Book Title: Kasaypahudam Part 10
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Mantri Sahitya Vibhag Mathura
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा० दि० जैनसंघग्रन्थमालायाः प्रथमपुष्पस्य दशमोदलः श्रीयतिवृषभाचार्यरचित चूर्णिसूत्रसमन्त्रितम् श्रीभगवद्गुणभद्राचार्यप्रणीतम् वि० सं० २०२४ ] कसाय पाहुडं पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, सिद्धान्ताचार्य श्रीवीरसेनाचार्यविरचिता जयधवला टीका [ सप्तमोऽधिकारः वेदक अनुयोगद्वारम् ] सम्पादक महावन्ध सहसम्पादक धवला तयोश्च सम्पादकी पं. कैलाशचन्द्र सिद्धान्तरत्न, सिद्धान्ताचार्य, सिद्धान्तशास्त्री, न्यायतीर्थं प्रधानाचार्य स्याद्वाद महाविद्यालय काशी प्रकाशक मंत्री साहित्य विभाग मा० दि० जैन संघ, चौरासी मधुरा वीरनिर्वाणाब्द २४९३ मूल्यं रूप्यकद्वादशकम् [ ई० सं० १९६७ संशोधित मूल्य ३० ४०) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 प्रकाशककी ओरसे कसा पाहुडे (श्री जयधवल जी ) का अर्पित करते हुए हमें प्रसन्नता हो रही है । के बाद हो रहा है। नौवाँ भाग चार वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ था । आचार्य श्री सुविधिसासर जी वा इस समय देशमें घोषणवहंगाई होस बधाईयादिके व्यय में भी वृद्धि हुई है और इस तरह लागत व्यय पहले से ज्योढ़ा हो गया है। फिर भी मूल्य पुराना ही रखा गया है। ऐसे महान ग्रन्थ बार-बार नहीं छपते । अतः मन्दिरों के शास्त्र भण्डारोंमें इन ग्रन्थराजोंकी एक-एक प्रति सर्वत्र विराजमान अवश्य करना चाहिये । दसवाँ भाग पाठकों के कर-कमलों में यद्यपि इस भागका प्रकाशन चार बर्ष -- यह ऐसा ग्रन्थ है जिसका जिनवाणी से एक तरहसे साक्षात् सम्बन्ध है | पं० आशाधर जीने कहा है ये यजन्ते श्रुतं भक्त्या ते यजन्तेऽब्जसा जिनम् । न किचिदन्तरं प्राहुराप्ता हि श्रुतदेवयोः || जयधवला कार्यालय भदैनी, वाराणसी बी० नि० सं० २४१३ जो शास्त्रकी पुजन करते हैं वे वस्तुतः जिनदेवकी ही पूजन करते हैं । क्योंकि सर्वज्ञदेवने जिनवाणी में और जिनदेवमें कुछ भी अन्तर नहीं कहा है । ग्रतः जिन मन्दिरों और जिन मूर्तियों के निर्माण में द्रव्य व्यय करने के इच्छुक दानी जनोंको जिनवाणीके उद्घारमें भी अपना धन लगाकर सुकीर्ति के साथ सम्यज्ञानके प्रसारमें हाथ बटाना चाहिये । अब इस ग्रन्थके केवल चार भाग शेष हैं। यदि उदार धनिक एक-एक भाग अपनी ओरसे प्रकाशित करा दें तो यह महान कार्य जल्द पूर्ण हो सकता है । अन्तमें हम इस कार्य में सहयोग देनेवाले सभी सज्जनोंका प्राभार मानते हैं । कैलाशचन्द्र शास्त्री मंत्री साहित्य विभाग भा० दि० जैन संघ चौरासी, मथुरा Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक विषयापासवपसागर जी महाराज अनादिकालसे जैन परम्परामें जो भी मङ्गल कार्य किया जाता है उसके मंगलाचरण पूर्वक करनेका प्रधात है। टीकाकार आचार्य ने अपने इष्ट मंगलकार्यको सिद्धिके अभिप्रायवश वेदक महाधिकारके आदिमें सर्व प्रथम सिद्धोंको भाव-द्रव्य नमस्कार किया है । जैसा कि इस अर्थाधिकारके नामसे स्पष्ट है इसमें यह मंमारी जीव मोहनीय कर्म और उसके अवान्तर भेदोंका कहां कितने काल तक सान्तर या निरन्तर किस रूपमें वेदन करता है आदि विषयका स्पष्ट निर्देश किया गया है। इसके मुख्य अधिकार दो हैं--उदय और उदोरणा . यहाँ कषायप्राभूतक पन्द्रह अधिकारोंमेरो इसे छटा अधिकार कहा गया है। इस ग्रन्धके प्रारम्भमें आचार्यचर्य वीरसेनने इन अधिकारोंका विचार तीन प्रकार किया है । उसके अनुसार एक दृष्टिसे यह सातवां अधिकार भी ठहरता है। हमने उन दृष्टिकी मुख्यतासे इसे सातवाँ अधिकार गुचित किया है। इसके लिए इस ग्रन्थकी प्रथम पुरतवा पर दृष्टिपात कीजिए। यों तो उदीरणा उदयविशेषका ही दूसरा नाम है। किन्तु उन दोनोंमें अन्तर यह है कि कोका जो वयाकाल फलविपाक होता है उनकी उदय संज्ञा है और जिन कार्मीका उदयकाल प्राप्त नहीं हुआ उनको उमाच विशेवरो पचाना उदीरा कहलाती है, इश महाधिकारको आचार्य नर्य गुणधरने चार सूत्र गाथाओं में निबद्ध किया है। उनमेंसे प्रथम मूष गाथा कदि श्रावलियं पवेसेइ इत्यादि है। इसका विरेचन यहाँ दो प्रकारसे किया गया है। इसको प्रथम व्यापामें बतलाया है कि इस द्वारा प्रकृति उदीरणा, प्रकृति उदय और उसकी कारणभूत बाह्य सामग्रीका निर्देपा किया गया है । यहाँ बतलाया है कि इसके प्रथम पाद द्वारा उदीरणा सूचित की गई है, टूसरे पाद द्वारा विस्तार सहित उदय सूचित किया गया है। उक्त गाथाके दूसरे पादद्वारा क्या सूचित किया गया है इसका प्रकारान्तरसे निर्देश करते हुए वहाँ बतलाया है कि अथवा उदयावलिके भीतर प्रविष्ट हुई. उदय प्रकृतियों और अनुदय प्रकृतियोंको ग्रहण कर प्रवेश संज्ञावाला अर्थाधिकार इस सुत्रवचन द्वारा सूचित किया गया है। यहां यह शंका होनेपर कि पहले जब कि वेदना महाधिकारमें उदय और उदीरणा ये दो अधिकार ही सूचित किये गये है ऐसी अवस्थामें उक्त पाद द्वारा तीसरे अधिकारका सूजन हुआ है यह कहना उपयुक्त नहीं है, समाधान करते हुए बतलाया है कि किसी भी प्रकारसे इस प्रदेश संज्ञावाले अधिकारका उदयके भीतर ही अन्तर्भाव हो जाता है, इसलिए कोई दोष नहीं है। इसप्रकार गायाके पूर्वार्धवा स्पष्टीकरण करने के बाद उसके उत्तरार्चका स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया है कि क्षेत्र, भन्न, काल और पुद्गलोंको निमित्तकर कोंका उदब और उदीरणारूप फलबिपाक होता है । यहाँ क्षेत्र पसे नरकादि गतियोंका क्षेत्र लिया गया है, मनपदसे एकेन्द्रिय आदि पर्यायोंको ग्रहण किया गया है, काल पदसे शिषिर, वसन्त, नीम और बर्षाकाल आदिका ग्रहण हुआ है तथा पुद्गल पसे गन्ध, वाम्बूल, वस्त्र, आभरण आदि पुद्गलौका ग्रहण हुआ है । प्रकृति उदीरणाके समग्र विवेचन के बाद प्रवृति उदयका संकेत करते हुए उक्त गाथानो उत्तरार्धका आलम्बन लेकर चूणिसूत्र और उसकी टीकामें पुन: इसका विचार किया गया है। यहाँ उदयकी व्याख्या करनेके बाद लिखा है कि कोका वह उदव क्षेत्र, भव, काल और पुद्गलोको निमित्तकर होता है । टीकाके शब्द है-खेत्त-भव-काल-पोमाले मस्सिऊण जो द्विदिक्खयो उदिएणफलकम्मक्खंधपरिसडणलक्खणो सोदयो त्ति सुत्तस्थावलंबणादो। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस विवेचनसे स्पष्ट है कि कर्मशास्त्र में कर्मोदय और कर्म उदीरणामें नरकगति आदिके योग्य क्षेत्र, एकेन्द्रियादि भव, शिपिर आदि काल और पुद्गलांके परिणामरूप गृह, वस्त्र, भोजन, धन आदि बाह्य खामग्नीको हाह्य निर्मितरपमें स्वीकार किया गया है। श्रीगोम्मटसार कर्मकाण्ड कर्मशास्त्रका प्रमुख ग्रन्थ है । इसके प्रथम अधिकारमें नामादि चार निक्षेपों द्वारा वर्म पदका व्याख्यान करते हुए द्रव्यनिक्षेपके दूसरे भेद नोआगमयतम के निरूपण के प्रसंगसे जरायो तीन भेद किये गये है-ज्ञायकदारीर, भावि और तद्वय. लिरिक्त। इनमें से ज्ञायझदारीरका एक भेद च्यावित है । इसकी व्यारुपा करते हुए वहाँ पर बसलाया है कि जो मर ग विषवेदन, रक्तक्षय, भय, शस्त्र प्रहार और संक्लेशवश तथा छ्वासोच्छ्वासके निरोधसे होता है उसकी च्यावित संज्ञा है । स्पष्ट है कि यहाँपर शरीरके त्यागपूर्वक भरणमें तुद्धिपूर्वक या अबुद्धिपूर्वक बाह्य संयोगको मुख्वतारो यह संज्ञा रखी गई है। यहाँ बाय संमोग बाध निमित्त है और उसको निमित्तकर शरोरके त्यागपूर्वक भरण होना नैमित्तिक कार्य है। इस अपेक्षाखे इग़की च्यावित संज्ञा रखी गई है। गत शरीरसे च्यावित शरीरका भेद दिखलाना ही इसका मुख्य प्रयोजन है। इस प्रकार इस कथन में बाह्य सामग्रीको जहाँ व्यवहार हेतुरूपसे स्वीकार किया गया है वहाँ स्वत शरीरको विवेचन के प्रमंगरो भी उसके प्रथम भेद इंगिनीमरणमें गी स्व-परोपचाररूप बाह्य निमित्तको स्वीकार किया गया है। समागिरगा का इंगिनीभरण एक भेद है यह बुद्धि पूर्वक उपचारको निमित्तार होता है यह इसका तात्पर्य है। मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज इस प्रकार गोम्मटसार कर्मकाण्डके इस विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि किस अवस्थामें वर्तमान आयुकी उदीरणा किस बाह्य सामग्रीको निमित्तकर होती है । किसी भी वर्मके उदयका कोई न कोई बाय निमित्त अवश्य होता है ऐसा कर्मशास्त्रका अभिप्राय है और इसी लिए सदयतिरिक्त नोभागम द्रभ्यनिक्षेपके द्वितीय भेद नोकर्मका निरूपण करते हुए इसी गोम्मटमार कर्मकाण्ड