्ता, एत्व णं रायहाणीओ भाणिअचाओ विजयरायहाणीसरिसयाओ (सूत्र १४)
'कहिण' मित्यादि, अत्र सर्वापि पदयोजना सुगमा, नवरं प्रासादावतंसकः क्रोशमूर्दोच्चत्वेनाईक्रोशं विष्कम्भेन, 18|| 8 अत्र सूत्रेऽनुक्तमप्यर्द्धकोशमायामेनेति बोध्यं, 'सेसेसु अ पासाया कोसुच्चा अद्धकोसपिहुदीहा' इत्यादिश्रीसोमतिलक-18
रिकृतसिरिनिलयमितिक्षेत्रविचारवचनात्, श्रीउमाखातिकृते जम्बूद्वीपसमासे तु प्रासादावतंसकः क्रोशाक्रोशदै-18
दीप अनुक्रम [१५-१८]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [१], -------------------------------------------------------- मूल [१४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४]
गाथा:
श्रीजम्प-18jविस्तारः किश्चिन्यूनतदुच्छ्यः उक्कोऽस्तीति, 'अन्भुग्गयमूसिअ' इत्यादि प्राग्वत् , अथ तत्र यदस्ति तदाह-'तस्स ण- श्वक्षकारे द्वीपशा-18| मित्यादि सुगम, नवरं 'सपरिवारं'ति दक्षिणा भरतकूटाधिपसामानिकादिदेवयोग्यभद्रासनसहितमिति, अथ प्रस्तुतकून्तिचन्द्री- टनामान्वर्थ पृच्छति-से केणद्वेण'मित्यादि, सर्व चैतत्सूत्रं विजयद्वारनामान्वर्थसूचकसूत्रवत्परिभाषनीयं, नवरं दक्षि-181 या वृत्तिः
राणा या इति पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् पाठान्तरानुसाराद्वा दक्षिणार्द्धभरताया राजधान्या इति, अत्र सूत्रेऽदृश्य-18 ॥३॥ मानमपि से तेणगुण'मित्यादि सूत्रं स्वयं ज्ञेयं, तथा च दक्षिणार्द्धभरतकूटनामा देवः स्वामित्वेनास्यास्तीत्यभ्रादित्वाद
प्रत्यये दक्षिणार्द्धभरतकूटमिति, अधास्य राजधानी कास्तीति पृच्छति-कहिं णमित्यादि व्यक्त, अथापरकूटवक्तव्यतां । र दक्षिणार्द्धभरतकूटातिदेशेनाह-एवं सच' इत्यादि, एवं-दक्षिणार्द्धभरतकूटन्यायेन सर्वकूटानि तृतीयखण्डप्रपातगुहा
कूटादीनि नेतव्यानि-बुद्धिपथं प्रापणीयानि यावन्नवम वैश्रमण कूट, 'परोप्प'ति परस्परं 'पुरच्छिमपञ्चत्थिमेणं'ति | पूर्वापरेण, अयमर्थः-पूर्व पूर्व पूर्वस्या उत्तरमुत्तरमपरस्यां, पूर्वापरविभागस्यापेक्षिकत्वात् , 'इमेसि' इत्यादि, एषां कूटा-1॥ || नां वर्णकव्यासे-वर्णकविस्तारे इमा-वक्ष्यमाणा गाथा, 'इमा से' इति पाठे तु से इति बचनस्य व्यत्ययात् तेषां कूटानां || 19 वर्णावासे इमा गाथेति योजनीयं, 'मज्झे बेअहस्स उ' इत्यादि, तुशब्दो विशेष स च व्यवहितसम्बन्धा, तेन वैताव्यस्य || IS मध्ये तु चतुर्थपञ्चमपष्टरूपाणि त्रीणि कूटानि कनकमयानि भवन्सि, सूत्रे खीलिङ्गनिर्देशः प्राकृतत्वात, शेषाणि पर्वत
कूटानि वैताब्यवर्षधरमेरुमभृतिगिरिकूटानि 'व्याख्यातो विशेषप्रतिपत्ति'रिति हरिस्सहहरिकूटवलकूटवर्जितानि रकमबा-19॥
दीप अनुक्रम [१५-१८]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [१], ---------------------- ---------------------------------- मूलं [१४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१४]
गाथा:
एकतरsectseरररररररर
नि ज्ञातव्यानि, यत्त्वत्र वैताव्यप्रकरणे सर्वपर्वतगतकूटज्ञापनं तत्सर्वेषामेकवर्णकत्वेन लापवार्थ, तथा वैताव्यस्येत्यत्र जात्यपेक्षयकवचनं तेन सर्वेषामपि वैताळ्यानां भरतैरावतमहाविदेहविजयगतानां वसु कूटेषु सर्वमध्यमानि श्रीणि | श्रीणि कूढानि कमकमयानि ज्ञातम्यानि, पतदेव वैताज्ये व्यक्त्या दर्शयति-'माणिमह' इत्यादि, यो कूटयोर्विसह-IST शनामकौ देवी स्वामिनी, तद्यथा-कृतमालकश्चैव नृत्तमालकश्चैव, तमित्रगुहाकूटस्य कृतमालः स्वामी खण्डप्रपातगुहाकूटस्य तृत्तमालः स्वामी, शेषाणां षण्णां कूटानांसहक्-कूटनामसदृशं नाम येषां ते सदृग्नामका देवाः स्वामिनः, यथा दक्षिणार्धभरतकूटस दक्षिणार्द्धभरतकूटनामा देवः स्वामी, एवमन्येषामपि भावना कार्या, एनमेवार्थ सविशेष गाथमाऽऽह-यन्नामकानि कूटानि तन्नामानः खलुनिश्चये भवन्ति देवाः पल्योपमस्थितिका भवन्ति, प्रत्येक २ प्रतिकूटमि| स्वर्थः, एतेनाष्टानां कूटानां स्वामिन उकाः, सिद्धायतनकूटे तु सिद्धायसनखैव मुख्यत्वेन तत्स्वामिदेवानभिधानमिति, ननु दक्षिणार्द्धभरतकूटानां स्वसहशमामकदेवाश्रयभूतत्वात् नामान्वर्थः सङ्गच्छते, यथा दक्षिणार्डभरतमामदेवस्वामिकरवावुपचारेण दक्षिणाभिरतनामा देवः स्वामित्वेनास्यास्तीति अनादित्वादप्रत्यये वा दक्षिणाभिरत, एवमन्येष्यपि, | परं खण्डमपातगुहाकूटसमिरगुहाकूटयोः स कर्थ , तत्स्वामिनोसमालकृतमालयोर्विसहशनामकरवात्, न च खण्डप्रपातगुहाया उपरिवर्ति कुटं समाप्रपातगुहाकूटमित्यादिरेवान्वर्थोऽस्विति वाच्य, अत्र सूत्रे दक्षिणाईभरतकूटवत् शेषकूटानामतिदेशात् बृहत्क्षेत्रसमासवृत्तौ "एवं क्षेपकूटान्यपि स्वस्वाधिपतियोगता प्रवृत्ताम्यवसैयानी"ति श्रीमलयनि
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दीप अनुक्रम [१५-१८]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [१], --------------------------------------------------------- मूलं [१४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
श्रीजम्- दीपशा न्तिचन्द्रीया वृचिः
[१४]
॥2॥TOls
कररररररररर
गाथा:
रिसूरिभिरुकत्याचेति चेत्, उच्यते, खण्डप्रपातगुहाधिपस्य कूट खण्डप्रपातगुहाकूट, तमिस्रगुहाधिपस्य कूट तमिस्र-१ वक्षस्कारे गुहाकूटमिति स्वामिनो यौगिकनामान्तरापेक्षया अत्राप्यन्वर्थो घटत एव, यदुक्तं तैरेव तत्र-"तृतीये कूटे खण्डप्रपात
वैताबोत
रभरतव० गुहाधिपतिर्देव आधिपत्य परिपालयति तेन तत् खण्डप्रपातगुहाकूटमित्युच्यते" इति न किमप्यनुपपन्नं, अथ तृती-8.32
तानसू.३१-३२ यादिकूटाधिपतीनां राजधान्यः क्व सन्तीति प्रश्नसूचकं सूत्रमाह-रायहाणीओ'ति, अत्र निर्वचनसूत्रम्, 'जंबुद्दीवे । दीवे' इत्यादि, जंबूद्वीपे द्वीपे इत्यादि सर्व व्यक्तम्, नवरं खण्डप्रपातगुहाधिपतेर्देवस्य राजधानी खण्डप्रपात| गुहाभिधाना माणिभद्रख माणिभद्रेत्यादि, सर्वाणि चोक्तवक्ष्यमाणानि कूटानि एकैकवनखण्डपद्मवरवेदिकायुतानि मन्तव्यानि ।
से केणढणं भंते 1 एवं वुबइ वेमले पथए वेअड्डे पथए !, गोयमा ! वेअड्डे णं पथए भरहं वासं दुहा विभयमाणे २ चिट्ठइ, तंजहादाहिणभरहं च उत्तरदृभरई च, वेअबृगिरिकुमारे अ इत्व देवे महिडीए जाव पलिभोवमद्विइए परिवसइ, से तेणडेणं गोयमा ! एवं बुबह-वेअब्बे पथए २, भदुत्तरं च णं गोभमा ! वेयदृस्स पश्चयस्स सासए णामधेने पण्णत्ते जंण कयाइ ण आसि ण कयाइ ण अत्वि ण कयाइ ण भविस्सइ मुर्वि च भवइ अ भविस्सइ अ भुवे णिभए सासए अक्खए अबए अवहिए णिचे (सूत्र १५) कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे उत्तरइभरहे णामं वासे पण्णत्ते ?, गोअमा ! चुल्हिमवंतस्स वासहरपवयस्स दाहिणे णं वेअदृस्स पवयस्स उत्तरेणं पुरच्छिमलवणसमुहस्स पञ्चच्छिमेणं पञ्चच्छिमलवणसमुहस्स पुरच्छिमेणं एस्थ णं जंचुरीवे दीवे उत्तरदृभरहे णामं वासे प
दीप अनुक्रम [१५-१८]
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अथ उत्तरार्धभरतस्य स्वरुपम् वर्ण्यते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ------------------------
------- मूलं [१५-१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५-१६]
दीप अनुक्रम [१९-२०]
ण्णते पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविच्छिण्णे पलिअंकसंठिए दुहा लवणसमुदं पुढे पुरच्छिमिल्लाए कोडीए पुरच्छिमिलं लवणसमुई पुढे पञ्चच्छिमिलाए जाव पुढे गंगासिंधूहिं महाणईहिं तिभागपविभत्ते दोणि अद्वतीसे जोअणसए तिणि अ एगूणवीसहभागे जोअणस्स विक्खंभेणं, तस्स बाहा पुरच्छिमपञ्चच्छिमेणं अट्ठारस बाणउए जोअणसए सत्त व एगूणवीसहभागे जोभणस्स अनुभाग च आयामेणं तस्स जीवा उत्तरेणं पाइणपडीणायया दुहा लवणसमुरं पुट्ठा तहेव जाव चोइस जोअणसहस्साई चत्वारि ज एकहत्तरे जोअणसए छञ्च एगूणवीसहभाए जोमणस्स किंचिविसेसूणे आयामेणं पण्णता, तीसे धणुपट्टे दाहिणेणं चोइस जोमणसहस्साई पंच अट्ठावीसे जोमणसए एकारस व एगूणवीसइभाए जोअणस्स परिक्खेवणं । उत्तरडभरहस्स णं भंते । वासस्स केरिसए आवारपडीयारे पण्णते !, गोममा ! बटुसमरमणिजे भूमिमागे पण्णते, से जहा णामए आलिंगपुक्खरेद वा जाब कित्तिमेहि चेव अकिचिमेहिं घेव, उत्तरखभरहे थे भंते ! वासे मणुभाणं केरिसए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते !, गोअमा! ते णं मणुआ बहुसंघयणा जाव अप्पेगइआ सिझंति जाव सवदुक्खाणमंतं करेंति (सूत्र १६)
अथ वैतान्यनामो निरुक्तं पृच्छति-से केणडेण'मित्यादि, अत्र प्रश्नसूत्र प्राग्वत् , उत्तरसूत्रे तु वैताब्यः पर्वतः, णमिति प्राग्वत्, भारत वर्ष-भरतक्षेत्रं द्विधा विभजन २ तिष्ठति, तद्यथा-दक्षिणार्द्धभरतं च उत्तरार्द्धभरतं च, तेन भरतक्षेत्रस्य वे अः करोतीति वैताब्यः पृषोदरादित्वाद्रूपसिद्धिः, अथ प्रकारान्तरेण नामान्यर्थमाह-अथ च वैतादयगिरिकुमारोऽत्र देवो महर्द्धिको यावत्करणात् 'महजुई इत्यादिपदसङ्ग्रहः पल्योपमस्थितिकः परिवसति, तेन वैतादय इति
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श्रीजम्यू.१५
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], -----------------------
------- मूलं [१५-१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
श्रीजम्- द्वीपशा- न्तिचन्द्रीया वृत्तिः
सूत्रांक
[१५-१६]
८५॥
दीप
नामाग्वों विजयद्वारवंद ज्ञेयः, सरशनामकस्वामिकत्वात् , 'अदुत्तरं च ण'मित्यादि प्राग्वत । अथोत्तरार्जभरतवर्ष वक्षस्कारे कास्तीति प्रश्नसूत्रमाह-'कहिण'मिस्सादि, दक्षिणार्द्धभरतसमगमकत्वेन व्यक, नवरं 'पलिअंक'त्ति पर्यस्यत् संस्थित
| वैताब्यनि
रुतिः उत्तसंस्थानं यस्य तत्तथा, शते अष्टत्रिंशदधिके त्रींश्चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य विष्कम्भेनेति, अस्य शरस्तु प्राच्य-18
रभरतका शरसहितस्वक्षेत्र विस्तारो योजनतः ५२५-६, कलास्तु १०००० । अथास्य चाहे आह-तस्स पाहा' इत्यादि, तस्योत्त| रार्द्धभरतस्य बाहा-पूर्वोक्तस्वरूपा पूर्वापरयोर्दिशोरेकैका अष्टादश योजनशतानि द्विनवतियोजनाधिकानि सप्त चैकोन-18 विंशतिभागान योजनस्य अर्द्धभागं चैकोनविंशतितमभागस्य, योजनस्थाष्टत्रिंशत्तमभागमित्यर्थः, अत्र करणं यथा-गुरु धनुःपृष्ठ कलारूपं २७६०४२ अस्मात् २०४१३१ कलारूपं लघु धनुःपृष्ठ शोध्यते, जातं ७१९११, अझैं कृते जातं कला ३५९५५ कलार्द्ध च, तासां योजनानि १८९२ कलाः ७ कलार्द्ध चेति, एतच्चैकैकस्मिन् पार्थे बाहाया आयाममान । अथास्य जीवामाह-'तस्स जीवा उत्तरे ण'मित्यादि, तस्य जीवा-पागुक्तस्वरूपा उत्तरेण-क्षुद्रहिमवद्भिरिदिशि प्राची-18 नप्रतीचीनायता द्विधा लवणसमुद्रं स्पृष्टा तथैव-दक्षिणार्द्धभरतजीवासूत्रवदेव 'जाव'त्ति 'पञ्चथिमिलं लवणसमुई पुढे'ति । पर्यन्तं सूत्रं ज्ञेयमिति भावः, 'चउद्दसत्ति चतुर्दश योजनसहस्राणि चत्वारि चैकसप्तत्यधिकानि योजनशतानि पद
॥८५॥ |चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य किश्चिद्विशेषोनान् आयामेन प्रज्ञप्ता, अब करणं यथा-कलीकृतो जम्बूद्वीपव्यासः १९M शून्य ५, इनितः १८९ शून्य ४, इषुगुणः १८९ शून्यः८, चतुर्गुणः ७५६ शून्य ८, एष उत्तरभरतार्द्धजीवावर्गः, अस्य
अनुक्रम [१९-२०]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [१], ------------------------
------- मूलं [१५-१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१५-१६]
गमूल लब्धाः कलाः २७४९५४, शष कलाशाः २९७८८४ छदः ५४९९०८ लब्धकलानां १५ भागे योजन १४४७१|| SILउद्धरितैः शेषकलांशमध्ये प्रक्षिप्तः षष्ठी कला किचिद्विशेषोना विवक्षितेति । अथास्य धनु पृष्ठमाह-'तीसे' इत्यादि,R | तस्या-उत्तरार्द्धभरतजीवाया दक्षिणपार्थे धनुःपृष्ठ अर्थादुत्तरार्द्धभरतस्य चतुर्दश योजनसहस्राणि पश्च शतान्यष्टा
विंशत्यधिकानि एकादश चैकोनविंशतिभागान् योजनस्य परिक्षेपेण-परिधिना प्रशसमिति शेषः, अत्र करणं यथाIS| उत्तरार्द्धभरतस्य कलीकृत इषुः १००००, अस्य वर्ग: १ शून्य ८, स च षड्गुणः शून्य ८, सोऽप्युत्तरार्द्धभरतजीवा
वर्गेण ७५६०००००००० इत्येवंरूपेण मिश्रितो जातः ७६२ शून्य ८,एष उत्तराईभरतस्य जीवावर्गः, अस्य मूले लब्धाः कलाः २७६०४३, शेष कलांशाः २६२१५१, छेदराशिः ५५२०२६, कलानामेकोनविंशत्या भागे १४५२८ १. अत्र शेषशानामविवक्षितत्वानकादशकलानां साधिकत्वसूचा, अत्र दक्षिणार्द्धभरतादिक्षेत्रसम्बन्धिशरादिचतुष्कस्य सुखेन परिज्ञानाय यन्त्रकस्थापना यथाक्षेत्र. शर०
जीवा० दक्षिणभरतार्द्ध २३८ योजनभागः।
९७३८ योज०१३ ९७६६ योजनभागः वैताम्यपर्वतः २८८ योजनभागः ४८८ योज० १०७२० योज.३१०७४३ योजनभागः उत्तरभरतार्द्ध ५२६ योजनभागः १८९२ योज० १४४७१ योज.३१५५२८ योजनभागः॥
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दीप अनुक्रम [१९-२०]
बाहा.
धनु:पृष्ठं
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [१], ------------------------ ----------------------- मूलं [१५-१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१५-१६]
दीप
श्रीजम्बू-8 एषा च शरादीनां करणविधिः प्रसङ्गतोऽत्र दर्शितः, अतः परमुत्तरत्र क्षुद्रहिमवदादिसूत्रेषु स न दर्शयिष्यते विस्त- श्वधस्कारे
रभवात् , तजिज्ञासुना तु क्षेत्रविचारवृत्तितो ज्ञेय इति । अथोत्तरार्द्धभरतस्वरूपं पृच्छति-'उत्तरभरहस्स 'मित्यादिऋषमकटान्तिचन्द्री
राधिकार सू. व्यकं, अत्रैव मनुष्यस्वरूपं पृच्छति-'उत्तरहृभरहे' इत्यादि, इदमपि प्राग्वत्, यावदेके केचन सर्वदुःखानामन्तं कुर्वया वृत्तिः
न्तीति । नन्वत्रत्यमनुष्याणामईदाद्यभावेन मुक्त्यङ्गभूतधर्मश्रवणाद्यभावात् कथं मुक्त्यवाप्तिसूत्रमौचित्यमञ्चति इति ॥८६॥शचेत् !, उच्यते, चक्रवर्तिकाले अप्रावृतगुहायावस्थानेन (स्वयं गमनात्) गच्छदागच्छद्दक्षिणार्द्धभरतवासिसाध्वादिभ्यो
वाऽग्यदाऽपि विद्याधरश्रमणादिभ्यो वा जातिस्मरणादिना वा मुक्त्यङ्गावाप्तेर्मुक्त्यवाप्तिसूत्रमुचितमेवेति । अर्थतत्-13
क्षेत्रवर्तिऋषभकूटं कास्तीति पृच्छतिNI कहि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे उत्तरडमरहे बासे उसमकूडे णाम पचए पण्णते ?, गोमा ! गंगाकुंडस्स पचत्यिमेणं सिंधुकुंडस्स
पुरच्छिमेणं चुलहिमवंत्तस्स वासहरपवयस्स दाहिणिल्ले णितंबे, एल्थ ण जंबुद्दीवे वीवे उत्तरभरहे वासे उसहकूडे णाम पचए पण्णत्ते, अट्ठ जोषणाई उड्डे उच्चत्तेणं, दो जोयणाई उमेहेणं, मूले अट्ठ जोषणाई विक्खंभेणं मझे छ जोषणाई विक्खमेणं
बयप्युत्तरभरतार्यक्षेत्रे तीदायभायेन अनार्यदेशोत्पनत्वेन च तत्रत्यानां मनुजानां धर्मप्राप्तिसामन्यभावः तथापि देखनमस्कारादिप्रयोजनबसेन तत्रगताना विद्याधरादिसाधूनां जिनप्रतिमानां च दर्शनतः कर्मणां क्षयोपशमवैचित्र्यात् भाईकुमारादय इव जातजातिस्पतयः चकवादिकाले च तत्रोत्पमा अपीह ॥८६॥
तीर्थकदादिसमीपे धम्भधवच्यादिनाध्याप्तबोधयः तचाविषभन्यत्वपरिपाकवशेनावाप्तकेवलज्ञानासानापि सिपंति यावविवान्ति नात्र किंचिद्वापक, न चानार्थदेशोपात्मत्वमेव तत्र बाधकमिति बाच्च, आकुमारादेवकवर्तिनीणां च सम्यक्त्वादिप्राप्तिधुतेखस्याबापकत्वात् । (श्रीहीर-पती.) . .
अनुक्रम [१९-२०]
अथ उत्तरार्धभरते स्थित रुषभकटस्य स्वरुपम् ---
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१७]
दीप
अनुक्रम
[२१]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [१७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
वरं चत्तारि जोअणाई विक्खंभेणं, मूले साइरेगाई पणवीसं जोञणाई परिक्खेवेणं मजो साइरेगाई अहारस जोअणाई परिक्खेवेणं उवरिं साइरेगाएं दुबालस जोअणाई परिक्खेवेणं, पाठान्तरं मूळे बारस जोभणारं विक्खंमेणं मज्झे अट्ट जोजणारं विक्खंउपि चत्तारि जोअणाई बिक्खमेणं मूले साइरेगाई सत्तत्तीस जोअणाई परिक्लेवेणं मझे साइरेगाई पणवीसं जोअणाई परिक्त्रेवेणं उपि साइरेगाई बारस जोभणाई परिक्लेवेणं, मूळे विच्छिण्णे मज्झे संक्सिचे उप तजुए गोपुच्छसंठाणसंठिए सवजंबूणयामए अच्छे सण्डे जाब पढिरूने, से णं एगाए पडमवरवेइआए तहेब जाव भवणं कोर्स आयामेणं अनकोसं विक्खंभेणं देसणं कोर्स उ उचचेणं, अट्ठो तहेव, उप्पलाणि पउमाणि जाव उसमे अ एत्थ देवे महिडीए जाब दाहिणेणं रायद्दाणी तद्देव मंदरस्स पवयस्स जहा विजयस्स अविसेसियं ( सूत्रं १७ )
'कहिं णमित्यादि, क भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे उत्तरार्द्धभरते वर्षे ऋषभकूटो नाम्ना पर्वतः प्रज्ञप्तः १, भगवानाह - गौतम ! गङ्गाकुण्डस्य यत्र हिमवतो गङ्गा निपतति तद्गङ्गाकुण्डं तस्य पश्चिमायां यत्र तु सिन्धुर्निपतति तद् सिन्धुकुण्डं तस्य पूर्वस्यां हिमवतो वर्षधरस्य दाक्षिणात्यनितम्बे, सामीपकसतम्या नितम्बासने इत्यर्थः, अत्र प्रदेशे जम्बूद्वीपे द्वीपे उत्तरार्द्धभरते वर्षे ऋषभकूटो नान्ना पर्वतः प्रज्ञप्तः, अष्टयोजनान्यूजचंत्वेन द्वे योजने उद्वेधेन भूमिप्रवेशेन, उच्चत्वचतुर्थांशस्य भूम्यवगाढत्वात्, अष्टानां चतुर्थांशे द्वयोरेव लाभात् मूलमध्यान्तेषु क्रमादष्ट षट् चत्वारि योजनानि विष्कम्भेन विस्तरेण उपलक्षणत्वादायामेनापि, समवृत्तस्यायामविष्कम्भयोस्तुल्यत्वादिति, तथा मूलमध्यान्तेषु पंचविंशतिरष्टादश द्वादश च योजनानि सातिरेकाणि परिक्षेपेण-परिधिना, अधास्य
Fucraleey
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१७]
दीप
अनुक्रम
[२१]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [१],
मूलं [१७]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूपान्तिचन्द्री
या वृतिः
॥ ८७ ॥
पाठान्तरं वाचनाभेदस्तद्गतपरिमाणान्तरमाह-मूले द्वादश योजनानि विष्कम्भेन मध्येऽष्ट योजनानि विष्कम्भेन उपरि चत्वारि योजनानि विष्कम्भेन, अत्रापि विष्कम्भायामतः साधिकत्रिगुणं मूलमध्यान्तपरिधिमानं सूत्रोकं | सुबोधं । अत्राह पर:- एकस्य वस्तुनो विष्कम्भादिपरिमाणे द्वैरूप्यासम्भवेन प्रस्तुतग्रन्थस्य च सातिशयस्थविरमणी| तत्वेन कथं नान्यतरनिर्णयः १, यदेकस्यापि ऋषभकूटपर्वतस्य मूलादावष्टादियोजनविस्तृतत्वादि पुनस्तत्रैवास्य द्वादशादियोजनविस्तृतत्वादीति, सत्यं, जिनभट्टारकाणां सर्वेषां क्षायिकज्ञानवतामेकमेव मतं मूलतः, पश्चात्सु कालान्तरेण विस्मृत्यादिनाऽयं वाचनाभेद, यदुक्तं श्रीमलयगिरिसूरिभिज्योंतिष्करण्डकवृत्ती - " इह स्कन्दिलाचार्य (तिप) ती दुष्षमानुभावतो दुर्भिक्षप्रवृत्त्या साधूनां पठनगुणनादिकं सर्वमप्यनेशत्, ततो दुर्भिक्षातिक्रमे सुभिक्षप्रवृत्ती द्वयोः संघमेलापकोऽभवत्, तद्यथा-एको वलभ्यामेको मथुरायां तत्र च सूत्रार्थसंघटने परस्परं वाचनाभेदो जातः, विस्मृत| योर्हि सूत्रार्थयोः स्मृत्वा २ संघटने भवत्यवश्यं वाचनाभेद" इत्यादि, ततोऽत्रापि दुष्करोऽन्यतरनिर्णयः द्वयोः | पक्षयोरुपस्थितयोरनतिशायिज्ञानिभिरनभिनिविष्टमतिभिः प्रवचनाशातनाभीरुभिः पुण्यपुरुपैरिति न काचिदनुपपत्तिः, किन सैद्धान्तिकशिरोमणिपूज्य श्री जिन भद्रगणिक्षमाश्रमणप्रणीत क्षेत्रसमाससूत्रे उत्तरमतमेव दर्शितं यथा--' सबेवि उसहकूडा उबिद्धा अट्ठजोयणे हुंति । बारस अंटू व चउरो मूले मझुवरि विच्छिण्णा ॥ १ ॥” 'मूले विच्छिण' इत्यादि शेषवर्णकः प्राग्वत् । अथास्य पद्मवरवेदिकाद्याह- 'से णं एगाए' इत्यादि, स ऋषभकूटाद्विरेकया पद्मवर
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१वक्षस्कारे ऋषभकूटाधिकारः स्.
१७
॥ ८७ ॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [8], ------------------------
------ मूलं [१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[१७]]
वेदिकया तथैवेति-यथा सिद्धायतनकूटवर्णकः प्रागुक्तस्तथाऽत्रापि वकव्य इत्यर्थः, कियत्पर्यन्त इत्याह-यावद्भवन
ऋपभाख्यदेवस्थानं, स चार्य 'एगेण य वणसंडेण सपओ समंता संपरिक्खित्ते, उसहकूडस्स णं पप्पि बहुसमरमणिज्जे इ भूमिभागे पण्णत्ते, से जहा णामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव वाणमंतरा जाब विहरंति, तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमि
भागस्स बहुमज्झदेसभागे महं एगे भवणे पण्णत्ते इति, अत्र व्याख्या पूर्ववत्, भवनमानं साक्षादेव सूत्रे दर्शयति-कोश-10 मायामेनार्द्धक्रोश विष्कम्भेन देशोनं क्रोश चत्वारिंशदधिकचतुर्दशधनुःशतरूपमूञ्चित्वेन, यद्यपि भवनमायामापेक्षया किशिफ्यूनोच्छ्रायमानं भवति प्रासादस्तु आयामद्विगुणोच्छ्राय इति श्रीज्ञाताधमकथाङ्गवृत्त्यादी भवनप्रासादयोर्विशेषो 18 दिश्यते तथाप्यत्र तयोरेकार्थकत्वं ज्ञेयं, श्रीमलयगिरिसूरिभिःक्षेत्रसमासवृत्ती "एतेषां ऋषभकूटानामुपरि प्रत्येकमेकैकः
मासादावतंसका तेच प्रासादाः प्रत्येकमेक कोशमायामतोऽर्द्धक्रोशं विष्कम्भतो देशोनं क्रोधामुश्चत्वेने" त्यत्रोकभव॥ मतुल्यप्रमाणतया ऋषभकूटेषु प्रासादानामभिधानादिति, अर्थो नामान्वर्थ ऋषभकूटस्य तथैवेति यथा जीवामिगमादी
यमकादीनां पर्वतानामुक्तस्तथात्रापि औचित्येन वक्तव्यः, तदभिलापसूत्रं तु 'उष्पलाणी'त्यादिना सूचितं सदनुसारेणेदं
से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ-उसहकूडपषए २१, गोअमा ! उसहकूडपवए खुड्डासु खुड्डियासु बावीस पुक्खरिणीसु Rजाय पिलपंतीम पहुई उप्पलाई पाउमाई जाव सहस्सपत्ताई उसहकूडप्पभाई उसहकूडवण्णाभाई' इति, अत्र व्याख्या-18|
मनसूत्र सुगम, उत्तरसूत्रे ऋषभकूटपर्वते क्षुल्लासु क्षुल्लिकासुवापीषु पुष्करिणीषु यावद्बिलपतिषु बहून्युत्पलानि पद्मानि।
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अनुक्रम [२१]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [१], ------------------------
-------- मूलं [१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बू
प्रत
सूत्रांक [१७]
- यावत् सहनपत्राणि ऋषभकूटप्रभाणि-अपभकूटाकाराणि ऋषभकूटवर्णानि तथा ऋषभकूटवर्णस्पेव आभा-प्रतिभासो वक्षस्कारे द्वीपशा- येषां तानि ऋषभकूटवर्णाभानि ततस्तानि तदाकारत्वात् तद्वर्णत्वात् तद्वर्णसादृश्याच ऋषभकूटानीति प्रसिद्धानि, मकूटान्तिचन्द्री- वयोगादेष पर्वतोऽपि ऋषभकूटः, उभयेषामपि नाम्नामनादिकालप्रवृत्तोऽयं व्यवहार इति नेतरेतराश्रयदोषप्रसङ्गः, RI
धिकार सू. या वृतिः
एवमन्यत्रापि परिभावनीयं, प्रकारान्तरेणापि नामनिमित्तमाह-'उसमे अ'इत्यादि, ऋषभश्चात्र देवो महर्डिका, अत्र ॥४८॥ यावत्करणात् 'महज्जुईए जाव उसहकूडस्स उसहाए रायहाणीए अण्णेसिं च बहूणं देवाण य देवीण य आहेवचं
जाव दिवाई भोगभोगाई भुजमाणे विहराइ, से एएणडेणं एवं बुबह उसहकडपथए २' इति पर्यन्तः सूत्रपाठो ज्ञेयः अत्र व्याख्या पाग्वत् । दाहिणेणं इत्यादि, राजधानी ऋषभदेवस्य ऋषभा नानी मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणतस्तथैव ।। वाच्या यथा विजयदेवस्य प्रागुक्का, अविशेषित-विशेषरहितं, क्रियाविशेषणमेतत् , अस्या विजयायाः राजधान्याश्च नामतोऽन्तरं न त्वस्मिन् वर्णके इति भावः ॥ इति सातिशयधर्मदेशनारससमुल्लासविस्मयमानऐदंयुगीननराधिप-11 |तिचक्रवर्तिसमानश्रीअकबरसुरत्राणप्रदत्तपाण्मासिकसर्वजन्तुजाताभयदानशत्रुअयादिकरमोचनस्फुरन्मानप्रदानप्रभृ-1 विचहुमानसाम्प्रतविजयमानश्रीमत्चपागच्छाधिराजश्रीहीरविजयसूरीश्वरपदपझोपासनाप्रवणमहोपाध्यायधीसकलच-1
॥ ८॥ न्द्रगणिशिष्योपाध्यायश्रीशान्तिचन्द्रगणिविरचितायां जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्ती प्रमेयरत्नमयानाम्यां भरतक्षेत्रखरूपनि-1 हारूपको नाम प्रथमो वक्षस्कारः॥१॥ ग्रंथाग्रं ३१५८०२५
अनुक्रम [२१]
Jistilennition
अत्र प्रथम-वक्षस्कार: परिसमाप्त:
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [-], ------------------------
----------- मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
9 श्रीमच्छान्तिचन्द्रविहितवृत्तियुतं श्रीमजम्बूदीपप्रज्ञप्तिनामकमुपागम् ।
श्रेष्ठि देवचन्द्र लालभाइ जैनपुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्कः ५४
इयं मूल संपादने मुद्रितं अन्तिम-पृष्ठं वर्तते
भाग
जंबूद्वीप-उवंगसूत्र [७/१] मूलं एवं मलयगिरिसूरिजी रचिता टीका
मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि) ।
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आगम
(१८)
ལྦུ + ཋལླཱ ཡྻ
[२२-२६]
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [१८] + गाथा:
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
अथ द्वितीयो वक्षस्कारः
जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे भारहे वासे कतिविहे काले पण्णत्ते १, गो० । दुविहे काले पण्णचे, तंजा-ओसप्पिणिकाले अ उस्सप्पिणिकाले अ, ओसप्पिणिकाले णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ?, गो० !, छविदे पण्णत्ते, तं०- सुसम सुखमकाले १ सुसमाकाले २ सुसमदुस्समकाले ३ दुस्सममुसमाकाले ४ दुस्समाकाले ५ दुस्समदुस्समाकाले ६, उस्सप्पिणिकाले णं भंते ! कतिविहे पं० १, गो० छवि पण्णत्ते, सं० - दुस्समदुस्समाकाले १ जाब सुसमसुसमाकाले ६ । एगमेगस्स णं भंते । मुहुत्तस्स केवइया उत्सासद्धा विभाहिआ ?, गोभमा 1 असंखियाणं समयाणं समुदयसमिइसमागमेणं सा एगा आवलिअति दुबइ संखिजाओ आवडिभाओ ऊसासो संखिजाओ आवलिमाओ नीसासो 'इरस अणवगहस्स, णिरुव किटुस्स जंतुणो । एगे ऊसासनीसासे, एस पाणुत्ति. दुई ||१|| सत पाणू से थोवे, सन्त बोवाई से लबे। लवाणं सत्तहत्तरीए, एस मुहुत्वेत्ति आहिए || २ || तिणि सहस्सा सूत्त य सवा तेवत्तरं च ऊसासा। एस मुद्दत्तो भणिओ सोहिं अनंतनाणीहिं ॥ ३ ॥ पणं मुहुत्तप्पमाणेणं तीसं मुहुचा अहोरतो पण्णरस अहोरता पक्खो दो पवखा मासो दो मासा उऊ तिणि उऊ अयणे दो अयणा संबच्छरे पंचसंगच्छरिए जुगे बीसं जुगाई बाससए दस बाससयाई बाससहस्से सयं बाससदस्साणं वाससयसहस्से परासी वाससंयसहस्साई से एगे पुढंगे सीई पुवंगसय सदस्साई से एगे पुणे एवं विगुणं विगुणं अवं तुडिए २ अडडे २ अपने २ हुए २ उप्पले २ पउमे २ लिणे २ अत्थणिउरे २ अउ २ नउ २ प २ चूलिया २ सीसपहेलिए २ जाव चउरासी सीसपहेलिअंग सबसहस्साई साएगा सीसपद्देलिया एताब ताव गणिए एताव ताब गणिअस्स विसए तेण परं ओबनिए । ( सूत्रं १८ )
•••अत्र 'काल' स्वरुपम् वर्णनं क्रियते
Fu Frale & Puna e Cy
अथ द्वितिय वक्षस्कार: आरभ्यते
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eseserenessesesesesesea
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आगम
(१८)
ཝཱ + ལླཱ སྶ
[२२-२६]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [१८] + गाथा:
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१८] उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बद्वीपचाविचन्द्री - या चि
॥ ८९ ॥
अथ क्षेत्राण्यवस्थितानवस्थितकालभेदेन द्विधा जानन्नप्यत्र साक्षादवसर्पतः शुभान् भाषान् वीक्ष्य पारिशेष्यात् संभाग्यमानमनवस्थितकालं हृदि निधाय पृच्छति 'जंबुद्दीवे णं भंते !' इत्यादि, जम्बूद्वीपे द्वीपे भरतवर्षे भगवन् । कतिविधः कालः प्रज्ञतः १, भगवानाह गौतम ! द्विविधः कालः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अवसर्पति हीयमानारकतयाऽवसपयति वा क्रमेणायुःशरीरादिभावान् हापयतीत्यवसर्पिणी स चासौ कालच २, प्रज्ञापकापेक्षया चास्या आदावुपन्यासः, क्षेत्रेषु भरतस्येव, उत्सर्पति-वर्द्धते आरकापेंक्षया वर्द्धयति (वा) क्रमेणायुरादीन् भावानित्युत्सर्पिणी स चासौ कालश्च २, चकारद्वयं द्वयोरपि समानारकतासमानपरिमाणतादिज्ञापनार्थ, तदेव प्रश्नयति--'अवसर्पिणीकालः कतिविधः प्रज्ञतः १, गौतम ! षड्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा सुधु - शोभनाः समाः- वर्षाणि यस्यां सा सुषमा 'निर्दुः सुवेः समस्ते' (श्रीसि० १२-३ -५६) रिति षत्वं सुषमा चासौ सुषमा च सुषमसुषमा-द्वयोः समानार्थयोः प्रकृष्टार्यवाचकत्वादत्यन्तसुषमा, एकान्तसुख| रूपोऽस्था एव प्रथमारक इत्यर्थः, स वासी कालश्चेति, द्वितीयः सुषमाकालः, तृतीयः सुषमदुष्पमा, दुष्टाः समा अस्थामिति दुष्पमा, सुषमा चासौ दुष्षमा च सुषमदुष्पमा सुषमानुभावबहुलाऽल्पदुष्पमानुभावेत्यर्थः, चतुर्थी दुष्षम सुषमादुष्पमा चासौ सुषमा च दुष्षमसुषमा, दुष्षमानुभावबहुलाऽल्पमुषमानुभा वेत्यर्थः, पञ्चमो दुष्षमा षष्ठो दुष्पमदुष्पमाकांडः निरुक्तं तु सुषमसुषुमावत्, एवमुत्सर्पिणीसूत्रमपि भाव्यं परं षडपि काला व्यत्ययेन भाव्याः, यश्चावसर्पिण्यां पष्ठः कालो दुष्षमदुष्पमाख्यः स एवात्र प्रथमो यावत् सुषमसुषमाकालः षष्ठ इति । अथ द्विविधस्यापि कालस्य परिमार्ण
Fur Ele&ae Cy
~ 190~
२वक्षस्कारे समयादिशीर्षप्रहेलि कान्तव.
सू. १८
॥ ८९ ॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [२], --------------------------------------------------------- मलं [१८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१८]
गाथा:
जिज्ञासुस्तन्मूलभूतकालविशेषप्रश्नायोपक्रमते-'एगमेगे'इत्यादि, एकैकस्य मुहूर्तस्य भगवन् ! कियत्य उच्छासाद्धा-18 उच्छासप्रमितकालविशेषा व्याख्याताः, एकस्मिन् मुहूर्ते कियन्त उच्छासा भवन्ति, उच्छासशब्देनात्रोपलक्षण-18 त्वावुच्छासनिःश्वासाः समुदिता गृह्यन्ते, अत्रोत्तरम्-असद्धयेयानां समयप्रसिद्धपटशाटिकापाटनदृष्टान्तप्रज्ञापनीयस्व-18 रूपाणां परमनिकृष्टकालविशेषाणां समयानां समुदया-वृन्दानि तेषां याः समितयो-मीलनानि तासां समागमः-स-1
योग एकीभवनं तेन यत्कालमानं भवतीति गम्यते सा एका जघन्ययुक्तासङ्ख्यातकसमयप्रमाणा आवलिका इति संज्ञया | 1 मोच्यते जिनैरिति शेषः, यद्यप्यसांव्यवहारिकत्वेन समयावलिके उपेक्ष्य प्रश्नसूत्रे मुहूर्वोच्छ्रासादिपृच्छा तथापि
केवलिप्रज्ञायाः यावदवधिपर्यन्तं धावनादुच्छासादीनां तन्निरूपणाधीननिरूपणत्वाचाचार्यस्य तयोनिरूपणं युक्तिम-1 दिति, नन्वेतवुत्लवमानमण्डूकैगोंकलिञ्जभरणे यतः पूर्वसमयसदावे उत्तरसमयस्यानुत्पन्नत्वेनोत्तरसमयसमा पूर्वस-1
मयस्य विनष्टत्वेन किमिह समुदयसमितिसमागमः सङ्गच्छते येनासङ्ग्याततत्पिण्डात्मकता आवलिकादीनां प्रोच्यते 1,18 IS अयं हि समुदयादिधर्मो विमानस्निग्धरूक्षपुद्गलादीनां न कालस्येति, सत्यं, यं यं कालविशेष प्ररूपयितुकामेन प्रज्ञा-ISI
पकपुरुषविशेषेण यावन्तो यावन्तः समया एकज्ञानविषयीकृतास्तावन्तस्ते समुदयसमितिसमागता उपचर्यन्ते, अत एवायमौपाधिकः कालो न वास्तव इति न काचिदनुपपत्तिः, सोया आवलिका उच्छासः-अन्तर्मुखः पवनः सोया आवलिका निःश्वासो-बहिर्मुखः पवनः, सङ्ख्येयत्वोपपत्तिश्चैवम्-षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयेनावलिकानामेकं शुल
दीप अनुक्रम [२२-२६]
~191~
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [२], --------------------------------------------------------- मूलं [१८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१८]
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया पृत्तिः
+
गाथा:
कभवग्रहणं भवति, तानि च सप्तदश सातिरेकाणि उच्छासनिःश्वासकाल इति । अथ यादृशैरुच्छासद्वर्तमान र वक्षस्कारे स्यात् तथाऽऽह-दष्टय-पुष्टधातोरनवकल्पस्य-जरसाऽनभिभूतस्य निरुपक्लिष्टस्य-व्याधिना प्राक साम्पत वाऽनभिभू- समयादितस्य मनुष्यादेरेकः उच्छासेन युक्तो निःश्वासः उच्छासनिःश्वासो य इति गम्यते एष प्राण इत्युच्यते. धावहानिज- शापमहालरादिभिरस्वस्थस्य जन्तोरुमछासनिःश्वासस्त्वरितादिस्वरूपतया न स्वभावस्थो भवत्यतो दृष्टादिविशेषणग्रहणं, सप्तम प्राणाः सूत्रे च उत्वं क्लीवत्वं च प्राकृतत्वात् , उच्छासनिःश्वासा ये इति गम्यते स स्तोक इत्युच्यते, एवं सप्त स्तोका ये स लवः, लवानां सप्तसप्तत्या एषः-अधिकृतो यज्जिज्ञासया तव सम्पति प्रश्नावतार इत्यर्थः, मुहूर्त इत्याख्यातः, अथ सप्तसप्ततिलवमानतया सामान्येन निरूपितं मुहूर्तमेवोच्छाससङ्ख्यया विशेषतो निरूपयितुमाह-'तिण्णि' इत्यादि, अस्या भावार्थोऽयं-सक्षभिरुच्छासैः स्तोका, ते च लवे सप्त, ततो लवः सप्तभिर्गुणितो जाता एकोनपश्चाशत् , मुहूर्ते च सप्तसप्ततिलेवा इति सा एकोनपश्चाशगुणितेति जातं मुहूर्ते उच्छासाना मानं, अत्राप्युपलक्षणत्वादुच्छ्रासनिःश्वासानां समुदितानां मानं ज्ञेयं, सर्वैरनन्तज्ञानिभिरित्यनेन सर्वेषां जिनानामेकवाक्यताज्ञापनेन सदृशज्ञानित्वं सूचितं, न तु साम्मत्यदर्शनं कृतं, तस्य विश्वासमूलकत्वेन श्रद्धालु प्रत्यसम्भाव्यमानत्वात् , अथ यदर्थ मुहर्रादिप्रश्नस्तान
॥९ ॥ मानविशेषान् प्रज्ञापयन् द्विविधकालपरिमाणज्ञापनायोपक्रमते-'एएणं मुहुत्त इत्यादि, एतेन--अनन्तरोवितेन मुहर्चप्रमाणेन त्रिंशन्मुहर्ता अहोरात्रः पश्चदशाहोरात्राः पक्षः द्वौ पक्षौ मासः द्वौ मासौ ऋतुः त्रय ऋतवोऽयनं वे अयने संव
दीप अनुक्रम [२२-२६]
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आगम
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], ----------
मुलं [१८] + गाथा:
(१८)
-
प्रत सूत्रांक [१८]
सरः पश्शसंवत्सरिक युगं विंशतियुगानि वर्षशतं, विंशतः पञ्चगुणितायाः शतत्वात् , दश वर्षशतानि वर्षाणां सहस्र, ॥३॥ शशतं वर्षसहस्राणां वर्षशतसहस्रं लक्षमित्यर्थः, चतुरशीतिः वर्षशतसहस्राणि यानीति गम्यते तदेकं पूर्वाङ्ग, अतः परं || लक्षाणां चतुरशीत्या गुणकारसंख्यास्थानानां सप्तविंशतिसंख्यानां (सभा), तथाहि-चतुरशीतिः पूर्वाङ्गशतसह-19 वाणि यानीति गम्यते तदेकं पूर्व, पूर्वाङ्गलक्षाणां चतुरशीत्या गुणितं पूर्व भवतीति भावा, तद्वर्षमानं चैतत्-"पुषस्स 31
उ परिमाणं सपरि खलु हुंति कोडिलक्खाओ । छप्पण्णं च सहस्सा बोडवा वासकोडीणं ॥१॥" स्थापना ७०५६-18॥ 181०००००००००० एवमिति-पूर्वाङ्गपूर्वन्यायेन संख्यास्थानमुत्तरोत्तरं त्रुटितानं त्रुटितमित्यादि तदङ्गतल्लक्षणभेदाभ्यां
| द्विगुणं २-द्विसंख्या २ ज्ञातव्यं, अयमाशयः-सूत्रे एकत्वेन निर्दिश्यमानानि १३ संख्यास्थानानि लाघवधानसूत्रे
गाथा:
१ विगुणं विगुण-प्रधानं प्रधानं यथोत्तर प्रकर्षषयथा स्यात्तथा, कियाविशेषण, यथा पूर्वानापेक्षया पूर्व प्रधान तथा पूर्वापेक्षया श्रुटिता प्रधान तदपेक्षया अटित मियादि यापछी प्रहेलिका सर्वप्रधानं बहुतरपदार्थविषयत्वात, यद्वा विगुण-गुणरहितमनाविधिदसंकेतमात्रयशादेव विवक्षितसंख्याभिधायकं न पुनन
योदशषोडशसपादपातादिवगुणनिष्पर्ष, तथा च यथा पूर्वार्थ पूर्व च तथा बुटितादिषदकदम्बकमपि ज्ञातव्यं, वीप्या, त्रुटितादिपवानामपि बहुतात् प्रत्ययतारकपिपअप सान्यपलाभावाच, ननु अंग तावस्कारणं तप कायेसापेक्षमिति, पूर्वस्यांग-कारण पूर्वाधमिति निक्खा , पूर्णाक्षस चतुरीतिलक्षगुणकारेणेव पूर्वसंख्याया
जायमानलात साम्यर्थ तेति चेत्, मैवं, पूर्वपदस्यैव सान्यताया अभाचे कथं तत्कारणस्य सान्वर्धतेत्याकूतात , केचित्तु विपूर्ण विगुणमिति पाठमभ्युपगम्य द्विगुणं द्विगुण--द्विभेदं द्विभेदमिति नदंति, तेषां दमाकूतं यथा-पूर्वाध पूर्व चेति द्वौ भेदी तथा बुटिता विश्वपि बुद्धिता बुटितमिति द्वी भेदी बचाव्यौ यावच्छीप्रदेलिकांगं शीर्षप्रलिका घेति, परमेतत्पाठावलोकने यतनीयमिति । (हीर. वृत्ती)
दीप अनुक्रम [२२-२६]
screstates
।
श्रीमम्बू १६
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आगम
(१८)
ཎྜཱ + ཋལླཱ ཡྻ
[२२-२६]
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [१८] + गाथा:
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥ ९१ ॥
नेत्थमाह, न चेदं सूत्रं एषां द्विगुणकार भ्रमजनकं भाव्यं, चतुरशीतिगुणकारस्यानन्तरमेवोक्तत्वात्, अथैषा शब्दसंस्कारमात्रं त्रुटिता त्रुटितं १ अडडा १ अडर्ड २ अबवा अव हुहुका हुहुकं ४ उत्पलाई उत्पलं ५ पद्मा पद्मं ६ नलिनाङ्गं नलिनं ७ अर्थनिपूरा अर्थनिपूरं ८ अयुताङ्गं अयुर्त ९ नयुताङ्गं नयुतं १० प्रयुताङ्गं प्रयुतं ११ चूलिका चूलिकं १२ शीर्षप्रहेलिका- यावच्चतुरशीतिशीर्षप्रहेलिकाङ्गशतसहस्राणि यानि सा एका शीर्षप्रहेलिका १३, अस्याः स्थापना यथा ७५८२६३२५३०.७३०१०२४११५.७९७३५६९९७५.६९६८९६२१८९.६६८४८०८०१८.३२९६ १] वलभीवाचनानुगतस्तु ज्योतिष्करंबेऽन्यथाऽपि रखते तथाहि पूर्वानं १ पूर्व २ ला ३ ता ४ महालतांगं ५ महालता ६ महिना ७ नविनं ८ महानलिनां महान लिनं १० पद्म ११ प १२ महापद्मा १२ महापद्म १४ मा १५ कम १६ महाकमा १७ महाकमले १८ कुमुदा १९ कुमुदं २० महाकुमुद २१ महाकुमुदं २२ त्रुटिता २३ त्रुटितं २४ महात्रुटितांगं २५ महात्रुटितं १६ अटटा २७ ट २८ महाअट २० महाल ३० कहांगे ११ कई ३२ महोहांगं ३३ महोदं २४ सीप्रहेलिका ३५ शीर्षप्रहेलिका ३६ चेति, न चात्र सम्मोहः कर्तव्यः, दुर्भिक्षादिदोषेण श्रुतद्दान्या यस वाद स्मृतिगोचरीभूतं तेन तथा सम्मतीस लिखितं, तब लिखनमेकं मधुरायामपरं च वराभ्यामिति यदुकं ज्योतिष्करंडवृत्तावेव "इह स्कंदिलाचार्यप्रवृत्ती दुष्षमाभावतो दुर्निवृत्या साधूनां पठनगणनादिकं सर्वमप्यनेशत्, ततो दुर्भिक्षातिक्रमे सुमिक्षप्रवृत्तौ द्वयोः संघयो मैकापकोऽभवत् तद्यथा-एको पलभ्यां एको मथुरायां तत्र सूत्रार्थसंघटने परस्परं वाचनाभेो जातः, विस्तृतयोहिं सूत्रार्थयोः स्मृत्वा २ संघटने भवव्यवश्यं वाचनाभेदो' इति न काचिदनुपपत्तिः, तत्रानुयोगद्वारादिकमिदानों वर्तमानं माथुरवाचनानुगतं, ज्योतिष्करंडसूत्रकर्ता त्वाचार्यो वालभ्यः, तत इदं संख्यास्थानप्रतिपादनं वाढभ्यवाचनानुगतमिति नास्यानुयोगद्वारप्रतिपादितसंख्यास्थानैः सह विशखमुपलभ्य विचिकित्सितव्यमिति, तथाऽनुयोगद्वारे प्रयुतनयुतयोः परावृत्तिरप्यस्तीति । (हीर वृत्ती)
F Frale & Pune Cy
~ 194 ~
२वक्षस्कारे
समयादि
प्ररूपणा सू. १८
॥ ९१ ॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [२], --------------------------------------------------------- मूलं [१८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
.
.