में प्रत्येक मल व उत्तर प्रवृतियों के नोकर्म ( बाध निमित्त) का पृथक पृथक् विचार किया गया है। पहीं बतलाया है कि-- इष्ट अन्न-पानादि सातवेदनीयके नोकर्म ( सातादीयक उदयमें वाह्य निमित्त हैं और अनिष्ट अन्न-पानादि असातावेदनीयके नोकर्म है (१-७३)। छह आयतन सम्बक्स्य प्रकृति के नोकर्म है अर्थात् सम्यक्त्व प्रकृति के उदयमें बाध निमित्त है, छह अनायतन मिथ्यात्व प्रतिके नोलाम हैं तथा दोनों सम्यमिथ्यात प्रऋतिके नोकर्म हैं (१-७४)। मिथ्या आयतन अर्थात् फुदेवादिक अनन्चा नुवन्धी चनुक के नोकर्म है, शेष कषात्रों के अपने अपने योग्य मिथ्या शास्त्र आदि नोकर्म हैं (१-७५)। स्त्री शरीर आदि स्त्रीवेद आदिके नोकर्म है, विदूषक आदि हास्य कर्म के नोकर्म है, सुपुत्र आदि रतिकर्मक नोवाम हैं (१-७६)। इष्टवियोग और अनिष्ट मंयोग आदि अरवि कर्मके नोनाम हैं, मूल सुपुत्र आदि शोक कर्मके नोकर्म है तथा सिंहादि और अत्रि आदि द्रव्य भययुगलने वापसे नोकर्म हैं ( १-319) आदि । यहाँ पर हमने कुछ ही वो उदा गौर उदीरणाका वाह्य गिमित्त क्या है हमका उल्लेख किया है । कर्मकाण्डमें तो इसका सभी कर्मोकी अपेक्षा विस्तारसे विचार विया गया है, जो कपायाभृत के उक्त कृधनके अनुरूप है। हमें विश्वास है कि आगमके अभ्याली ग़भी धर्मबन्धु इस विषयमें अपना वार्मशास्त्र के अनुकुल दृष्टिकोण बनाते समय इन तथ्यको ध्यान में रखेंगे। हम यह अच्छी तरह से जानते हैं कि चरणानुयोग और प्रथमानुयोगमें बाह्य सामग्नीका प्रायः पुण्यपापके फलरूपमें निर्देश दृष्टिगोचर होता है, किन्तु उन अनुपोगोंमें वाह्य साधनका फलरूपसे प्रतिपादन करना ही इसका मुख्य कारण है। ये बाह्य साधन कहीं विस्रना मिलते हैं और कहीं इनके मिलनेमें जीवका योग और विकल्प निमित्त होता है । ___ यह 'कदि श्रावलियं पवेसेइ' इत्यादि गाथाको प्रथम श्याख्या है। इसकी दूसरे प्रकारले व्याख्या करते हुए वहाँ बतलाया है कि इसके प्रथा पाद द्वारा उदीरणाकी, द्वितीय पाद द्वारा प्रकृति प्रवेशकी Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 4 ) और गाथाके उत्तरार्थं द्वारा मकारण कर्मोदयकी सूचना की गई है-पदम्मि गाह्रापच्छद्धे कम्मोदयो सकारण पद्धित्ति घेन्वो । वेदक अनुयोगद्वारकी दूसरी सूत्रगाधा है' को कमाए हिंदी इत्यादि । इसके पूर्वार्ध द्वारा स्थिति उदीरणा, अनुभाग उदीरणा और प्रदेश उदीरणाकी सुचना की गई है। तथा इसी द्वारा स्थिति, अनुभाग और प्रदेशों का प्रवेश सूचित किया है, क्योंकि देशमभाव से इस सूत्र की प्रवृत्ति हुई है। तथा इसके उत्तरार्थं द्वारा मोहनीय कर्मके सभी प्रकार के उदय और उदीरणाके सान्तरकाल और निरन्तर काल तथा नाना जीव और एक जीव विषयक काल और अन्वरकी सुचना की गई है। गायामें दो बार 'वा' पदका प्रयोग हुआ है, अब दूसरे 'वा' पद द्वारा गाथामें नहीं कहे गये समुत्कीर्तना आदि समस्त अनुयोगद्वारों की सूचना की गई है । वेदक अनुयोगद्वार की तीसरी गाथा है 'बहुगदरं बहुगदरं से' इत्यादि । इस द्वारा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशविपयक भुजगार अनुयोगद्वार का विस्तार के साथ निरूपण किया गया है । पदनिक्षेप और वृद्धि अनुयोगद्वारोंका इसी में अन्तर्भाव हो जाता है । मार्गदर्शकोरक अनुक्षेोक्षानी सुकी जाएं कमेदि य' इत्यादि । इस द्वारा मोहनीय कर्मके जघन्य और उत्कृष्ट रूप प्रकृति, स्थिति, अनुभाव और प्रदेशविषयक बन्ध, संक्रम लक्ष्य, उदीरणा और सत्कर्मके अल्पबहुत्वकी सूचना की गई है। इस प्रकार उक्त चारों गाथाओं का वादार्य पष्ट करनेके बाद सर्व प्रथम प्रकृति उदीरणाका विवेचन विस्तारसे किया गया है । प्रकृतिउदीरणा प्रकृति उदीरणा दो प्रकारकी है-मूल प्रकृति उदीरणा और उत्तर प्रकृतिउदीरणा । उत्तर प्रकृतिउदोरणा भी दो प्रकारकी है-एक उत्तर प्रकृतिउदीरणा और प्रकृतिस्थान उदीरणा | · यहाँ पर शंकाकारका कहना है कि वेदक अनुयोगद्वारके प्रथम गाथासूत्र के प्रथम पाद द्वारा प्रवृत्तिस्थान उदीरणाका ही संकेत किया गया है, इसलिए यहाँ पर उसीकी प्राण करना योग्य है, मूलप्रकृतिउदीरणा और एक उत्तर प्रकृतिउदीरणाकी प्ररूपणा करना योग्य नहीं है, क्योंकि गाथासूत्र द्वारा उनका सूचन नहीं हुआ है ? समाधान यह है कि देशामर्ष क्रभावसे उनका संग्रह कर लिया गया है, इसलिए जनका यहाँ विस्तारसे कथन करनेमें कोई दोष नहीं है । साधारणतः यहाँ गाथासूत्र के अनुसार प्रकृतिस्यान उदीरणा की प्ररूपणा सर्वप्रथम करनी चाहिए। किन्तु जब तक एकक प्रकृतिउदीरणाकी प्ररूपणा न की जात्र वत्र तक प्रकृतिस्थान उदीरणाको प्ररूपणा नहीं हो सकती, इसलिए वहाँ प्रकृतिस्थान उदीरणाकी प्ररूपणाको स्थगित करके सर्व प्रथम एक प्रकृतिउदीरणा की प्ररूपणा की गई है । वह दो प्रकारकी है— एकैक मूल प्रकृतिप्ररूपणा और एकैक उत्तर प्रकृतिप्ररूपणा । मूलप्रकृतिउदीरणा इस प्रकार इतने विवेचन द्वारा मोहनीयकर्म उदीरणाका प्रास्ताविक विवेचन करके आगे उच्चारणाका आलम्बन लेकर मूलप्रवृतिउदीरणा और एक उत्तर प्रकृतिउदीरणाका यथासम्भव अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर कथन किया गया है। उसमें भी सर्वप्रथम १७ अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर मूलप्रकृति उदीरणाका विवेचन किया गया है । वे १७ अनुयोगद्वार ये हैं- समुत्कातना, स्वामित्व, सादि, अनादि, Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्रुव, अध्रुव, एक जीवकी अपेक्षा काल, अन्तर, नाना जीवोनी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाय और अल्पच हुत्य । इस प्रकार इन अनुयोगद्वारोंका नाम निर्देश कर राई प्रथा उनके माधामसे मूलप्रकृति उदीरणाका विषेचन किया गया है। सुगम होनेरो यहाँ उनका विस्तारसे स्पष्टीकरण नहीं करेंगे । एकैकउत्तरप्रकृतिपदीरणा इसके बाद एवंक उत्तरप्रवृत्ति उदारणामा उल्लेख कर उच्चारणाके बलले २४ अनुयोगद्वारोंका आलम्बन लेकर उराका विचार किया गया है । १७ अनुयोगद्वार तो पूर्वोक्त ही हैं। इनमें सर्व, नोसर्व, उत्तृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य, अजघन्य और सन्निकर्ष इन ७ अनुयोगद्वारोंके मिलानेपर २४ अनुयोगद्वार हो जाते हैं। मोहनीयकी २८ प्रकृतियोंमेंसे प्रत्येक की उदारणाका विचार. एकक प्रकृतिउदीरणा अधिकार में विस्तार किया गया है । सुगम होनेसे इनका विचार भी हम यहां पर अलगमे नहीं कर रहे हैं । प्रकृतिकानउदीमार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज इस प्रकार इतना विवेचन करनेके वाद चुणिमुत्र और उच्चारणा दोनोंका आलम्बन लेकर प्रवृतिस्थानउदीरणाका विचार किया गया है। प्रकृतियांवो रथान अर्थात् प्रवृतिसमूहका नाम प्रकृतिस्थान है और उसकी उदीरणाको प्रवृतिस्थानउदीरणा कहते हैं । एक कालमें जितनी प्रवृतियोंकी अदीरणा एक जीवके सम्भव है उतनी प्रकृतियोंके ममुदायको प्रतिस्थान उदीरणा संज्ञा है यह उक्त कथाका तात्पर्य है। इसके १७ अनुयोगद्वार हैं-~समुल्कीर्तनाने लेकर अल्पबहुल तक । पाथ ही भुजगार, पदनिक्षेप और बृद्धि ये नीन अनुयोगद्वार और जानने चाहिए । मोहनीय वमकी उत्तर प्रकृतियों के उदीरणाम कुल प्रवेशस्थान ६ हैं—लोन प्रकृतिक स्थानको छोड़कर एक प्रकृतिक स्थानसे लेकर दस प्रवृतिका स्थान लक, क्योंकि तीन प्रवृत्तिक कोई उदीरणास्थान नहीं है । इनका यहां मांगोपांग विचार किया ही है। इन स्थानोभने प्रत्येक के कितने भंग हैं और कौन किस गुणस्थानमें होता है इसो विशेष विचारके लिए आचार्य यतिवृपभने तीन माघाएँ अपने चूर्णिसूत्राम उस्त की है । प्रश्नम गाथामें प्रत्येक स्थानके भंगोंको संख्या दी है तथा दूसरी और तीसरो गाथामें किस गुणस्थानमें कौन कौन और कितने उदीरणास्थान होते हैं इसका विवर दिया है। इसप्रकार इन गाथाओं द्वारा स्वामित्वका विचार कर तथा आगे एक जीकी अपेक्षा काल आदि शेष अनुयोगद्वारोंका निरूपणकर १७ अनुयोगद्वार समाम किये गये हैं। इसके बाद भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि इन अनुयोगद्वारोंका आलम्बन लेकर प्रकृतिस्थान उदीरणाका विचार किया गया है। इतने विचार के बाद इस अधिकारके सभाम होनेवो साथ प्रतुति उदीरणा का कथन समाप्त होता है। प्रकृतिप्रवेश ___ आगे प्रकृतिप्रवेश प्रकरणका अधिकार है जिसकी सूचना वेदक अनुयोगद्वारको प्रश्रम गाथाके दूसरे पादसे मिलती है। इस प्रकरणमें उदयावलिमें प्रवेश वारनेवालो उदय और अनुदयरूप प्रकृतिमात्रका ग्रहण किया गया है, इसीलिए इसका प्रकृतिप्रवेश यह नाम सार्थक है । इसके दो भेद हैं-मूल प्रवृतिप्रवेश और उत्तर प्रकृतिप्रवेश । उत्तर प्रकृतिप्रवेश दो प्रकारका है. पाकक उत्तर प्रकृतिप्रवेश और प्रकृतिस्थान प्रवेश। सुगम होनेसे यहाँ मूल प्रकृतिप्रवेश और एकैकडलर प्रकृतिप्रवेश अधिकारका व्याख्यान न कर मात्र प्रवृतिस्थानप्रवंश अधिकारका समुत्कीर्तना आदि १५ अयोगद्वारों तथा भुजगार, पदनिप और वृद्धि इन अधिकारों द्वारा निरूपण किया गया है। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) G २८ प्रकृतिक प्रवेशस्थान से लेकर १ प्रकृतिक प्रवेशस्थान तक कुल प्रशस्थानों की संख्या २० है । मध्यके १८, १७, १६, १५ और १४ प्रकृतिक ५ प्रवेशस्थान, ११ प्रकृतिक १ प्रवेशस्थान प्रकृतिक १ प्रवेशस्थान तथा ५ प्रकृतिक १ प्रवेशस्थान कुल प्रवेशस्थान नहीं हैं। इनमें से कौन प्रवेशस्थान किस प्रकार घटित होता है और प्रत्येक प्रवेशस्थानमें किन प्रकृतियोंका ग्रहण हुआ है इसका अधिकारी भेदके कथनपूर्वक सांगोपांग विचार किया गया है। आगे इसी क्रमसे शेष अनुयोगद्वारों तथा भुजगार आदिका विचार कर यह अधिकार समाप्त होता है । मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसांगर जी महाराज प्रकृति उदय यह तो हम पहले ही सूचित कर आये हैं कि वेदक अनुयोगद्वारको प्रथम गाथा के उत्तरार्धद्वारा सारण प्रकृति उदयकी सूचना की गई है, इसलिए प्रकृतिप्रवेश अधिकारको प्ररूपणा के बाद प्रकृति उदय अधिकारका कथन अवसर प्राप्त है, क्योंकि मोहनीय कर्मका उदय चार प्रकारका है— प्रकृति उदय स्थिति उदय, अनुभाग उदय और प्रदेश उदय | अतएव प्रकरणानुसार यहाँ सर्वप्रथम प्रकृति उदयका कथन करना चाहिए, किन्तु उदीरणासे ही उदयका ग्रहण हो जाता है, क्योंकि किंचित् विशेषता को छोड़कर उदीरणासे उदय सर्वथा भिन्न नहीं है। इसलिए यहाँ उदयका नुत्रकारने अलगसे स्थान नहीं किया है । स्थिति उदीरणा अब वेदक अनुयोगद्वारकी दूसरी गाथाके प्रथम पादद्वारा सूचित स्थितिउदीरणाका कथन अवसर प्राप्त है। स्थितिउदीरणा दो प्रकारकी है— मूल प्रकृति स्थितिउदीरणा और उत्तर प्रकृति स्थिति उदीरणः । प्रमाणानुगम आदि कुल अनुयोगद्वार २४ हैं । उनमें से मूल प्रकृति स्थितिउदीरणा का सन्निकर्ष के सिवाय २३ अनुयोगद्वारोंके द्वारा और उत्तर प्रकृति स्थितिउदीरणाका सन्निकर्ष सहित २४ अनुयोगद्वारोंके द्वारा कथन हुआ है। इसके शिवाय भुजगार, पदनिक्षेप वृद्धि और स्थान ये चार अधिकार और हैं। इन द्वारा भी दोनों प्रकारकी स्थितिउदीरणाओंका विचार किया गया है । वने विचारके बाद अन्त में संक्षेप स्थानको प्ररूपणा करके स्थितिउदीरणाका प्रकरण समाप्त किया गया है । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय मंगलाचरण वेद अनुयोगद्वारके दो उत्तर भेदाको सूचना उदयका लक्षण विषय-सूची उदीरणाका लक्षण उदय और उदीरणा दोनोंकी वेदक संज्ञा होनेका खुलासा इस विषय में चार सूत्र गाथाओं की सूचना प्रथम सूत्रगाथा और उसका खुलासा पृष्ठ १ २ શ્ २ ४ ४ ६१ २ ११ र १२ ३ દુર્ प्रथम सूत्र गाथा के प्रथम पावसे प्रवृतिउदीरणायोर्गदर्शन्तरवार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज सूचना मिलती है इसका निर्देश ३ नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविषय दूसरे पाद प्रकृतिउदय और प्रकृतिप्रवेशकी सूचना मिलती है इसका निर्देश क्षेत्र, भव, काल और गद्क ये कर्मोदय और करण के निमित्त हैं इसका उक्त गाया के उत्तरार्ध द्वारा निर्देश कुछ परिवर्तन पूर्वक उक्त गाथाके उक्त अर्थका खुलासा द्वितीय सूत्र गाथा के पूर्वार्धं द्वारा स्थिति, अनुभाग और प्रदेशकी सूचना तथा उत्तरार्ध द्वारा कालादि अनुयोगद्वारों की सूचना ६ तृतीय सूत्र गाथा द्वारा भुजगार अनुयोगद्वार और उसके कालादि उत्तर अनुयोगद्वारोंकी सूचना चतुर्थ सूत्र गाया द्वारा बन्ध, संक्रम, उदय, उदीरणा और सत्य इनकी तथा इनके अल्पबहुत्वकी सूचना प्रथम गाथा किस अर्थ में निबद्ध है इसका चूर्णि सूत्रों द्वारा खुलासा प्रवृतिउदीरणाके दो और उन्हें स्थगित करनेकी सूचना ऐकैक प्रकृति उदीरणा के दो भेद और उनके नीम अनुयोगद्वारों की सूचना उदीरणाने चार भेदोकी सूचना ५. ६ ७ ८ विषय प्रकृति उदोरणाके दो भेदोंकी तथा उसके १७ अनुयोगद्वारोंकी सूचना १ मूलप्रकृतिउदीरणा & 多 समुत्कीर्तनानुगम सादि आदि ४ अनुयोगद्वार स्वामित्वानुगम कालानुगम भागाभागानुगन परिमाणानुगम क्षेत्रानुगम स्पर्शनानुगम कालानुगम अन्तरानुगम भावानुगम अल्पबहुत्वानुगम उत्कृष्टानुत्कृष्ट उदीरणानुगम जघन्याजधन्य उदीरणानुगम सादि आदि ४ अनुयोगद्वार स्वामित्वानुगम कालानुपम १० अन्तरानुगम ११ रात्रिकर्मानुगम २ एकैक उत्तर प्रकृतिउदीरणा उत्तरप्रकृतिउदीरणा के दो भेदोंका निर्देश एकेक उत्तरप्रकृतिउदीरणाके २४ अनुयोग द्वारोंका निर्देश समुत्कीर्तनानुगम सर्व नोसर्व उदीरणानुगम पृष्ठ ११ १३ १. ४ १५ १५ ?% १६ 13 ૪૩ १८ १ = १८ १६ १६ २० २१ २२ २६ ૨ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३ ) ५४ NG ONM K ? ४२ ܕܰ ? विषय पृष्ठ . विषय नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगम ३३ भागाभाग भागाभागानुगम ३५ परिमाण परिमाणानुगम ༢ེན་ क्षेत्रानुगम ३८ स्पर्धन स्पर्शनानुगम नाना जीवोंकी अपेक्षा काल कालानुगम नाना जीयोंकी अपेक्षा अन्तर अन्तरानुगम १३ अल्पबद्धत्व भावानुगम पदनिक्षेप अल्पब हुत्व ३ अनुयोगद्वारोंकी सूचना ३ प्रकृतिस्थान उदीरणा मामुरकीर्तना स्वामित्वके दो भेद प्रकृतिस्थान उदीरणाका तात्पर्य उत्कृष्ट स्वामित्व उसके १७ अनुयोगद्वारोंकी तथा भुजगारादि जघन्य स्वामित्व पदोंकी नुचना अल्पबहुत्वके दो भेद १०६ स्थानसमुन्कीर्तना उत्कृष्ट अल्पव हुत्व रस्थानों में प्रकृतियोंका निर्देश ४५ जघन्य अल्पवहत्व सादि आदि ४ अनुयोगद्वार स्वामिल मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधासागर महाराज एक जीबकी अपेमा काल १३ अनुयोगहारोंकी सूचना एक जीवी अपेक्षा अन्तर समुत्कीरांना स्वामित्व नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय भागाभागानुगम कालानुगम १०४ परिमाणानुगम अन्तरानुगम क्षेबानुगम नाना जीयोंकी अपेक्षा भंगविचय स्पर्श मानुगम भागाभागानुगम नाना जीपोंकी अपेक्षा काल परिमाणानुगम नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर क्षेत्रानुगम सन्निकर्ष स्पर्श मानुगम १०६ भावानुगम कालानुगम अल्पबहुत्व अन्तरानृगम भुजगार भावानुगम अर्थपद अल्पबहुत्य १३ अनुयोगद्वारोंकी सूचना ४ प्रकृतिप्रवेश समुत्कीर्तना स्वामिल ८४ प्रवृतिप्रवेश अधिकारके दो भेद ११२ एक जीवकी अपेक्षा काल ८५ उत्तर प्रवृतिप्रवेश अधिकारके दो भेद ११२ एक जीवको अपेक्षा अन्तर ८६ मल प्रकृतिप्रवेश और एकक उत्तर प्रकृतिप्रवेश नानाजीबों की अपेक्षाभंगविचय १४ अधिकार सुगम हैं १११ 3 TV Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय प्रकृतिस्थानप्रदेशके १७ अनुयोगद्वार कीर्तन दो भेद इन दोनों के एक साथ कथनका निर्देश स्थानसमुत्कीर्तनाका लक्षण निर्देश प्रकृति निर्देशका लक्षणकयन इन दोनोंका एक साथ कथन सादि आदि ४ अनुयोगद्वार स्वामित्व एक जीवकी अपेक्षा काल एक जीवको अपेक्षा अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय भागाभागानुगम परिमाणानुगम क्षेत्रानुगम स्पर्शनानुगम कालानुगम अन्तरानुगम भावानुगम बहुस्व भुजगार इसके १३ अनुयोगद्वार समुत्कीर्तनानुगम स्वामित्वानुगम कालानुगम अन्तरानुगम नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय भागाभागानुगम परिमाणानुगम क्षेत्रानुगम स्पर्शनानुगम कालानुगम अन्वरानुगम भावानुगम अल्पबहुत्व पदनिक्षेप इसके तीन अनुयोगद्वारोंकी सूचना समुत्कीर्तन के दो भेद मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ( १४ ) पृष्ठ ११२ ११२ ११३ ११३ ११३ ११३ १३० १३० १३१ १४३ १४७ १४६ रामुत्कीर्तनानुगम १४६ स्वामित्वानुगम १५० १५.० १५.