प्रत सूत्रांक [१८]
गाथा:
S! इति चतुःपश्चाशदङ्काः अग्ने च चत्वारिंशं शून्यशतं, तदेवं शीर्षप्रहेलिकायां सर्वाण्यमूनि चतुर्णवत्यधिकशतसक्यान्य-18 IS स्थानानि भवन्ति, इदं च माथुरवाचनानुगतानुयोगद्वारादिसंवादिसंख्यास्थानप्रतिपादन ज्योतिष्करण्डप्रकीर्णकेन सह
विसंवदति, परं न विचिकित्सितव्यं, वालभ्यवाचनानुगतत्वात् तस्य, भवति हि वाचनाभेदे सूत्रपाठभेद इति, तत्सं-18 18 वादिशीर्षप्रहेलिकास्थापना त्वेवंरूपा ज्ञेया यथा-१८७५५१७९५५.०११२५९५४१९.००९६९९८१३४.३९७७० १७९७४६.५४९४२११९७७.७७७४७६५७२५.७३४५७१८६८१.६. इति सप्ततिरक्का अग्रे चाशीत्यधिकं शून्यशतं,191
तदेवं ज्योतिष्करण्डोक्तशीर्षप्रहेलिकायां पञ्चाशदधिकशतद्वयसंख्याभ्यङ्कस्थानानि भवन्ति, अत्र तत्त्वं केवलिनो विदन्तीति, अनेन चैतावता कालमानेन केषांचिद्रनप्रभानारकाणां भवनपतिव्यन्तराणां सुषमदुष्पमारकसंभविना नरतिरश्चा च यथासम्भवमायूंपि भीयन्ते, एतस्माच परतोऽपि सर्षपचतुष्पल्यमरूपणागम्यः संख्येयः कालोऽस्ति, किन्त्वनतिशा
यिनामसंव्यवहार्यत्वान्नेहोक्तः, एतदेवाह-एतावद्-इयन्मानं तावदिति प्रक्रमा कालगणितं, समयतः प्रभृति शीर्षप्रहे-18 ॥४ालिकापर्यन्तं संख्यास्थानमित्यर्थः, एतावान्-शीर्षप्रहेलिकाप्रमेयराशिपरिमाणो गणितस्य विषयो-गणितगोचर आयु:
स्थित्यादिकालः, कुत इत्याह-ततः परं-शीर्षप्रहेलिकातः परं उपमया निवृत्तमौपमिक, उपमामन्तरेण यत्कालप्रमाण-18| मनतिशायिना ग्रहीतुं न शक्यते तदोपमिकमिति भाषः, सूत्रे च तृतीया पञ्चम्यर्थे प्राकृतत्वात् । तदेव प्रष्टुमाहसे कि त उवमिए !, २ दुविहे पण्णत्ते, संजहा पलिओवमे असागरोवमे अ, से किं तं पलिओवमे !, पलिओवमस्स परूवर्ण करिस्सामि,
0000000000000000000000
दीप अनुक्रम [२२-२६]
अथ औपमिक-काल-स्वरूपं वर्ण्यते
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आगम
(१८)
ནྡྲིཡཱ ཎྜཱ - ཏྠལླཱ ཡྻ
[२७-३२]
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [१९] + गाथा:
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृतिः
॥ ९२ ॥
परमाणू दुबिहे पण्णत्ते, तंजहा सुहुमे अ बाबहारिए अ, अर्णताणं सुमपरमाणुपुमालाणं समुदयसमिइसमागमेणं वावहारिए परमाणू णिफज्जइ तत्थ जो सत्यं कमइ - 'सत्येण सुतिक्खेणवि छेतुं मित्तुं च जं फिर ण सका । तं परमाणु सिद्धा वयंति आई पमाणाणं ||१|| बावहारिअपरमाणूणं समुदय समिश्समागमेणं सा एगा उस्सहसहिआइ वा सहिसहिआइ वा उद्धरेणू वा तसरेणूइ वा रहरेणूइ वा वालग्गेइ वा लिक्खाइ वा जूआइ वा जर्वमण्झेड वा उस्सेइंगुले इ वा, अट्ठ उस्सण्ड
सहसण्डिया अट्ट सण्ड्सण्डिआओ सा एगा उद्धरेणू भट्ट उरेल सा पगा तसरेणू अड्ड तसरेणूओ सा एगा रहरेणू अह रहरेणूओ से एगे देवकुरूत्तरकुराण मणुस्साणं बाळयो अट्ठ देवकुरूत्तरकुराण मनुस्साण वाळग्गा से एगे हरिवासरम्मयवासाण मणुस्साणं वाग्गे एवं हेमकरणवयाण मणुस्साणं पुढविदेह अवर विदेहाणं मणुस्साण वालग्गा सा एगा लिक्खा अट्ट लिक्खाओ सा एगा जुआ जह जुजाओ से एगे जवम अट्ट जवमन्झा से एगे अंगुले एतेणं अंगुलप्पमाणेणं छ अंगुलाई पाओ वारस अंगुलाई विहत्थी चउबीसं अंगुलाई. रयणी अञ्चवालीसं अंगुलाई कुच्छी इण्णव अंगुलाई से एगे अक्खेइ वा दंडेद वा धणूइ वा जुगेइ वा मुसलेइ वा गालिओ वां एतेणं धणुष्पमाणेणं दो धणुसहस्साई गाड बत्तारि गाडआई जोअणं, एएणं जोअणप्पमाणेणं जे पले जोभणं आयामविक्संभेणं जोयणं उट्टे उचणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्लेवेणं, से णं पड़े एगाहिअबेहियतेहिअ उकोसेणं सत्तर तपरूडाणं संमट्टे सणिचिए भरिए वालग्गकोडीणं । तेणं वालग्गा णो कुत्थेला णो परिविद्धंसेजा, जो अग्गी ढहेजा, णो वाए हरेला, णो पूइत्ताए हवमागच्छेजा, तो णं वासस २ एगमेगं बालगं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे णीरए जिले गिट्टिए भवइ से तं पलिजोषमें । एएस पहाणं कोडाकोडी इवेज दसगुणिआ। तं सागरोबमस्स उ एगस्स भये परीमाणं ॥ १ ॥ एएणं सागरोवमप्पमाणेणं चत्तारि
F Ervale & Puna e Oly
~ 196 ~
Rotstarseenetnesses
वक्षस्कारे पस्योपमप्ररूपणा
सू. १९
॥ ९२ ॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [२], --------------------------------------------------------- मूलं [१९] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१९]
सागरोचमकोडाकोडीओ कालो सुसमसुसमा १ तिणि सागरोवमकोडाकोटीमो कालो सुसमा २ दो सागरोषमकोडाकोडीओ कालो सुसमदुस्लमा ३एगा सागरोवमकोडाकोडी बायालीसाए वाससहस्सेहिं ऊणिआ कालो दुस्समसुसमा ४ एकावीसं वाससहस्साई कालो दुस्समा ५ एकवीसं वाससहस्साई कालो दुस्समदुस्समा ६, पुणरवि उस्सप्पिणीए एकवीसं वाससहस्साई कालो दुस्समदुस्समा १ एवं पडिलोमं अवं जाव चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो सुसमसुसमा ६, वससागरोवमकोडाकोटीओ कालो
ओसप्पिणी ससागरोवमकोडाकोडीभो कालो उस्सप्पिणी वीसं सागरोवमकोढाकोडीओ कालो ओसप्पिणीचस्स प्पिणी । (सूत्रं१९) 'से किं तं ओवमिए !' इत्यादि, अथ किं तदोपमिकं १, अत्रोत्तर-औपमिक द्विविध प्रज्ञप्त, अनेन विधेयनिर्देशस्तेन न पौनरुक्त्याशङ्का, पल्येन वक्ष्यमाणस्वरूपेणोपमा यस्य तत्तथा, दुर्लभपारत्वात् सागरेण-समुद्रेणोपमा यस्य तत्तथा, उभयत्र चकारद्वयं तुल्यकक्षताद्योतनार्थ, तुल्यकक्षता चोभयोरप्यसंख्येयकालत्वसूचनार्थ, अथ किं तत् पल्यो|पम !, आचार्यस्तु पल्योपमप्ररूपणां करिष्यामीति, अनेन च क्रियारम्भसूचकवचनेन शिष्यस्य मनःप्रसत्तिः कृता भवति, अन्यथा ‘परमाणू दुविहे' इत्याविप्रक्रियाकमेण दरसाध्या पल्योपमप्ररूपणां प्रति सन्दिहानः शिष्योऽ-18 नाहतो भवेदिति, गुरोः शिष्यं प्रति वाचनादानेऽयमेष हि विधिः, यतः-"धम्ममइएहिं अइसुंदरेहिं कारणगुणोवणीएहिं। 8 पल्हायंतो अ मणं सीसं चोएइ आयरिओ ॥१॥" [धर्ममयैरतिसुन्दरैः उपनीतकारणगुणैः महादयंश्च मनः शिष्यं । नुदति आचार्यः ॥१॥] परमाणुद्धिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-सूक्ष्मश्च व्यावहारिकश्च, शस्त्रायविषयत्वादिको धर्म [81
isesesesesametestseae4
गाथा:
दीप
अनुक्रम [२७-३२]
Jintenni
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [२], --------------------------------------------------------- मूलं [१९] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [१९]
गाथा:
श्रीजम् उभयोरपीति समानकक्षताद्योतनार्थ प्रत्येकं चकारः, तत्र सूक्ष्मस्य 'कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः ।।२वक्षस्कारे द्वीपशा-18| एकरसवर्णगन्धो द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च ॥१॥” इत्यादिलक्षणलक्षितस्यात्यन्तपरमनिकृष्टतालक्षणं स्वरूपमतिरिच्यापर ||९||
पल्योपमवैशेषिक रूप न प्रतिपादनीयमस्तीति तं संस्थाप्यापरं स्वरूपतो निरूपयति-अनन्तानां सूक्ष्मपरमाणुरूपपुद्गलानां ||
प्ररूपणा या इत्तिः
सम्बन्धिनो ये समुदया:-त्रिचतुरादिमेलकास्तेषां याः समितयो-बहूनि मीलनानि तासां समागमेन-संयोगेनैकीभावे-18 ॥९३॥ नेतियावत् व्यावहारिकः परमाणुरेको निष्पचते, इदमुक्तं भवति-निश्चयनयो हि निर्विभार्ग सूक्ष्म पुनल परमाणुमि
|च्छति, यस्त्वेतैरनेकैर्जायते तं सांशत्वात् स्कन्धसेव व्यपदिशन्ति, व्यवहारनयस्तु तदनेकसङ्घातनिष्पन्नोऽपि यः शस्त्र-8 च्छेदाग्निदाहादिविषयो न भवति तमद्यापि तथाविधस्थूलभावाप्रतिपत्तेः परमाणुत्वेन व्यवहरति, ततोऽसौ निश्चयतः स्कन्धोऽपि व्यवहारनयमतेन व्यावहारिकः परमाणुरुक्ता, अयं च स्कन्धत्वात् काडवत् छेदादिविषयो भवतीति वादिनं प्रत्याह-तत्र शस्त्रं न कामति-न समरति, असिक्षुरादिधारामाप्तोऽपिस न छियेत न च भिद्येतेत्यर्थः, यधनन्तैः परमाभिनिष्पनाः काष्ठादयः शखच्छेदादिविषया दृष्टास्तथाप्यनन्तस्यानन्तमेदत्त्वाचावत्प्रमाणेन निष्पक्षोऽद्यापि सूक्ष्मत्वान्न शखच्छेदादिविषयतामासादयतीति भावः, एतेनाग्निदाह्यता जलार्द्रता गङ्गापतिश्रोतोविहन्यमानता जलकोथादिक ॥९३ ॥ सर्वमपि निरस्त मन्तव्यं, सर्वेषामपि तेषां शस्त्रत्वाविशेषात्, अत्रार्थे प्रमाणमाह-शस्त्रेण सुतीक्ष्णेनापि छेतु-सगादिना द्विधा कर्तुं भेत्तु-अनेकधा विदारयितुं सूच्यादिना वस्त्रादिवद्धा सच्छिद्रं कर्तुं, वा विकल्पे, यं-पुनलादिविशेष
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [२], --------------------------------------------------------- मूलं [१९] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१९]
+
गाथा:
| किलेति निश्चये न शक्काः, केऽपि पुरुषा इति शेषः, तं व्यावहारिकपरमाणु सिद्धा इव सिद्धा भगवन्तोऽर्हन्त उत्पन्नकेवलज्ञाना न तु सिद्धाः सिद्धिगताः, तेषां वचनयोगासम्भवादिति, आदि-प्रथमं प्रमाणानां-वक्ष्यमाणोत्श्लक्ष्णहक्षिणकादीनामिति, पतेन श्रद्धालून प्रति आगमप्रमाणमभिहितं, तर्कानुसारिणः प्रति प्रयोगः-अणुपरिमाणं कचिद्विश्रान्त । तरतमशब्दवाच्यत्वात् महत्परिमाणवत्, यत्र च विश्रान्तं स परमाणुः, विपक्षे वस्तुनः स्थूलताऽपि नोपपद्यते, न च घणुकादि नार्थान्तरमिति वाच्यं, स च सिधन परमनिकृष्टो निरंश एव सियेत्, अन्यथाऽनवस्था सर्षपसुमेर्वोस्तुल्यपरिमाणापत्तिश्च, ततः सिद्धः परमाणुः, ननु सिध्यतु सः सूक्ष्मत्वाच न चक्षुरादिगम्यः, पर यदनन्तः सूक्ष्मः परमा-13 शुभिरेको व्यावहारिका परमाणुरारभ्यते स चक्षुराद्यगोचरः शस्त्रच्छेदायगोचरबेति तन्मन्द, उच्यते. द्विविधो हि पुदलपरिणाम:-सूक्ष्मो बादरश्च, तत्र सूक्ष्मपरिणामपरिणतानां पुद्गलानामनिन्द्रियकत्वमगुरुलघुपर्यायवत्वं शस्त्रच्छे-18 दायविषयत्वमित्यादयो धर्मा भवन्ति, तेन न काप्यनुपपत्तिः, श्रूयते चागमे पुन्गलानामेवं सूक्ष्मत्वासूक्ष्मत्वपरिणामो | यथा द्विपदेशिकः स्कन्धः एकस्मिन्नभःप्रदेशे माति स एव च द्वयोरपि मातीति संकोचविकाशकृत्तो भेदः, दृश्यते च लोकेऽपि पिञ्जितरुतपुञ्जलोहपिण्डयोः परिमाणभेदः, इत्यलं विस्तरेणेति, अथ प्रमाणान्तरलक्षणार्थमाह-अनन्तानां व्यावहारिकपरमाणूनां समुदयसमिनिसमागमेन या परिमाणमात्रेति गम्यते सैका अतिशयेन श्लक्ष्णा श्लक्ष्णश्लक्ष्णा सैव श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका उत्तरप्रमाणापेक्षया उत्-प्राबल्येन श्लक्ष्णशक्ष्णिका उच्छलक्ष्णश्लक्ष्णिका, इतिरुपदशने वा उत्तरापेक्षया ।
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [२],--------------------- ---------------------------------- मूलं [१९] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१९]]
+
गाथा:
श्रीजम्यू- समुच्चये, एवं लक्ष्णलक्ष्णिकेति वा इत्यादिष्वपि वाच्यं, एते च श्लक्ष्णश्लक्षिणकादयोऽङ्गुलाम्ताः प्रमाणभेदा यथोत्तरम- श्ववस्कारे
दीपशा- गुणाः सन्तोऽपि प्रत्येकमनन्तपरमाणुकत्वं न व्यभिचरन्स्यतः निर्विशेषितमप्युक्त-सण्हसहिआइ वेत्यादि, प्राक्तन- परयोपमन्तिचन्द्री-प्रमाणापेक्षयाऽष्टगुणत्वेन स्थौल्यार्ध्वरेण्वपेक्षया त्वष्टभागप्रमाणत्वात् श्लक्ष्णश्लक्ष्णिकेत्युच्यते, स्वतः परतो वा ऊर्ध्वाध-12 प्ररूपणा या वृत्तिः स्तिर्यचलनधम्मों जालप्रविष्टसूर्यप्रभाभिव्यङ्गयो रेणुरूर्ध्वरेणुः प्रस्पति-पौरस्त्यादिवायुप्रेरितो गच्छति यो रेणुः स ।
मु.१९ ॥९॥
त्रसरेणुः रथगमनात् रेणुः रथरेणुः वालाग्रलिक्षादयः प्रतीताः, देवकुरूत्तरकुरुहरिवर्षरम्यकादिनिवासिमानवानां | केशस्थूलताक्रमेण क्षेत्रशुभानुभावहानिर्भावनीया यावत्पूर्वविदेहापरविदेहाश्रयमनुष्याणामष्टी वालाप्राणि एका लिक्षा, ता अष्ट यूका, अष्टौ यूका एकं यषमध्यं, अष्टौ यवमध्यानि एकमङ्गुलं, एतेनाङ्गुलप्रमाणेनेति न तु म्यूनाधिकतया, पडलानि पादः-पादस्य मध्यतलपदेशः, पादैकदेशत्वात् पादः, अथवा पादो हस्त्रचतुर्थाशः, द्वादशाङ्गुलानि चितस्तिः | सुखावबोधार्थमेवमुपन्यासः, लापवार्थ तु द्वौ पादौ वितस्तिरिति पर्यवसितोऽर्थः, अन्यथा पादसंज्ञाया नैरर्थक्यापत्तिः, एवमग्रेऽपि चतुर्विशतिरडलानि रतिरिति सामयिकी परिभाषा, नामकोशादौ तु 'बद्धमुष्टिहस्तो रशिरिति, अष्टचत्वा-18 रिंशदङ्गलानि कुक्षिा, पण्णवतिरङ्गुलानि एकोऽक्ष इति वा-शकटावयवविशेषः दण्ड इति वा धनुरिति वा युगमिति वा-बोढस्कम्धकाठं मुसलमिति वा नालिका इति वा-यष्टिविशेषः, अत्र च धनुषोपयोगा, संज्ञान्तराणि तु प्रसङ्गतोऽत्र लिखितानि अन्यत्रोपयोगीनीति, एतेन धनुःप्रमाणेन द्वे धनुःसहने गब्यूतं, चत्वारि गच्यूतानि योजनं, एतेन योजन
दीप अनुक्रम [२७-३२]
Ses
indimmitraryay
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [२],---------------------- ---------------------------------- मूलं [१९] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१९]
+
गाथा:
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प्रमाणेन यः पल्यो-धान्याश्रयविशेषः स इव सर्वत्र समत्वात् , लुप्तोपमाकः शब्द इति, योजनमायामविष्कम्भाभ्यां समवृत्तत्वात् प्रत्येकमुत्सेधाङ्गुलनिष्पन्नयोजन योजनमूर्बोच्चत्वेन, तद्योजनं त्रिगुणं सविशेष परिरयेण, वृत्तपरिघेः किञ्चित्यूनषड्भागाधिकत्रिगुणत्वात् , स पल्य 'एगाहिअबेहित्ति षष्ठीबहुवचनलोपादेकाहिकब्याहिकत्र्याहिकाणामुत्कर्षतः सप्तरात्रप्ररूढाना-सप्तदिवसोन्नतपर्यन्तानां भृतो वालाग्रकोटीनामिति सम्बन्धः, तत्र मुण्डिते शिरस्येकेनाला यावत्प्रमाणा वालाग्रकोटय उत्तिष्टन्ति ता एकाहिक्यः, द्वाभ्यां तु यास्ता व्याहिक्याः, त्रिभिस्तु व्याहिक्यः, कथंभूत् । इत्याह-संमृष्ट' आकर्णपूरितः 'सन्निचितः' प्रचयविशेषानिविडीकृतः वालानामग्रकोटयः-प्रकृष्टा विभागा इत्यर्थः, | यद्वा वालानकोटीनामिति वालेषु-विदेहनरवालाद्यपेक्षया सूक्ष्मत्वादिलक्षणोपेततयाऽमाणि-श्रेष्ठानि वालामाणि, कुरुनररोमाणि तेषां कोटयः अनेका:-कोटाकोटिप्रमुखाः सयाः स्त्रीणां शतानि शतशो जनयंन्ति पुत्रान्" इत्यादिवत्, तथा पालाप्रकोटीनामिति तृतीयार्थे पष्ठी यथा माषाणां भृतः कोष्ठ इति, तेन वालामकोटीभिर्भूत इति सुखावबोधाऽ-18 क्षरयोजना कार्या इति, वालाग्रसङ्ग्यानयनोपायस्त्वयं-देवकुरूत्तरकुरुनरवालानतोऽष्टगुणं हरिवर्षरम्यकनरवालाममिति, यत्रैक हरिवर्परम्यकनरवालानं तत्र कुरुनरवालामाण्यष्ट तिष्ठन्ति, यत्र चैक हैमवतहरण्यवतनरवालामं तत्र कुरुनर-18 वालामाणि चतुःषष्टिः, एवं विदेहनरवालाले ५१२ लिक्षायां:४०९६ यूकायर्या ३२७६८ यवमध्ये २१२१४४ अङ्गुले - कृतः २०९७१५२, अत्राङ्गुलमुत्सेधाङ्गुलं प्राचं, आत्माङ्गुलस्यानियतत्वात् प्रमाणाङ्गुलस्यातिमात्रत्वात् , अत्र सर्वत्र
दीप
अनुक्रम [२७-३२]
teacacass CeReMRORE
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आगम
(१८)
ཏྠཱ + ཏྠལླཱ ཡྻ
[२७-३२]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [१९] + गाथा:
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपक्षातिचन्द्री - या वृतिः
॥ ९५ ॥
| पूर्वप्रमाणापेक्षयोत्तरोत्तर प्रमाणस्याष्टाष्टगुणकारेणेयं सङ्ख्यां समुत्तिष्ठति, अथायं राशिचतुवैिशतिगुणो हस्तः चतुर्विंश - त्यङ्गुलमानत्वादस्य स चैवं ५०३३१६४८ नामतः पञ्च कोटयस्त्रीणि लक्षाणि एकत्रिंशत्सहस्राणि पटू शतान्यष्टचत्वारिंशदधिकानि एष राशिचतुर्गुणो धनुषि चतुर्हस्तमानत्वादस्य, अङ्कतः २०१३२६५९२ नामतो विंशतिः कोटव - | त्रयोदश लक्षाणि पविंशतिः सहस्राणि पश्च शतानि द्विनवत्यधिकानि, अयं द्विसहस्रगुणः क्रोशे, द्विसहस्रमानत्वादस्य, | अङ्कतो यथा-४०२६५३१८४००० नामतः चत्वारिंशत्सहस्राणि द्वे शते पश्चषष्ट्यधिके कोटीनां एकत्रिंशलक्षाणि चतुरशीतिः सहस्राणि, पुनरयं राशिचतुर्गुणो योजने, चतुः क्रोशप्रमाणत्वादस्य, अङ्कत १६१०६१२७३६००० नामतः एकं लक्षमेकषष्टिः सहस्राण्येकपट्यधिकानि कोटीनां तथा सप्तविंशतिर्लक्षाणि पत्रिंशत्सहस्राणि, शुचीगणनयैवेदं गणितं बोध्यं, अयं शचीराशिरनेनैव गुणितः प्रतरसमचतुरस्रयोजने, शूच्या शूचीगुणिताया एव प्रतरत्वात् अङ्कतः २५९४०७३३८५३६५४०५६९६००००० नामतो यथा पञ्चविंशतिः शतानि चतुर्नवत्यधिकानि कोटाकोटिकोटीनां तथा सप्त उक्षाणि त्रयस्त्रिंशत्सहस्राण्यष्ट शतानि त्रिपञ्चाशदधिकानि कोटाकोटीनां तथा पञ्चषष्टिर्लक्षाणि चत्वारिंशत्सहस्राणि पश्च शतान्ये| कोनससत्यधिकानि कोटीनां तथा पष्टिर्लक्षाणि, अयं राशिर्भूयः पूर्वराशिना गुणितो घनरूपो रोमराशिः स्यात्, तथाहिअङ्कतः ४१७८०४७६३२५८८१५८४२७७८४५४४२५६००००००००० नामतः एकचत्वारिंशत्कोटयोऽष्टसप्ततिक्षाणि चत्वारि सहस्राणि सप्त शतानि त्रिषश्यधिकानि कोटाकोटिकोटाकोटीनां तथा पञ्चविंशतिर्लक्षाण्यष्टाशीतिः सहस्राम्येकं
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| वक्षस्कारे
पल्पोपमप्ररूपणा
सू. १९
॥ ९५ ॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [२], --------------------------------------------------------- मूलं [१९] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१९]
गाथा:
caeneraecteectioesese
शतमष्टपश्चाशदधिक कोटाकोटिकोटीनां तथा द्विचत्वारिंशलक्षाणि सप्तसप्ततिः सहस्राण्यष्ट शतानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि कोटाकोटीनां तथा. चतुश्चत्वारिंशाल्लक्षाणि पश्चविंशतिः सहस्राणि षट् शतानि कोटीनामिति, अयं च राशिः सम| चतुरस्रघनयोजनप्रमितपल्यगतः समवृत्तपनयोजनप्रमितपल्यगतराश्यपेक्षया कियभागाभ्यधिकस्तेनाधिकभागपातनार्थ
सौ कुमार्याय स्थूलोपायमाह-अनन्तरोतराशेश्चतुर्विशत्या २४ भागे हते लब्धं १७४९८५११८०२४५०६६०११५७६८९३४४००००००००० अयं चैकोनविंशत्या १५ गुणितः समवृत्तपनयोजनपल्यगतो राशिर्भवतीति, स चालतो यथा २३३०७५२१०४२४५५५,२५४२१९९५०९१५३५००००००००० अयमर्थः-याहशैश्चतुर्विशत्या भागः समचतुरनधनयोजनप्रमितपस्यगतो रोमराशिर्भवति ताशेरेकोनविंशत्या भागैः समवृत्तपनयोजनममितपस्यगतो राशिर्भवति, ननु चतुर्विशत्या भागहरणमेकोनविंशत्या गुणनं च किमर्थ ?, उच्यते, एकयोजनप्रमाणवृत्तक्षेत्रस्य करणरीत्यागत योजन| त्रयमेकश्च योजनपड्भागः३, सवर्णने च जातं एतच्च वृत्तपल्यपरिधिक्षेत्र, अनेन सह समचतुरनपल्यपरिषिक्षेत्र चतुर्योजनरूपं गुण्यते, स्थापना यथा- अनयोः समच्छेदे लाघवार्थ द्वयोरपि छेदापनयने जातं १९-२४॥ किमुक्तं भवति-समचतुरस्रपरिधिक्षेत्रात् वृत्तपरिधिक्षेत्रं स्थूलवृत्त्या पश्चभागन्यूनमिति तत्करणार्थोऽयमुपक्रम इति,81 स्थूलवृत्तिश्च योजनषड्भागस्य किश्चिदधिकतया अविवक्षणात्, अथ प्रकृतं प्रस्तुम:-ते णमिति प्राग्वत् , तानि । वालाग्राणि न कुथ्येयुः-प्रचयविशेषाच्छुपिराभावावायीरसम्भवाच नासारतां गच्छेयुरित्यर्थः, अतो न परिविध्वंसेरन्-3॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [२], --------------------------------------------------------- मूलं [१९] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१९]
श्रीजम्यू- द्वीपशा- न्तिचन्द्र या वृत्तिः ॥१६॥
+
गाथा:
कतिपयपरिशाटनमध्यङ्गीकृत्य न विध्वंसं गच्छेयुः अर्थवशाद्विभक्तिपरिणाम इति, तानि नाग्निदहेत् न वायुरपहरेवतीय पक्षस्कारे
र पस्योपमनिचितत्वादग्निपचनावपि तत्र न क्रमेते इत्यर्थः, तानि च न पूतितया-पूतिभावं कदाचिदागच्छेयुः, न कदाचिहुर्ग
प्ररूपणा धितां प्राप्नुयुरित्यर्थः, अथ केतिकर्तव्यता , तामेवाह-ततस्तेभ्यो बालाप्रेभ्योऽथवा 'तत' इति तथाविधपल्यभर-1॥३॥
सू. १९ णानन्तरं वर्षशते २ एकैकं वालासमपहत्य कालो मीयेत इति शेषः, ततश्च यावता कालेन स पस्यः क्षीणो-वालामक|पणात् क्षयमुपागतः आकृष्टधान्यकोठागारवत्, तथा (नीरजाः)-निर्गतरजःकल्पसूक्ष्मवालानोऽपकृष्टधाम्यरजाको-IN छागारवत्, निर्लेपोऽत्यन्तसंश्लेषात्तन्मयतागतवालाग्रलेपापहारादपनीतधान्यलेपकोष्ठागारवत्, निष्ठितोऽपनेतव्यख्या-18 पनयनमाश्रित्य निष्ठां गतः विशिष्टप्रयत्नप्रमार्जितकोष्ठागारवत् , एकार्थिका वा एते शब्दा अत्यन्त विशुद्धिप्रतिपादन-18 पराः, वाचनान्तरे दृश्यमानं चान्यदपि पदमुक्तानुसारतो व्याख्येयं, तदेतत्पल्योपममिति, इदं च पल्यगतबालापाणां | सङ्ख्येयेरेव वर्षेसदपहारसम्भवात् संख्येयवर्षकोटाकोटीमानं बादरपल्योपमं ज्ञेयं, न चानेनान वक्ष्यमाणसुषमसुषमादिकालमानादावधिकारः, पर सूक्ष्मपल्योपमस्वरूपसुखप्रतिपत्तये प्ररूपितमिति ज्ञायते, तेन पूर्वोक्कमेकैकवालाप्रमसंख्येयखण्डीकृत्य भृतस्योत्सेधाञ्जलयोजनप्रमाणायामविष्कम्भावगाहस्य पल्यस्य वर्षशते २ एककवालाप्रापहारेण सकलवाला-101 प्रखण्ड निर्लेपनाकालरूपमसोयवर्षकोटीकोटीप्रमाणं सूक्ष्मपल्योपम, विचित्राकृतिराचार्यस्येति सूत्रकारेणानुक्कमपि स्वयं ज्ञेयं, तेनैव च प्रस्तुतोपयोगः, अन्यथाऽनुयोगद्वारादिभिः सह विरोधप्रसङ्गादिति सर्व सुस्थं, एवम सागरोपमेऽपि
दीप
अनुक्रम [२७-३२]
JitenmitinianRI
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [२],-------------...... --------------------------------- मूलं [१९] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१९]
9402020
+
गाथा:
ज्ञेयं, अथ सागरोपमस्वरूपं गाथापद्येनाह-एएसिं पहाण'मित्यादि, एतेषामनन्तरोदितानां पत्त्यानामिति पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् पल्योपमानां या दशगुणिता कोटाकोटिर्भवेत् तत्सागरोपमस्यैकस्य भवेत् परिमाणमिति. प्रायः सर्व कण्ठ्यं, नवरमेतेन सागरोपमप्रमाणेन न न्यूनाधिकेनेत्यर्थः चतस्रः सागरोपमकोटाकोव्यः कालः सुषमसुषमा-10 प्राग्व्यावर्णितान्वर्था, अयमर्थ:-चतुःसागरोपमकोटाकोटीलक्षणः कालः प्रथम आरक इत्युच्यते, 'चायालीस'त्ति या च सागरोपमकोटाकोव्येका द्विचत्वारिंशत्सहरुनैवोनिका असौ कालश्चतुर्थोऽरकः, सा दुष्पमासकैरेकविंशतिसहस्रैर्दुष्षमदुप्पमासकैरेकविंशतिसहवैश्च वर्षाणां पूरणीया, तेन पूर्णा कोटाकोव्येका भवति, अवसर्पिणीकालस्य दशसागरकोटाकोटी पूरिका भवतीत्यर्थः, एवं प्रतिलोममिति-पश्चानुपूर्व्या ज्ञेयं, अवसर्पिणीयुक्ता उत्सर्पिणी अवसर्पिणीउत्सार्पिणी कालचक्रमित्यर्थः । उक्तं भरते कालस्वरूपं, अथ काले भरतस्वरूपं पृच्छन्नाह-तत्राप्यवसर्पिण्या वर्तमानत्वेनादौ सुषमसुषमायां प्रश्न:
जंबुद्दीवेणं भंते दीवे भरहे वासे इमीसे उस्सप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए उत्तकट्ठपत्ताए भरहस्स बासस्स केरिसए आवारभावपडोवारे होत्था ?, गो०! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे होत्था से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव णाणामणिपंचवणेहि तणेहि य मणीहि य उवसोभिए, तंजहा-किण्हेदि जाव सुक्किल्लेहि, एवं षण्णो गंधो फासो सदो अ तणाण व मणीण य भाणिभदो, जाव तत्य गं बहवे मणुस्सा मणुस्सीओ अ आसयंति सयंति चिट्ठति गिसीअंति तुअटुंति हसंति रमति ललंति, तीसे गं समाए भरहे
दीप अनुक्रम [२७-३२]
ALGEEDEREDEDEOS
श्रीजम्बू, १७ NEllennis
मूल-संपादकस्य मुद्रण-शुद्धि-स्खलनत्वात् अत्र सूत्रस्य क्रम १९ द्वि-वारान् मुद्रितं
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[१९R]
गाथा:
दीप
अनुक्रम
[२७-३२]
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [१९R] + गाथा:
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्मूद्वीपचान्तिचन्द्री - या वृतिः
॥ ९७ ॥
वा बहने उहाला कुद्दाला मुझला कयमाला गट्टमाला दंतमाला नागमाला सिंगमाला संखमाला से अमाला णामं दुमगणा पण्णत्ता, कुसविकुसविमुद्धरुक्खमूला मूलमंतो कंदमंतो जाव वीअमंतो पत्तेहि अ पुप्फेहि अ फलेहि अ उच्छष्णपडिच्छष्णा सिरीए आई डवसोमेमाणा चिति, तीसे णं समाए भरहे वासे तत्थ तत्थ बहवे भेरुतावणाई हेरुतालवणाई मेरुवालवणाई पभयालवणा सालवणाई सरलबणाई सत्तिबण्णवण्णाई पूअफलिवणाई सज्जूरीवणाई णालिएरीवणाई कुसविकसविसुद्धरुक्खमूलाई जाव चिट्ठति, तीसे णं समाए भरहे वासे तत्थ तत्थ बहुवे सेरिआगुम्मा णोमालिआगुम्मा कोरंटयगुम्मा बंधुजीवगगुम्मा मणोज्जगुम्मा बीअगुम्मा बाणगुम्मा कणइरगुम्मा कुञ्जायगुम्मा सिंदुवारगुम्मा मोमारगुम्मा जूहिआगुम्मा महिभागुम्मा वासंतिआगुम्मा वत्थुलगुम्मा कत्थुलगुस्मा सेवालगुम्मा अगत्थिगुम्मा मगदंतिआगुम्मा चंपकगुम्मा जातीगुम्मा णक्णीइआगुम्मा कुंदगुम्मा महाजाइगुम्मा रम्मा महामेद्दणिकुरंबभूआ दसद्धवण्णं कुसुमं कुसुमेति जे णं भरहे वाले बहुसमरमणिजं भूमिभागं वायविधुअग्गसाला मुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिअं करंति, तीसे णं समाए भरहे वासे तत्थ तहिं तहिं बहुओ पडमलयाओ जाव सामलयाओ णिचं कुसुमिआओ जाव उयावण्णओ, तीसे णं समाए भरहे वासे तत्थ २ तर्हि २ बहुद्दओ वणराइओ पण्णत्ताओ किन्हाओ किन्होभासाओ जाक मणोहराओ रथमत्तगछप्पयकोरगभिंगारगकोंडलगजीवंजीवगनंदीमुहरु विलपिंगलक्खगकारंडव चक्कवायगकलहंस हंससारस अणेगसउणगणमिहुणविअरिमाओ सहुणइयमरसरणादजाओ संपिंडिअ णाणाविहगुच्छ० वावीपुक्खरणीदीहिआसु असुणि० विचित्त० अभि० साउन्त० ि रोगक० सोउअपुप्फफलसमिद्धाओ पिंडिमजावपासादीआओ ४, (सूत्र १९ )
Fu Frale & Pinunate Cy
मूल-संपादकस्य मुद्रण-शुद्धि-स्खलनत्वात् अत्र सूत्रस्य क्रम १९ द्वि-वारान् मुद्रितं
~206~
నీ స్థిర ఏరు స్థిర పడి ప్రకింద స్తరించిన మరు
२वक्षस्कारे
सुषमसुष
माधिकारः
सू. १९
।। ९७ ।।
anntraryarg
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२],----------------------
------------------- मूलं [१९R] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१९R]
- जम्बूद्वीपे भदन्त द्विीपे भरतक्षेत्रेऽस्यामवसर्पिण्या सम्पति या वर्तमानेति शेषः, सुषमसुषमानाच्या समाया कालविभागलक्षणायां अरके इत्यर्थः, किंलक्षणायामित्याह-उत्तमकाष्ठां-प्रकृष्टावस्था प्राप्तायां, कचिदुत्तमद्वपत्ताए इति || पाठस्तत्रोत्तमा तत्कालापेक्षयोत्कृष्टानान्-वर्णादीन प्राप्ता उत्तमार्थप्राप्ता तस्यां, भरतस्य वर्षस्य कीदृश आकारभावप्रत्यवतारः 'होत्य'त्ति अभवत् १, सर्वमन्यत् प्राग्व्याख्यातार्थ, नबरमत्र मनुथ्योपभोगाधिकारे शयनमुभयथापि सङ्गच्छते । निद्रासहितरहितत्वमेवात्, अथ सविशेषमनुजिघृक्षुणा गुरुणाऽपृष्टमपि शिष्यायोपदेष्टव्यमिति प्रश्नपद्धतिरहितं | प्रथमारकानुभावजनितभरतभूमिसौभाग्यसूचकं सूत्रचतुर्दशकमाह-तीसे ण' मित्यादि, तस्यां समायां भरतवर्षे बहव। उहालाः कोद्दालाः मोद्दालाः कृतमालाः नृत्तमालाः दन्तमालाः नागमालाः शृङ्गमालाः शङ्खमालाः श्वेतमाला नाम । दुमगणा-दुमजातिविशेषसमूहाः प्रज्ञप्तास्तीर्थकरगणधरैः हे श्रमण ! हे आयुष्मन् !, ते च कथंभूता इत्याह-कुशा:-11 दर्भा विकुशा-बल्वजादयस्तृणविशेषास्तैर्विशुद्ध-रहितं वृक्षमूलं-तदधोभागो येषां ते तथा, इह मूलं शाखादीनामपि आदिमो भागो लक्षणया प्रोच्यते यथा शाखामूलमित्यादि ततः सकलवृक्षसत्कमूलप्रतिपत्तये वृक्षग्रहणं, मूलमन्तः कन्दमन्त इति पदद्वयं यावत्पदसङ्ग्राह्यं च जगतीवनगततरुगणवद् व्याख्येयं, पत्रैश्च पुष्पैश्च फलैश्च अवच्छन्नप्रतिच्छन्ना इति प्राम्वत् श्रिया अतीवोपशोभमानास्तिष्ठन्ति-वर्तन्ते इति भावः, "तीसे पं समाए इत्यादि, तस्यां समायां बडूनि, सूत्रे पुंस्त्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , भेरुतालादयो वृक्षविशेषाः, कचित्प्रभवालवणा इति पाठस्तत्र पभवाला:-तरुविशेषाः
गाथा:
दीप अनुक्रम [२७-३२]
JimileanI
~207~
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२],----------------------
-------------------- मूलं [१९R] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१९R]
गाथा:
श्रीजम्यू- साल:-सर्जः सरलो-देवदारुः सप्तपर्णः प्रतीतस्तेषां वनानि पूगफली-कमुकतरुः खर्जूरीनालिकेयौं प्रतीते तासां|| वक्षस्कारे द्वीपशा-18वनानि शेष प्राग्वत् , 'तीसे णं इत्यादि, तस्यां समायां बहवः सेरिकागुल्मा नवमालिकागुल्माः कोरण्टकगुल्माः बन्धु- सुषमसुषन्तिचन्द्री
जीवकगुल्माः यत्पुष्पाणि मध्याहे विकसन्ति, मनोऽवद्यगुल्माः बीअकगुल्माः वाणगुल्माः करवीरगुल्माः कुब्जगुल्माःमाधिकारः या वृत्तिः
सिंदुवारगुल्माः [जातिगुल्माः] मुद्रगुल्माः यूथिकागुल्माः मल्लिकागुल्माः वासंतिकगुल्माः वस्तुलगुल्माः कस्तुलगुल्माः ॥९८॥18 सेवालगुल्माः अगस्त्यगुल्माः (मगदन्तिकागुल्माः) चम्पकगुल्माः जातिगुल्माः नवनीतिकागुल्माः कुन्दगुल्मा 18|| महाजातिगुल्माः, गुल्मा नाम इस्वस्कन्धबहुकाण्डपत्रपुष्पफलोपेताः, एषां च केचित्प्रतीताः केचिद्देशविशेषतो
वगन्तव्याः, रम्याः महामेघनिकुरम्बभूताः दशार्द्धवर्ण-पञ्चवर्ण कुसुम-जातावेकवचनं कुसुमसमूहं कुसुमयन्ति-18 उमादयन्तीति भावः, ये णमिति प्राग्वत् भरते वर्षे इति षष्ठीसप्तम्योरथ प्रत्यभेदादरतस्य वर्षस्य बहुसमरमणीय भूमिभागं वातविधुता-यायुकम्पिता या अप्रशालास्ताभिर्मुक्तो यः पुष्पपुञ्जः स एवोपचार:-पूजा तेन कलित-युक्त कुर्वन्तीति । 'तीसे ण'मित्यादि, सर्वमेतत् प्राग्वत्, अथात्रैव वनश्रेणिवर्णनायाह-'तीसे 'मित्यादि, तत्र तत्र देशे। तस्य तस्य देशस्य तत्र २ प्रदेशे बहुचो वनराजयः प्रज्ञप्ताः, इहैकानेकजातीयानां वृक्षाणां पतयो वनराजयः, ततः
॥९८॥ पूर्वोक्तसूत्रेभ्योऽस्य भिन्नार्थतेति न पौनरुक्त्यं, ताश्च कृष्णाः कृष्णावभासा इत्यादि विशेषणजातं प्राग्वत् यावन्मनोहारिण्यः, यावत्पदसङ्घहचाय-'णीलाओ णीलोभासाओ हरिआओ हरिओभासाओ सीआओ सीओभासाओ णिद्धाओ
Sectemesesesesesedescee
दीप अनुक्रम [२७-३२]
Fol
Snilon
मूल-संपादकस्य मुद्रण-शुद्धि-स्खलनत्वात् अत्र सूत्रस्य क्रम १५ द्वि-वारान् मुद्रितं
~208~
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः )
वक्षस्कार [२],---------------------- ---------------------- मूलं [१९R] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१९R]
392909202
गाथा:
णिद्धोभासाओ तिवाओ तिबोभासाओ किण्हाओ किण्हच्छायाओ णीलाओ णीलच्छायाओ हरिआओ हरिअच्छायाओ सीआओ सीअच्छायाओ णिद्धाओ णिद्धच्छायाओ तिवाओ तिबच्छायाओ घणकडिअडच्छायाओ वाचनान्तरे घणकडि| अकडच्छायाओ महामेहणिकुरंवभूयाभो रम्माओं' इति, इदं च सूत्रं प्राक् पद्मवरवेदिकावनवर्णनाधिकारे लिखितमपि || | यत्पुनलिखितं तदतिदेशदर्शितानां सूत्रे साक्षाद्दर्शितानां च वनवर्णकविशेषणपदानां विभागज्ञापनार्थमिति, सूत्रे कानि
चिदेकदेशग्रहणेन कानिचित्सर्वग्रहणेन कानिचित्क्रमेण कानिचिदुत्क्रमण साक्षाल्लिखितानि सन्ति, तेन मा भूदाच1| वितणां व्यामोह इति. सम्यक्पाठज्ञापनाय वृत्तौ पुनर्लिख्यते,-'रयमत्तछप्पयकोरगभिंगारकोंडलगजीवंजीवगर्नदीमुह
| कविलपिंगलक्खगकारंडवचकवायकलहंससारसअणेगसउणगणमिहुणविअरिआओ सहुण्णइअमहुसरणादिआओ संपिं| डिअप्ति-संपिंडिअदरियभमरमहुकरपहकरपरिलिंतमत्तच्छप्पयकुसुमासवलोलमहुरगुमगुमंतगुंजतदेसभागाओ, णाणावि
हगुच्छत्ति-णाणाविहगुच्छगुम्ममंडवगसोहिआओ, वाचीपुक्खरिणीदीहिआसु अ सुणित्ति-वावीपुक्खरिणीदीहिआसु अ II सुणिवेसिअरम्मजालघरयाओ विचित्तत्ति-विचित्तसुहकेउभूआओ अभितत्ति-अभितरपुष्फफलाओ बाहिरपत्तोच्छKण्णाओ पत्तेहि अ पुप्फेहि अ उच्छण्णपरिच्छण्णाओ साउत्ति-साउफलाओ णिरोगकत्ति-णिरोगयाओ, सबोउअपुष्फफ
लसमिद्धाओ पिंडिमत्ति-पिंडिमनीहारिमं सुगंधि सुहसुरभि मणहरं च महया गंधद्धणि मुअंतीओ जाव पासादीआओ | इति, व्याख्या प्राग्वत् , नवरं रतमत्ताः-सुरतोन्मादिनो ये षट्पदाद्या जीवा इत्यादि, एवमेव हि सूत्रकाराः पदैकांश
2000000000000000000nemamasasa
दीप अनुक्रम [२७-३२]
Rese
~209
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [२], --------------------------------------------------------- मूलं [१९] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [१९R]
गाथा:
श्रीजन- ग्रहणत: 'एवं जाय तहेष इच्चाइ वण्णओ. सेस जहा' इत्यादिपदाभिव्यज्ञबैरतिदेशैर्दर्शितविवक्षणीयवाच्याः सूत्रे लापर्व वक्षस्कार
द्वीपशा- दर्शयति, यत उकै निशीथभाष्ये पोडशोद्देशके- कत्थइ देसग्गहणं कत्थाइ भण्णंति निरवसेसाई । उकमकमजुत्ताइंकल्पद्रुमान्तिचन्द्री-18 कारणवसो निरुत्ताई ॥१॥" [कुत्रचिशग्रहणं कुत्रचित् भण्यन्ते निरवशेषाणि । उक्रमक्रमयुक्तानि कारणवशतोगह
अधिकार या पतिः
| निरुक्तानि ॥१॥] अथात्र वृक्षाधिकारात् कल्पद्रुमस्वरूपमाह॥९९॥ तीसे णं समाए भरहे वासे तत्व तत्थ तर्हि तहिं मत्तंगाणामं दुमगणा पण्णत्ता, जहा से चंदप्पमा जाव छण्णपडिच्छष्णा चिटुंति,
एवं जाव अणिगणाणामं दुमगणा पण्णत्ता ( सूत्रं० २०)
'तीसे णमित्यादि, तस्यां समायां भरते वर्षे तत्र तत्र देशे-तस्मिन् २ प्रदेशे मत्त-मदस्तस्याङ्ग-कारणं मदिरारूपं 18 || येषु ते मत्ताना नाम दुमगणाः प्रज्ञप्ताः, कीदृशास्ते इत्याह-यथा ते चन्द्रप्रभादयो मद्यविधयो बहुप्रकाराः, सूत्रे चैक-18|| वचनं प्राकृतत्वात् , यावच्छन्नप्रतिच्छन्नास्तिष्ठन्तीति, एवं यावदनमा नाम दुमगणाः प्रज्ञप्ता इति, अत्र सर्वो यावच्छब्दाभ्यां सूचितो मत्ताङ्गादिद्रुमवर्णको जीवाभिगमोपाङ्गानुसारेण भावनीया, स चायं 'जहा से चंदप्पभामणिसिलाग-18 वरसीधुवरवारुणिसुजायपत्तपुष्फफलचोअणिज्जाससारबहुदबजुत्तिसंभारकालसंधिआसवा महुमेरगरिटाभदुद्धजातिपसक्षतालगसताउखजूरिमुहिआसारकाविसायणसुपकखोअरसवरसुरा वण्णगंधरसफरिसजुत्ता बलवीरिअपरिणामा मज्जविही| बहुप्पगारा तहेव ते मसंगावि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससापरिणयाए मजविहीए उववेया फलेहिं पुण्णा वीसदंति
tococcessesesesesesestaceae
दीप
अनुक्रम [२७-३२]
॥९९
jmmitrary
अत्र कल्पद्रुम-स्वरुपम् वर्ण्यते
~210~
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ---------------.........
------ मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२०]
७ कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव छन्नपडिच्छन्ना सिरीइ अईव उवसोभेमाणारचिटुंती'ति अत्र व्याख्या-इदं च संकेतवाक्यं
अपरेष्वपि व्याख्यास्यमानकल्पहुमसूत्रेषु बोध्यं, चन्द्रस्येच प्रभा-आकारो यस्याः सा चन्द्रप्रभा मणिशिलाकेव मणिशिलाका बरं च तत्सीधु च २ वरा चासो वारुणी च वरवारुणी तथा सुजाताना-सुपरिपाकागतानां पुष्पानां फलानां चोयस्य-गन्धद्रव्यस्य यो निर्यासो-रसस्तेन साराः तथा बहूनां द्रव्याणामुपबृंहणकानां युक्तयो-मीलनानि तासां सम्भार:प्राभूत्यं येषु ते तथा काले-स्वस्वोचित्ते सन्धितदङ्गभूतानां द्रव्याणां सन्धानं योजनमित्यर्थः तस्माज्जायन्ते इति कालसधिजाः, एवंविधाश्च ते आसवाः, किमुक्तं भवति -पत्रादिवासकद्रव्यभेदादनेकप्रकारो वासवः पत्रासवादिरनेन निर्दिष्टो भवतीति, ततः पदद्वयपदद्वयमीलनेन विशेषणसमासः, मधुमेरको मद्यविशेषौ रिष्ठाभा-रिष्ठरलवर्णाभा या शास्त्रान्तरे | जम्बूफलकलिकेति प्रसिद्धा दुग्धजाति:-आस्वादतः क्षीरसहशी प्रसन्ना-सुराविशेषः तल्लकोऽपि-सुराविशेषः शतायुहर्नाम या शतवारं शोधितापि स्वस्वरूपं न जहाति सारशब्दस्य प्रत्येकं योजनात् खजूरसारनिष्पन्न आसवविशेषः
खर्जूरसारः, मृद्वीका-द्राक्षा तत्सारनिष्पन्न आसवो मृद्वीकासारः कपिशायनं-मद्यविशेषः सुपक्का-परिपाकागतो यः। क्षोदरसः-इक्षुरसस्तनिष्पना वरसुरा, एते सर्वेऽपि मद्यविशेषाः पूर्वकाले लोकप्रसिद्धा इदानीमपि शास्त्रान्तरतो लोकतो
वा यथास्वरूपं वेदितव्याः, कथंभूता एते मद्यविशेषा इत्याह-वर्णेन प्रस्तावादतिशायिना एवं गन्धेन रसेन स्पर्शेन च ॥४॥ युक्ता-सहिता बलहेतवो वीर्यपरिणामा येषां ते तथा बहवः प्रकारा जातिभेदेन येषां ते बहुमकाराः, तथैवेतिपदं|
दीप
अनुक्रम [३३]
R
~211
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------ मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२०]
दीप
श्रीजम्यू-18 भिन्नक्रमेण योजनात्, तथास्वरूपेणैव न त्वन्यारशेन मद्यविधिना-मद्यप्रकारेणोपपेतास्ते मत्ताझा अपि दुमगणा इति वक्षस्कारे द्वीपशा-18भावः, अन्यथा दृष्टान्तयोजना न सम्यग्भवतीति, किंविशिष्टेन मद्यविधिनेत्याह-अनेको-ग्यक्तिभेदाद्वा-प्रमूतं यथाश कल्पद्रुमान्तिचन्द्र स्थात् तथा विविधो जातिभेदतो नानाविध इति भावः, स च केनापि कल्पपालादिना निष्पादितोऽपि सम्भाव्यते तत आह-विनसया-स्वभावेन तथाविधक्षेत्रादिसामग्रीविशेषजनितेन परिणतो न पुनरीश्वरादिना निष्पादित इति,
सू.२० शतप्त पदत्रयस्य पदद्वय २ मीलनेन कर्मधारयः, सूत्रे च स्त्रीत्वनिर्देशः प्राकृतत्वात् , ते च मद्यविधिनोपपेता न तालादिवृक्षा श्वाङ्करादिषु किन्तु फलादिषु, तथा चाह-फलेषु पूर्णाः भवविधिभिरिति गम्यं, सप्तम्यर्थे तृतीया प्राकृतत्वात विष्यंदन्ति-श्रवन्ति सामर्थ्यात्तानेवानन्तरोदितान मद्यविधीन, कचिद्विसहन्तीति पाठः, तत्र विकसन्तीति व्याख्येयं, किमुक्तं भवति -तेषां फलानि परिपाकागतमद्यविधिभिः पूर्णानि स्फुटित्वा २ तान् मद्यविधीन मुबन्तीति भावः, II शशेष तथैव । अथ द्वितीयकल्पवृक्षजातिस्वरूपमाख्यातुमाह-तीसे णं समाए तत्थ २ तहिं २ बहवे भिंगंगाणाम
दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो! जहा से बारगघडगकलसकरगककरिपायंचणिउदंकवद्धणिसुपइट्टगविहरपारीचसकभिंगारकरोडिसरगपत्तीथालणलगचबलिअअवमददगवारगविचित्तवट्टगमणिवहगसुत्तिचारुपीणयाकंचणमणिरयणभत्तिचित्ता ॥१००। | भायणविही य बहुप्पगारा तहेव ते भिंगंगावि दुमगणा अणेगबहुविहवीससापरिणयाए भायणविहीए उववेआ फलेहिं पुण्णाविव विसद्वंतीति तस्यां समायां तत्रेत्यादि प्राग्वत् भृत-भरणं पूरणमित्यर्थः तत्राङ्गानि-कारमानि, न हि भरण-14
अनुक्रम [३३]
SOCSCRececeae
SantlemiN
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------ मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
॥ | क्रिया भरणीय भाजनं वा विना भवतीति तत्सम्पादकत्वात् वृक्षा अपि भृताङ्गाः प्राकृतत्वाच भिंगंगा उच्यन्ते, यथा|| 19|| ते वारको मरुदेशप्रसिद्धनामा माङ्गल्यघटः घटको-लघुर्घटः कलशो-महाघटः करका प्रतीतः कर्करी-स पर विशेष:
पादकाचनिका-पादधावनयोग्या काञ्चनमयी पात्री उदो-येनोदकमुदच्यते वार्डानी-लंतिका, यद्यपि नामकोशे करककर्करीवा नीनां न कश्चिद्विशेषस्तथापीह संस्थानादिकृतो विशेषो लोकतोऽवसेय इति, सुप्रतिष्ठका-पुष्पपात्रविशेषः पारी-स्नेहभाण्डं चषकः-सुरापानपात्रं भृङ्गार:-कनकालुपा सरको-मदिरापात्रं पात्रीस्थाले प्रसिद्धे दकवारके जलघटः, विचित्राणि-विविधविचित्रोपेतानि वृत्तकानि-भोजनक्षणोपयोगीनि घृतादिपात्राणि तान्येव मणिप्रधानानि वृत्तकानि || मणिवृत्तकानि शुक्किा-पन्दनाद्याधारभूता शेपा विष्टरकरोडिनल्लकचपलितावमदचारुपीनका लोकतो विशिष्टसम्प्रदाया-॥४॥ द्वाऽवगम्याः, काञ्चनमणिरसानां भक्तयो-विच्छित्तयस्ताभिश्चित्रा भाजनविषयो-भाजनप्रकारा बहुप्रकारा एकैकस्मिन् । विधाववान्तरानेकभेदभावात् तथैवेति पूर्ववत् ते भृताङ्गा अपि द्रुमगणा 'अणेगे'ति पूर्ववत् भाजनविधिनोपपेताः फलैः
पूर्णा इव विकसन्ति, अयमर्थ:-तेषां भाजनविधयः फलानीव शोभन्ते, अथवा इवशब्दख भिन्नक्रमेण योजना, तेन 8 18 फलैः पूर्णा भाजन विधिना वोपपन्ना दृश्यन्ते इति । अथ तृतीयकल्पवृक्षस्वरूपमाह-तीसे णं समाए तत्थ तत्व देसे तहिं 18 बहवे तुडिअंगा णाम दुमगणा पण्णचा समणाउसो!, जहा से आलिंगमुइंगपणवपडदहरगकरडिडिंडिमभभाहोरम्भ18| कणियखरमुहिमुगुंदसंलिअपिरलीवचकपरिवाइणिवंसवेणुषोसविवंचिमहतिकच्छभिरिगिसिगिआतलतालकंसतालसुसंपउ
अनुक्रम [३३]
~2134
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२०]
दीप
अनुक्रम
[३३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्पद्वीपशान्तिचन्द्री
या वृचिः
॥१०१॥
ता आतोज्जविही मिउणगंधबसमयकुसलेहिं फंदिआ तिद्वाणकरणसुद्धा तहेव ते तुडिअंगावि दुमगणा अयेगबहुविविहवी| ससापरिणयाए ततविततघणझुसिराए आतोज्जविहीए उववेआ फलेहिं पुण्णाविव विसति, कुसविकुमजाव चिट्ठतीति, यथा ते आलिङ्गो नाम यो वादकेन मुरज आलिय वाद्यते, हृदि धृत्वा वाद्यत इत्यर्थः, मृदङ्गो-लघुमईलः पणवो-भाण्डपटहो लघुपटहो वा पटहः स्पष्टः दईरिको यस्य चतुर्भिश्चरणैरवस्थानं भुवि स गोधाचर्मावनद्ध वाद्यविशेषः करटीसुप्रसिद्धा डिण्डिमः -प्रथमप्रस्तावनासूचकः पणवविशेषः भंभा-ढक्का निःखानानीति सम्प्रदायः, होरंभा - महाढका | महानि: स्वानानीत्यर्थः कणिता- काचिद्वीणा खरमुखी - काहला मुकुन्दो - मुरजविशेषो योऽतिलीनं प्रायो वाद्यते शङ्खकालघुशङ्खरूपा तस्याः स्वरो मनाक् तीक्ष्णो भवति न तु शङ्खस्येवातिगम्भीरः पिरलीवचको तृणरूपवाद्यविशेषौ परिवादिनी-सप्ततन्त्री वीणा वंशः - प्रतीतः वेणुः - वंशविशेषः सुघोषा - वीणाविशेषः विपंचीति-तन्त्री वीणा महती शततन्त्रिका सा कच्छपी-भारती वीणा रिगिसिगिका घर्घ्यमाणवादित्रविशेष इति श्राद्धविधिवृत्तौ एते कथंभूता इति ?, तल| हस्तपुढं तालाः कांस्यतालाश्च प्रतीताः एतैः सुसंप्रयुक्ताः - सुष्ठु अतिशयेन सम्यग्यथोक्तनीत्या प्रयुक्ताः - सम्बद्धाः, यद्यपि हस्तपुढं न कश्चित्तूर्यविशेषस्तथापि तदुत्थितशब्दप्रतिकृतिः शब्दो लक्ष्यते, एतादृशा आतोद्यविधयः- सूर्यप्रकाराः निपुणं यथा भवति एवं गन्धर्वसमये नाव्यसमये कुशलास्तैः स्पन्दिता व्यापारिता इति मावः पुनः किंविशिष्टा इत्याह-त्रिषु - आदिमध्यावसानेषु स्थानेषु करणेन-क्रियया यथोक्तवादनक्रियया शुद्धा अवदाता न पुनरस्थानव्यापार
Fu Pale & Punase Oly
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১৬১৬৬১৬১৬
| वक्षस्कार कल्पद्रुमाधिकार:
सू. २०
॥१०१॥
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२०]
दीप
अनुक्रम [३३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
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| णरूपदोषलेशेनापि कलङ्किताः ते त्रुटिताना अपि द्रुमगणास्तथैव तथाप्रकारेण न त्वन्यादृशेन ततं-वीणादिकं विततंपटहादिकं धनं- कांस्यतालादिकं शुषिरं वंशादिकं एतद्रूपेण सामान्यतञ्चतुर्विधेन आतोद्यविधिनोमेपताः, शेषं प्राग्वत् । अथ चतुर्थकल्पवृक्षस्वरूपमाह - 'तीसे णं समाए तत्थ तत्थ देसे तर्हि २ बहवे दीवसिंहाणामं दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो !, जहा से संझाविरागसमए नवनिहिवइणो दीविआचकवालविंदे पभूयवट्टिपलित्तणेहे घणिउज्ज लिए तिमिरमद्दए कणगनिगरकुसुमि अपालि आतगवणप्पगासे कंचणमणिरयणविमलमहरिहतवणिज्जुज्जलविचित्तदंडाहिं दीविआहिं सहसा |पज्जा लिउस्सप्पि अनिद्धते अदिप्पंतविमलगहगणसमप्पहाहिं वितिमिरकरसूरपसरिउज्जोअचिलिआहिं जालुजलय हसिआभिरामाहिं सोभमाणा तहेब ते दीवसिहावि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससापरिणयाए उज्जअविहीए उबवेआ फलेहिं पुण्णा कुंसविकुस जाव चिह्नंती ति, तस्यां समायां दीपशिखा इव दीपशिखास्तत्कार्यकारित्वात्, अन्यथा व्याघातकालत्वेन | तत्राप्रेरभावाद्दीपशिखानामप्यसम्भवात्, योजना प्राग्वत्, यथा तत्सन्ध्यारूपो उपरमसमयवर्त्तित्वेन मन्दो रागस्तत्समये तदवसरे नवनिधिपतेश्चक्रवर्त्तिन इव ह्रस्वा दीपा दीपिकास्तासां चक्रवालं - सर्वतः परिमण्डलरूपं वृन्दं कीदृगित्याहप्रभूता भूयस्यः स्थूरा वा वर्त्तयो दशा यस्य तत्तथा पर्याप्तः - परिपूर्णः स्नेहः-तैलादिरूपो यस्य तत् तथा घनं - अत्यर्थ| मुज्वलितं अत एव तिमिरमर्द्दकं, पुनः किंविशिष्टमित्याह - कनकनिकरः- सुवर्णराशिः कुसुमितं च तत्पारिजातकवनं |च पुष्पितसुरतरुविशेषवनं ततो द्वन्द्वस्तद्वत्प्रकाशः-प्रभा आकारो यस्य तचथा, एतावता समुदायविशेषणमुक्तमिदानीं
Fur Ele&P Cy
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------ मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [२०]
श्रीजम्यू- द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥१०२॥
सू.२०
दीप
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समुदायसमुदायिनोः कथंचित् भेद इति ल्यापयन् समुदायविशेषणमेव विवाः समुदायिविशेषणान्याह-लोकेऽपि वक्षस्कारे वतारो भवन्ति यदियं जन्ययात्रा महर्द्धिकजनैराकीर्णे'ति 'कंचणे त्यादि, दीपिकाभिः शोभमानमिति सम्बन्धः, कथंभू
कल्पद्रुमाताभिर्दीपिकाभिरत आह-काञ्चनमणिरलमयाः विमला:-स्वाभाविकागन्तुकमलरहिता महा-महोत्सवार्हाः तपनीयंसुवर्णविशेषस्तेनोज्वला-दीप्ताः विचित्रा-विचित्रवर्णा दण्डाः यासां तास्तथा ताभिः सहसा-एककालं प्रचालिताश्च ता उत्सर्पिताश्च वर्तुत्सर्पणेन तथा स्निग्धं-मनोहरं तेजो यासां तास्तथा, दीप्यमानो रजन्यां भास्वान् बिमलोऽत्र धूल्याद्यपगमेन ग्रहगणो-ग्रहसमूहस्तेन समा प्रभा यास तास्तथा ताभिः, ततः पदद्वय २मीलनेन कर्मधारयः, तथा वितिमिराः कराः यस्यासौ वितिमिरकरो-निरन्धकारकिरणः स चासौं सूरश्च तस्येव यः प्रसूत उद्योतः-प्रभासमूहस्तेन चिल्लिाहिति-देशीपदमेतत् दीप्यमानाभिरित्यर्थः, ज्वाला एव यदुजवलं प्रहसितं-हासस्तेनाभिरामा-रमणीयास्ताभिः,ION अत एव शोभमानं, तथैव ते दीपशिखा अपि हुमगणा अनेकबहुविविधविनसापरिणतेनोद्योतविधिनोपपेताः, यथा, दीपशिखा रात्री गृहान्तरुद्योतन्ते दिवा वा गृहादौ तदेते द्रुमा इत्याशयः, एवं च वक्ष्यमाणज्योतिपिकाख्यद्रुमेभ्यो | विशेषः कृतो भवतीति, शेष प्राग्वत् । अथ पञ्चमकल्पवृक्षस्वरूपमाह-'तीसे णं समाए तत्थ २ वहवे जोइसिआ ॥१२॥ णाम दुमगणा पण्णता समणाउसो ! जहा से अइरुग्गयसरयसूरमण्डलपडत उकासहस्सदिपंतविजुजलहुअवहणिदूम- जलिमणिदंतधोअतत्ततवणिजकिसुआसोअजामुअणकुसुमविमउलिअपुंजमणिरवणकिरणजयहिं गुलयणिगररूवाइरेगरूवा
अनुक्रम [३३]
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२०]
दीप
अनुक्रम
[३३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बू. १८
तहेब ते जोइसिआवि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससापरिणयाए उज्जअविहीए उवधेया सुहलेसा मंदलेसा मंदायवलेसा कूडा इव ठाणट्टिभ अशोन्नसमोगादाहिं लेसाहिं साए पहाए ते परसे सबओ समंता ओहार्सेति उज्जोअंति पभासंति कुसुम जाव चितीति, अत्र व्याख्या--तस्यां समायां 'तत्थे'त्यादि पूर्ववत्, ज्योतिषिका नाम द्रुमगणाः प्रज्ञष्ठा इत्यन्वययोजना, नामान्वर्थस्त्वयं- ज्योतींषि - ज्योतिष्का देवास्त एव ज्योतिषिकाः, अत्र मतान्तरेण स्वार्थे इकप्रत्ययः, 'उणादयोऽव्युत्पन्नानि नामानी'त्यव्युत्पत्तिपक्षाश्रयणादिसुप्रत्ययान्तत्वाभावादिकारलोपाभावश्च सम्भाव्यते, जीवाभिगमवृत्ती ज्योतिषिका इति संस्कारदर्शनात्, तत्रापि प्रधानाप्रधानयोः प्रधानस्यैव ग्रहणं तेन अत्र ज्योतिषिकशब्देन सूर्यो गृह्यते, तत्सदृशप्रकाशकारित्वेन वृक्षा अपि ज्योतिषिकाः, 'ज्योतिर्वहिदिनेशयोः' इति वचनाद्वा ज्योति:शब्दः सूर्यवाचको वह्निवाचको वा, शेषं स्वार्थिकप्रत्ययादिकं तथैव ते च किंविशिष्टा इत्याह-यथा ते 'अचिरे' त्यादिना 'हुतवह' इत्यन्तेन सम्बन्धः, अचिरोद्गतं शरत्सूर्यमण्डलं यथा वा पतदुल्कासहस्रं प्रसिद्धं यथा वा दीप्य माना विद्युत् यथा वा उद्गता ज्वाला यस्य स उज्ज्वालः, तथा निर्द्धमो-धूमरहितो ज्वलितो -दीघो हुतवहो -- दहनः, सूत्रे पदोपन्यासव्यत्ययः प्राकृतत्वात् ततः सर्वेषामेषां द्वन्द्वः, एते च कथंभूता इत्याह-निर्मातं-नितरामग्निसंयोगेन (शोधितमलं) यद्धीतं शोधितं तप्तं च तपनीयं, ये च किंशुकाशोकजपाकुसुमानां विमुकुलितानां विकसितानां पुञ्जा ये च मणिरल किरणाः यश्च जात्यहिङ्गुलकनिकरस्तद्रूपेभ्योऽतिरेकेण - अतिशयेन यथायोगं वर्णतः प्रभया च रूपं स्वरूपं
Fur Fate &P Cy
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [२], ------------------------------------------- ------ मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्धू
प्रत सूत्रांक [२०]
दीप
येषां ते तथा, ततः पूर्वपदेन विशेषणसमासः, तथैव ते ज्योतिषिका अपि दुमगणा अनेकबहुविविधविनसापरिणते-18 वक्षस्कारे
नोद्योतविधिनोपपेता यावत्तिष्ठन्तीति सण्टक, ननु यदि सूर्यमण्डलादिषत्ते प्रकाशकास्तहि तद्वत्चे दुर्निरीक्ष्यत्वतीव्रत्व-8 कल्पवृक्षान्तिचन्द्री- जङ्गमत्वादिधर्मापेता अपि भवन्तीखाह-सुखा-सुखकारिणी लेश्या-तेजो येषां ते तथा मत एवं मन्दलेश्यास्तथा मन्दा-वि०म०२० या वृत्तिः
तपस्य लेश्या-जनितप्रकाशस्य लेश्या येषां ते तथा, सूर्यानलाद्यातपस्य तेजो यथा दुस्सहं न तथा तेषामित्यर्थः, तथा ॥१०॥ कूटानीव-पर्वतादिङ्गाणीव स्थानस्थिता:-स्थिरा इति, समयक्षेत्रवहिर्तिज्योतिष्का इव तेऽवभासयन्तीति भावः,
इ तथाऽन्योऽन्यं-परस्परं समवगाढाभिर्लेश्याभिः सहिता इति शेषः, किमुक्तं भवति :-यत्र विवक्षिता ज्योतिपिकाख्य-18 | तरुलेश्या अवगाढा तत्रान्यख लेश्याऽवगाढा यत्रान्यतरुलेश्या अवगाढा तत्र विवक्षिततरुळेश्या अवगावा इति, 'साए पभाए इत्यादि, 'पभासन्ती'त्यन्तं सूत्रं विजयद्वारतोरणसम्बन्धिरत्नकरण्डकवर्णने व्याख्यात्तमिति, 'कुशविकुशे'त्यादि पूर्ववत् , एषां च बहुल्यापी दीपशिखावृक्षप्रकाशापेक्षया तीवश्च प्रकाशो भवतीति पूर्वेभ्यो विशेषः । अथ षष्ठक-18 स्पवृक्षस्वरूपमाह-'तीसे णं समाए तत्थ २ वहवे चित्तंगा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो, जहा से पेच्छाघरे विचिचे रम्मे वरकुसुमदाममालुञ्जले भासतमुक्कपुष्फपुंजोवयारकलिए विरल्लिअविचित्तमल्लसिरिसमुदयपगम्भे गठिम-3॥१०॥ वेडिमपूरिमसंघाइमेण मल्लेणं छेअसिप्पिविभागरइएणं सबओ चेव समणुबड़े पविरललंबंतविप्पइपंचवण्णेहिं कुसुमदामेहिं सोभमाणे वणमाल कयग्गए चेव दिप्पमाणे, तहेव ते चित्र्तगावि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससापरिणपाए।
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ----------------------
------ मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२०]
मल्लविहीए उववेआ कुसविकुसजाव चिट्ठन्ती'ति, तस्यां समायामित्यादि माग्वत् , नवरं 'चित्तंगा' इति चित्रस्य अनेक-1 प्रकारस्य विवक्षाप्राधान्यान्माल्यस्य अंग-कारणं तत्सम्पादकत्वादृक्षा अपि चित्राकार, यथा तत्प्रेक्षागृह विचित्रं-नानाचित्रोपेतमत एव रम्यं-रमयति द्रष्टृणां मनांसीति बाहुलकात् कर्तरि यमत्ययः, किंविशिष्ट इत्याह-बरकुसुमदानां माला:श्रेणयस्ताभिरुज्ज्वलं देदीप्यमानत्वात् , तथा भास्वान-विकसिततया मनोहरतया च देदीप्यमानो मुक्तो या पुष्पपुबोपचारतेन कलितं. तथा विरल्लितानि 'समयी विस्तारे' इत्यस्य 'तमेस्तडतवतरपपिरल्ला' इत्यनेन विरलादेशे कृते - प्रत्यये च पिरल्लितानि-विरलीकृतानि विचित्राणि यानि माल्यानि-अथितपुष्पमालास्तेषां यः श्रीसमुदया-धोभानकर्षस्तेन | प्रगल्भ-अतीव परिपुष्ट, तथा ग्रंथिम-यत्सूत्रेण प्रथितं वेष्टिम-यत् पुष्पमुकुटमिवोपर्युपरि विखराकृत्या मालास्थापन | पूरिम यल्लघुच्छिद्रेषु पुष्पनिवेशेन पूर्यते सहातिम-यत्पुष्पं पुष्पेण परस्परनालप्रवेशेन संयोज्यते, ततः समाहारान्छे । एवंविधेन माल्येन छेकशिल्पिना-परमदक्षिणकलावता विभागरचितेन-विभक्तिपूर्व सेन यात्र योग्य प्रन्थिमादि तत्र तेन सर्वतः-सर्वासु दिक्षु समनुबद्धं, तथा प्रविरललम्बमानैः, तत्र मविरलत्वं मनागष्यसंहतत्वमात्रेण भवति ततो विप्रकृष्टत्वप्रतिपादनायाह-विमकृष्टैः-वृहदन्तरालः पश्चवर्णैः, ततः कर्मधारयः, मुमदामभिः शोभमान, वनमाला
बन्धनमाला कसाऽमे-अग्रभागे यस्य तत्वधा, तथाभूतं सद्दीप्यमानं, तथैव चिनाङ्गा अपि नाम हुमगणा अनेकबहुविध-1 18 विविधविनसापरिणतेन माल्यविधिनोपपेता, 'कुसविकुसविसुद्धमूला' इत्यादि प्राग्वत् । अथ सचमकल्पक्षस्वरूप
दीप
अनुक्रम [३३]
epapoor
Researcotatoerserstaeseseise
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आगम
(१८)
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सूत्रांक
[२०]
दीप
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[३३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र- [७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृति:
॥१०४॥
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माह - 'तीसे णं समाए तत्थ २ बहवे तहिं २ चित्तरसा णामं दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो ! जहा से सुगंध वरकमलसालितंदुलविसिद्वणिरुवहयदुद्धरद्धे सारयघयगुडखंड महुमे लिए अइरसे परमण्णे होजा उत्तमवण्णगंधमंते अहवा रण्णो चकवहिस्स होज णिउणेहिं सूवपुरिसेहिं सज्जिए चडकप्पसेअसिते इव ओदणे कलमसालिणिवत्तिए विप्यमुक्के सबप्फमिउ| विसयसगलसित्थे अणेगसालणगसंजुत्ते अहवा पडिपुण्णदव्वक्खडे सुसक्खए यण्णगंधरसफरिसजुत्तबल वीरि अपरिणामे इंदिअचलपुट्टिविबद्धणे खुप्पिवासामहणे पहाणंगुल कढि अखंड मच्छंडिघउर्वणीरव मोअगे सहसमिइगन्भे हवेज्ज परमेट्ठगसंजुत्ते तहेव ते चित्तरसावि दुमगणा अणेगबहुविहविविहवीससापरिणयाए भोअणविहीए उववेआ कुसविकुसजाव चिह्नंती' ति, तस्यां समायामित्यादि योजना प्राग्वत्, नवरं चित्रो-मधुरादिभेदभिन्नत्वेनानेकप्रकार आस्वादयिदणामाश्चर्यकारी वा रसो येषां ते तथा, यथावत्परमान्नं पायसं भवेदिति सम्बन्धः, किंविशिष्टमित्याह-ये सुगन्धाः| प्रवरगन्धोपेताः, समासान्तविधेरनित्यत्वादत्रेद्रूपस्य समासान्तस्याभावो यथा सुरभिगन्धेन वारिणेति, वराः -प्रधाना दोषरहित क्षेत्रकालादिसामग्री सम्पादितात्मलाभा इति भावः, कलमशाले :- शालिविशेषस्य तन्दुला निस्त्वचितकणाः यच्च विशिष्टं विशिष्टगवादिसम्बन्धि निरुपहतमिति - पाकादिभिरविनाशितं दुग्धं ते राद्धं-पर्क, परमकलमशालिभिः परम| दुग्धेन च यथोचितमात्रपाकेन निष्पादितमित्यर्थः, तथा वारदघृतं गुडः खण्डं मधु वा शर्करापरपर्यायं मेलितं यत्र तत्तथा क्तान्तस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् सुखादिदर्शनाद्वा, अत एवातिरसमुत्तमवर्णगन्धवत्, यथा वा राज्ञश्च
For Evate & Pune Oly
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वक्षस्कारे कल्पवृक्षा
वि०स. २०
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सूत्रांक
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
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क्रवर्त्तिनः ओदन इव भवेदित्यन्वयः, निपुणैः सूपपुरुषैः-- सूपकारैः सज्जितो-निष्पादितः चत्वारः कल्पा यंत्र स चासौ सेकश्च चतुष्कल्पसेकस्तेन सिक्तः, रसवतीशास्त्राभिशा हि ओदनेषु सौकुमार्योत्पादनाय सेकविषयांश्चतुरः कल्पान् | विदधति, स च ओदनः किंविशिष्ट १ इत्याह-कलमशालिनिर्वर्त्तितः कलमशालिमय इत्यर्थः, विपक्को - विशिष्टपरिपा|कमागतः सवाष्पानि - वाष्पं मुञ्चन्ति मृदूनि कोमलानि चतुष्कल्पसेकादिना परिकर्मितत्वात् विशदानि सर्वथा तुषा| दिमलापगमात् सकलानि - पूर्णानि सित्थानि यत्र स तथा, अनेकानि शालनकानि - पुष्पफलप्रभृतीनि प्रसिद्धानि तैः संयुक्तः, अथवा मोदक इव भवेदिति, किंविशिष्ट ? इत्याह- परिपूर्णानि - समस्तानि द्रव्याणि - एलाप्रभृतीनि उपस्कृतानि - नियुक्तानि यत्र स तथा, निष्ठान्तस्य परनिपातः सुखादिदर्शनात्, सुसंस्कृतो यथोक्तमात्रानिपरितापादिना पर| मसंस्कारमुपनीतः वर्णगन्धरसस्पर्शाः सामर्थ्यादतिशायिनस्तैर्युक्ता बलवीर्यहेतवश्च परिणामा आयतिकाले यस्थ | अतिशायिभिर्वर्णादिभिर्बलवीर्यहेतुपरिणामैश्चोपेता इति भावः, तत्र पठं शारीरं वीर्य आन्तरोत्साहः, तथा इन्द्रियाणां चक्षुरादीनां बलं स्वस्वविषयग्रहणपाटवं तस्य पुष्टिः- अतिशायी पोषस्तां वर्द्धयति, नन्द्यादित्वादनः, तथा क्षुत्पिपासामथन इति व्यक्तं, तथा प्रधानः कथितो निष्पक्को गुडस्तादृशं वा खण्डं तादृशी वा मत्स्यण्डी - खण्डशर्करा तादृशं वा घृतं तान्युपनीतानि - योजितानि यस्मिन् स तथा, निष्ठान्तस्य परनिपातः सुखादिदर्शनात्, तथा श्लक्ष्णा-सूक्ष्मा | निर्वस्त्रगालितत्वेन समिता - गोधूमं चूर्णं तद्गर्भः - तन्मूलदलनिष्पन्न इति भावः, परमेष्टकं - अत्यन्तवहभं तदुपयोगि
तथा,
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ----------------------
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प्रत
सूत्रांक [२०]
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श्रीजन-18| द्रव्यं तेन संयुक्तः, एतब्यक्तिः सम्पदायगम्या, तथैव ते चित्ररसा अपि दुमगणाः अनेकबहुविधविविधविखसापरिणम वक्षस्कारे डीपञ्चा-18भोजनविधिनोपपेता इत्यादि प्राग्वत् । अचाष्टमकल्पवृक्षस्वरूपमाह-'तीसे पं समाए तत्थ बहवे मनिअंगा गाम दुम-18 कल्पक्षान्तिचन्द्री- गणा पण्णता समणाउसो!, जहा से हारहारवेक्षणयमउडकुंडलवामुत्सयहेमजालमणिजातकणगजालगत्सगडचिषक- वि०मू.२० या चि:18
गखुजयपकावलिकंठसुत्तगमगरिअउरत्यगेविजसोणिमुत्तगचूलामणिकणगतिलगाकुलगसिद्धत्ययकण्णवालिससिसूरतसह-18 ॥१०५॥ चकगतलभंगयतुविजाहत्यमालगहरिसयकेजरवलयवालंबअंगुलिजगवलक्लवीणारमारिवाचिमेहलकलावपवरगपारि
हेरगपायजालपटिआसिंखिणिरवणोरुजालखुडिअवरमेऊरचलणमालिआकणगणिगठमानिमाकंचममपिरयणचिचिचा 18 IN तहेव ते मणिअंगावि दुमगणा अणेगजावभूमणविहीप उबवेआ जाब चिद्वतीति तस्यां समायामित्यादि शायद, नवर।
मणिमयानि आभरणान्याधेये आधारोपचाराममणीनि सान्येषाशानि-अवयषा येषां ते मण्यास भूषणसम्मावका इत्यर्क, यथा ते हारा-अष्टादशसरिका अर्बहारो-नवसरिकः वेष्टनक:-कर्षाभरणविशेषः पुकुटकुण्डले बाके वाबोस - जालं-सच्छिद्रसुवर्णालद्वारविशेषः एवं मणिजासकनकजालके अपि, पएं कनकवासास हेमजासतो मेदो महिमा सूत्रक-वैकक्षककृतं सुवर्णसूत्रं सचितकटकानि-योग्यवलयानि क्षुद्रक-अनुसीयकविशेषः एकावसी विनिमलिक ॥१५॥ कृता एकसरिका च कण्ठसूत्र-पसिहं मकरिका-मकराकार आभरणविशेषः वरसं हवयाभरणविशेषः -पीयामपविकोपा, बत्र सामान्पविवक्षया षेयमिति जीवाभिगमवृत्त्यनुसारेणोकं, अन्यथा हेमन्वाकरमारावलङ्कारविवक्षा
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आगम
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सूत्रांक
[२०]
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
ग्रैवेयकमिति खात् एवमन्यत्रापि तत्तद्वृत्त्यनुसारेण ज्ञेयं, ओणिसूत्रक-कटिसूत्रकं बूडाममिर्नाम सकसपरससारो | नरामरेन्द्रमौलिस्थायी अमङ्गलामपप्रमुखदोपहृत् परममङ्गलभूत आभरणविशेषः कनकतिखर्क–उटाभरणं पुन पुष्पाकृति उखाटाभरणं सिद्धार्थकं सर्पपप्रमाणस्वर्णकणरचितसुवर्णमणिकमयं कर्णवाली- कर्णोपरितनविभागस्यविसेवः शशिसूर्यवृषभाः स्वर्णमयचन्द्रादिरूपा आभरणविशेषाः चक्रकं-चक्राकारः शिरोभूषणविशेषः ततभङ्गकं त्रुटिकानि च बाह्राभरणानि, अनयोर्विशेषस्तु आकारकृतः, हलमालकं हर्षकं फेवरं-अज़दं, पूर्वस्याचाकृतिकृतो विशेषः, वयं-कणं प्रासम्बं-शुम्बनकं अङ्गुलीयके-मुद्रिका वलक्षं रूढिगम्वं दीनारमालिका चन्द्रमालिका सूर्यमालिका - दीना| राधाकृतिमणिकमालाः काञ्चीमेखलाकलापाः खीकव्याभरणविशेषाः, विशेषश्चैषां निम्बः प्रतरके वृत्तप्रस जम श्वविशेषः पारिहार्य-वलयविशेषः पादेषु जाeाकृतयो घण्टिका-घर्षरिकाः किङ्किण्यः-शुद्रमण्टिकाः स्कोरुजासं| रामयं जङ्घत्वाः प्रखम्बमानं सङ्कलकं सम्भाव्यते मुद्रिका वराणि नूपुराणि व्यक्तानि चरणमालिका संस्थानविशेषकृतं पादाभरणं लोके पागड इति प्रसिद्धं, कनकनिगड:-निगडाकारः पादाभरणविशेषः सौवर्थः सम्भाव्यते, (लोके) च कडलों इति प्रसिद्धानि, एतेषां मालिका -श्रेणिः, अत्र च व्याख्यातव्यतिरिक्तं मूषणस्वरूपं सोकसो सम्वे, इत्यादिका भूषणविघयो- गण्डनप्रकाराः बहुप्रकारा अवान्तरभेदात्, ते च किंविशिष्टा इल्मह-काञ्चनमणिरतभक्तिचित्रा इति व्यक्तं तथैव च तथा प्रकारेण भूषणविधिनोपपेतास्ते मण्यङ्गा इति तात्पर्यार्थः शेषं प्राग्वत् । अथ नवमकल्पवृक्ष
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[२०]
दीप
अनुक्रम
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
भीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री या वृचिः
॥१०६ ॥
स्वरूपमाह - 'तीसे णं समाए तत्थ २ बहवे गेहागारा णामं दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो !, जहा से पागारट्टालयचरिअदारगोपुरपासायागासतलमंडव एगसालगविसालगतिसालगच उसालगगग्भघरमोहणघरवल भीहरचित्तमालयघर| भतिघरवतंस चउरंसणंदिआवत्तसंठिआ पंडुरतलमुंडमालहम्मियं अहवणं धवलहर अद्ध मागहविग्भमसेलद्ध सेलसंठिअ| कूडागारसुविहिअकोट्ठग अणेगघरसरणलेणआवणा विडंगजालबिंदणिज्जूह अपवरग चंदसालि आरुवविभत्तिकलिआ भर्वणविही बहुविकप्पा तहेव ते गेहागारावि दुमगणा अणेगबहुविह विविहवीससापरिणयाए सुहारुहणसुहोताराए सुहणिक्खमणपवेसाए दद्दरसोपाणपतिकलिआए पइरिकमुंहविहाराए मणोणुकूलाए भवणविहीए उबवेआ जाव चिद्वंती' ति, तस्यां समायामित्यादि प्राग्वत्, गेहाकारा नाम दुमगणाः प्रज्ञप्ताः, यथा ते प्राकारो-वप्रः अट्टालकः - प्राकारोपरिवत्र्त्याश्रयविशेषः चरिका-नगरमाकारान्तरालेऽष्टहस्तप्रमाणो मार्गः द्वारं व्यक्त, गोपुरं-पुरद्वारं प्रासादो - नरेन्द्राश्रयः आकाश| तलं-कटायच्छन्नकुट्टिमं मण्डपः - छायाद्यर्थं पटादिमय आश्रयविशेषः एकशालकद्विशालकत्रिशालकचतुःशालकादीनि भवनानि, नवरं गर्भगृहं सर्वतोवर्त्तिगृहान्तरं अभ्यन्तरगृहमित्यर्थः, अन्यथोत्तरत्र वक्ष्यमाणेनापवरकेण पौनरुक्तयं स्वात्, मोहनगृहं सुरतगृहं, वल्लभी छदिराधारस्तत्प्रधानं गृहं, चित्रशालगृहं चित्रकर्मवद् गृहं मालकगृहं द्वितीयभूमिकाद्युपरिवर्ति गृहं भक्तिः - विच्छित्तिस्तत्प्रधानं गृहं वृत्तं वर्तुलाकारं त्र्यसं-त्रिकोणं चतुरस्रं चतुष्कोणं नन्द्यावर्त्तःप्रासादविशेषस्तद्वत्संस्थितानि नन्द्यावर्त्ताकाराणि गृहाणि पश्चात् द्वन्द्वः, पाण्डुरतलं-सुधामयतलं मुण्डमालहर्म्य -
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वक्षस्कारे कपवृक्षा
वि०सू. २०
॥१०६ ॥
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], -----------------------
------ मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२०]
दीप
IS उपर्यनाच्छादितशिखरादिभागरहितं हर्म्य, अथवा णमिति प्राग्वत्, धवलगृह-सौषं अर्धमागधविभ्रमाणि-गृहवि-19