३ १५६ १५८ १५८ विषय उत्कृष्ट समुत्कीर्तना जघन्यसमुत्कीर्तना स्वामित्व के दो भेद उत्कृष्ट स्वामित्व जघन्य स्वामित्व अल्प दो प्रकार उत्कृष्ट अल्पबहुत्व जघन्य अपबहुत्व १७१ १७१ १७१ १७२ १७४ १७५ *€ १७६ دی इसके १३ अनुयोगद्वार क्षेत्रानुगम ४६४ स्पर्शनानुगम १६४ कालानुगम १६४ १६५ १६५ १६८ o o कालानुगम अन्तरानुगम नाना जीवांकी अपेक्षा भंगविचानुगम भागाभागानुगम परिमाणानुगम ५ वृद्धिप्रवेशक अन्तरानुगम भावानुगम अल्पबहुत्वानुगम 'खेत्त भत्र काल' इत्यादि गाद्यांशका विशेष व्याख्यान कर्मोदय और उसके बाह्म निमित्तोंका निर्देश कर्मोदय चार प्रकारका है इसका निर्देश उदय और उदीरणामें अन्तरका निर्देश उरणा कथन से ही उदयका कथन हो जाता है इसका निर्देश ६ स्थितिउदीरणा स्थितिउदीरणाके दो भेदोंका निर्देश स्थितिउदीरणा के अनुयोगद्वारोंका निर्देश ७ मूलप्रकृतिस्थितिउदीरणा पृष्ठ १७७ १७७ १७७ १७७ १७८ ૨૩૨ १७३ १८० १८० १८० १५१ १८२ ؟ १ ८ २ १८३ १८३ १८४ १८४ 52 १८५ १८५ १८७ १८७ १८७ १८८ १८८ १६८ १८६. १.७७ १७७ मूलप्रकृति स्थितिउदीरणामें २३ तथा उत्तर Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय प्रकृति स्थितिउदीरणा २४ अनुयोगद्वार होते है इसका निर्देश स्थितिउदीरणा के २ भेदों का निर्देश प्रमाणानुगम दो प्रकारका है इसका निदा सर्व नोसर्व स्थितिउदीरणा उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणा जन्म अजघन्य स्थितिउदीरणा सादियादि स्थितिउदीरणा स्वामित्वानुगमके दो भेद उत्कृष्ट स्वामित्वानुगम जघन्य स्वामित्वानुगम कालानुगमके दो भेद उत्कृष्ट कालानुगम जय कालानुगम अन्तरानुगमके दो भेद उत्कृष्ट अन्तरानुराग जघन्य अन्तरानुगम नाना जीवों की अपेक्षा गंगचित्रयानुगमके दो भेद उत्कृष्ट भंगविचयानुगम जघन्य भंगविचयानुगम भागाभागानुगम के दो भेद उत्कृष्ट भागाभागानुगम जवन्य भागाभागानुगम परिमाणानुगमके दो भेद उत्कृष्ट परिमाणानुगम जघन्य परिमाणानुगम क्षेत्रानुगमके दो भेद उत्कृष्ट क्षेत्रानुगम जघन्य क्षेत्रानुगम स्पर्थनानुगमके दो भेद उत्कृष्ट स्पर्धेनानुगम जघन्य स्पर्शनानुगम कालानुगमने दो भेद उत्कृष्ट कालानुगम जघन्य कालानुगम अन्तरानुगमके दो भेद उत्कृट अनुगम ( १५ ) पृष्ठ विषय जघन्य अन्तरानुगम २०६ १८६ दोनों प्रकारके भावका निर्देश २१० १६० २१० अब दो भेद १६० मार्ग अवार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज १६१ जघन्य अल्पबहुत्त्र २१० १६२ भुजगारस्थितिउदीरणा २.१ १६२ २११ १६२ २११ २११ २१२ १६२ १६२ १९३ k&L १६४ १६६ १६८ = १६६ ROD २०० २०१ २०१ २०१ २०१ २०२ ܀ ܘ ܕ उसके १३ अनुयोगद्वारोंकी सूचना समुत्कीर्तनानुगम "स्वामित्वानुगम कालानुगम अन्तरानुगम नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचपानुगम भागाभागानुगम परिमाणानुगम क्षेत्रानुगम नानुगम कालानुगम अन्तरानुगम भावानुगम बहुत्वानुगम पदनिक्षेप इसके तीन अनुयोगद्वार समुत्कीर्तनानुगमके दो भेद उत्कृष्ट समुत्कीर्तनानुगम जघन्य समुत्कीर्तनानुगम २०२ स्वामित्वानुगम के दो भेद २०३ उत्कृष्ट स्वामित्वानुगम २०३ २०३ २०४ २०४ २०५ २०६ वृद्धिउदीरणा २०६ उसके तेरह अनुयोगद्वार २०८ समुस्कीर्तनानुगम २०६ स्वामित्वानुगम २०६ कालानुगम जघन्य स्वामित्वांनुगम अल्पबहुत्व के दो भेद 20 435 उत्कृष्ट अल्पबहुव जघन्य अपबहुत्व २१४ २१५ २१६ २१६ २१७ २१७ २१५ २१६ २१६ २१६ २.२० २२० २२० २२० २२० २२० २२० २२१ २२२ २१२ २२२ २२२ २२२ २२२ २२३ २२३ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म mmm २६५ २६८ ३०४ विषय पृष्ठ विषय मन्दरानुगम २२६ जघन्य परिमाणानुगम नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचवानुगम २२८ क्षेत्रानुग मने दो भेद भागाभामानुगम २२८ उत्कृष्ट क्षेत्रानुगम परिमाणानुगम जघन्य क्षेत्रानुगम क्षेत्रानुगम २२६ स्पर्शनानुगमके दो भेद गर्शनानुगम २२६ उत्कृष्ट स्पर्शनानुगम कालानुपम २३० जघन्य स्पर्शनानुगम अन्तरानुगम २३० कालानुगमके दो भेद भावानुगम उत्कृष्ट कालानुगम अल्पबहुत्वानुगम जघन्य कालानुगम अन्तरानुगमके दो भेद ८ उत्तरप्रकृतिस्थिति उदीरणा उत्कृष्ट अन्तरानुगम २४ अनुयोगद्वारों तथा भुजमावारिकिरानाभावार्य अन्शुिबिस्तासामुबार जी महाराज अद्धान्द्रेदके दो भेद २३१ दो प्रकारचा भाव उत्कृष्ट अडाच्छेद २३१ अगबहुत्व के दो भेद जघन्य अद्धाच्छद २३२ उचाष्ट अलाबहुत्व सर्वआदि ४ अनुयोगद्वार २३४ जघन्य अलाबहुन्व सादिआदि ४ अनुमोगद्वार २३४ स्थिलि अन्त्यवहुत्व के दो भेद स्वामित्वानुगमके दो भेद २३५ उल्लष्ट स्थिति अल्प बहुस्त्र उनकट स्वामित्वानुगम २३५ जघन्य स्थिति अल्पबहुल जघन्य स्वामित्यानुगम भुजगार कालानुगमके दो भेद समुलीवनानुमान उत्कृष्ट कालानुगम स्वामित्वानुगम जघन्य कालानुगम कालानुगम अन्त गनुगमके दो भेद अन्तरानुगम उत्कृष्ट अन्तरानुगम माना जोपोंकी अपेक्षा भंगविवधानुगम जघन्य अन्तरानुगम भागाभागानुगम सन्निकर्षक दो भेद परिमाणानुगम उत्कृष्ट सन्निवर्ष क्षेत्रानुगम जघन्य सन्निकर्प २७५ स्पर्शनानुगम माना जीनोंकी अपेक्षाभंगविचयके दो भेद कालानुगम उत्कृष्ट भंगविचय अन्तरानुगम जघन्य मंगविचय भावानुगम भागाभागानुगमको दो भेद अल्पबत्यानुगम उत्तर भागाभागानुगम जघन्य भागाभागानुगम पदनिक्षेप परिमाणानुगमके दो भेद २६० इसके ३ अनुयोगद्वार उत्कृष्ट परिमाणानुगम २६० समुत्कीर्तनामुगम २ भेद २३६ ३१८ ३२८ in २६७ nx r r २५ ३२१ ३५.१ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० विषय पृष्ठ विषय उत्कृष्ट समुस्कीर्तनानुगम स्वामिरवानुगम जघन्य समुत्कीर्तनानुगम कालानुगम अन्तरानुगम स्वामित्वानुगमके दो भेद ३५१ नानाजीवोंकी अपेक्षा भंगविषयानुगम उत्कृष्ट स्वामित्वानुगम भागाभागानुगम जघन्य स्वामित्वानुगम ३५४ परिमाणानुगम अल्पबहुत्व के दो भेद ३५५ क्षेत्रानुगम उत्कृष्ट अत्यबहुत्व ३५५ स्पर्शनानुगम मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिासागर जी म्हायुज. जघन्य अल्पबहुत्व कालानुगम अन्तरानुगम वृद्धि स्थितिउदीरणा ३५६ भावानुगम उसके १३ मनुयोगद्वार कसबहुत्वानुगम समुत्कीर्तमानुगम ३५६ स्थान Mmmmmmmmm ३८५ ཐོ ད ད ३८८ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज सिरि-जइवसहाइरियविरड्य-चुण्णिसुत्तसमण्णिदं सिरि-भगवंतगुणहरभडारोवइट्ट क सा य पा हु डं तस्स सिरि-वीरसेणाइरियविरइया टीका जयधवला तत्थ वेदगो णाम सत्तमो अस्थाहियारो वेदगवेदगवेदगमवेदगं वेदगंथसंसिद्धं । सिद्धं पणमिय सिरसा वोच्छं वेदगमहाहियारसहं ॥ १ ।। ___ जो सब बेदकोंमें अतिशय वेदक हैं अथान् चराचर विश्वके ज्ञाता हैं, जो शुभाशुभ कर्मफलके वेदनसे मुक्त हैं और वेदग्रन्थों ( जिनागम ) से जिनके अस्तित्वकी सिद्धि होती है उन सिद्ध परमेष्ठीको सिरसे प्रणाम करके मैं ( चोरसेन आचार्य) वेदक नामक महाधिकारका व्याख्यान करता हूँ॥१॥ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गत ता जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो वेदगे ति अणियोगहारे दोषिण अणियोगदाराणि । तं जहाउदयो च उदोरणा । ६ १. एदस्स सुत्तस्स अत्थो चुच्चदै । तं जहा—वेदगे ति अणियोगद्दार कसायपाहुडस्स पाहारसहमत्थाहियाराणं मज्झे छटुं । तस्येमाणि दोएिण अणियोगहाराणि भवति । काणि ताणि त्ति सिस्साहिप्पायमासंकिय उदयो च उदीरणा चेव तेसि गामणिद्देसो कत्रों । तत्थोदयो एणाम कम्मापं जहाकालजणिदो फलविवागो । कम्मोदयो उदयो त्ति भणिदं होइ । उदीरणा पुरण अपरिपत्त कालाणं चेव कम्माणमुवायविसेसेण परिपाचनं 'अपक्वपरिपाचनमुदीरणा' इति वचनात् । वुत्तं च कालेण उवाये पच्चंति जा, वाइफलाहाराज - तह कालेण तवेण य पच्चंति कयाई कम्माइं ।। १ ॥ इदि :: २. एवंविहउदयोदीरणाओ जत्थ परूविज्जंति ताणि वि अणियोगद्दाराणि तरणामधेयाणि | कधं पुण उदयोदीरणाणं वेदगववएसो १ ण, वेदिजमाणत्त सामएणावेक्खाए दोपहमेदेखि तन्त्रवएससिद्धीए विरोहाभावादो। ॐ तत्थ चत्तारि सुत्तगाहारो।। । ३. तम्मि वेदगसणिणदे महाहियारे उदयोदीरणवियप्पिदे चत्तारि सुत्त* वेदक इस अनुयोगद्वारके दो अनुयोगद्वार हैं । यथा-उदय और उदीरणा । ६१. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं । यथा--जो यह कषायप्राभृतके पन्द्रह अर्थाधिकारों में वेदक नामका छठा अनुयोगद्वार है उसमें ये दो अनुयोगद्वार हैं। कौन हैं इस प्रकार शिष्यके अभिप्रायके अनुरूप अाशंका करके उदय और उदीरणा इस प्रकार उनका नामनिर्देश किया। प्रकृत्तमें कर्मोंके यथाकान्त उत्पन्न हुए फलके विपराकका नाम उदय है। कर्मों के उदयका नाम उदय हे यह उक्त कथनका तात्पर्य है। परन्तु जिन कर्मोके उदयका काल प्राप्त नहीं हुआ उनका उपाय विशेषसे पचाना उदीरणा है, क्योंकि मपक्वका परिपाचन करना उदीरणा है पेसा वचन है। कहा भी है जिस प्रकार बनस्पतिके फल परिपाककालके द्वारा या उपायके द्वारा परिपाकको प्राप्त होते हैं उसी प्रकार किये गये कर्म परिपाककालके द्वारा या तपके द्वारा पचते हैं ।। . ।। ६२. इस प्रकार उदय और उदीरणाका जिन अनुयोगद्वारों में कथन किया जाता है वे अनुयोगद्वार भी उन्हीं नामत्राले होते हैं। शंका–उदय और उदीरणाकी वेदक संज्ञा कैसे है ? समाधान—नहीं, क्योंकि उदय और उदोरणा दोनों ही सामान्यसे वेद्यमान हैं इस अपेक्षा उन दोनोंकी उक्त संज्ञाके सिद्ध होनेमें कोई विरोध नहीं पाता । * वेदक नामके इस अनुयोगद्वारमें चार सूत्रगाथाएँ हैं। ३३, 3 (व र उ होर णा इन भे से गुरु वेदक संज्ञावाले इस महाधिकारमें गुणधर Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 गा० ५९ ] सुत्तगाहाणं विषयविभाग परूवणा गाहाओ गुणहराहरियमुहकमलविग्गियाओ अस्थि ति भणिदं होइ । एदेख 'चत्तारि वेदगम्मि दु' इच्वेदस्स संबंधगाहावयवस्स परामरसो कओ ति दट्टब्बो | संपहि संधानसेाहानिया सुहाशांता सरूमावादमुव्हेण तदट्टविवरणं कुणमाणो पुच्छावकमाह ऋ तं जहा । ४. सुगमं । कद आवलियं पवेसेइ कदि च पविस्संति कस्स आवलिये । खेत्त-भव-काल-पोग्गल - द्विदिविवागादयखयो दु ॥५९॥ ५. एस पढमगाहा । एदीए पर्याडिउदीरणा पयडिउदयो तदुभयकारणदवादिपरूवणा च कया | संपहि एदिस्से गाहाए अवयवत्थविवरणं कस्साम । तं जहा - 'कदि आवलियं पवेसेदि' त्ति एदेण पढमावयवेण पयडिउदीरणा परूविदा, कदि पयडीओ उदयावलिन्नंतर पयोगविसेसेरण पवेसेदि ति सुत्तस्थावलंबणादों । सारा पथडिउदीरणा दुविहा- मूलपय डिउदीरणा च उत्तरपयाडेउदीरणा च । उत्तरपपडिउदीरणा दुबिहा- एगेगुत्तरपय डिउदीरणा पर्याडिद्वाणउदीरणा चेदि । एत्थ सेसाणं दसामासयभावेण पय डिडा उदीरणा चैव मुत्तकंठमेदेण सुत्तावयवेण पिडा । तदो पडिउदीरणा सव्धा चैव एदम्मि बीजपदे णिलीया त्ति दवं । आचार्य के मुख कमल से निकली हुई चार सूत्र गाथाएँ हैं यह उक्त कथनका ताल है। इस वचन द्वारा सम्बन्ध गाथाके 'चत्तारि वेदगम्मि' इस अवयववचनका परामर्श किया है. ऐसा जानना चाहिए | अब संख्याविशेषके द्वारा अवधारण को प्राप्त गाथाओंके स्वरूप के अनुवाद द्वारा उनके अर्थका विवरण करते हुए पृच्छावाक्यको फहते हैं * यथा । १४. यह सूत्र सुगम है । कितनी प्रकृतियोंको उदयावलिमें प्रवेश कराता है और किस जीव कितनी प्रकृतियाँ उदयावलिमें प्रविष्ट होती हैं, क्योंकि क्षेत्र, भच, काल और पुद्गलको निमित्तकर कर्मोंका स्थितिविपाक और उदयचय होता है ।। ५९ ।। १५. यह प्रथम गाथा है । इस द्वारा प्रकृति उदीरणा, प्रकृतिउदय और इन दोनों के कारणभूत द्रव्यादिका कथन किया गया है। अब इस गाथाके अवयवोंका अर्थविवरण करते हैं। यथा- 'दि श्रावलियं पवेसेद' इस प्रथम अवयव द्वारा प्रकृतिउदीरा कही गई है, क्योंकि कितनी प्रकृतियोंको उदद्यावलिके भीतर प्रयोग - विशेष के द्वारा प्रवेश करता है इस प्रकार यहाँ उक्त गाथासूत्रके अर्थका अवलम्बन लिया गया है। वह प्रकृतिउदीरणा दो प्रकार की है - मूलप्रकृतिउदीरणा और उत्तरप्रकृतिउदीरणा । उत्तरप्रकृतिउदीरणा दो प्रकार की हैएकै उत्तर प्रकृतिउदीरणा और प्रकृतिस्थान उदीरणा । यहाँ पर शेष उदीरणाओंके देशामकभाव से इस सूत्रावयव के द्वारा प्रकृतिस्थानउदीरणा ही मुक्तकण्ठ होकर निर्दिष्ट की गई है । —— Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो ७ ६. 'कदि च पविसंति कस्स श्रावलियं' इच्चेदेण वि विदियसुत्तावयवेण पयडिउदयो सप्पभेदो समुद्दिहो। किं कारणं ? कदि च केत्तियानो खलु पयडीयो कस्स जीवस्स प्रावलियमुदयावलियम्भंतरमुदीरणाए विणा द्विदिक्खएण पविसंति त्ति पुच्छावलंबणादो। अथवा उदयावलियपविट्ठोदयाणुदयपयडीअो घेत्तूण पवेससरिणदो अस्थाहियारो एदेण सुत्तावयवेण सूचिदो त्ति दट्ठव्यो; चुरिणसुत्तणिबद्धत्तपरूवणाए सवित्थरमुवरि समुवलंभादो । जइ एवं; वेदगे ति अणियोगद्दारे उदयो च उदीरणा चेदि दोएहमत्थाहियाराणं पुच्चमभुवगर्म कादण संपाहि तदुभयवदिरित्तपवेसपरूवणावलंबणे सुत्तयारस्स पइण्णादत्थपरिच्चागदोसो पसज्जइ त्ति ? ए एस दोसो, केण वि पयारेण तस्स वि उदयंतब्भावदंसणादो। तदो पयडिउदयो पयडिपवेसो चेदि एदे दोरिण अणियोगा 'कदि च पविस्संति कस्स श्रावलियं' इच्चेदेण सुत्ताक्यवेण संगहिदा ति दट्ठन्वं । ७. एवं गाहापुब्बद्ध पडिबद्धाणं पयडिउदयोदीरणाणं णिरहेउत्तगिरायरणमुहेण सहेउत्तपदुप्पायगडमार्गदसाझपच्छिमसमायसोवासोपापासन पोग्गल-डिदि-विवागोदयखओ दु ।' एतदुक्तं भवति–खेत-भव-काल-पोग्गले समस्सिऊण जो द्विदिविवागो उदयक्खयो च सो जहाकममुदीरणा उदयो च भण्णइ इसलिए प्रकृतिबदीरणा समस्त ही इस बीजपदमे अन्तर्निहित है ऐसा जानना चाहिए। ....६६. 'कदि च पविसंति कस्स श्रावलियं' इस दूसरे सूत्रावयवके द्वारा भी अपने उत्तर भेदोंके साथ प्रकृतिउदयका कथन किया गया है, क्योंकि इसमें कदि च' अर्थात् कितनी प्रकृतियाँ किस जीवके 'आरलियं. अर्थात उदगावलिके भीतर उदीरणाके बिना स्थितिका क्षय होनेसे प्रवेश करती हैं इसप्रकार पृच्छाका अवलम्बन लिया है। अथवा उदयावलिके भीतर विष्ट हुई उदयप्रकृतियों और अनुदयप्रकृतियोंको ग्रहण कर प्रवेश संज्ञावाला अधिकार इस सूत्रा. वयवके द्वारा सूचित किया गया है ऐसा प्रकृतमें जानना चाहिए, क्योंकि चूर्णिसूत्र में निबद्ध होकर उक्त प्ररूपणा विस्तारके साथ आगे उपलब्ध होती है। शंका--यदि ऐसा है तो वेदक इस अनुयोगद्वारमें उदय और उदीरणा इन दो अनु. योगद्वारीको पहले स्वीकार करके अब इन दोनों अर्थाधिकारोंसे भिन्न प्रवेशप्ररूपणावाले अर्थाधिकारके कथनका अवलम्बन लेने पर सूत्रकारको प्रतिक्षात अर्थका त्याग करनेका दोष लगता है ? समाधान---यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि किसी भी प्रकारसे उसका भी उदयके भीतर अन्तर्भाव देखा जाता है। इसलिए प्रकृतिउदय और प्रकृतिप्रवेश ये दो अनुयोगद्वार 'कदि च पविसंति कस्स आवलियं' इस सूत्रावयवके द्वारा संग्रहीत किये गये हैं ऐसा यहाँ जानना चाहिए। ६. इसप्रकार गाथाके पूर्वाधमें जो प्रकृतिउदय और प्रकृतिउदीरणा प्रतिबद्ध हैं उनके निरहेतुकपनेके निराकरणद्वारा सहेतुकपनेका कथन करने के लिए गाथाके 'खेत्त-भव काल-पोग्गलहिदिविवागोदयखश्नो दु' इस पश्चिमाका अवतार हुआ है। उक्त कथनका यह तात्पर्य है कि क्षेत्र, भव, काल और पुलोंका आश्रय लेकर जो स्थितिविपाक और उदयत्तय होता है उसे Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०५६ ] सुत्तगाहाणं विषयविभागपरूणा 1 ति । संपहि खेादीरामस्थो बुच्चदे । तं जहा - खेतमिदि भणिदे णिरयादिखेत्तस्स गहणं कायन्वं । भव इदि भणिदे एइंदियादिभवस्स गहरणं कायव्वं । काल इदि भणिदे सिसिर-संतादिकालविसेसस्स गहरणं कायध्वं । वाल- जोच्त्रणयविरादिकालअणिदपज्जायस या । पोग्गल इदि भणिदे गंध- तंबूल वत्थामरण बिसेसत्थकंदयादिदव्यारामिट्टासिरूवाणं [ गहरणं ] कायच्वं । एवमेदे खेत्त भव-काल-पोग्गले पड़ा कम्माणमुदयोदीरणसरूवो फलविद्यागो होदि ति एसो एदस्स सुतस्स भावत्थो । ५ ८. अधवा 'कदि आवलियं पवेसेदि' ति पडिउदीरणा 'कदि च पविसंति कस्स आवलियं इदि उदयोदोरणावदिरित्तो पयडिपवेसो त्ति विदियो अत्थाहियारो | एवं गाहा-पुन्यद्धे दो चैत्र अत्थाहियारा पडिवद्धा । पुणो 'खेत्त भव-काल-पोग्गल डिदिविवागादयखयो दु' ति एदम्मि गाहापच्चद्वे कम्मोदयो सकारयो पडिबद्धो ति वेत्तन्बो, चुहियसुतारे मुत्तकंठसुवरि तहा परूविस्समाणत्तादो। कथं पुरा कम्मोदयस्स एसो गाहावयवो वाचो चित्ते युच्चदे - खेत्त-भत्र काल-पोग्गले अस्सिऊण जो द्विदिक्खयलक्खणो कम्मस्स विचागो सो उदयो त्ति ववहिदसंबंध से सुतत्थवखारणादो, एसो गाहापमिद्धो कम्मोदयस्त बाचओ त्ति घेत्तव्यं । - :- आचार्य सुविधि क्षेत्रादिकका क्रमसे उदीरणा और उदय क्षेत्र ऐसा कहने पर नरकादि क्षेत्रका ग्रहण करना चाहिए। भव ऐसा कहने पर एकेन्द्रियादिरूप भवका ग्रहण करना चाहिए | काल ऐसा कहने पर शिपिर और वसन्त आदि काल विशेषका ग्रहण करना चाहिए अथवा चालकाल, यौवनकाल और स्थविर आदि काल के आलम्बनसे उत्पन्न हुई प का ग्रहण करना चाहिए तथा पुल ऐसा कहने पर इष्टानिष्टरूप गन्ध, ताम्बूल, वस्त्र और आभरण विशेषरूप स्कन्ध श्रादि द्रव्योंका महण करना चाहिए। इसप्रकार इन क्षेत्र, भव, काल और पुलोंका आलम्बन लेकर कमका उदय और उदीरणारूप फलविपाक होता है यह इस सूत्र का भावार्थ है । -- ८. अथवा 'कदि आवलियं पवेसेंदि' इस द्वारा प्रकृतिउदीरणा नामवाला पहला अर्था धिकार तथा 'कदि च पविसंति कस्स आवलियं' इस द्वारा उदय और उदीरणा के सिवा प्रकृतिप्रवेश नामत्राला यह दूसरा अधिकार कहा गया है। इसप्रकार गाथा पूर्वार्ध दो ही अर्था धिकार प्रतिबद्ध हैं। पुनः गाथा के 'खेत्त - सब-काल-मोग्गलादिविवागादयखयो दु' इस पश्चिमार्चमें कारण सहित कर्मोदय नामक अधिकार प्रतिबद्ध हैं ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि चूर्खिसूत्रकार मुक्तकण्ठ होकर आगे इसीप्रकार कथन करनेवाले हैं। शंका- यह गाथाका पश्चिमार्थ कर्मोदयका वाचक कैसे है ? -- समाधान क्षेत्र, भव, काल और पुलोंका आश्रय लेकर जो स्थितिक्ष्यलक्षण कर्मका विपाक होता है बहु उदय है इसप्रकार व्यवहित सम्बन्धवश सूत्र के अर्थ व्याख्यान करने से यह गाथाका पश्चिमार्थ कर्मोदयका वाचक है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए | - Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को कदमाए हिंदी सांतर - णिरंतरं जयघवला सहिदे कसाय पाहुडे पवेसगो को व के य अणुभागे । पोटी ६४ वा कदि वा समया [ वेदगो ७ महाराज ६९. एसा विदियगाहा डिदि अनुभाग-पदेसुदीरणासु पडिबद्धा । तं जहा - 'को कमाए हिंदी पवेसगो' इच्वेदे पढमावयवेण द्विदिउदीरणा सूचिदा । 