शेषाः शैलसंस्थितानि-पर्वताकाराणि गृहाणि अर्द्धशैलसंस्थितानि तथैव कुटाकारण-शिखराकृत्याऽऽव्यानि सुविधि| कोष्ठकानि-सुसूत्रणापूर्वकरचितोपरितनभागविशेषा अनेकानि गृहाणि सामान्यतः शरणानि-तृणमयानि लयनानि-पर्वतनिकुट्टितगृहाणि आपणा-हट्टाः इत्यादिका भवनविधयो-वास्तुप्रकारा बहुविकल्पा इत्यन्वयः, कथम्भूता इत्याहविटण्का-कपोतपाली जालवृन्द:-गवाक्षसमूहः नि!हो-द्वारोपरितनपार्यविनिर्गतदारु अपवरका मतीतः चन्द्रशालिका-1 शिरोगृह, एवंरूपाभिर्विभफिभिः कलिताः, तथैव भवनविधिनोपपतास्ते गेहाकारा अपि हुमगणास्तिष्ठन्तीति सम्बन्धः, किंविशिष्टेन विधिनेत्याह-मुखेनारोहणं-ऊर्ध्वगमनं मुखेनावतार:-अधस्तादवतरणं यस्य स तथा सुखेन निष्क्रमणंनिर्गमः प्रवेशश्च यत्र स तथा, कथमुक्तस्वरूपमित्याह-दर्दरसोपानपकिकलितेन, अब हेती तृतीया, तथा प्रतिरिक्तएकान्ते सुखो विहारः अवस्थानशयनादिरूपो यत्र स तथा मनोऽनुकूलेनेति व्यक्तं, शेष प्राग्वत् । अथ दशमकल्पवृक्ष-18 खरूपमाह-'तीसे णं समाए तत्थ तत्थ बहवे अणिगणा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो, जहा से आईणगखोम-18 तणुलकंबलदुगूलकोसेजकालमिगपट्टअंसुअचीणअंसुअपट्टा आभरणचित्तसहगकालाणगभिंगणीलकजलबहुवण्णरत्तपी-1॥ | असुकिल्लसक्यमिगलोमहेमप्परल्लगअवरुत्तरसिंधुउसभदामिलवंगकलिंगनलिणतंतुमयभत्तिचित्ता वत्थविही बहुप्पगारा 8 पधरपट्टणुग्गया वण्णरागकलिआ तहेव ते अणिगणावि दुमगणा अणेगबहुविहविविहवीससापरिणयाए वत्थविहीए उववे
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(१८)
प्रत
सूत्रांक
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्पद्वीपक्षान्तिचन्द्री -
या वृचि
૫ર્॰ા
आ कुलविसजाव चितीति वाक्ययोजना पूर्ववत्, नामार्थस्तु विचित्रवस्त्रदायित्वात् न विद्यन्ते नासत्काठीनजना येभ्यस्तेऽनग्नाः, यश प्राकनेषु बहुषु जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रादर्थेषु आयाणा इति दृश्यते स लिपिप्रमादः सम्भाब्यते, प्रस्तुतसूत्रालापक विस्तारोपदर्शके जीवाभिगने एतादृशस्व पाठस्वादर्शनात्, आजिनक-पर्ममर्थ व सो- सामान्यतः | कार्पासिकं अतसीमयमित्यन्ये, तनुः शरीरं सुखस्पर्शतया छाति - अनुगृह्णातीति तनु-तनुसुतादिकम्पकः प्रतीतः तणुअकम्बलः इति पाठे तु तन्तुकः सूक्ष्मौर्णाकम्बलः दुकूलं- गौडविक्यविशिष्टं कार्पासिकं अथवा दुकुलो वृक्षविशेपस्तस्य वस्कं गृहीत्वा उदूषले जलेन सह कुट्टवित्वा बुसीकृत्य च व्यूयते यत्तद् दुकूलं कौशेयं-सरितनिष्प कालःकालमृगचर्म्म अंशुकचीनांशुकानि नानादेशेषु प्रसिद्धानि दुकूलविशेषरूपाणि, पूर्वोकस्यैव वस्कस्य बाम्बम्बम्तरहीरिभिर्निष्पाद्यन्ते सूक्ष्मान्तराणि भवन्ति तानि चीनांशुकानि वा पानि - पट्टसूत्रनिष्पन्नानि आभरणैचित्राणि विचित्राणि आभरणविचित्राणि लक्ष्णानि - सूक्ष्मवन्तुनिष्पज्ञानि कल्याणकानि - परमवखलक्षणोपेतानि भृङ्गः--कीटवि नीलं तथा कज्जलवर्णं बहुवर्ण-विचित्रवर्णं रक्तं पीतं शुद्धं संस्कृतं परिकर्मित वस्मृगलोम हेम च तामकं बनकरसच्छुरितत्वादिधर्मयोगात् रल्लकः कम्बलविशेषो जीणादिः पश्चात् इन्द्रः, एते च कथंभूता इत्याह-अप-मदेशः उत्तर:--उत्तरदेश: सिन्धुः-- देशविशेषः उसभत्ति-सम्प्रदायगम्यं द्रविडवंगकलिङ्गा देशविशेषाः एतेषां सम्म सद्देशोत्पत्वेन ये ते तथा नलिनतन्तवः- सूक्ष्मतन्तवस्तन्मय्यो या भक्तयो विच्छित्तयो विशिष्टरचनाखामि पिया
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२वक्षस्कारे कल्पवृक्षाघि०सू. २०
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(१८)
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
इत्यादिका वस्त्रविधयो बहुप्रकारा भवेयुर्वरपचनं तसत्प्रसिद्धं पत्तनं तस्मादुद्गता विनिर्गता विविधैर्वणः विविधै | रागैर्मञ्जिडारागादिभिः कलितास्तथैव तेऽननका अपि दुमगणा अनेक बहुविधविविधविवत्सापरिणतेन वस्त्रविधिनोफ्ता इत्यादि, अत्र चाधिकारे जीवाभिगमसूत्रादर्शे कचित् २ किञ्चिदधिकपदमपि दृश्यते तत्तु वृत्तावव्याख्यातं स्वयं पर्यालोच्यमानमपि च नार्थप्रदमिति न लिखितं, तेन वत् सम्प्रदायादवगन्तव्यं, तमन्तरेण सम्यक् पाठशुद्धेरपि कर्तुमशक्यस्वादिति । उक्तं सुषमसुषमायां कल्पद्रुमस्वरूपं, अथ तत्कालभाविमनुजस्वरूपं पृच्छशाह
I
तीसे णं भंते! समाए भरहे वाले मनुजाणं केरिसए जायारभाव पडोयारे पण्णसे, गो० ! के के मा सुपारा जश्व लक्णवंजणगुणोववेभा सुजापसुविधा ससंगयेना पासादीआ जाय पडिहवा । सीले मेचे! समय नमरे नाम
के
आधारापोरे पष्णचे !, गो० ! तामो णं मणुभो सुजावामसुंदरी पायमहिलाहिं गुणाः वायमाणमा सुकुमाखकुम्मसंठिअविसिठ्ठचलणा उम्मअपीवरसुसाहबंगुलीओ अम्मुण्णयमितमणिक्का दोर बट्टसडुसंठिअग्रजहृष्णपसत्थलक्खणण कोप्पपजुमलाओ सुणिन्जिअसुगूढजन्मसमयीची नपली संमाइकसंतियनिक सुकुमालमडअमंसलअविरलसमसंहि अजायब कृषीवरणिरंतरोरू अद्वावपचीयपसंठिया सत्यविणिपिलसोणी वचनापानमाणदुगुणि विसालमंस मुबराजहणवरधारिणीओ बज विराइमपसत्थलक्खणनिरोदति नितिगुणमक्षिमाणो उच्चस मसहिअज चतणुक सिणणिद्धआइबलहसुजायसुविभक्तर्कतसोमंतरुलर मणिरोमराई मंत्रावरून वाहिणावत्ततरंगभंगुर रविकिरणतर
अत्र सुषमसुषमकालवर्ती मनुष्यस्य स्वरुपम् कथ्यते
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आगम
(१८)
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सूत्रांक
[२१]
दीप
अनुक्रम
[२४]
"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्विचन्द्री - या वृचिः
॥१०८॥
णचोहिअआको सायं तपडमगंभीरविजढणाभा अणुम्भडपसत्यपीणकुच्छीओ सण्णयपासाओ संगयपासाओ सुजायपासाओ मिममाइअपीणर अपासाओ अकरंडुअकणगरु अगणिम्मल सुजायणिरुवयगायउट्टीओ कंपणकलसप्पमाण सम सहि अलद्वबुआ मेळगजमलजुअलवट्टिअअब्मुष्णयपीणरइअयपीवरपओहाओ भुअंगअणुपुव तणुभगोपुच्छवट्टसं हिजणमिमआइ जलजिवादा तंगदाओ मंसलग्गहत्थाओ पीवर कोमलवरंगुलीआओ णिद्धपाणिरेहा रविससिसंखचकसोत्थियसुविभत्तसुविरङ्गपाणिलेहाओ पीगुण्णयकर कक्खवस्थिएसा परिपुण्णगलकपोला चडरंगुलमुप्पमाणकंबुवरसरिसगीवाओ मंसलसंठिपसत्थद्दणुगाओ दाडिमपुप्फप्पगासपीवरपलंबकुंचिअवराधराओ सुंदरुत्तरोद्वाज दहिदगरयचंदकुंदवासं तिमण्डलधवलअच्छिदविमलदखणाओ रतुप्पलपत्तमउ सुकुमालताडुजीहाओ कणवीरमउलकुडिलअब्भुग्गयउज्जुतुंगणासाओ सारयणव कमलकुमुमकुवलयविमलदलनिअरसरिस लक्खणपसत्यअजिम्हकंतणया पत्तलधवलायत आतंवलोभणाओ आणामिअचावरुइटकिण्ट्ब्भराइसंगयसुजायभुमगाओ अक्षीणपमाणजुत्तस्रवणा सुसवणाओ पीणमगंढलेहाओ चउरंसपसत्यसमणिडालाजी कोमुईरयणिअरविमलपडिपुण्णसोमवयणा छत्तुण्णयउचमंगाल अकविसिद्धिसुगंधदीसिरयाओ छत्त १ झय २ जून ३ थूभ ४ दामणि ५ कमंडलु ६ कलस ७ वावि ८ सोत्थिभ ९ पडाग १० जब ११ मच्छ १२ कुम्म १३ रहवर १४ मगरज्झय १५ अंक १६ थाल १७ अंकुस १८ अट्ठावय १९ सुपइयुग २० मयूर २१ सिरिअमिसेज २२ तोरण २३ मेइणि २४ उहि २५ वरभवण २६ गिरि २७ वरआयंस २८ सलीलगय २९ उसम ३० सीह ३१ चाभर ३२ उत्तमपसत्यबत्तीस लक्खणधरीओ हंससरिसईओ कोइलमडुरगिरसुरसराओ कंता सङ्घस्स अणुमयाओ ववंगयवलिपलिभवंगदुइण्णवाहिदोहासोगमुक्का उबत्तेण य पराण थोवूणमुस्सिआओ सभावसिंगारचारवेसा संगयगयहसिय
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२ वक्षस्कारे कल्पवृक्षा
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------ मूलं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
बन्द
प्रत सूत्रांक [२१]
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भणिचिट्विअविलाससंलावणिउणजुत्तोक्यारकुसला सुंदरथणजहणवयणकरचलणणयणलावण्णरूवजोषणविलासकलिआ गंदणवणविवरचारिणीउच्च अच्छराओ भरहवासमाणुसच्छराओ अच्छेरगपेच्छणिज्जाओ पासाईआओ जाव पडिरूवाओ, ते णं मणुआ ओहस्सरा हंसस्सरा कोंचस्सरा विस्सरा गंदिघोसा सीहस्सरा सीहघोसा सुसरा सूसरणिग्घोसा छायायवोजोविअंगमंगा वज्जरिसहनारायसंधयणा समचारसंठाणसंठिआ छविणिरातका अणुलोमवावेगा फैकमगणी कवोयपरिणामा सउणिपोसपिटुतरोरुपरिणया छडणुसहस्समूसिआ, तेसि णं मणुआणं वे छप्पण्णा पिट्ठफरंडकसया पण्णत्ता समणाउसो!, पउमुष्पलगन्धसरिसणीसाससुरभिवयणा, सेण मणुआ पगईउवसंता पगईंपवणुकोहमाणमायालोमा मिजमहवसंपन्ना अलीणा भरगा विणीमा अप्पिच्छा असणिहिसंचया वितिमंतरपरिवसणा जहिच्छिअकामकामिणो (सूत्र २१)
'तीसे गं भंते।' इत्यादि, तस्यां समायां भदन्त ! भरतवर्षे मनुजानां प्रक्रमादू युग्मिनां कीदशक आकारभावप्रत्य-18 |वतारः प्रज्ञप्तः, भगवानाह-गीतम! ते मनुजाः सुप्रतिष्ठिता:-सत्प्रतिष्ठानवन्तः सनातनिवेशा इत्यर्थः, कूर्मवत्कच्छपवदुलतत्वेन चारवश्चरणा येषां ते तथा, ननु 'मानवा मौलितो वर्ष्या, देवाश्चरणतः पुन'रिति कविसमयान्मनु-१९
जजन्मिनां युग्मिनां पादादारभ्य वर्णनं कथं युक्तिमदिति, उच्यते, वरेण्यपुण्यप्रकृतिकत्वेन ते देवत्वेनेवाभिमता इति || कान काचिदनुपपत्तिरिति, अत्र यावच्छन्दसङ्कायं मुद्धसिरया इत्यन्त, जीवाभिगमादिप्रसिद्धं सूत्रं चैतत् 'रतुप्पलपत्त
मतअसुकुमालकोमलतला णगणगरमगरसागरचर्ककहरेकलक्खणंकिअचलणा अणुपुषसुसाहयंगुलीया उण्णयतणुतंव
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भीजम्बू.१९
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥१०९ ॥
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णिक्खा संटिअसुसिलिट्ठगूढगुल्फा एणीकुरुविंदावत्तवट्टाणुपुवजंघा समुग्गनिमग्गगूढजाणू गयससणसुजायसण्णि| मोरू वरवारणमत्ततुलविक्रमविलासिअगई पमुइअवरतुरगसीहवरवट्टिअकडी वरतुरगसुजायगुज्झदेसा आहष्णहउद निरुवलेवा साहयसोणंदमुसलदप्पणणिगरि अवरकणगच्छरुसरिसवरवइवलिअमज्झा [शसविहगसुजाघपीणकुच्छी] झसोअरा सुकरणा गंगावतपयाहिणावत्ततरंगभंगुररविकिरणतरुणवोहिअआको सायं परमगंभीरविअडणाभा उज्जुमसमसंहिअजश्चतणुक सिणणिद्ध आदेजलडहसूमालमउअरमणिज्जरोमराई संणथपासा संगबपासा सुंदरपासा सुजीयपासा मिअमाइअपीणरइअपासा अकरंडुअकणगर अगणिम्मलसुजायणिरुवहयदेहधारी पसत्यबत्तीस लक्खणधरा कणगसिलाय - लुजलपसत्थसमतल उबइ अविच्छिण्णपिहुलवच्छा सिरिवच्छंकिअवच्छा जुअसण्णिभपीणरह अपीवर पडसंठिअमुसिलिट्ठविसिद्वषणथिरसुबद्धसंधिपुरवरवरफलिहबहिअभुजा भुजगीसर विउलभोगआयाणफलिहतच्छूट दीइवाहू रत्ततलोषइ अमउअमंसलमुजायपसत्थलक्खणअच्छिद्दजालपाणी पीवरकोमलवरंगुलीआ आयंबतलिणसुरुइलणिद्धणक्खा चंदपाणिलेहा | सूरपाणिलेहा संखपाणिलेहा चक्कपाणिलेहा दिसासोबत्थियपाणिलेहा चंदसूरसंखचक्कदिसासोबत्थि अपाणिलेहा अमेगव| रलक्खणुत्तमपसत्थसुइरद्द अपाणिलेहा वरमहिसवराहसी हसउसइणगवरपडिपुण्णविपुलबंधा चउरंगुल्सुप्पमाणकंतुवरसरिसगीवा मंसलसंठिअपसत्सहूलविपुलहणुआ अवट्ठिअमुविभत्तचित्तमंसू ओअवि असिलप्पवालबिंबफलसब्णिभाधरोट्ठा पंडुरससिसगल विमलणिम्मलसखगोखीरफेणकुंददगरयमुणालिआचवलदंतखेडी अखंडता अफुडिभयंता
|
Fur Ele&ae Cy
~ 230~
৯১৩,১৩ 9752
२वक्षस्कारे युम्मिस्वरूपं सू. २१
॥१०९॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------ मूलं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
INH सुजायदंता अविरलदंता एगदंतसेढीष अणेगदंता हुअवहणिद्धतधोअतत्ततवणिजरततलतालुजीहा गहलावतपणा
गणासा अवदालिमपोंडरीकणयणा कोआसियषवलपत्सलच्छा आणामिअचावरुइलकिण्हम्भराइसंठिअसंगयआययसुजायतणुकसिणणिभुमा अल्लीपमाणजुत्तसवणां सुस्सवणा पीणमंसलकयोलदेसभागा णिवणसमलद्वमहदसमणिलाडा उडवाइपडिपुण्णसोमवयणा घणणिचिअसुबडलक्खणुण्णयकूडागारणिभपिडिअग्गसिरा छत्तागारुत्तमंगदेसा दाखिमपुण्फपगासतवणिज्जसरिसणिम्मलसुजायकेसंतभूमी सामलिबोंडघणणिचिअच्छोरिअमिलविसवपसत्पसुहमलक्षणसुगंबसेदरभुजमोअगभिंगणीलकज्जलपहहभमरगणणिणिकुर्रवणिचिअपयाहिणावत्तमुद्धसिरया' इति, अत्र व्याख्या-र-II लोहितमुत्पलपत्रवन्मृदुक-माईवगुणोपेतमकर्कशमित्यर्थः तचासुकुमारमपि सम्भवति यथा अमूहपापाणप्रतिमा तत|
आह-सुकुमालेभ्योऽपि-शिरीषकुसुमादिभ्योऽपि कोमलं-सुकुमालं तल-पादतलं येषां ते तथा, भगो-गिरिः नगरमक-18 | रसागरचक्राणि स्पष्टानि अङ्गधर:-चन्द्रः अङ्कम-तदैव लाञ्छनं यल्लोके मृगादिव्यपदेशं लभते, एवंरूपैर्लक्षणैरुतवस्त्याकारपरिणतामी रेखाभिरविताश्चलना येषां ते तथा, पूर्षस्या अनु लघव इति गम्यते अनुपूर्वाः, किमुकं भवति :पर्वस्याः पर्वस्याः उत्तरोत्तरा नख नखेन हीनाः 'णहं णहेण हीणाओ' इति सामुद्रिकशाखवचनात्, अथवा आनुपू-18
घेण-परिपाव्या वर्द्धमाना हीयमाना वा इति गम्यते, सुसंहता-अविरला अडल्य:-पादानावयवा येषां ते तया, अत्रा॥ नुपूर्वेणेति विशेषणग्रहणात् पादाङ्गुलीग्रहणं, तासामेव नखं नखेन हीनत्वात् , उन्नता-मध्ये तुशास्तनवः-प्रतलास्ता
दररररररररorseseenesents
अनुक्रम
[३४]
SHElm
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------ मूलं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीजम्बू- बा-काः स्निग्धा:-स्निग्धकान्तिमन्तो नखाः पादगता इति सामर्थ्यलभ्यं तद्वर्णनाधिकारात् येषां ते तथा, णक्खे-18वक्षस्कारे द्वीपशा- त्यत्र द्वित्वं सेवादित्वात् , संस्थितौ-सम्यक् स्वप्रमाणतया स्थिती सुश्लिष्टौ-सुघनौ सुस्थिरावित्यर्थः गूढी-गुप्तौ मांसल-18 युग्मिस्वरून्तिचन्द्री
18|| त्वादनुपलक्ष्यो गुल्फी-धुटिकी येषां ते तथा, एणी-हरिणी तस्या इह जला ग्राह्या, कुरुविन्दः-तृणविशेषः वर्त च-1|| या वृत्तिः
सूचलनकं एतानीव वृत्ते-बाले आनुपूर्येण-क्रमेण ऊर्ध्व स्थूले स्थूलतरे इति शेषः जो येषां ते तथा, औपपाति-18 ॥११०॥ कवृत्तौ तु अन्ये त्वाहुः एण्य:-नायवः कुरुविन्दः-कुटिलकाभिधानो रोगविशेषस्ताभिस्त्यके इत्यपि व्याख्यातमस्ति,
रावृत्तेत्यादि तथैव, समुद्रः-समुन्नकाख्यभाजनविशेषस्तस्य तत्पिधानस्य च सन्धिस्तद्वनिमझे गूढे-मांसलत्वादनुपलक्ष्ये
जानुनी येषां ते तथा, कचित्समुग्ग [णिमग्ग] गूढजाणू इति पाठस्तत्र समुद्कस्येव-पक्षिविशेषस्येव निसर्गतो गूढे-स्वभा-1 Mवतो मांसलत्यादनुनते न तु शोफादिविकारतः शेषं तथैव, गजस्य-हस्तिनः श्वसन:-शुण्डादण्डः सुजातः-सुनिष्प-1 Mमस्तस्य सन्निभा ऊरुर्येषां ते तथा, सुजातशब्दस्य विशेषणस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् , मत्तो वरा-प्रधानो भद्रजातीय-14
त्वाद्वारणो-हस्ती तस्य विक्रमः-चंक्रमणं तद्वद्विलासिता-विलासः सञ्जातोऽस्या इति तारकादित्वादितप्रत्ययः विलास-IN वती गति:-गमनं येषां ते तथा, अत्रापि मत्तशब्दस्य विशेष्यात् परनिपातः प्राकृतत्वात् , प्रमुदितो रोगाधभावेनाति- ॥१०॥ शपुष्टो यौवनप्राप्त इति गम्यते एवंविधो यो वरतुरगः सिंहवरश्च तद्ववर्तिता-वृत्ता कटीयेषां ते तथा, वरतुरगस्येव || "सुजातः सुगुप्तत्वेन सुनिष्पनो गुह्यादेशो येषां ते तथा, आकीर्णहय इव-जात्याश्व इव निरुपलेपा:-निरुपलेपशरीराः,
अनुक्रम [३४]
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२१]
दीप
अनुक्रम
[३४]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
Ekensiti
जात्याश्वो हि मूत्राद्यनुपलिप्तगात्रो भवतीति, संहृतसौनन्दं नाम ऊर्ध्वकृतमुलूखलाकृतिकाष्ठं तच्च मध्ये तनु उभयोः पार्श्वयोर्बृहत् अथवा संहृतं सङ्घियमध्यं सौनन्दं रामायुधं मुसलविशेष एव मुसळं सामान्यतः दर्पणशब्देने| हावयवे समुदायोपचाराद्दर्पणगण्डो गृह्यते तथा निगरितं सारीकृतं वरकनकं तस्य त्सरुः-खड्गादिमुष्टिस्तैः सदृशं तेषामिवेत्यर्थः, तथा वरवज्रस्येव - सौधर्मेन्द्रायुधस्येव क्षामो वलितो वलयः संजाता अस्येति वहितो-वलित्रयोपेतो मध्योमध्यभागो येषां ते तथा झषस्येव अनन्तरोक्तस्येवोदरं येषां ते तथा, शुचीनि पवित्राणि निरुपलेपानीति भावः, करणानि - चक्षुरादीनीन्द्रियाणि येषां ते तथा, अत्र च 'पम्हविअडणाभा' इति पदं क्वचिद्वाचनान्तरे प्रसिद्धमपि उत्तरपदेन मा पुनरुक्ताभासो भूयादिति न व्याख्यातं, गङ्गाया आवर्त्तकः पयसां भ्रमः स इव प्रदक्षिणावर्त्ता न तु वामावर्त्ता | तरङ्गा इव तरङ्गाः तिस्रो वलयस्ताभिर्भरा भुना रविकिरणैः तरुणैः- अभिनवैर्बोधितं - उन्निद्रीकृतं सत् आकोशायमानं विकचीभवदित्यर्थः पद्मं तद्वद् गम्भीरा विकटा - विशाला नाभिर्येषां ते तथा, विशेषणस्य परनिपातः प्राग्वत्, अस्माच्च निर्देशादनान्यपि समासान्तः, ऋजुका-अवक्रा समा न कापि दन्तुरा संहिता सन्ततिरूपेण स्थिता न त्वपान्तरालव्यवच्छिन्ना सुजाता-सुजन्मा न तु कालादिवैगुण्यतो दुर्जन्मा, अत एव जात्या-प्रधाना तन्वी न तु स्थूरा कृष्णा न तु मर्कटचर्णा स्निग्धा चिकणा आदेया- दर्शनपथमुपगता सती पुनः पुनराकांक्षणीया, उक्तमेव विशेषण| द्वारेण समर्थयते - लडहा- सलवणिमा अत आदेया सुकुमारमद्वी अतिकोमला रमणीया - रम्या रोमराजिर्येषां ते तथा,
Fur Fate &P Cy
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२१]
दीप
अनुक्रम
[३४]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्मूद्वीपशान्तिचन्द्री
या चि
॥१११॥
JinitesiY
| सम्यक् अधोऽधः क्रमेण नते पार्श्वे येषां ते तथा, सङ्गते- देहप्रमाणोचिते पार्श्वे येषां ते तथा, अत एव सुन्दरपार्श्वाः सुजातपार्श्व इति पदद्वयं व्यक्तं, तथा मिते-परिमिते मात्रिके - मात्रोपेते एकार्थपदद्वययोगादतीव मात्रान्विते नोचित| प्रमाणान्यूनाधिके पीने उपचिते रतिदे पार्श्वे येषां ते तथा, अविद्यमानं -मांसलत्वेनानुपलक्ष्यमाणं करण्डकं-पृष्ठवंशा| स्थिकं यस्य देहस्य सोऽकरण्डुकः, अत्राल्पत्वेनाभावविवक्षणादेवं निर्देशः, अनुदरा कन्येत्यादिवत्, अथवा अकरण्डुकमिवेति व्याख्येय, कनकस्येव रुचको रुचिर्यस्य स (तथा) निर्मल:- स्वाभाविकागन्तुकमलरहितः सुजातो- बीजाधाना| दारभ्य जन्मदोषरहितः निरुपद्रवो-ज्वरादिदंशाद्युपद्रवरहितः एवंविधो यो देहस्तं धारयन्तीत्येवंशीलाः, तथा कनक| शिलातलबदुज्वलं प्रशस्तं समतलं -अविषमं उपचितं- मांसलं विस्तीर्णमूर्ध्वाघोऽपेक्षया पृथुढं दक्षिणोत्तरतो वक्षः - उरो येषां ते तथा, श्रीवच्छो- लाञ्छनंविशेषस्तेनाङ्कितं वक्षो येषां ते तथा, युगसन्निभौ - वृत्तत्वेनायतत्वेन च यूपतुल्यौ पीनौ - मांसलो रतिदौ- पश्यतां सुभगौ पीवरप्रकोष्ठकौ-अकृशकलाचिकौ, तथा संस्थिताः - संस्थानविशेषवन्तः सुमिष्टा:| सुघनाः विशिष्टाः-प्रधानाः घना - निविडाः स्थिरा - नातिश्लथाः सुबद्धाः स्नायुभिः सुष्ठु बद्धाः सन्धयः- अस्थिसन्धानानि ययोस्ती तथा पुरवरपरिघवत् महानगरार्गलावद्वर्त्तिती-वृत्तौ भुजो येषां ते तथा, ततः पदद्वयद्वयमीनेन | कर्मधारयः, पुनर्वाहुमेवायामतो विशिनष्टि-भुजगेश्वरो - भुजगराजस्तस्य विपुलो यो भोगः- शरीरं तथा आदीयतेद्वारस्थगनार्थं गृह्यत इत्यादानः स चासी परिघः- अर्गला 'उच्छूट'त्ति स्वस्थानादवक्षितो निष्काशितो द्वारपृष्ठभागे
Fur Fraternal O
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२वक्षस्कारे युग्मिस्वरूपं सू. २१
॥ १११ ॥
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२१]
दीप
अनुक्रम [३४]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
दत्त इत्यर्थः, विशेषणव्यस्तता घार्षत्वात् ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः, तद्वद्दीर्घौ बाहू येषा ते तथा, न चात्रानन्तरीकविशेषणेन पौनरुक्त्यमाशङ्कनीयं, अत्रायामतादर्शनाय प्रस्तुतविशेषणस्य विशिष्य दर्शनात्, रकतलौ-अरुणावधीभागौ उपचितौ - उन्नती औपयिकौ वा उचितो अवपतितौ वा क्रमेण हीयमानोपचयी मृदुको मांसलौ सुजाताविति पदत्रयं प्राग्वत्, प्रशस्तलक्षणी अच्छिद्रजाली - अविरलालिसमुदाय पाणी- हस्ती येषां ते तथा, पीवरकोमलवरंगुलीआ इति व्यक्तं, आताखा- ईषद्रकास्तलीनाः प्रतलाः शुचयः - पवित्रा रुचिरा- मनोशाः स्निग्धा - अरूक्षा नखा येषां तथा, नखशब्दे द्विर्भावस्तु प्राग्वत्, चन्द्र इव चन्द्राकारा पाणिरेखा येषां ते तथा, एवमन्यान्यपि त्रीणि पदानि 'दिसासोवत्थि 'ति दिक्सीवस्तिको दिक्प्रोक्षकः दिक्प्रधानः स्वस्तिको दक्षिणावर्त्तः स्वस्तिक इस्वन्ये स पाणी रेखा येषां ते तथा, एतदेवानन्तरोक्त विशेषणपश्ञ्चकं तत्प्रशस्तताप्रकर्षप्रतिपादनाय संग्रहवचनेनाह- 'बंदसूरे 'ति गतार्थ, ननु इयन्त्येव लक्षणानि तेषां शरीरस्थानीत्याह- अनेकैः प्रभूतैर्वरैः - प्रधानैर्लक्षणैरुत्तमाः - प्रशंसास्पदीभूताः शुचय:पवित्राः रचिता:- स्वकर्मणा निष्पादिताः पाणिरेखा येषां ते तथा, धरमहिषः- प्रधानसैरिभः वराहो - वनसूकरः सिंहः- | केसरी शार्दूलो-व्यामः ऋषभो - गौः नागवरः - प्रधानगजः एषामिव प्रतिपूर्ण :- स्वप्रमाणेनाहीनो विपुलो- विस्तीर्णः स्कन्धः - अंसदेशो येषां ते तथा, चतुरङ्गुलं- स्वाङ्गापेक्षया चतुरङ्गुलप्रमितं सुहु-शोभनं प्रमाणं यस्याः सा तथा, कम्बुवरसदृशी-उन्नततया वलित्रययोगेन च प्रधानशङ्गसन्निभा ग्रीवा येषां ते तथा, विवेकविलासे तु प्रतिमाचा एकादशा
Furwale rely
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ----------------------
------ मूलं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
2ce
प्रत
सूत्राक [२१]
श्रीजम्बू-18|जस्थानसख्यायां 'चतुःपश्च चतुर्वह्नि' इति श्लोके ग्रीवायाख्यङ्गुलं मानमिति, मांसल-पुष्टं तथा संस्थितं-संस्थानं तेन 18 वक्षस्कार द्वीपशा-18 प्रशस्त-सङ्कचितं कमलाकारत्वात् शार्दूलस्येव-व्याघ्रस्येव विपुलं-विस्तीर्ण हनुकं येषां ते तथा, अवस्थितानि-अवर्षि-18 न्तिचन्द्रीष्णूनि सुविभक्कानि-परस्परं शोभमानविभागानि न तु पुनरुजाताभीरस्येव ब्यादानमात्रलक्ष्यवदनविवरस्य कूर्चके-10
मू.२१ या इतिः
| शपुञ्जा इव पुञ्जीभूतानि चित्राणि-अतिरम्यतयाऽद्भुतानि मणि-कूर्चकेशा येषां ते तथा, श्मश्रूणामभावे पण्डभा॥११२॥ वप्रतिपत्तिः हीयमानत्वे चैन्द्रलुप्तिकत्ववार्द्धकप्रतिपत्तिः वर्द्धमानत्वे च संस्कारकजनाभावाद्गहनभूतानि तानि स्पुरि
त्यवस्थितत्वं, 'उअविअ'त्ति परिकर्मितं यच्छिलारूपं प्रवालं आयतविद्रुमखण्डमित्यर्थः, न तु मणिकादिरूपं, तस्यैतद्पमानानुपपत्तेः बिम्बफलं-पक्कगोल्हाफलं तयोः सन्निभो रकतयोन्नतमध्यतया अधरोष्ठः-अधस्तनो दन्तच्छदो येषांक ते तथा, पाण्डुरं यच्छशिशकलं-चन्द्रमण्डलखण्डं अकलङ्कश्चन्द्रमण्डलभाग इत्यर्थः विमलाना मध्ये निर्मलश्च यः शो | गोक्षीरफेनश्च प्रतीतः कुन्दं च-कुन्दकुसुमं दकरजश्च-वाताहतजलकणः मृणालिका च-पद्मिनीमूलं तद्वद्धवला दन्तश्रेणी-दशनपतिर्येषां ते तथा, अखण्डदन्ताः-परिपूर्णदशनाः अस्फुटितदन्ताः-अजर्जरदन्ताः अत एव । सुजातदन्ताः-जन्मदोषरहितदन्ता अविरलदन्ता-निरन्तरालदन्ताः, एकाकारा दन्तश्रेणियेषां ते तथा त इव परस्प- ॥११॥ रानुपलक्ष्यमाणदन्तविभागत्वात्. अनेके-द्वात्रिंशद्दन्ता येषां ते तथा, एवं नाम तेऽविरलदन्ता यथाऽनेकदन्ता अपि | सन्तः एकाकारपङ्कय इव लक्ष्यन्ते इति भावः, हुतवहेन-अग्निना निर्मात-निर्दग्धं सत् धौत-शोधितमलं तप्ठ-18
seeeeeeeeeeee.
अनुक्रम [३४]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------ मूलं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२१]
IS सतापं तपनीयं-पुवर्णविशेषस्तद्वद्रततलं-लोहितरूपं तालु च-काकुदं जिला च-रसना येषा ते तथा, गरुडस्पेव-पक्षि-18
राजस्येवायता-दीर्घा ऋग्वी-सरला तुङ्गा-उन्नता न तु मुद्गलजातीयवेव चिपिटा नासा-नासिका येषां ते तथा, अव
दालितरविकरैर्विकासितं यत्पुण्डरीक-वेतं पद्म तद्वन्नयने येषां ते तथा, 'कोसाइ'त्ति विकासे: कोआसविसट्टा' (श्रीसि० ॥३९५) वित्यनेन कोआसिते-विकसिते धवले च कचिद्देशे पत्रले-पक्ष्मवती अक्षिणी-नेत्रे येषां ते तथा, आनामित-ईष
नामितमारोपितमिति भावः यश्चापं-धनुस्तद्वगुचिरे-संस्थानविशेषभावतो रमणीये कृष्णाभ्रराजीव संस्थिते सङ्गते-यथो-131 कप्रमाणोपपने आयते-दीचे सुजाते-सुनिष्पन्ने तनू-तनुके श्लक्ष्णपरिमितवालपंक्त्यात्मकत्वात् कृष्णे-कालिमोपेते स्निग्धच्छाये ध्रुवी येषां ते तथा, आलीनौ-मस्तकभित्ती किश्चिलनी न तु टप्परौ प्रमाणयुक्ती-स्वप्रमाणोपेती श्रवणौ-कौं येषां ते तथा अत एव सुश्रवणा इति स्पष्ट, अथवा सुषु श्रवर्ण-शब्दोपलम्भो येषां ते तथा, पीनी-पुष्टी यतो मांस-1 |ली-उपचिती कपोललक्षणौ देशभागी-मुखावयवी येषां ते तथा, निर्बण-विस्फोटकादिक्षतरहितं सम-अविषमं लष्ट-16 18| मनोमै मृष्ट-भसूर्ण चन्द्रार्द्धसम-अष्टमीचन्द्रसदृश ललाट येषां ते तथा, सूत्रे निलाडेति प्राकृतलक्षणवशात् , प्रति-18
पूर्ण:-पौर्णमासीय उडुपतिः-चन्द्रः स इव सोम-सश्रीकं वदनं येषां ते तथा, पदव्यत्यये प्राक्तन एव हेतु, पनवद्
अयोधनवनिचितं-निविडं सुबद्धं-सुष्टु स्नायुनद्धं लक्षणोन्नत-प्रशस्तलक्षणं कूटस्थ-गिरिशिखिरस्याकारेण निर्भ-सदृर्श 18|पिण्डिकेव-पाषाणपिण्डिकेव व लत्वेन पिण्डिकायमानमशिरः-उष्णीपलक्षणं येषां ते तथा, छत्राकार:-छत्रसदृश
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------ मूलं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्राक [२१]
श्रीजम्यू- सतमाङ्गरूपो देशो येषां ते तथा, दाडिमपुष्पस्य प्रकाशेन-अरुणिमा तया तपनीयेन च सदृशी निर्मला सुजाता केशा- वक्षस्कारे द्वीपक्षा-18से-वालसमीपे केशभूमिः-केशोत्पत्तिस्थामभूता मस्तकत्वर येषां ते सथा, समा शाल्मल्या-वृक्षविशेषख यत्नोई- युग्मिखरू
फलं तद्वद् धना-निचिता अतिशयेन निबिडाः, छोटिता अपि युग्मिनां परिज्ञानाभावेन केशपाशाकरणात् परं छोटिता ही या चिः
| अपि तथा स्वभावेन शाल्मलीबोडाकारवद्धना निचिता एवावतिष्ठन्ते सेनैतद्विशेषणोपादानं, तथा मृदया-अखराः ॥११३॥18| विशदा-निर्मलाः प्रशस्ता:-प्रशंसास्पदीभूताः सूक्ष्मा:-श्लक्ष्णाः लक्षणं विद्यते येषां ते लक्षणा:-लक्षणवन्तः अभ्रा-16
8| विवादप्रत्ययः सुगन्धा:-परमगन्धोपेताः अत एव सुन्दरास्तथा भुजमोचको-रसविशेषः भृशो-नीलकीट:, अस्व
ग्रहणं तु मीलकृष्णयोरेक्यात्, नीलो-मरकतमणिः कज्जल-प्रतीतं प्रहष्ट-पुष्टः अमरगणः, स चात्यन्तकालिमोपेत्तः स्यादिति, ते इव स्निग्धाः निकुरम्बभूताः सन्तो निचिता न तु विकीर्णाः सन्तः संकुचिताः ईपत्कुटिला-कुण्डलीभूताइत्यर्थः, प्रदक्षिणावर्त्ताश्च मूर्द्धनि शिरोजा-वाला येषां ते तथा, इत्येतत्पर्यन्तमतिदेशसूत्रं, अथ मूलसूत्रममुभियते-18 लक्षणानि-स्वस्तिकादीनि व्यञ्जनानि-मपीतिलकादीनि गुणा:-क्षान्त्यादयस्तैरुपपेताः, सुजातं पूर्ववत् , अविभक्तअङ्गप्रत्यङ्गानां यथोक्तवैविन्यसद्भावात् सङ्गतं-प्रमाणोपपन्नं, न तु पडङ्गुलिकादिवक्यूनाधिकम-देहो येषां ते ॥११॥ तथा, प्रासादीया इति पदचतुष्कं गतार्थमिति । अथ युगलधर्मे समानेऽपि मा भूत्पंक्तिमेव इति युग्मिरूपं पृच्छति'तीसे ण' मित्यादि, तस्यां भदन्त ! समायां भरते वर्षे मनुजीनां प्रस्तावाद् युग्मिनीनां कीदृश आकारभावप्रत्यवतार
अनुक्रम [३४]
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२१]
दीप
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[३४]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
प्रज्ञेधः १, 'गौतमे' स्यापि प्राग्वत्, ता मनुज्यः सुजातानि - यथोक्तप्रमाणोपपेतया शोभनजन्मानि सर्वाण्यङ्गानि - शिर:प्रभृतीनि यासां ताः, अत एव सुन्दर्यश्च -सुन्दराकाराः, अत्र पदद्वय २ स्य कर्मधारयः, तथा प्रधाना ये महिलागुणाःस्त्रीगुणाः प्रियंवदत्वस्वभर्तृचित्तानुवर्त्तकत्वप्रभृतयस्तैर्युकाः, अनेनानन्तरोकविशेषणद्वयेन सामान्यतो वर्णने कृतेऽपि तासां तद्भर्वणां च प्राचीनदान फलोद्भावनाय विशिष्य वर्णयति-अतिकान्ती-अतिरम्यौ तत एव विशिष्टस्वप्रमाणीस्वशरीरानुसारिप्रमाणी न न्यूनाधिकमात्रावित्यर्थः, अथवा विसर्पन्ताषपि सञ्चरन्तावपि मृदूनां मध्ये सुकुमाली कूर्मसंस्थिती-उन्नतत्वेन कच्छपसंस्थानी विशिष्टौ मनोज्ञी चलनी - पादौ यासां तास्तथा, ऋजवः- सरलाः मृदष:कीमलाः पीचरा:- अदृश्यमानस्त्राच्या दिसन्धिकत्वेनोपचिताः सुसंहताः सुश्लिष्टा निर्विचाला इत्यर्थः, अनुल्यः-पादालयो यासां तास्तया, अभ्युजता - उन्नता रतिदा:- सुखदा द्रष्टृणां अथवा मृगरमणादन्यत्राप्यनुषंगलोपवादिमताश्रयगाद्रञ्जिता इव लाक्षारसेन तलिना:- प्रतठाताबा- ईषद्रकाः शुचय:- पवित्राः स्निग्धा: - चिक्कणा नखा यासां तास्तथा, णक्खेत्यत्र द्विर्भावः प्राग्वत्, रोमरहितं निर्लोमकं वृत्तं वर्तुलं उष्टसंस्थित-मनोज्ञसंस्थानं, क्रमेणोद्धं स्थूरं स्थूरतरमिति भावः, अजघन्यानि - उत्कृष्टानि प्रशस्तानि लक्षणानि यत्र सत्तथा, एतादृशं अकोप्यं-अद्वेष्यमतिसुभगत्वेन जंघायुगलं यासां तास्तथा, सुष्ठु नितरां मित्ते - परिमाणोपेते सुगूढे- अनुपलक्ष्ये ये जानुमण्डले तयोः सुवद्धौ दृढस्नायु'कत्वाद् सन्धी-सन्धाने यासां तास्तथा, कदलीस्तम्भादतिरेकेण अतिशयेन संस्थितं संस्थानं ययोस्ते निर्माणे- विस्फो
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२१]
दीप
अनुक्रम
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृत्तिः
॥११४॥
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टकादिक्षतरहिते सुकुमारमृदुके - अत्यर्थकोमले मासले - मांसपूर्णे न तु काकजंघाद्दुर्बले अविरले - परस्परासने समे प्रमाणतस्तुल्ये सहिके - क्षमे सुजाते - सुनिष्पन्ने वृत्ते - वर्तुले पीवरे - सोपचये निरन्तरे- परस्परनिर्विशेषे ऊरू- सक्थिनी यासां तास्तथा, वीतिः- विगतेतिको घुणाद्यक्षत इति भावः एवंविधोऽष्टापदो- द्यूतफलकं, विशेषणव्यत्ययः प्राकृतस्वात्, तद्वत् प्रष्ठसंस्थिता-प्रधान संस्थाना प्रशस्ता विस्तीर्णपृथुला - अतिविपुला श्रोणिः - कटेरग्रभागो यासां तास्तथा, वदनायाम प्रमाणस्य मुखदीर्घत्वस्य च द्वादशाङ्गुलप्रमाणस्य तस्माद् द्विगुणं चतुर्विंशत्यङ्गलं विस्तीर्णं मांसलं - पुष्टं सुबद्ध-अश्लथं जघनवरं- प्रधानकटीपूर्वभागं धारयन्तीत्येवंशीलाः, अत्रापि विशेषणस्य परनिपातः प्राग्वत्, वज्रवद्विराजितं क्षामत्वेन तथा प्रशस्तलक्षणं सामुद्रिकप्रशस्तगुणोपेतं निरुदरं विकृतोदररहितं अथवा निरुदरं-अल्पत्वेनाभावविवक्षणात् तिस्रो वलयो यत्र तत्रिवलिकं तथा बलितं सञ्जातबलं न च क्षामत्वेन दुर्बलमाशङ्कनीयं, तनु-कुशं नतं ननं तनुनतमीषन्नमित्यर्थः, ईदृशं मध्यं यासां तास्तथा, स्वार्थे कप्रत्ययः, ऋजुकानां-अवक्राणां समानां - तुल्यानां न क्वापि दन्तुराणां संहितानां - संततानां न त्वपान्तराले व्यवच्छिन्नानां जात्यानां स्वभावजानां प्रधानानां वा तनूनांसूक्ष्माणां कृष्णानां कालानां न तु मर्कटवर्णानां स्निग्धानां सतेजस्कानां आदेवानां दृष्टिसुभगानां 'लडह 'ति ललितानां सुजातानां - सुनिष्पन्नानां सुविभक्तानां - सुविविक्तानां कान्तानां - कमनीयानां अत एव शोभमानानां रुचिररमणीयानां अतिमनोहराणां रोम्णां राजि:-आवलीर्यासां तास्तथा, गङ्गावत्तेतिपदं प्राग्वत्, अनुद्भटो-अनुवणी प्रशस्ती
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२ वक्षस्कारे डुग्मिस्वरू
पं सू. २१
॥११४॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------ मूलं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२१]
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पीनौ कुक्षी यासा तास्तथा, सन्नतपादिविशेषणानि प्राग्वत् , काञ्चनकलशयोरिव प्रमाण ययोस्ती तथा, समी-परस्परं । तुल्यौ नैको हीनो न एकोऽधिक इति भाव सहितौ-संहतो अनयोरन्तराले मृणालसूत्रमपिन प्रवेणं लभते इति भावः सुजाती-जन्मदोपरहिती लष्टचूचुकामेलको-मनोजस्तनमुखशेखरौ यमलौ-समभेणीको युगलौ-युगलरूपी वर्तिती-वृत्तौ | अभ्युनती-पत्युरभिमुखमुन्नती पीनां-पुष्टां रतिं पत्युत्त इति पीनरतिदी पीवरी-पुष्टी पयोधरी यासा तास्तथा, IM भुजङ्गत्वदानुपूर्येण-क्रमेणाधोऽधोभागे इत्यर्थः तनुको अत एवं गोपुच्छवद्वत्तौ समौ परस्परं तुल्यौ सैहिती-ममका-IN
यापेक्षयाऽविरली नती-नम्री स्कन्धदेशस्य नतत्वातू आदेयौ-अतिसुभगतयोपादेयी तलिनी-मनोज्ञवेशाकलिती बाई प्रयासां तास्तथा, तापनखा इति व्यक, मांसलावग्रहस्तौ-हस्ताग्रभागी यासा तास्तथा, पीवरेति प्राग्वत्, खिग्धपाण
रेखा इति व्यकं, रविशशिशचक्रवस्तिका पर सुविभकाः-मप्रकटाः सुविरचिता:-सुनिर्मिता पाणिरेखा बार पातास्तथा, पीना-उपचितावयवा उन्नता-अभ्युनता। कक्षावक्षोबस्तिप्रदेशा-भुजभूलहदवगुलामदेशा यासा वाक्या कापरिपूणो गलकपोला यासां तास्तथा, चउरालेति पूर्ववत् , मांसति व्यक्तं दाडिमपुष्पप्रकाशो रकइल पीवर:कास्पचितः, प्रलम्ब:-ओष्ठापेक्षया पिल्लम्बमानः कुञ्चिता-आकृञ्चितो मनाग वलित इत्यर्थः वर:-प्रधानोऽपर:-अधस्तनद-12
सनच्छदोयासां तास्तथा, सुन्दरोत्तरोष्ठा इति कण्वम्, दषि प्रसीत दगरज-उबककाम्या प्रतीतः कुर-कुन्दकुसुमं वास-11 कावीमुकुल-वनस्पतिविशेषकछिका तब धक्का जम्बूद्वीपप्रज्ञामिप्रश्वव्याकरणाचादर्शकरोऽपि धवलशब्दो जीवाभिमम-14
अनुक्रम [३४]
श्रीजम्बू. २०
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------ मूलं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [२१]
अप
श्रीजम्ब-18 वृत्तौ दर्शनाल्लिखितोऽस्ति अच्छिद्रा-अविरला विमला-निर्मला दशना-दन्ता यासां तास्तथा, रक्कोत्पलवद्रकं मृदुसु-18| वक्षस्कारे
द्वीपशा- कुमार-अतिकोमलं तालु जिह्वा च यासा तास्तथा, करवीरकलिकावत् नासापुटद्वयस्य यथोक्तप्रमाणतया संवृताकारतया रिमखरू न्तिचन्द्री- वाऽकुटिला-अवका सती अभ्युद्गता-धूद्वयमध्यतो विनिर्गता अत एव ऋग्वी-सरला सती तुङ्गा-उच्चा नतु गवादि-181
स. २१ या चिः
शृङ्गवद्वका सती तुझेत्यर्थः, एवंविधा नासा यासां तास्तथा, शरदि भवं शारदं नवं कमल-रवियोध्यं कुमुद-चन्द्र-18 ॥११५॥ बोध्यं कुवलयं-तदेव नीलं एषां यो दलनिकर:-पत्रसमूहस्तत्सदृशे लक्षणप्रशस्ते अजिझे-अमन्दे भद्रभावतया निर्वि
कारचपले इत्यर्थः, कान्ते नयने यास तास्तथा, एतेन तदीयदृशामनजितसुभगत्वमायतत्वं सहजचपलत्वं चाह, शस्त्रीणामङ्गे हि नयनसौभाग्यमेव परमशृङ्गाराङ्गमिति पुनस्तद्विशेषणेन ता विशिनष्टि-पत्रले-पक्ष्मवती न तु रोगविशे
पाद्गतरोमके कचिद्धवले कर्णान्तवर्तिनी कचित्तापलोचने यासां तास्तथा, 'आणामिति 'अलीण'विशेषणे प्राग्वत्, |पीना मांसलतया नतु कूपाकारा मृष्टा-शुद्धा न तु श्यामच्छायापना गण्डलेखा-कपोलपाली 'यासां तास्तथा, चतुषु अनेषु| कोणेषु दक्षिणोत्तरयोः प्रत्येकमूद्धोधोभागरूपेषु प्रशस्तमहीनाधिकलक्षणत्वात् समम्-अविषमं ललाटं यासां तास्तथा, कोमुदी-कार्तिकीपौर्णिमा तस्या रजनिकर:-चन्द्रस्तद्वद्विमलं प्रतिपूर्णम्-अहीनं सौम्य-अक्रूर न तु बककान्तानामिव भीषणं ॥११५।। वदनं यासां तास्तथा, छत्रोन्नतोत्तमाका इति प्रतीतं, अकपिला-श्यामाः मुस्निग्धा:-तैलाभावादभ्यङ्गनिरपेक्षतया निसर्ग-1 चिकणाः सुगन्धा दीर्घा न तु पुरुषकेशा इव निकुरम्बभूताः नापि धम्मिल्लाविपरिणाममापन्नाः संयमविज्ञानाभावात् शिरोजा
अनुक्रम [३४]
Receemaeseseaescaceae
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
-------- मूलं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२१]
ISH यासां तास्तथा, छत्रं १ ध्वजः २ यूपः-स्तम्भविशेषः ३ स्तूपः-पीठं ४ दामिणित्ति-रूढिगम्यं ५ कमण्डलु-तापसपानी-IN |||यपात्र कलशः ७ वापी ८ स्वस्तिकः ९ पताका १० यवो ११ मत्स्यः १२ कूर्मः १३ रथवरः १४ मकरध्वज:-काम| देवस्तत्संसूचकं सूचनीये सूचकोपचारालक्षणमिति, तच्च सर्वकालमविधवत्वादिसूचकं १५ अङ्क:-चन्द्रविम्बान्तर्वती श्यामावयवः, कचिदङ्कस्थाने शुक' इति दृश्यते १५ स्थालं १७ अनुशः १८ अष्टापदं-यूतफलक १९ सुप्रतिष्ठकंस्थापनकं २० मयूरः २१ श्रियोऽभिषेको-लक्ष्म्या अभिषेक: २२ तोरणं २३ मेदिनी २४ उदधिः २५ वरभवनं-प्रधानगृहं २६ गिरि २७बरादर्शो-वरदर्पणः २८ सलीलगजो-लीलावान् गजः २९ ऋषभो-गौः३०सिंहः ३१ चामर २२||
एतान्युत्तमानि-प्रधानानि प्रशस्तानि-सामुद्रिकशाखेषु प्रशंसास्पदीभूतानि द्वात्रिंशल्लक्षणानि धरन्ति यास्तास्तथा. हंसस्य । र सहशी गतिर्यासां तास्तथा कोकिलाया आवमञ्जरीसंस्कृतत्वेन पश्चमस्वरोद्वारमयी या मधुरा गीतद्वत् सु-शोभन:
स्वरो यासां तास्तथा, कान्ता:-कमनीयाः सर्वस्य तत्प्रत्यासन्नवर्तिनो लोकस्यानुमता:-सम्मता न कस्यापि मनागपि देच्या इति भावः, बलि:-शथिल्यसमुद्भवश्चर्मविकारः पलितं-पाण्डुरः कचः व्यपगतानि बलिपलितानि याभ्यस्तास्तथा, तथा विरुद्धमङ्गं व्यङ्ग-विकारयानवयवः दुर्वर्णो-दुष्टशरीरच्छविः व्याधिदौर्भाग्यशोकाः प्रतीताः तैर्मुक्काः, पश्चाद्विशेषण-18
द्वयकर्मधारयः, उच्चत्वेन च नराणां स्वभणां स्तोकोनं यथा स्यात्तथोच्छ्रिताः किश्चिन्यूनत्रिगव्यूतोच्छ्या इत्यर्थः, न 18 हि ऐदंयुगीनमनुष्यपत्य इव स्वभर्तुः समोच्चत्वा अधिकोच्चत्वा वा भवेयुः, किमुक्कं भवति ?-यथा हि सम्प्रति पुरुषस्य
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सूत्रांक
[२१]
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपक्षा न्तिचन्द्री -
या वृत्तिः
॥ ११६ ॥
कन्नोजवाया भार्याया योगों लोके उपहासपात्रं स्यात् न तथा तेषां मनुष्याणामिति, तथा स्वभावत एव शृङ्गाररूपबारुः- प्रधानी वेषो यासां तास्तथा, प्रायो निर्विकारमनस्कत्वेनादृष्टपूर्वकत्वेन च तासां सीमन्तोन्नयनाद्योपाधिकशृङ्गाराभावात् सङ्गतं उचितं गतं गमनं हंसीगमनवत् हसितं - हसनं कपोलविकाशि प्रेमसन्दर्शि च भणितं भणनं गम्भीरं | दर्पकोहीपि च चेष्टनं-सकाममङ्गप्रत्यङ्गोपाङ्गदर्शनादि विलासो-नेत्रचेष्टा संलापः- पत्या सह सकामं स्वहृदयप्रत्यर्पणक्षमं | परस्परं सम्भाषणं तत्र निपुणाः, तथा युक्ताः सङ्गता ये उपचारा-लोकव्यवहारास्तेषु कुशलाः, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, एवंविधविशेषणाच स्वपतिं प्रति द्रष्टव्या नतु परपुरुषं प्रति तथाविधकालस्वभावात् प्रतनुकामतया परपुरुषं प्रति तासामभिलाषासम्भवात् एवं च युग्मिपुरुषाणामपि परस्त्रीः प्रति नाभिलाष इति प्रतिपत्तव्यं, नन्वेवं सति प्रथमभगवतः सुनन्दापाणिग्रहणं कथमुचितं ? मृतेऽपि पुंसि तस्याः परसम्बन्धित्वाविरोधात् उच्यते, मा ब्रूहि निषिद्धविरुद्धाचरणस्स भगवतः श्रवणाश्रव्यमेनमपवादं, कन्यावस्थाया एव तस्या भगवता पाणिग्रहणकरणात् यत:- "पढमो कालम तहिं तालफलेण दारओ पहओ । कण्णा व कुलगरेणं सिडे गहिआ उसभपती ॥ १ ॥" [ प्रथमोऽकालमृत्युखथ तालफलेन दारकः महतः । शिष्टे च कन्या कुलकरेण गृहीता ऋषभपसी ( भविष्यतीति ) ॥ १ ॥ ] एवं तर्हि सहजातायाः सुमङ्गलायाः पाणिग्रहणं कथं १, सत्यं तदानीन्तनलोकाचीर्णत्वेन तदानीं तस्या अविरुद्धत्वादिति, पूर्वोकमेवार्थ सम्पियाह-'सुंदरे' त्यादि व्यक्तमेव, नवरं जघनं- पूर्वकटीभागः, लावण्यं-आकारस्य स्पृहणीयता विलासः
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वक्षस्कारे युग्मखरूपं. २१
॥ ११६ ॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ----------------------
------ मूलं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२१]
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बीणां पेष्टाविशेषः, आह च-"स्थानासनगमनाना हसनेत्रकर्मणां चैव । उत्पद्यते विशेषो यः श्लिष्टः स तु विलासः खात् ॥१॥" नन्दनवनं-मेरोद्वितीयवनं तस्य विवर-अवकाशो वृक्षरहितभूभागस्तत्र चारिण्य इवाप्सरसो-देव्यः भरतवर्षे मानुषरूपा अप्सरसः आश्चर्य-अद्भुतमिति प्रेक्षणीयाः प्रासादीया इत्यादि। सम्प्रति स्त्रीपुंससाधारण्येन तत्कालभाविमनुष्यस्वरूपं विवधुरिदमाह-'ते ण मणुआ' इत्यादि, ते सुषमसुषमाभाविनो मनुष्याः ओष:-प्रवाही स्वरो येषां 18 ते तथा, हंसस्येव मधुरः स्वरो येषां ते तथा, कौश्वस्येवाप्रयासविनिर्गतोऽपि दीर्घदेशव्यापी स्वरो येषां ते तथा, नन्दी-18 द्वादशविधतूर्यसमुदयस्तस्या इव शब्दान्तरतिरोधायी स्वरो येषां ते तथा, नन्या इव घोषः-अनुनादो येषां ते तथा, सिंहस्खेव बलिष्टः स्वरो येषां ते तथा, एवं सिंहघोषा उक्तविशेषणानां विशेषणद्वारा हेतुमाचष्टे-मुखराः सुस्वरनि||पाः, छायया-प्रभया योतितान्यज्ञानि-अवयवा यस्य तदेवंविधमज-शरीर येषां ते सथा, मकारोऽलाक्षणिक, | बजऋषभनाराचे नाम सर्वोत्कृष्टमा संहननं येषां ते तथा, समचतुरसं संस्थान-सर्वोत्कृष्ट आकृतिविशेषस्तेन संस्थिताः,
यां-वचि निरातङ्का:-नीरोगाः दद्धकुष्ठकिलासादित्वग्दोषरहितवपुष इत्यर्थः, अथवा छवित्ति छविमन्ता, छविच्छ|विमतोरभेदोपचारादू दीर्घत्वेन मतुब्लोपाद्धा, यथा मरीचिरित्यत्र मलयगिरीयावश्यकवृत्ती, उदात्तवर्णसुकुमारत्वचा युक्ता 1. इत्यर्थः, पशानिरातङ्कापदेन कर्मधारयः, अनुलोम:-अनुकूलो वायुवेग:-शरीरान्तर्वी वातजवो येषां ते तथा, कपोतस्य
श्व गुल्मरहितोदरमध्यप्रदेशाः, सति गुल्मे प्रतिकूलो वायुवेगो भवतीति भावः, कङ्कः-पक्षिविशेषस्तस्येव ग्रहणी-गुदाशयो।
अनुक्रम [३४]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ----------------------
------ मूलं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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श्रीजम्यू-18/ नीरोगवर्चस्कतया येषां ते तथा, कपोतस्येय-पक्षिविशेषस्येव परिणाम:-आहारपरिपाको येषां ते तथा, कपोतस्य विक्षस्कारे द्वीपशा
जाठराग्निः पाषाणलवानपि जरयतीति लौकिकश्रुतिः एवं तेषामप्यत्याहारग्रहणेऽपि न जातुषिदजीर्णदोषादयः, शकुन-18 प्रथमारक न्तिचन्द्री
| नरव०. या वृति: 18|रिव-पक्षिण इस पुरीपोत्सर्गे निर्लेपतया पोस:-अपानदेशो येषां ते तथा, 'पुस उत्सर्गे' पुरीपमुत्सृजन्स्यनेनेति व्युत्पन्चे,
२१ तथा पृष्ठ-दारीरपृष्ठभागः अन्तरे-पृष्ठोदरयोरन्तराले पार्षे इत्यर्थः ऊरू च-सक्थिनी इति दग्दः, एतानि परिणतानि-18 ॥११७॥ परिनिष्ठिततां गतानि येषां ते तथा, कान्तस्य परनिपातः सुखाविदर्शनात् , ततः पदद्वयस्य २ कर्मधारयः, यथोचित-18
परिणामेन तानि सञ्जातानीत्यर्थः, षधनु:सहस्रोच्छिन्ताः, अत्रापि मकारोऽलाक्षणिका, उत्सेधाजुलतस्निगव्यूतप्रमाणकाया 8 इत्यर्थः, यच्च युग्मिनीनां किश्चिदूनत्रिगव्यूतप्रमाणोचत्वमुक्तं तदल्पतया न विवक्षितमिति भावः । अथ तेषां वपुषि
पृष्ठकरण्डकसङ्ख्यामाह-'तेसि ण'मित्यादि, तेषां मनुष्याणां द्वे षट्पञ्चाशदधिके पृष्ठकरण्डुकशते पाठान्तरेण पृष्ठकरMण्डकशते वा प्रज्ञते, पृष्ठकरण्टुकानि च-पृष्ठवंशवर्युनताः अस्थिखण्डाः पंशुलिका इत्यर्थः, हे श्रमणेत्यादि प्राग्वत्,
पुनस्तानेव विशिनष्टि-'पउमुप्पल' इत्यादि, ते णमिति पूर्ववत् , मनुजाः पन्न-कमलमुत्पलं-नीलोत्पलं अथवा पद्मपद्मकाभिधानं गन्धद्रव्यं उत्पलं-कुष्ठ तयोर्गन्धेन-परिमलेन सदृशः-समो यो निःश्वासस्तेन सुरभिगन्धि वदनं येषां ॥११७॥ ते तथा, प्रकृत्या-स्वभावेनोपशान्ता नतु क्रूराः प्रकृत्या प्रतनवः-अतिमन्दीभूताः क्रोधमानमायालोभा येषां ते तथा, |अत एष मृदु-मनोज्ञं परिणामसुखावहमिति भावः यम्मादेवं तेन सम्पन्नाः न तु कपटमार्दवोपेताः, आलीना-गुरुज
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ----------------------
------ मूलं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२१]
माश्रिता अनुशासनेऽपि न गुरुषु द्वेषमापद्यन्ते इत्याशयः अथवा आ-समन्तात् सर्वासु क्रियासु लीना-गुप्ता नोल्वISMबेष्टाकारिण इत्यर्थः, भद्रका:-कल्याणभागिनः, भद्रगा वा-भद्रहस्तिगतयः, विनीता-गृहत्पुरुषविनयकरणशीला
बवा विनीता इव-विजितेन्द्रिया इव, अल्पेच्छा-मणिकनकादिप्रतिवन्धरहिताः अत एव न विद्यते सन्निधिः-पर्युतखाद्यादेः संचयो-धारणं येषां ते तथा, विटपान्तरेषु-शाखान्तरेषु प्रासादाधाकृतिषु परिवसनं-आकालमावासो येषां । तथा, यथेप्सितान् कामान्-शब्दादीन् कामयन्ते-अर्थान् भुञ्जते इत्येवंशीला येते तथा इति, अत्र च जीवामिगदिषु युग्मिवर्णनाधिकारे आहारार्थप्रश्नोत्तरसूत्रं दृश्यते, अत्र च कालदोषेण त्रुटितं सम्भाव्यते, अत्रैवोत्तरत्र द्वितीयतीयारकवर्णकसूबे आहारार्थसूत्रस्य साक्षात् दृश्यमानत्वादिति, तेनात्र स्थानाशून्यार्थ जीवाभिगमादिभ्यो लिख्यतेतेसि ण भंते ! मणुआणं केवइकालस्स आहारखे समुप्पज्जइ !, गोभमा ! अट्ठमभत्तस्स आहार समुष्पज्जा, पुढबीपुष्फफलाहाराणं ते. भणुआ पण्णत्ता समणाउसो!, तीसे णे भंते. पुढवीए केरिसए आसाए पण्णते?, गो.! से जहाणामए गुलेइ वा खंडेड् वा सकराइ या मच्छंडिआइ वा पप्पडमोअए इ वा मिसेइ वा पुप्फुत्तराइ वा पउमुत्तराइ वा विजयाइ वा महाविजयाइ वा आकासिआइ वा आईसिआइवा आगासफलोवमाइ वा जग्गाइ वा अणोवमाइ वा इमेए अझोववणाए, भवे एआरूवे !, णो इगम समहे, सा णं पुढवी इत्तो इहत्तरिमा चैव जाव मणामतरिा चेव आसाएणं पण्णत्ता । तेसि णं भंते ! पुष्फफगणं केरिसए आसाए पण्णते !, गोजमा ! से जहा णामए रण्णो चाउर्रतचकवट्टिस कल्लाणे भोअणजाए सयसहस्सनिष्फळे वण्णुववेए जाव फासेणं अववेए आसायणिज्जे विसाय
अप
अनुक्रम [३४]
प्रथम-आरकवर्ती मनुष्यस्य आहार-आदि वर्ण्यते
~2474
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२२]
दीप
अनुक्रम
[३५]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२२]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्पूद्वीपशामितचन्द्री
या वृत्तिः
॥११८॥
दिप्पण पण मवणिजे [विश्वणिजे] हिणिजे सर्विदिजगाय पल्हावणिजे, भवे एआरूवे ! णो इणमट्टे समझे, तेलिणं पुण्फफलाणं एतो इतराए चैव जान आसाए पण्णत्ते ( सूत्रं २२ )
"तेषां भदन्त ! मनुजानां 'केवइकालस्स' त्ति सप्तम्यर्थे षष्ठी कियति काले गते भूय आहारार्थः समुत्पद्यते - आहारलक्षण प्रयोजनमुपतिष्ठते १, भगवानाह हे गौतम! अष्टमभकस्व, अत्रापि सप्तम्यर्थे षष्ठी, अष्टमभकेऽतिक्रान्ते आहारार्थः समुत्पद्यते इति, यद्यपि सरसाहारित्वेनैतावत्कालं तेषां क्षुद्वेदनीयोदयाभावात् स्वत एवाभकार्थता न निर्जरार्थं तपः तथाप्यभक्तार्थत्वसाधर्म्यादष्टमभक्त इति, अष्टमभक्तं चोपवासत्रयस्य संज्ञा इति, अथैते यदाहारयन्ति तदाह'पुढवीपुष्फे 'त्यादि, पृथिवी-भूमिः फलानि च कल्पतरूणामाहारो येषां ते तथा, एवंविधांस्ते मनुजाः प्रज्ञप्ताः हे श्रमणेत्यादि पूर्ववत् । अथानयोराहारयोर्मध्ये पृथिवीस्वरूपं पृच्छन्नाह-'तीसेण' मित्यादि, तस्याः पृथिव्याः कीदृश आस्वादः प्रज्ञतो, यो युगलधर्मिणामनन्तरपूर्वसूत्रे आहारत्वेनोक्त इत्यध्याहार्य, भगवानाह - गौतम! तद्यथा नाम ए इत्यादि प्राग्वत्, शुद्ध:- इक्षुरसकाथ इति, इतिवाशब्दौ प्राग्वत् खण्डं-तुडविकारः शर्करा - काशादिप्रभवा मत्त्वंडिका-खण्डशर्कराः पुष्पोत्तरापद्मोत्तरे शर्कराभेदावेव, अन्ये तु पर्पटमोदकादयः खाद्यविशेषा लोकतोऽवसेयाः, एषां मधुरद्रव्यविशेषाणां स्वामिना निर्दिष्टेषु नामसु एतादृशरसा पृथिवी भवेत् कदाचिदिति विकल्पारूढमतिर्गौतम आह-भवेदेतदूषः पृथिव्या आस्वादः ?, स्वाम्याह-गौतम । नायमर्थः समर्थः, सा पृथिवी इतो-गुडशर्करादेरिष्टतरिका एव, स्वार्थे कप्रत्ययः,
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~248~
9202900
२वक्षस्कारे
प्रथमारकनराहारख०
मू. २२
॥११८॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ----------------------
------ मूलं [२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२२]
करणारकान्ततरिका चैव प्रियतरिका चैवेति परिग्रहा, मनापतरिका एव आस्वादेन प्रज्ञप्ता इति, अथ पुष्पफलानामास्वाद पृच्छन्नाह-'तेसि ण'मित्यादि, तेषां-पुष्पफलानां कल्पद्रुसम्बन्धिना कीदृशः-क आस्वादः प्रज्ञप्तो, यानि पूर्वसूत्रे युग्मिनामाहारत्वेन व्याख्यातानीति गम्यं, भगवानाह-गौतम ! तद्यथा नाम राज्ञः, स च राजा लोके कतिप-18
यदेशाधीशोऽपि स्यादत आह-चतुर्धन्तेषु समुद्रत्रयहिमवत्परिच्छिन्नेषु चक्रेण वर्तितुं शीलमस्येति चतुरन्तचक्रवत्ती, 181'अतः समृध्यादौ ' (श्रीसि०८-१-४४) त्यनेन दीर्घत्वं, अनेन वासुदेवतो व्यावृत्तिः कृता, तस्य कल्याण-एकान्तसु81 खावह भोजनजातं-भोजनविशेषः शतसहस्रनिष्पन्न-लक्षव्ययनिष्पन. वर्णेनातिशायिनेति गम्यते, अन्यथा सामान्यभो-18 HS जनस्यापि वर्णमात्रवत्ता सम्भवत्येवेति किमाधिक्यवर्णनं १, उपपेतं-युक्तं, यावदतिशायिना स्पर्शनोपपेतं यावत्
गन्धेन रसेन चातिशायिनोपपेतं, आस्वादनीयं सामान्येन विस्वादनीयं विशेषतस्तद्रसमधिकृत्य दीपनीयं-अभिवृद्धिकरं । दीपयति जठराग्निमिति दीपनीयं, बाहुलकात्कर्तर्यनीयप्रत्ययाः, एवं दर्पणीयमुत्साहवृद्धिहेतुत्वात्, मदनीयं-मन्मथजनकत्वात् बृंहणीयं धातूपचयकारित्वात् सर्वाणि इन्द्रियाणि गात्रं च प्रहादयतीति सर्वेन्द्रियगात्रप्रहादनीयं वैशद्यहेतु-18 त्वात्तेषां, एवमुक्को गौतम आह-भगवन् ! भवेदेतद्रूपतेषां पुष्पफलानामास्वादः, भगवानाह-गौतम ! नायमर्थः समर्थः, तेषां पुष्पफलानामित:-चक्रवर्तिभोजनादिष्टतरकादिरेवाखादः, अत्र कल्याणभोजने सम्प्रदाय एवं-चक्रवर्तिसम्बन्धिनीनां पुंड्रेक्षुचारिणीनामनातकानां गवां लक्षस्थाद्धार्द्धक्रमण पीतगोक्षीरस्य पर्यन्ते यावदेकस्याः गोः सम्बन्धि
श्रीप
अनुक्रम [३५]
~249~
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------- मूलं [२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
वक्षस्कारे
प्रथमारके
प्रत सूत्रांक
नरावासा दिव. सू. २३-२४
श्रीजम्ब-18 यत् क्षीरं तद्राद्धकलमशालिपरमानरूपमनेकसंस्कारकद्रव्यसम्मिश्रं कल्याणभोजनमिति प्रसिद्धं, चक्रिणं खीरनं च द्वीपशा
| विना अन्यस्य भोक्तुर्दुर्जरं महदुन्मादकं चेति ॥ अथैते उक्तस्वरूपमाहारमाहार्य व वसन्तीति पृच्छतिन्तिचन्द्री
ते णं भंते ! मणुया तमाहारमाहारेता कहिं वसहि उति !, गोअमा ! रुक्खगेहाळया णं ते मणुआ पण्णचा समणासो!, तेसिणं या वृत्तिः
भंते ! रुक्खाणं केरिसए आयारभावपटोआरे पण्णत्ते, गोअमा ! कूडागारसंठिआ पेच्छाच्छत्तझयथूभतोरणगोचरवेइमाचोप्फालग॥११९॥
अट्टालगपासायहम्मिअगवक्सबालग्गपोइभावलभीघरसंठिा अस्थपणे इत्थ बहने वरभवणविसिट्ठसंठाणसंठिआ दुमगणा सुहसीललच्छाया पण्णता समणाउसो ! (सूत्रं २३) अत्थि णं भंते तीसे समाए भरहे वासे गेहाइ वा गेहाबणाइ वा?, गोभमा! णो इणढे समढे, रुक्खगेहालया ण ते मणुआ पण्णत्ता समणाउसो!, अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे गामाइ वा जाव संणिवेसाइ वा!, गोयमा! णो इण? समहे, जहिच्छिाकामगामिणो ण ते मणुआ पण्णता, अस्थि ण मंते ! असीइ वा मसीइ वा किसीद वा वणिएत्ति वा पणिएत्ति वा वाणिजोइ वा !, णो इणढे समढे, ववगयअसिमसिकिसिवणिअपणिअवाणिजा ण ते मणुआ पण्णत्ता समणाउसो !, अस्थि णं भंते ! हिरण्णेइ वा सुवण्णेइ वा कसेइ वा दूसेइ वा मणिमोत्सिअसंखसिलप्पवालरत्तरयणसावइज्जेइ वा !, इंता अत्थि, णो चेव णं तेर्सि मणुआणं परिभोगताए हवमागच्छइ । अस्थि णं भंते! भरहे रायाइवा जुवराया इ वा ईसरतलवरमाढविभकोडुंबिअइन्भसेहिसेणावइसत्यवाहाइ वा !, गोयमा ! णो इणद्वे समहे, वगयइडिसक्कारा गं ते मणुआ, अस्थि भंते ! भरहे वासे दासेहवा पेसेइ वा सिस्सेइ वा भयगइ वा भाइल्लएर वा कम्मयरएइ वा!, णो इणढे समडे, ववगयआभिओगा गं ते मणु पण्णत्ता समणाउसो!, अस्थि णं भंते ! तीसे समाए भरहे वासे मायाइ वा पियाइ वा भाय० भगिणि० भजा० पुत्त० भूआ० सुण्हाइवाहता
अनुक्रम
[३५]
8000
॥११९॥
प्रथम-आरकवर्ती मनुष्यस्य आवास-आदि वर्ण्यते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], -----------------------
------- मूलं [२३-२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२३-२४]
enercedeseseseeesesesesee
अत्थि, णो चेव णं तिवे पेन्मबंधणे समुप्पजइ, अस्थि णं भंते ! भरहे वासे अरीइ वा वेरिएइ वा धावएइ वा वहएइ वा पढिणीयए वा पचामित्तेइ वा!, णो इणवे समझे, ववगयराणुसया ण ते मणुआ पण्णता समणाउसो !, अत्षि णं भंते ! भरहे वासे मित्ताइवा वयंसाइवा णायएइ वा संघाढिएइ वा सहाइ वा सुहीइ वा संगएइति वा !, हंता अत्थि, णो चेव णं तेसिं मणुआणं तिथे रागबंधणे समुप्पज्जइ, अस्थि णं भंते ! भरहे वासे आवाहाइ वा वीवाहाइ वा जण्णाइ वा सद्भाइ वा थालीपागाइ वा मितपिंडनिवेदणाइ वा !, जो इणहे समहे, वयगयआवाहवीवाहजण्णसुद्धथालीपाकमितपिंडनिवेदणा णं ते मणुआ पण्णता समणाउसो !, अत्यि णं भंते ! भरहे वासे इंदमहाति वा खंद० णाग जक्ख० भूअ० अगड० तडाग० दहणविक रुक्ख० पक्षय धूम० इयमहाइ वा !, णोणढे समहे, वगयमहिमा णं ते मणुआ पं०, अत्यि णं भंते ! भरहे वासे णडपेफछाइ वा णट्ट० जल मल्ल मुहिम बेलंवग० कहगः पवग० लासगपेच्छाइ वा!, णो इणहे समढे, बबगयकोउहल्ला णं ते मणुआ पण्णत्ता समणावसो!, अस्थि णं भंते ! भरहे वासे सगडाइ वा रहाइ वा जाणाइ वा जुग्ग० गिल्लि० यिल्लि० सीम० संवमाणिआइ वा ! णो इणढे समढे, पायचारविहारा ण ते मणुआ पं० समणाउसो!, अस्थि णं भंते ! भरहे वासे गावीइ वा महिसीइ वा अयाइ वा एलगाइ वा!, हंवा अत्थि, णो चेवणं तेसिं मणुआणं परिभोगत्ताए हवमागच्छंति, अस्थि णं भंते ! भरहे वासे आसाइ वा हत्यिक उट्ट० गोण० गवय० अय० पलग पसय० मिन० वराह० रु० सरभ० चमर० कुरंगगोकण्णमाइआ ?, हंता अस्थि, णो चेव ज तेसि परिभोगत्ताए हबमागच्छति, . अस्थि णं भंते ! भरहे वासे सीहाइ वा वधाइ वा विगदीविगअच्छतरच्छसिआलबिडालसुणगकोकंतियकोलसुणगाइ वा !, हता अत्यि, णो चेवणं तेसिं मणुआणं आबाहं वा वाबाहं वा छविच्छे वा उप्पायेंति, पगइभदया णं ते सावयगणा पं० समणांउसो!, अस्थि
oesesetsecemesesesesesesesese
दीप अनुक्रम [३६-३७]
antlemuTRI
P
~251
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ----------------------
------- मूलं [२३-२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
श्रीजम्बू-18 द्वीपशा
Kesedesesesese
२वक्षस्कारे प्रथमारके नरावासा
न्तिचन्द्रीया वृत्तिः
[२३-२४
२३-२४
॥१२०॥
दीप अनुक्रम [३६-३७]
Daseen
गंभंते! भरहे वासे सालीति वा वीहिगोहूमजवजवजवाइ वा कलममसूरमुग्गमास तिलकुलत्थणिप्फावआलिसद्गअयसिकुसुंभकोवकंगुषरगरालगसणसरिसवमूलगवीआइ वा !, हंता अस्थि, णो चेवण तेसिं मणुआणं परिभोगत्ताए हवमागच्छंति, अत्थि णं भंते ! भरहे बासे गढाइ वा दरीभोवायपवायविसमविजलाइ वा!, णो इसट्टे समडे, भरहे वासे बहुसमरमणिले भूमिभागे पण्णचे, से जहाणामए भालिंगपुक्सय वा०, अस्थि णं भंते ! भरहे वासे खाणूश वा कंटगतणयकयवराइ वा पत्तकयवराइ वा!, णोइणहे समहे, ववगयखाशुकंटगतणकयवरपत्तकयवराण सा समा पण्णता, अत्थि ण भंते ! भरहे वासे इंसाइ वा मसगाइ वाजूभाइ वा लिक्खाइ वा बिकुणाइ वा पिसुआइ वा,!, णो इणवे समडे, धवगयडंसमसगजूअलिक्सर्दिकुणपिसुआ उवदवविरहिआ ण सा समा पण्णत्ता, अस्थि णं भंते! भरहे अहीर या अयगराइ या 1, इंता अस्थि, णो चेवणं तेसिं मणुआणं आवाई वा जाव पगइभहया ण ते वालगगणा पण्णत्ता, अस्थि णं भंते ! भरहे टिंचाइ वा डमराइ वा कलहबोलखारवइरमहाजुद्धाइ वा महासंगामाइ वा महासत्थपडणाइ वा महापुरिसपखणाइ बा!, गोयमा ! णो इणढे समढे, ववगववेराणुबंधा णं ते मणुआ पण्णता!, अस्थि ण भंते ! भरहे वासे दुभूआणि वा कुलरोगाइ वा गामरोगाइ वा मंडलरोगाइ वा पोट्ट० सीसवेक्षणाइ वा कण्णोहअच्छिणइदंतवेअणाइ वा कासाइ वा सासाइ वा सोसाइ मा दाहाइ वा मरिसाद वा मजीरगाइ वा दओदराइ वा पंडुरोगाइ वा भगंदराइ वा एगाहिआइ वा पेआहिआइ वा तेआहिआइ वा घनत्वाहिभाइ बा इंदरगाहाद वा धामाहाइ वा खंदम्गहाइ वा कुमारग्गहाइ वा जक्खम्गहार का भूभग्गहाइ वा मच्छसूलाइ वा हिमयसूलाइ का पोट्ट० कुच्छि० जोणिसूलाइ वा गाममारीइ वा जाव सण्णिवेसमारीइ वा पाणिक्खया जणक्खया कुलक्खया वसणभूअमणारिआ !, गोयमा ! णो ण समढे, ववगयरोगायंका गं ते मणुआ पण्णत्ता समणासो! (सूत्र २४)
0000000000000
॥१२०॥
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२३-२४]
दीप
अनुक्रम [ ३६-३७]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२३-२४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजन्यू. २१
'ते ण' मित्यादि, ते भदन्त ! मनुजास्तमनन्तरोदितस्वरूपमाहारमाहार्य व वसती- कस्मिन्नुपाश्रये उपयन्ति-उपगच्छन्ति ?, भगवानाह - गौतम ! वृक्षरूपाणि गृहाणि आल्या-आश्रया येषां ते तथा एवंविधास्ते मनुजाः प्रज्ञप्ताः, हे श्रमणेत्यादि पूर्ववत्, अथैते गेहाकारा वृक्षाः किंस्वरूपा इति पृच्छति - 'तेसि णं भंते । रुक्खाणमित्यादि प्रश्नसूत्रपदयोजना सुलभा, आकारभावप्रत्यवतारः प्राग्वत्, भगवानाह - गौतम! ते वृक्षाः कूटं शिखरं तदाकारसंस्थिताः, प्रेक्षा इति पदेकदेशे पदसमुदायोपचारात् प्रेक्षागृहं नाव्यगृहं, 'द्वन्द्वान्ते श्रूयमाणं पदं प्रत्येकमभिसम्बध्यते' इति संस्थित| शब्दः सर्वत्र योज्यः, तेन प्रेक्षागृहसंस्थिता इति व्याख्येयं प्रेक्षागृहाकारेण संस्थानवन्त इत्यर्थः एवं छत्रध्वजतोरणस्तूपगोपुरवेदिकाचोप्फाल अट्टालकप्रासाद हर्म्यगवाक्षवालाप्रपोतिकावल भी गृहसंस्थिताः, तत्र छत्रायाः प्रतीताः, गोपुरं पुरद्वारं वेदिका - उपवेशनयोग्या भूमिः चोप्फालं नाम मत्तवारणं अहालकः प्राग्वत् प्रासादो-देवतानां राज्ञां वा गृहं उच्छ्रयबहुलो वा प्रासादः ते चोभयेऽपि पर्यन्तशिखराः हम्म्यं-शिखररहितं धनर्वतां भवनं गवाक्षः - स्पष्टः वालाग्रपोतिका नाम जलस्योपरि प्रासादः बलभी - छदिराधारस्तत्प्रधानं गृहं, अत्रायमाशयः - केचिदृक्षाः कूटसंस्थितास्तदन्ये प्रेक्षागृहसंस्थितास्तदपरे छत्रसंस्थिता, एवं सर्वत्र भाव्यं, अन्ये तु अत्र - सुपमसुषमाया भरतवर्षे बहवो वरभवनंसामान्यतो विशिष्टगृहं तस्येव यद्विशिष्टं संस्थानं तेन संस्थिताः शुभा शीतला छाया येषां ते तथा एवंविधा द्रुमगणाः प्रज्ञताः, हे श्रमणेत्यादि पूर्ववत्, प्राग्गेहाकार कल्पद्रुमस्वरूपवर्णके उक्तेऽपि एते परमपुण्यप्रकृतिका युग्मिन एषु सौन्द
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------- मूलं [२३-२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
दीपश
प्रत सूत्रांक [२३-२४]
दीप अनुक्रम [३६-३७]
श्रीजम्मू-18 श्रियेवाश्रयेषु वसन्तीति ज्ञापनार्थ पुनस्तद्वर्णकसूत्रारम्भः सार्थक इति , ननु तदा गृहाणि न सन्तिी, सन्त्यपि वा 8वक्षस्कारे
| गृहाणि धान्यवन्न तेषामुपभोगायायान्तीत्याशङ्कमानः पृच्छति-'अत्थि णमित्यादि, अस्तीत्यस्य त्यादिप्रतिरूपकाव्य-18|| प्रथमारके न्तिचन्द्री-15 या वृतिः
बस्य वचनत्रयसदृशरूपत्वेन सन्तीति व्याख्येयं, सन्ति भदन्त ! तस्यां समायां भरतवर्षे गेहानि वा प्रतीतानि गेहेषु नरावासा| आयतनानि आपतनानि वा-उपभोगार्थमागमनानि, उत्तरसूत्रं तु प्राग्वत्, एतेन तदा मनुष्यादिप्रयोगजन्यगृहा-
|२३-२४
प. ॥१२१॥ || भावस्तत एव तेषामुपभोगार्थ तत्रापतनाभावश्चोक्त इति, 'अत्थि णं भंते ! तीसें' इत्यादि, उक्तवक्ष्यमाणेषु एषु युग्मि-18
सत्रेषु प्रश्नोत्तरालापकयोर्वाक्ययोर्योजना प्राग्वत् , नवरं ग्रामा वृत्त्यावृताः कराणां गम्या वा यावत्करणानगरादिपरि-12
महः, तत्र नगराणि चतुर्गोपुरोझासीनि न विद्यते करो येषु तानि नकराणि वा-कररहितानि, नखादिनिपातनादपआप सिद्धिा, निगमा:-प्रभूतवणिग्वर्गावासाः, प्रसुप्राकारनिवद्धानि कचिन्नद्यद्रिवेष्टितानि वा खेटानि, क्षुलकमाकारवेष्टितानि |
अभितः पर्वतावृतानि वा कर्बटानि, अर्द्धतृतीयगन्यूतान्तामरहितानि ग्रामपञ्चशत्युपजीव्यानि वा मडम्बानि, पत्तनानि । जलस्थलपथयुक्तानिरलयोनिभूतानि वा, सिन्धुवेलावलयितानि द्रोणमुखानि, आकरा-हिरण्याकरादयः, आश्रमा:-ता|पसाश्रयाः, सम्बाधा:-दौलङ्गस्यायिनो निवासाः यात्रासमागतप्रभूतजननिवेशावा, राजधान्यो यन्त्र नगरे पत्तने अन्यत्र | ॥१२॥
वा वयं राजा वसति, सन्निवेशा-यत्र सार्थकटकादेरावासा भवन्ति ?, अनोत्तर-नायमर्थः समर्थः, अत्रार्थे विशेषणद्वारा | हेतुमाह-यथेप्सितं-इच्छामनतिक्रम्य कार्म-अत्यर्थ गामिनो-गमनशीलास्ते मनुजाः, अत्रात्यर्थकथनेन तेषां सर्वदापि स्वा
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२३-२४]
दीप
अनुक्रम [३६-३७]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२३-२४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
तन्त्र्यमुक्तं, ग्रामनगरादिव्यवस्थायां तु नियताश्रयत्वेन तेषामिच्छानिरोधः स्यात्, जीवाभिगमे तु 'अहेच्छिअकामगामिणो' इत्यस्य स्थाने 'जं नेच्छिअकामंगामिणो' इति पाठः, तत्रायमर्थः - यद् - यस्मान्नेप्सितकामगामिनः न इच्छितं - इच्छाविषयीकृतं नेच्छितं, नायं नञ् किन्तु नशब्द इत्यनादेशाभावः, यथा 'नैके द्वेषस्य पर्याया' इत्यत्र, नेच्छितं - इच्छाया अविषयीकृतं कार्म - स्वेच्छया गच्छन्तीत्येवंशीला नेच्छित कामगामिनस्ते मनुजा इति, यद्यपि गृहसूत्रेणैवार्थापत्त्या - ग्रामाद्यभावः सूचितस्तथाप्य व्युत्पन्नविनेयजनव्युत्पत्त्यर्थमेतत्सूत्रोपन्यासः, 'अत्थि ण' मित्यादि, अत्रासि:- खङ्गः यमुपजीव्य जनः सुखबृसिको भवति यद्वा साहचर्यलक्षणया असिशब्देन अत्र अस्युपलक्षिताः पुरुषा गृह्यन्ते, एवमग्रेतन विशेषणेष्वपि यथायोगं ज्ञेयं, मषी यदुपजीवनेन लेखककला, कृषिः कर्षणं वणिक्पण्याजीवः पणितं-क्रयाणकं वाणिज्यं सत्यानृतमर्पणग्रहणादिषु न्यूनाधिकाद्यर्पणमित्यर्थः १, नायमर्थः समर्थः, यतस्ते व्यपगतानि असिमषीकृपिवणिक्पणितवाणिज्यानि येभ्यस्ते । तथा मनुजाः प्रज्ञता इति । 'अत्थि ण' मित्यादि, हिरण्यं रूप्यमघटितसुवर्णं वा सुवर्ण-घटितं कांस्यं प्रतीतं दृष्यंवखजातिः मणि:- चन्द्रकान्तादिः मौक्तिकं व्यक्तं शङ्खो -दक्षिणावर्त्तादिः शिला- गन्धपेषणादिका प्रवाल- प्रतीतं | रक्तरलानि-पद्मरागादीनि स्वापतेयं - रजत सुवर्णादिद्रव्यं, ननु यदि हिरण्यं रूप्यं तदा रूप्यखानौ तत्सम्भवः यदि चाघटितसुवणं तदा सुवर्णखानौ परं घटितं सुवर्णं तथा ताम्रत्रपुसंयोगजं कांस्यं तथा तन्तुसन्तानसम्भवं दूष्यं तत्र कथं सम्भवेयुः १, शिल्पिप्रयोगजन्यत्वात् तेषां न च तान्यत्रातीतोत्सर्पिणीसत्कनिधानगतानि सम्भवतीति वाच्यं,
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], -------------------------
------- मूलं [२३-२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२३-२४]
दीप अनुक्रम [३६-३७]
श्रीजम्यू-18/सादिसपर्यवसितप्रयोगबन्धस्यासबेयकालस्थितेरसम्भवात् , एगोरुगोत्तरकुरुसूत्रयोरेतदालापकस्थाकथनप्रसङ्गात् , उच्यते, द्वीपशा-18 संहरणप्रवृत्तक्रीडाप्रवृत्तदेवप्रयोगात् तानि सम्भवन्तीति सम्भाब्यते, इहोत्तर-हन्तेति वाक्यारम्भे कोमलामन्त्रणे वा, प्रथमारके न्तिचन्द्री-18|| अस्ति हिरण्यादिकमिति शेषः, नैव तेषां मनुजानां परिभोग्यतया हबमिति-कदाचिदागच्छति, 'अत्थि ण' मित्यादि. रावासाया पाच-18| अस्ति राजा इति वा चक्रवर्त्यादि युवराजो (वा) राज्याई इतियावत् ईश्वरो-भोगिकादिः अणिमायष्टविधैश्चर्ययुक्तो वा
दिव.सू.
| २३-२४ ॥१२२॥ तलवर:-सन्तुष्टनरपतिप्रदत्तसौवर्णपट्टालङ्कृतशिरस्कचौरादिशुदधिकारी माडम्बिकः-पूर्वोक्कमडम्बाधिपः कौटुम्विकः
कतिपयकुटुम्बप्रभुः इभ्यो-यव्यनिचयान्तरितो हस्त्यपि न दृश्यते, इभो-हस्ती तत्प्रमाणं द्रव्यमहतीति निरुक्तादिभ्यः, श्रेष्ठी-श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टालङ्कृतशिराः पुरज्येष्ठो वणिविशेषः, सेनापतिः-यदायत्ता नृपेण चतुरङ्गासेना
कृता भवति, सार्थवाहो-यो गणिमादि क्रयाणकं गृहीत्वा देशान्तरं गच्छन् सहचारिणामध्वसहायो भवति?, अत्रोत्तरम्शनायमर्थः समर्थः, व्यपगता ऋद्धिर्विभवैश्वर्य सत्कारश्च-सेव्यतालक्षणो येभ्यस्ते तथा, 'अस्थि ण'मित्यादि, दास-आम
रणं क्रयक्रीतः गृहदासीपुत्रो वा प्रेष्यः-प्रेषणा) जनो दूतादिः शिष्य-उपाध्यायस्योपासकः शिक्षणीय इत्यर्थः, भृतको-नियतकालमवधिं कृत्वा वेतनेन कर्मकरणाय धृतः दुष्कालादौ निश्रितो वा, भागिको-द्वितीयाद्यशमाही, कर्म-TR ॥१२॥ करः-छगणपुञ्जाद्यपनेता, अत्राह-नायमर्थः समर्थः, यतस्ते मनुजा व्यपगतमाभियोग्य-आभियोगिक कर्म येभ्यस्ते तथा, अत्राभियोग्यशब्दात् कर्मणि यप्रत्यये “व्यञ्जनात् पञ्चामान्तस्थायाः स्वरूपे वा” (श्रीसिद्धहै०अ०) इत्यनेनैकस्य यकारस्य।
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[२३-२४]
दीप
अनुक्रम [ ३६-३७]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२३-२४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
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लोप इति । ' अस्थि ण' मित्यादि, माता या प्रसूते पिता यो बीजं निषिक्तवान् भ्राता यः सहजातो भगिनी सहजाता भार्या - भोग्या जन्यः पुत्रः जन्या स्त्री दुहिता स्नुषा-पुत्रवधूः, अत्र भगवानाह - हन्तेत्यादि, नैव चः पुनरर्थे तेषा मनुजानां तीव्रं उत्कटं प्रेमरूपं बन्धनं समुत्पद्यते, तथाविधक्षेत्रस्वभावात् प्रतनुप्रेमबन्धास्ते युग्मिन इति, ननु चतुर्षु कुटुम्बमनुष्येषु स्नुषासम्बन्धो यथा आपेक्षिकस्तथा भ्रातृव्यभागिनेयादिसम्बन्धः कथं न सम्भवी १, उच्यते, कुबेरदत्तकुबेरदत्तास्वकभाववत् सोऽप्युपलक्षणाद् ग्राह्यः परं स्फुटव्यवहारत्वेनेम एव सम्बन्धाः, 'अत्थि ण' मित्यादि, अरिःसामान्यतः शत्रुः वैरिको-जातिनिबद्धबैरोपेतः घातको - योऽन्येन घातयति वधकः-स्वयं हन्ता व्यथको वा-चपेटादिना ताडकः प्रत्यनीकः - कार्योपघातकः प्रत्यमित्रो - यः पूर्वं मित्रं भूत्वा पश्चादमित्रो जातः अमित्रसहायो वा १, इहाचार्य :-नायमिति, यतो व्यपगतो वैरजन्योऽनुशयः - पश्चात्तापो येभ्यस्ते तथा, वैरं कृत्वा हि तदुत्थफलविपाके पुमाननुशेते इति । 'अत्थि ण' मित्यादि, अत्र मित्रं - स्नेहास्पदं वयस्यः - समानवयाः गाढतर स्नेहास्पदं ज्ञातकः-स्वज्ञातीयः यद्वा ज्ञातक:संवासादिना ज्ञातः सहजपरिचित इत्यर्थः सङ्घाटिक :- सहचारी सखा- समानखादनपानो गाढंतमस्नेहास्पदं सुहृद्| मित्रमेव सकलकालमव्यभिचारि हितोपदेशदायि च साङ्गतिकः-सङ्गतिमात्रघटितः, इन्तेत्यादि पूर्ववत्, न चैव तेषां मनुजानां तीव्रं रागरूपं बन्धनं समुत्पद्यते । 'अत्थि ण' मित्यादि, अत्र चाह - आहूयन्ते स्वजनास्ताम्बूलदानाय यत्र स आवाहो - विवाहात् पूर्वं ताम्बूलदानोत्सवः विवाहः - परिणायनं यज्ञः - प्रतिदिवस स्वस्वेष्टदेवतापूजा श्राद्धं पितृक्रिया
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], -----------------------
------- मूलं [२३-२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
न्तिचन्द्री
प्रत सूत्रांक [२३-२४]
दीप अनुक्रम [३६-३७]]
श्रीजम्मू
| स्थालीपाकः-सम्प्रदायगम्यः मृतपिण्डनिवेदनानि-मृतेभ्यः स्मशाने तृतीयनवमादिषु दिनेषु पिण्डनिवेदनानि-पिण्डसम- वक्षस्कारे द्वीपशा-पणानि !, अत्रोत्तर-नायमर्थः समर्थः, व्यपगतावाहविवाहयज्ञश्राद्धस्थालीपाकमृतपिण्डनिवेदनास्ते मनुजाः। 'अत्यि
णमित्यादि, इन्द्रः प्रतीतस्तस्य महः-प्रतिनियतदिवसभावी उत्सवः, एवमग्रेऽपि, स्कन्द:-कार्तिकेयः नागो-भवनपति-18 या वृतिः
दिव, मू. विशेषः यक्षभूती-व्यन्तरविशेषी 'अगड'त्ति अवट:-कूपः तडागः-सरः द्रहनदीरूक्षपर्वताः प्रतीताः स्तूपः-पीठविशेषः 18
IN२३-२४ ॥१२३॥ चैत्यं च-इष्टदेवतायतनं, अत्राह-व्यपगतमहिमानस्ते मनुजाः प्रज्ञप्ताः । 'अत्थि ण'मित्यादि, नटा-नाटवितारः तेषां 8
|| प्रेक्षा-प्रेक्षणकं कौतुकदर्शनोत्सुकजनमेलका, एवमग्रेऽपि, नृत्यन्ति स्म नृत्ता:-कर्तरि का प्रत्ययः नृत्तविधायिनः जल्ला-1%| वरत्राखेलकाः मल्ला-भुजयुद्धकारिण मौष्टिका-मल्ला एव ये मुष्टिभिः प्रहरन्ति विडम्बका-विदूषकाः मुखविकारादिभि-18 नानां हास्योत्पादकाः कथकाः-सरसकथाकथनेन श्रोतृरसोत्पत्तिकारकाः प्लवका-ये झम्पादिभिर्गादिकमुवप्लवन्ते ।। ग दिलङ्घनकारिणः इत्यर्थः अथवा तरन्ति नद्यादिकं ये इति लासका-ये रासकान् ददति तेषां प्रेक्षा, उपलक्षणादाख्यायकप्रेक्षादिग्रहः, अत्रोत्तरं-नायमर्थः समः, यतो व्यपगतकुतूहलास्ते मनुजाः प्रज्ञप्ताः । 'अस्थि ण'मित्यादि, ॥२|| अत्र शकटानि प्रतीतानि रथा:-क्रीडारथादयः यायन्ते-गम्यन्ते एभिरिति व्युत्पत्त्या यानानि-उक्तवक्ष्यमाणातिरि-||||१२३॥ कानि गळ्यादीनि युग्य-पुरुषोक्षिप्तमाकाशयानं जम्पानमित्यर्थः 'गिल्लि'त्ति पुरुषद्वयोरिक्षप्ता डोलिका 'थिलि'त्ति IN | वेसरादिद्वयविनिर्मितो यानविशेषः शिविका-प्रतीता स्यन्दमानिका-पुरुषायामप्रमाणः शिविकाविशेषः, अत्र प्रतिवचः-15
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[२३-२४]
दीप
अनुक्रम [३६-३७]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२३-२४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
नायमित्यादि, पादचारेण न तु शकटादिचारेण विहारो-विश्चरणं येषां ते तथा मनुजा इत्यादि । 'अत्थि ण' मित्यादि, अत्र गोमहिष्यजाः स्पष्टाः, एडका - उरखी, आह-'नो चेवेत्यादि न च तेषां मनुष्याणां परिभोग्यतया कदाचिदागच्छन्ति, नैतासां दुग्धादि तेषामुपभोग्य मितियावत् । 'अत्थि ण'मित्यादि, अत्राश्वाः हस्तिनः उष्ट्राः प्रतीताः गोणा गावः गवयोबनगवः अजैडको स्पष्टौ प्रश्नया-द्विखुरा आटव्यपशुविशेषाः मृगवराही व्यक्तौ रुरवो-मृगविशेषाः शरभा-अष्टापदाः | चमरा-अरण्यगवो यासां पुच्छकेशाश्चामरतया भवन्ति शवरा - येषामनेकशाखे शृङ्गे भवतः कुरङ्गगोकर्णौ मृगभेदी शृङ्गवर्णादिविशेषाश्च सामर्थ्यगम्याः, अत्रोत्तरम् - हन्तेति कोमलामन्त्रणे, सन्ति, न चैव तेषां प्रथमसमाभाविनां मनुष्याणां | यथासम्भवमारोहणादिकार्येषूपयुज्यन्ते । अथ नाखरप्रश्नसूत्र माह-'अत्थि ण' मित्यादि, अत्र सिंहाः केसरिणः व्याघ्राःप्रतीताः वृका - ईहामृगाः द्वीपिन:- चित्रकाः रुक्षा -अच्छभल्लाः तरक्षषो मृगादनाः शृगाला व्यक्ताः बिडाला - मार्जाराः | शुनकाः- श्वानः कोकन्तिका लोमटका ये रात्री को को इत्येवं रवन्ति कोलशुनका - महाशूकराः, अत्रोत्तरम् - सन्ति, परं नैव तेषां मनुजानां आवाधां वा-ईपद्वाधां व्यावाधां वा-विशेषेणावाधां छविच्छेदं वा चर्मकर्त्तनं उत्पादयन्ति यतः | प्रकृतिभद्रकास्ते श्वापदगणाः प्रज्ञप्ताः। 'अत्थि ण' मित्यादि, अत्र शालयः - कलमादिविशेषाः श्रीहयः - सामान्यतः गोधूमयवी | प्रतीती यवयवा-यवविशेषाः 'कल'सि कलायास्त्रिपुटाख्या वृत्तचणका वा मसूरा - मालवादिदेशप्रसिद्धा धान्यविशेषा मुद्गमापतिलाः कुलत्था:- चपलकतुल्याश्चिपिटा भवन्ति निष्पावा-बलाः 'आलिसंदग' ति चपलकाः अलसी - धान्यं
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], -----------------------
------- मूलं [२३-२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२३-२४]
दीप अनुक्रम [३६-३७]
श्रीजम्ब-8 यस्य तैलं अलसीतैलमिति प्रतीत 'कुसुंभ'त्ति लट्टाकाणाः यत्पुष्पैर्वस्वादिरागः समुत्पाद्यते कोद्भवाः-प्रतीताः कङ्गवः-18 वक्षस्कारे द्वीपशा- पीततण्डुलाः 'बरग'त्ति बरही धान्यविशेषः सपादलक्षादिषु प्रसिद्धः रालक:-काविशेष एव, स चार्य (विशेषः) प्रथमारकन्तिचन्द्री- बृहच्छिराः कङ्करल्पशिरा रालका, शणं-स्वप्रधाननालो धान्यविशेषः सर्पपाः प्रतीताः मूलक-शाकविशेषः तस्य
निरावासाया वृत्तिः बीजानि, प्राकृतत्वात् ककारलोपसन्धिभ्यां निष्पत्तिः, अत्रोत्तरम्-सन्ति, न च तेषां मनुजानां परिभोग्यतया कदाचि
२३-२४ ॥१२४1 दायान्ति कल्पद्रुमपुष्पफलाद्याहारकत्वात्तेषामिति, 'अस्थि णमित्यादि, अत्र गर्ता-महती खड्डा दरी-मूषिकादिकृता ||
लघ्वी खड्डा अवपान:-प्रपातस्थानं यत्र चलन् जनः सप्रकाशेऽपि पतति प्रपातो-भृगुयंत्र जनः काश्चित् कामनां कृत्वा || प्रपतति विषम-दुरारोहावरोहस्थानं बिजलं-स्निग्धकईमाविलस्थानं यत्र जनोऽतर्कित एव पतति, नायमः समर्थे । इत्यादि, न सन्तीत्यर्थः, भरतवर्षे बहुसमरमणीयो भूमिभागो यतः प्रज्ञप्तः से जहा णामए' इत्यादि वर्णकः प्राग्वद् ज्ञेयः। अत्वि ण'मित्यादि, अत्र स्थाणुः-ऊर्ध्वकाष्ठं कण्टकः-स्पष्टः तृणान्येव कचवरः पत्राण्येव कचवरः, अत्राह-'ने' ॥त्यादि, यतो व्यपगतस्थाणुयावत्पत्रकचवरा सा-सुषमसुषमा नास्नी समा-अरकः प्रज्ञप्ता। 'अस्थि ण'मित्यादि, अत्र दंशम-TS
शकयूकालिक्षाः स्पष्टाः डिंकुणा-मत्कुणाः यदाहुः श्रीहेमसूरयो देश्या-"मकुणए दिंकुण दंकुणा तहा दंकणी पिहाणीए" || ॥१२॥ 18 इति, पिशुका:-चञ्चटाः, अत्राचार्यः-व्यपगतदंशमशकयूकालिक्षा तथा टिंकुणापिशुकोपद्रवविरहिता, पश्चात् कर्मधारयः, 18 सा समा प्रज्ञप्ता, अत्र सूत्रे व्यपगतेत्यादिविशेषणस्य कर्मधारयं विना व्याख्यानकरणे प्रस्तुतमूलादर्श विरहिअत्ति
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], -----------------------
------- मूलं [२३-२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२३-२४]
पदं प्रमादापतितमिति ज्ञेयं, तदर्थस्य तत्त्वतो व्यपगतपदेनैवोक्तत्वात् । 'अस्थि णमित्यादि, अत्र अयः-सामान्यतः18 | सपोः अजगरा:-महाकायसर्पाः शेष पूर्ववत्, यतः प्रकृतिभद्रकास्ते ब्यालगणा:-सरिसपजातीयगणाः प्रज्ञप्ता इति ।। | अत्र ग्रहयुद्धसूत्रं जीवाभिगमादिषु साक्षाद् दृष्टमपि एतत्सूत्रादर्शेषु न दृष्टमिति न व्याख्यायामप्यलेखि । 'अस्थि ण
मित्यादि, अत्र डिम्बडमरौ पूर्ववत् , कलहो-वचनराटिः बोलो-बहूनामा नामव्यक्ताक्षरध्वनिकः कलकलः क्षार:|| परस्परं मत्सरः वैर-परस्परमसहमानतया हिंस्यहिंसकताध्यवसायः महायुद्धानि-व्यवस्थाहीना महारणाः महासङ्घामा:
चक्रादिन्यूहरचनोपेततया सव्यवस्था महारणाः महाशस्त्राणि-नागवाणादीनि तेषां निपतनानि-हिंसाघुया रिपुमोचनानि, महाशस्त्रत्वं चैतेषामद्भुतविचित्रशक्तिकत्वात्, तथाहि-नागवाणा धनुष्यारोपिता बाणाकारा मुक्ताश्च सन्तो जाज्वल्यमानासह्योल्कादण्डरूपास्ततः परशरीरे सङ्क्रान्ता नागमूतीभूय पाशत्वमश्नुवते, तामसवाणास्तु सकलरणो ब्या-18 पिमहान्धतमसरूपतया पवनवाणाश्च तथाविधपवनस्वरूपतया वहिबाणाश्च तादृशवहिप्रकारेण परिणताः प्रतिवैरिवाहि-18 | नीषु विनोत्पादका भवन्ति, एवमन्येष्वपि स्वस्वनामानुसारेण स्वस्वजन्यकार्यमुत्पादयन्ति, उक्कं च-"चित्रं श्रेणिक ! ते 18 बाणा, भवन्ति धनुराश्रिताः। उल्कारूपाश्च गच्छन्तः, शरीरे नागमूर्तयः ॥१॥क्षणं बाणाः क्षणं दण्डाः, क्षणं | पाशत्वमागताः। आमरा ह्यस्त्रभेदास्ते, यथाचिन्तितमूर्तयः॥२॥" महापुरुषा:-छवपत्यादयस्तेषां पतनानि-कालधर्मन-18 || यनानि, तत एव महारुधिराणि-छत्रपत्यादिसत्करुधिराणि तेषां निपतनानि-प्रवाहरूपतया वहनानि, अनोत्तरम्
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सूत्रांक
[२३-२४]
दीप
अनुक्रम [३६-३७]
वक्षस्कार [२],
मूलं [२३-२४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्त्रीया वृतिः
॥१२५॥
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
Joining
नेत्यादि, यतस्ते व्यपगतो वैरस्यानुबन्धः - सन्तानभावेन प्रवृत्तिर्येभ्यस्ते तथा मनुजाः प्रज्ञताः । 'अत्थि ण'मित्यादि, अन दुष्टा-जनधान्यादीनामुपद्रव हेतुत्वाद्भूताः सत्त्वा उन्दरशलभप्रमुखा ईतय इत्यर्थः कुलरोगग्रामरोगमण्डलरोगा यथोत्तरं बहुस्थानव्यापिनः, 'पोह'त्ति देश्यत्वाद् उदरं शीर्ष-मस्तकं तद्वेदना कर्णोष्ठाक्षिनखदन्तवेदनाः कण्ठ्याः, कासश्वासी व्यक्तौ, शोषः-क्षयरोगः दाहः- स्पष्टः अश-गुदाङ्कुरः अजीर्ण-व्यक्तं दकोदरं-जलोदरं पाण्डुरोगभगन्दरौ प्रतीती एकाहिको यो ज्यर एकादिनाऽन्तरित आयाति, एवं द्विदिनान्तरितो व्याहिकः त्रिभिर्दिनरन्तरितख्याहिकः चतुर्थेन दिनेनान्तरितश्चतुर्थाहिक: इन्द्रग्रहादयस्तु उन्मत्तताहेतवो व्यन्तरादिदेवकृतोपद्रवाः धनुर्महः- सम्प्रदायगम्यः मस्तकशूलादीनि प्रतीतानि ग्रामे उक्तस्वरूपे मारि: - युगपद्रोगविशेषादिना बहूनां कालधर्मप्राप्तिः, एवमग्रेऽपि, यावत्करणानगरमारिप्रभृतिपरिग्रहः, प्राणिक्षयो- गवादिक्षयः जनक्षयो मनुष्यक्षयो कुलक्षयो-वंशक्षयः, एते च कथम्भूता इत्याह| व्यसनभूता-जनानामापद्भूताः अनार्या:- पापात्मकाः, अत्र विभक्तिलोपमकाराममौ प्राकृतत्वात्, अत्राह-नेत्यादि, | व्यपगतो रोग:-चिरस्थायी कुष्ठादिरातङ्कः- आशुघाती शूलादिर्येभ्यस्ते तथा मनुजाः प्रशप्ताः, हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! अथैषां भवस्थितिं पृच्छति,
तीसे णं भंते! समाए भारहे वासे मणुआणं केवइथं कालं ठिई पण्णत्ता १, गोअमा! जहणेणं देसुणाई तिष्णि पलिओदमाई कोसे देसूणाई तिष्णि पलिओयमाई, सीसे णं भंते! समाए भारहे वासे मणुआणं सरीरा केवइअं उयतेणं पण्णत्ता !, गोभमा ! जहणं
प्रथम- आरकवर्ती मनुष्यस्य स्थिति आदि वर्ण्यते
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२वक्षस्कारे प्रथमारकेनरावासा
दिव. सू. २३-२४
॥१२५॥
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अनुक्रम [३८]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
Jan Fikeitim
तिष्णि गाउआई उक्कोसेणं तिष्णि गाडभाई, ते णं भंते! मणुआ किंसंघयणी पण्णचा ?, गोअमा ! वइरोलभणाराय संघयणी पण्णत्ता, सिणं भंते! मधुआ सरीरा किंसंठिआ पण्णत्ता ?, गोअमा ! समचउरंससंठाणसंठिआ, तेसि णं मणुआणं बेछप्पण्णा पिडुकरं यस्याः पण्णत्ता समणाउसो !, ते पं भंते! मणुआ कालमासे कालं किथा कहिं गच्छन्ति कहिं उबवजंति, गो० ! हम्मासावसेसाआ जुअलगं पसवंति, एगूणपणं राईदिआई सारखंति संगोवेति २ ता कासित्ता छीइचा जंभात्ता अकिट्टा अवहिआ अपरिभाविया कालमासे कालं किचा देवलोएसु उववअंति, देवलोअपरिग्गा णं ते मणुआ पण्णत्ता, तीसे णं भंते! सभाए भरहे जासे कइविद्दा मस्सा अणुसज्जित्था !, गो० ! छबिहा पं० सं०-पम्हगंधा १ मिजगंधा २ अममा ३ तेअवली ४ सहा ५ सणिचारी ६ (सू२५)
प्रायः कण्ठ्यं सूत्रमेतत्, नवरं देशोनानि त्रीणि पल्योपमानि स्थितिर्युग्मिनीं प्रतीत्य मन्तच्या, देशश्चात्र पत्योपमासथेयभागरूपो ज्ञेयो, यदुक्तं जीवाभिगमे देवकुरूत्तरकुरुस्त्रियमधिकृत्य- "देवकुरुउत्तरकुरुअकम्मभूमगमणुस्सित्थीणं | भंते ! केवइअं कालं ठिई पण्णत्ता १, गो० ! देसूणाई तिष्णि पलिओ माई पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगाई, उकोसेणं तिष्णि पलिओ माई”। अथावगाहनां पृच्छन्नाह - 'तीसे ण'मित्यादि सुगमं, नवरं देशोनास्त्रयः क्रोशा अपि युग्मिनीं प्रतीत्य "उच्चतेणं णराण थोवोणमूसिआओ' इति वचनात्, यद्यपि 'छधणुसहस्समूसिआओ' इति पूर्वसूत्रेणै| तेषामवगाहना लभ्यते तथापि जघन्योत्कृष्टविशेषविधानार्थं पुनरवगाहनासूत्रारम्भः । 'ते ण' मित्यादि, अत्र किं च तत्संहननं चेति कर्मधारयः, पश्चादस्त्यर्थे इन्प्रत्ययः, 'गौतमेत्यादि, वज्रर्षभनाराचसंहननास्ते मनुजा इति, 'तेसि ण' मि
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२५]
दीप
अनुक्रम
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्विचन्द्री -
या वृत्तिः
॥१२६ ॥
त्यादि सुगमं, नवरं किं संस्थित-संस्थानं येषां ते तथा, यद्यपि पूर्ववर्णकसूत्रे विशेषणद्वारा एषां संहननादिकमाख्यातं तथापि || सर्वेषामपि तत्कालभाविनामेकसंहननादिमात्रताख्यापनार्थमस्य सूत्रस्य प्रश्नोत्तरपद्धत्या निर्देशेन न पौनरुक्त्यमाशङ्कनीयं, | अत एवाग्रवर्त्तिनि पृष्ठकरण्डकसूत्रे 'तेसि णं! भंते मणुआण'मित्यत्र 'केवइआ पिट्टकरंडकसया पण्णत्ता?, गोअमा' इति प्रश्न| सूत्रांशोऽध्याहार्य इति 'तेसि ण' मित्यादि, तेषां पृष्ठकरण्डकशतानि - पूर्वीकस्वरूपाणि कियन्ति ?, अत्र भगवानाह द्वे षट्पखाशदधिके पृष्ठ करण्डकशते प्रज्ञप्ते इत्यर्थः, 'ते ण' मित्यादि, ते मनुजाः कालस्य-मरणस्य मासो यस्मिन् कालविशेषे अवश्यं | कालधर्म्मः तस्मिन् कालं कृत्वा, मासस्योपलक्षणत्वात् कालदिवसे इत्याद्यपि द्रष्टव्यं क्व गच्छन्ति-कोत्पद्यन्ते इति प्रश्नयेsपि 'देवलोपसु उववजंती' त्येकमेवोत्तरं गमनपूर्वकत्वादुत्पादस्योत्पादाभिधाने गमनं सामर्थ्यादवगतमेवेत्याशयादिति, | अथवा गतिर्देशान्तरप्रातिरपि भवतीति क्व गच्छन्तीत्येतदेव पर्यायेणाचष्टे-'उत्पद्यन्ते' उत्पत्तिधर्माणो भवन्ति, अत एवोतरसूत्रे 'उववजंती' त्येवो, स्वाम्याह-'गौतमे 'ति षण्मासावशेषायुषः कृतपरभवायुर्वन्धा इति गम्यं, युगलकं प्रसुवत इति, एतेषामायुविभागादौ परभवायुर्वन्धाभावमाह, तच्चैकोनपञ्चाशतं रात्रिंदिवाभ्यहोरात्राणि यावत्, संरक्षन्तिउचितोपचारकरणतः पालयन्ति-संगोपयन्ति अनाभोगेन हस्तस्खलनकष्टेभ्यः, संरक्ष्य सङ्गोप्य च कासित्वा-कासं विधाय क्षुत्वा क्षुतं विधाय जृम्भयित्वा जृम्भां विधाय अक्लिष्टाः - स्वशरीरोत्थक्लेशवर्जिताः अब्यथिताः - परेणानापादितदुःखा अपरितापिता:- स्वतः परतो वाऽनुपजात कायमनः परितापाः, एतेन तेषां सुखमरणमाह, कालमासे कालं
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Raat
प्रथमारक
नराणां स्थित्यादि
सु. २५
॥ १२६ ॥
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आगम
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सूत्रांक
[२५]
दीप
अनुक्रम
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
भीजम्बू. २२
कृत्वा देवलोकेषु - ईशानान्तसुरलोकेषूत्पद्यन्ते, स्वसमहीना युष्करेष्वेव तदुत्पत्तिसम्भवात् अत्र काठमास इति कथनेन तत्कालभाविमनुजानामकालमरणाभावमाह, अपर्यातकान्तर्मुहूर्त्तकालानन्तरमनपवर्त्तनीयायुष्कत्वात्, अत्राह कश्चित् ननु सर्वथा वर्त्तमानभवायुःकर्मपुद्गलपरिशाटकालस्यैव मरणकालत्वात् कथमकालमरणमुपपद्यते, यदभावो वर्त्तमानसमायां निरूप्यते इति चेत्, सत्यं द्विधा ह्यायुर्नरतिरश्चां-अपवर्तनीयमनपवर्त्तनीयं च तत्राचं बहुकालवेद्यं सत्तथाऽध्यवसाययोगजनितश्लथबन्धन बद्धतयोदीर्णसर्वप्रदेशाप्रमपवर्त्तना करणवशादल्पीयः कालेन रज्जुदहनन्यायेन निवासोन्यायेन मुष्टिजलन्यायेन वा युगपद्वेद्यते, इतरन्तु गॉढबन्धनवद्धतयाऽनपवर्त्तनायोग्य क्रमेण वेद्यते, तेन बहुषु वर्त्तमानारकोचितमनपवर्त्तनीयमायुः क्रमेणानुभवत्सु सत्सु यदैकस्य कस्यचिदायुःपरिवर्त्तते तदा तस्य लोकैरकालमरणमिति व्यपदिश्यते, 'पडमो अकालमच्च्' इत्यादिवत् तेनान्यदा अकालमरणस्यापि सम्भवात्तत्तदानीं तन्निषेध इति न दोष इति । अथ कथं ते देवलोकेषूत्पद्यन्ते इत्याह-यतो देवढोको भवनपत्याद्याश्रयरूपस्तस्य तथाविधकालस्वभावात् तद्योग्यायुर्बन्धेन परिग्रहः - अङ्गीकारो येषां ते तथा देवलोकगामिन इत्यर्थः, एषां चैकोनपञ्चाशद्दिनावधि परि| पाउने केचिदेवमवस्थामाहुः - सप्तोत्तानशया लिहन्ति दिवसान् स्वाष्ठमार्यास्ततः को रिङ्खन्ति पदैस्ततः कलगिरो यान्ति | स्वलद्भिस्ततः । स्थेयोभिश्च ततः कलागणभृतस्तारुण्य भोगोद्गताः, सप्ताहेन ततो भवन्ति सुद्दगादानेऽपि योग्यास्ततः ॥ १ ॥ अत्र व्याख्या-आर्याः सप्त दिवसान् - जन्मदिवसादिकान् यावत् उत्तानशयाः सन्तः स्वाङ्गुष्ठं लिहन्ति, ततो
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], -----------------------
-------- मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
द्वीपशा
प्रत सूत्रांक
श्रीजम्बू-द्वितीयसप्तके पृथिव्यां रिजन्ति, ततस्तृतीयसप्तके कलगिरो-व्यक्तवाचो भवन्ति, ततश्चतुर्थसप्तके स्खलनिः पदैर्यान्ति,81
तिचतुषसतक स्खलानः पदयाम्ति, वक्षस्कारे ततः पश्चमसप्तके स्थेयोभिः-स्थिरैः पदैर्यान्ति, ततः षष्ठसप्तके कलागणभृतो भवन्ति, ततः सप्तमसप्तके तारुण्यभोगो-18 प्रथमारक न्तिचन्द्र गताः भवन्ति केचिश्च सुरगादानेऽपि-सम्यक्त्वग्रहणेऽपि योग्या भवन्तीति क्रमः, इदं चावस्थाकालमानं सुषमासुप-181 या वृत्तिः
मायामादी ज्ञेयं, ततः परं किश्चिदधिकमपि सम्भाव्यते इति, अत्र प्रस्तावाद् कश्चिदाह-अथ तदाऽग्निसंस्कारादेरमा-18 ॥१२७॥
IN दुर्भूतत्वेन मृतकशरीराणां का गतिरिति ?, उच्यते, भारण्डप्रभृतिपक्षिणस्तानि तथाजगत्स्वाभाब्यात् नीलकाष्ठमियो[ पाव्य मध्येसमुद्र क्षिपन्ति, यदुक्तं श्रीहेमाचार्यकृत ऋषभचरित्रे-"पुरा हि मृतमिथुनशरीराणि महाखगाः। नीडकाष्ठ-18 | मिवोत्पाव्य, सद्यश्चिक्षिपुरंबुधौ ॥१॥" किश्चात्र श्लोके अम्बुधावित्युपलक्षणं तेन यथायोग गङ्गाप्रभृतिनदीप्यपि ते तानि क्षिपन्तीति ज्ञेयं, ननु चोत्कृष्टतोऽपि धनुःपृथक्त्वमानशरीरैस्तैरुत्कृष्टप्रमाणानि तानि कथं सुबहानीत्यत्रापि समाधीयते-युग्मिशरीराणामम्बुषिक्षेपस्य महाखगकृतत्वेन बहुषु स्थानेषु प्रतिपादनादवसीचते यत् 'पक्खी धणुह पुहत्त-' मित्यत्र सूत्रे जात्यपेक्षया एकवचनमिद्देशस्तेन कचिद् बहुवचनं व्याख्येयं, तथा च सति पक्षिशरीरमानस्य पथासम्भव मरकापेक्षया बहुबहुतरबहुतमधनुःपृथक्त्वरूपस्वापि सम्भवात् तत्कालवर्तियुग्मिनरहस्त्यादिशरीरापेक्षया बहुधनुःपृथक्त्व- ॥१२७॥ परिमाणशरीरैस्तैर्न किश्चिदपि तानि दुर्वहानीति न काप्यनुपपत्तिरिति सम्भाच्यते, सत्त्वं बहुश्रुतगम्यं, एवं च सूत्रे एकवचननिर्देशेऽपि बहुवचनेन व्याख्यानं श्रीमलवगिरिपादैरपि श्रीवृहत्संग्रहणिवृत्तौ देवानामाहारोच्यासान्तरकाल-18
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२५]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
मानाधिकारे "दस वाससहस्साई समयाई जाव सागरं ऊणं दिवस मुहुत्तपुहुत्ता आहारुस्सास सेसाणं ॥ १ ॥" इत्यस्वा गाथाया अर्थकथनावसरे कृतमस्तीति सर्वं सुस्थमिति । अथ तदा मनुजानामेकत्वमुतं नानात्वमिति प्रश्नयन्नाह - 'तीसे 'मित्यादि, तस्यां समायां भगवन् ! भरते वर्षे कतिविधाः - जातिभेदेन कतिप्रकारा मनुष्या अनुषतवन्तः कालाकालान्तरमनुवृत्तवन्तः, सन्ततिभावेन भवन्ति स्मेत्यर्थः, भगवानाह - गौतम ! षडूविधाः, तद्यथा- पद्मगन्धाः १ मृगगन्धाः २ अममा ३ स्तेजस्तलिनः ४ सहाः ५ शनैश्चारिणः ६, इमे जातिवाचकाः शब्दाः संज्ञाशब्दत्वेन रूढाः, यथा पूर्वमेकाकाराऽपि मनुष्यजातिस्तृतीयारकप्रान्ते श्रीऋषभदेवेन उग्रभोगराजन्यक्षत्रियभेदैश्चतुर्द्धा कृता तथाऽत्राप्येषं षड् विधा सा स्वभावत एवास्तीति, यद्यपि श्री अभयदेवसूरिपादैः पञ्चमाङ्गषष्ठशतकसप्तमोद्देशके पद्मसमगन्धयः मृगमदगन्धयः ममीकाररहितास्तेजश्च तलं च रूपं येषामस्तीति तेजस्त लिनः सहिष्णवः - समर्थाः शनैः मन्दमुत्सुकत्वाभावाञ्चरन्तीत्येवंशीला इत्यन्वर्थता व्याख्यातास्ति, तथापि तथाविधसम्प्रदायाभावात् साधारणव्यञ्जकाभावेन तेनैषां जातिप्रकाराणां दुर्बोधत्वाजीवाभिगमवृत्तौ सामान्यतो जातिवाचकतया व्याख्यानदर्शनाच्च न विशेषतो व्यक्तिः कृतेति । गतः
प्रथमारकः ॥
तीसे णं समाए चाहिं सागरोनमकोडाकोटहिं काले वीइते अनंतेहिं वण्यपञ्जवेहिं अणतेहिं गंधपजवेहिं अनंतेहिं रसपज्जवेहिं अनंतेहिं फासपज्जवेहिं अणतेहिं संपयणपत्र बेधिं अमेहिं संठाणपञ्जवेर्हि अर्जतेहिं उचत्तपज्जवेहिं अणतेहि आउपज्जवेहिं अहिं
अथ द्वितिय्-आरकस्य स्वरुपम् वर्ण्यते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ----------------------
------ मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२६]
श्रीजम्यूगुरुलहुपजवेहि अणतेहिं जगुरुलदुपजवेहि अणंतेहिं उड्डाणकम्मबलबीरिअपुरिसकारपरकमपनवेहिं अणतगुणपरिहाणीए परिहायमाणे
वक्षस्कारे एत्य णं सुसमा णाम समाकाले पडिजिम समणाउसो !, जंबूहीवे णं भंते! दीवे इभीसे ओस पिणीए सुसमाए समाए उत्तमकट्ठ
द्वितीयारपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपरोयारे होत्या, गोअमा! बहुसमरमणिले भूमिभागे होत्या, से जहाणामए' काम.२६ या वृत्तिः आलिंगपुक्खरइ वा त चेव जं सुसमसुसमाए पुषवण्णि, णवरं णाणतं चषधणुसहस्समूसिआ एगे अट्ठावीसे पिट्टकरडुकसए छह॥१२॥
भत्तस्स आहारहे, चलसहि गइंदिआई सारक्खंति, दो पलिओवमाई आऊ सेस तं चेब, तीसे ण समाए चउबिहा मणुस्सा अणुसजित्था, तंजहा-एका १ पउरजंघा २ कुसुमा ३ सुसमणा ४ (सूत्र २६) तस्यां सुषमसुषमानाम्यां समायां चतसृषु सागरोपमकोटाकोटीषु काले व्यतिक्रान्ते सति, सूत्रे च तृतीयानिर्देश आर्षत्वात् , अथवा चतसृभिः सागरोपमकोटाकोटीभिः काले मिते गणिते वा इति मितादिशब्दाध्याहारेण योजना कार्या, अत्र च पक्षे करणे तृतीया ज्ञेया, अत्रान्तरे सुपमा नाम्ना समा-कालः प्रतिपन्नवान-लगति स्मेति वाक्यान्तरसूत्रयोजना, सुषमा चोत्सर्पिण्यामपि भवेदित्याह-'अणंतगुणपरिहाण्या परिहीयमाणा हानिमुपगच्छन् २' सूत्रे च द्विवचन-18 मनुसमयं हानिरिति हानेः पौनःपुन्यज्ञापनार्थ, अथ कालस्य नित्यद्रव्यत्वेन न हानिरुपपद्यते, अन्यथाऽहोरात्रं सर्वदा
R॥१२॥ 18| त्रिंशन्मुहर्त्तात्मकमेव तत् न स्यादित्यत आह-'अनन्तैर्वर्णपर्यवे'रित्यादि, वर्णा:-श्वेतपीतरकनीलकृष्णभेदात् पञ्च,
कपिशादयस्तु तत्संयोगजास्ततः श्वेतादेरन्यतरस्य वर्णस्य पर्यवा-बुद्धिकृता निर्विभागा भागाः एकगुणश्वेतत्वादयः ।
Cotatoeristoeroeseserserseserve
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------ मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[२६]
दीप
सकलजीवराशेरनन्तगुणाधिकास्तैरऽनन्ता ये गुणा-अनन्तरोक्तस्वरूपा भागास्तेषां परिहाणि:-अपचयस्तया प्रकारभूतया इत्यर्थः, हीयमानः २ सुषमा कालविशेष इति योज्य, एवमग्रेऽपि योजना कार्या, अथ यथेषामनन्तत्वमनुसमयमनन्तगुणहानिश्च तथा दयते-'तीसे णं समाए उत्तमकट्ठपत्ताएं' इति प्रागुक्तबलात् प्रथमसमये कल्पद्रुमपुष्पफलादिगतो यः श्वेतो वर्णः स उत्कृष्टः, तस्य केवलिप्रज्ञया छिद्यमाना यदि निर्विभागा भागाः क्रियन्ते तर्हि अनन्ता भवन्ति, तेषां | मध्यादनन्तभागात्मक एको राशिः प्रथमारकद्वितीयसमये त्रुव्यति, एवं तृतीयादिसमयेष्वपि वाच्यं यावत्प्रथमारकान्त्य-11 समयः, एषैव रीतिरवसर्पिणीचरमसमयं यावज्ज्ञेया, अत एव अनन्तगुणपरिहाण्येत्यत्र अनन्तगुणानां परिहाणिरिति षष्ठीतत्पुरुष एव विधेयो न तु अनन्तगुणा चासौ परिहाणिश्चेति कर्मधारयः, गुणशब्दश्च भागपर्यायवचनोऽनुयोगद्वारवृत्ति-18 कृता एकगुणकालकपर्यवविचारे सुस्पष्टमाख्यातोऽस्ति, एवं सति श्वेतवर्णस्यासन्न एष सर्वथोच्छेदः, तथा च सति श्वेतवस्तनोऽश्वेतत्वप्रसङ्गाः, एतच्च जातिपुष्पादिषु प्रत्यक्षविरुद्धं ?, उच्यते, आगमेऽनन्तकस्यानन्तभेदत्वात् हीयमानभागा-18 नामनन्तकमल्पं ततो मौलराशेभोगानन्तकं बृहत्तरमवगन्तव्यं, यदि नाम सिध्यत्स्वपि भव्येषु लोकेषु न तेषामनन्तका-18॥ लेनापि निर्लेपना आगमेऽभिहिता किं पुनः सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणानामुत्कृष्टवर्णगतभागानां !, न च ते समाता एवं सिज्यन्ति, इमे तु प्रतिसमयमनन्ता हीयन्ते इति महदृष्टान्तवैषम्यमिति वाच्यं, यतस्तत्र यथा सिध्यतां भव्यानां संख्यातता| तथा सिद्धिकालोऽनन्त एवमत्रापि यथा प्रतिसमयमनन्तानामेषां हीयमानता तथा हानिकालोऽवसर्पिणीप्रमाण एवं ततः[8
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
-------- मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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या इतिः
दीप
श्रीजम्बू- परमुत्सर्पिणीप्रथमसमयादौ तेनैव क्रमेण वर्द्धन्ते इति सर्व सम्यक्, एवं पीतादिषु वर्णेषु गन्धरसस्पर्शेषु च पयासम्म- २वक्षस्कारे
द्वीपशा-18|वमागमाविरोधेन भावनीयं, तथा अनन्तैः संहननपर्यवेरिति-संहननानि-अस्थिनिचयरचनाविशेषरूपाणि वनऋषभ-1| द्वितीयारन्तिचन्द्रीISIS नाराचऋषभनाराचनाराचार्द्धनाराचकीलिकासेवार्तभेदात् षट्, प्रस्तुते चारके आद्यमेव ग्राह्यं ऋषभनाराचादीमाम-18
काम्.२६ | भावात् , अन्यत्र यथासम्भवं तानि ग्राह्याणि, तत्पर्यवा अपि तथैव हापनीयाः, संहननेनैव शरीरे दार्यमुपजावते, ॥१२९॥ | तच्च सर्वोत्कृष्टं सुषमसुषमाद्यसमये, ततः परमनन्तैरनन्तैः पर्यवैः समये २ हीयत इति, तथा संस्थानानि-आकृतिरू-18
पाणि समचतुरस्रन्यग्रोधसादिकुब्जकबामनहुण्डभेदात् पोढा, तच्च तत्र प्रथमे समये सर्वोत्कृष्ट, ततः परं तथैव हीयत इति, तथोच्चत्वं-शरीरोत्सेधस्तच तत्र प्रथमे समये त्रिगब्यूतप्रमाणमुत्कृष्टं, ततः परं तत्प्रमाणतारतम्यरूपाः पर्यवाः अनन्ताः समये २ हीयन्ते, ननु उच्चत्वं हि शरीरस्य स्वावगाढमूलक्षेत्रादुपरितनोपरितननभःप्रदेशावगाहित्वं, तत्पर्यवाश्च एकद्वित्रिप्रतरावगाहित्वादयोऽसङ्ग्यातप्रतरावगाहित्वान्ता असङ्ख्याता एव, अवगाहनाक्षेत्रस्थासङ्ख्यातप्रदेशात्मकत्वात् , | तर्हि कथमेषामनन्तत्वं , कथं चैतेऽनन्तभागपरिहाण्या हीयन्ते इति चेत्, उभ्यते, प्रथमारके यत् प्रथमसमयोपन्नाना-18
मुत्कृष्ट शरीरोगत्वं भवति ततो द्वितीयादिसमयोत्पशानां यावतामेकनभ प्रतरावगाहिरवलक्षणपर्ववाणां हानिस्तावतारा 18| पुनलानन्तकं हीयमानं द्रष्टव्य, आधारहानावाधेयहानेरावश्यकत्वादिति, तेनोश्चत्वपर्यवाणामप्यनन्तत्वं सिखं, मभःप्रसरा| वगाहस्य पुनलोपचयसाध्यत्वात् , सथा आयु:-जीवितं तदपि तत्र प्रथमे समये विपल्योषमप्रमाणमुस्कृष्टं सदनन्तरं सत्य
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ----------------------
------ मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
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वा अपि अनन्ताः प्रतिसमय हीयन्ते, ननु पर्वषा एकसमयोना द्विसमयोना यावदसङ्ख्यातसमयौनोत्कृष्टा स्थितिरिति 8 स्थितिस्थानतारतम्यरूपा असङ्ख्याता एच, आयुःस्थितेरसवातसमयात्मकत्वात् , तर्हि कथं सूत्रेऽनन्तरायुःपर्यवैरित्युक्तं , ६ उच्यते, प्रतिसमय हीयमानस्थितिस्थानकारणीभूतानि अनन्तानि आयुःकर्मदलिकानि परिहीयन्ते, ततः कारणहानी ||
कार्यहानेरावश्यकत्वात् , तानि च भवस्थितिकारणत्वादायुःपर्यवा एवं अतले अनन्ता इति, तथा अनन्तैगुरुल|| घुपर्यवैरिति, गुरुलघुद्रव्याणि-बादरस्कन्धद्रव्याणि औदारिकबक्रियाहारकतैजसरूपाणि तत्पर्यवाः, तत्र प्रकृते वैक्रिया-1|| | हारकबोरनुपयोगस्तेन औदारिकशरीरमाश्रित्योत्कृष्टवर्णादयस्तत्राद्यसमये बोध्याः, ततः परं तथैव हीयन्ते तैजसमाश्रित्य कपोतपरिणामकजाठराग्निरुत्कृष्टस्तत्रादिसमये तदनन्तरं मन्दमन्दतरादिवीर्यकत्वरूप इति, तथा अनन्तैरगुरु-18 लघुपर्यवैरिति, अनुरुलघुद्रव्याणि सूक्ष्मद्रव्याणि, प्रस्तुते च पौद्गलिकानि मन्तव्यानि, अन्यथाऽपौद्गलिकानां धर्मास्तिकायादीनामपि पर्यवहानिप्रसङ्गः, तानि च कार्मणमनोभाषादिद्रव्याणि तेषां पर्यवैरनन्तः, तत्र कार्मणस्य सातवेद-18 नीयशुभनिर्माणसुस्वरसौभाग्याऽऽदेयादिरूपस्य बहुस्थित्यनुभागप्रदेशकत्वेन मनोद्रव्यस्य बहुग्रहणासन्दिग्धग्रहणझटितिग्रहणबहुधारणादिमत्तया भाषाद्रव्यस्योदात्तस्वगम्भीरोपनीतरागत्वप्रतिनादविधायितादिरूपतया च तत्रादिसमये उत्कृ-18
टता, ततः परं क्रमेणानन्ताः पर्यवा हीयन्ते, अनन्तैरुत्थानादिपर्यवैः, तत्रोत्थान-ऊर्ध्व भवनं कर्म-उत्क्षेपणावक्षेप-| 18णादि गमनादि वा बल-शारीरः प्राणः वीर्य-जीपोत्साहः पुरुषाकार:-पौरुषाभिमामः पराक्रमश्व-स एव साधिताभि-18
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दीप
अनुक्रम
[३९]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ----------------------
------ मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२६]
काम
टीप
श्रीजम्बू-18|मतप्रयोजना, अथवा पुरुषकार:-पुरुषक्रिया सा च प्रायः-स्त्रीक्रियातः प्रकर्षवती भवतीति तत्स्वभावत्वादिति विशे- वक्षस्कारे द्वीपशा- पेण तद्ग्रहणं, पराक्रमस्तु-शत्रुवित्रासनं, तत एते प्राक्तनसमये उत्कृष्टास्ततः परं परिपाख्या तथैव हीयन्ते, तथा द्वितीयारन्तिचन्द्री-18 "संघयणं संठाणं उच्चत्तं आउभं च मणुआणं । अणुसमर्थ परिहायर ओसप्पिणीकालदोसेणं ॥२॥कोहमयमाय-1 या वृत्तिः
लोभा ओसन्नं वड्डए अ मणुआणं । कूडतुलकूडमाणा तेणऽणुमाणेण सबंपि ॥२॥ विसमा अज! तुलाओ विसमाणि ॥१३०॥ अ जणवएसु माणाणि । विसमा रायकुलाई तेण उ विसमाई वासाई ॥३॥ बिसमेसु अ वासेसुं हुंति असाराई ओस
हिबलाई । ओसहिदुबल्लेण य आउं परिहायइ णराण ॥४॥ इति तण्डुलवैचारिके अवसर्पिणीकालदोषेण हानिरुक्ता सा बाहुल्येन दुःषमामाश्रित्य शेषारकेषु तु यथासम्भवं ज्ञेयेति, ननु नित्यद्रव्यस्थापि कालस्य कथं हानिरिति परकृ-18 | तासम्भवाशङ्कानिवारणार्थ वर्णादिपर्यवाणां हानिरुक्ता, ते च पुनलधर्मास्तहि अन्यधम्मैहीयमानैर्विवक्षितः कालः कथं हीयते इति महदसङ्गतं, तथा सति वृद्धाया वयोहानौ युवत्या अपि वयोहानिप्रसङ्ग इति चेत्, न, कालस्य कार्य-18 वस्तुमात्रे कारणत्वाङ्गीकारात्कार्यगता धर्माः कारणे उपचर्यन्ते कारणत्वसम्बन्धादिति । अथ प्रस्तुतारकस्य स्वरूपप्रश्नायाह-'जंबुद्दीवे णं भंते!' इत्यादि प्रायः सूत्रं गतार्थमेव, नवरं केवलं नानात्वं-भेदः, स चाय-चतुर्धनुःसहस्रो- ॥१३०॥ छूिताः क्रोशस्योच्चास्ते मनुजा इति योगः, मकारोऽलाक्षणिकः, अष्टाविंशत्यधिक पृष्ठकरण्डकशतं प्रथमारोकपृष्ठकरण्डुकानामर्धमितियावत् तेषां मनुजानामिति योगः, षष्ठमकेऽतिक्रान्ते आहारार्थः समुत्पद्यते इति योगः, सूत्रे सप्त
अनुक्रम
[३९]
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[२६]
दीप
अनुक्रम
[३९]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
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म्यर्थे पष्ठी सूत्रत्वात्, चतुःषष्टिं रात्रिन्दिवानि यावत् संरक्षन्ति, अपत्यानि ते मनुजा इति योगः, तत्र सप्तावस्थाक्रमः पूर्वोक्त एव, नवरं एकैकस्या अवस्थायाः कालमानं नव दिनानि अष्टौ घव्यश्चतुस्त्रिंशत् पलानि सप्तदश चाक्षराणि किश्चिदधिकानीति, चतुःषष्टेः सप्तभिर्भागे एतावत एव लाभात् यच्च पूर्वेभ्योऽधिकोऽपत्यसंरक्षणकालस्तत्कालस्य हीयमा| नत्वेनोत्थानादीनां हीयमानत्वाद् भूयसाऽनेहसा व्यक्तताभवनादिति, एवमग्रेऽपि ज्ञेयं, द्वे पल्योपमे आयुस्तेषां मनुजा| नामिति योगः, एवमन्यत्रापि यथासम्भवमध्याहारेण सूत्राक्षरयोजना कार्या, अन्यत् सर्वं सुषमसुषभोक्तमेवेति, अत्रापि यथोक्तमायुः शरीरोच्छ्रयादिकं सुषमायामादौ ज्ञेयं, ततः परं क्रमेण हीयमानमिति । अथात्र भगवान् स्वयमेवापृष्टा| नपि मनुष्य भेदानाह - 'तीसे ण' मित्यादि, अत्रान्वययोजना प्राग्वत्, एकाः १ प्रचुरजङ्घाः २ कुसुमाः ३ सुशमनाः ४ एतेऽपि प्राग्वज्जातिशब्दा ज्ञेयाः, अन्वर्धता चैवं- एकाः श्रेष्ठाः संज्ञाशब्दत्वान्न सर्वादित्वं प्रचुरजङ्घा:- पुष्टजङ्घाः नतु काकजङ्घा इति भावः, कुसुमसदृशत्वात् सौकुमार्यादिगुणयोगेन कुसुमाः पुंस्यपि कुसुमशब्दः, सुष्ठु अतिशयेन शमनं - शान्तभावो येषां ते तथा, प्रतनुकषायत्वात्, अत्र पूर्वोकषट्प्रकारमनुष्याणामभावादेतेऽन्ये जातिभेदाः । गतो द्वितीयारक इति ।
तीसे णं समाए तिर्हि सागरोवमकोडाकोडीहिं काले बीइकंते अनंतेहिं वण्णपञ्चवेहिं जाव अनंतगुणपरिहाणीए परिहायमाणी २ एत्थ णं सुसमदुस्समाणामं समा पडिवजिस समणाउसो, सा णं समा विहा विभज्जर पढमे तिभाए १ मज्झिमेतिभाए २
अथ तृतिय आरकस्य स्वरुपम् वर्ण्यते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], ------------------------
------ मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्मू
प्रत
द्वीपमा
सूत्रांक [२७]
न्तिचन्द्रीया वृतिः ॥१३१॥
पच्छिमे तिमाए ३ जंबुद्दीवेण भंते ! दीवे, स्मीसे ओसप्पिणीए सुसमदुस्समाए समार पढममज्झिमेसु तिभाएसु भरहस्स बासस्स केरि- वक्षस्कारे सए आवारभाषपडोआरे पुच्छा, गोअमा! बहुसमरमणिजे भूमिभागे होस्था, सो व गमो अवो णाणसं दो घणुसहस्साई हतीयारक: उर्दू उत्तेणं, सेसि च मणुआणं चउसद्विपिढकरंडुगा चउत्थभत्तस्स आहारत्ये समुप्पाइ ठिई पलिओवर्म एगूणासीई राइंदिआई 18 सारखंति संगोवेंति, जाव देवलोमपरिमाहिआ ण ते मणुआ पण्णत्ता समणाउसो!, सीसे णं भंते ! समाए पच्छिमे निभाए भरहस्स वासस्स केरिसए आधारभावपरीयारे होत्था, गोभमा! बहुसमरमणिजे मृमिभागे होत्या से जहा णामए आलिंगपुक्सरे इवा जाव मणीहिं उवसोभिए, तंजहा-कित्तिमेहिं चेव अकित्तिहिं घेव, तीसे गं भंते! समाए पच्छिमे तिभागे भरहे वासे मणुआणं केरिसए आयारभावपढोआरे होत्था ?, गोअमा ! वेसि मणुआणं छबिहे संधयणे छबिहे मंठाणे बहूणि धणुसयाणि उद्धं उच्चत्तेणं जहण्णेण संखिजाणि वासाणि उक्कोसेणं असंखिज्जाणि वासाणि आउथे पालंति पालित्ता अप्पेगइया णिरयगामी अप्पेगच्या तिरिअगामी अप्पेगड्या मणुरसगामी अप्पेगइया देवगामी अप्पेगइया सिझंति जाव सबनुक्साणमंतं करेंति (सूत्र २७)
व्याख्या प्राग्वत् , नवरं परिहायमाणी इत्यत्र स्त्रीलिङ्गनिर्देशः समाविशेषणार्थतेन समा काले इति पदद्वयं पृथक | मन्तव्यं, अयमेवाशयः सूत्रकृता 'सा णं समे'त्युत्तरसूत्र प्रादुश्चके इति, अथास्था एव विभागप्रदर्शमार्थमाह-~'सागमित्यादि, सा सुषमदुःषमा नाम्नी समा-तृतीयारकलक्षणा त्रिधा विमज्यते-विभागीक्रियते, तद्यथा-प्रथमस्तृत्तीची ।। भागः प्रथमखिभागः मयूरव्यसकादित्वात् पूरणप्रत्ययलोपः, एवमग्रेऽपि, अयं भावा-द्वयोः सागरोपमकोटाकोव्योखि
अनुक्रम [४०]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], -----------------------
------ मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[२७]