'को व के अभागे इच्चेदेचि विदियावयवेण अणुभागुदीरणा परूविदा । एत्थेव पदे सउदीरणा विििा चि दट्ठब्बा डिदि अभागाणं पदेसाविणा भावितादो । देसामायणाएण वस्सेह ग्रहणं काव्यव्वं । एवमेदेण गाहापुण्यद्वेण द्विदि अणुभागपदेसुदीरणाओ सामित्तमुद्देण पुच्चिदाओ । एदेव विदि-अणुभाग-पदेसुदयो तेसिं पवेसो च सूचिदो; देसामासयभावेणेदस्य पयट्टत्तादो। 'सांतरणिरंतरं वा० बोद्धव्या' ति उदयोदीरणाणं पडि-ट्टिदि - अणुभाग-पदेस विसेसिदाणं सांतरकालो निरंतर कालो वा केतिया समया त्ति एदेण पुच्छाचकेण णाणेगजीव संबंधिकालंतराणं परूवणा सूचिदा । एत्थतविदिय 'वा' -सदेश अगुत्तसमुद्वेए समुक्किच णादिसेमाणियोगद्दारा सं पण सूचिदा । तदो समुक्कित्तणादि जाव अप्पान हुए त्ति चउबीसमणि श्रीमद्दाराणं जहासंभव मुदयोदीरणाविसयाणं सूचणमेदेण कदभिदि धेतव्यं । कौन जीव किस स्थिति में और कौन जीव किस अनुभाग में कमका प्रवेश करानेवाला है तथा इनका सान्तर और निरन्तर काल और अन्तर कितने समय तक होता है यह जानने योग्य है ॥ ६० ॥ १६. यह दूसरी गाथा स्थितिउदीरणा, अनुभागउदीरणा और प्रदेशउदीररणाके विषय में प्रतिबद्ध हैं । यथा - ' —' को कमाए हिंदीए पवेसगी' इसप्रकार इस प्रथम अवयव के द्वारा स्थितिउदीरणा सूचित की गई है। 'को वा केय अभागे' इसप्रकार इस द्वितीय अवयव के द्वारा भी अनुभाग उदीरणा कही गई हैं। तथा इसी पदमें प्रदेशउदीरणा भी निर्दिष्ट की गई है ऐसा जानना चाहिए, क्योंकि स्थिति और अनुभाग प्रदेशों के अविनाभावी होते हैं। अथवा देशासक न्यायसे उसका यहाँ पर ग्रहण करना चाहिए। इसप्रकार इस गाथा के पूर्वार्धद्वारा स्थितिउदीरणा, अनुभागरण और प्रदेशउदीरणा के स्वामित्रकी प्रमुखता द्वारा पृच्छा की गई है। तथा इसी द्वारा स्थिति, अनुभाग उदय और प्रदेश उदय तथा उनका प्रवेश सूचित किया गया है, क्योंकि देशाभाव से यह वचन ( गाथाका पूर्वार्ध) प्रवृत हुआ है । 'सांतर - शिरंतरं वा० बोद्धा ।' अर्थात् प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशसे विशेषताको प्राप्त हुए उदय और उरा सान्तर और निरन्तर काल कितना है इसप्रकार इस पृच्छावाक्यके द्वारा नाना जीव और एक जीवसम्बन्धी काल और अन्तरप्ररूपणा सूचित की गई है। तथा यहाँ आये हुए अनुक्तका समुजय करनेवाले दूसरे 'वा' शब्द के द्वारा समुत्कीर्तना श्रादि शेप अनुयोगद्वारोकी प्ररूपणा सूचित की गई है। इसलिए यथासम्भव उदय और उदीरणको विषय करनेवाले समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक चौबीस अनुयोगद्वारोंका सूचन इस वचनके द्वारा किया गया है ऐसा यहाँ पर ग्रहण करना चाहिए । 1 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६.] मुत्तगाहाणं विसयविभागपरूवणा बहुगदरं बहुगदरं से काले को णु थोवदरगं वा। अणुसमयमुदीरतो कदि वा समयं उदीरेदि ॥६॥ १०. एसा तदियगाहा ! एदीए पयडि-विदि-अणुभाग-पदेसविसयस्स भुजमाराणियोगो सप्पभेदो णिहिट्ठो। तं जहा-णिरुद्धसमयादो 'से काले' समणंतरसमए 'बहुगदरं० को उदीरेदि' ति एदेण पयडि-डिदि-अणुभाग-पदेसविसयस्स भुजगारपदस्स गिद्देसो को। 'को णु थोत्रदरगं वा' ति एदेण चि तब्बिसयअप्पदरपदं जाणाविदं । एत्थतण-'वा'-सद्देणाणुत्तसमुच्चयटेणावहिदावत्तव्यपदाणं गहणं कायव्वं । तदो एदेण गाहापुबद्रेण पयडि-डिदि-अणुभाग-पदेसुदीरणाविसयो भुजगाराणियोगो परूविदो त्ति सिद्धं । 'अणुसमयमुदीरेंतो' अणुसमयं समयं पडि भुजगारादिसरूवेणुदीरेमाणो 'कदि वा समए' केत्तिए वा समए पिरंतरसुदीरेदि ति एदेण भुजगार. विसयकालाणियोगदारं सूचिदं। एदेणेव देसामासयवयणेण सेसाणियोगद्दाराणं पि संगहो काययो । एदेणेव पदणिक्खेवो वड्डी च परूविदा; भुजगारविसेसो पदणिक्खेवो, पदाणिक्खेवविसेसो बडि ति णायादो । .........---~~~-- --~-...---.--...----- * विवक्षित समयसे तदक्षामाशयमय मेंबर श्रीबहसमता कम की उर्दीरणा करता है और कौन जीव अल्पतर अल्पतर कर्मों की उदीरणा करता है तथा प्रति समा उदीरणा करता हुआ यह जीव कितने समय तक निरन्तर उदीरणा करता है॥६१॥ १०. यह तीसरी गाथा है। इस द्वारा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश विषयक अपने भेदोंके साथ भुजगारअनुयोगद्वार निर्दिष्ट किया गया है। यथा--विवक्षित समयसे 'से काले' अर्थात् तदनन्तर समयमें बहुतर बहुतर कर्मोकी कौन उदीरणा करता है सप्रकार इसस वचनद्वारा प्रकृति, स्थिनि, अनुभाग और प्रदेशविपयक भुजगारपदका निर्देश किया गया है । 'कोणु थोबदहां वा' इसप्रकार इस वचन द्वारा भी तद्विषयक अल्पतरपदका ज्ञान कराया गया है । यहाँ पर अनुक्तका समुचत्र करने के लिए पाये हुए 'वा' शब्दके द्वारा अवस्थित और अवक्तव्य पदोंका ग्रहण करना चाहिए । इसलिए गाथा के पूर्वार्धद्वारा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशविषय क भुजगार अनुयोगद्वारको प्ररूपणा की गई है यह सिद्ध होता है। 'अणुसमयमुदीरतो अर्थात् प्रत्येक सम यों भुजगारादि रूपसे उदीरणा करता हुआ यह जीव 'कदि वा समए' अर्थात् कितने समय तक निरन्तर उदोरणा करता है. इसप्रकार इस वचनके द्वारा भुजगार विषयक कालानुयोगद्वार सूचित किया गया है। तथा इसी देशामर्षक वचनके द्वारा शेष अनुयोगद्वारोंका भी मंग्रह किया गया है। तथा इसी बनन द्वारा पदनिक्षेप और वृद्धि अनुयोगद्वार की प्ररूपणा की गई है, क्योंकि भुजगार विशेषका नाम पदनिक्षेप है और प्रदनिक्षेपविशेषका नाम वृद्धि है। ऐसा न्याय है। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो जो जं संकामेदि य जं बंधदि जं च जो उदीरेदि।। तं केण होइ अहियं द्विदि अणुभागे पदेसग्गे ॥६॥ ११. एसा चउत्थी मूलगाहा । एदिस्से बत्तव्वं पयडि-विदि-अणुभाग-पदेसविसयारणं बंध-संकमोदयोदीरणा-संतकम्माणं जहण्णुकस्स-पदविसेसियाणमप्पाबहुअगवेसणं । तं जहा—'जो जं संकामेदि' त्ति वुत्ते संक्रमो गहेयब्यो । सो च पयडि INDIAN विदि-अणुभाग-पदेपमेयभिण्णो जहण्णुकस्सपदविसेसिदो घेत्तव्यो । 'विदि अणुभागे पदेसग्नोतिक्रियणादशेचायडीहामिहामेत्य ही हादि त्ति णासंकिय; पयडियदिरित्ताणं द्विदि-अणुभाग-पदेसाणमभावेश पयडीए अणुन सिद्धत्तादो । 'जो जं बंधदि' त्ति एदेण बंधो पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेसभेयभिएणो घेत्तव्यो । एस्थेव संतकम्मस्स वि अंतब्भावो वक्खाणेयब्यो । 'जं च जो उदीरेदि' ति एदेण विषयडि-द्विदिअणुभाग-पदेस मेयभिषणाए उदीरणाए उदयसहगदाए गहएं कायव्यं । 'तं केण होइ अहियं' इदि युत्ते बंधसंकमोदयोदोरणासंतकम्मवियप्याणं मज्झे कत्तो कदम केत्तिएणाहियं होह ति पुच्छा कया होइ । 'हिदि अणुभागे पदेसग्गे' इदि सुत्तावयको बंधसंकमोदीरणाणं संतकम्मोदयसहगयाणं विसयपदंगणट्ठो दट्ठन्यो । ण च पयडीए एत्थासंभयो आसंकणिजो; दत्तुत्तरत्तरादो। तम्हा बंधो संकमो उदयो उदीरणा * जो जीव स्थिति, अनुभाग और प्रदेशों में से जिसे संक्रमित करता है, जिसे बाँधता है और जिसे उदीरित करना है वह किससे अधिक होता है ।।६२।। ११. यह चौर्थी मूलगाथा है । जघन्य और उत्कृष्ट पदोंसे विशेषताको प्राप्त हुए प्रकृति, स्थिनि, अनुभाग और प्रदेशविषयक बन्ध, संक्रम, उदय, उदीरणा और सत्कर्माके अल्पबहुत्वकी गवेषणा करना इसका वक्तव्य है। यथा-'जो जं संकामेदि' ऐसा कहने पर संक्रमका ग्रहण करना चाहिए। और वह जघन्य और उत्कृष्ट पदसे विशेषताको प्राप्त होकर प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशभेदसे अनेक प्रकारका ग्रहण करना चाहिए । 