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भिर्भागे यदागतं तदेकैकस्य भागस्य प्रमाणं, तच्चेद-षट्पष्टिः कोटिलक्षाणां षट्षष्टिः कोटिसहस्राणां षटै कोटि
शतानां षट्षष्टिः कोटीनां षट्षष्टिलक्षाणां षट्पष्टिः सहस्राणां षटुं शतानां षट्पष्टिश्च सागरोपमाणां द्वौ च | सागरोपमत्रिभागौ, स्थापना चेय-६६६६६६६६६६६६६६, इति, अधाद्यभागयोः स्वरूपप्रश्नायाह-'जंबुद्दीवे ||
'मित्यादि, सर्वं गतार्थ, नानात्वमित्ययं विशेषः-द्वे धनुःसहस्र ऊर्बोच्चत्वेन क्रोशोच्चा इत्यर्थः, तेषां चर | मनुष्याणां चतुःषष्टिः पृष्ठकरण्डुकानि, अष्टाविंशत्यधिकशतस्यार्कीकरणे एतावत एव लाभात्, चतुर्थभक्केऽतिक्रान्ते | आहारार्थः समुत्पद्यते, एकदिनान्तरित आहार इत्यर्थः, स्थितिः पल्योपमं, एकोनाशीति रात्रिन्दिवानि संरक्षन्ति | सङ्गोपयन्ति, अपत्ययुगलकमित्यर्थः, तत्रावस्थाक्रमस्तथैव, नवरमेकैकस्या अवस्थायाः कालमान एकादशं दिनानि | सप्तदश घव्यः अष्टौ पलानि चतुस्त्रिंशच्चाक्षराणि किञ्चिदधिकानीति, एकोनाशीतेः सप्तभिर्भागे एतावत एव लाभात्, | अस्यां च भिन्नजातिमनुष्याणामनुषञ्जना नास्ति, तदा तेषामसंभवादिति संभाव्यते, तत्त्वं तु तत्त्वविद्ज्ञेयं, यत्तु-'उग्गा | भोगा रायन्न खत्तिआ संगहो भवे चउहा' इत्युक्तं तदरकान्त्यभागभावित्वेन नेहाधिक्रियते, नन्वस्याः समायास्त्रिधा | विभजनं किमर्थ ?, उच्यते, यथा प्रथमारकादौ त्रिपल्योपमायुषस्निगव्यूतोच्छ्यास्त्रिदिनान्तरितभोजना एकोनपञ्चाशदिनानि कृतापत्यसंरक्षणास्ततः क्रमेण कालपरिहाण्या द्वितीयारकादौ द्विपल्योपमायुषो द्विगव्यूतोच्छ्या द्विदिनान्तरितभोजनाश्चतुःषष्टिदिनानि कृतापत्यसंरक्षणास्ततोऽपि तथैव परिहाण्या तृतीयारकादौ एकपल्योपमायुषः एकगब्यूतो
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अनुक्रम [४०]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ----------------------
------ मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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श्रीजम्यू- च्छूया एकदिनान्तरितभोजना अशीतिदिनानि कृतापत्यसंरक्षणास्तदनन्तरमपि त्रिधाविभक्ततृतीयारकप्रथमत्रिभाग-8 वक्षस्कारे द्वीपशा- द्वयं यावत् , तथैव नियतपरिहाण्या हीयमाना युग्मिमनुजा अभूवन , अन्तिमत्रिभागे तु सा परिहाणिरनियता जातेति कुलकरा:
चन्द्राः। सूचनार्थ त्रिभागकरणं सार्थकमिति सम्भाव्यते, अन्यथा वा यथाऽऽगमसम्प्रदाय त्रिभागकरणे हेतुरवगन्तव्य इति ।श सू. २८ या वृचिः
अथ तृतीयारकस्वरूपप्रश्नायाह-तीसे ण' मित्यादि, यदेव दक्षिणार्द्धभरतस्वरूपप्रतिपादनाधिकारे व्याख्यातं तदत्र ॥१३२॥ सूत्रे निरवशेष ग्राह्यं-नवरमत्र कृष्यादिकर्माणि प्रवृत्तानीति कृत्रिमैस्तृणः कृत्रिमैर्मणिभिरित्युक्तं, अथात्रैव मनुजानां
| स्वरूपं पृच्छन्नाह-तीसे ण' मित्यादि, व्याख्या प्राग्वत् । अथ यथास्मिन् जगद्व्यवस्थाऽभूत् तदाह
तीसे गं समाए पच्छिमे तिभाए पलिओवमट्ठभागावसेसे एत्थ णं इमे पण्णरस कुलंगरा समुप्पज्जित्था, तंजहा-सुमई १ पढिस्सुई २ सीमकरे ३ सीमंधरे ४ खेमंकरे ५ सेमंधरे ६ विमलवाहणे ७ चक्खुम ८ जसमं ९ अभिचंदे १० चंदाभे ११ पसेणई १२ मरुदेवे १३ णामी १४ उसभे १५ चि। (सूत्र २८)
तस्याः समायाः पाश्चात्ये त्रिभागे-तृतीये त्रिभागे पल्योपमाष्टमभागावशेषे एतस्मिन् समये इमे-वक्ष्यमाणाः पञ्चदश कुलकरा-विशिष्टबुद्धयो लोकव्यवस्थाकारिणः कुलकरणशीलाः पुरुषविशेषाः समुपद्यन्ते-समुत्पन्नवन्तः, अत्राह|| कश्चित्-आवश्यकनियुक्त्यादिषु सप्तानां कुलकराणामभिधानादिह पश्चदशानां तेषामभिधानं कथं यदिषा भवतु
न तु स्थानांगादौ सप्तैव कुलकरा मणितास्तथाहि-अंबुद्दीने २ भारहे नासे इमीसे मोमप्पिणीए सत्त कुलगरा होत्या, तंजहा पवमित्यविमलवाहन ।
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अथ कुलकर-वक्तव्यता आरभ्यते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ----------------------
------ मूलं [२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
नामैतत् , पुण्यपुरुषाणामधिकाधिकश्यपुरुषवर्णनस्य न्याय्यत्वात् , परं पल्योपमाष्टभागावशिष्टतावचनं कालस्य सुतरां | बाधते अनुपपत्तेः, तथाहि-पल्योपमं किलासत्कल्पनया चत्वारिंशद्भागं परिकल्प्यते, तस्याष्टमो भागश्चत्वारिंशद्भागाः | पञ्च, तत्राप्याद्यस्य विमलवाहनस्यायुः पल्योपमदशभागस्ततश्चत्वारश्चत्वारिंशदागास्तदायुषि गताः, शेष एकः पल्यो| पमस्य चत्वारिंशत्तमः सववेयो भागोऽवतिष्ठते, स चक्षुष्मदादीनामसंख्येयपूर्वैर्नाभेः सङ्ख्येयपूर्वैः श्रीऋषभस्वामिन
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प्रत सूत्रांक
[२८]
दीप
eseatreeroecenecestseeperseceiverse
पाम १ जरामं ३ चतत्वमभिद । । तत्तो पसेणी ५ गुण मरदेव ६ व नाभी ७ ॥१॥ सिपबतु धीरुषभदेव संयुताः पंचदया भणिताः, तेष्वप्यभिचंद्रप्रसेनजितोरंतराले चन्द्रामो भषितः, एवं च सति कथमन्योन्य संगतिरिति चेत्, सत्यं, कुलकरा हि द्विविधा भवंति, कुलफरफरये नियुक्ताः सतन्त्रप्रपत्ताश, तत्र ये विमव्वादनादयो नियुकास्ते स्थानांगादी भगिता कुलकरकूखं कुर्वन्तः कुलकरा भाममेव लमित्रायेणोभयेऽप्युपात्ताः, यदुर्ग विवाषणयला-"यत्त | य सत्तमठाणाइएस दस कुलगरा दसमठाणे । पग्णसीए भनिभा पाणरस जंबुद्दीषस्स ॥१॥ सत्तम्हणेण जे विमत्याहणाई परेण से ण संगहिमा । भनिगोत्ति द्विअ ते कुरुगरतणं जेण कयतो ॥१॥ पण्णररा कुलगरतणसामण्णाभोप्ति सेऽवि संगहिमा । जत्थ दराई सत्तगमणिउत्तं तत्थ लिगमाहु ॥ ३॥" इति, याप्येवं । संगतिः धीजिनभागनिक्षमाधमणैरनिहिता, परं परमार्थचिन्तायामेवदभिप्रायः सम्यम् नावसीयते, यतो दंडनीतापसंगतेस्तावपस्यमेव, तथाहि-बिमलया-10 हनचक्षुष्मतीः काले तिरूपा दंडनीतिः १ यशस्विनभित्रयो। कालेऽल्पापराधिनां हेतिरूपा तदितरेषा तु मेतिरूपा दंडनीतिः १ प्रसेनजिम्मरदेवनाभीना कालेऽल्पापराधिना हाकाररूपा मध्यापराधिना मकाररूपा उत्कृष्ठापराधिनां च धिकाररूपा दंडनीतिः ३श्रीस्थानांगसूत्रादौ भणिता, इह तु विमलवाहनकाल हकार काररूपं नीतिद्वयं पश्यति, तथानाभिचंद्रादनु चंद्रागः प्रोक्तः, स्थानांगादी तु तन्नामापि नाति, तथा श्रीस्थानांगे सप्तमस्थानकेऽतीतानागतयोरसर्पियोः | सप्त कुलकरा भणिताः, दशमस्थानके च दश, तत्र नानामप्रसंग तिरियादि बहु बिचार्यमस्वतोऽसंगतिहेतुर्याचनाभेद एव, स च शीर्षप्रहेलिकापर्यंत संख्यायाख्यावसरे प्रदर्शितः । (इति ही वृत्ती)
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[४१]
श्रीशम्बू, २३
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------- मूलं [२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [२८]
या तिरुद्धमिव प्रातमा
दीप
श्रीजम्बू-श्चतुरशीत्या पूर्वलक्षैः शेषैश्चैकोननवत्या पक्षैः परिपूर्यते, तेन पूर्वेषां सुमत्यादिकुलकराणा महत्तमायुषां क्वावकाशः, वक्षस्कारे द्वीपशा
| उच्यते, आद्यस्य सुमतेस्तावत्पल्यदशमाश आयुः, ततो द्वादश वंश्यान् यावत् पूर्वदर्शितन्यायेनैकस्मिंश्चत्वारिंशत्त-18 कुलकरा: न्तचन्द्रा-18 मेऽवशिष्टभागेऽसख्येयानि पूर्वाणि तानि च यथोत्तरं हीनहीनानि नाभेस्तु सख्येयानि पूर्वाणीत्यादि, इत्थं चावि- २०
रुद्धमिव प्रतिभाति, यत्तु हारिभद्यामावश्यकवृत्तौ “पलिओवमदसमंसो पढमस्साउं तो असंखिजा । ते अणुपुधी ॥१३३॥ | हीणा पुवा नाभिस्स संखिज्जा ॥१॥” इति गाथाव्याख्याने मतान्तरेण नाभेरसख्येयपूर्वायुष्कत्वमुक्तं, तत्तु ।
कुलकरसमानायुष्कत्वेन कुलकरपलीना मरुदेच्या अप्यसंख्यपूर्वायुष्कतापत्तौ मुक्त्यनुपपत्तिरिति तत्रैव दूषितमस्तीति || |न कोऽपि परस्पर विरोधः, यच्चावश्यकादिषु विमलवाहनस्य पल्यदशमांशायुष्कत्वं तद्वाचनाभेदादवगन्तव्यं, यच
ग्रन्थान्तरे नामपाठभेदः सोऽपि तथैवेत्यत्र सर्वविदः प्रमाणमित्यलं विस्तरेण, अथ प्रस्तुतमुपक्रम्यते तद्यथेति । | तान् नामतो दर्शयति, सुमतिः १ प्रतिश्रुतिः २ सीमङ्करः ३ सीमन्धरः ४ क्षेमकरः ५ क्षेमन्धरः ६ विमलवाहनः ७
चक्षुष्मान ८ यशस्वी ९ अभिचन्द्रः १० चन्द्राभः ११ प्रसेनजित् १२ मरुदेवः १३ नाभिः १४ ऋषभ १५ इति, प्रयत्पुनः पद्मचरित्रे चतुर्दशानां कुलकरत्वमभिहितमत्र तु पञ्चदशस्य ऋषभस्यापि तद्भरतक्षेत्रप्रकरणे भरतभर्तुर्भरत- ॥१३॥ | नाम्नोऽपि महाराजस्व प्ररूपणाप्रक्रमितव्याऽस्तीति ज्ञापनार्थमिति । अथैते कुलकरत्वं कथं कृतवन्त इत्याह
तत्थ णं सुमई १ पडिस्सुइ २ सीमंकर ३ सीमंधर ४ खेमंकरा ५णं एतेसिं पंचण्डं पळाराणं हकारे णाम दण्डणीई होत्था, ते गं
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], -----------------------
------ मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[२९]
मणुभा हकारेणं दंढेणं हया समाणा लजिआ विलजिआ वेडा भीआ तुसिणीआ विणोणया चिट्ठति, तत्थ णं खेमंधर ६ विमलवाहण ७ चक्खुमं ८ जसमं ९ अमिचंदाणं १० एतेसि णं पंचण्डं कुलगराणं मकारे णाम दंडणी होत्या, ते णं मणुआ मकारेणं दंडेणं हया समाणा जाव चिट्ठति, तत्थ णं चंदाभ ११ पसेणइ १२ मरुदेव १३ णाभि १४ उसभाणं १५ एतेसि णं पंचण्हं कुलगराणं विकारे णाम दंडणीद होत्या, ते णं मणुआ धिक्कारेण दंडेणं हया समाणा जाव चिट्ठति (सूर्य २९) - 'तत्व णमित्यादि, तेषु पञ्चदशसु कुलकरेषु मध्ये सुमतिप्रतिश्रुतिसीमकरसीमन्धरक्षेमङ्कराणामेतेषां पञ्चानां कुलकराणां हा इत्यधिक्षेपार्थकः शब्दस्तस्य करणं हाकारो नाम दण्ड:-अपराधिनामनुशासनं तत्र नीति:-न्यायोड| भवत्, अत्रायं सम्प्रदायः-पुरा तृतीयारान्ते कालदोषेण व्रतभ्रष्टानामिव यतीनां कल्पद्रुमाणां मन्दायमानेषु स्वदेहा
वयवेष्विव तेषु मिथुनानां जायमाने ममत्वेऽन्यस्वीकृतं तमन्यस्मिन् गृह्णाति परस्परं जायमाने विषादे सदृशजनक-13 S|| तपराभवमसहिष्णवः आत्माधिक सुमतिं स्वामितया ते चक्रुः, स च तेषां तान् विभज्य स्थविरो गोत्रिणां द्रव्यमिव |
|ददी, यो यः स्थितिमतिचक्राम तच्छासनाय जातिस्मृत्या नीतिज्ञत्वेन हाकारदण्डनीतिं चकार, तां च प्रतिश्रुत्यादय-18 Iश्चत्वारोऽनुचक्रुरिति, तया च ते कीदृशा अभवन्नित्याह-'ते ण'मित्यादि, ते मनुजा णमिति प्राग्वत् , हाकारेण दण्डेन रहताः सन्तो लज्जिताः पीडिता व्यर्द्धाः-लज्जाप्रकर्षवन्त इत्यर्थः, एते त्रयोऽपि पर्यायशब्दा लज्जाप्रकृष्टतावचना
योकाः भीता-व्यक्तं तूष्णीका-मौनभाजो विनयावनता न तूलण्ठा इव निखपा निर्भया जल्पाका अहंयवश्च तिष्ठन्ति,
Eeseserserseatsterestratoroenese
अनुक्रम [४२]
poeaeseseaksesecever
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], -----------------------
------ मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्राक
श्रीजम्बू
18ते अनेनैव दण्डेन इतस्त्रमिवात्मानं मन्यमानाः पुनरपराधस्थाने न प्रवर्तन्त इत्याशयः, अत्र चादृष्टपूर्वशासनानां तेषां 8 द्वीपशा- 18 दण्डादिधातेभ्योऽप्यतिशायि मर्माविच्छासनमिदमिति हता इति वचनं, अथोत्सरकालवर्तिकुलकरकाले कि सैव दण्डन्तिचन्द्री- नीतिरन्या वेत्याशङ्कायां समाधत्ते-'तत्थ ण'मित्यादि, तत्र क्षेमन्धरविमलवाहन चक्षुष्मद्यशस्व्यभिचन्द्राणामेतेषां या प्रति पश्चानां कुलकराणां मा इत्यस्य निषेधार्थस्य करणं-अभिधानं माकारो नाम दण्डनीतिरभवत् , शेषं पूर्ववत्, आवश्य॥१३४ाकादो तु विमलवाहनचक्षुष्मतोः कुलकरयोर्या हाकाररूपा दण्डनीतिः यचाभिचन्द्रप्रसेनजितोरन्तराले चन्द्राभस्या
कथनमित्याद्यन्तरं तद्वाचनान्तरेणेति, अयमर्थ:-क्रमेणातिसंस्तवादिना जीर्णभीतिकत्वेन हाकारमतिकामत्सु अंकुशमिव । गम्भीरवेदिषु गजेषु युग्मिषु क्षेमन्धरः कुलकुञ्जरो 'दुश्चिकित्से हि चिकित्सान्तरं कार्यमिति द्वितीयां माकाररूपां दण्डनीतिं चकार, तां च विमलवाहनादयश्चत्वारोऽनुचक्रुः, अत्र सम्प्रदायविदा-महत्यपराधपदे माकाररूपां इतरत्र तु पूर्वैव, श्रीहेमसूरयस्तु ऋषभचरित्रे सप्तकुलकराधिकारे यशस्विवारके दण्डनीतिमाश्रित्य-"आगस्यल्पे नीतिमाद्यां, द्वितीयां। मध्यमे पुनः। महीयसि हे अपि (ते), स प्रायुक्त महामतिः ॥१॥" इत्याहुः। अथ तृतीयकुलकरपञ्चकव्यवस्थामाह
तत्थ णमित्यादि, इदं सूत्रं गतार्थ, नवरं घिगित्यधिक्षेपार्थ एव तस्य करणं-उच्चारणं धिकार, सम्प्रदायस्त्वयं-॥ I पूर्वनीती अतिक्रमत्सु तेषु त्रपामर्यादे इव कामुकेषु चन्द्राभनामा धिक्कारदण्डनीति विदघे, तां च प्रसेनजिदादयश्चत्वारोऽ
नुकृतवन्तः, महत्यपराधे धिक्कारो मध्यमजघन्ययोस्तु माकारहाकाराविति, अन्यास्तु परिभाषणाद्या भरतकाले, 'परि ।
29290920020302030202020
अनुक्रम
[४२]
१३॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
-------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
Secesected
[२९]
भासणा उ पढमा मंडलिबंधमि होइ पीआ य । चारगछविछेआई मरहस्स चउबिहा नौई ॥१॥" [परिभाषणा तु प्रथमा मण्डलबन्धे भवति द्वितीया च । चारक छविच्छेदादि भरतस्य चतुर्विधानीतिः॥१॥] इति वचनात् , ऋषभ-18 काळे इत्वन्ये, अथ पञ्चदशे कुलकरे कुलकरत्वमात्रं चतुर्दशसाधारणमित्यसाधारणपुण्यप्रकृत्युदयजन्मत्रिजगजनपूज-18 नीयतां प्रचिकटयिषुर्यथाऽस्मादेव लोके विशिष्टधर्माधर्मसंज्ञाव्यवहाराः प्रावर्तन्त इत्याह
णानिस्स णं कुलगरस्स मरुदेवाए भारिआए कुञ्छिसि एत्थ गं उसहे पाम अरहा कोसलिए पढमरावा पढमजिणे पढमकेवली पढमतित्थकरे पदमधम्मवरचकवट्ठी समुप्पजित्थे, तए णं उसमे अरहा कोसलिए वीस पुचसयसहस्साई कुमारवासमझे वसई वसइत्ता तेवहि पुषसयसहस्साई महारायवासमझे वसइ, तेवहि पुबसयसहस्साई महाराववासमको वसमाणे लेहाइआओ गणिअप्पहाणाओ सउणरुअपज्जवसाणाओ बावत्तरि कलामो चोसहि महिलागुणे सिप्पसवं च कम्माण तिणिवि पवाहिआए उबदिसइत्ति, उवदिसित्ता पुत्तसर्य रजसए अमिसिंचइ, अमिर्सिचित्ता तेसीई पुत्वसयसहस्साई महारायवासमो बसह, पसित्ता जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे चित्तबहुले तस्स में चिचबहुलस्स णवमीपक्खेणं दिवसस्स पच्छिमे भागे चहत्ता हिरणं बदत्ता सुवणं चइता कोर्स कोडागार चहत्ता बलं चइत्ता वाहणं चइसा पुरं चइत्ता अंतेउर चइता विठलधणकणगरयणमणिमोतिअसंखसिलप्पकालरतरयणसंतसारसावइज विच्छङ्कयित्ता विगोवइत्ता दायं दाइआणं परिभाएत्ता सुदंसणाए सीआए सदेवमणुआसुराए परिसाए समणुगम्ममाणमग्गे संखिदचकिणंगलिअमुहमंगलिअपूसमाणववद्धमाणगाइक्खगलंखमंखघंटिअगणेहिं
अनुक्रम [४२]
jimmitraryay
अथ कला-आदि एवं ऋषभस्य दीक्षा वर्ण्यते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ----------------------
------ मूलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्यू
प्रत
सूत्रांक
द्वीपशान्तिचन्द्रीया कृत्तिः ॥१३५॥
Geeeee eeeee
ताई इटाहिं कताहिं पियाहिं मणुण्णाहि मणामाहिं उरलाहि कहाणाहिं सिवाहिं धन्नाहिं मंगलाहिं सस्सिरिाहिं हिययगमणि- वक्षस्कारे जाहिं हिययपल्हायणिजाई कण्णमणणिबुईकराहिं अपुणरुत्ताहिं अट्ठसइआर्हि वग्गूहि अणवरयं अमिणदंता य अभिधुणंता य एवं 18 कलादिकबवासी-जय जय नंदा! जय जय भहा! धम्मेणं अभीए परीसहोवसम्गाणं खंतिखमे भयभेरवाणं धम्मे ते अविग्धं भवउ- पभदीक्षाच त्तिकट्ट अमिणति अ अमिथुणंति अ । तए थे उसमे अरहा कोसलिए णवणमालासहस्सेहिं पिच्छिजमाणे २ एवं जाव णिग्गच्छइ जहा उबबाइए जाब आउलबोलबहुलं णभं करते विणीआए रायहाणीए मझमझेणं णिग्गच्छइ आसिअसंमजिअसित्तसुइकपुष्फोषयारकलिअं सिद्धत्यवणविउलरायमगं करेमाणे हयगयरहपहकरेण पाइकचडकरेण य मंदं २ उद्धतरेणुयं करेमाणे २ जेणेव सिद्धत्थवणे उजाणे जेणेब असोगवरपायवे तेणेव उवागच्छति २ असोगवरपायवस्स अहे सी ठावेइ २ चा सीआओ पच्चोरुहाइ २ चा सयभेवाभरणालंकार ओमुअइ २ ता सयमेव चाहिं अट्टाहिं लो करेइ २ ता छट्टेणं भत्तेणं अपाणएणं आसाढाहिं णक्खत्तेणं जोगमुवागएणं उग्गाणं भोगाणं राइन्नाथ खत्तिभाणं चउदि सहस्सेहिं सद्धिं एगं देवदूसमादाय मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पञ्चइए (सूत्रं ३०)
'णाभिस्स णमित्यादि, नाभेः कुलकरस्य मरुदेव्या नान्या भार्यायाः कुक्षौ एतस्मिन् समये 'उसहति ऋषभः ॥१३५॥ | संयमभारोद्वहनाहषभ इव ऋषभः, वृषभो वेति संस्कारः तत्र वृषभ इव वृषभ इति वा, वृषेण भातीति वा वृषभः, ISI एवं च सर्वेऽप्यहन्त ऋषभा वृषभा वा इत्युच्यन्ते तेन ऊर्वोर्वृषभलाञ्छनत्वेन मातुश्चतुर्दशस्वमेषु प्रथमं वृषभदर्शनेन ।
अनुक्रम [४३]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------ मूलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३०]
च ऋषभो वृषभो वेति नाम्ना, कोशलायां-अयोध्यायां भवः कौशलिकः भाविनि भूतबदुपचार इति न्यायादेतद्विशे-II पणं, अयोध्यास्थापनाया ऋषभदेवराज्यस्थापनासमये कृतत्वात् , तद्व्यक्तिस्तु भरतक्षेत्रनामान्वर्थकथनावसरे 'धणवई-18 मतिनिम्माया एतत्सूत्रव्याख्यायां दर्शयिष्यते, अर्हन्तश्च पार्श्वनाथादय इव केचिदनङ्गीकृतराजधर्मका अपि स्युरित्यसौ केन क्रमेणाहन्नभूदित्याह-प्रथमो राजा, इहावसर्पिण्यां नाभिकुलकरादिष्टयुग्मिमनुजैः शक्रेण च प्रथममभि-15
पित्तत्वात् , प्रथमजिनः प्रथमो रागादीनां जेता, यद्वा प्रथमो मनःपर्यवज्ञानी राज्यत्यागादनन्तरं द्रव्यतो भावतश्च । IS साधुपदवतित्वे, अत्रावसप्पिण्यामस्यैव भगवतः प्रथमतस्तद्भवनात् , जिनत्वं चावधिमनःपर्यवकेवलज्ञानिनां स्थानाले
श सुप्रसिद्धं, अवधिजिनत्वे तु व्याख्यायमानेऽक्रमबद्धं सूत्रमिति, केवलिजिनत्वे चोत्तरग्रन्धेन सह पौनरुक्त्यमिति व्याख्या-18 IS नासङ्गतिः श्रोतृणां प्रतिभासेत, प्रथमकेवली-आद्यसर्वज्ञः, केवलित्वे च तीर्थकृन्नामोदयतीत्याह-प्रथमतीर्थकर:-आद्य-| IS चतुर्वर्णसङ्घस्थापकः, उदिततीर्थकृन्नामा च कीदृशः स्यादिति-प्रथमो धर्मवरो-धर्मप्रधानश्चक्रवत्ती, यथा चक्रवत्तीं सर्व-19
त्राप्रतिहतवीर्येण चक्रेण वर्त्तते तथाऽयमपीति भावः, समुदपद्यत-समुत्पन्नवानित्यर्थः, अथ यथा भगवान् बयः प्रतिपन्न-18 वान तथाऽऽह-'तए णमित्यादि, ततो जन्मकल्याणकानन्तरमित्यर्थः, ऋषभोऽहन कौशलिकः विंशति पूर्वशत-1||
सहस्राणि-पूर्वलक्षाणि भावप्रधानत्वानिर्देशस्य कुमारत्वेन-अकृताभिषेकराजसुतत्वेन वास:-अवस्थानं तन्मध्ये वसति, 18 'कुमारवासमग्झावसई' इति पाढे तु कुमारषासमध्यावसति आश्रयतीत्यर्थः, उपित्वा च त्रिषष्टिपूर्वलक्षाणि अत्रापि
अनुक्रम [४३]
jimmitrinyaay
~283
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[३०]
दीप
अनुक्रम
[४३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [३०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री -
या वृचि:
॥१३६॥
भावप्रधानो निर्देश इति महाराजत्वेन साम्राज्येन वासः - अवस्थानं तन्मध्ये वसति, तत्र वसंश्च कथं प्रजा उपचक्रे | इत्याह-'तेबहिं' इत्यादि, त्रिषष्टिं पूर्वलक्षाणि यावत् महाराजवासमध्ये वसन् लिपिविधानादिका गणितं-अङ्कविद्या ध| र्मकर्मव्यवस्थितौ बहूपकारित्वात् प्रधाना यासु ताः शकुनरुतं-पक्षिभाषितं पर्यवसाने प्रान्ते यासां तास्तथा, द्वासप्तति| कलाः, कलनानि कला विज्ञानानी त्यर्थस्ताः कलनीय भेदात् द्वासप्ततिः अर्थात्, प्रायः पुरुषोपयोगिनीः, चतुःषष्टिं महिलागुणान् स्त्रीगुणान्, कर्म्मणां जीवनोपायानां मध्ये शिल्पशतं च विज्ञानशतं च कुम्भकारशिल्पादिकं त्रीण्यप्येतानि वस्तूनि प्रजाहिताय - लोकोपकारायोपदिशति, अपिशब्द एकोपदेशकपुरुषतासूचनार्थः, वर्त्तमाननिर्देशश्चात्र सर्वेषामाद्यतीर्थङ्कराणामयमेवोपदेशविधिरिति ज्ञापनार्थं, यद्यपि कृषिवाणिज्यादयो बहवो जीवनोपायास्तथापि ते पश्चात्काले प्रादु| र्बभूवुः भगवता तु शिल्पशतमेवोपदिष्टं अत एवाचार्योपदेशजं शिल्पमनाचार्योपदेशजं तु कर्मेति शिल्पकर्म्मणोर्विशेषमामनन्तीति, श्रीहेमसूरिकृतादिदेवचरित्रे तु 'तृणहारकाष्ठहार कृषिवाणिज्यकान्यपि । कर्माण्यासूत्रयामास, लोकानां | जीविताकृते ॥ १ ॥ इत्युक्तमस्ति तदाशयेन तु कर्म्मणामित्यत्र द्वितीयार्थे पछी ज्ञेया, तथा च कर्माणि जघन्यमध्य|मोत्कृष्ट भेदतस्त्रीण्यप्युपदिशतीत्यपि व्याख्येयं शिल्पशतं च पृथगेवोपदिशतीति ज्ञेयमिति, अथात्र सूत्रे सङ्क्षेपतः प्रोचा विस्तरतस्तु श्रीराजप्रश्नीयादिसूत्रादर्शेषु दृश्यमाना द्वासयतिकलास्तत्पाठोपदर्शनपूर्वकं वित्रियन्ते, यथा- "लेहं १ गणिअं २ रूवं ए नई ४ गीअं ५ वाइअं ६ सरगयं ७ पोक्खरगयं ८ समता ९ जूअं १० जणवार्य ११ पासयं १२
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~284~
२वक्षस्कारे कलादि ऋ षभदीक्षाच सू. ३०
॥१३६॥
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[३०]
दीप
अनुक्रम
[४३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [३०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
अट्ठावयं १३ पोरक १४ दगमट्टि १५ अन्नविहिं १६ पाणविहिं १७ वत्थविहिं १८ विलेवणविहिं १९ सयणविहिं २० | अजं २१ पहेलिअं २२ मागहिअं २३ गाहं २४ गीअं २५ सिलोगं २६ हिरण्णजुत्तिं २७ सुवण्णजुत्तिं २८ चुण्णजुन्तिं आभरणविहिं ३० तरुणीपरिकम्मं ३१ इत्थिलक्खणं ३२ पुरिसलक्खणं ३३ हयलक्खणं ३४ गयलक्खणं ३५ गोलक्खणं ३६ कुकुडलक्खणं ३७ छत्तलक्खणं ३८ दंडलक्खणं ३९ असिलक्खणं ४० मणिलक्खणं ४१ कागणिलक्खणं | ४२ वत्थुविनं ४३ धावारमाणं ४४ नगरमाणं ४५ चारं ४६ पडिचारं ४७ वूह ४८ पडिवूहं ४९ चकवूह ५० गरु. डबू ५१ सगडवू ५२ जुद्धं ५३ नियुद्धं ५३ जुद्धातियुद्धं ५५ दिडिजुद्धं ५६ मुट्ठियुद्धं ५७ बाहुयुद्धं ५८ ल्यायुद्धं ५५ इसत्थं ६० छरुप्पवायं ६१ धणुवेयं ६२ हिरण्णपार्ग ६३ सुवण्णपागं ६४ सुत्तखे ६५ वत्थखेडुं ६६ नालिआखेडुं ६७ | पत्तच्छे ६८ कडच्छेज ६९ सज्जीवं ७० निज्जीवं ७१ सउणरुअ ७२ मिति, अत्र लेहमित्यादीनि द्वासप्ततिपदानि | राजप्रश्रीयानुसारेण द्वितीयान्तानि प्रतिभासन्ते इत्यत्रापि व्याख्यायां तथैव दर्शयिष्यन्ते, समवायाङ्गानुसारेण वा | विभक्तिव्यत्ययेन प्रथमान्ततया स्वयं योजनीयानीति, तत्र लेखनं लेख:- अक्षरविन्यासस्तद्विषया कला-विज्ञानं लेख एवोच्यते, तं भगवानुपदिशतीति प्रकृते योजनीयं एवं सर्वत्र योजना कार्या, स च लेखो द्विधा-लिपिविषयभेदात्, तत्र लिपिरष्टादशस्थानोक्ता, अथवा लाटादिदेशभेदतस्तथाविधविचित्रोपाधिभेदतो वाऽनेकविधेति, तथापि पत्रवस्क| लकाष्ठदन्त लोहताखरजतादयोऽक्षराणामाधारास्तथा लेखनोत्किरणस्यूतव्यूतच्छिन्नभिन्नदग्धसङ्क्रान्तितोऽक्षराणि भव
Fur Ele&P Cy
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
---------- मूलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
18 कलादि ऋ
प्रत
म.३०
सूत्रांक [३०]
श्रीजम्बू-
1न्तीति, विषयापेक्षयाऽप्यनेकधा स्वामिभृत्यपितृपुत्रगुरुशिष्यभार्यापतिशत्रुमित्रादीना लेखविषयाणामनेकत्वात्तथावि-18 वक्षस्कारे द्वीपशा- धप्रयोजनभेदाच, अक्षरदोषाश्चैते-'अतिकाय॑मतिस्थौल्यं, वैपम्यं पशिवक्रता । अतुल्यानां च सादृश्यमविभागोऽवयन्तिचन्द्री18 वेषु च ॥१॥ इति १, तथा गणित-सङ्ग्यानं सङ्कलिताद्यनेकभेदं पाटीप्रसिद्धं २ रूपं-लेप्यशिलासुवर्णमणिवस्त्रचित्रादिषु 81
पभदीक्षाच या वृत्तिः
18 रूपनिर्माणं ३ नाव्यं साभिनयनिरभिनयभेदभिन्नं ताण्डवं ४ गीत-गन्धर्वकलां गानविज्ञानमित्यर्थः ५ वादितं-वाद्यं ४ ॥१३७॥18॥ ततविततादिभेदभिन्नं ६ स्वरगतं गीतमूलभूतानां पडऋषभादिस्वराणां ज्ञानं ७ पुष्करगतं पुष्करं-मृदङ्गमायादिभेदभिन्न
तद्विषयकं विज्ञान, वाद्यान्तर्गतत्वेऽप्यस्य यत्पृथक्कथनं तत्परमसङ्गीताङ्गत्वख्यापनार्थ ८ समतालं-गीतादिमानकालस्तालः स समोऽन्यूनाधिकमात्रिकत्वेन यस्माद् ज्ञायते तत् समतालं विज्ञानं, क्वचित्तालमानमिति पाठः ९ धूतं सामान्यतः प्रतीतं १० जनवादं द्यूतविशेष ११ पाशकं-प्रतीतं १२ अष्टापदं-शारिफलकद्यूतं तद्विषयककलां १३ पुरःकाव्यमिति पुरतः पुरतः काव्यं शीघ्रकवित्वमित्यर्थः १४ 'दगमहिमिति दकसंयुक्तमृत्तिका विवेचकद्रव्यप्रयोगपूर्विका तद्विवे
धनकलाप्युपचाराद्दकमृत्तिका तां १५ अन्नविधि-सूपकारकलां १६ पानविधि-दकमृत्तिकाकलया प्रसादितस्य सहज- || निर्मलस्य तत्तत्संस्कारकरणं, अथवा जलपानविधि जलपानविषये गुणदोषविज्ञानमित्यर्थः, यथा 'अमृतं भोजनस्या, IN ॥१३७॥
भोजनान्ते जलं विष'मित्यादि, १७ वस्त्रविधि-वस्रस्य परिधानीयादिरूपस्य नवकोणदैविकादिभागयथास्थाननिवेशादिविज्ञानं, बानादिविधिस्तु अनन्तविज्ञानान्तर्गत इति नेह गृह्यते १८ विलेपनविधि-यक्षकईमादिपरिज्ञानं १९ शय
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------ मूलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३०]
नविधि-शयनं शय्या-पल्यङ्कादिस्तद्विधिः, स चै-"कर्माजलं यवाष्टकमुदरासक्तं तुपैः परित्यक्तम् । अङ्गलशतं नृपाणां || महती शय्या जयाय कृता ॥१॥ नवतिः सैव पडूना द्वादशहीना त्रिषट्कहीना च। नृपपुत्रमन्निबलपतिपुरोधसां स्युर्यथासक्यम् ॥२॥ अर्द्धमतोऽष्टांशोनं विष्कम्भो विशुद्धकर्मणा प्रोक्तः। आयामत्यंशसमः पादोच्छ्रायः सकुप्यशिरा॥३॥"इत्यादिक विज्ञानं, अथवा शयनं-स्वमं तद्विषयको विधिस्तं, यथा पूर्वस्यां शिरः कुर्या'दित्यादिकं विधि २० आया-सप्तचतुःकलगणादिव्यवस्थानिबद्धां मात्राच्छन्दोरूपां २१ प्रहेलिका-गूढाशयपद्यं २२ मागधिकां-छन्दोविशेष, तल्लक्षणं चेदं-विसमेसु दुन्नि । टगणा समेसु पो टो तओ दुसुवि जत्थ। लहुओ कगणो लहुओ कगणोतं मुणह मागहि ॥शा ति२२ [द्वित्रिचतुःपञ्चषड्मा|त्रिका गणाः कचटतपसंज्ञाः] गाथा-संस्कृतेतरभाषानिवद्धामार्यामेव २४ गीतिका पूर्वार्द्धसदृशाऽपरार्द्धलक्षणामार्यामेव । || २५ श्लोक-अनुष्टुविशेष २६ हिरण्ययुकिं' हिरण्यस्थ-रूप्यस्य युकिं-यथोचितस्थाने योजनं २७ एवं सुवर्णयुक्ति २८
चूर्णयुक्ति-कोष्ठादिसुरभिद्रव्येषु चूणींकृतेषु तत्तदुचितद्रव्यमेलनं २१ आभरणविधि व्यक्तं ३० तरुणीपरिकर्म-युवतीनामङ्गसक्रियां वर्णादिवृद्धिरूपां ३१ स्त्रीलक्षणपुरुषलक्षणे सामुद्रिकप्रसिद्धे ३२-३३, हयलक्षणं-'दीर्घग्रीवाक्षिकूट'-18 इत्यादिकमवलक्षणविज्ञानं ३४ गजलक्षणं 'पञ्चोन्नतिः सप्त मृगस्य दैर्घ्यमष्टौ च हस्ताः परिणाहमानम् । एकद्विवृद्धावथ | मन्दभद्रौ, सङ्कीर्णनागोऽनियतप्रमाणः ॥१॥” इत्यादिकं ज्ञानं ५५ 'गोणलक्षणं ति गोजातीयलक्षणं 'सामाबिलरूक्षाक्ष्यो मूषिकनयनाश्च न शुभदा गावः' इत्यादिकं ३६ कुर्कुटलक्षणं-'कुर्कुटजतनुरुहाङ्गुलिस्ताम्रवननखचूलिकः सितः'
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------- मूलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३०]
श्रीजम्ब-शा इत्यादिकं ३७ छवलक्षणं यथा चक्रिणां छत्ररत्नस्य ३८ दण्डलक्षणं-यट्यातपत्राऋशवेवचापवितानकुन्तध्वजचामरा- २वक्षस्कारे
द्वीपशा-राणाम् । व्यापीत १ तत्री २ मधु ३ कृष्ण ४ वणों, वर्णक्रमेणैव हिताय दण्डाः॥१॥ मन्त्रि १भू २ धन ३ कुल ४ लाद न्तिचन्द्री
पभदीक्षाच यावहा रोग ५ मृत्यु ६ जननाश्च पर्वभिः । ब्यादिभिर्द्विकविवर्द्धितैः क्रमाद्, द्वादशान्तविरतैःसमैः फलम् ॥२॥ या वृत्तिः
यात्राप्रसिद्धिः १ द्विपा विनाशो २, लाभाः ३ प्रभूता वसुधाऽऽगमश्च ४ । वृद्धिः ५ पशूनामभिवान्छिताप्ति ६-RI ॥१३८॥ ख्यादिष्वयुग्मेषु तदीश्वराणाम् ॥ ३॥" इत्यादि ३९ असिलक्षणं 'अङ्गलशतार्द्धमुत्तम ऊनः स्यात्पञ्चविंशति खगः।।
अंगुलमानाद्-ज्ञेयो व्रणोऽशुभो विषमपर्वस्थः ॥ १॥ अत्र व्याख्या-अङ्गलशतार्द्धमुत्तमः खगः पञ्चविंशत्यङ्ग्लानि । ऊनः, अनयोः प्रमाणयोर्मध्यस्थितः पञ्चाशदङ्गलादनः पञ्चविंशतेरधिको मध्यमः, अङ्गलमानाद्-अङ्गलप्रमाणाद् यो व्रणो विषमपर्वस्थ:-विषमपर्चाङ्गुले स्थितः प्रथमतृतीयपश्चमसप्तमादिष्वङ्गलेषु स्थितः सः अशुभः, अर्था|देव समाङ्गलेषु द्वितीयचतुर्थषष्ठाष्टमादिषु यः स्थितः स शुभः, मिश्रेषु समविषमाङ्गुलेषु मध्यम इत्यादि ४०, मणिलक्षणं रत्नपरीक्षाग्रन्थोक्तकाकपदमक्षिकापदकेशराहित्यसशर्करतास्वस्ववर्णोचितफलदायित्वादिमणिगुणदोषविज्ञानं ४१ काक-18 णी-चक्रिणो रत्नविशेषस्तस्य लक्षणं-विषहरणमानोन्मानादियोगप्रवकत्वादि ४१ वास्तुनो-गृहभूमेर्विद्या वास्तुशा-18 ११३८॥ खप्रसिद्धं गुणदोषविज्ञानं ४२ स्कन्धावारस्य मान-"एकेभैकरथाख्यश्वाः, पत्तिः पञ्चपदातिका । सेना सेनामुखं । गुल्मो, वाहिनी पृतना चमूः॥१॥ अनीकिनी च पचेः स्थादिभायैत्रिगुणैः क्रमात् । दशाकिन्योऽक्षौहिणी'त्यादि।
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------ मूलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३०]
नगरमानं द्वादशयोजनायामनवयोजनव्यासादिपरिज्ञान, उपलक्षणाच कलशादिनिरीक्षणपूर्वकसूत्रन्यासयथास्थानवर्णादिव्यवस्थापरिज्ञान १५ चारो-ज्योतिश्चारस्तद्विज्ञान ४६ प्रतिचारः-प्रतिकूलश्चारो ग्रहाणां वक्रगमनादिस्तत्परिज्ञान अथवा प्रतिचरणं प्रतिचारो-रोगिणः प्रतीकारकरणं तद्ज्ञानं ४७ व्यूह-युयुत्सूनां सैन्यरचनां यथा चक्र| व्यूहे चक्राकृतौ तुम्बारकप्रध्यादिषु राजन्यकस्थापनेति ४८, प्रतिव्यूह-तत्प्रतिद्वन्द्विना तङ्गोपायप्रवृत्तानां न्यूह ४९ सामान्यतो न्यूहान्तर्गतत्वेऽपि प्रधानत्वेन त्रीन् न्यूहविशेषानाह-चक्रव्यूह-चक्राकृतिसैन्यरचनामित्यर्थः ५०, गरुडव्यूह-गरुडाकृतिसैन्यरचनामित्यर्थः ५१ एवं शकटब्यूह ५२ युद्धं कुर्कुटानामिव मुण्डामुण्डि शृशिणामिव
शृङ्गाङ्गि युयुत्सया योधयोर्वल्गनं ५३ नियुद्ध मलयुद्धं ५४, युद्धातियुद्ध-खगादिप्रक्षेपपूर्वकं महायुद्धं यत्र प्रतिMS द्वन्द्विहतानां पुरुषाणां पातः स्यात् ५५ दृष्टियुद्ध-योधप्रतियोधयोश्चक्षुषोर्निनिमेषावस्थानं ५६ मुष्टियुद्ध-योधयोः । | परस्परं मुध्या हमनं ५७ बाहुयुद्धं योधप्रतियोधयोः अन्योऽन्यं प्रसारितबाहोरेव निसया वल्गनं ५८ लतायुद्ध योधयोः यथा लता वृक्षमारोहन्ती आमूलमाशिरस्तं वेवेष्टि तथा यत्र योधः प्रतियोधश(री)रं गाद निपीच्च भूमी पतति | तलतायुद्धं ५९ 'इसत्य'ति प्राकृतशैल्या इषुशास्त्रं नागवाणादिदिव्यास्त्रादिसूचक शास्त्रं ६० 'छरुप्पवायंति सरुः खड्गमुष्टिस्तदवयवयोगात् स्सरुशब्देनात्र खड्ग उच्यते, अवयवे समुदायोपचारः तस्य प्रवादो यत्र शास्त्रे तत्सरुप्रवाद, खगशिक्षाशास्त्रमित्यर्थः, प्रश्नव्याकरणे तु सरुमगतमिति पाठः ६१, धनुर्वेद-धनुःशास्त्र ६२, हिरण्यपा
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
-------- मूलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक [३०]
श्रीजम्ब-18|| कसुवर्णपाको-रजतसिद्धिकनकसिद्धी ६३, ६४, 'मुत्तखेड'ति. सूत्रखेल-सूत्रक्रीडा, अत्र खेलशब्दस्य खेड इत्यादेश द्वीपशा-||६५, एवं वखखेड्डमपि ६६, एतत्कलाद्वयं लोकतः प्रत्येतव्यं, 'नालिआखेडंति नालिकाखेलं द्यूतविशेष मा भूदिष्ट
पुरुषकला: न्तिचन्द्री-18 दायविपरीतपाशकनिपातनमिति नालिकया यत्र पाशकः पात्यते, घूतग्रहणे सत्यपि अभिनिवेशनिबन्धनत्वेन नालिका- स्त्रीगुणाः । या वृचिः
| खेले, अप्राधान्यज्ञापनार्थ भेदेन ग्रहः ६७, पत्रच्छेद्य अष्टोत्तरशतपत्राणां मध्ये विवक्षितसङ्ख्याकपत्रच्छेदने हस्तलाघवं । ॥१३९॥ ||५८, कटच्छेद्यं कर्टवत् क्रमच्छेद्य वस्तु यत्र विज्ञाने तत्तथा, इदं च व्यूतपटोद्वेष्टनादौ भोजनक्रियादौ चोपयोगि ५९.
'सजीवंति सज्जीवकरणं मृतधात्वादीनां सहजस्वरूपापादनं ७०, 'निज्जीव'ति निर्जीवकरणं हेमादिधातुमारणं, || रसेन्द्धस्य मर्काप्रापणं वा ७१, शकुनरुतं, अत्र शकुनपदं रुतपदं चोपलक्षणं, तेन वसन्तराजायुक्तसर्वशकुनसंग्रहः ।।
गतिचेष्टादिग्बलादिपरिग्रहश्च ७२, इति द्वासप्ततिः पुरुषकलाः । चतुःषष्टिः खीकलाश्चमा:-नृत्य १औचित्य २ चित्र-1 ||३ वादिन ४ मन्त्र ५ तन्त्र ज्ञान ७ विज्ञान ८ दम्भ ९ जलस्तम्भ १० गीतमान ११ तालमान १२-18
मेघवृष्टि ११ फलाकृष्टि १४ आरामरोपण १५ आकारगोपन १६ धर्मविचार १७ शकुनसार १८ क्रियाकल्प१९ संस्कृतजल्प २० प्रासादनीति २१ धर्मरीति २२ वर्णिकावृद्धि २३ स्वर्णसिद्धिः २४ सुरभितैलकरण २५-९॥१३९॥
लीलासंचरण २६ हयगजपरीक्षण २७ पुरुषस्त्रीलक्षण २८ हेमरसभेद २९ अष्टादशलिपिपरिच्छेद ३० तत्कालहै बुद्धि ११ वास्तुसिद्धि १२ कामविक्रिया ३३ वैद्यकक्रिया ३४ कुम्भभ्रम ३५ सारिश्रम ३६ अञ्जनयोग ३७
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], --------------------------
-------- मूलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३०]
चूर्णयोग ३८ हस्तलाघव ३९ वचनपाटव ४० भोज्यविधि ४१ वाणिज्यविधि ४१ मुखमण्डन ४२ शालिखण्डन४४ कथाकथन ४५ पुष्पग्रन्धन ४६ वक्रोक्ति ४७ काव्यशक्ति ४८ स्फारविधिवेष ४९ सर्वभाषाविशेष ५०
अभिधानज्ञान ५१ भूषणपरिधान ५२ भृत्योपचार ५३ गृहाचार ५४ व्याकरण ५५ परनिराकरण ५६ रन्धन-18 1५७ केशबन्धन ५८ वीणानाद ५९ वितण्डावाद ६० अङ्कविचार ६१ लोकव्यवहार ६२ अन्त्याक्षरिका ६३-18 प्रश्नपहेलिका ६४ इति, अत्रोपलक्षणादुक्तातिरिक्ताः खीपुरुषकला ग्रन्थान्तरे लोके च प्रसिद्धा ज्ञेयाः, अत्र च यत्पुरु
पकलासु स्त्रीकलानां स्त्रीकलासु च पुरुषकलानां साङ्कयं तदुभयोपयोगित्वात् , ननु तर्हि 'चोसट्ठि महिलागुणे 18 इति ग्रन्थविरोधः, उच्यते, न वयं ग्रन्थः स्त्रीमात्रगुणख्यापनपरः, किन्तु स्त्रीस्वरूपप्रतिपादका, तेन क्वचित्पुरुषगुण
| त्वेऽपि न विरोधः, कलाद्वयस्योक्तसङ्ग्याकत्वं तु प्रायो बहुपयोगित्वात् , इत्यलं विस्तरेण । शिल्पशतं चेदम्-कुम्भक18 लोहकृञ्चित्रकृत्तन्तुवायनापितलक्षणानि पञ्च मूलशिल्पानि तानि च प्रत्येकं विंशतिभेदानीति, तथा चार्षम्-"पंचेव य8 8 सिप्पाई घड लोह चित्तणंतकासवए । इकिकस्स य इत्तो वीसं २ भवे भेआ ॥१॥ इति । नन्वत्रैतेषां पञ्चमू
लशिल्पानां उत्पत्तौ कि निमित्तमिति ।, उच्यते, युग्मिनामामौषध्याहारे मन्दाग्नितयाऽपच्यमाने हुतभुजि प्रक्षिप्यमाने तु समकालमेव दह्यमाने युगलिनरैविज्ञप्तेन हस्तिस्कन्धारूढेन भगवता प्रधमं घटशिल्पमुपदर्शितं, क्षत्रियाः शस्त्रपाणय एव दुष्टेभ्यः प्रजां रक्षेयुरिति लोहशिल्पं, चित्राङ्गेषु कल्पद्रुमेषु हीयमानेषु चित्रकृशिल्प, वस्त्रकल्पगुमेषु
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------ मूलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
॥१४॥
श्रीप
श्रीजम्बू
हीयमानेषु तन्तुवायशिल्पं, बहुले युग्मिधर्म पूर्वमवर्धिष्णु रोमनव(अथ वार्षिष्णु)मा मनुजास्तुदस्विति नापितशिल्पमिति, वक्षस्कारे द्वीपशा
श्रीहेमाचार्यकृतऋषभचरित्रे तु गृहादिनिमित्तवर्द्धक्ययस्कारयुग्मरूपं द्वितीयं शिल्पमुकं, शेष तथैवेति, ननु भोग्यस-कलादिदन्तिचन्द्री- कर्माण एवार्हन्तो भगवन्तः समुत्पन्नव्याधिमतीकारकल्प ख्यादिपरिग्रहं कुर्वते नेतरे ततः किमसौ निरषद्यैकरुचिर्भ-8 र्शनसाई या चिः गवान् सावधानुबन्धिनि कलाद्युपदर्शने प्रववृते ?, उच्यते, समानुभावतो वृत्तिहीनेषु दीनेषु मनुजेषु दुःस्थतां विभाव्य कता
सातकरुणैकरसत्वात् , समुत्पन्नविवक्षितरसो हि नान्यरससापेक्षो भवति, वीर इव द्विजस्य चीवरदाने, अथैवं तर्हि कथमधिकलिप्सोस्तस्य सति सकले शुके शकलदान, सत्य, भगवतश्चतुर्ज्ञानधरत्वेन तस्य तावन्मात्रस्यैव लाभस्यावधारणेनाधिकयोगस्य क्षेमानिर्वाहकत्वदर्शनात्, कथमन्यथा भगवदंसस्थलनस्ततच्छकलग्रहणेऽपि तदुत्थरिक्वार्द्धषिM भाजकस्तुन्नवायः समजायत?, किश्च-कलाद्युपायेन प्राप्तसुखवृत्तिकस्य चौर्यादिव्यसनासक्किरपि न स्यात् , नमु शि भवतु नामोक्तहेतोर्जगभर्तः कलाद्युपदर्शकत्वं परं राजधर्मप्रवर्तकत्वं कथमुचितं ?, उच्यते, शिष्टानुग्रहाय दुष्पनि
ग्रहय धर्मस्थितिसंग्रहाय च, ते च राज्यस्थितिक्रिया सम्यक् प्रवर्त्तमानाः क्रमेण परेषां महापुरुषमार्गोपदर्शकतया चौर्यादिव्यसननिवर्त्तनतो नारकातिथेयीनिवारकतया ऐहिकामुष्मिकसुखसाधकतया च प्रशस्ता एवेति, महापुरुष- ॥१४॥ - श्रीऋषमस्व सकललोकव्यवहारप्रवर्तन प्रजानां हितार्यमेव, अत एव जिमपूजादिलक्षणायाः समानाया भपि कियाया जिनभक्तिपरायणानां सम्यग्दशा करिबमा हिकमजककामिग्याचर्षिनाहिकफनपत्तिसाम्येपि धारविष्फवम्ब प्रवचने प्रतीमा (हति ही पुत्तो)
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
-------- मूलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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प्रकृत्तिरपि सर्वत्र परार्थत्वव्याप्ता बहुगुणाल्पदोषकार्यकारणविचारणापूर्विकैवेति, युगादौ जगद्व्यवस्था प्रथमेनैव पार्थि-IST IS वेन विधेयेति जीतमपीति, स्थानागपञ्चमाध्ययनेऽपि-धम्म णं चरमाणस्स पंच णिस्साठाणा पण्णत्ता, तंजहा-छकाया
गणो २ राया ३ गाहावई ४ सरीर ५' मित्याघालापकवृत्तौ राज्ञो निनामाश्रित्य राजा-नरपतिस्तस्य धर्मसहा-18 यकत्वं दुष्टेभ्यः साधुरक्षणादित्युक्तमस्तीति परमकरुणापरीतचेतसः परमधर्मप्रवर्तकस्य ज्ञानत्रययुतस्य भगवतो राजधर्मप्रवर्तकरवे न काप्यनौचिती चेतसि चिन्तनीया, युक्त्युपपन्नत्वात् , तद्विस्तरस्तु जिनभवनपंचाशकसूत्रवृत्त्योर्यतनाद्वारे व्यक्त्या दर्शितोऽस्तीति तप्त एवावसेयो, ग्रन्थगौरवभयादत्र न लिख्यते इति, एतेन 'राज्यं हि नरकान्तं स्याद् ॥
यदि राजा न धार्मिकः' इत्युक्तिरपि दृढबद्धमूला न कम्पत इति, किञ्च-अत्र तृतीयारकमान्ते राज्यस्थित्युत्पादे धर्मर स्थित्युत्पादः पश्चमारकमान्ते च 'सुअसूरिसंघधम्मो पुषण्हे छिजिही अगणि सायं । नियविमलवाहणे सुहुममंतिनयधम्म मझण्हे ॥१॥[ श्रुतसूरिसंघधर्माः पूर्वाण्हे छेत्स्यन्ति सायमग्निः। नृपो विमलवाहनः सूक्ष्मो मन्त्री नयधर्मश्च मध्यान्हे ॥१४] इति वचनात् धर्मास्थितिविच्छेदे राज्यस्थिसिविच्छेद इत्यपि राज्यस्थितेधर्मस्थितिहेतुत्वाभिव्यञ्जकत्वमेवेति सर्व सुस्थमित्यलं विस्तरेणेति । तदनु भगवान् किं चक्रे इत्याह-'उबदिसित्ता पुत्तसय'मित्यादि, उपदिश्य कलादिकं पुत्रशतं-- भरतपाहुबलिप्रमुख कोसलातक्षशिलादिराग्यशते अभिषिञ्चति-स्थापयति, अत्र शक्कादिप्रधानावसानानि भरताष्टनवतिधातूनामानि अन्तर्वाच्यादिषु सुप्रसिद्धानीति च लिखिताचि, देशनामानि तु चढून्यप्रतीतानीति । अथ भगवतो दीक्षा.