'द्विदि अणुभागे पदेस' इस वचन द्वारा यहाँ पर प्रकृतिका ग्रहण नहीं प्राप्त होता ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि प्रकृति के बिना स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंका अभाव होनेसे प्रकृति अनुक्तसिद्ध है। 'जो जं बंधदि' इसप्रकार इस वचनद्वारा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंके भेदसे अनेक प्रकारके बन्धका ग्रहण करना चाहिए। तथा यहीं पर सत्कर्मके अन्तर्भावका भी व्याख्यान करना चाहिए । तथा 'जं च जो उदोरेदि' इसप्रकार इस वचनके द्वारा भी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंके भेदसे अनेक प्रकारकी उदयके साथ उदीरणाका ग्रहण करना चाहिए। 'त केय होइ अहियं ऐसा करन पर बन्ध, संक्रम, उदय, उदीरणा और सत्कर्मरूप विकल्पोंके मध्य किससे कौन कितना अधिक होता है यह पृच्छा की गई है। 'हिदि अणुभागे पदेसग्गे' यह सूत्रावयव सत्कर्म और उदय सहित बन्ध, संक्रम और उदीरणाके विषयको दिखलानेके लिये आया है ऐसा जानना चाहिए। यहाँ पर प्रकृतिका कथन असम्भव है ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि इसका उत्तर पूर्व में ही दे आये हैं। इसलिए बन्ध, संक्रम, उदय, उदी Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] सुत्तगाहाणं विसयविभागपरूवणा संतकम्पमिदि एदेसि पंचएहं वियप्पाणं जहएणस्स जहण्णएण, उकस्सस्स उक्कस्सएण पयडीहिं हिदीहिं अणुभागेहिं पदेसेहि य थोवबहुत्तपरूवणा । एदिस्से चउत्थसुत्तगाहाए अत्थो नि सिद्ध । १२. एवमेदासिं सुत्तगाहाणमत्रयारं कादण संपाहि एत्थ पढमगाहाए वक्खाणं कुणमाणो चुरिणसुत्तयारो एसा गाहा पदम्मि अत्थविसेसे पडिबद्धा ति जाणावणहमुत्तरसुत्त माह तस्थ पढमिल्लगाहा पयडिउदीरणाए पयडिउवए घबछा । १३ गयत्थमेदं सुत्तं, गाहाणमुत्थाणस्थपरूवणाए चेव पयदत्थस्स समस्थियत्तादो । एवमेदेण सुत्तेण पयडिउदीरणाए पयडिउदए च पढमगाहाए पडिबद्धत्तं सामगणेण जाणाविय संपाहि पदच्छेदमुहेण पढमगाहाए कदमम्मि पदे पयडिउदीरणा पडिबद्धा, कदमम्मि चा पयडिउदयो त्ति एदस्स विसेसस्स जाणावणट्टमुत्तरं सुत्तमाह * कदि आवलियं पवेसेदि त्ति एस गाहाए पढमपादो पयडिउदीरणाए। १४. एत्थ पडिबद्धो त्ति अहियारसंबंधो कायब्यो । सेसं सुगमं । एवं ताव गाहापढमावयवे पयडिउदीरणाए पडिबद्धत्तं परूविय पुणो बि तत्थेव विसेसपाकिदमिदमार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज रणा और सत्कर्म इसप्रकार इन पाँच भेदोंके जघन्यका जघन्यके साथ और उत्कृष्टका उत्कृष्टके साथ प्रकृतियों, स्थितियों, अनुभागों और प्रदेशोंका अवलम्बन लेकर अल्पवहुस्वकी प्ररूपणा की गई है। इस प्रकार यह चौथी सूत्रगाथाका अर्थ है. यह सिद्ध हुआ। १२. इस प्रकार इन सूत्रगाथाओका अवतार करके अब यहाँ पर प्रथम गाथाका व्याख्यान करते हुए चूर्णिसूत्रकार यह गाथा इस अर्थविशेष प्रतिबद्ध है ऐसा जतलाने के लिये आगेके सूत्रको कहते हैं * उनमेंसे प्रथम गाथा प्रकृति उदीरणा और प्रकृति उदयमें प्रतिबद्ध है । १३. यह सूत्र गतार्थ है, क्योंकि उक्त गाथाओंके उत्थानिकारूप अर्थ की प्ररूपणाके द्वारा ही प्रकृत अर्थका समर्थन कर श्राये हैं। इस प्रकार इस सूत्रके द्वारा प्रथम गाथा प्रकृति उदीरणा और प्रकृति उदयमें प्रतिबद्ध है इस वातका सामान्यसे ज्ञान कराके अब पदच्छेदकी प्रमुखतासे प्रथम गाथाके किस पदमें प्रकृतिउदीरणा प्रतिबद्ध है तथा किस पदमें प्रकृतिउदय प्रतिबद्ध है इस प्रकार इस विशेषता ज्ञान करानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं * 'कदि आवलियं पवेसेदि' यह गाथाका प्रथम पाद प्रकृतिउदीरणामें प्रति ६१४. यहाँ प्रतिबद्ध है इस पदका अधिकारके साथ सम्बन्ध करना चाहिए। शेप कथन सुगम है। इस प्रकार गाथाके प्रथम अवयवमें प्रकृतिउदीरणाकी प्रतिबद्धताका कथन करके फिर भी उसीमें विशेष अर्थका निधारण करने के लिए यह वचन कहा है Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज जयवलासहिदे कसा पाहुडे । [ वेदगो ७ * एवं पुए सुक्तं पडिवोरणाए ६१५. कुदो | कदिसदस्स भेदगरणणप्पयस्स अरणत्थासंभवादो। एतदुक्तं भवति पथ डिउदीरण्ा दुबिहा— मूलपयडिउदीरणा उत्तरपयडिउदीरणा च । उत्तरपर्याडिउदीरणा दुविधा - एगेगुत्तरपय डिउदीरणा पर्याडिङ्काणउदीरणा चेदि । एत्थ पयडिउदीरणाए पडिवद्धमेदं सुतं णाण्णत्थेति । जइ एवं मूलपय डिउदीरणाए एगेगुत्तरपडिउदीरणाए व एत्थ परूवणा ण जुञ्जदे; गाहासुतेण तासिमसंगहियत्तादो ? ण एस दोसो देसमासणारा तेसिं पि तत्थ संगहियत्तादो । * एवं तावद्ववणीयं । १६. एदं पयड | पुदीरणापडिबद्धं सुत्तपदं ताव इवणीयं । किं कारणं ? एगेगपय डिउदीरणाए अपरूविदाए तप्परूवणासंभवादो ! * एगेगपपडिउदीरणा दुविहा--- एगेगमूल पपडिउदीरणा च एगेगुतरपय डिउदीरणा च । १७. एगेगपय डिउदीरणा ताव मूलुत्तरपयडिभेय मिरगा विहासिन्या चि gi हो । * पदापि वे व पत्तेगं बउवीसमणियो गद्दारेहिं मग्गिऊण । हुआ है। * परन्तु यह सूत्र प्रकृतिस्थानउदीरणामें प्रतिबद्ध है । १५. क्योंकि भेदोंकी गणना करनेवाला 'कति' शब्द अनर्थक नहीं हो सकता । तात्पर्य यह है - प्रकृति उदीरणा दो प्रकारकी है - मूल प्रकृति उदीरणा और उत्तर प्रकृति उदीरणा | उत्तर प्रकृति उदीरणा दो प्रकारकी है- एकैकप्रकृतिउदीरणा और प्रकृतिस्थानउदीरणा | इनमेंसे यहाँ पर प्रकृतिस्थानउदीरणा में यह सूत्र प्रतिबद्ध है, अन्यत्र नहीं । शंका- यदि ऐसा है तो मूलप्रकृतिउदीरणा और एकैकप्रकृतिउदीरणा इनकी प्ररूपणा यहाँ पर नहीं बनती, क्योंकि गाथा सूत्र द्वारा उनका संग्रह नहीं किया गया है। समाधान-- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि देशामर्षक न्यायसे उनका भी उसमें संग्रह * परन्तु इसे स्थगित करना चाहिए । ६ १६. प्रकृतिस्थान उदीरणासे सम्बन्ध रखनेवाले इस सूत्र पदको स्थगित करना चाहिए, क्योंकि एकै प्रकृतिउदीरणा की प्ररूपणा किये बिना उसकी प्ररूपणा नहीं हो सकती । * एकै प्रकृतिउदीरणा दो प्रकारकी है— एकैकमूलप्रकृतिउदीरणा और एकैक उत्तरप्रकृतिउदीरणा | १७. मूलप्रकृतियों और उत्तरप्रकृतियोंके भेदसे भेदको प्राप्त हुई एकै प्रकृतिउदीरणा सर्वं प्रक्षम व्याख्यान करने योग्य है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * इन दोनों ही प्रकारकी उदीरणाओं को पृथक् पृथक् चौबीस अनुयोगद्वारों केआपसे अनुमार्गण करके Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२] पालमपडिउटीमधाचप्रमिलाला म्हाराज ११ १८. एदाणि वे वि अहियारवत्थूणि एगेगपयडिपडिनद्धाणि पादेक्कं चउवीसमणियोगद्दारेहि अणुमग्गिऊण तदो पच्छा 'कदि आवलियं पवेसेदि' ति एदस्स सुत्साययवस्स अस्थविहासा कायब्वा, तेसु अविहासिदेसु तस्सावसराभावादो त्ति एसो एदस्त सुत्तस्स भावस्थो । काणि ताणि चवीसमणियोगद्दाराणि त्ति वुत्ते समुकित्तणादीणि अप्पाबहुअपजंताणि । १९. संपहि जहासंभवमेदेहि अणियोगद्दारेहि मुलपयडिउदीरथा एगेगुत्तरपयडिउदीरणा च परूषणदेण सुत्तेण समप्पिदमुच्चारणाबलेण वत्तइस्सामो । तं जहा-उदीरणा चउन्विहा—पयडिउदीरणा द्विदिउदीरणा अणुभागुदीरणा पदेसुदीरणा चेदि । पयडिउदीरणा दुविहा--मूलपयडिउदीरणा च उत्तरपयडिउदीरणा च । मूलपवडिउदीरणाए तत्थेमाणि सत्तारस अणियोगद्दाराणि-समुकित्तणा सादि० अणादि० धुव० अद्भुव० सामित्तं जाव अप्पाबहुगे त्ति । २०. समुकित्तणाणुगमेण दुविहो गिद्देसो-ओपेरण आदेसेण य । ओघेण मोह० अस्थि उदीरगा च अणुदीरगा च । एवं मणुमतिए । प्रादसेण णेरइय० मोह० अस्थि उदीरगा। एवं सब्दणेरइय-सव्यतिरिक्खमणुम्सअपज०-सव्वदेवा ति । एवं जाव० । २१. सादि०-अण्णादि०-धुव०-अद्भुवाणु० दुविहो णि-अोघे० श्रादेसे० ! wrimar १८. एकैक प्रकृतिम सम्बन्ध रखनेवाले इन दोनों ही अधिकारवस्तुओंका पुश्चक् पृथक चौबीस अनुयोगद्वाराके आश्रयसे अनुमागंण करके इसके बाद 'कदि प्रावलियं पवेसेदि इस सूत्राश्ववक अर्थका व्याख्यान करना चाहिए, क्योंकि उक्त दोनों अनुयोगद्वारोंका व्याख्यान किये बिना उक्त सूत्रवचनके व्याख्यानका अवसर नहीं है। इस प्रकार यह इस सूत्रका भावार्थ है । वे चौवीस अनुयोगद्वार कौनसे हैं ऐसा पूछने पर समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पब हुत्व पर्यन्त ये चौबीस अनुयोगद्वार हैं ऐसा कहा है । १६. अब यथासम्भव इन अनुयोगद्वारोंका श्राश्रय लेकर मूलप्रकृतिउदीरणा और एकैकउत्तरप्रकृतिउदीरणाका कथन इस सूत्रसे प्राप्त हुए पुच्चारणाके बलसे बतलाते हैं । यथा-उदीरणा चार प्रकारकी