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], -----------------------
------ मूलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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श्रीजम्बून्तिचन्द्रीमा प्रति ॥१४१॥
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कल्याणकमाह-'अभिसिंचित्ता'इत्यादि, अभिषिच्य त्र्यशीतिं पूर्वलक्षाणि महान् रागो-लौल्यं यत्र स चासौ वासश्च | महारागवासो-गृहवासस्तन्मध्ये वसति गृहिपर्याये तिष्ठतीत्यर्थः, यद्यपि प्रागुतव्याधिप्रतीकारन्यायेनैव तीर्थकृतां गृहवासे 8 श्रीऋषमप्रवचनं तथापि सामान्यतः स यथोक्त एवेति न दोषः, यद्वा महान् अरागः-अलौल्यं यत्र स चासी वासश्चेति योजनीयं, दीक्षा यतो भगवदपेक्षया स एवंविध एवेति, एतेन 'तेवहिँ पुचसयसहस्साई महारायवासमझे वसईत्ति पूर्वग्रन्थविरोधो| नेति, उषित्वा जे से'त्ति यः सः 'गिम्हाण'ति आर्षे ग्रीष्मशब्दः स्त्रीलिङ्गो बहुवचनान्तश्च ततो ग्रीष्मस्येत्यर्थः, प्रथमो | मासः, यथा प्रीष्माणा-अवयवे समुदायोपचाराद् ग्रीष्मकालमासानां मध्ये प्रथमो मासः प्रथमः पक्षश्चैत्रबहुल:-चै-18 बान्धकारपक्षस्तस्य नवम्यास्तिथेः पक्षो-ग्रहो यस्य, तिथिमेलपातादिषु तथा दर्शनात् , तिथिपाते तत्कृत्यस्याष्टम्यामेव क्रियमाणत्वात् , स नवमीपक्षः-अष्टमीदिवसस्तत्र, अनेन व्याख्यानेन 'चित्तबहुलट्ठमीए' इत्याद्यागमविरोधो न, वाच-18 नान्तरेण वा नवमीपक्षो-नवमीदिवसः दिवसस्याष्टमीदिवसस्य मध्यंदिनादुत्तरकाले यद्यपि दिवसशब्दस्याहोरात्रवाच-10 कत्वमन्यत्र प्रसिद्ध तथाऽप्यत्र प्रस्तावादिवसो गतो रजनिरजनि इत्यादिवत् सूर्यचारविशिष्टकालविशेषग्रहणं, अन्यथा|
सीईपुग्वे'यादि, यशीतिपूर्वशतसमामि महाराजनासमध्ये महाराजतया यो वासस्वस मध्ये तवंतरित्यर्थः वसति, न चैवं 'उसमे गं भरदा कोसलिए । चीस पुनसयसहस्साई कुमारवासमझे वसइ २ सा तेवति पुनसयसहस्साई महारायबासमझे बसईति अत्रैवानंतरोफसूत्रेण सह विरोधः शंकनीयः, यतो ॥ ॥१४॥ 'भाविनि भूतवदुपचार' इति न्यामात् राज्याईकुमारराजवत् कुमारावस्थाऽपि महाराजावस्यैवेति विवक्षया सर्वापि गृहस्थावस्था महाराजावस्यैव भगिता । (इति ही वृत्तौ)
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
दिवसपाश्चात्यभागस्यानुपपत्तेः त्यक्त्वा हिरण्यं-अघटितं सुवर्ण रजतं वा सुवर्ण-घटितं हेम हेम वा कोशं भाण्डागारं कोष्ठागारं धान्याश्रयगृह, बलं चतुरङ्गं वाहनं - वेसरादि पुरान्तःपुरे व्यक्ते विपुलं धनं- गवादि कनकं च सुवर्णं ( रमन्ते रज्यन्ते ग्राहका) येभ्यः सल्लक्षणेभ्यस्तानि रत्नानि मणयश्च प्राग्वत्, मौक्तिकानि - शुक्त्याकाशादिप्रभवानि, शङ्खाश्च-दक्षिणावर्त्ताः ततः पूर्वपदेन कर्मधारयः, शिला- राजपट्टादिरूपाः, प्रवालानि - विद्रुमाणि रक्तरलानि-पद्मरागाः, पृथग्ग्रहणमेषां प्राधान्यख्यापनार्थं, उक्तस्वरूपं यत्सत्सारं सारातिसारं स्वापतेयं द्रव्यं तत् त्यक्त्वा - ममत्वत्यागेन विच्छ- पुनर्ममत्वाकरणेन, कुतो ममत्वत्याग इत्याह-विगोप्य जुगुप्सनीयमेतत् अस्थिरत्वादिति कथनेन, ( निश्रां त्याज(यित्वा ) कथं च निश्रात्याजनमित्याह - 'दायिकानां ' गोत्रिकाणां 'दायं' धनविभागं 'परिभाज्य' विभागशो दत्त्वा, तदा च निर्नाथपान्थादियाचकानामभावाद् गोत्रिकग्रहणं, तेऽपि च भगवत्प्रेरिता निर्ममास्सन्तः शेषामात्रं जगृहु:,
१ गोत्रिकाणां दानं तच्छेषामाश्रमेव, न पुनर्वाचना, यतु यथेप्सितं याचमानानां दानं तथाचकानामेव नान्येषां नतु तीर्थकृतां पुरस्ताद्याचने कि बाध कमिति चेत्, उच्यते, भिक्षा तावत्रिधा - सर्वसंपत्करी १ आजीविका २ पौरुपनी ३ चेति तत्राया साधूनामेव द्वितीया यात्रां विना यनिर्वाहकाणां निर्द्धनानां पंग्वादीनां तृतीया तद्यतिरिकानां येन यात्रां बिना निर्वाहकरणसमर्थानां गृहस्थानां महापुरुषेभ्योऽपि याचनमनुचितमेव, अत एव श्रीमहावीर दानाधिकारसूत्रे 'दानं दायारेहिं 'ति पदमधिकं याचकमहणार्थ, तेन याचकानां यथेप्सिततयोचितदानं इतरेषां तु कुलादिक्रमायातं वर्षांप निकाप्राणकशेषादिकल्पमव सातव्यं, न पुनः सकललोकसाधारणं, प्राकार्ना नामग्रहमे इम्यादीनामनुचत्वात् तथा हि-तए भगवं का िजाय मागहओ पायरासोत्ति, बहू सपाहाण य अगाहाण व पंथिआण य पहिआण य कोरडिआण व कप्पढिक्षण व जाय एगा हिरण्णकोडि' इत्यादि श्री आवश्यकचून । ( इति ही वृत्ती)
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------ मूलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
स
श्रीऋषम
प्रत सूत्रांक [३०]
- इदमेव हि जगद्गुरोजीतं यदिच्छावधि दानं दीयते, तेषां च इयतैव इच्छापूर्तिः, ननु यदीच्छावधिकं प्रभोर्दानं 18 वक्षस्कारे द्वीपशा- तहि ऐदंयुगीनो जन एकविनदेयं संवत्सरदेयं वा एक एव जिघुक्षेत्, इच्छाया अपरिमितत्वात्, सत्यं, प्रभु
प्रभावनताहशेषछाया असम्भवात् , सुदर्शनानाम्न्यां शिविकायामारूदमिति गम्यं, किंविशिष्टं भगवन्तं ?-'सदेव- दावा या चिः
II मनुजासुरया'स्वर्गभूपातालबासिजनसहितया 'पर्षदा' समुदायेन समनुगम्यमानं, ईदृशं च प्रभु अग्रे-अग्रभागे शांखि-II ॥१४॥ ॥ कादयोऽभिनन्दयम्तोऽभिष्टुवतश्च एवं-वक्ष्यमाणमवादिपुरित्यन्वयः, तत्र शांखिका:-चन्दनगर्भशहस्ता माङ्गल्य
कारिणः शङ्खध्मा बा, चाकिका:-चक्रमामकाः, लाङ्गलिका-लकावलम्बितसुवर्णादिमघहलधारिणो भट्टविशेषाः मुखमलिकाः-चाटुकारिणः पुष्पमाणवा-मागधाः वर्द्धमानका:-स्कन्धारोपितनराः आख्यायकाः-शुभाशुभकथकाः लंखा
वंशानखेलकाः मङ्खा:-चित्रफलकहस्ताः भिक्षाका-गौरीपुत्र इति रूढा घाण्टिकाः-घण्टावादकास्तेषां मणाः, सूत्रे च। IS अपत्यात प्रथमार्थे तृतीया, यथाश्रुतव्याख्याने च शातिकादिगणैः परिवृतमिति पदं कुलमहत्तरा इति पदं चान्य-15 IS ययोजनार्थमध्याहार्य स्थात्, साध्याहारव्याख्यातोऽनध्याहारव्याख्यायां लाघवमिति, पञ्चमाझे जमालिचरित्रे ॥ निष्क्रमणमहवर्णने शालिकादीनां प्रथमान्ततया निर्देश एतस्यैवाशयस्य सूचका, यदि च 'प्रायः सूत्राणि सोपस्काराणि |
॥१४॥ IS| भवन्तीति न्यायोऽनुप्रियते तदा साध्याहारव्याख्यानेऽप्यदोषः, तामिा-विवक्षिताभिरित्यर्थः वाभिरभिनन्दयन्त-I91
वाभिवन्तश्चेति योजना, विवक्षितत्वमेवाह-इष्यन्ते स्मेतीष्टास्तामिः, प्रयोजनक्शाविष्टमपि किशिरस्वरूपतः19॥
अनुक्रम
[४३]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ----------------------
--------- मूलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३०]
कारतं मादकान्तं चेत्यत आह-कान्ताभिः' कमनीयशब्दाभिः 'प्रियाभिः' प्रियार्थाभिः मनसा ज्ञायन्ते सुन्दर| तया यास्ता मनोज्ञा भावतः सुन्दरा इत्यर्थः ताभिः मनसा अम्यन्ते-गम्यन्ते पुनः पुनः या सुन्दरत्वातिशयाता| | मनोऽमास्वाभिः उदाराभिः-शब्दतोऽर्थतश्च 'कल्याणाभिः' कल्याणाप्तिसूचकाभिः "शिवामिः' निरुपद्वाभिः शब्दार्थदूपणोज्झिताभिरित्यर्थः 'धन्याभिः' धनलम्भिकाभिः 'माल्याभिः' मङ्गले-अनर्थप्रतिघाते साध्वीभिः सश्रीकाभि:अनुप्रासाद्यलङ्कारोषेतत्वात् सशोभाभिः 'हृदयगमनीयाभिः' अर्थप्राकव्यचातुरीसचिवत्वात् सुबोधाभिः, 'हृदयप्र
ल्हादनीयाभिः' हृदयगतकोपशोकाविग्रन्धिविद्रावणीभिः, उभयत्र कर्त्तर्यनट् प्रत्ययः, कर्णमनोनिवृतिकरीभिः अपुनहरुक्ताभिरिति च स्पष्ट, अर्थशतानि यासु सन्ति ता अर्थशतिकास्ताभिः अथवा अर्थाना-इष्टकार्याणां शतानि याभ्यस्ता ||
अर्थशतास्ता एवार्थशतिकाः, स्वार्थ इकप्रत्ययः, अनवरतं-विधामाभावात् 'अभिनन्दयन्तश्च' जय जीवेत्यादिभणनतः समृद्धिमन्तं भगवन्तमाचक्षाणाः अभिष्टुवन्तश्च भगवन्तमेवेति, किमवादिषुरित्याह-'जय जयेति भक्तिसम्भ्रमे द्विवे-10 चनं, नन्दति-समृद्धो भवतीति नन्दः तस्यामन्त्रणमिदं, इह च दीर्घत्वं प्राकृतत्वात् , अथवा जय त्वं जगन्नन्द !-18 जगत्समृद्धिकर। जय जय भद्र प्राग्वत् , नवरं भद्रः-कल्याणवान् कल्याणकारी वा, कथमाशासते स्म इत्याह| धर्मेण-करणभूतेन न त्वभिमानलज्जादिना अभीतो भवपरीसहोपसर्गेभ्यः, प्राकृतत्वात् पञ्चम्यर्थे पष्ठी, परीपहोप18|सर्गाणां जेता भवेत्यर्थः, तथा क्षान्त्या न त्वसामर्थ्यादिना क्षम-सोढा भव, 'भयं' आकस्मिकं भैरवं' सिंहादिसमुत्थं |
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], ------------------------
------ मूलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३०]
श्रीजम्मू-18 तयोः, प्राकृतत्वात्पदव्यत्यये भैरवभयानां वा-भयङ्करभयानां क्षान्ता भव इत्यर्थः, नानावक्तृणां नानाविधवाग्भङ्गीति न | वक्षस्कार
द्वीपशा- पूर्वविशेषणान्तःपातेन पौनरुक्त्य, धर्म-प्रस्तुते चारित्रधर्मे अविन-विन्नाभावस्ते-तव भवतु इतिकृत्वा धातूनामनेकार्थ-18 श्रीपमन्तिचन्द्री
18 त्वादुच्चार्य पुनः पुनरभिनन्दयन्ति चाभिष्टुवन्ति चेति, अथ येन प्रकारेण निर्गच्छति तमेवाह-'तए ण'मित्यादि, दीक्षा या वृतिः
18'ततः' तदनन्तरं ऋषभोऽर्हन् कौशलिको नयनमालासहस्रः श्रेणिस्थितभगवदिक्षामात्रया व्यापृतनागरनेत्रवृन्दैः ॥१४३॥ प्रेक्ष्यमाणः २-पुनः पुनरवलोक्यमानः, आभीक्ष्ण्ये द्विवचनं सर्व, एवं सर्वत्र तावद्वक्तव्यं यावन्निर्गच्छति-'यथोपपातिके'
एवं यथा प्रथमोपाढ़े चम्पातो भंभासारसुतस्य निर्गम उक्तस्तथाऽत्र वाच्यो, वाचनान्तरेण यावदाकुलबोलबहुलं नमः कुर्वन्निति पर्यन्ते इति, तत्र च यो विशेषस्तमाह-विनीता राजधान्या मध्यंमध्येन-मध्यभागेन इत्यर्थः निर्गच्छति, 'सुखं सुखेने त्यादिवन्मयंमध्येनेति निपातः, औपपातिकगमश्चायं-हिययमालासहस्सेहिं अभिणंदिजमाणे २ मणोरहमालासहस्सेहिं विच्छिप्पमाणे २ वयणमालासहस्सेहिं अभिथुषमाणे २ कतिरूवसोहग्गगुणेहिं पस्थिज्जमाणे २ अंगुलिमालासहस्सेहिं दाइजमाणे २ दाहिणहत्थेणं बहूर्ण करणारीसहस्साणं अंजलिमालासहस्साई पडिच्छमाणे २ मंजुमजुणा घोसेणं पडिबुझेमाणे २ भवणपंतिसहस्साई समइच्छमाणे २ तंतीतालतुडिअगीअवाइअरवेणं महुरेण य
॥१४॥ 191 मणहरेणं जयसहुग्घोसविसरणं मंजुमंजुणा घोसेणं पडिबुझेमाणे २ कंदरगिरिविवरकुहरगिरिवरपासाउद्धघणभवण॥ देवकुलसिंघाडगतिगचउकचश्चरआरामुजाणकाणणसहापवापएसदेसभागे पडिसुआसयसंकुलं करते हयहेसिअहत्थिगु-18||
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[३०]
दीप
अनुक्रम [४३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [३०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
| लगुलाइ अरहघणघणाइयसद्दमीसिएणं महया कलकलरवेणं जणस्स महुरेण पूरयंतो सुगंधवरकुसुमचुण्णउविद्धवासरेणुकविलं नभ करेंते, कालागुरुकुंदुरुक्कतुरुक्कभूवनिवहेण जीवलोगमिव वासयंते समंतओ खुभिअचकवालं पउरजणबालबुद्धपमुद्द अतुरि अपहाविअविउल'न्ति, आउलपदमारभ्य निर्गच्छति पदपर्यन्तं तु सूत्रे सांक्षादेवास्ति, अत्र व्याख्याहृदय मालासहस्रैः -- जनमनःसमूहैरभिनन्द्यमानः २ – समृद्धिमुपनीयमानो २ जय जीव नन्देत्याद्याशीर्दानेन, मनोरथ| मालासहस्रैः- एतस्यैवाज्ञापरा भवाम इत्यादिजन विकल्पैर्विशेषेण स्पृश्यमानः २ इत्यर्थः वदनमालासहस्रैर्वचनमाला| सहस्रैर्वा अभिष्ट्यमानं २ कान्त्यादिगुणैर्हेतुभिः प्रार्थ्यमानो २ भर्तृतया स्वामितया वा स्त्रीपुरुषजनैरभिलष्यमाणः २ | अंगुलिमालासहस्रैर्दर्श्यमानः २ दक्षिणहस्तेन बहूनां नरनारीसहस्राणां अञ्जलिमाला:- संयुतकर मुद्राविशेषवृन्दानि प्रतीच्छन् २-गृहन् २, किमुक्तं भवति : त्रैलोक्यनाथेनापि प्रभुणा पौराणामस्माकमञ्जलिरूपा भक्तिर्मनस्यवतारितेति | दक्षिणहस्तदर्शनं तथा महाप्रमोदाय भवतीति कुर्वन्, मञ्जुमना - अतिकोमलेन घोषेण-स्वरेण प्रतिपृच्छन् २ प्रश्नयन् २ प्रणमतां स्वरूपादिवार्ताः, भवनानां विनीतानगरीगृहाणां पङ्कचा-समश्रेणिस्थित्या सहस्राणि न तु पुष्पावकीर्णस्थित्या, समतिक्रामन् २, तन्त्रीतलतालाः प्रसिद्धाः, त्रुटितानि - शेषवाद्यानि तेषां वादितं -वादनं प्राकृतत्वात्पदव्य| त्ययः गीतं च तयो रवेण यद्वा तत्र्यादीनां त्रुटितान्तानां गीते - गीतमध्ये यद्वादितं - वादनं तेन यो रवः - शब्दस्तेन मधुरेण - मनोहरेण तथा जयशब्दस्य उद्घोषः - उद्घोषणं विशदः - स्पष्टतया प्रतिभासमानं यत्र तेन मञ्जुमञ्जुना घोषेण
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ----------------------
------ मूलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
दीक्षा
श्रीजम्य- पोरजबरवेण च प्रतिगुयमानः २-सावधानीभवन २ कन्दराणि-दर्यः गिरीणां 'विवरकुहराणि' गुहाः पर्वतान्त- वक्षस्कारे राणि च गिरिवरा:-प्रधानपर्वताः प्रासादा:-सप्तभूमिकादयः ऊर्ध्वघनभवनानि-उच्चाविरलगेहानि देवकुलानि-प्रती-
Iश्रीऋषमन्तिचन्द्री
| तानि शृङ्गाटक-त्रिकोणस्थानं त्रिक-यत्र रथ्यात्रयं मिलति चतुष्क-यत्र रथ्याचतुष्टयं चत्वरं-बहुमार्गा आरामाः-पुष्प-IN या वृत्तिः४
जातिप्रधानवनखण्डाः उद्यानानि-पुष्पादिमढुक्षयुक्तानि काननानि-नगरासन्नानि सभा-आस्थायिकाः प्रपा-जलदान॥१४॥ स्थानं एतेषां ये प्रदेशदेशरूपा भागास्तान, तत्र प्रदेशा-लघुतरा भागा देशास्तु लघवः प्रतिश्रुतः-प्रतिशब्दास्तेषां |
शतसहस्राणि-लक्षास्तैः सङ्कलान् कुर्वन्, अत्र बहुवचनार्थे एकवचनं प्राकृतत्वात् , हयानां हेषितेन-हेषारवरूपेण हस्तिनां गुलगुलायितरूपेण, रथाना घनघनायितेन-घणघणायितरूपेण शब्देन मिनितेन जनस्य महता कलकलरवेण आनन्दशब्दत्वान्मधुरेण-अरेण पूरयन् २, अत्र नभ इति उत्तरग्रन्थवर्तिना पदेन योगः, सुगन्धानां वरकुसुमानां चूर्णानां च उद्वेधः-उर्ध्वगतो वासरेणुः-वासक रजस्तेन कपिलं नभः कुर्वन् कालागुरु:-कृष्णागुरुः कुंदुरुक:-चीडाभिधं द्रव्यं तुरुष्कं-सिल्हकं धूपश्च-दशाङ्गादिर्गन्धद्रव्यसंयोगजः एषां निवहेन जीवलोकं वासयन्निव, अत्रोत्प्रेक्षा तु जीवलोक-15
वासनस्यावास्तवत्वेन, सर्वतः क्षुभितानि-साश्चर्यतया ससम्धमाणि चकवालानि-जनमण्डलानि यत्र निर्गमे तद्यथा||R॥१४४॥ K भवतीत्येवं निर्गच्छतीति, प्रचुरजनाश्च अथवा पौरजनाश्च बालवृद्धाश्च ये प्रमुदितास्त्वरितप्रधाविताश्च-शीघं गच्छन्त
स्नेषां व्याकुलाकुलानां-अतिव्याकुलानां यो बोल:-शब्दः स बहुलो यत्र तत्वथा, एवंभूतं नमः कुर्वन् , विशेषणानां
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
-------- मूलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३०]
IR व्यस्ततया निपातः प्राकृतत्वादिति, निर्गत्य च यत्रागच्छति तदाह-आसि'इत्यादि, आसिक्त-ईषत् सिक्तं गन्धो-
दकादिना प्रमाणितं कचवरशोधनेन सिक्कं तेनैव विशेषतोऽत एव शुचिक-पवित्रं पुष्पैर्य उपचार:-पूजा तेन कलित-1 युक्तं, इदं च विशेषणं प्रमार्जितासिक्तसिक्तशुचिकमित्येवं दृश्य, प्रमार्जिताद्यनन्तरभावित्वाच्छुचिकत्वस्य, एवंविधं सिद्धा-1
वनविपुलराजमार्ग कुर्वन् , तथा हयगजरथाना 'पहकरे'चि देशीशब्दोऽयं समूहवाची तेन हयादिसेनयेत्यर्थः । | तथा पदातीनां चटकरेण वृन्देन च मन्दं २-यथा भवति तथा, क्रियाविशेषणं, यथा हयादिसेना पाश्चात्या समेति ||ST
| तथा २ बहुतरबहुतमकमित्यर्थः, उद्धतरेणुक-ऊर्षगतरजस्कं कुर्वन् , यत्रैव सिद्धार्थवनमुद्यानं यत्रैवाशोकवरपादपISस्तत्रैवोपागच्छत्तीति । उपागत्य यत्करोति तदाह-उपागत्याशोकवरपादपस्याधः शिविकां स्थापयति, स्थापयित्वा च
शिविकायाः प्रत्यवरोहति, अवतरतीत्यर्थः, प्रत्यवरुह्य च स्वयमेवाभरणालङ्कारान् , तत्राभरणानि-मुकुटानीति (दीनि) अलङ्कारान्-वस्त्रादीन , सूत्रे एकवचनं प्राकृतत्वात् , आभरणानि च अलङ्काराश्चेति समाहारद्वन्द्वकरणाद्वा, अब-| मुथति-त्यजति, कुलमहत्सरिकाया हंसलक्षणपटे अवमुच्यं च स्वयमेव चतसृभिः 'अट्ठाहिं ति मुष्टिभिः करणभूता
भिर्खश्चनीयकेशानां पञ्चमभागलुश्चिकाभिरित्यर्थः, लोचं करोति, अपरानालङ्कारादिमोचनपूर्वकमेव शिरोऽलङ्कारादि1 मोचनं विधिक्रमायेति पर्यन्ते मस्तकालङ्कारकेशमोचनं, तीर्थकृतां पञ्चमुष्टिलोचसम्भवेऽपि अस्य भगवतश्चतुर्मुष्टिक
लोचगोचरः श्रीहेमाचार्यकृतऋषभचरित्रायभिप्रायोऽयं-'प्रथममेकया मुध्या स्मश्रुकूर्चयोर्लोचे तिसृभिश्च शिरोलोचे
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अनुक्रम [४३]
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श्रीजम्, २५
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
-------- मूलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३०]
श्रीजम्प-18|कृते एका मुष्टिमवशिष्यमाणां पवनान्दोलितां कनकावदातयोः प्रभुस्कन्धयोपरि लुठन्ती मरकतोपमानमाविधती परम- खको
18| रमणीयां वीक्ष्य प्रमोदमानेन शक्रेण भगवन् ! मय्यनुग्रहं विधाय ध्रियतामियमित्थमेवेति विज्ञप्ते भगवतापि सा तथैव श्रीऋषभन्तिचन्द्री
|रक्षितेति, 'न होकान्तभक्तानां याच्यामनुग्रहीतारः खण्डयन्ती'ति, अत एवेदानीमपि श्रीऋषभमूत्तौ स्कन्धोपरि बालरिका | दीक्षा या वृत्तिः
॥२ क्रियन्ते इति, लुमिताश्च केशाः शक्रेण हंसलक्षणपटे क्षीरोदधौ क्षिप्ता इति, षष्ठेन-भक्तेन उपवासद्वयरूपेण अपानकेन-18 ॥१४५|| चतुर्विधाहारेण 'आषाढाभिरित्यत्र 'ते लुग्वे' (श्रीसिद्ध अ.३ पा.२ सू.१०८) त्यनेन उत्तरपदलोपे उत्तराषाढाभिर्वचन-18
पम्यमाषत्वात् , नक्षत्रेण योगमुपागतेनार्थाचन्द्रेणेति गम्यं, उग्राणा-अनेनैव प्रभुणा आरक्षकत्वेन नियुक्ताना भोगाना-18 गुरुत्वेन व्यवहतानांराजन्यानां-बयस्यतया व्यवस्थापितानां क्षत्रियाणां-शेषप्रकृतितया विकल्पितानां चतुर्भिः पुरुषस-18 | हसः सार्ब, पते च वन्धुभिः सुहनिर्भरतेन च निषिद्धा अपि कृतज्ञत्वेन स्वाम्युपकार स्मरन्तः स्वामिविरहभीरवो वान्तान I| इव राज्यसुखे विमुखा यत्स्वामिनाऽनुष्ठेयं तदस्माभिरपीति कृतनिश्चयाः स्वामिनमनुगच्छन्ति स्म, एकं देवदूष्यं शक्रेण वामस्कन्धेजीतमित्यर्पित उपादाय, न तु रजोहरणादिकं लिङ्गं कल्यातीतत्वाजिनेन्द्राणां, मुण्डो द्रव्यतः शिरःकूर्चलो
R ॥१४५॥ चनेन भावतः कोपाचपासनेन भूत्वा अगाराद्-गृहवासान्निष्क्रम्येति गम्यं, अनगारिता-अगारी-गृही असंयतस्तत्प्र|तिषेधादनगारी-संयतस्तदावस्तत्ता तां साधुतामित्यर्थः प्रवजितः-प्रगतः प्राप्त इतियावत् , अथवा विभक्तिपरिणामादनगारितया-निर्ग्रन्थतया प्रनजितः-प्रव्रज्यां प्रतिपन्नः । अथ प्रभोश्चीवरचारित्वकालमाह
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अथ ऋषभप्रभो: दिक्षाया: पश्चात् वस्त्रधारित्व-कालं एवं श्रामण्यादि वर्ण्यते
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ----------------------
------ मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३१]
उसभेणं अरहा कोसलिए संवच्छर साहिलं चीवरधारी होत्था, तेण परं अचेलए । जप्पभिई प णं उसमे अरहा कोसलिए मुंडे भवित्ता अगारामो अणगारियं पवइए तप्पभिई च णं उसमे अरहा कोसलिए णिवं बोसट्टकाए चिअत्तदेहे जे केई उक्सग्गा उप्पजंति तं०-दिवा वा जाव पडिलोमा वा अणुलोमा वा, तत्थ पडिलोमा वेत्तेण वा जाव कसेण वा काए आउट्टेवा अणुलोमा वं देज वा जाव पज्जुवासेज वा ते (उप्पन्न) सके सम्म सहइ जाव अहिआसेइ, तए णं से भगवं समणे जाए ईरिभासमिए जाव पारिद्वावणिआसमिए मणसमिए वयसमिए कायसमिए मणगुत्ते जाव गुचबंभयारी अकोहे जाव अलोहे संते पसंते उवसंते परिणिब्युड़े छिण्णसोए निरुषलेवे संखमिव' निरंजणे जच्चकणगं व जायस्वे आदरिसपडिभागे इव पागडभावे कुम्मो इव गुत्तिदिए पुक्खरपत्तमिव निरुवलेबे गगणमिव निरालंबणे अणिले इव णिरालए चंदो इव सोमदंसणे सूरो इव तेअंसी विहग इव अपडिवडगामी सागरो इव गंभीरे मंवरो इव अकंपे पुढवीविध सवफासविसहे जीयो विव अप्पडिहयगइति । पत्थि णं तस्स भगवंतस्स फत्यह पडिबंधे, से परिवंधे चउबिहे भवति, संजहा-दघओ खित्तओ कालो भावओ, दवाओ इह खलु माया में पिया मे भाया मे भगिणी मे जाव संगंथसंधुआ मे हिरणं मे सुवणं मे जाव तबगरण मे, अहबा समासो सश्चित्ते वा अचित्ते वा मीसए वा दबजाए सेवं तस्स ण भवद, खित्तओ गामे या णगरे वा अरण्णे वा खेत्ते वा खले वा गेहे वा अंगणे वा एवं तस्स ण भवइ, कालो धोवे वा लवे वा मुहुने वा अहोरचे वा पक्से वा मासे या उकए वा अयणे वा संवच्छरे वा अन्नयरे वा दीहकालपढिबंधे एवं तस्स भवइ, भावो कोहे वा जाव लोहे वा भए वा हासे वा एवं तस्स ण भवद, से गं भगवं वासावासवर्ज हेमंतगिम्हासु गामे एगराइए णगरे पंचराइए ववगयहाससोगअरबमयपरित्तासे णिम्ममे जिरहंकारे
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अनुक्रम
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[४४]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ----------------------
------ मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३१]
श्रीजम्बू-1 द्वीपशा न्तिचन्द्रीया पृत्तिः ॥१४६॥
वक्षस्कारे 8 श्रीऋषम
प्रभोः श्रामण्यादि .३१
HON
लहुभूए अगंथे वासीतच्छणे अदुढे चंदणाणुलेवणे अरते लेटुंमि कंचणमि अ समे इह लोए अपडिबद्धे जीवियमरणे निरवकखे संसारपारगामी कम्मसंगणिग्धायणहाए अब्भुटिए विहरद। तस्स गं भगवंतस्स एतेणं विहारेणं विहरमाणस्स एगे वाससहस्से विइकते समाणे पुरिमतालस्स नगरस्स बहिआ सगडमुहंसि उजाणसि णिग्गोहवरपायचस्स अहे झाणंतरिआए बदमाणस्स फग्गुणबहुलस्स इकारसीए पुषणहकालसमयंसि अट्टमेणं भत्तेणं अपाणएणं उत्तरासादाणक्वत्तेणं जोगमुवागएणं अणुत्तरेणं नाणेणं जाव चरित्तेणं अणुत्तरेण तवेणं चलेणं वीरिएणं आलएणं विहारेणं भावणाए खंतीए गुत्तीए मुचीए तुट्ठीए अज्जवेणं महवेणं लापवेणं सुचरिअसोवचिअफलनिवाणमग्गेणं अप्पाणं भावमाणस्स अणंते अणुत्तरे णिवाघाए णिरावरणे कसिणे पडिपुणे केवलवरनाणदसणे समुप्पण्णे जिणे जाए फेवली सवन्न सबदरिसी सणेरइअतिरिअनरामरस्स लोगस्स पजवे जाणइ पासइ, तंजहा-आगई गई ठिई उपवायं भुत्तं कई पडिसेविअं आवीकम्म रहोकम्मं तं तं कालं मणवयकाये जोगे एवमादी जीवाणवि सवभावे अजीवाणवि सबभावे मोक्खमनास्स विसुद्धतराए भावे जाणमाणे पासमाणे एस खलु मोक्खमग्गे मम अण्णेसि च जीवाणं हियसुहणिस्सेसकरे सबदुक्खविमोक्खणे परमसुहसमागणे भविस्सइ । तते णं से भगवं समणाणं निग्गंधाण व णिग्गंथीण यपंच महत्वयाई सभावणगाई छन जीवणिकाए धम्म देसमाणे विहरति, तंजहा-पुढविकाइए भावणागमेणं पंच महावयाई सभावणगाई भाणिअबाइति । उसभस्स णं अरहओ कोसलिअस्स चउरासी गणा गणहरा होत्था, उसभस्स णं अरहो कोसलिअस्स उसभसेणपामोक्खाओ चुलसीई समणसाहस्सीओ उक्कोसिआ समणसंपया होत्या, उसमस्स णे बंभीसुंदरीपामोक्खाओ तिण्णि अजिआसयसाहस्सीओ उक्कोसिमा अजिआसंपया होत्या, उसमस्स पं० सेजंसपामोक्खाओ तिण्णि समणोबासगसयसाहस्सीओ पंच य साहस्सीओ उक्को
अनुक्रम
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[४४]
॥१४६॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ----------------------
------ मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [३१]
सिआ समणोवासगसंपया होत्या, उसभस्स पं० सुभदापामोक्खाओ पंच समणोंवासिआसयसाहस्सीओ चउपण्णं च सहस्सा उकोसिआ समणोबासिआसंपया होत्था, उसमस्स णं अरहओ कोसलिअस्स अजिणाणं जिणसंकासाणं सबक्खरसन्निवाईणं जिणो विव अवितहं वागरमाणाणं चत्तारि चउद्दसपुधीसहस्सा अट्टमा य सया उक्कोसिआ चउदसपुधीसंपया होत्था, उसमस्स पं० णव ओहिणाणिसहस्सा उफोसिआ०, उसमस्स पं० वीसं जिणसहस्सा वीसं वेउश्चिअसहस्सा छच्च सया उकोसिआ० बारस विउलमईसहस्सा छम सवा पण्णासा वारस वाईसहस्सा छच्च सया पण्णासा, सभस्स पं० गइकहाणाणं ठिइकल्लाणाणं आगमेसिभदाणं बावीसं अणुत्तरोत्रवाईआणं सहस्सा णव य सया, उसमस्स f० वीसं समणसहस्सा सिद्धा, चत्तालीसं अजिआसहस्सा सिद्धा सहि अंतेवासीसहस्सा सिद्धा, अरहोणं उसभस्स बहवे अंतेवासी अणगारा भगवंतो अप्पेगइमा मासपरिआया जहा उववाइए सबओ अणगारवण्णओ जाव उद्धंजाणू अहोसिरा झाणकोट्ठोवगया संजमेणं सवसा अप्पाणं भावमाणा विहरंति, अरहओ ण उसमस्स दुविहा अंतकरभूमी होत्या, तंजहा-जुगंतकरभूमी अ परिआयंतकरभूमी य, जुर्गतकरभूमी जाव असंखेजाई पुरिसजुगाई, परिआयंतकरभूमी अंतोमुहुत्तपरिआए अंतमकासी (सूत्र ३१) 'उसमे णमित्यादि, ऋषभोऽर्हन कौशलिकः साधिकं समासमित्यर्थः, संवत्सरं-वर्ष यावद् वस्त्रधारी अभवत्ततः परमचेलकः, अत्र ये केचन लिपिप्रमादादादर्शविदमधिकमित्याहुस्तैरावश्यकचूर्णिगतश्रीऋषभदेवदेवदूष्याधिकारेऽय१सको अ लक्समुल गुरदूत ठवइ सम्पत्रिणसन्थे। वीरस्म वरिसमहि सयावि सेखाग तस्रा टिति॥१॥ति प्रन्यान्तरवचनादधिक संभाव्यते (इति हीर वृत्तौ)।
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अनुक्रम
[४४]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------ मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३१]
मण्यादि
श्रीजम्बू-18 मेवालापको द्रष्टव्यः, श्रामण्यानन्तरं कथं प्रभुः प्रववृते इत्याह-जप्पभिई च ण'मित्यादि, यताप्रभृति ऋषभोर्हन् २वक्षस्कारे
द्वीपशा- कौशलिकः प्रबजितस्ततःप्रभृति नित्यं व्युत्सृष्टकायः परिकर्मवर्जनात् त्यक्तदेहः परीपहादिसहनात् ये केचिदुपसर्गा उत्प- न्तिचन्द्री
श्रीऋषमद्यन्ते, तद्यथा-दिव्या-देवकृता वाशब्दः समुच्चये यावत्करणात् 'माणुसा वा तिरिक्खजोणिआ वा' इति पदग्रहा, प्रभोः श्राप्रतिलोमा:-प्रतिकूलतया वेद्यमाना अनुलोमा:-अनुकूलतया वेद्यमानाः, वाशब्दः पूर्ववत्, तत्र प्रतिलोमा वेत्रेण-1
म. ३१ ॥१४७॥
जलवंशेन यावच्छन्दात् 'तयाए वा छियाए वा लयाए वा' इति, तत्र त्वचया-सनादिकया छिवया-श्लक्ष्णया लोह18|कुश्या लतया-कम्बया कपेण-चर्मदण्डेन, वाशब्दः प्राग्वत्, कश्चिदुष्टात्मा कार्ये 'विवक्षातः कारकाणी त्याचारविव
क्षायां सप्तमी आकुट्टयेत् ताडयेदित्यर्थः, अनुलोमास्तु 'वंदेज वा' यावत्करणात् 'पूएज्जा या सकारेजा वा सम्मा-11 राणेजा वा कल्लाणं मंगल देवयं चेइयं इति, वन्देत वा स्तुतिकरणेन पूजयेद्वा पुष्पादिभिः सत्कुर्याद्वा वखादिभिः सन्मानयेद्वा अभ्युत्थानादिभिः कल्याणं भद्रकारित्वात् मङ्गलं अनर्थप्रतिघातित्वात् देवता-इष्टदेवतामिव चैत्यइष्टदेवताप्रतिमामिव पर्युपासीत वा-सेवेतेति, तान् प्रतिलोमानुलोमभेदभिन्नान् उपसर्गान् सम्यक् सहते भया-18 भावेन, यावत्करणात् 'खमइ तितिक्खइ'त्ति क्षमते क्रोधाभावेन तितिक्षते दैन्यानवलम्बनेन अध्यासयति अविचल-18
| ॥१४७॥ |कायतयेति । अथ भगवतः श्रमणावस्था वर्णयबाह-'तए णं से' इत्यादि, ततः स भगवान् श्रमणो-मुनिर्जातः.18 | किंलक्षण इत्माह-र्यायां-गमनागमनादौ समितः सम्यक् प्रवृत्तः उपयुक्त इत्यर्थः, यावत्पदात् 'भासासमिए एस-181
अनुक्रम
[४४]
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक [३१]
दीप
अनुक्रम
[४४]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [३१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
णासमिए आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए उच्चारपासवणखेलजलसिंघाण'त्ति, अग्रेतनपदं तु साक्षादेवास्ति, भाषायांनिरवद्यभाषणे समितः एषणायां- पिण्डविशुद्धौ आधाकर्मादिदोषरहितभिक्षाग्रहणे समितः भाण्डमात्रस्य - उपकरणमात्रस्योपादाने - ग्रहणे निक्षेपणायां च - मोचने समितः प्रत्युपेक्षणादिक सुन्दरचेष्टया सहित इत्यर्थः, सूत्रे व्यस्ततया पदनिदेश आर्षत्वात्, अथवा आदानेन सह भाण्डमात्रस्य निक्षेपणेति समासयोजना, उच्चारः - पुरीषं प्रश्रवणं-मूत्रं खेल:- कफः सिंघानो - नासिकामलः जल्लः- शरीरमलः एषां परि-सर्वैः प्रकारैः स्थापनं-अपुनर्ग्रहणतया न्यासः परित्याग इत्यर्थः तत्र भवा पारिष्ठापनिकी, तत्र सुन्दर चेष्टा क्रिया इत्यर्थः, तस्यां समितः- उपयुक्तः, "प्रत्यये ङीर्नव।” (श्रीसिद्ध. अ. ८पा. ३. ३१) इति प्राकृतसूत्रेण स्त्रीलक्षणो ङीप्रत्ययो विकल्पनीयः, यथा 'ईरियाबहि आए विराङ्खणाए' इत्यन्त्र, एतच्चान्त्यसमितिद्वयं भगवतो भाण्डािनाद्यसम्भवेऽपि नामाखण्डनार्थमुक्तमिति वादरेक्षिकया प्रतिभाति, सूक्ष्मेक्षिकया तु यथा वस्त्रैषणाया असम्भवेऽपि सर्वथा एषणासमितेर्भगवतोऽसम्भवो न, आहारादौ तस्या उपयोगात्, तथाऽन्यभाण्डासम्भवेऽपि देवदूष्य| सम्बन्धिनी चतुर्थसमितिर्भवत्येव, दृश्यते च श्रीषीरस्य द्विजदाने देवदूभ्यादाननिक्षेपौ, एवं श्लेष्माद्यभावेऽपि नीहारप्रवृत्तौ पञ्चमीसमितिरपी त्यलं प्रसङ्गेन, तथा मनःसमितः- कुशलमनोयोगप्रवर्तकः वचः समितः- कुशलवाग्योगप्रवर्तकः, | भाषासमित इत्युक्तेऽपि यद्वचः समित इत्युक्तं तद् द्वितीयसमिताबत्यादरनिरूपणार्थं करणत्रयशुद्धिसूत्रे सङ्ख्यापूरणार्थं १ सूत्रपाठस्य गृहस्थानामपि पारिकापनिकाकारस्येवा सण्डतैव युद्धेति न दोषः ( इति हीर वृत्ती ) ।
Fur Fate & Cy
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ----------------------
------ मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
। मण्यादि
[३१]
श्रीजम्यू
18|च, कायसमितः-प्रशस्तकायव्यापारवान् , मनोगुप्त:-अकुशलमनोयोगरोधकः यावत्पदात् 'वयगुत्ते कायगुत्ते गुत्ते गु-18| वक्षरकारे द्वीपशा- 18|तिदिए'त्ति वाग्गुप्त:-अकुशलवाग्योगनिरोधकः कायगुप्तः-अकुशलकाययोगनिरोधका, एवं च सत्प्रवृत्तिरूपाः समित-18 श्रीऋषमन्तिचन्द्री
18| योऽसत्प्रवृत्तिनिरोधरूपास्तु गुप्तय इति, अत एव गुप्तः सर्वथा संवृतत्वात् , तत्रैव विशेषणद्वारा हेतुमाह-गुप्तेन्द्रियः[प्रभार श्रा या वृत्तिः
शब्दादिग्विन्द्रियार्थेष्वरक्तद्विष्टतया प्रवर्त्तनात् , तथा गुप्तिभिर्वसत्यादिभियनपूर्वकं रक्षितं गुप्तं ब्रह्म-मैथुनविरति॥१४८॥ IN रूपं चरतीत्येवंशीला,तथा अक्रोधः यावत्करणात् 'अमाणे अमाए' इति पदद्वयं ग्राह्य, व्यक्तं च, अलोभः, अत्र सर्वत्र |
| स्वल्पार्थे नञ् ग्राह्यः, तेन स्वल्पक्रोधादिभिरित्यर्थः, अन्यथा सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकावधि लोभोदयस्योपशान्तमोहा-10 वधि च चतुर्णामपि क्रोधादीनां सत्तायाः सम्भवे तदभावासम्भवात् , कुत एवंविध इत्याह-श्रान्तो-भवभ्रमणतः18 प्रस्वान्तः-प्रकृष्टचित्तः उपसर्गाचापातेऽपि धीरचित्तत्त्वात् उपशान्त इति व्यक्तं अत एव परिनिर्वृतः सकलसन्तापवर्जितत्वात् , छिन्नश्रोता:-छिन्नसंसारप्रवाहः छिन्नशोको वा निरुपलेपो-द्रव्यभावमलरहितः, अथ सोपमानश्चतुर्द-1 |शविशेषणभंगवन्तं विशिनष्टि-'शङ्खमिवे'त्यत्र प्राकृतशैल्या क्लीबभावस्तेन शङ्ख इव निर्गतमञ्जनमिवाञ्जनं-कर्म जीवमालिम्यहेतुत्वात् यस्मात् स तथा, जात्यकनकमिव-पोडशवर्णककाञ्चनमिव जातं रूप-स्वरूपं रागादिकुद्रव्यविरहाद्यस्य
॥१४८॥ 18 स तथा, आदर्श-दर्पणे प्रतिभागः-प्रतिविम्बः स इव प्रकटभावः, अयमर्थ:-आदर्श प्रतिविम्बितस्य वस्तुनो यथा |
| यथावदुपलभ्यमानस्वभावा नयनमुखादिधर्मा उपलभ्यन्ते तथा स्वामिन्यपि यथास्थितो मनःपरिणाम उपलभ्यते,
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ----------------------
------ मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३१]
ISIन तु शठवद्दर्शितावहित्य इति, कूर्मवद् गुप्तेन्द्रियः, कच्छपो हि कन्धरापादलक्षणावयवपञ्चकेन गुप्तो भवति एवमय-18| 18|मपीन्द्रियपश्चकेन, पूर्वोक्तं गुप्तेन्द्रियत्वं दृष्टान्तद्वारा सुबोधमिति न पौनरुक्त्यं, पुष्करपत्रमिव' निरुपलेपः, पङ्कजल- ॥॥ ISI कल्पस्वजनविषयस्नेहरहित इत्यर्थः,गगनमिव निरालम्बनः-कुलग्रामनगरादिनिश्रारहितः अनिल इव-वायुरिव निरालयो-|| IS वसतिप्रतिबन्धवन्ध्यः, यथोचित सततविहारित्वात् , अयमत्राशयः-यथा वायुः सर्वत्र संचरिष्णुत्वेनानियतवासी तथा|
प्रभुरपीति, चन्द्र इव सौम्यदर्शन:-अरौद्रमूर्तिः, सूर इव तेजस्वी परतीर्थिकतेजोऽपहारित्वात् , विहगः-पक्षी स इवाप्रतिबद्धतया गच्छतीत्येवंशीलः स तथा, किमुक्तं भवति?-स्थलचरजलचरौ स्थलजलनिश्रितगमनौ न तथा विहगः | स्वावयवभूतपक्षसापेक्षगामित्वात् , तेन विहगवदयं प्रभुरनेकेष्वनार्यदेशेषु कर्मक्षयसाहायककारिषु परानपेक्षः स्वशत्या
विहरतीति, सागर इव गम्भीर:-परैरलब्धमध्यो निरुपमज्ञानवत्वेऽपि रहःकृतपरदुश्चरितानामपरिनावित्वात् 1 हर्षशोकादिकारणसद्भावेऽपि तद्विकारादर्शनाद्वा, मन्दर इव अकम्पः, स्वप्रतिज्ञातेषु तपासंयमेषु दाशयत्वेन
प्रवर्त्तनात् , पृथ्वीव सर्वान् स्पर्शाननुकूलेतरान् विषहते यः स तथा, जीव इवाप्रतिहतगतिः-अस्खलितगतिः, यथा हि जीवस्य कटकुट्यादिभिर्न गतिः प्रतिहन्यते तथा केनापि परपाखण्डिना आर्यानार्यदेशेषु सञ्चरतः
प्रभोरपि, अथ मा भवन्तु दुर्द्धर्षस्य प्रभोः परे गतिविघातकाः परं स्वप्रतिबन्धेनापि गतिहिन्यते इत्याह18|'त्थि ण' मित्यादि, नास्ति तस्य भगवतः कुत्रचित् प्रतिबन्धः-अयं ममास्याहमित्याशयबन्धरूपः, अयमेव हि
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], -----------------------
------ मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्य
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सुत्रांक
[३१]
संसारशब्दव्यपदेश्यः, यदूचे-"अयं ममेति संसारो, नाहं न मम निर्वृतिः। चतुर्भिरक्षरैर्वन्धः, पञ्चभिः परमं पदम्॥" वक्षस्कारे द्वीपशा-सच द्रव्यतः-द्रव्यं प्रतीत्य "स्पक्लोपात् पञ्चमी", एवं क्षेत्रत इत्याद्यपि, तत्र द्रव्यत इति ब्याख्येयपदपरामर्थश्रीऋषम
चन्द्रा तेन न पौनरुत्यं, इह लोके खलुक्यालद्वारे माता मम पिता ममेत्यादि, सावरकरणात भिजा मे पत्ता मे पाया प्रभावाया वृचिः मे णता मे सुण्डा मे सहिसयण'त्ति भार्यापुत्रौ प्रसिद्धौ घूआ-पुत्री नप्ता-पुत्रपुत्रः स्नुषा-पुत्रभार्या सखा-मित्रं
मण्यादि ॥१४९॥ स्वजन:-पितृव्यादिः सग्रन्थ:-स्वजनस्यापि स्वजनः पितृव्यपुत्रशालादिः संस्तुतो-भूयोदर्शनेन परिचितः, एषां च |
&| जीवपर्यायत्वान् द्रव्यत्वं, कथबित् पर्यायपर्यायिणोरभेदोपचारात्, हिरण्यं मे सुवर्ण मे, यावच्छब्दात 'कसं मे|
दूर्स मे धर्ण में' इत्यादि प्रकरणं उपकरणं-उक्तव्यतिरिक्तं, अयं च यावत्पदसंग्रहोऽदृष्टमूलकत्वेन मयैव सिद्धान्तशैल्या
प्राकृतीकृत्य स्थानाशून्यतार्थ लिखितोऽस्ति तेन सैद्धान्तिकैरेतन्मूलपाठगवेषणायामुद्यमः कार्यः, प्रकारान्तरेण द्रव्य-16 18 प्रतिबन्धमाह-अथवेति-प्रकारान्तरे, उक्तरीत्या प्रतिव्यक्ति कथनस्थाशक्यत्वेन सझेपत उच्यते इति शेषः, सञ्चित्ते18| द्विपदादौ अचित्ते-हिरण्यादौ मिश्रे-हिरण्यालङ्कृतद्विपदादी, द्रव्यजाते-द्रव्यप्रकारे वा समुच्चये स-प्रतिबन्धस्तस्य॥ प्रभोरेवमिति-ममेदमित्याशयबन्धेन न भवति 'खित्तभो' इत्यादि प्रायो व्यक्तमिदं, नवरं क्षेत्रं-धान्यजन्मभूमिः18In४९
खलं-धान्यमेलनपचनादिस्थंडिलं एवं-उत्तरीत्या आशयबन्धस्तस्य प्रभोर्न भवति, 'कालओ'इत्यादि, कालतः लोके-18 सप्तप्राणमाने लवे-सप्तस्तोकमामे मुहूर्ते-सप्तसप्ततिलवमाने अहोरात्रे-त्रिंशन्मुहूर्तमाने पक्षे-पञ्चदशाहोरात्रमाने मासे-181
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आगम
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"जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र - ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [२१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
पक्षद्वयमाने ऋतौ - मासद्वयमाने अपने ऋतुयमाने संवत्सरे - अयनद्वयमाने अन्यतरस्मिन् वा दीर्घकाले वर्षशतादौ प्रतिबन्धः एवं-उक्तप्रकारेण तस्य न भवति, अमृतुरनुकूलो ममायं च प्रतिकूलो ममेति मतिर्न तस्य, यथा श्रीमतां शीतर्त्तुरनुकूलतया प्रतिबन्धं विधत्ते निर्द्धनानां तु उप्णः, 'भावओ' इत्यादि, कण्ठ्यमेतत्, नवरं कदाग्रहवशात् क्रोधादीन् न त्यजामीति धीर्न तस्येत्यर्थः, एतच्च सूत्रमुपलक्षणभूतं तेनानुक्तानां सर्वेषामपि पापस्थानानां ग्रहः, अथ कथं | भगवान् विहरति स्मेत्याह- 'से ण' मित्यादि, स भगवान् वर्षासु प्रावट्काले वास:- अवस्थानं तद्वर्ज, तेन विनेत्यर्थः, | हेमन्ताः - शीतकालमासाः गीष्मा - उष्णकालमासास्तेषु ग्रामे - अल्पीयसि सन्निवेशे एका रात्रिर्वासमानतया यस्य स एकरात्रिकः एकदिनवासीत्यर्थः, नगरे - गरीयस सन्निवेशे पञ्च रात्रयो वासमानतया यस्य स तथा पचंदिनवासीति
१ न चैवं 'गाने एगराइए' इत्यादि प्रवचनबलेन साधूनामपि मुख्यइतिरियमेव भविष्यतीति शंकनीयं यतः साधून विकृत्यैव विघसूत्रपाठोऽभिग्रह विशेभवतः एनामसातव्यः, औपपातिकष्टत्तौ तथैव व्याख्यानात् अत एव सामान्यतः साधूनां बिहारे विचित्रताप्यागमे प्रतीता, तथाहि 'एगाहं पंचामा जहास माहीए 'ति श्रीनिवीयभाष्ये अस्य व्याख्या- 'परिमापडिया एगाई पंच महानंदे। जिसुद्धा मासो निकारणओ अ घेराणं ॥ १ ॥ परिमापडिय प्रयाणं एगाहो अदालदिआग पंचाहो जिणत्ति जिनकप्पियाणं सुद्धति-मुद्रपारिहारिणं, मुदग्गहणं पच्छिलान पारिहारिनिसेद्दणत्वं येराणं च एतेसिं मासकप्पविहारे, निष्याचाए- कारणाभावे, वाघाए युग पेरकाि अतिं वा मार्च अच्छंति, 'ऊणाहरितमाता एवं बेराज अ णायथ्या इअरे अ विह रिद्धं नियमा बतारि अच्छेति ॥ १ ॥ एवं ऊमा अइरिता पेरण अट्ट माया जायच्या, हमरे णाम परिमापरियण्णा १ महानंदिया २ विसुद्रपारिहारिभा जिपकपिआय जहाविहारेण अट्ठ विहारिकम वासारतिय चउरो माया सन्दे एमसि भच्छंति ( इति ही इस
Fu Frale & Pinunate Cy
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------ मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया वृचिः ॥१०॥
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भावः, यथा दिनशब्दोऽहोरात्रवाची तथा रात्रिशब्दोऽप्यहोरात्रधाचीति, ननु तर्हि दिनशब्द एव कथं नोपात्तः, वक्षस्कारे
श्रीऋषभउच्यते, निशाविहारस्यासंयमहेतुत्वेन चतुर्जानिनोऽपि तीर्थकरा अवगृहीतायां वसतावेव वासतेय्यां [ रात्रौ] वस
प्रभोः श्रान्तीति वृद्धाम्नायः, 'व्यपगतहास्सशोकरतिभयपरित्रासः' तत्रारतिः-मनसोऽनौत्सुक्यमुकेंगफलक रतिः-तदभावः परि
मण्यादि त्रास:-आकस्मिकं भयं शेष व्यक्तं, निर्गतो ममेतिशब्दो यस्मात् स तथा, किमुक्तं भवति ?-प्रभोर्ममेत्यभिलापेनाभिलाप्यं नास्तीति, पष्टयेकवचनान्तस्यास्मच्छब्दस्यानुकरणशब्दत्वान्ममेत्यस्य साधुता, निरहंकारः-अहमितिकरण| महङ्कारः स निर्गतो यस्मात्स तथा, लघुभूत ऊर्ध्वगतिकत्वात् , अत एवाग्रन्धो-बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहितः, वास्या
सूत्रधारशस्त्रविशेषेण यत्तत्तक्षणं-त्वच उत्खननं तत्राद्विष्टः-अद्वेषवान्, चन्दनानुलेपनेऽरक्तः-अरागवान, लेष्टौ-13 |दृषदि काश्चने च समः, उपेक्षणीयत्वेनोभयत्र साम्यभाक्, इहलोके-वर्तमानभवे मनुष्यलोके परलोके-देवभवादी तत्रा-18 प्रतिबद्धः तत्रत्यसुखनिष्पिपा सित्वात् जीवितमरणयोर्निरवकांक्ष:-इन्द्रनरेन्द्रादिपूजाप्राप्तौ जीविते दुर्विषहपरीषहाप्ती च मरणे निःस्पृहः, संसारपारगामीति व्यक्तं, कर्मणां सङ्गः-अनादिकालीनो जीवप्रदेशैः सह सम्बन्धस्तस्य निर्घातनंविश्लेषणं तदर्थमभ्युत्थित-उद्यतो विहरति । अथ ज्ञानकस्याणकवर्णनायाह-'तस्स ण'मित्यादि, 'तस्य' भगवतः ॥१५०॥ एतेन' अनन्तरोकेन विहारेण विहरत एकस्मिन् वर्षसहने व्यतिक्रान्ते सति पुरिमतालस्य नगरस्य बहिः शकटमुखे उद्याने न्यग्रोधवरपादपस्याधो 'ध्यानान्तरिके ति अन्तरस्य-विच्छेदस्य करणमन्तरिका स्त्रीलिङ्गशब्दः अथवा अन्तरमेवा
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------ मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३१]
18न्तर्य, भेषजादित्वात् स्वार्थे यण प्रत्ययस्ततः स्त्रीत्वविवक्षायां डीमत्यये आन्तरी आम्तर्येवान्तरिका ध्यानस्यान्सरिकाध्या
नान्तरिका-आरब्धध्यानस्य समाप्तिरपूर्वस्यानारम्भणमित्यर्थः अतस्तस्यां वर्तमानस्य, कोऽर्थः-पृथक्त्ववितर्क सविचारं १ एकत्ववितर्कमविचार २ सूक्ष्मक्रियमप्रतिपाति ३ म्युच्छिन्नक्रियमनिवर्ति ४ इति चतुश्चरणात्मकस्य शुक्लध्यानस्य चरणद्वये ध्याते चरमचरणद्वयमप्रतिपन्नस्येति, योगनिरोधरूपध्यानस्य चतुर्दशगुणस्थानवर्तिनि केवलिन्येव सम्भवात् , फाल्गुनबहुलस्यैकादश्यां पूर्वाहकालरूपो यः समयः-अवसरस्तस्मिन् अष्टमेन भक्तेन-आगमभाषयोपवासत्रयलक्षणेनापानकेन-जलयर्जितेनोत्तराषाढानक्षत्रे चन्द्रेण सहेति गम्यं योगमुपागते सति, उभयत्र णं वाक्यालङ्कारे, अथवा
आपत्वात् सप्तम्यर्थे तृतीया, अनुत्तरेणेति-क्षपकश्रेणिप्रतिपन्नत्वेन केबलासन्नत्वेन परमविशुद्धिपदमाशत्वेन न विद्यते S| उत्तर-प्रधानमप्रवर्ति वा छानस्थिकज्ञानं यस्मात्तसथा, तेन ज्ञानेन-तत्वावबोधरूपेण, एवं यावच्छब्दात दानेन
धायिकभावापन्नेन सम्यक्त्वेन चारित्रेण-विरतिपरिणामरूपेण क्षायिकभावापनेनैव 'तपसे ति व्यक्त 'बलेन' बहननोत्थप्राणेन 'वीर्येण' मानसोत्साहेन 'आलयेन' निर्दोषवसत्या 'विहारेण' गोचरचर्यादिहिण्डनलक्षणेम 'भावनया' महाव्रतसम्बन्धिन्या मनोगुप्त्यादिरूपया पदार्थानामनित्यत्वादिचिन्तनरूपया था 'क्षान्त्या' क्रोधनिग्रहेण 'गुत्या' प्राग्व्याख्यातस्वरूपया 'मुक्त्या' निर्लोभतया 'तुष्या' इच्छानिवृत्या 'भावेन' मायानिमहेण 'माइवेन' माननिप्रहेण 'लाघवेन' क्रियासु दक्षभावेन, भावे कप्रत्ययविषाणास, सोपचित-सोपवयं पुष्टमितियावत् एतादृशेन प्रस्तावाग्निवा
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
-------- मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक
[३१]
श्रीजम्बू- णमार्गसम्बन्धिनैव सुचरितेन-सदाचरणेन फलं-प्रक्रमान्मुक्तिलक्षणं यस्मात् एवंविधो यो निर्वाणमार्गः-असाधारण-18||रवक्षस्कारे
द्वीपशा-18रत्नत्रयरूपतेनात्मानं भावयतः केवलवरज्ञानदर्शनं समुत्पन्नमित्यन्वयः, तत्रानन्तमविनाशिस्वात् अनुत्तरं सर्वो-18 आजम न्तिचन्द्री-त्तिमत्वात् निर्व्याघातं कटकुझ्यादिभिरप्रतिहतत्वात् निरावरणं क्षायिकत्वात् कृत्स्नं सकलार्थग्राहकत्वात् प्रतिपूर्ण 81
प्रभोः श्राया वृत्तिः
सकलस्वांशकलितत्वात् पूर्णचन्द्रवत् केवलं-असहायं 'णटुंमि उ छाउमस्थिए णाणे [नष्टे छानस्थिके ज्ञान एव] 8.३१ ॥१५१॥
इति वचनात् , परं-प्रधानं ज्ञानं च दर्शनं चेति समाहारद्वन्द्वे एकवझावः ततः पूर्वपदाम्यां कर्मधारयः, तत्र सामा
न्यविशेषोभयात्मके ज्ञेयवस्तुनि ज्ञानं विशेषावबोधरूपं दर्शनं सामान्यावबोधरूपमिति, अत्रायमाशयः-दूरादेव तालIS तमालादिक तरुनिकर विशिष्टव्यक्तिरूपतयाऽनवधारितमवलोकयतः पुरुषस्य सामान्येन वृक्षमात्रप्रतीतिजनकं यदप-|
रिस्फुट किमपि रूपं चकास्ति तद्दर्शनं 'निर्विशेष विशेषाणां ग्रहो दर्शन मिति वचनात् , यत्पुनस्तस्यैव प्रत्यासीदतस्ता18| लतमालादिव्यक्तिरूपतयाऽवधारितं तमेव तरुसमूहमुत्पश्यतो विशिष्टव्यक्तिप्रतीतिजनक परिस्फुट रूपमाभाति ॥ तज्ज्ञानं, ननु भवतु नाम इत्थमनुभवसिद्धे ज्ञाने छद्मस्थानां विशेषग्राहकता दर्शने च सामान्यग्राहकता, परं केव-13
॥१५शा लिनो ज्ञानक्षणे सामान्यांशाग्रहणाद्दर्शनेन च विशेषांशग्रहणाभावाद् द्वयोरपि सर्वार्थविषयत्वं विरुध्यते, उच्यते, ज्ञान
क्षणे हि केवलिनां ज्ञाने यावद्विशेषान् गृहति सति सामान्यं प्रतिभातमेव, अशेषविशेषराशिरूपत्वात् सामान्यस्य, 1 दर्शनक्षणे च दर्शने सामान्यं गृह्णति सति यावद्विशेषाः प्रतिभाता एव, विशेषानालिङ्गितस्य सामान्यस्याभावात्,
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------ मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३१]
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अत एव 'निर्विशेष विशेषाणां ग्रहो दर्शन'मित्युक्तमनन्तरोक्तग्रन्थे, कोऽर्थः ?-ज्ञाने प्रधानभावेन विशेषा गौणभावेन || | सामान्य दर्शने प्रधानभावेन सामान्य गौणभावेन विशेषा इति विशेषः । समुत्पन्न-सम्यक्-क्षायिकत्वेनावरणदेशस्याप्यभावात् उत्पन्नं, प्रादुर्भूतमित्यर्थः, उत्पन्न केवलस्य यद्भगवतः स्वरूपं तत्प्रकटयति-जिणे जाए'इत्यादि, जिनोरागादिजेता, केवल-श्रुतज्ञानाद्यसहायकं ज्ञानमस्खास्तीति केवली, अत एव सर्वज्ञो-विशेषांशपुरस्कारेण सर्वज्ञाता | सर्वदर्शी-सामान्यांशपुरस्कारेण सर्वज्ञाता, नन्वहता केवलज्ञानकेवलदर्शनावरणयोः क्षीणमोहान्त्यसमय एव क्षीण-| | स्वेन युगपदुत्पत्तिकत्वेनोपयोगस्वभावात् क्रमप्रवृत्तौ च सिद्धायां 'सधन्नू सचदरिसी' इति सूत्रं यथा ज्ञानप्राथम्य
सूचकमुपन्यस्त तथा सबदरिसी सपन इत्येवं दर्शनप्राथम्यसूचकं किं न, तुल्यन्यायत्वात्, नैवं, 'सबाओ लद्धीओ | सागारोवउत्तस्स उववजंति, णो अणागारोवउत्तस्स' [सर्वा लब्धयः साकारोपयुक्तस्योत्पद्यन्ते नानाकारोपयुक्तस्य ] | इत्यागमादुत्पत्तिक्रमेण सर्वदा जिनानां प्रथमे समये ज्ञानं ततो द्वितीये दर्शनं भवतीति ज्ञापनार्थत्वादित्थमुपन्या-18 | सस्येति, छद्मस्थानां तु प्रथमे समये दर्शनं द्वितीये ज्ञानमिति प्रसङ्गा बोध्यं । उक्तविशेषणद्वयमेव विशिनष्टि-सनैरयि
भवसरवाचकवया शेयोनार्य समयशम्यः, छपस्थानो समयेनोपयोगाभावात् , अत एव 'वयमाणे न याणई' खागमः, अत एव च 'जाणइ पासई'सवधिव्याख्या गन्यामपि अवसरपरतीच समयधम्दव्यास्याऽविरुवा, स च स्थानाने दशमस्थानादी मायाप्रती च समयसाविषयत्वं प्रस्थस्य RI 8 इमपत्रीये 'समयं बोयम ! मा पमायए' इत्यत्र च ।
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
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IN श्रीऋपम
प्रत
द्वीपशा
सूत्रांक
श्रीजम्यू कतिर्यग्नरामरस्य पञ्चास्तिकायारमकक्षेत्रखण्डस्य उपलक्षणात् लोकस्य अलोकस्यापि-नभःप्रदेशमात्रात्मकक्षेत्र विशेषस्य || वक्षस्कारे
| पर्यायान-कमभाविस्वरूपविशेषान् जानाति केवलज्ञानेन पश्यति केवलदर्शनेन, पर्यायानित्युक्ते द्वयमपि ग्राहां, नहि || न्तिचन्द्री
प्रमोः श्रापर्याया द्रव्यवियुता भवेयुर्द्रव्यं वा पर्यायवियुतं, तेनाधेयमाघारमाक्षिपतीति, अन्यथा आधेयत्वस्यैवानुपपत्तेः, या पृत्तिः
मण्यादि यथाऽऽकाशस्य, न हि आकाशं काप्यवतिष्ठते तस्याधारमात्ररूपस्यैव सिद्धान्ते भणनात्, अथवा सामान्यत उक्तं सू. ३१ ॥१५२॥ पर्यायाणां ज्ञान व्यक्त्या निरूपयन्नाह-तद्यथा-'आगर्ति' यतः स्थानादागच्छन्ति विवक्षितं स्थानं जीवाः 'गर्ति' | 18| यत्र मृत्वोत्पद्यन्ते 'स्थिति' कायस्थितिभवस्थितिरूपां च्यवन' देवलोकाद्देवानां मनुष्यतिर्यश्ववतरणं 'उपपात'
देवनारकजन्मस्थानं भुक्तं-अशनादि कृतं-चौर्यादि प्रतिसेवितं-मैथुनादि आविःकर्म-प्रकटकार्य रहाकर्म18|| प्रच्छन्नकृतं, 'तं तं कालं'ति प्राकृतत्वात् सप्तम्यर्थे द्वितीया तस्मिन् २ काले, वीप्सायां द्विवचनं, मनोवधाकावान् 18 योगान्-करणत्रयव्यापारान् एवमादीन्, जीवानामपि सर्वभावान् , जीवधर्मानित्यर्थः, अजीवानामपि सर्वभावान्18 रूपादिधर्मान् मोक्षमार्गस्य-रक्षत्रयरूपस्य विशुद्धतरकान्-प्रकर्षकोटिप्राप्तान् कर्मक्षयहेतून् भावाम्-ज्ञानाचारादीम्
जानन् पश्यन् विचरतीति गम्यं, कथं च जानन् पश्यन् विचरतीत्याह-एप:-अनन्तरं वक्ष्यमाणो धर्मः खलु अव- १५२॥ धारणे मोक्षमार्गः, सिद्धिसाधकत्वेन मम-देशकस्यान्येषां च-नोवां हित-कल्याण पथ्यभोजनवरित्यर्थः सुखं-अनुकूलपेय पिपासोः शीतलजलपानवत् निश्रेयसं-मोक्षस्तत्कर:-पकानां हितादीनां कारक इति, सर्वदुःखषिमोक्षण
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प्रत सूत्रांक [३१]
मोक्षण क्षेपे मोक्षयति मोचयतीति] इति व्यक्त, परमसुर्ख-आत्यन्तिकसुखं समापयतीति व्युत्पत्तिचक्षात् परमसुखसमाननः 'समापेः समाणः' (श्रीसिद्ध० अ० पा०) इति प्राकृतसूत्रेण समानादेशे अनटि प्रत्यये रूपसिद्धिः, निःश्रेयसेत्यत्र यकारलोपः प्राकृतत्वात्, भविष्यतीति, अथ उत्पन्न केवलज्ञानो भगवान् यथा धर्म प्रावुश्चकार तथा आह-'तते ण'मित्यादि, ततः स भगवान् श्रमणानां निर्ग्रन्थानां निर्घन्धीनां च पश्च महानतानि-सर्वप्राणातिपातविरमणादीनि सभा बनाकानि-ईर्यासमित्यादिस्वभावनोपेतानि षट् च जीवविकायान्-पृथिव्यादित्रसान्तान् इत्येवंरूपं धर्म उपविशन विहरतीति सम्बन्धः, यच्च धर्म प्रक्रान्तब्ये पहजीवनिकायकथनमुपकान्तं तज्जीवपरिज्ञानमन्तरेण प्रतपालनासम्भव || | इति ज्ञापनार्थ, नन्वय नियमः प्रथमव्रते सम्भवेत् मृषावारविरमणादीनां तु भाषाविभागादिज्ञामाधीनत्वात् न सम्भ-18| | वेदिति, उच्यते, शेषनतानामपि प्राणातिपातविरमणप्रतस्य रक्षकत्वेन नियुक्तत्वात् , महावनस्य वृत्तिवृक्षक्त्, तथाहि
मृषाभाषामभाषमाणो बभ्याख्यानादिविरतो न कुलबध्वादीन् अदत्तमनाददानो धनस्वामिनं सचित्तजलफलादिकं च | 18 मैथुनविरतो नवलक्षपश्चेन्द्रियादीन् परिग्रहविरतः शुक्तिकस्तूरीमृगादींश्च नातिपातयेदिति, अथैतदेव किश्चिवक्त्या
विवृणोति, तद्यथा-पृथिवीकायिकान् जीवान उपदिशन् विहरतीति सम्बन्धः, लाघवार्थकत्वेन सूत्रप्रवृत्तेर्देशप्रहणोत् | पूर्णोऽप्यालापको वाच्यः, स चायं-'आउकाइए तेउक्काइए वाउकाइए वणस्सइकाइए तसकाइए'त्ति व्यक्तं, तथा | पञ्च महाप्रतानि सभावनाकानि 'भावनागमेन' श्रीआचाराङ्गाद्वितीयश्रुतस्कन्धगतभावनाख्याध्ययनगतपाठेन भणित-1
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सूत्रांक
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दीप
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [३१]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्री - या वृत्तिः
॥१५३॥
व्यानि अत्र च सूत्रे यदुद्देशे प्रथमं 'पंच महबयाई' इत्याद्युक्तं निर्देशे तु व्यत्ययेन 'तं० - पुढविकाइए' इत्यादि, तत्कधमिति नाशङ्कनीयं यतः पश्चाद्दुद्दिष्टानामपि षड्जीवनिकायानां प्रस्तुतोपाने स्वल्पवक्तव्यतया प्रथमं प्ररूपणाया युक्त्युपपन्नत्वात्, सूचीकटाहन्यायोऽत्रानुसरणीयो, 'विचित्रा सूत्राणां कृतिराचार्यस्य' इति न्यायेन वा स्वत एवेति ज्ञेयं, ननु गृहिधर्मसंविद्मपाक्षिकधर्मावपि भगवता देशनीयौ मोक्षाङ्गत्वात्, यदुक्तम्— 'सावज्जजोगपरिवज्जणाउ सबुत्तमो जईधम्मो । बीओ सावगधम्मो तइओ संविग्गपक्खपहो ॥ १ ॥ [ सावद्ययोगपरिवर्जनात् सर्वोत्तम एव । यतिधर्मः । द्वितीयः श्रावकधर्मस्तृतीयः संविग्नपक्षपथः ॥ १ ॥ ] इति, तत्कथमत्र तौ नोक्तौ ?, उच्यते, सर्वसावद्यवर्जकत्वेन देशनायां यतिधर्मस्य प्रथमं देशनीयत्वादत्यासन्नमोक्षपथत्वात् श्रमणसङ्घस्य प्रथमं व्यवस्थापनीयत्वाच्च | प्राधान्यख्यापनार्थं प्रथममुपन्यासः, ततो 'व्याख्यातो विशेषार्थप्रतिपत्ति' रितिन्यायादेतत्पुच्छभूतौ तावपि धर्मों भगवता प्ररूपिताविति ज्ञेयं, भगवत्प्ररूपणामन्तरेणान्येषां तत्तद्ग्रन्थेषु तयोः प्ररूपणानुपपत्तेरित्यलं प्रसङ्गेनेति । अथावन्ध्यशक्तिकवचनगुणप्रतिबुद्धस्य प्रभुपरिकरभूतस्य संघस्य सङ्ख्यामाह -- 'उसभस्स णमित्यादि, सुगमं, नवरं 'जस्स जाब| इआ गणहरा तस्स तावइआ गणा' [ जावइआ जस्स गणा तावइआ गणहरा तस्स । यस्य यावन्तो गणास्तावन्तो | गणधरास्तस्य ] इति वचनाद् गणाः सूत्रे साक्षादनिर्दिष्टा अपि तावन्त एव बोध्याः क्वचिज्जीर्णप्रस्तुतसूत्रादर्शे 'चउ| रासीतिं गणा गणहरा होत्था' इत्यपि पाठो दृश्यते, तत्र तु चतुरशीतिपदस्योभयत्र योजनेन व्याख्या सुबोधैवेति, गणश्चै
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२वक्षस्कारे
श्रीऋषभप्रमोः श्रामण्यादि
सू. ३१
॥१५३॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------ मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३१]
कवाचनाचारयतिसमुदायस्तं धरन्तीति गणधराः, वाचनादिभिर्ज्ञानादिसम्पदा सम्पादकत्वेन गणाधारभूता इति भावः, 'होत्था' इति अभवन् , 'उसमस्स ण' मित्यादि, ऋषभसेनप्रमुखानि चतुरशीतिः श्रमणसहस्राणि एषा उत्कर्षः-उस्कृष्ट|भागस्तत्र भवा उत्कर्षिकी 'प्रत्यये ङीर्वा (श्रीसिद्ध०अ०९पासू०) इत्यनेन डीविकल्पे रूपसिद्धिः, ऋषभस्य श्रमणसम्पदभवत् , अन वाक्यान्तरत्वेन श्रमणशब्दस्य न पौनरुक्त्य, एवं सर्वत्र योज्यं, 'उसहस्सण'मित्यादि, प्रायः कण्ठ्यानि, IS नवरं चतुर्दशपूर्विसूत्रे 'अजिनानां छद्मस्थानां 'सबक्खरसन्निवाईणं ति सर्वेषामक्षराणा-अकारादीनां सन्निपाता-यादिसंयोगा अनन्तत्वादनन्ता अपि ज्ञेयतया विद्यन्ते येषां ते तथा, जिनतुल्यत्वे हेतुमाह-'जिणो विव अवितहमित्यादि. |जिन इवावितथं-यथार्थ व्यागृणतां-व्याकुर्वाणाना, केवलिश्रुतकेवलिनोः प्रज्ञापनायां तुल्यत्वात् , चत्वारि सहनाणि | अोष्टमानि च शतानि एषा औरकर्षिकी चतुर्दशपूर्विसम्पदभवत्, 'विउवित्ति वैक्रियलन्धिमन्तः, शेष स्पष्ट,
| विपुलमतयो-मनःपर्यवज्ञानविशेषवन्तः द्वादश विपुलमतिःसहस्राणि अधिकारात्तेषामेव पटू शतानि पञ्चाशच्चेत्येवं | 18 सर्वत्र योज्यं, वादिनो-वादिलब्धिमन्तः परप्रवादुकनिग्रहसमर्थाः, 'उसमस्स 'मित्यादि, गतौ-देवगतिरूपायां
कल्याणं येषां प्रायः सातोदयत्वात्तेषां, तथा स्थिती-देवायूरूपायां कल्याणं येषां ते तथा, अप्रवीचारसुखस्वामि-18 INI ये श्रमणसहस्रा आसन वे श्रमणपर्षदुतहाऽभवदिति खरूपा वाक्यान्तरवा। २पर ते (श्रुतकेवलिनो)ऽसंख्यभवनिर्णायकाः यवागमः-'संसाईएवि भवे.'
(इति श्रीहीर• वृत्ती)।
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------ मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
या चिः
श्रीजम्बू
18/ कत्वात् , मागमिष्यद्भद्रं येषां ते आगामिभवे सेत्स्यमानत्वात् ते तथा तेषा, अनुत्तरोपपातिकानां' पञ्चानुत्तरलव-18| वक्षस्कारे द्वीपशा- 8 सप्तमदेवविशेषाणां द्वाविंशतिः सहस्राणि नव च शतानि, 'उसमस्स ण'मित्यादि, सुगम, नवरं श्रमणार्यिकासया-1 श्रीमपमन्तिचन्द्री- द्वयमीलने अन्तवासिसङ्गया सम्पद्यते, अथ भगवतः भमणवर्णकसूत्रमाह-अरहता 'मित्यादि, अर्हतः ऋषभस्य
HRS प्रमो' श्रा
|
मण्यादि बहवोऽन्तेवासिनः-शिष्यास्ते च गृहिणोऽपि स्युरित्यनगाराः भगवन्तः पूज्या अपिः समुच्चये एकका-एके अन्ये । ॥१५॥ केचिदपीत्यर्थः मासं यावत् पर्याय:यारित्रपालनं येषां ते तथा, यथौपपातिके सर्वोऽनगारवर्णकस्तथाऽनापि वाच्यः,
कियद्यावविल्याह-कर्ण जानुनी येषां ते अर्ध्वजानकः शुद्धपृथिव्यासनवर्जनादीपनहिकनिषद्याया अभावाचोत्कटु-18 कासना इत्यर्थः, अधःनिरसो-अधोमुखाः नोई तिर्यग्वा विक्षिप्तरष्टयः ध्यानरूपो यः कोष्ठा-कुसूलस्तमुपागताः-तत्र प्रविष्टाः, यथाहि-कोष्ठके धान्य प्रक्षिप्तं न विप्रसृतं भवति एवं तेऽनगारा विषयेष्वविप्रसृतेन्द्रियाः स्युरिति, संयमेन| संवररूपेण सफ्सा-अनशनादिना, चः समुचयार्थो गम्या, संयमतपोमहणं चानयोः प्रधानमोक्षाङ्कत्वख्यापनार्थ, | मधानत्वं च संयमस्य नवकर्मानुपादानहेतुत्वेन तपसश्च पुराणकर्मनिर्जरणहेतुत्वेन, भवति चाभिववकर्मानुपादानाद पुराणकर्मक्षपणाच सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्ष इति, आत्मानं भावयन्तो वासयन्तो विहरस्ति, तिष्ठन्तीत्यर्थः,
॥१५४॥ गविशलेन मनुष्वगतेजीवापगमः स्थितिशब्देन देवभवो जीवितं चाप्याचस्युः बाहीरसूरयः । २ विजयादिविमानोत्पत्तिमता (बोहोर पत्ती) नाह सर्वेऽपि |
दुसरोपपालिका अपक्षमा एम, यापि ममतमा अनुत्तरोपपातिका पर वापि वे वाविधा ति नियमः, अप्रमत्तसंयवोन तमोरपत्ती नियमवात् ।। Sanileoni
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ----------------------
-------- मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३१]
अत्र यावत्यदसंग्राह्यः 'अप्पेगइया दोमासपरिआया' इत्यादिकः औषपातिकग्रन्थो विस्तरभयान्न लिखित इत्यवसेयं, अथ ऋषभस्वामिनः केवलोत्पत्यनन्तरं भव्यानां कियता कालेन सिद्धिगमनं प्रवृत्तं कियन्तं कालं यावदनुवृत्तं चेत्याह-॥ 'अरहयोणमित्यादि, ऋषभस्य द्विविधा अन्तं भवस्य कुर्वन्तीति अन्तकरा-मुक्तिगामिमस्तेषां भूमिः कालः कालस्य |चाधारत्वेन कारणत्वाद् भूमित्वेन व्यपदेशः, तद्यथा-युगानि-पञ्चवर्षमानानि कालविशेषाः लोकप्रसिद्धानि वा कृतयु-18
गादीनि तानि च क्रमवीनीति तत्साधाद्ये क्रमवर्त्तिनो गुरुशिष्यप्रशिष्यादिरूपाः पुरुषास्तेऽपि साध्यसानलक्षण॥ याऽभेदप्रतिपच्या युगानि-पट्टपद्धतिपुरुषा इत्यर्थः तैः प्रमिता अन्तकरभूमियुगान्तकरभूमिरिति, पर्याया-तीर्थकृतः केव-11 || लित्वकालस्तदपेक्षयाऽन्तकरभूमिः, कोऽर्थः -ऋषभस्य इयति केवलपर्यायकालेऽतिक्रान्से मुक्तिगमनं प्रवृत्तमिति, तत्र | | युगान्तकरभूमिर्यावदसङ्ख्यातानि पुरुषा:-पट्टाधिरूढाक्षे युगानि-पूर्वोक्तयुक्त्या पुरुषाः पुरुषयुगानि, समर्थपदत्वात् समासः, नैरन्तर्ये द्वितीया, ऋषभात् प्रमृति श्रीअजितदेवतीर्थ यावत् श्रीऋषभपट्टपरम्परारूदा असङ्ख्याताः सिद्धाः
न तावन्तं कालं मुक्तिगमनविरह इत्यर्थः, यस्तु आविस्ययश प्रभृतीनां ऋषभदेववंशजानां नृपाणां चतुर्दशलक्षप्रमि-1101 18| तानां क्रमेण प्रथमतः सिद्धिगमनं तत एकस्य सर्वार्थसिद्धप्रस्तटगमनमित्याद्यनेकरीत्या अजितजिनपितरं मर्यादीकृत्य
ये त्वन्तरान्तरा मुक्तियामिनले गुगशब्चे गापेक्षिताः छयस्थगुरुशिष्यादिव्यवहितत्वेन (श्रीहीर • पती ) । २ लक्षणा हि द्विविधा साध्यवसाना सारोपाच
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अत्र स्वाया पाया।
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
-------- मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सुत्रांक [३१]
नन्दीसूत्रवृत्तिचूर्णिसिद्धदंडिकादिषु सर्वार्थसिद्धप्रस्तटगमनत्र्यवहितः सिद्धिगम उक्तः स कोशलापट्टपतीन् प्रतीत्या-18|२वक्षस्कारे द्वीपशा-18| वसातव्योऽयं पुण्डरीकगणधरादीन् प्रतीत्येति विशेषः, तथा पर्यायान्तकरभूमिरेषा अन्तर्मुहतं यावत्केवलज्ञानस्य 8 श्रीऋषभन्तिचन्द्री- पर्यायो यस्य स तथा, एवंविधे ऋषभे सति अन्तं-भवान्तमकार्षीद्-अकरोत् नार्वाक् कश्चिदपीति, यतो भगवदम्बा 8
जन्मकल्याया वृत्तिः 12 मरुदेवा प्रथमः सिद्धः, सा तु भगवत्केवलोत्पत्त्यनन्तरमन्तमुहूर्तेनैव सिद्धेति । अथ जम्मकल्याणकादिनक्षत्राण्याह
क्षत्राणि मू. ॥१५५॥ उसमे गं अरहा पंचतत्तरासाढे अभीइछहे होत्था, तंजहा-उत्तरासाढाहिं चुए चइत्ता गम्भं वक्रते उत्तरासाढाहि जाए उत्तरासा
३२ ढाहिं रायाभिसेजे पत्ते उत्तरासाढाहिं मुंढे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइए उत्तरासाढाहिं अर्णते जाव समुप्पण्णे, अभीइणा परिणिन्बुए (सूत्रं ३२) 'उसमे ण'मित्यादि, ऋषभोऽहन पञ्चसु-च्यवनजन्मराज्याभिषेकदीक्षाज्ञानलक्षणेषु वस्तुषु उत्तरापाढानक्षत्रं चन्द्रेण ॥ भुज्यमानं यस्य स तथा अभिजिन्नक्षत्रं षष्ठे-निर्वाणलक्षणे वस्तुनि यस्य यद्वा अभिजिन्नक्षत्रे षष्ठं निर्वाणलक्षणं वस्तु यस्य स तथा, उक्तमेवार्थ भावयति, तद्यथा-उत्तराषाढाभिर्युते चन्द्रे इति शेषः, सूत्रे बहुवचनं प्राकृतशैल्या, एवमग्रेऽपि, कयुतः-सर्वार्थसिद्धनाम्नो महाविमानान्निर्गत इत्यर्थः, च्युत्वा गर्भ व्युत्क्रान्तः मरुदेवायाः कुक्षाववतीर्ण-1|| वानित्यर्थः १, जातो-गर्भवासान्निष्क्रान्तः २, राज्याभिषेकं प्राप्तः ३, मुण्डो भूत्वा-अगारं मुक्त्वा अनगारितां| साधुतां प्रत्रजितः प्राप्त इत्यर्थः, पञ्चमी चात्र क्यब्लोपजन्या ४, अनन्तं यावत् केवलज्ञानं समुत्पन्नं ५, यावत्पद-MST
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sesesesesesesesese.
ऋषभप्रभो: जन्मकल्यानकादि नक्षत्राणि
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------ मूलं [३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३२]
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संग्रहः पूर्ववत् , अभीचिना युते चन्द्रे परिनिर्वतः-सिद्धिं गतः ६, ननु अस्मादेव विभागसूत्रबलादादिदेवस्य पट्क-18 ल्याणकी समापद्यमाना दुर्निवारेति चेत्, न, तदेव हि कल्याणकं यत्रासनप्रकम्पप्रयुक्तावधयः सकलसुरासुरेन्द्रा । जीतमिति विधित्सवो युगपत् ससम्भ्रमा उपतिष्ठन्ते, न ह्ययं षष्ठकल्याणकत्वेन भवता निरूप्यमानो राज्याभिषेकस्ता-N
शस्तेन वीरस्य गर्भापहार इव नायं कल्याणक, अनन्तरोक्तलक्षणायोगात्, न च तर्हि निरर्थकमस्य कल्याणकाधिकारे पठनमिति वाच्यं, प्रथमतीर्थेशराज्याभिषेकस्य जीतमिति शक्रेण क्रियमाणस्य देवकार्यत्वलक्षणसाधम्र्येण समाननक्षत्रजाततया च प्रसङ्गेन तत्पठनस्यापि सार्थकत्वात् , तेन समाननक्षत्रजातत्वे सत्यपि कल्याणकत्वाभावेनानिय-18 । तवक्तव्यतया क्वचिद्राज्याभिषेकस्याकथनेऽपि न दोषः, अत एव दशाश्रुतस्कन्धाष्टमाध्ययने पर्युषणाकल्पे श्रीभद्रबा| हुस्खामिपादाः 'तेणं कालेणं तेणं समएणं उसमे अरहा कोसलिए चउउत्तरासाढे अभीइपंचमे होत्था," इति पश्चकल्याणकनक्षत्रप्रतिपादकमेव सूत्रं वबन्धिरे, न तु राज्याभिषेकनक्षत्राभिधायकमपीति, न च प्रस्तुतव्याख्यानस्यानागमिकत्वं भावनीयं, आचारानभावनाध्ययने श्रीवीरकल्याणकसूत्रस्यैवमेव व्याख्यातत्वात् । अथ भगवतः शरीरसम्पदं शरीरप्रमाणं च वर्णयन्नाह
उसमे ण अरहा कोसलिए बजरिसहनारायसंघयणे समचउरंससंठाणसंठिए पंच धणुसवाई उद्धं उच्चत्तेणं होत्था । उसमे गं अरहा यीसं पुषसयसहस्साई कुमारवासमझे वसित्ता तेवहि पुवसयसहस्साई महारज्जवासमझे वसित्ता तेसीई पुरसयसहत्साई
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अनुक्रम [४५]
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अथ ऋषभप्रभोः शरीरसंपद, शरीरप्रमाणं एवं निर्वाणगमनं वर्ण्यते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------- मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३३]
श्रीजम्बूद्वीपशान्तिचन्द्रीया चिः ॥१५६॥
वक्षस्कारे |संहननादि निर्वाणगमनंचसू.३३
दीप
अगारवासमझे वसित्ता मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पदइए, उसमे गं भरहा एगं वाससहस्सै छउमस्थपरिभायं पातणित्ता एगं पुषसयसहस्सं वाससहस्सूर्ण केवलिपरिआय पाउणिवा एगं पुखसयसहस्सं बहुपडिपुण्णं सामण्णपरिभाय पाउणिता चपरासीई पुखसयसहस्साई सघाउ पालदत्ता जे से हेमंताणं तच्चे मासे पंचमे पक्खे माहबहुले, तस्स णं माहबहुलस्स तेरसीपक्खेणं दसदि अणगारसहस्सेहिं सद्धिं संपरिघुड़े अट्ठावयसेलसिहरंसि चोइसमेणं भत्तेणं अपाणएणं संपलिअंकणिसण्ये पुषणहकालसमयसि अभीषणा णक्सत्तेण जोगमुवागएणं सुसमदूसमाए समाए एगूणणवउईईहिं पक्खेहिं सेसेहिं कालगए वीइकते जाव सबदुक्खपहीणे। जं समयं पण उसमे अरहा कोसलिए कालगए वीइकते समुजाए छिण्णजाइजरामरणबंधणे सिद्धे बुद्धे जाव सबदुक्खप्पहीणे तं समयं च णं सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो आसणे चलिए, तए णं से सक्के देविंदे देवराया आसणं चलिअं पासह पासित्ता मोहिं पजह २ ता भयवं तित्थयरं ओहिणा आभोण्इ २त्ता एवं बयासी-परिणिन्दुए खलु जंबुरी वीने भरहे वासे उसहे अरहा कोसलिए, तं जीअमेअं तीअपाचुप्पण्णमणागयाणं सकाणं देविंदाणं देवराईणं तिस्थगराणं परिनिव्वाणमहिमं करेत्तए, तं गच्छामि गं आईपि भगवतो तित्थगरस्स परिनिव्वाणमहिमं करेमित्तिकह बंदइ णमसइ २ चा चउरासीईए सामाजिअसाहस्सीहिं वायत्तीसाए तायत्तीसपहिं च उहि लोगपालेहिं जाव चाहिं चइरासीईहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहि अण्णेहि अ बहूर्हि सोहम्मकप्पवासीहि बेमाणिएहिं देवेहिं देवीहि अ सद्धिं संपरिबुडे ताए उकिट्ठाए जाव तिरिअमसंखेजाणं दीवसमुदाणं मझमज्ञण अणेव अट्ठावयपव्वए जेणेव भगवभो तित्थगरस्स सरीरए तेणेव उबागच्छइ उवागच्छित्ता विमणे णिराणंदे असुपुण्णणयणे तित्थसरसरीरयं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ २ चा पञ्चासण्णे गाइदूरे सुस्सूसमाणे जाव पन्जुवासइ । तेणं कालेणं तेणं
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18| ॥१५६॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
-------- मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३३]
दीप
समएणं ईसाणे देविंद देवराया उत्तरद्धलोगाहिवई अट्ठावीसविमाणसयसहस्साहिबई सूलपाणी बसहवाहणे सुरि भयरबरवत्थधरे - आव विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ, तए णं तस्स ईसाणस्स देविंदस्स देवरण्णो आसणं चलइ, तए णं से ईसाणे जाव देवराया आसणं चलिमें पासइ २ ता ओर्हि पउँजइ २ ता भगवं तित्थगरं ओहिणा आभोएइ २ ता जहा सके निगपरिवारेणं भाणेभब्वो जाब पज्जुवासइ, एवं सम्वे देविदा जाव भषुए णिअगपरिवारेणं आणेशव्या, एवं जाव भवणवासीणं इंदा वाणमंतराणं सोलस जोइसिआणं दोण्णि निगपरिवारा अब्बा । तए णं सके देविंदे देवराया बहवे भवणवाइवाणमंतरजोइसवेमाणिए देवे एवं बयासी-खिपामेव भो देवाणुप्पिा ! गंदणवणाओ सरसाई गोसीसवरचंदणकट्ठाई साहरह २ चा सो चिगाओ रएह-एगं भगवओ तित्थगरस्स एगं गणधराणं एवं अवसेसाणं अणगाराणं । तए णं ते भवणवइजाववेमाणिभा देवा गंदणवणाओ सरसाई गोसीसवरचंदणकट्ठाई साहरंति २ चा तओ चिइगाओरएंति, एगं भगवओ तित्यगरस्स एगं गणहराणं एग अवसेसाणं अणगाराण, तए णं से सके देविने देवराया आभिओगे देवे सदावेद २ ता एवं वयासी-सिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! खीरोद्गसमुद्दाओ खीरोदगं साहरह, तए ते आभिमोगा देवा खीरोदगसमुराओ खीरोदगं साहरति, तए णं से सके देविदे देवराया तित्थगरसरीरगं खीरोदगेणं ण्हाणेति २ ता सरसेणं गोसीसवरचंदणेणं अणुलिंपड २ सा हंसलक्खणं पडसायं जिसेइ २ ता सवालंकारविभूसि करेंति, वए ण ते भवणवइ जाव वेमाणिआ गणहरसरीरगाई अणगारसरीरगाईपि त्रीरोदगेण व्हावंति २ चा सरसेणं गोसीसवरचंवणेणं अणुलिपति २ चा अहताई दिवाई देवदूसजुमलाई णिसंति २चा सबालंकारविभूसिमाई फरेंति, तए णं से सके देविंद देवराया ते बहवे भवणवद जाव बेमाणिए देवे एवं वयासी-खिप्पामेव भो
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ----------------------
------ मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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भीजम्बूद्वीपशा-1 न्तिचन्द्रीया वृत्तिः
प्रत सूत्रांक
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वक्षस्कारे संहननादि निर्वाणगमनंच सू.३३
[३३]
॥१५७॥
पीप
देवाणुप्पिणा ! हामिगरसभतुरयजावणलयभत्तिचिसाओ तओ सिवियाभो विजयद, एगं भगवओ तित्थगरस्स एगं गणाराण एग अवसेसाणं अणगाराणं, तए णं ते बहवे भवणवइ जाव बेमाणिा तभो सिबिआओ विउचंति, एगं भगवओ तित्यगरस्स एगं गणहराणं एग अवसेसाणं अणगाराणं, तए णं से सके देविंद देवराया विमणे णिराणंदे असुपुण्णणयणे भगवओ तित्थगरस्स विणवजम्मजरामरणस्स सरीरगं सी आरुहेति ३ चिइगाए ठवेइ, नए ण ते बहवे भवणवइ जाव वेमाणिा देवा गणहराणं अणगाराण य विणहजम्मजरामरणाणं सरीरगाई सी आरुहेति २ ता चिहगाए ठवेंति, तए णं से सके देविंदे देवराया अग्गिकुमारे देवे सदावेइ २ ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! तित्थगरचिगाए जाव अणगारचिहगाए अगणिकार्य विउचह २ ता एअमापत्ति पञ्चप्पिणह, तर णं से अम्गिकुमारा देवा विमणा णिराणंदा असुपुण्णणयणा तित्यगरपिइगाए जाव अणगारचिइगाए अ अगणिकार्य विउर्वति, तए णं से सके देविदे देवराया वाउकुमारे देवे सहावेइ २ चा एवं क्यासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! तित्थगरचिइगाए जाव अणगारचिइगाए अ बाउकायं विउबद्द २ ता अगणिकार्य उजाळेद तित्थगरसरीरगं गणहरसरीरगाई अणगारसरीरगाई च झामेह, तए णं ते बाउकुमारा देवा विमणा णिराणंदा असुपुण्णणयणा तित्वगरचिइगाए जाव विखंति अगणिकार्य उजाति तिरथगरसरीरगं जाव अणगारसरीरगाणि अ झाति, तए णं से सके देविदे देवराया ते बहवे भवणवह जाव वेमाणिए देवे एवं बयासी-खिप्पामेवभो देवाणुप्पिया! तित्वगरचिइगाए जाव अणगारचिहगाए भगुरुतुरुकापयमधुं च कुंभग्गसो अ भारग्गसो अ साहरह, तए णं ते भवणवा जाव तित्थगर जाव भारमासो अ साहरति, तए णं से सके देविदे देवराया मेहकुमारे देवे सहावेइ ३ ता एवं बयासी-खिपामेव भी देवाणुप्पिा ! तित्थगरचिइगं जाव अणगारचिइगं च खीरोद्गेणं
अनुक्रम
[४६]
॥१५॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ----------------------
------ मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३३]
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दीप
णियावेछ, तए णं ते मेहकुमारा देवा तित्थगरचिवगं जाव णियाति, तए णं से सके देविंद देवराया भगवओ तित्वगरस्स उबरिलं दाहिणं सकहं गेहइ ईसाणे देविंदे देवराया उबरिल्लं वाम सकह गेण्हइ, चमरे असुरिंदे असुररावा हिहिलं दाहिणं सकह गेहइ बली बदरोअणिंदे वइरोअणराया हिहिलं वार्म सकहं गेहइ, अवसेसा भवणवइ जाव चेमाणिा देवा जहारिहं अवसेसाई अंगमंगाई, फेई जिणभत्तीए केई जीअमेअंतिफहु केइ धम्मोत्तिक? गेण्इंति, तए णं से सके देविंदे देवराया पहवे भवणवा जाव वेमाणिए देखें जहारिहं एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिा ! सबरवणामए महामहालए तओ चेइअधूभे करेह, एर्ग भगवओ तित्थगरस्स चिइगाए एगं गणहरचिगाए एग अवसेसाणं अणगाराणं चिइगाए, नए णं ते बहवे जाव करेंति, तएण ते वहवे भवणवइ जाव वेमाणिआ देवा तित्यगरस्स परिणिधाणमहिमं करेंति २ ता जेणेव नंदीसखरे दीवे तेणेव उवागच्छन्ति तए णं से सके देविंदे देवराया पुरच्छिमिल्ले अंजणगपवए अह्राहिमहामहिमं करेति,तए णं सकस्स देविदस्स० चत्वारि लोगपाला चउसु दहिमुहगपचएसु अवाहियं महामहिम करेंति, ईसाणे देविदे देवराया उत्तरिल्ले अंजणगे अट्टाहि तस्स लोगपाला चउसु दहिमुहगेमु अट्टाहि चमरो अ दाहिणिले अंजणगे तस्स लोगपाला दहिमुहगपवएसु बली पनथिमिल्ले अंजणगे तस्स लोगपाला दहिमुहगेसु, तए णं ते बहवे भवणवइवाणमंतर जाब अढाहिआओ महामहिमाओ करेंति करिचा तेणेव साई २ विमाणाई जेणेव साइं २ भवणाई जेणेव साओ २ सभाओ सुहम्माओ जेणेव सगा २ माणवगा चेइअखंभा तेणेव उबागच्छंति २ ता पदरामएसु गोलवट्टसमुग्गएमु जिणसकहाओ पक्खिवंति २ अग्गेहिं वरेहि मल्लेहि अगंधेहि अ अति २ विउलाई भोगभोगाई मुंजमाणा विहरंति ( सूत्रं ३३)
अनुक्रम
[४६]
JointkDAIG
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ----------------------
------ मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्मू
प्रत सूत्रांक
[३३]
दीप
'उसमे 'मिस्यादि कण्ठयं, अथ ऋषभस्य कीमारे राज्ये गृहित्वे च यावान् कालः प्रागुक्तस्तं संग्रहरूपतयाऽभि-181खकर दीपशा- धातमाह-'उसमे ण'मित्यादि, व्यक्तं । अथ छामस्थ्यादिपर्यायाभिधानपुरस्सरं निवाणकल्याणकमाह-'उसमे ण'-18 संहननादि तिचन्द्री- मित्यादि, ऋषभोऽर्हन एक वर्षसहस्रं छद्मस्थपर्यायं प्राप्य पूरयित्वेत्यर्थः एक पूर्वलक्षं वर्षसहस्रोनं केवलिपर्यायं प्राप्य निर्वाणगमया वृत्तिः
एक पूर्वलक्षं बहुप्रतिपूर्ण देशेनापि न न्यूनमितियावत् श्रामण्यपर्यायं प्राप्य चतुरशीतिं पूर्वलक्षाणि सर्वायः पाल- नच मू.३३ ॥१५८॥ |यित्वा-उपभुज्य हेमन्तानां-शीतकालमासानां मध्ये यस्तृतीयो मासः पञ्चमः पक्षो माघबहुलो-माघमासकृष्णपक्षः
तस्य माघबहुलस्य त्रयोदशीपक्षे-त्रयोदशीदिने विभक्तिव्यत्ययः प्राकृतत्वात् दशभिरनगारमहरः सार्द्ध संपरिवृतः अष्टापदशैलशिखरे चतुर्दशेन भक्केन-उपवासषद्केनापानकेन-पानीयाहाररहितेन संपर्यङ्कनिषण्णः-सम्यक् पर्यःनपद्मासनेन निषण्णः-उपविष्टः, न तूचंदमादिरितिभावः, पूर्वाह्नकालसमये अभिजिन्नक्षत्रेण योगमुपागतेनार्थाश्चन्द्रेण सुषमदुष्षमायां एकोननवत्यां पक्षेषु शेषेषु, अत्रापि विभक्तिव्यत्ययः पूर्ववत् प्राकृतत्वात्, सप्तम्यर्थे तृतीया, काल गतो-मरणधर्म प्राप्तः व्यतिक्रान्तः संसारात् यावच्छन्दात् 'समुज्जाए छिन्नजाइजरामरणबंधणे सिद्धे बुद्धे मुत्ते ।
अंतगडे परिणिबुडे' इति संग्रहः, तत्र सम्यग-अपुनरावृत्त्या ऊर्ध्व-लोकाग्रलक्षणं स्थानं यातः प्राप्तो न पुनः सुगता18 दिवदवतारी, यतस्तद्धचः-"ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य, कारः परमं पदम् । गत्वाऽऽगच्छन्ति भूयोऽपि, भवं तीर्थनिकारतः || Isj॥१॥" इति, छिन्नं जात्यादीनां बन्धनं-बन्धनहेतुभूतं कर्म येन स तथा सिद्धो-निहितार्थः बुद्धो-ज्ञाततत्त्वः मुक्तो
अनुक्रम
[४६]
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक [33]
दीप
अनुक्रम [ ४६]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [३३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
Jiminen
भवोपग्राहिकमांशेभ्यः अन्तकृत्सर्वदुःखानां परिनिर्वृतः समन्ताच्छीतीभूतः कर्मकृतसकलसन्तापविरहात् सर्वाणि शारीरादीनि दुःखानि प्रहीणानि यस्य स तथा । अथ भगवति निर्वृते यद्देवकृत्यं तदाह- 'जं समयं च णमित्यादि, यस्मिन् समये सप्तम्यर्थे द्वितीया एवं तच्छब्दवाक्येऽपि, अवधिना ज्ञानेनाभोगयति-उपयुनक्ति, शेषं सुगमं, उपयुज्य एवमवादीत् किमित्याह - 'परिणिन्युए' इत्यादि, परिनिर्वृतः खलुरिति वाक्यालङ्कारे जम्बूद्वीपे द्वीपे भरते वर्षे ऋषभोऽर्हन् कौशलिकस्तत्-तस्माद्धेतोः जीतं कल्पः आचारः एतद् वक्ष्यमाणं वर्त्तते अतीतप्रत्युत्पन्नानागतानां - अतीतच - र्त्तमानानागतानां 'शक्राणां' आसन विशेषाधिष्ठातृणां देवानां मध्ये 'इन्द्राणां' परमैश्वर्ययुक्तानां देवानां देवेषु (बा) राज्ञांकान्त्यादिगुणैरधिकं राजमानानां तीर्थकराणां परिनिर्वाणमहिमां कर्तुं तद्गच्छामि णमिति प्राग्वत् अहमपि भगवतस्तीर्थकरस्य परिनिर्वाणमहिमां करोमीतिकृत्वा भगवन्तं निर्वृतं वन्दते -स्तुतिं करोति नमस्यति प्रणमति, यच्चे जीव
१ एवमुक्तविशेषणकदम्बकेन शक्रस्य भगवति तमरागयत्वं धर्मनीतिज्ञत्वं च सूचितं नतु ज्ञानादिशून्यस्यापि श्रीकृष्छरीरस्य यद्वंदनादिपर्युपासनपर्वतं भणितं तच्छकप जीतमेव न पुनर्द्धर्मनीतिरितिवेत् मैवं स्थापनाजिनस्यापि वंदनादेर्धर्मनीताव नंतर्भावापत्तेः इष्टापत्तिरेवेति चेत् मैवं स्थापनाजिनाराधनस्याच्छि परम्परागतलादागमसम्मतलात् युक्तिक्षमलाय, तत्रागमस्तावत् 'कुकगणसंपचेअट्टे निबरी वेंगायचं अणिरिस दस विद्धं बहुविहं ना करे' इत्यादि बहुप्रतीत एव युधिस्तु प्रवचने यदाराध्यं तन्नामादिचतुर्द्धापि यथासंभवं विधिनाऽऽराप्यं तत्र ज्ञानादिमत्त्वमेकस्यैव भावजिनस्य, शेषाणि गामादीनि तच्चन्यान्येव, तस्मादाराध्याने हानादिमत्त्वं न नियामकं, किंतु कामादिप्रसूतिदेतुखमेव तथा च मया वीर्यनाशीकरपरावं तथा जिमप्रतिमादर्शनादपि एतच प्रतिमा प्रतिपक्ष
Furwale rely
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------- मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
संडूननादि
प्रत सूत्रांक
नच मू.३३
[३३]
श्रीजम्बू-18 रहितमपि तीर्थकरशरीरमिन्द्रवन्धं तदिन्द्रस्य सम्यग्दृष्टित्वेन नामस्थापनाद्रव्यभावार्हता वन्दनीयत्वेन श्रद्धानादिति वक्षस्कारे द्वीपशा-18|| तत्त्वं, वंदित्वा नमस्थित्वा च किं चक्रे इत्याह-'चउरासीई'इत्यादि, चतुरशीत्या सामानिकानां प्रभुत्वमन्तरेण वपुविभवद्यतिस्थित्यादिभिः शक्रतुल्यानां सहस्रः त्रयस्त्रिंशता त्रायस्त्रिंशकैः-गुरुस्थानीयैर्देवैः चतुर्भिर्लोकपालैः-सोमयम- निर्वाणगम
न या वृत्तिः
वरुणकुबेरसंज्ञैः यावत्पदात् 'अहहिं अम्गमहिसीहि सपरिवाराहिं तिहिं परिसाहिं सत्तहिं अणीएहि'ति, अत्र व्याख्या॥१५९॥ अग्रमहिष्योऽष्टी पद्मा १ शिवा २ शची ३ अङ्क ४ अमला ५ अप्सरा ६ नवमिका ७ रोहिणी ९, एताभिः षोडश-|
सहस्र २ देवीपरिवारयुताभिः तिसृभिः पर्षद्भिः-बाह्यमध्याभ्यन्तररूपाभिः सप्तभिरनीकैहय १ गज २ रथ ३ सुभट ४वृषभ ५ गन्धर्व ६ नाव्य ७ रूपैः सप्तभिः अनीकाधिपतिभिः चतसृभिश्चतुरशीतिभिश्चतुर्दिशं प्रत्येकं चतुरशीति| सहस्राङ्गरक्षकसद्भावात् षट्त्रिंशत्सहस्राधिकलक्षत्रयप्रमितैरङ्गरक्षकदेवसहस्रः अन्यैश्च बहुभिः सौधर्मकल्पवासिभिर्दे-18
दीप
अनुक्रम
[४६]
स्वापि सम्मतं, यतो जमूहीपालेश्यकपटक रष्ट्वा जंबूहीपस्यैव संस्थानादेः परिक्षानं न पुनपक्षादेः, एवं जिनप्रतिमादावपि भाष्य, अत एष समवसरणेऽईदूपत्रयमहत्परिक्षानहेतव एव मुरैविधीयत्त इति जैनप्रवने प्रतीतमेव, तथा च सिद्धं श्रीषभदेवशरीरकदर्शनमपि यावत्श्रीषभदेवव्यतिकरस्पतिपरिहानदेवः, तद्विषयं
वज्ञानं महानिर्जराहेतरित्यागमे प्रतीतं । किं च-तीर्थकृच्छरीरस्याचदिकं तीर्थकरविषयकपरमरागेणैव संभवति, अत एव भगवता तीर्थकृता दंष्ट्रा अपि प्रतिमा|| भिव शमादयः पूजयन्तीत्यत्रैवाये वक्ष्यते, नन तथाविध शारीर नामादिषु नान्तर्भवतीति कपमाराध्यामिति घेत, मैत्र, नोआगमतो शरीरमध्यकारीरतपतिदि॥जयतीर्थकरस्वेन हव्येऽन्तर्भावात, अतः शाकस्याप्याराध्यमिति शक्रेण पर्युपास्वमानमासीदिति । इति ही पत्ती
॥१५९॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------ मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३३]
दीप
वैर्देवीभिश्च साई संपरिवृतः तया-देवजनप्रसिद्धया उत्कृष्टया-प्रशस्तविहायोगतिषूत्कृष्टतमत्वात् , यावत्पदात् 'तुरि-18 आए चवलाए चंडाए जयणाए उडुआए सिग्याए दिवाए देवगईए वीईवयमाणे 'त्ति, अत्र व्याख्या-त्वरितया ४ मानसौत्सुक्यात् चपलया कायतः चण्डया क्रोधाविष्टयेव श्रमासंवेदनात् जवनया परमोत्कृष्टवेगवत्वात् , अत्र च समयप्रसिद्धाश्चण्डादिगतयो न ग्राह्याः, तासां प्रतिक्रम संख्यातयोजनप्रमाणक्षेत्रातिक्रमणात् , तेनैतानि पदानि देवग-18 तिविशेषणतया योज्यानि, देवास्तु तथाभवस्वभावादचिन्त्यसामर्थ्यतोऽत्यन्तशीघ्रा एव चलन्तीति, अन्यथा जिनज-18 न्मादिषु महिमानिमित्तं तत्रैव दिवसे झटित्येवात्यन्तदूरे कल्पादिभ्यः सुराः कथमागच्छेयुरिति, उद्धृतया उद्धृतस्य ? दिगन्तव्यापिनो रजस इव या गतिः सा तया, अत एव निरन्तरं शीघ्रत्वयोगाच्छीघया दिव्यया-देवोचितया देवगत्या 8 | व्यतित्रजन् २, सम्धमे द्विर्वचनं, तिर्यगसोयानां द्वीपसमुद्राणां मध्यमध्येन-मध्यभागेन यत्रैवाष्टापदः पर्वतः यत्रैव |
भगवतस्तीर्थकरस्य शरीरकं तत्रैवोपागच्छति, अत्र सर्वत्रातीतनिर्देशे कर्तव्ये वर्तमान निर्देशखिकालभाविष्वपि तीर्थकरेष्वे|तच्यायप्रदर्शनार्थ इति,न हि निर्हेतुका अन्धकाराणां प्रवृत्तिरिति,उपागत्य च तत्र यत्करोति तदाह-उवागच्छित्ता' इत्यादि, उपागत्य विमना:-शोकाकुलमनाः अश्रुपूर्णनयनस्तीर्थकरशरीरकं त्रिकृत्वः आदक्षिणप्रदक्षिणं करोतीति प्राग्वत,नाल्यासन्ने। नातिदूरे शुभ्रपन्निव तस्मिन्नप्यवसरे भक्त्याविष्टतया भगवदचननवणेच्छाया अनिवृत्तेः, यावत्पदात् 'णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पजुवासई'त्ति परिग्रहः, अत्र व्याख्या--नमस्यन् पञ्चाङ्गप्रणामादिना अभि-भगवन्तं लक्षीकृत्य
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आगम
(१८)
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[33]
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अनुक्रम
[ ४६]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [३३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्पूद्वीपशान्तिचन्द्री या वृत्तिः
॥१६॥
esesesea
मुखं यस्य स तथा विनयेन - आन्तरबहुमानेन प्राञ्जलिकृत इति प्राग्वत् पर्युपास्ते - सेवते इति, अथ द्वितीयेन्द्रवकण्यसामाह — 'तेणं काले 'मित्यादि, सर्व स्पष्टं, नवरं अरजांसि - निर्मलानि यान्यम्बरवस्त्राणि-स्वच्छतया आकाशकल्पानि | वसनानि तानि धरतीति यावत्करणात् 'आलइअमालमडडे णवहेमचारुचित्तचंचलकुंडलविलिहिज्ज माणगले महिद्धीए | महज्जुईए महाबले महायसे महाणुभावे महासुक्खे भासुरबोंदीप लंबवणमालघरे ईसाणकप्पे ईसाणवर्डेसए बिमाणे सुह|म्माए सभाए ईसाणंसि सिंहासणंसि से णं अट्ठावीसाए विमाणावासस्य साहस्सीणं असीईए सामाणिअसाहस्सीणं तावतीसाए तायत्तीसगाणं चउण्हं लोगपालाणं अहं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिन्हं परिमाणं सत्तण्डं अणीआणं सत्तण्हं | अणीआहिवईणं चउन्हं असीईणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अण्णेसिं च ईसाणकप्पवासीणं देवाणं देवीण य आहेवचं पोरेवचं सामित्तं भट्टित्तं महतरगतं आणाईसरसेणावचं कारेमाणे पालेमाणे महयाहयणट्टगीअवाइअतंतीतलतालतुडि अघणमुइंगपडुपड हवाइजरवेणं' इति संग्रहः, सर्व स्पष्टं, नबरं आलगिती - यथास्थानं स्थापितौ माठामुकुटी येन स तथा नवाभ्यामिव हेममयाभ्यां चारुभ्यां चित्रकृद्भ्यां चञ्चलाभ्यां इतस्ततश्चलयां कुण्डलाभ्यां विलिख्यमानौ लौ यस्य स तथेति, 'तए 'मित्यादि, यथा शक्रः सौधर्मेन्द्रो निजकपरिवारेण सह तथा भणितव्य ईशानेन्द्रः, यावत्पर्युपास्ते इत्यन्तं वाच्य इत्यर्थः, 'एवं सवे' इत्यादि, एवं शक्रन्यायेन सर्वे देवेन्द्रा वैमानिकाः अत एव बावदच्युत इत्युचरसूत्रं संवदति, निजकपरिवारेण - आत्मीयसत्यीन सामानिकादिपलिवारेण सहावेतव्या -भगवच्छरीरासिकं
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२वक्षस्कारे संहननादि निर्वाणगमनंच सू. ३३
॥१६०॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], -----------------------
------ मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३३]
प्रापणीया मन्थवाचकेनेत्यर्थः, ग्रन्यापेक्षया वेदं सूत्रं योजनीयं, एवं वैमानिकप्रकारेण यावद् भवनवासिना-दक्षिणो-1 ISRरभवनपतीनामिन्द्रा विंशतिरित्यर्थः, अत्र यावच्छब्दो न गर्भगतसंग्रहसूचकः समाह्यपदाभावात्, किन्तु सजा-1
तीयभवनपतिसूचकः, वानमन्तराणां-व्यन्तराणां पोडशेन्द्रा:-कालादयः, ननु स्थानाङ्गादिषु द्वात्रिंशष्यन्तरेन्द्रा अभिहिताः, इह तु कथं षोडश!, उच्यते, मूलभेदभूतास्तु षोडश महर्द्धिकाः कालादय उपात्ताः सदवान्तरभेदभूतास्तु षोडश अणपन्नीद्रादयोऽल्पर्चिकत्वात् नेह विवक्षिताः, अस्ति हि एपाऽपि सूत्रकृन्प्रवृत्तिििचत्रा यदन्यत्र प्रसिद्धा अपि भावाः कुतश्चिदाशयविशेषात् स्वसूत्रे सूत्रकारो न निवभाति, यथा प्रतिवासुदेवा अम्बत्रावश्यकनियुक्त्यादिषु उत्तमपुरुषत्वेन प्रसिद्धा अपि चतुर्थाश चतुष्पश्चाशत्तमसमवाये नोक्ताः "भरहेरवएसुण वासेसु एगमेगाए ओसप्पिणीए चउवण्णं चउवणं ( महापुरिसा) उपजिसु वा ३ तं०-चाबीसं तित्थयरा बारस चकवट्टी नव बलदेवा नव वासु-18 देवा" इति, परमुपलक्षणात् तेऽपि ग्राह्याः। ज्योतिष्काणां दो चन्द्रौ सूर्यो, जात्याश्रयणात्, व्यक्त्वा तु तेऽसयाता, | निजकपरिवारा:-सहवर्त्तिवपरिकराः नेतन्याः । ततः शक्रः किं करोतीत्याह-'तए 'मित्यादि, ततः शक्रो । देवन्द्रो देवराजः तान् बहून् भवनपत्यादीन् देवान् एवमवादीत्-क्षिप्रमेव-निर्विलम्बमेव भो देवानां प्रिंया 1-18 देवान-स्वामिनोऽनुकूलाचरणेन अनुप्रीष्णन्ति इति देवानुनियाः नन्दनवनात् सरसनि स्निग्धानि नतु रूक्षाणि मोशीर्ष गोशीचाना वरचन्दवं तस्य कायचि हरव-पापयत संहत्य च विसःचितीः कारबत-पका अपववस्तीर्थ
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[33]
दीप
अनुक्रम
[ ४६]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र -७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [३३]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्पद्वीपशान्तिचन्दीया वृत्तिः
॥१६१ ॥
Ebenitim
करस्य एकां गणधराणां एकामवशेषाणामनगाराणामिति । 'तर णमित्यादि, स्पष्टं, अत्रायं आवश्यकवृत्याधुकश्चितारचन दिग्विभाग:- नन्दनवनानीत चन्दन दारुभिर्भगवतः प्राच्यां वृत्तां चितां गणधराणामपाध्यां व्यस्त्रां शेषसा धूनां प्रतीच्यां चतुरस्रां सुराश्चक्रुरिति, नन्यावश्यकादाविक्ष्वाकूणां द्वितीया चितोक्ता इह तु गणधराणां कथमिति १, उच्यते, अत्र प्रधानतया गणधराणामुपादानेऽप्युपलक्षणाद् गणधरप्रभृतीनामिक्ष्वाकूणां द्वितीया चिता ज्ञेयेति न काऽप्याशङ्का ततश्चितारचनानन्तरं शक्रः किं करोतीत्याह-- 'तए ण'मित्यादि, स्पष्टं, ततः क्षीरोदकसंहरणानन्तरं स शक्रः किं करोतीति दर्शयति- 'तए ण' मित्यादि, ततः शक्रस्तीर्थकरशरीरकं क्षीरोदकेन स्नपयति स्त्रपयित्वा गोशीर्षवर चन्दनेनानुलिम्पति अनुलिप्य हंसलक्षणो हंसविशदत्वात् शाटको वस्त्रमात्रं स च पृथुलः पट्ट इत्यभिधीयते तं हंसनामकं पटशाटकं निवासयति, परिधापयतीत्यर्थः परिधाप्य च सर्वालङ्कारविभूषितं करोति, 'तए ण'मित्यादि, ततस्ते भवनपत्यादयो देवा गणधराणामनगाराणां च शरीराणि तथैव चक्रुः, अहतानि - अखण्डितानि दिव्यानि - वर्याणि देवदृष्ययुगलानि निवासयन्ति, शेषं व्यक्तं, 'तए ण'मित्यादि, ततः शक्रो भवनपत्यादीनेवमवादीत् क्षिप्रमेव भो देवानुप्रिया ! ईहामृगादिभक्तिचित्रास्तिस्रः शिविका विकुर्वत, विकुर्व इति सौत्रो धातुस्तस्माद्रूपसिद्धिः, शेषं स्पष्टं, 'तए ण' मित्यादि, ततः शक्रो भगवच्छरीरं शिविकायामारोहयति मह च चितिकास्थाने नीत्वा चितिकायां स्थापयति शेषं स्पष्टं, 'तए ण'मित्यादि, ततः स शक्रोऽग्निकुमारान् देवान् शब्दयति-- आमन्त्रयति
Fur Fate & Use Cy
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२वक्षस्कारे संहननादि ९ निर्वाणगमनंच सू. ३३
॥१६१॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ----------------------
------ मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३३]
दीप
शब्दापयित्वा एवमवादीत्-भो अग्निकुमारा ! देवास्तीर्थकरचितिकायां गणधरचितिकायामनगारचितिकायां चाग्निकार्य विकुर्वत विकुर्वित्वा एतामाज्ञप्तिका-आज्ञा प्रत्यर्पयत, शेष व्यक्तं, 'तए णं अग्गिकुमारा देवा' इत्यादि, व्याख्या| तप्रायमेव, 'तए णं से सके' इत्यादि, एतत्सूत्रद्वयमपि व्यक्तं, उज्वालयत-दीपयत तीर्थकरशरीरकं यावदनगारशरी-18 ॥ रकाणि च ध्मापयत-स्ववर्णत्याजनेन वर्णान्तरमापादयत, अग्निसंस्कृतानि कुरुतेति, 'तए ण' मिसादि, ततः स शको |भवनपत्यादिदेवानेवमवादीत्-भो देवानुप्रियास्तीर्थकरचितिकायां यावदनगारचितिकायां च अगुरुं तुरुक-सिल्हकं | घृतं मधु च एतानि द्रव्याणि कुम्भारश:-अनेककुम्भपरिमाणानि भारामश:-अनेकविंशतितुलापरिमाणानि अथवा Si पुरुषोत्क्षेपणीयो भारः सोऽयं-परिमाणं येषां ते भारानाः ते बहुशो भारामशः संहरतेति प्राग्वत् , अथ मांसादिषु |मापितेषु अस्थिष्ववशिष्टेषु शकः किं चक्रे इत्याह-तए णमित्यादि, स्पष्ट, नवरं क्षीरोदकेन-क्षीरसमुद्रानीतजलेन | निर्वापयत, विध्यापयतेत्यर्थः, अथास्थिवक्तव्यतामाह--'तए णमित्यादि, ततश्चितिकानिर्वापणादनु भगवतस्तीर्थकरस्योपरितनं दक्षिणं सक्थि दाढामित्यर्थः शक्रो गृह्णाति ऊर्ध्वलोकवासित्वात् दक्षिणलोकार्दाधिपत्वाच्च, ईशा
अयं भावः-जिनदंष्ट्रादिकं जिन दवाराष्पं, जिनसंबंधिवस्तुलात्, जिनप्रतिमानत् जिनस्थापिततीर्थनता, तथा व येषां जिनभक्तिस्तेषामेव तत्संबंधिदनाशादी भक्तिः, अन्यथा तथा भक्तरसंभगात, न शामित्रस्याकति रवा नामादि च शुला मोदमानसाइक्ति या कुर्माणः कोऽपि केनापि यः श्रुतो मा,तेन बंष्ट्राविभक्ति
जिंनभक्तिरेय, ननु जिनप्रतिमायाखावबिनाकृतिमत्त्वेन जिनस्पतिहेतुखान् तीर्थस्य पशीर्थकरस्थापितलात् सर्वगुणानामाश्रयलान, तीर्थकृतोऽपि नमस्करणी-18
Sae83838393
अनुक्रम
[४६]
Elem
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------- मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३३]
श्रीजम्बू- नेन्द्रः उपरितनं वाम, ऊर्ध्वलोकवासित्वात् उत्तरलोकार्बाधिपतित्वाच, चमरश्चासुरेन्द्रोऽसुरराजोऽधस्तनं दक्षिणं वक्षस्कारे द्वीपशा-1| सक्थि गृह्णाति, अधोलोकवासित्वात् दक्षिणश्रेणिपतित्वाच्च, वलिः दाक्षिणत्यासुरेभ्यः सकाशाद् वि इति विशिष्टं |
वि संहननादि न्तिचन्द्री-18
रनिर्वाणगमरोचनं-दीपनं दीप्तिरितियावत् येषामस्ति ते वैरोचनाः , स्वार्थेऽण, ओदीच्यासुराः, दाक्षिणात्येभ्यः औत्तराहाणाया वृदिः
नंच मू.३३ मधिकपुण्यप्रकृतिकत्वात् , तेषामिन्द्रः, एवं वैरोचनराजोऽपि अधस्तनं वाम सक्थि गृह्णाति, अधोलोकवासित्वात् | ॥१६२॥ उत्तरश्रेण्यधिपत्वाच, अवशेषा भवनपतयो यावत्करणात् व्यन्तरा ज्योतिषकाच ग्राह्याः, वैमानिका देवा यथाई-|
यथामहर्द्धिकं अवशेषाणि अङ्गानि-भुजाद्यस्थीनि उपाङ्गानि-अङ्गसमीपवर्तीनि अङ्गुल्याद्यस्थीने गृह्णन्तीति योगः, अयं भावः-सनत्कुमाराद्यष्टाविंशतिरिन्द्रा अवशिष्टानष्टाविंशतिदन्तान अन्येऽवशिष्टा इन्द्रा अङ्गोपाङ्गास्थीनीति, || ननु देवानां तहणे क आशय इत्याह-केचिजिनभत्त्या जिने निर्वृते जिनसक्थि जिनवदाराध्यमिति, केचिजीत
पीप
अनुक्रम
[४६]
॥१६२।।
यलाचं युक्तमेवाराधनं, पगला जिनाराधनसादेव, पर दंष्ट्राचाराधनं कर्ष जिनमकिरति चेत्, नभ्यते, यथैकमेव हरिवंशकुलं इदं श्रीनेमिनाथकुलभियादिकपेण श्रीनेमिनाथोपलक्षितं महाफलं भवति, न तयेदं श्रीकृष्णवामदेवकुलमित्यादिना कृष्णवासुदेवोपलक्षितमपि, एवं दंष्ट्रापि श्रीऋषभदेवसंबंधिनीत्यादि तीर्थकरनामोपल-1 क्षिता श्रवणपचमवतीर्णापि महाफल देतः किमंग पुनः तत्पूजनादिकमपि !, किच-प्रतिमायावतीर्थकरस्याकृतिमात्रमेव न पुनः शरीरं तदवयनो बा, दंष्ट्रातु साक्षाच्छरीरावसन एव, इयं इष्ट्रिा श्रीऋषभदेवसंबंधिनीत्येवंरूपेण खयं सिमाना भूयमाणा का महानिरादेवरिधिकृत्वा खयमेच सम्यग् विचारयवो नाशंका| मम्मोपि, न केयाचित् सम्याला तस्म्याक्लिाहम पूजन कलिनभक्तीति लिम्ववि की पत्ती
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], -----------------------
-------- मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३३]
मिति पुरातनैरिदमाचीर्णमित्यस्माभिरपीदे कर्त्तव्यमिति, केचिद्धर्म:-पुण्यमितिकृत्या, अत्र ग्रन्थान्तरप्रसिद्धोऽयमपि
हेतु:-'पूअंति अ पइदिअहं अह कोइ पराभवं जा करेजा। तो पक्खालिअ ताओ सलिलेण करेंति नियरक्खं ॥१॥18 SIE पूजयन्ति च प्रतिदिवसं अथ कोऽपि पराभवं यदि कुर्यात् । तर्हि प्रक्षाल्य तानि सलिलेन कुर्वन्ति निजरक्षाम् ॥१॥]18
सौधर्मेन्द्रेशानेन्द्रयोः परस्परं सवैरयोस्तच्छटादानेन वैरोपशमोऽपि इत्यादिको ज्ञेयः, तथा 'व्याख्यातो विशेषार्थप्रतिपत्तिः' अतो विद्याधरनराश्चिताभस्म शेषामिव गृह्णन्ति, सर्वोपद्वविद्रावणमितिकृत्वा, आस्तां त्रिजगदाराध्यानां तीर्थकृता, योगभृचक्रवर्तिनामपि देवाः सक्थिग्रहणं कुर्वन्तीति ॥अथ तन्त्र विद्याधरादिभिरहपूर्विकया भस्मनि गृहीते | अखातायामेव ग यां जातायां मा भूत्तत्र पामरजनकृताशातनाप्रसङ्गः सातत्येन तीर्थप्रवृत्तिश्च भूयादिति स्तूपवि-18 |धिमाह-'तए ण'मित्यादि, सर्व स्पष्टं, नवरं सर्वात्मना रत्नमयान्-अन्तर्बहिरपि रत्नखचितान् महातिमहत:
अतिविस्तीर्णान् , आलप्रत्ययः स्वार्थिकः प्राकृतप्रभवः, त्रीन् चैत्यस्तूपान् चैत्याः-चित्ताल्हादकाः स्तूपाश्चैत्यस्तूपा-18 नस्तान् कुरुत चितात्रयक्षितिष्वित्यर्थः, आज्ञाकरणसूत्रे ततस्ते बहवो भवनपत्यादयो देवास्तथैव कुर्वन्ति, ननु
यथाऽऽज्ञाकरणसूत्रे यावत्करणेन सूत्रकृतो लाघवसूचा तथा पूर्वसूत्रेऽपि कथं न लाघवचिन्ता कृता ?, उच्यते, विचित्रत्वात् सूत्रप्रवृत्तेरिति, 'तए ण'मित्यादि, ततस्ते बहवो भवनपत्यादयो देवास्तेषु स्तूपेषु यथोचितं तीर्थकरस्य परि-18 निर्वाणमहिमां कुर्वन्ति, कृत्वा च यत्रैवाकाशखण्डे नन्दीश्वरवरो द्वीपस्तत्रैवोपागच्छन्ति, ततः स शक्रः पौरस्त्ये अज-18
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श्रीजम्बू, २८
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
-------- मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
[३३]]
दीप
श्रीजम्प- नकपर्वते अष्टाहिका-अष्टानामहां-दिवसामां समाहारोऽष्टाहं तदस्ति पखां महिमायाँ सा अष्टाहिका तां महामहिमा |Raat द्वीपशा-1 करोति ततः शक्रस्य चत्वारो लोकपालाः सोमयमघरुणवैश्रमणनामानस्सत्पावसिषु चतुर्यु दधिमुखपर्वतेषु अष्टा-1 संहननाति न्तिचन्द्री
हिको महामहिमां कुर्वन्ति, नन्वत्र नन्दीश्वरवरादिशब्दानां कोऽन्धर्व इति', उच्यते, नन्द्या-पर्वतपुष्करिणीप्रमुख-निवाणगमया वृत्तिः
पदार्थसार्थसमझतात्यजतसमृज्या ईश्वर:-स्फातिमानन्दीश्वरः स एव मनुष्यद्वीपापेक्षया बहुतरसिद्धायतनादिसनावेन नच. २२ ॥१६॥ बरो नन्दीश्वरवर,तथा अञ्जनरलमयत्वादअनास्ततः स्वार्थे कप्रत्ययः यद्वा कृष्णवर्णत्वेनाञ्जनतुल्या इत्यञ्जनकाः,उपमाने ||
प्रत्यया तथा दधिवदुज्वलवर्ण मुख-शिखरं रजतमयत्वाद् येषां ते तथा,पहुव्रीही कप्रत्ययः,अधेशानेन्द्रस्य नन्दीश्वरा-18
यतारवक्तव्यतामाह-ईसाण'त्ति इंशानो देवेन्द्र ओत्तराहे अञ्जनके अष्टाहिकां तस्य लोकपाला औत्तराहाजनकपरिवार-18 18|| केषु चतुर्ष दधिमुखकेषु अष्टाहिका, चमरश्च दाक्षिणात्येऽजनके तस्य लोकपाला दधिमुखकपर्वतेषु बलीन्द्रः पाश्चात्येs-18
जनके तस्य लोकपाला दधिमुखकेषु, ततस्ते बहवो भवनपत्यादयो देवा अष्टाहिकाः महामहिमा-महोत्सवभूताः कुर्व|न्तीति, बहुवचनं चात्राष्टाहिकानां सौधर्मेन्द्रादिभिः पृथक् २ क्रियमाणत्वात् , 'करित्ता इत्यादि अथाष्टाहिका महामहिमाः कृत्वा यत्रैव लोकदेशे स्वानि २-स्वसम्बन्धीनिर विमानानि यत्रैव स्वानि २ भवनानि-निवासप्रासादाः यत्रैव स्वाः ॥१६३॥ २ सभाः-सुधर्माः यत्रैव स्वकाः२-स्वसम्बन्धिनो २ माणवकनामानश्चैत्यस्तम्भाश्चैत्यशब्दार्थः प्राग्वत् तत्रैवोपागच्छन्ति । उपागत्य च वज्रमयेषु गोलकेषु समुद्केषु-वृत्तभाजनविशेषेषु जिनसक्थीनि प्रक्षिपन्तीति, सक्थिपदमुपलक्षणपरं तेन
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mmitrinary
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], -----------------------
------ मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३३]
Prasaee0eaceae
३. दशनाद्यपि यथार्ह प्रक्षिपन्तीति, अत्र अतिाधर्मकथासोक्तमल्लिनाथनिर्वाणमहिमाधिकारंगतसूत्रवृत्त्यनुसारेण माणव
कस्तम्भावृत्तसमुद्गकानवतार्य सिंहासने लिवेरव तन्मध्येवर्तीनि जिनसक्थीन्यपूपुजन, वृषभजिनसक्थि प तत्र! प्राक्षिपन्निति ज्ञेयं, प्रक्षिप्य अप्रै-प्रखरमौल्यैश्च गन्धश्चायन्ति, अर्चयित्वा च विपुलान-भोगोचितान् भोगान् | भुजाना विहरन्ति-आसत इति, अत्राह परन्ननु चारित्रादिगुणविकलस्य भगवच्छरीरस्य पूजनादिकं पूर्वमपि ममान्तप्रणमिव बाधते, तदनु इदं जिनसक्थ्वादिपूजन "बसे क्षार इच' सुतरां बाधते, मैवं वादी, नामस्थापनाद्रव्यजिनानां भावजिनस्खेव वन्दनीयत्वात् , तदा भगवच्छरौरवं च धजिनरूपत्वात् , सक्थ्यादीनां च तदवयवत्वाद् भावजि-1 नादभेदेन वन्दनीयत्वमेव, अन्यथा गर्भतयोस्पसमात्रस्य भगवतः समणे भगवं महावीरे' इत्याद्यभिलापेन सूत्रकृता सूत्ररचना शकाणी शकस्तवपयोगमादिक नोचितीमदिति, अत एव जिनसक्थ्याधोशातनाभीरवो हि देवास्तत्र कामांसेषनादौ न प्रवर्तन्ते, इति गतवतीकारः। अब चतुर्थारकस्वरूपं निरूप्यते
से में समाए र सागसmraatee मत प्रणपहि संदिप भाव पर्णतेहि अट्टाणकम्म जाव परिहासाये व समmm
ससमाचसोले 48 समाए भहस पासास कैरिसव गारमा kisatanाने
प र नियुक्तरेव का भाव मची िस्वतो.
दीप
अनुक्रम
[४६]
E
ARNAL-329HANNELSSATARAHINEMA
Sinileonitemato
अथ चतुर्थ-पञ्च-षष्ठं आरकस्य स्वरुपम् कथ्यते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], -----------------------
-------- मूलं [३४-३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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श्रीजम्यू
द्वीपशान्तिचन्द्रीया वृतिः ॥१६॥
वक्षस्कारे चतुर्थपञ्चमषष्ठारकाः म.३४-३५
सूत्रांक
[३४-३६]
तेसि मणुाणं छविहे संघयणे ठविहे संठाणे बहूई धणूई उद्धं उचत्तेणं जहण्णेणं अंतोबहुतं उकोसेणं पुषकोबीभाउ पाति २ त्ता अप्पेगइआ णिरयगामी जाव देवगामी अप्पेगइया सिझंति बुझति जाव सावदुक्खाणमंतं करेंति, तीसे समाए तओ वंसा समुपजित्था, ' तंजहा-अरहंतवंसे चकवट्टिवंसे इसारवंसे, तीसे णं समाए तेवीस तिजायरा इकारस चकवट्टी णव बलदेवा णव वासुदेवा समुष्पज्जित्था । (सूत्र ३४) तीसे गं समाए एक्काए सागरोवमकोडाकोडीए वायालीसाए वाससहस्सेहिं ऊणिआए काले वीइकते अणंतेहिं वणपनवेहिं तहेव जाव परिहाणीए परिहायमाणे २ एत्थ णं दूसमाणामं समा काले पडिवज्जिस्सइ समणाउसो, तीसे णं भंते! समाए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडोआरे भविस्सइ !, गोअमा ! बहुसमरमणिो भूमिभागे भविस्सइ से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा मुइंगपुक्खरेइ वा जाव णाणामणिपंचवण्णेहिं कत्तिमेहिं चेव अकत्तिमेहिं चेव, तीसे णं भंते ! समाए भरहस्स वासस्स मणुआणं केरिसए आयारभावपद्धोयारे पण्णत्ते !, गो० तेसि मणुआणं छविहे संघयणे छबिहे संठाणे बहुइओ रयणीओ उर्दू उच्चत्तेणं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं साइरेगं वाससयं आच पालेंति २ ता अप्पेगइआ णिरयगामी जाव सबदुक्खाणमंतं करेंति, तीसे णं समाए पचिंद्रमे विभागे गणधम्मे पासंडधम्मे रायधम्मे जायतेए धम्मचरणे अ वोच्छिजिस्सइ । (सूत्र३५) तीसे णं समाए एकवीसाए वाससहस्सेहिं काले विइकते अणतेहिं वण्णपजवेहिं गंधरस०फासपज्जवेहिं जाव परिहायमाणे २ एस्थ णं दूसमदूसमाणामं समाकाले पडिवजिस्सइ समणाउसो!, तीसे पं भंते ! समाए उत्तमकट्ठपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोआरे भविस्सइ !, गोमा ! काले भविस्सई हाहाभूए भंभाभूए कोलाइलभूए समाणुभावेण य खरफरूसधूलिमइला दुधिसहा वाउला भयंकरा य वाया संबट्टगा य वाईति, इह अमिक्खणं २ धूमाहिति अ दिसा समंता
eseseseseevesesea
दीप अनुक्रम [४७-४९]
॥१६॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], -----------------------
------- मूलं [३४-३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३४-३६]
दीप अनुक्रम [४७-४९]
रतस्सला रेणुकलुसतमपडलणिरालोमा समयलुक्खयाए णं अहिभं चंदा सी मोच्छिहिंति अहिले सूरिभा तविसति, अत्तरं चणं गोभमा ! अभिक्खणं अरसमेहा विरसमेहा खारमेहा खत्तमेहा अम्गिमेहा विजुमेहा विसमेहा अजवणिमोदगा पाहिरोगवेदणोदीरणपरिणामसलिला अमणुण्णपाणिअगा चंडानिलपहततिक्खधाराणिवातपउरं वासं वासिहिति, जेणं भरहे वासे गामागरणगरखेडकबडमदंबदोणमुहपट्टणासमगयं जणवयं चउप्पयगवेलए सहयरें पक्खिसंघे गामारण्णप्पवारणिरए तसे अ पाणे बटुप्पयारे रुक्सगुच्छगुम्मलयवलिपवालंकुरमादीए तणवणस्सइकाइए ओसहीओ अ विद्धंसेहिंति पचयगिरिडोंगरुत्थलभट्ठिमादीए अ वेअगिरिवजे विरावहिति, सलिलविलविसमगत्तणिण्णुष्णयाणि अगंगासिंधुबजाई समीकरोहिंति, तीसे णं भंते! समाए भरहस्स वासस्स भूमीए केरिसए आगारभावपडोआरे भविस्सइ, गोयमा! भूमी भविस्सइ इंगालभूभा मुग्गुरभूमा छारिमभूभा तत्तकबेलुअभूभा तत्तलमजोहभूआ धूलिबहुला रेणुबहुला पंकबहुला पणयबहुला चलणिबहुला बहूर्ण धरणिगोभराणं सत्ताणं दुनिकमा यावि भविस्सई । तीसे ण भंते ! समाए भरहे वासे मणुआणं केरिसए आयारभावपटोआरे भविस्सइ!, गोयमा ! मणुभा भविस्संति दुरूवा दुवण्णा दुगंधा दुरसा दुफासा मणिहा अकंवा अप्पिा असुभा अमणुना भमणामा हीणस्सरा दीणस्सरा अणिहस्सरा अर्कतस्सरा अपिअस्सरा अमणामस्सरा अमणुण्णस्सरा अणादेज्जवयणपञ्चायाता जिल्ला कूडकवडकलहपंधवेरनिरया मजायातिकमप्पहाणा अकमणिकाजुया गुरुणिोगविणयरहिआ य विकलरूवा परूढणहकेसमंसुरोमा काला खरफरुससमावण्णा फुट्टसिरा कविलपलिअकेसाबरण्डारुणिसंपिणदुरंसमिजरूवा संकुडिअवलीतरंगपरिवेढिअंगमंगा जरापरिणयब थेरगणरा पविरलपरिसडिअदंतसेढी उन्मउघडमुद्दा विसमणयणवंकणासा बंकवली विगयभेसणमुद्दा दुईविकिटिभसिन्भफुडिअफसच्छयी चित्तलंगभंगा कच्छ्खसरामिभूमा
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [२], ----------------------- ----------------------- मूलं [३४-३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
श्रीजम्बू
प्रत
द्वीपशा
२वक्षस्कारे चतुर्थपञ्चमषष्ठारकाः
सूत्रांक
[३४-३६]
न्तिचन्द्रीया वृत्तिः ॥१६५॥
दीप
खरतिक्षणक्सकंदराविकवर्गणू तोलगतिविसमसंविधणा समाजहिअषिमन्तव्यलकुसंधयणकुष्पमणिकुसठिया सुरुवा कहाणासणकुसेजकुमोक्षणो असुइणो अणेगवाहिपीलिअंगमंगा खलंतविम्भलगई णिच्छाहा सत्तपरिवनिता विगयट्ठा महत्ता अमिक्खणं सीधहसरफरसवायविज्झाडिअमलिणपसुरओगुंडिअंगमंगा बहुकोरिमाणमायालोमा बहुमोहा असुमदुक्समागी ओसणे धम्मसण्णसम्मतपरिमहा कोसेणं रणिप्पमाणमेत्ता सोलसवीसइयासपरमाउसो गहुपुत्तर्णसुपरियालपणयबाहुला गंगासिंधूलो महागईमो वेभहुंच पाय नीसाए बापतरि णिगोंगवी पीजमत्ता बिलवासिणो मणुभामविस्संति, सेण भंते ! मणुभा किमाहारिस्संति !, गोमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं गंगासिंधूओ महाणईमो रहपहामिवित्थराओ अक्ससोभनमाणमेतं जलमोजिसहिति, सेविक्षणं जले बहुमच्छकच्छभाइण्णे, णो चेव गं आउबहुले भविस्सइ, तए ण ते मणुआ सूरुग्गमणमुपति म सूरत्यमणमुहुर्तसि अ विलहितो णिद्वाइस्सति विले. त्ता मच्छकच्छभे थलाई गाहे हिंति मच्छकच्छभे थलाई गहिता सीआतवनमार मच्छकच्छमेहि इकायीसं पाससहस्साई वित्ति कप्पेमाणा विहरिस्सति । तेणं भंते ! मणुआ णिस्सीला णिवया णिग्गुणा णिम्मेरा णिप्पणखाणपोसहोववासा ओसणे मंसाहारा मच्छाहारा खुड्डाहारा कुणिमाहारा कालमासे कालं किचा कहिं गच्छिहिति कहिं उववजिहिति',गो० ओसणं णरगतिरिक्खजोणिपंसुं उववणिहिति । तीसे ण भंते ! समाए सीहा बग्धा विगा दीविआ अच्छा तरस्सा परस्सर सरमसियालविरालसुणगा कोलसुणगा ससगा चित्तंगा चिलगा ओसणं मंसाहारा मच्छाहास खोदाहारा कुणिमाहारा कालानि कालं किचा कहिं गरिदिति कहि उपजिहिंति !, गो01 ओसण्णं णरगतिरिक्खजोणिपसुं० उववजिहिति, तेणे भंते ! काका पीलगा मग्गुगा सिही ओसणं मंसाहारा आब कहिं गच्छिहिति कादि उवजिहिति !, गोअमा! ओसणं गारगतिरिक्सागोणिए जाप उबवजिहिति (सूत्र ३६)
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अनुक्रम [४७-४९]]
॥१६५॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], -----------------------
------- मूलं [३४-३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक [३४-३६]
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दीप
| तीसे म' मित्यादि, संस्खा अनन्तरवर्णितायां समाया द्वाभ्यां सागरकोटाकोटीभ्यां-ढे सागरोपमकोटाकोटी इत्येवं प्रकारेण काले व्यतिक्रान्ते अनन्तैर्वर्णपर्यवैस्तथैव द्वितीयारकप्रतिपत्तिक्रमवद्ज्ञेयं यावदनन्तरुत्थानबलवीर्यपुरुषकारपराक्रमैरनन्तगुणपरिहाण्या हीयमानो हीयमानोऽत्रान्तरे दुषमसुषमानाम्ना समा-कालः प्रत्यपद्यत हे श्रमण ! हे आयुष्मन् !, अथ पूर्वारकवद्भरतस्वरूपं प्रष्टुमसह-तीसे णमित्यादि, अथ तत्र मनुष्यस्वरूपप्रश्नमाह-तीसे ग'मित्यादि, इदं च सूत्रद्वयमपि प्रायः पूर्वसूत्रसदृशगमकत्वात् सुगर्म, नवरं जघन्येनान्तर्मुहुर्तमायुस्तत्कालीनमनुष्या उत्कृष्टं पूर्वको-18 |टिमायुः पालयन्ति, पालयित्वा च पञ्चस्वपि गतिवतिधीभवन्ति, अथ पूर्वसमाप्तौ विशेषमाह-तीसे ण' मित्यादि.
तस्यां समायां त्रयो वंशा इव वंशाः-प्रवाहाः आवलिका इत्येकार्थाः न तु सन्तानरूपाः परम्पराः, परस्परं पितृपुत्र|पोचमपीत्रादिव्यवहाराभावात्, समुदपद्यन्त, तद्यथा-अहवंशः चक्रवर्तिवंशः दशार्हाणां-बलदेववासुदेवानां वंशः। यदत्रं दशारशब्देन द्वयोः कथनं तदुत्तरसूत्रबलादेव, अन्यथा दशाईशब्देन वासुदेवा एवं प्रतिपाद्या भवन्ति, 'अहयं च दसाराण मिति वचनात्, यत्त प्रतिवासुदेववंशो नोक्तस्तत्र प्रायोऽङ्गानुयायीन्युपाडानीति स्थानाङ्गे वंशत्रयस्यैव] प्ररूपणात्, येन हेतुना तत्रैवं निर्देशस्तत्रायं वृद्धाम्नाय:-अतिवासुदेवानां वासुदेववध्यत्वेन पुरुषोत्तमत्वाविवक्षणात्, एनमेवार्थ व्यनक्ति-तस्यां समायां योविंशतिस्तीर्थकराः एकादश चक्रवर्तिनः ऋपभभरतयोस्तृतीयारके भवनात् नव बलदेवा नव वासुदेवाः ज्येष्ठबन्धुत्वात् प्रथम बलदेवग्रहणं उपलक्षणात् प्रतिवासुदेववंशोऽपि ग्राह्यः, समुद
अनुक्रम [४७-४९]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], -----------------------
------- मूलं [३४-३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३४-३६]
दीप अनुक्रम [४७-४९]
श्रीजम्प-18 पद्यन्त, गतश्चतुर्थोऽरका, अथ पञ्चमः-'तीसे णमित्यादि, तस्या समायां एकया सागरोपमकोटाकोठ्या द्विच-1 वक्षस्कारे द्वीपशा- खाशिर्षसहरूनितया-उनीभूतया, अनयव प्रत्येकमेकविंशतिसहस्रवर्षप्रमाणयोः पश्चमषष्ठारकयोः प्ररणात, काले चतुर्थेपश्चन्तिचन्द्री- व्यतिक्रान्तेऽनन्तैर्वर्णादिपर्यवैस्तथैव यावत् परिहाण्या परिहीयमाणा २, अत्र समये दुष्पमानाम्ना समा-कालः प्रति-मष्ठारकाः या वृत्तिः पत्स्यते वक्तरपेक्षया भविष्यकालप्रयोगः, अथात्र भरतस्य स्वरूपं पृच्छन्नाह-तीसे णं भंते! समाए भरह'इत्यादि
सू.३४-३५
-३६ ॥१६६॥
| सर्व प्राग्व्याख्यातार्थ, नवरं भविष्यतीति प्रयोगः पृच्छकापेक्षया, अत्र भूमेहुसमरमणीयत्वादिक चतुर्थारकतो हीय-1 मानं २ नितरां हीनं ज्ञातव्यं, ननु 'खाणुबहुले कण्टकबहुले विसमबहुले' इत्यादिनाऽधस्तनसूत्रेण लोकमसिद्धेन च विरुध्यते, मैवं अविचारितचतुरं चिन्तयेः, यतोऽत्र बहुलशब्देन स्थाण्कादिवाहुल्यं चिन्तितं, न च षष्ठारक इवैका-18 |न्तिकत्वं, तेन च क्वचिद् गङ्गातटादी आरामादौ वैताब्यगिरिनिकुञ्जादौ वा बहुसमरमणीयत्वादिकमुपलभ्यत एवेति न || | विरोधः, अथ तत्र मनुजस्वरूपं प्रष्टुकाम आह-तीसे णमित्यादि, पूर्व ब्याख्यातार्थमेतत् , नवरं बढयो रक्षयोहस्ताः सप्तहस्तोच्यत्वात् तेषां, यद्यपि नामकोशे बद्धमुष्टिको हस्तो रनिरुक्तस्तथापि समयपरिभाषया पूर्ण इति, ते मनुजा जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त उत्कर्षेण सातिरेके त्रिंशदधिकं वर्षशतमायुः पालयन्ति, अप्येकका नैरयिकगतिगामिनः
॥१६६॥ यावत् सर्वदुःखानामन्तं कुर्वन्ति, अब चान्तक्रिया चतुर्थारकजातपुरुषजातमपेक्ष्य तस्यैव पञ्चमसमायां सिक्ष्यमा-18 नत्वाजम्बूस्वामिन इव, न च संहरणं प्रतीत्येदं भावनीयम्, तथा च सति प्रथमषष्ठारकादावपि एतत्सूत्रपाठ उपलभ्येत
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], -----------------------
------- मूलं [३४-३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक [३४-३६]
एवेति, आह-अत्र पालयन्ति अन्तं कुर्वन्ति इत्यादौ भविष्यत्कालप्रयोगे कथं वर्तमाननिर्देशः, उच्यते, सर्वास्वप्यवसर्पिणीषु पञ्चमसमासु इदमेव स्वरूपमिति नित्यप्रवृत्तवर्तमानकाले वर्तमानप्रयोगः, यथा द्वे सागरोपमे शको राज्यं । कुरुते इत्यादौ, तर्हि दुःपमासमा कालः प्रतिपत्स्यते इत्यादिप्रयोगः कथमिति चेत्, उच्यते, प्रज्ञापकपुरुषापेक्षयैतत्प्रयोगस्यापि साधुत्वात्, पुनरपि तस्यां किं किं वृचमित्याह-तीसे ण'मित्यादि, तस्या दुष्पमानाच्याः समायाः पश्चिमे त्रिभागे वर्षसहस्रसप्तकप्रमाणेऽतिक्रामति सति न तु अवशिष्टे तथा सति एकविंशतिसहस्रवर्षप्रमाणश्रीवीर-15 तीर्थस्यान्युच्छित्तिकालस्यापूर्तेः गणः-समुदायो निजज्ञातिरितियावत् तस्य धर्मः-स्वस्वप्रवर्तितो व्यवहारो विवाहा-15 दिकः पाखण्डाः-शाक्यादयस्तेषां धर्मः प्रतीत एवं राजधर्मो-निग्रहानुग्रहादिः जाततेजा:-अग्निः, स हि नातिस्निग्धे सुषमसुषमादौ नातिरूक्षे दुष्पमदुष्पमादौ चोत्पद्यत इति, चकारादग्निहेतुको व्यवहारो रन्धनादिरपि, चरणधर्म:-चारिधर्मः, चशब्दाद् गच्छब्यवहारश्च, अत्र धर्मपदव्यत्ययः प्राकृतत्वात् , व्युच्छेत्स्यति-विच्छेदं प्राप्स्यसि, सम्यक्त्वधर्मस्तु केपाश्चित्सम्भवत्यपि, बिलवासिनां हि अतिक्लिष्टत्वेन चारित्राभावः, अत एवाह प्रज्ञत्यां-'ओसणं धम्मसन्न-1 पभडा' इति, ओसन्नमिति प्रायोग्रहणात् कचित्सम्यक्त्वं प्राप्यतेऽपीति भावः, गतः पञ्चम आरः ॥ अथ पष्ठारक | | उपक्रम्यते-तीसे ण'मित्यादि, तस्यां समायां एकविंशत्या वर्षसहस्त्रैः प्रमिते काले व्यतिकान्ते अनन्तैर्वर्णपर्यवरेवं गन्धस्पर्शपर्यवैर्यावत् परिहीयमाणः २, दुष्षमादुषमा नाम्ना समा कालः प्रतिपत्स्यते हे श्रमण! हे आयुष्मन् !, अथ
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], -----------------------
------- मूलं [३४-३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३४-३६]
दीप अनुक्रम [४७-४९]
श्रीजम्यू- तत्र भरतस्वरूपप्रश्नाबाह-तीसे गमिसादि, तस्यां समायामुत्तमकाष्ठाप्रोक्षायां उत्तमावस्थागतांयामित्यर्थः परमक-18 वक्षस्कारे द्वीपशा- टप्राप्तायावा, भरतस्य कीदृशः कः आकारभावस्य-आकृतिलक्षणपर्यायस्य प्रत्यवतार:-अवतरणं आकारभावप्रत्यवतारः चतुर्थपश्चन्तिचन्द्री
प्रज्ञप्ता, भगवानाह-गीतमेश्यामन्य वक्ष्यमाणविशिष्टः कालो भविष्यति, कीटश इत्याहि-'हाहाभूताः' हाहा इत्येया चिः
तस्य शब्दस्य दुःखालोकेन करणं हाहोच्यते ततः-प्राप्तो यः कालः स हाहाभूता, भाम्भा इत्यस्य दुःखार्तगवा-18 ॥१६७॥ दिभिः करणं भम्भोच्यते तद्भूतो यः स भम्भाभूतः, द्वावप्यनुकरणशब्दाविमौ, भम्भा वा भेरी सा चान्तः शून्या 8
शततो भम्भव यः कालो जनक्षयात्तच्छ्न्यः स भम्भाभूत इत्युच्यते, कोलाहल इहार्तशकुनसमूहध्वनिः तं भूतः-प्राप्तः,
कोलाहलभूतः समानुभावेन-कालविशेषसामध्येन च, चकारोऽत्र वाच्याम्तरदर्शनार्थः, णमित्यालङ्कारे, सरपरुषा:-18 अत्यन्तकठोरा धूल्या च मलिना ये वातास्ते तथा दुर्विषहा:-दुस्सहाः व्याकुला असमञ्जसा इत्यर्थः भयङ्कराः, चः विशेषणसमुच्चयसूचकः, वास्यन्तीत्यनेन सम्बन्धः,संवर्तकाश्च-तृणकाष्ठादीनामपहारका वातविशेषाश्च तेऽपि वास्वन्तीति, | इहास्मिन् काले अभीक्ष्णं-पुनः पुन—मायिष्यन्ते च-धूममुदमिष्यन्ति दिशः, किम्भूतास्ता इत्याह-समन्तात्-18
| सर्वतो रजस्वला-रजोयुक्ताः, अत एव रेणुना-रजसा कलुषा-मलिनास्तथा तमापटलेन-अन्धकारवृन्दन निरालीका-18|| ॥१६॥ 18| निरस्तप्रकाशा निरस्तदृष्टिग्रसरा वा, ततः पदद्वयकर्मधारयः, समयरूक्षतया च कालरूक्षतया चेत्यर्थः, अधिक अहितं
वा अपथ्यं चन्द्राः शीतं हिमं मोक्ष्यन्ति-वक्ष्यन्ति तथैव सूर्यास्तप्स्यन्ति, ताप मोक्ष्यन्तीत्यर्थः, कालरोक्ष्येण शरीर-1
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[ ३४-३६]
दीप
अनुक्रम
[४७-४९]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [ ३४-३६ ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
रौक्ष्यं तस्माच्चाधिकशीतोष्णपराभव इति, अय पुनस्तत्स्वरूपं भगवान् स्वयंमेवाह - 'अदुत्तरमित्यादि, अथापरं हे गौतम! अभीक्ष्णं पुनः पुनः अरसा - मनोरसवर्जितजला ये मेघास्ते तथा विरसा - विरुद्धरसा ये मेघास्ते तथा, एतदेवाभिव्यज्यते - भारमेषा:- संजदिवारसमामठीपितमेघाः खात्रमेयाः- करीषसमानरसजलीपेतमेघाः 'खट्टमे हे 'ति कचिंद् दृश्यते तत्राम्लजला मेघाः अनिमेषा अभिवंदहिकारिजला इत्यर्थः विद्युत्प्रधाना एवं जलवर्जिता इत्यर्थः विद्युन्निपातवन्तो वा विपुंनिपात कार्यकारिजलनिपतियन्तो वा मेघाः विषमेधाः - जनमरणहेतुजलाः अत्र असणिमेहा इत्यपि पदं कचिद् दृश्यते तत्रायमर्थः करकादिनिपातवन्तः पर्वतादिदारणसमर्थजलत्वेन वा वज्रमेघाः अयापनीयं न याप नाप्रयोजकमुदकं येषी ते संवा, जसमाधानकीरिज इत्यर्थः कचिद- 'अधिवणिजदगा' इति तंत्रापतिव्यजला इत्यर्थः एतदेव व्यनकि व्याक्ति रिमनिसलिला:' व्याधयः-स्थिरोः कुष्ठादेवी रोगाः सचचातिनः शूलादपरिणाम-रिपार्कों यस्य सलिलस्य तथा सदेवंविधं
डानिलेन महतानामाटितांना तीक्ष्णानी- वेगवतीमा धाराणां ति करिष्यन्तालय अन्यान्ती तु पते क्षारमेषादयो वर्षशतो*नारसंमेघादयः किं करिष्यन्तीत्याहबिन्तीति सम्वन्धः, भरतवर्षे ग्रामाचा
| वस्तदुत्थाया वेदनाया उदर सलिलं येषां ते तथां, अंत देवीम निपातः स प्रचुरो यंत्र व स नैकविंशतिवर्षसहस्रप्रमाण 'जेणं भरहे 'त्यादि, वेन वर्ष
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], -----------------------
------- मूलं [३४-३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
श्रीजम्बू-18
सूत्रांक
[३४-३६]
या वृत्तिः
दीप
आश्रमान्ताः प्राग्व्याख्यातास्तत्र गतं जनपद-मनुष्यलोक तथा चतुष्पदा-महिष्यादयो गोशब्देन गोजातीया एलका-२वक्षस्कारे हीपशा- उरभ्रास्तान् तथा खचरान्-वैताब्यवासिनो विद्याधरान् तथा पक्षिसंघान् तथा ग्रामारण्ययोर्यः प्रचारस्तत्र निर- चतुर्थपञ्चन्तिचन्द्री
तान्-आसक्कान् असांश्च प्राणान-द्वीन्द्रियादीन् बहुप्रकारान् तथा वृक्षान्-आम्रादीन् गुच्छान्-पृन्ताकीप्रभृतीन मषष्ठारकाः || गुस्मान्-नवमालिकादीन् लता-अशोकलताद्याः वल्ली: वालुक्यादिकाः प्रवालान्-पल्लवान अडरान्-शाल्यादिबी-18 ॥१६८॥ जसूचीः इत्यादीन् तृणवनस्पतिकायिकान्-यादरवनस्पतिकायिकान् , सूक्ष्मवनस्पतिकायिकानां तेरुपघातासम्भवात् , ||
तथा औषधीश्च-शाल्यादिकाः चोऽभ्युचये, 'पचए' इत्यादि यद्यपि पर्वतादयोऽन्यत्रैकार्थतया रूढास्तथाऽपीह विशेषो । |दृश्यः, तथाहि-पर्वतननाद्-उत्सवविस्तारणात् पर्वता:-क्रीडापर्वताः उज्जयन्तवैभारादयः गृणन्ति-शब्दायन्ते जनं | निवासभूतत्वेनेति गिरयः गोपालगिरिचित्रकूटमभृतयः डुङ्गानि-शिलावृन्दानि चोरवृन्दानि वा सन्त्येषु इत्यस्त्यर्थे प्रत्ययः डुकरा:-शिलोचयमात्ररूपाः उन्नतानि-स्थलानि धूल्युच्छ्रयरूपाणि भट्टित्ति चाहाः पांस्वादिवर्जिता भूमयः18 तत एतेषां द्वन्द्वस्ते आदिर्येषां ते तथा तान् , आदिशब्दात् प्रासादशिखरादिपरिग्रहः, मकारोऽलाक्षणिकः, चशब्दो
मेघानां क्रियान्तरद्योतकः, विद्रावयिष्यन्तीति क्रियायोगः, अत्रार्थेऽपवादसूत्रमाह-वैताब्यगिरिवर्जान पर्वतादीनित्यर्थः,18| ॥१६॥ ॥ शाश्वतत्वेन तस्याविध्वंसात्, उपलक्षणाद् ऋषभकूटं शाश्वतप्रायश्रीशत्रुञ्जयगिरिप्रभृतींश्च वर्जयित्वा, तथा सलिल
बिलानि-भूनिर्झराः विषमग"श्च-दुष्पूरचचाणि, कचिहुर्गपदमपि दृश्यते, तत्र दुर्गाणि च-खातवलयप्राकारादि
अनुक्रम [४७-४९]
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(१८)
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सूत्रांक
[३४-३६]
दीप
अनुक्रम
[४७-४९]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [ ३४-३६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बू. २९
| दुर्गमाणि निम्नानि च तान्युन्नतानि च निम्नोन्नतानि - उच्चावचानीत्यर्थः, पश्चाद् द्वन्द्वः, तानि च कर्मभूतानि शाश्वत-, नदीत्वाद् गङ्गासिन्धुवर्जानि समीकरिष्यन्ति । अथ तत्र भरतभूमिस्वरूपप्रश्न माह - 'तीसे ण' मित्यादि, तस्यां भदन्त ! | समायां भरतस्य भूमेः कीदृशक आकारभावप्रत्यवतारः भविष्यति ?, भगवानाह - गौतम ! भूमी भविष्यति, अङ्गार|भूता -ज्वालारहितवह्निपिण्डरूपा मुर्मुरभूता-विरलाग्निकणरूपा क्षारिकभूता - भस्मरूपा तप्तकवेलुकभूता - वह्निप्रतप्तकवेलुकरूपा 'तप्तसमज्योतिर्भूता' तप्तेन भावे कप्रत्यय विधानात् तापेन समा-तुल्या ज्योतिषा-वह्निना भूता-जाता या सा तथा पदव्यत्यय एवं समासश्च प्राकृतत्वात्, धूलिबहुलेत्यादौ धूलि - पांशुः रेणुः - वालुका पङ्कः- कर्द्दमः पनकः - प्रतलः कर्द्दमः चलनप्रमाणकर्द्दमश्चलनीत्युच्यते, अत एव बहूनां धरणिगोचराणां सत्त्वानां दुःखेन नितरां क्रम:क्रमणं यस्यां सा दुर्निष्क्रमा, दुरतिक्रमणीयेत्यर्थः, चः समुच्चये, अपिशब्देन दुर्निषदादिपरिग्रहः, अत्र बहूनामित्यादितः प्रारभ्य भिन्नवाक्यत्वेनोत्तरसूत्रवर्त्तिना भविष्यतिपदेन न पौनरुक्त्यं । अथ तत्र मनुष्यस्वरूपं पृच्छति'तीसे ण' मित्यादि, प्रश्नसूत्रं प्राग्वत्, निर्वचनसूत्रे गौतम ! मनुजा भविष्यन्ति, कीदृशा इत्याह- दूरुपादुःस्वभावाः दुर्वर्णा:- कुत्सितवर्णाः, एवं दुर्गन्धाः दूरसा:- रोहिण्यादिवत् कुत्सितरसोपेताः दुःस्पर्शाः - कर्कशादिकुत्सितस्पशाः अनिष्टा-अनिच्छाविषयाः, अनिष्टमपि किञ्चित्कमनीयं स्यादित्यत आह-अकान्ताः-अकमनीयाः, अकान्तमपि किश्चित्कारणवशात् प्रीतये स्यादतोऽप्रिया - अभीतिहेतवः, अमियत्वं च तेषां कुत इत्याह-अशुभा - अशोभनभावरूपत्वात्,
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------- मूलं [३४-३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३४-३६]
दीप
अशुभत्वं च विशेषत आह--- मनसा-अन्तःसंवेदनेन शुभतया ज्ञायन्ते इत्यमनोज्ञाः, अमनोज्ञतयाऽनुभूतमपि द्वीपशा- स्मृतिदशायां दशाविशेषेण किश्चिन्मनो स्यादत आह-अमनोऽमाः' न मनसा अम्यन्ते-गम्यन्ते पुनः स्मृल्या इल्म-18
चतुर्थपश्चन्तिचन्द्री
मनोमाः एकार्थिका वा एते शब्दा अनिष्टताप्रकर्षवाचका इति, मूल् अनिष्टादिविशेषणोपेता अपि केचिद् हुम्बा मषष्ठारकाः या वृत्तिः
इव सुस्वराः स्युरित्याह-हीनो-लानस्येच स्वरो येषां ते तथा, दीनो दुःखितस्पेन स्वरो येषां ते तथा, अनिष्टादिशब्दाम. २४-३५ ॥१६९॥ उतार्था एवात्र स्वरेण योजनीयाः, 'अनादेयवचनप्रत्याजाताः' अनादेयं-असुभगत्वाद् अग्राह्यं वचनं-वचः प्रत्याजातं
च-जन्म येषां ते तथा, निर्लजाः व्यक्तं, कूट-भ्रान्तिजनकद्रव्यं कपट-परवञ्चनाय वेपान्तरकरणं कलहा-प्रतीतः। |वधो-हस्तादिभिस्ताडनं बन्धो-रजभिः संयमनं वैरं-प्रतीतं तेषु निरताः, मर्यादातिक्रमे प्रधाना-मुख्याः, अकार्ये
नित्योद्यताः, गुरूणां-मात्रादिकानां नियोगः-आज्ञा तत्र यो विनय:-ओमित्यादिरूपस्तेन रहिताः, चः पूर्ववत् , विकलं18 असम्पूर्ण काणचतुरङ्गुलिकादिस्वभावत्वाद्रूपं येषां ते तथा, अरूढा-गर्तासूकराणामिवाजन्मसंस्काराभावात् वृद्धिं गता
नखाः केशाः श्मश्रुणि रोमाणि च येषां ते तथा, काला:-कृतान्तसदृशाः क्रूरप्रकृतित्वात् कृष्णा वा खरपरुषा:-स्पर्शतोऽ-11 तीव कठोराः श्यामवर्णा-नीलीकुण्डे निक्षिप्तोत्क्षिप्ता इव, ततः कर्मधारयः, क्वचिद् ध्यामवर्णा इत्यपि पदं दृश्यते,
॥१६९॥ तत्रानुज्वलवर्णा इत्यर्थः, स्फुटितशिरस:-स्फुटितानीव स्फटितानि राजिमत्वात् शिरांसि-मस्तकानि येषां ते सथा, कपिला केचन पलिताश्च-शुक्लाः केचन केशा येषां ते तथा, बहुस्नायुभिः-प्रचुरस्नसाभिः संपिनद्धं-बद्धमत एष दुःखेन
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सूत्रांक
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अनुक्रम [४७-४९]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [ ३४-३६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
Jan Ebeitin
दर्शनीयं रूपं येषां ते तथा, सङ्कटितं सङ्कुचितं बल्यो -निर्मांसत्वग्विकारास्ता एव तदनुरूपाकारत्वात् तरङ्गा-बीचयस्तैः परिवेष्टितानि अङ्गानि - अवयवा यत्र तदेवंविधम-शरीरं येषां ते तथा, के इवेत्याह-जरापरिणता इव, स्थवि - | रनरा इवेत्यर्थः, स्थविराश्चान्यथापि व्यपदिश्यन्ते इति जरापरिणतग्रहणं, प्रविरला सान्तरालत्वेन परिशटिता च दन्तानां केषाञ्चित्पतितत्वेन दम्तश्रेणिर्येषां ते तथा, उद्भटं विकराल घटकमुखमिव मुखं तुच्छदशनच्छदत्वाद्येषां ते तथा, कचित्तु उभडघाडामुहा इति पाठः, तत्र उमदे - स्पष्टे घाटामुले-कृकाटिकावदने येषां ते तथा, विषमे नयने येषां ते तथा, वक्रा नासा येषां ते तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, वक्रं पाठान्तरेण व्यङ्गं सलाञ्छनं वलिभि विकृतं च- बीभत्सं भीषणं भयजनकं मुखं येषां ते तथा, ददुकिटिभसिध्मानि - क्षुद्रकुष्ठविशेषास्तत्प्रधाना स्फुटिता परुषा च छवि:- शरीरत्वग्येषां ते तथा, अत एव चित्राङ्गाः- कर्बुरावयवशरीराः कच्छ्रः -पामा तया कसरैश्च खसरैरभिभूताव्याप्ता ये ते तथा, अत एव खरतीक्ष्णनखानां कठिनतीव्रनखानां कण्डूयितेन खर्जूकरणेन विकृता - कृतत्रणा तनुःशरीरं येषां ते तथा, टोलाकृतयः- अप्रशस्ताकाराः, कचित् टोलागइति पाठस्तत्र टोलगतयः - उष्ट्रादिसमप्रचाराः, तथा विषमाणि दीर्घ स्वभावेन सन्धिरूपाणि बन्धनानि येषां ते विषमसन्धिबन्धनाः, तथा उत्कटुकानि - यथास्थान| मनिविष्टानि अस्थिकानि - कीकसानि विभक्तानीव च दृश्यमानान्तराणीव येषां ते तथा, अत्र विशेषणपदव्यत्ययः प्राग्वत्, अथवा उत्कुटुकस्थितास्तथास्वभावत्वात् विभक्ताश्च भोजनविशेषरहिता ये ते तथा, 'दुर्बला' बलहीनाः
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
[३४-३६]
दीप
अनुक्रम
[४७-४९]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [ ३४-३६]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८] उपांगसूत्र- [७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
श्रीजम्बूद्वीपशान्विचन्द्रीया वृत्तिः
॥ १७० ॥
'कुसंहनना' सेवार्चसंहननाः 'कुप्रमाणा:' प्रमाणहीनाः 'कुसंस्थिताः' दुःसंस्थानास्तत एषां टोलाकृत्यादिपदाना कर्मधारयः, अत एव 'कुरूपाः ' कुमूर्त्तयः तथा कुस्थानासनाः- कुत्सिताश्रयोपवेशनाः कुशय्याः कुत्सितशयनाः कुभोजिनो-दुर्भोजनास्ततः एभिः पदैः कर्मधारयः, अशुचयः स्नानत्रह्मचर्यादिवर्जिताः अश्रुतयो वा - शास्त्रवर्जिताः अनेकव्याधिपरिपीडिताङ्गाः स्खलन्ती बिहुला च वा अर्दवितर्दा गतिर्येषां ते तथा, निरुत्साहाः सत्त्वपरिवर्जिताः विकृतचेष्टा नष्टतेजसः स्पष्टानि, अभीक्ष्णं शीतोष्णखर परुषवातैर्विज्झडिअं-मिश्रितं व्याप्तमित्यर्थः, मलिनं पांसुरूपेण रजसा न तु पौष्परजसाऽवगुण्ठितानि - उद्धूलितान्यङ्गानि - अवयवा यस्य एतादृशमङ्गं येषां ते तथा, बहुकोधमानमाया लोभाः बहु| मोहाः न विद्यते शुभं - अनुकूलवेद्यं कर्म येषां ते तथा, अत एव दुःखभागिनः, ततः कर्मधारयः, अथवा दुःखानुवन्धिदुःखभागिनः, 'ओसण्णं ति बाहुल्येन धर्मसंज्ञा - धर्मश्रद्धा सम्यक्त्वं च ताभ्यां परिभ्रष्टाः, बाहुल्य ग्रहणेन. | यथा सम्यग्दृष्टित्वमेषां कदाचित् सम्भवति तथाऽधस्तनग्रन्थे व्याख्यातं, उत्कर्षेण रते :- हस्तस्य यश्चतुर्विंशत्यङ्गुललक्षणं प्रमाणं तेन मात्रा - परिमाणं येषां ते तथा, इह कदाचित्पोडश वर्षाणि कदाचिच्च विंशतिर्वर्षाणि परममायुर्वेषां ते तथा, श्रीवीरचरित्रे तु षोडश स्त्रीणां वर्षाणि विंशतिः पुंसां परमायुरिति, बहूनां पुत्राणां नम्रणां - पौत्राणां यः परिवारस्तस्य प्रणयः स्नेहः स बहुलो येषां ते तथा, अनेनाल्पायुष्केऽपि बह्नपत्यता तेषामुक्ता, अल्पेनापि कालेन यौवनसद्भावादिति, ननु तदानीं गृहाद्यभावेन व ते वसन्तीत्याह- गङ्गासिन्धू महानद्यौ वैताढ्यं च पर्वतं निश्रां
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वक्षस्कारे
चतुर्थपश्चमषष्ठारकाः सू. ३४-३५ -१६
॥ १७० ॥
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], -----------------------
------- मूलं [३४-३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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प्रत
सूत्रांक [३४-३६]
दीप
| कृत्वा 'बावत्तरिति द्वासप्ततिः स्थानविशेषाश्रिता निगोदा:-कुटुम्बानि, द्विसप्ततिसङ्ख्या चैव-वैताड्यादर्वाग् गङ्गाया-1
स्तटद्वये नवनवबिलसम्भवादष्टादश, एवं सिन्ध्वा अपि अष्टादश, एषु च दक्षिणार्धभरतमनुजा वसन्ति, वैताळ्यात् | 18 परतो गङ्गातटद्वयेऽष्टादश, एवं तत्रापि सिन्धुतटद्वये अष्टादश, एषु चोत्तरार्द्धभरतवासिनो मनुजा वसन्ति, बीजमिव 18 बीजं भविष्यतां जनसमूहानां हेतुत्वात् बीजस्येव मात्रा-परिमाणं येषां ते तथा, स्वल्पाः स्वरूपत इत्यर्थः, बिलवा
सिनो मनुजा भविष्यन्तीति पुनः सूत्रं निगमनवाक्यत्वेन न पुनरुकमवसातव्यं, अथ तेषामाहारस्वरूपं पृच्छन्नाह-18 'ते णं भंते ! मणुआ' इत्यादि, ते भगवन् ! मनुजाः किमाहरिष्यन्ति ?-किं भोक्ष्यन्ते, भगवानाह-गौतम ! तस्मिन् , 18 काले-एकान्तदुष्पमालक्षणे तस्मिन् समये-षष्ठारकप्रान्त्यरूपे गङ्गासिन्धू महानद्यौ रथपथः-शकटचक्रद्वयममितो मार्गस्तेन मात्रा-परिमाणं यस्य स तारशो विस्तर:-प्रवाहव्यासो ययोस्ते तथा, अक्ष-चक्रनाभिक्षेप्यकाष्ठं तत्र स्रोतोधुरः प्रवेशरन्धं तदेव प्रमाणं तेन मात्रा-अवगाहना यस्य तत्तथाविधं जलं वक्ष्यतः, इयत्प्रमाणे न गम्भीरं जलं धरिप्यत इत्यर्थः, ननु क्षुल्लहिमवतोऽरकव्यवस्थाराहित्येन तद्गतपद्मद्रहनिर्गतयोरनयोः प्रवाहस्य नैयत्येनोकरूपा (प्रवाही) कथं सङ्गच्छेते ?. उच्यते, गङ्गाप्रपातकुण्डनिर्गमादनन्तरं क्रमेण कालानुभावजनितभरतभूमिगततापवशादपरजलशोपे । समुद्रप्रवेशे तयोरुक्तमात्रावशेषजलवाहित्वमिति न काप्यनुपपत्तिरिति, तदपि च जलं बहुमत्स्यकच्छपाकीर्ण न चैव अब्बहुलं-बहप्कार्य सजातीयापरापूकायपिण्डबहुलमित्यर्थः, ततस्ते मनुजाः सूरोद्गमनमुहूर्ते सूरास्तमयनमुहूः च,
अनुक्रम [४७-४९]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], -----------------------
-------- मूलं [३४-३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक
[३४-३६]
दीप अनुक्रम [४७-४९]
श्रीजम्बू- ॥ यकारलोपोऽत्र प्राकृतत्वात् , चकारी परस्परं समुच्चयार्थी, विलेभ्यो निर्धाविष्यन्ति-शीघ्रया गत्या निर्गमिष्यन्ति,
|श्वक्षस्कारे द्वीपशा- मुहर्तात्परतोऽतितापातिशीतयोरसहनीयत्वात् , बिलेभ्यो निर्धाव्य मत्स्यकच्छपान् स्थलानि-तटभूमी: णिगन्तत्वान्च तपत्रन्तिचन्द्री- द्विकर्मकत्वं ग्राहयिष्यन्ति-प्रापयिष्यन्ति, ग्राहयित्वा च शीतातपतप्तः रात्रौ शीतेन दिवा आतपेन तप्तैः-रसशोष प्रापि- मषष्ठारकाः या वृत्तिः
18 तैराहारयोग्यता प्रापितैरित्यर्थः, अतिसरसानां तज्जठराग्निनाऽपरिपाच्यमानत्वाद् मत्स्यकच्छपैरेकविंशति वर्षसहस्राणिसू.३४-३५ ॥१७॥ यावद्वृत्ति-आजीविका कल्पयन्तो-विदधाना विहरिष्यन्ति । अथ तेषां गतिस्वरूपं पृच्छन्नाह-'ते ण'मित्यादि.
18 ते मनुजा भगवन् ! निश्शीला-गताचाराः निर्णता-महाव्रताणुव्रतविकलाः निर्गुणा-उत्तरगुणविकलाः निर्मर्यादा:-अवि-॥
द्यमानकुलादिमर्यादाः निष्प्रत्याख्यानपौषधोपवासा-असत्पौरुष्यादिनियमा अविद्यमानाष्टम्यादिपर्थोपवासाश्चेत्यर्थः, 18| ओसणं' प्रायो मांसाहाराः, कथमित्याह-मत्स्याहारा यतः, तथा 'चौद्राहाराः' मधुभोजिनः क्षीणं या-तुच्छावशिष्ट-18 18 तुच्छधान्यादिकं आहारो येषां ते तथा, इदं विशेषणं सूपपन्नमेव, पूर्वविशेषणे प्रायोग्रहणात्, केषुचिदादर्शेषु अत्र || 1% गड्डाहारा इति दृश्यतें, स लिपिप्रमाद एव सम्भाव्यते, पञ्चमाझे सप्तमशते षष्ठोद्देशे दुषमदुष्षमावर्णनेऽदृश्यमान-18
त्वात्, अथवा यथासम्प्रदायमेतत्पदं व्याख्येयं, कुणप:-शवस्तद्रसोऽपि वसादिः कुणपस्तदाहारा', 'कालमासे | ॥१७॥ इत्यादिकं प्राग्वत्, निर्वचनसूत्रमपि प्राग्वत् , नवरं 'ओसण्ण'मिति ग्रहणात् कश्चित् क्षुद्राहारवान् देवलोकगाम्यपि |18 अफ्लिष्टाध्यवसायात्, अथ ये तदानी क्षीणावशेषाश्चतुष्पदास्तेषां का गतिरिति पृच्छति-'तीसे णमित्यादि, तस्यां 8
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------- मूलं [३४-३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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सूत्रांक [३४-३६]
दीप अनुक्रम [४७-४९]
| भगवन् ! समायां चतुष्पदा:-सिंहादयः प्राग्व्याख्यातार्थाः श्वापदाः प्रायो मांसाहारादिविशेषणविशिष्टाः क गमि-II प्यन्ति क उत्पत्स्यन्ते ?, भगवानाह-गौतम! प्रायः नरकतिर्यग्योनिकेषु उत्पत्स्यन्ते, प्रायोग्रहणात् कश्चिदमांसादी || | देवयोनावपि, नवरं चिल्ललगा-नाखरविशेषा इति, अथ तदानीं तत्पक्षिगति प्रश्नयति-'ते णमित्यादि, कण्ठ, नवरं || || ते णमिति क्षीणावशिष्टा ये पक्षिण इति यच्छन्दबलाद् ग्राह्य, ढङ्का:-काकविशेषाः कङ्का:-दीर्घपादाः पिलका18 रूढिगम्याः मद्का-जलवायसाः शिखिनो-मयूरा इति, गतः पष्ठारकः, तेन चावसर्पण्यपि गता ॥ साम्प्रतं प्रागुदि18ष्टामुत्सर्पिणी निरूपयितुकामस्तत्प्रतिपादनकालप्रतिपादनपूर्वकं तत्प्रथमारकस्वरूपमाह
तीसे पं समाए इकवीसाए वाससहस्सेहिं काले वीइकते आगमिस्साए उस्सप्पिणीए सावणबहुलपडिकए बालवकरणंसि अभीइणक्स चोरसपढमसमये अणतेहिं वण्णपज्जयहिं जाव अणंतगुणपरिषद्धीए परिवुद्धमाणे २ एस्थ पं दूसमदूसमाणामं समा काले पडिवजिस्सइ समणाउसो!। तीसे गं भंते! समाए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडोआरे भविस्सइ!, गोअमा! काले भविस्सद हाहाभूए भंभाभूए एवं सो चेव दूसमदूसमावेढओ मधो, तीसे णं समाए एकवीसाए वाससहस्सेहिं काले विदकते अणंतेहिं वण्णपज्जवेहि जाव अणंतगुणपरिचुद्धीए परिवखेमाणे २ एत्थ ण दूसमाणामं समा काले परिवजिस्साह समणाउसो! (सूत्र-३७) 'तीसे 'मित्यादि, तस्यां समायामवसर्पिणीदुष्षमदुष्षमानाम्नयां एकविंशत्या वर्षसहस्रैः प्रमिते काले व्यतिक्रान्ते आगमिष्यन्त्यामुत्सर्पिण्यां श्रावणमासस्य बहुलप्रतिपदि-कृष्णप्रतिपदि पूर्वावसर्पिण्या: आषाढपूर्णिमापर्यन्तसमये
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Cons
उत्सर्पिणीकालस्य प्रथम-आरकस्य स्वरुपम
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], ------------------------
------- मूलं [३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
SANGO
तिचन्द्री
श्रीजम्बू- पर्यवसानत्वात् बालवनाम्निकरणे कृष्णप्रतिपत्तिथ्यादिमाऽस्यैव सद्भावात् , अभीचिनक्षत्रे चन्द्रेण योगमुपागते, रवक्षस्कारे द्वीपशा-1|| चतुर्दशानां कालविशेषाणां प्रथमसमये-प्रारम्भक्षणेऽनन्तैर्वर्णपर्यवैर्यावदनन्तगुणपरिवृझ्या परिवर्द्धमानः परिवर्द्धमानः || उत्सर्पियो
अत्रान्तरे दुष्पमदुषमानाना समा कालः प्रतिपत्स्यते हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! इति, वर्णादीनां द्धिश्च येनैव क्रमेण प्रथमाहितीया वृतिः पूर्वमवसर्पिण्यरकेषु हानिरुक्ता तथैवात्र वाच्या, चतुर्दशकालविशेषा पुनः निःश्वासादुश्वासाद्वा गण्यन्ते, समयस्य
यारको सू. ॥१७॥ 18 निर्विभागकालवेनाद्यन्तव्यवहाराभावादावलिकायाश्चाव्यवहारार्थत्वेनोपेक्षा, तन्त्र निःश्वासः उच्छासो वा १ प्राणः २,10
| स्तोकः ३, लवः ४, मुहूर्त ५, अहोरात्रं ६, पक्षः ७, मासः ८, ऋतुः ९, अयनं १०, संवत्सरः ११, युगं १२, करणं ||
|१३, नक्षत्रं १४, इति, एतेषां चतुर्दशानां मध्ये पञ्चानां सूत्रे साक्षादुक्ताना अपरेषा चोपलक्षणसङ्गृहीतानां प्रथमसमये, 18 कोऽर्थः-य एव हि एतेषां चतुर्दशानां कालविशेषाणां प्रथमः समयः स एवोत्सर्पिणीप्रथमारकप्रथमसमयः, अव18 सर्पिणीसत्कानामेषां द्वितीयाषाढापौर्णमासीचरमसमय एव पर्यवसानात्, इदमुक्तं भवति :-अवसपिण्यादौ महा-18
काले प्रथमतः प्रवर्त्तमाने सर्वेऽपि तदवान्तरभूताः कालविशेषाः प्रथमत एव युगपत्मवर्तन्ते तदनु स्वस्वप्रमाणसमाप्तौ ६ समामुवन्ति, तथैव पुनः प्रवर्तन्ते पुनः परिसमानुवन्ति यावन्महाकालपरिसमाधिरिति, यद्यपि प्रन्थान्तरे' ऋतोराषा
॥१७॥ ढादित्वेन कथनादुत्सपिण्याश्च श्रावणादित्वेन अस्य प्रथमसमयो न सङ्गच्छते ऋत्वर्द्धस्य गतत्वात् तथापि प्रावृद्ध-18 श्रावणादिवर्षारात्रोऽश्वयुजादिः शरन्मार्गशीर्षादिहेमन्तो माषादिर्वसन्तश्चैत्रादिप्रीमो ज्येष्ठादिरित्यादिभगवतीवृत्तिव
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“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ---------------........
------ मूलं [३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३७]
|चनात् श्रावणादित्वपक्षाश्रयणेन समाधेयमिति न दोषः, किञ्चेदं सूत्रं गम्भीरं ग्रन्थान्तरे च व्यक्त्यानुपलभ्यमानभा-1 वार्थकं तेनान्यथाप्यागमाविरोधेन मध्यस्थैः बहुश्रुतैः परिभावनीयमिति । अथांत्रकालस्वरूपं पृच्छति-'तीसे ण'मित्यादि, सर्व सुगम, नवरं दुष्पमदुष्पमायाः अवसर्पिणीषष्ठारकस्य वेष्टको-वर्णको नेतव्यः-पापणीयस्तरसमानत्वा-1 दस्याः । गतः उत्सप्पिण्या प्रथम आरः, अथ द्वितीयारकस्वरूपं वर्णयति-'तीसे 'मित्यादि, सर्व मुगर्म, नवरं उत्सर्पिणीद्वितीयारक इत्यर्थः, अथावसर्पिणीदुप्पमातोऽस्या विशेषमाह
तेणं कालेणं तेणं समएणं पुक्खलसंवट्टए णामं महामेहे पाउन्मविस्सइ भरहप्पमाणमित्वे आयामेण तदाणुरुवं च णं विक्संभयाहल्लेणं, तए ण से पुक्खलसंवट्टए महामेहे सिप्पामेव पतणतणाइस्सइ सिप्पामेव पतणतणाइत्ता सिप्पामेव पविग्नुआइस्सइ खिप्पामेव पविजुआइत्ता सिप्पामेव जुगमुसलमुद्विपमाणमित्ताहिं धाराहिं ओघमे, सत्तरत्तं वासं वासिस्सइ, जेणं भरहस्स वासस्स भूमिभागं इंगालभूअं मुम्मुरभू छारिअभूअं तत्तकवेलुगभूमं तत्तसमजोइभूअं णिवाविस्सतित्ति, संसिं च णं पुक्खलसंवट्टगंसि महामेहंसि सत्तरत्तं णिवतितंसि समाणसि एत्य णं खीरमेहे णाम महामेहे पाउन्भविस्सइ भरहप्पमाणमेत्ते आयामेणं तवणुरूवं च णं विक्खंभबाहल्लेणं, नए णं से सीरमेहे णामं महामेहे खिप्पामेव पतणतणाइस्सइ जाब खिप्पामेव जुगमुसलमुहि जाव सत्तरत्तं वासं वासिस्सइ, जेणं भरहवासस्स भूमीए वण्णं गंधं रसं फासं च जणइस्सइ, तंसि च णं खीरमेहंसि सत्तरत्तं णिवतितसि समाणंसि इत्थ णं धयमेहे णामं महामेहे पाउभविस्सइ, भरहप्पमाणमेत्ते आयामेणं, नदणुरूवं च णं विक्संभवाहलेणं,
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------ मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
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[३८]
श्रीजम्बू-18 तए णं से पयमेहे महामेहे सिप्पामेव पतणतणाइस्सइ जाव वासं वासिस्सइ, जेणं भरहस्त वासस्स भूमीए सिणेहभावं जगइस्सा,
वक्षस्कारे द्वीपशा- तसिं च णं घयमेहंसि सत्तरतं जिवतितंसि समाणसि एत्थ णं अमयमेहे णामं महामेहे पाउभविरसइ भरहप्पमाणमित्तं आया--
पुष्कलसंवन्तिचन्द्री- मेणं जाव वासं वासिस्सह, जेणं भरहे वासे रुक्खगुच्छगुम्मलयवल्लितणपब्वगहरितगओसहिपवालंकुरमाईए तणवणस्सइकाइय क्षीरघृताया वृत्तिः
जणइस्सइ, तंसि च णं अमयमेहंसि सत्तरत्तं णिवतितंसि समाणंसि एल्थ गं रसमेहे णामं महामेहे पातम्भविस्सइ भरहपमा- मृतरसमे॥१७३॥
गमित्ते आयामेणं जाव वास वासिस्सइ, जेणं तेसिं बहूर्ण रुक्थगुच्छगुम्मलयवलितणपक्षणहरितओसहिपयालंकुरमादीणं तित्त कडु- पासू.३८ अकसायअंबिलमहुरे पंचविहे रसविसेसे जणइस्सइ, तए णं भरहे वासे भविस्सइ फरूढरुक्खगुच्छगुम्मलयवलितणपवयगद्दरिषओसहिए, उवचियतयपत्तपवालंकुरपुष्फफलसमुइए सुहोवभोगे आवि भविस्सइ (सूर्व ३८)
'ते णमित्यादि, तस्मिन् काले-उत्सर्पिण्या द्वितीयारकलक्षणे तस्मिन् समये-तस्यैव प्रथमसमये, पुष्कलं-सर्व |अशुभानुभावरूपं भरतभूरोक्ष्यदाहादिकं प्रशस्तस्वोदकेन संवर्तयति-नाशयतीति पुष्कलसंवर्तकः स च पर्जन्यप्रभृतिमे-18||
धत्रयापेक्षया महान् मेघो-दशवर्षसहस्रावधि एकेन वर्षणेन भूमेर्भावुकत्वात् महामेघः प्रादुर्भविष्यति-प्रकटीभवि-1॥ प्यति, भरतक्षेत्रप्रमाणेन साधिककसप्ततिचतुःशताधिकचतुर्दशयोजनसहन्नरूपेण १४४७१ मावा-प्रमाण यस सIS ॥१७॥ । तथा, केन ?-आयामेन-दीर्घभावेन, अयं भावः-पूर्वसमुद्रादारभ्य पश्चिमसमुद्रं यावत् तस्य वार्दलकं च्या भविष्य-18 18|| तीत्यर्थः, तदनुरूपश्च-तस्य भरतक्षेत्रस्थानुरूपः-सदृशः, सूत्रे च लिङ्गव्यत्ययः प्राकृतत्वात्, क्रियाविशेषणं वा, केने-18||
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------ मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८]
त्याह-विष्कम्भवाहल्येन, अब समाहारद्वन्द्वशादेकवद्भावः, कोऽर्थः-यावान् व्यासो भरतक्षेत्रस्य इषुस्थाने पश्च-18 | शतयोजनानि षविंशतिर्योजनानि षट् च कला योजनेकविंशतिभागरूपाः तदतिरिक्तस्थाने तु अनियततया तथाऽस्यापि | विष्कम्भः, बाहल्यं तु यावता जलभारेण यावदवगाढभरतक्षेत्रतप्तभूमिमाद्रीकृत्य तापः उपशाम्यते तावजलदलनि|| पन्नमेव ग्राह्यमिति, अथ स प्रादुर्भूतः सन् यत्करिष्यति तदाह-'तए णमित्यादि, ततश्च स-पुष्कलसंवर्तकमेघः | क्षिप्रमेव-उन्नमनकाल एव 'पतणतणाइस्सईति अनुकरणवचनमेतत् प्रकर्षण स्तनितं करिष्यति, गर्जिष्यतीत्यर्थः, ॥ तथा च कृत्वा क्षिप्रमेव युगं-रथावयवविशेषः मुसलं-प्रतीतं मुष्टिः-पिण्डिताङ्गुलिकः पाणिः एषां यत्प्रमाणमायाम-18| वाहल्यादिभिस्तेन मात्रा यासां ताभिः, इयता प्रमाणेन दीर्घाभिः-स्थूलाभिरित्यर्थः धाराभिः ओघेन-सामान्येन सर्वत्र निर्विशेषेण मेघो यत्र तं तथाविधं सप्तरात्रं-सप्ताहोरात्रान् वर्ष वर्षिष्यति करिष्यतीत्यर्थः, 'जे णमिति पूर्ववत् भरतस्य वर्षस्य-क्षेत्रस्य भूमिभागं अङ्गारभूतं मुर्मुरभूतं क्षारिकभूतं तप्तकवेल्लुकभूतं तप्तसमज्योतिर्भूतं निर्वापयिष्यति स पुष्करसंवतको महामेघः, अथ द्वितीयमेघवकव्यतामाह-तसिं च णमित्यादि, तसिंश्च चशब्दो वाक्यान्तरप्रा-18 रम्भार्थः,पुष्कलसंवर्तके महामेघे सप्तरात्रं यावनिपतिते सति-निर्भरं वृष्टे सति अत्रान्तरे क्षीरमेघो नामतो महामेघः
प्रादुर्भविष्यति, शेष 'भरते त्यादि प्राग्वत्, अथ स प्रादुर्भवन् किं करिष्यतीत्याह-'तए णमित्यादि, अत्र वासिरस्सइत्ति पर्यन्तं प्राग्वत् , यो मेघो भरतस्य भूम्या वर्ण गन्धं रसं स्पर्श च जनयिष्यति, अत्र वर्णादयः शुभा एव ग्राह्या,
अनुक्रम
[५१]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------ मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
न्तिचन्द्री
श्रीजम्बूद्वीपशा- या वृत्तिः ॥१७४॥
1
[३८]
येभ्यो लोकोऽनुकूलं वेदयुते, अशुभवर्णादयः प्राकालानुभावजनिता वर्तन्त एवेति, ननु यदि शुभवर्णादीन् जनयतिको तदा तरुपत्रादिषु नीलो वर्णो जम्बुफलादिषु कृष्णः मरिचादिषु कटुको रसः कारवेल्लादिषु तिक्तः चणकादिषु रूक्षः पुष्कलसंवस्पर्शः सवर्णादिष गुरुः क्रकचादिषु खरः इत्यादयोऽशुभवादयः कथं सम्भवेयुरिति ?, उच्यते, अशुभपरिणामा अप्य- क्षीरघृता| तेऽनुकूलवेद्यतया शुभा एव, यधा मरिचादिगतः कटुकरसादिः प्रतिकूलवेद्यतया शुभोऽप्यशुभ एव, यथा कुष्ठादिगतः मृतरसमेवेतवर्णादिरिति, अध तृतीयमेघवक्तव्यतामाह-तंसि'इत्यादि, तस्मिन् क्षीरमेघे सप्तरात्रं निपतिते सति अत्रान्तरेणापासू. २८ घृतवत् स्निग्धो मेघो घृतमेघो नाम्ना महामेघः प्रादुर्भविष्यतीत्यादि सर्व प्राग्वत्, अथ स प्रादुर्भूतः किं करिष्यती-18 | त्याह--'तए णमित्यादि, सर्व प्राग्वत्, नवरं यो घृतमेघो भरतभूमेः स्नेहभाव-स्निग्धता जनयिष्यतीति, अब चतुथेमेघवक्तव्यतामाह-'तंसि'इत्यादि, तस्मिंश्च घृतमेघे सप्तरात्रं निपतिते सति अत्र-प्रस्तावेऽमृतमेघो यथार्थनामा महामेघः प्रादुर्भविष्यति यावद्वषिष्यति इति पर्यन्तं पूर्ववत् , यो मेघो भरते वर्षे वृक्षा गुच्छा गुल्मा लता वलयः तृणानि प्रतीतानि पर्वगा-इक्ष्वादयः हरितानि-दुर्वादीनि औषध्यः-शाल्यादयः प्रवाला:-पल्लवाः अङ्कुराः-शाल्यादिबीज-15॥ सूचयः इत्यादीन् तृणवनस्पतिकायिकान्-बादरवनस्पतिकायिकान् जनयिष्यतीति। अथ पश्चममेघस्वरूपवक्तव्यता- ॥१७॥ माह-तंसि च णमित्यादि,व्यकं, परं रसजनको मेघो रसमेघः, यो रसमेघस्तेषाममृतमेघोत्पन्नानां बहूनां वृक्षाद्य-18 रान्तानां वनस्पतीनां तिक्तो निम्बादिगतः कटुको मरिचादिगतः कषायो बिभीतकामलकादिगतः अम्बोऽम्लिकाद्याश्रितः
अनुक्रम [११]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------ मूलं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३८]
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मधुरः शर्कराधाश्रितः, एतान् पञ्चविधान् रसविशेषान् जनयिष्यति, लवणरसस्य मधुरादिसंसर्गजत्वाद् तदभेदेन । | विवक्षणात् , सम्भाव्यते च तत्र माधुर्यादिसंसर्गः सर्वरसानां लवणप्रक्षेप एव स्वादुत्वोत्पत्तेः तेन न पृथग्निर्देशः, एषां
च पश्चानां मेघानां क्रमेणेदं प्रयोजनं सूत्र उक्तमपि स्पष्टीकरणाय पुनर्लिख्यते-आद्यस्य भरतभूमेर्दाहोपशमः द्विती| यस्य तस्या एव शुभवर्णगन्धादिजनकत्वं तृतीयस्य तस्या एव स्निग्धताजनकत्वं न चात्र क्षीरमेघेनैव शुभवर्णगन्ध| रसस्पर्शसम्पत्ती भूमिस्निग्धतासम्पत्तिरिति वाच्यं, स्निग्धताधिक्यसम्पादकत्वात् तस्य, नहि यादृशी मृते स्निग्धता | तादशी क्षीरे रश्यत इत्यनुभव एवात्र साक्षी, चतुर्थस्य तस्यां वनस्पतिजनकत्वं, पञ्चमस्य वनस्पतिषु स्वस्खयोग्यरसविशेषजनकत्वं, यद्यप्यमृतमेघतो बनस्पतिसम्भवे वर्णादिसम्पत्तौ तत्सहचारित्वात् रसस्यापि सम्पत्तिस्तस्मादेव युक्तिमती तथापि स्वस्खयोग्यरस विशेषान् सम्पादयितुं रसमेघ एवं प्रभुरिति, तदा च यादृशं भरतं भावि तथा चाह'तए णं भरहे वासे'इत्यादि, ततः उक्तस्वरूपपञ्चमेघवर्पणानन्तरं णमिति पूर्ववत् भारतं वर्ष भविष्यति, कीहश-18 |मित्याह-मरूढा-उगता वृक्षा गुच्छा गुल्मा लता वल्यस्तृणानि पर्वजा हरितानि औषधयश्च यत्र तत्तथा, अत्र समासे || कप्रत्ययः, एतेन वनस्पतिसत्ताऽभिहिता, उपचितानि-पुष्टिमुपगतानि त्वक्पत्रप्रवालपल्लवांकुरपुष्पफलानि समुदि-18 तानि-सम्यक् प्रकारेण उदयं प्राप्तानि यत्र तत्तथा तान्तस्य परनिपातः प्राकृतत्वात् , एतेन वनस्पतिषु पुष्पफलानां || रीतिदेर्शिता, अत एव सुखोपभोग्य-सुखेनासेवनीयं भविष्यति, अत्र वाक्यान्तरयोजनार्थमुपात्तस्य भविष्यतिपदस्य |
अनुक्रम
[१]
श्रीजम्यू. १०
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], -----------------------
------- मूलं [३९-४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३९-४०
दीप अनुक्रम [५२-५३]
श्रीजम्यू-इन पौनरुक्त्यं भावनीयमिति । अथ तत्कालीना मनुजास्तादृशं भरतं दृष्ट्वा यत् करिष्यति तदाह
२वक्षस्कारे द्वीपशा- तए ते मणुआ भरहं वासं परूढरुक्खगुच्छगुम्मलयवल्लितणपधयहरिभओसहीयं उवचिअतयपत्तपबालपाहवंकुर पुष्फफलसमुइ मांसवर्जनन्तिचन्द्री- सुहोवभोग जायं २ चावि पासिहिति पासित्ता विलहितो गिद्धाइस्संति णिवाइत्ता हतुहा अण्णमणं सहाविस्संति २ ता एवं व्यवस्था सु. या वृत्तिः
वदिस्संति-जाते पं. देवाणुप्पिा ! भरहे वासे परूढाक्सगुच्छगुम्मलयवल्लितणपवयह रिअजाब सुहोवभोगे, तं जे ण देवाणुप्पिआ! |३९ शेषो॥१७५। अम्हं केइ अजप्पभिइ असुभं कुणिमं आहारं आहारिस्सइ से ण अणेगाहिं छायाहिं वजणिज्जेत्तिकट्ट संठिई ठवेस्संति २ त्ता
सर्पिणीवभरहे वासे सुहसुहेणं अभिरममाणा २ विह रिस्संति (सूत्र ३९) तीसे गं भंते ! समाए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोआरे पणनं मू.४० भविस्सइ, गो०। बहुसमरमणि भूमिभागे भविस्सद जाब कित्तिमेहि चेव अकित्तिमेहिं चेव, तीसे गं भंते ! समाए मणुआणं केरिसए आयारभावपटोमारे भविस्सइ, गोअमा! तेसि णं मणुआर्ण छबिहे संपयणे छबिहे संठाणे बहईओ रवणीओ उर्दू उच्चत्तेणं जहणेणं अंतोमुहुर्त उकोसेणं साइरेगं वाससर्व आउअं पालेहिंति २ ता - अप्पेगइमा जिरयगामी जाव अप्पेगइआ देवगामी, ण सिझंति । तीसे गं समाए एकवीसाए बाससहस्सेहिं काले वीइकते अणंतेहिं यण्णपजवेहिं जाव परियट्टेमाणे २ एत्य णं दुसमसूसमाणामं समा काले पडिवजिस्सइ समणाउसो!, तीसे ण भंते ! समाए भरहस्स वासस्स केरिसए आधारभावपटोआरे भविस्सइ !, गोअमा.! बहुसमरमणिजे जाव अकित्तिमेहि चेब, तेसि गं भंते ! मणुआणं केरिसए आयारभावपडोआरे भवि
॥१७५॥ स्सइ!, गो०! तेसि णं मणुआणं छबिहे संघयणे छविहे संठाणे बहूई धणूई उद्धं उच्चत्तेणं जहण्णणं अंतोमुहत्तं उकोसेणं पुब्बकोडीभावों पालिहिति २त्ता अप्पेगइआ णिरवगामी जाव अंतं करोहिंति, तीसे गं समाए तओ वंसा समुपजिस्संति, तं-.
अथ उत्सर्पिणीकाले भरतक्षेत्रस्य स्वरुपं वर्ण्यते
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], ------------------------
------- मूलं [३९-४० पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३९-४०]
तित्वगरवसे पकवडियंसे दसारवंसे, तीसे ण समाए तेवीसं तित्थगरा एकारस चक्कबट्टी णव बलदेवा णव वासुदेवा समुपजिस्संति, तीसे णं समाए सागरोवमकोडाकोडीए वायालीसाए वाससहस्सेहिं ऊणिआए काले वीइकते अणतेहिं वष्णपजवेहिं जाव अणंतगुणपरिबुद्धीए परिबुद्धेमाणे २ एस्थ ण सुसमसमाणामं समा काले पडिवजिजस्सह समणाउसो!, सा णं समा तिहा विभजिस्सइ, पढमे तिभागे मनिझमे तिभागे पच्छिमे तिभागे, तीसेणं भंते समाए पढमे तिभाए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपढोआरे भविस्सइ!, गोमा ! बहुसमरमणिजे जाव भविस्सइ, मणुआणं जा वेव ओसषिणीए पच्छिमे तिभागे वत्तव्यया सा भाणिअव्या, कुलगरवचा उसमसामिवजा, अण्णे पठंति-तीसे गं समाए पढमे तिभाए इमे पण्णरस कुलगरा समुपजिस्तंति तंजहासुमई जाय उसभे, सेसं तं चेव, दंडणीईओ पडिलोमाओ अव्वाओ, तीसे णं समाए पढमे तिभाए रायधम्मे जाय धम्मचरणे अ वोच्छिजिस्सइ, तीसे गं समाए मज्झिमपच्छिमेसु तिभागेसु जाव पढममझिमेसु यत्तव्यया ओसपिणीए सा भाणिअध्वा, सुसमा सहेव सुसमासुसमावि तहेब जाव छन्विहा मणुस्सा अणुसजिस्संति जाव सण्णिचारी (सूत्रं ४०)
'तए णमित्यादि, ततस्ते मनुजा भरतवर्ष यावत्सुखोपभोग्यं चापि द्रक्ष्यन्ति, दृष्टा बिलेभ्यो नि.विष्यन्तिनिर्गमिष्यन्ति, निर्दाव्य हृष्टा-आनन्दितास्तुष्टा:-सन्तोषमुपगताः पश्चात् कर्मधारयः अन्योऽन्यं शब्दयिष्यन्ति, शब्दयित्वा च एवं वदिष्यन्तीति, अथ ते किं वदिष्यन्तीत्याह-'जाते णमित्यादि, जातं भो देवानुप्रिया! भरतं वर्ष प्ररूढवृक्षं यावत् सुखोपभोग्यं तस्माद् ये देवानुप्रिया ! अस्माकं-अस्म जातीयानां कश्चिदद्यप्रभृति अशुभ कुणिम-मांसमाहारमाहारयिष्यति स पुरुषोऽनेकाभिश्छायाभिः, इत्थंभावे तृतीया, सह भोजनादिपङ्किनिषण्णानां
दीप
अनुक्रम [५२-५३]
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्तिः ) वक्षस्कार [२], ---------------------
------- मूलं [३९-४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[३९-४०]
दीप अनुक्रम [५२-५३]
श्रीजम्बू-याश्छायाः शरीरसम्बन्धिन्यस्ताभिर्वर्जनीयः, अयमर्थ:-आस्तां तेषामस्पृश्यानां शरीरस्पर्शः तच्छरीरच्छायास्पोऽपि वक्षस्कारे द्वीपशा- | वर्जनीयः, क्वचिदर्ज इति सूत्रपाठे तु बज्यों वर्जनीय इत्यर्थः, इतिकृत्वा संस्थिति-मर्यादा स्थापयिष्यन्ति, मांसवर्जनन्तिचन्द्री
स्थापयित्वा च भरते वर्षे सुर्खसुखेनाभिरममाणाः २-सुखेन क्रीडन्तो २ विहरिष्यन्ति-प्रवर्तिष्यन्त इति । अथव्यवस्था सया वृत्तिः भरतभूमिस्वरूपं पृच्छति-'तीसे ण'मित्यादि सर्व पूर्ववत् , ननु कृत्रिममण्यादिकरणं तदानीं तम्मनुजानामसम्भवि
१३९ शेषो
वत्सर्पिणीव॥१७६॥ शिल्पोपदेशकाचार्याभावाद्, उच्यते, द्वितीयारे पुरादिनिवेशराजनीतिव्यवस्थादिकृजातिस्मारकादिपुरुषविशेषद्वारा नम.
या क्षेत्राधिष्ठायकदेवप्रयोगेण वा कालानुभावजनितनैपुण्येन वा तस्य सुसम्भवत्वात् , कधमन्यथाऽत्रैव प्रन्थे प्रस्तुता-TRI रकमाश्रित्य पुष्करसंवतकादिपञ्चमहामेघवृष्टयनन्तरं वृक्षादिभिरौपध्यादिभिश्च भासुरायां सञ्जातायां भरतभूम्यां । तत्कालीनमनुजा बिलेभ्यो निर्गत्य मांसादिभक्षणनियममर्यादां विधास्यन्ति तल्लोपकं च पंक्तर्यहिः करिष्यन्तीत्यर्थाभिधायकं प्रागुकं सूत्रं सङ्गच्छत इति । अथ मनुजस्वरूपमाह-तीसे ण'मित्यादि, सर्व अवसर्पिणीदुष्पमारकमनुजस्वरूपवद् भावनीयं, नवरं न सिद्ध्यन्ति-सकलकर्मक्षयलक्षणां सिद्धिं न प्राप्नुवन्ति, चरणधर्मप्रवृत्त्यभावात् , अत्र भविष्यनिर्देशे प्राप्ते वर्तमाननिर्देशः पूर्वयुक्तितः समाधेयः। इत्युत्सपिण्यां द्वितीयारकः। 'तीसे णं समाए एकवीसाए ॥१७६॥ वास' इत्यादि, तस्यां समायां दुष्पमानाम्यां एकविंशत्या वर्षसहस्रः काले व्यतिक्रान्ते अनन्तैर्वर्णपर्यवैर्यावत्परिवर्द्ध-18 मानः २ अत्रावसरे दुष्पमसुषमानाम्ना समा काल उत्सप्पिणीतृतीयारका प्रतिपत्स्यते हे श्रमणेत्यादि प्राग्वत् , 'सीसे.
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आगम
(१८)
प्रत
सूत्रांक
|[३९-४०]
दीप
अनुक्रम
[५२-५३]
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति” – उपांगसूत्र- ७ (मूलं + वृत्तिः)
वक्षस्कार [२],
मूलं [३९-४०]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्तिः
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णमित्यादि, सर्व प्राग्यत्, अवसर्पिणीचतुर्थारकसदृशत्वमुत्सर्पिणीतृतीयारकस्येति तत्सादृश्यं प्रकटयन्नाह - 'तीसे णमित्यादि, प्रायः प्राग्व्याख्यातार्थं तीर्थङ्करास्त्रयोविंशतिः पद्मनाभादयः चतुर्विंशतितमस्य भद्रकृन्नान्नश्चतुर्थारके उत्पत्स्यमानत्वात्, एकादश चक्रवर्त्तिनो भरतादयो वीरचरित्रे तु दीर्घदन्तादयः द्वादशस्यारिष्ठनाम्नश्चतुर्धारके एव भावित्वात् नव बलदेवा जयन्तादयः, नव वासुदेवा नन्यादयः, यन्तु तिलकादयः प्रतिविष्णवो नेहोकास्तत्र पूर्वोक एव हेतुरवसातव्यः समुत्पत्स्यन्ते । गतस्तृतीयारक उत्सर्पिण्यामथ चतुर्थः- 'ती से ण'मित्यादि, तस्या समायां सागरो पमकोटाकोव्या द्विचत्वारिंशता वर्षसहस्रैरूनितया काले व्यतिक्रान्ते अनन्तैर्वर्णपर्यवैर्यावद्वर्द्धमानोऽत्र प्रस्तावे सुषम| दुष्पमानाना समा कालः उत्सर्पिणीचतुर्धारक लक्षणः प्रतिपत्स्यते, 'सा ण'मित्यादि 'सा' समा त्रिधा विभक्ष्यति - | विभागं प्राप्स्यति, प्रथमस्त्रिभागः मध्यमस्त्रिभागः पश्चिमस्त्रिभागश्चेति, तत्राद्यत्रिभागस्वरूपमाह - 'तीसे ण' मित्यादि, तस्यां समायां भदन्त ! प्रथमे त्रिभागे भरतस्य वर्षस्य कीदशक आकारभावप्रत्यवतारो भविष्यति ?, गौतम ! बहुसमरमणीयो यावद्भविष्यति यावत्करणात् पूर्णोऽपि भूमिवर्णकगमो ग्राह्यः मनुजप्रश्नमपि मनसिकृत्य भगवान् | स्वयमेवाह - 'मणुआण' मित्यादि, मनुजानां तत्कालीनानां या अवसर्पिण्यास्तृतीयारकस्य पश्चिमत्रिभागे वक्तव्यता सा अत्रापि भणितव्या, अत्रैवापवादसूत्रमाह- कीदृशी च सा वक्तव्यतेत्याह- कुलकरान् वर्जयतीति कुलकरवर्जा, 'वृजेण वर्जने' इत्यस्याचि प्रत्यये रूपसिद्धिः, एवं ऋषभस्वामिवर्जाः, अवसर्पिण्यां कुलकरसम्पाद्यानां दण्डनीत्यादी
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:)
वक्षस्कार [२], ----------------------- ----------------------- मूलं [३९-४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३९-४०]
दीप
श्रीजम्बू- नामिव ऋषभस्वामिसम्पाद्यानां चान्नपाकादिप्रक्रियाशिल्पकलोपदर्शनादीनामियोत्सर्पिण्यामपि द्वितीयारकभाविकुलक-13 वक्षस्कारे द्वीपशा-18
रप्रवर्तितानां तेषां तदानीमनुवर्तिष्यमाणत्वेन तत्प्रतिपादकपुरुषकथनप्रयोजनाभावात् यथा अवसर्पिणीतृतीयारक- न्तिचन्द्री
मांसवर्जनतृतीयभागे कुलकराणां स्वरूपं ऋषभस्वामिस्वरूपं च प्राक् प्ररूपितं तथा नात्र वक्तव्यमिति भावः, अथवा ऋषभ-व्यवस्था मू. या वृचिः
स्वामिवजेत्यत्र ऋषभस्वामिअभिलापवर्जेति तात्पर्य, तेन ऋषभस्वाम्यभिलापं वर्जयित्वा भद्रकृतीर्थकृतोऽभिलापः कार्यशा ॥१७७॥ इत्यागत, उत्सर्पिणीचरमतीर्थकरस्य प्रायोऽवसर्पिणीप्रथमतीर्धकृत्समानशीलत्वात् , अन्यथोत्सर्पिणीचतुर्विंशतित-RAMAY
शत्सर्पिणीवमतीर्थकृतः क सम्भवः स्यादिति संशयादयोऽपि स्यात्, कलाद्युपदर्शनस्य तु अर्थादेव निषेधप्राप्ते तद्विपयकोऽभिलाप एवं नास्तीति, अत्र कुलकरविषयकं वाचनाभेदमाह-'अण्णे पठंति'त्ति, अन्ये आचार्याः पठन्ति-तस्याः समायाः | प्रथमे त्रिभागे इमे-वक्ष्यमाणाः पञ्चदश कुलकराः समुत्पत्स्यन्ते, तद्यथा-पुमतिर्यावत् ऋषभः,क्वचित्समुई इति पाठस्तत्र
सम्मतिः, उकारस्तु 'स्वराणां स्वरा' (श्रीसिद्ध०८-४-सू०.२३८) इत्यनेन सूत्रेण प्राकृतशैलीप्रभवः, यद्वा समुचिरिति, | यावच्छब्दात्पूर्वोक्ताः प्रतिश्रुतिप्रमुखा एव ग्राह्याः, वाचनान्तरानुसारेण यत्कुलकरसम्भवो निरूपितस्तव्यतिरिक्त शेषं | पञ्च २ पुरुषपर्वसम्पाद्यमाननवरदंडनीत्यादिकं तदेव पूर्वोक्तमेवावसेयं, अत्रैव दण्डनीतिक्रमविशेषस्वरूपमाह-॥8॥१७७।। दण्डनीतयः कुलकरसम्पाद्या हाकारादयः प्रतिलोमाः-पश्चानुपूा जाता नेतव्याः-पापणीयाः बुद्धिपथमिति शेषः, प्रथमपञ्चकस्य धिक्कारादयः उत्कृष्टमध्यमजघन्यापराधिनां यथाई तिनः द्वितीयपञ्चकस्य कालानुभावनोत्कृष्टापराध
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], -----------------------
------- मूलं [३९-४० पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [३९-४०]
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दीप
विधुराणां मध्यमजघन्यापराधयोर्माकारहाकाररूपे द्वे तृतीयपञ्चकस्य पूर्षापराधद्वयविधुराणां जघन्येऽपराधे हाकारलक्षणा प्रथमेति, अत्र दण्डनीतय इत्युपलक्षणं तेन शरीरायुष्कप्रमाणादिकमपि यथासम्भवं प्रतिलोमतया ज्ञेयमिति, वाचनान्तरसूत्रस्यायं भावः-अत्र व्यवच्छिन्ने राजधर्म कालानुभावन प्रतनु २ कपायाः शास्तारो नोग्रस्तेजस्कं दण्डं| करिष्यन्ति नापि शासनीयास्तदुचितमपराधं करिष्यन्ति ततोऽरिष्ठनामकचक्रवर्तिसन्तानीयाः पञ्चदश कुलकराः। भविष्यन्ति शेषाश्च तत्कृतमर्यादापालकाः क्रमेण च सर्वेऽप्यहमिन्द्रनरत्वं प्रपत्स्यन्ते, अत्र च ऋषभनामा कुलकरो, न तु ऋषभस्वामिनामा तीर्थकृत्, तत्स्थानीयस्य भद्रकृतस्तीर्थकृतः प्रस्तुतारकस्यैकोननवती पक्षेष्वतिक्रान्तेषु उत्पस्थमानत्वेनागमेऽभिहितत्वादिति, फिश्च स्थानाङ्गसप्तमे स्थानके सप्त कुलकरा उक्तास्तत्र सुमतिनामापि नोक्तं, दश-16 मे तु सीमङ्करादयो दशोक्तास्तत्र सुमतिनामोक्तं, परं प्रान्ते न, समवाया) तु सप्त तथैव, दश तु विमलवाहनादयः सुमतिपर्यन्ता उक्ताः, स्थानानवमस्थानके च सुमतिपुत्रत्वेन पद्मनाभोत्पत्तिरुक्ता तथा प्रस्तुतग्रन्थे द्वितीयारके कुलकरा मूलत एव नोक्ताश्चतुर्थारके तु मतान्तरेण सुमत्यादयः पञ्चदशोक्तास्तेन कुलकरानाधित्य भिन्न २ नामता-1 व्यस्तनामतान्यूनाधिकनामतारूपसूत्रपाठदर्शनेन व्यामोहो न कार्यो, वाचनाभेदजनितत्वात् तस्य, भवति हि वाचनाभेदे पाठभेदस्तत्त्वं तु केवलिगम्यमिति । अथात्रैव त्रिभागे किं किं व्युच्छेदं यास्यतीति दर्शयन्नाह-'तीसे ण'मित्यादि, तस्यां समायां प्रथमे त्रिभागे राजधर्मों यावद्धर्मचरणं च व्युच्छेत्स्यति, यावत्करणात् गणधर्मः पाख
अनुक्रम [५२-५३]
melem
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [२], -----------------------
------- मूलं [३९-४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
प्रत
श्रीजम्बूद्वीपशा- न्तिचन्द्री-
सूत्रांक
या वृतिः
[३९-४०]
॥१७॥
दीप
ण्डधोऽग्निधर्मश्चेति, अथ शेषद्विभागवक्तव्यतामाह-'तीसे णमित्यादि, तस्याः समाया मध्यमपश्चिमयोनिभागयो- वक्षस्कारे र्या, प्रथममध्यमयोरित्यत्र यथासम्भवमर्थयोजनाया औचित्येन मध्यमप्रथमयोरित्यवसेयं, अन्यथा शुद्धप्रतिलोम्याभा-18 मांसवर्जनवादानुपपत्तिः स्यादिति, अवसर्पिण्या वक्तव्यता सा भणितव्या, गतश्चतुर्थारक इति, अथ पञ्चमषष्ठावतिदेशेनाह-व्यवस्था सू. |'सुसमा' इत्यादि, सुषमा-पञ्चमसमालक्षणः कालस्तथैव-अवसप्पिणीद्वितीयारकवदिति, सुषमसुषमा-पष्ठारकः सोऽपि ॥९
त्सर्पिणीवतथैव-अवसर्पिणीप्रथमारकसदृश इत्यर्थः, कियत्पर्यन्तमत्र ज्ञेयमित्याह-यावत्पडूविधा मनुष्या अनुसत्यन्ति-संतत्या
अनुवर्तिप्यन्ति यावच्छनैश्चारिणः यावत्पदात् पद्मगन्धादयः पूर्वोक्ता एवं ग्राह्याः । गतौ पश्चमपष्ठी, तगमने || |चोत्सर्पिणी गता, तस्यां च गतायामवसर्पिण्युत्सर्पिणीरूपं कालचक्रमपि गतम् । इति सातिशयधर्मदेशनारससमुल्लासविस्मयमानऐदयुगीननराधिपतिचक्रवर्तिसमानश्रीअकब्बरसुरत्राणप्रदत्तपाण्मासिकसर्वजन्तुजाताभयदानशत्रुक्षयादिकरमोचनस्फुरन्मानप्रदानप्रभृतिबहुमानयु. गप्रधानोपमानसाम्प्रतविजयमानश्रीमत्तपागच्छाधिराजश्रीहीरविजयसूरीश्वरपदपद्मोपासनाप्रवणमहोपाध्यायश्रीसकलचन्द्रगणिशिष्योपाध्यायश्रीशान्तिचन्द्रगणिविरचितायां
॥१७८॥ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिवृत्ती प्रमेयरत्नमञ्जूषानाभ्यां भरतक्षेत्रखरूपवर्णनप्रस्तावनागताव
सपिण्युत्सर्पिणीद्वयरूपकालचक्रवर्णनो नाम द्वितीयो वक्षस्कारः॥
अनुक्रम [५२-५३]
अत्र दवितिय-वक्षस्कार: परिसमाप्त:
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आगम (१८)
“जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" - उपांगसूत्र-७ (मूलं+वृत्ति:) वक्षस्कार [-], ------------------------
----------- मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[१८]उपांगसूत्र-[७] "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" मूलं एवं शांतिचन्द्र विहिता वृत्ति:
9 श्रीमच्छान्तिचन्द्रविहितवृत्तियुतं श्रीमजम्बूदीपप्रज्ञप्तिनामकमुपागम् ।
श्रेष्ठि देवचन्द्र लालभाइ जैनपुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्कः ५४
इयं मूल संपादने मुद्रितं अन्तिम-पृष्ठं वर्तते
भाग
23
जंबूद्वीप-उवंगसूत्र [७/१] मूलं एवं मलयगिरिसूरिजी रचिता टीका परिसमाप्ता:
मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि) ।
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भाग
कलपृष्ठ
३१४
५८६
४९८
३९२
५९४
४९४
३३८
५९२
५५२
सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा?
इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम 01 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति भाग-१ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन-१,२ 02 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- ३ से ९, श्रुतस्कन्ध-२ 03 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- १ से १३ 04 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन १४ से १६, श्रुतस्कन्ध-२ 05 | आगम ०३ स्थान मुलं एवं वत्ति, भाग-१ स्थान- १ से ४ 06 | आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ स्थान- ५ से १० संपूर्ण 07 | आगम ०४ समवाय मूलं एवं वृत्ति. 08 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ शतक-१ से ६ 09 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ शतक-७ से ११ 10 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ शतक- १२ से २० 11 | | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ शतक- २१ से ४१ संपूर्ण 12 | आगम ०६ ज्ञाताधर्मकथा मूलं एवं वृत्ति. 13 | आगम-७,८,९,१०उपासकदशा, अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण मूलं एवं वृत्ति. 14 | आगम-११,१२, विपाक, उववाई मूलं एवं वृत्ति. 15 | आगम १३ राजप्रश्नीय मूलं एवं वृत्ति. 16 | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत] सूत्र-१ से १३८ 17 | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत सूत्र- १३९ से प्रतिपत्ती-१० संपूर्ण 18 | | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. पद-१ से ५ 19 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-२ मलं एवं वृत्ति. पद-६ से २२ 20 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-३ मुलं एवं वत्ति. पद- २३ से ३६ संपूर्ण 21 | आगम १६ सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति.
५१४ ३८४
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३८४
३१४ ४८०
४८८ ૪૨૬ ५१४ ३३६ ६१०
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कुलपृष्ठ ६१४ ३७६
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26
३१२
३३०
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सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? भाग
इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम आगम १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- १ एवं २. | आगमा८ जंबूदविपप्रज्ञप्ति भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ३ एवं ४. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ५ से ७. आगम १९-३२ निरयावलिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पृष्पचूलिका, वृष्णिदशा, चतुःशरण, आतुरपरत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान,
भक्तपरिज्ञा, तंदलवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविदया, देवेन्द्रस्तव मलं एवं छाया 27 | आगम ३३ थी ३९ मरणसमाधि मूलं एवं छाया, निशीथ, ब्रहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध, जीतकल्प/पंचकल्प, महानिशीथ मूलं एव 28 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, नियुक्ति-१ से ५२१ 29 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, नियुक्ति- ५२२ से ९५१
आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ नियुक्ति- ९५२ से १२७३ अपूर्ण, [अध्ययन- १ से ४ अपूर्ण] आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-५ नियुक्ति- १२७३ अपूर्ण से १६२३, [अध्ययन-४ अपूर्ण से ६ संपूर्ण) | आगम ४१/१ ओघनियुक्ति मूल एवं वृत्ति.
आगम ४१/२ पिंडनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. | आगम ४२ दशवैकालिक मूलं एवं वृत्ति. 35 आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, अध्ययन- १ से ५ 36 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूल एवं वृत्ति, भाग-२, अध्ययन- ६ से २१ 37 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-३, अध्ययन- २२ से ३६
| आगम ४४ नन्दिसूत्र मूलं एवं वृत्ति. 39 | | आगम ४५ अनुयोगद्वार मूलं एवं वृत्ति. 40 | कल्प[बारसा]सूत्र... चतुःशरण, तन्दुलवैचारिक, गच्छाचार मूलं एवं वृत्ति.
४६४
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४८२
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38 |
५२८
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३९४
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नमो नमो निम्मलदंसणस्स
पूज्य आनंद-क्षमा-ललित - सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः
आगम [18/1]
पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधितः संपादितश्च “जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति (उपांगसूत्र- ७ /१)” [मूलं एवं शांतिचंद्र विहिता वृत्तिः]
(किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह )
मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलितः “जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति" मूलं एवं वृत्तिः” नामेण परिसमाप्तः
“सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि” श्रेणि, भाग-23
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ਉਸ ਨੂੰ ਕਾਲ ਕਰ ਸ
ਲ
ਵ
ੜ
ਨੂੰ ਗੁਰ
ਕਾ
ਸਬਦੁ
ਨ
ਹਰ
ਹਰ
आगम
वाचना शताब्दी वर्ष
ਇਸ
ਲਈ ਸਰਕਾਰ ਦੌਰਾਨ ਹਰ ਦਸ ਤਕ ਇਸ ਨਾਲ ਕਿਸ ਨੇ
ਤੇ ਕੰਮ ਕਰ
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नमो नमो निम्मलदसणस्स
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
मूल संशोधक
अभिनव-संकलनकर्ता
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Gir
S
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज
आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
प्रत-प्राप्ति और पेज-सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका
मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 982559885519825306275
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ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
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श्री आगम मंदिर
पालिताणा
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SHIKARSHADANGANATRAPालागस्यालयका
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________________ आप आजम आजम आगम आजमा मूल संशोधक - पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आगम आगम आगम आगम आगम आगम आगम 18 "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति” मूलं एवं वृत्ति: [1] आजमा आजम् अभिनव-संकलनकर्ता आजमा आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आजम आगम आगम आजम आजम आजम आजम ~376~