है-प्रकृतिउदीरणा, स्थिति उदारणा अनुभागउदीरणा और प्रदेशउदीरणा। प्रकृति उदीरणा दो प्रकारको है-मूलप्रकृति उदीरणा भौर उत्तरप्रकृति उदीरणा ! मूलप्रति उदीरणाके ये सत्रह अनुयोगद्वार है-समुत्कीर्तना, सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव, और स्वामित्वसे लेकर अल्पबहुत्व तक। ६२०. समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-मोघ और आदेश । भोप्रसे मोहनीयके उदीरक और अनुदीरक जीव हैं । इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयके उदीरक जीव हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यच, मनुष्य अपर्याप्त और सब देवों में जानना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । ६२१. सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुवानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओष Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो श्रोण मोह० उदीरगा किं सादि० ४ ? सादि० अयादि० धुव० अद्भुवा वा । आदे० र ० मोह० उदीर ० किं० सादि० ४१ सादि० श्रद्ध्वा वा । एवं चदुगदीसु | एवं जाव० । २२. सामित्ता० दुविहो णिद्दे० | ओघे० मोह० उदीरणा कस्स ? अणदरस्स सम्माइडि० मिच्छाइट्टिस्स वा । एवं चदुगदीसु । पंचिंदियतिरिक्खपत्र - मरपुसअप ० श्रद्दिसादि । सव्वट्टा त्ति मोह० उदीरणा कस्स० १ अण्णाद० । एवं जाव० । '१२३. काला० दुविहो शि० - ओघे० आदेसे० | ओघेण मोह० उदीरणा केवचिरं कालादो ? तिष्णि भंगा । तत्थ जो सो सादि-सपञ्जवसिदो तस्स जह० अंतोमुडुतं, उक० उघड्ढपोग्गलपरिय । आदेसेण रइय० मोह० उदीर० केव० १ जहर कस्सदि । एवं सव्वरइय० सव्यतिरिक्स ० मणुस अपज ० -सच्चदेवा ति । मरणसतिए मोह० उदीर० जह० एयसमओ उकस्से तिरिय पत्लिदोवमाणि पुष्चकोटि कुत्ते महियागिविविधात्री महाराज और आदेश । श्रधसे मोहनीय कर्मके उद्दारक जीव क्या सादि हैं, अनादि हैं, ध्रुव हैं या अध्रुव हैं ? सादि हैं, अनादि हैं, ध्रुव हैं और अध्रुव हैं। आदेश से नारकियों में मोहनीय कर्मके उदीरक जीव क्या सादि हैं, अनादि हैं, ध्रुव हैं या अध्रुव हैं ? सादि और अध्रुव हैं। इसी प्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक यथायोग्य जान लेना चाहिए। विशेषार्थ -- सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान तक मोहनीयकर्मकी उदीरणा अनादि हैं और सम्यग्दृष्टि जीवके उपशमश्रेणिसे उतरने पर उसकी उदीरणा सादि है। तथा वह अभव्यों की अपेक्षा ध्रुव और भव्यों की अपेक्षा अध्रुव हैं, इसलिए यहाँ पर मोहनीयके उदीरक जीव श्रोघसे अनादि, सादि, ध्रुव और अब कहे गये हैं । किन्तु नरकगति आदि चारों गति मार्गणाऐं सादि और सान्त हैं, इसलिए इनमें मोहनीय कर्मके उदीरकाको सादि और सान्त कहा है। शेष कथन सुगम हैं। २२. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । श्रघसं मोहनीय कर्मी उदीरणा किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि और मिध्यादृष्टि होती है । इसीप्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय निर्यन अपर्याप्त मनुष्य अपर्याप्त और अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें मोहनीय कर्मकी उदीरणा किसके होती है ? अन्यतर होती हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। २३. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश | ओ मोहनी की उदीरणाका किसना काल है ? तीन भंग हैं। उनमेसे जो सादि-यान्न भंग है उसकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल उपार्थ पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। आदेश से नारकियों में मोहनीयकी उदीरणाका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण हैं । इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यन, मनुष्य अपर्याप्त और सब देवोंमें जानना चाहिए। मनुष्यत्रिक मोहनीयकी उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज गाय ६२] मूलपयडिउदीरणाए अणियोगद्दारपरूवणा २४. अंतराणु० दुविहो णि०–ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उदीर ० जह एयसमओ, उक्क० अंतोमु० । मणुसतिए मोह. उदी० जहण्णुक० अंतोमु० | सेसगहमग्गरणासु पत्थि अंतरं, खिरंतरं । एवं जाव। ६ २५. णाणाजीवभंगविचयाणु० दुविहो. णि०-ओषेण आदेसेण य । भोघेण मोह० सिया सव्वे जीवा उदीरया, सिया उदीरया च अणुदीरगो च । सिया उदीरगा च अणुदोरगा च ३ । एवं मणुसतिए । आदेसेण णेरइय० मोह० अस्थि विशेषार्थ—ोघसे मोहनीय कर्मकी उदीरणाके कालके तीन भंग हैं---अनादि-अनन्त अनादि-सान्त और सादि-सान्त । अभव्योंके और अभव्यसमान भव्योंके अनादि-अनन्त भंग होता है। जो भव्य जीव उपशमश्रेणि पर प्रथमबार चढ़ कर उसके अनुदीरक होते हैं उनके अनादि-सान्त भंग होता है। और जो जीव उपशमश्रेरिगसे उतर कर पुनः उसकी उदीरमा करने लगते हैं उनके सादि-सान्त भंग होता है। यतः ऐसा जीव कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक और अधिकसे अधिक कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन काल तक इसका उदोरक हो सकता है, अतः इसका जघन्य काल अन्तर्मुहूसंप्रमाण और उत्कृष्ट काल उपाध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण कहा है। प्रादेशसे चारों गतियों में जो काल कहा है वह स्पष्ट ही है। मात्र मनुष्पत्रिकमें जघन्य काल एक समय उपशमणिमें उतरते समय एक समय उदीरक होकर जो मर कर देव हो जाता है उसकी अपेक्षा कहा है। २४. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश 1 प्रोसे मोहनीय कर्मकी उदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूत है। मनुष्यत्रिकमें मोहनीयको उदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । शेष मार्गणाओं में मोहनीयको उदीरणाका अन्तरकाल नहीं है, वह निरन्तर है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ-जो जीव उपशमश्रेरिण पर चढ़ कर सुमसम्पराय गुणस्थानमें एक श्रावली कालके शेष रहने पर एक समयके लिए अनुदीरक होकर तथा मरकर देव हो जाता है उसके मोहनीयकी उदीरणाका अन्तरकाल एक समय देखा जाता है और जो जीव उपशमश्रेणि पर चढ़ कर सूक्ष्मसाम्परायमें चढ़ते समय एक आवली काल तक तथा उपशान्तगुणस्थानमें चढ़ते और उत्तरते समय अन्तर्मुहूर्त काल तक उसका अनुदीरक रह कर पुनः उसकी उदीरणा करने लगता है उसके उसकी उदीरणाका अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त देखा जाता है । यही कारण है कि यहाँ पर ओघसे मोहनीयकी उदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। यतः श्रोबसे जघन्य अन्तर दो गतियोंके आश्रयसे कहा है जो मनुष्यत्रिकमें नहीं बनता, इसलिए उनमें मोहनीयकी उदीरणाका जयन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। गतिमार्गणाके शेष भेदोंमें उपशमश्रेणिकी प्राप्ति सम्भव नहीं है। इसलिए उनमें मोहनीयकी दीरणाके अन्तरकालका निषेध किया है। अन्य मार्गणाओंमें इस व्याख्यान को ध्यानमें रखकर जहाँ अन्तरकाल सम्भव हो उसे उस प्रकारसे और जहाँ सम्भव न हो उसे उस प्रकारसे घटित कर लेना चाहिए । २५. नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और श्रादेश। ओघसे मोहनीयक्रमके कदाचित् सब जीव उदीरक हैं। कदाचित् नाना जीव उदीरक हैं और एक जाय अनुदीरक है। कदाचित् नाना जीव दीरक हैं और नाना जीव अनुदीरक Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो७ उदीरगा, अणुदीरगा गस्थि | एवं सव्वणेरइय-सव्यतिरिक्त्र-सव्वदेया त्ति । मणुसअपञ्ज० मोह. सिया उदीरगो सिया उदीरगा । एवं जाव० । २६. भागाभागाणु० दुविहो णि-~ोषेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उदी० सन्बजी० केवडियो भागो ? अणंता भागा। अणुदीर० अणंतभागो । मणुसेसु उदीरंगा असनेमभागाआडी मिगसासो हासाघुसपञ्ज -मणुसिणी मोह. उदी० केवडि० ? संखेज्जा भागा। अणुदी० संखेजदिभागो । सेसगइमागणासु पत्थि भागाभागो । एवं जाव० । हैं। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। प्रादेशसे नारकियोंमें मोहनीयके सब जीव उदीरक हैं, अनुदीरक नहीं हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यश्च और सब देवोंमें जानना चाहिये । मनुष्य अपर्यामकोंमें मोहनीयका कदाचित् एक जीव उदीरक है। कदाचित् नाना जीव उद्दीरक हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ-जितने काल तक एक भी जीव श्रेणी पर आरोहण कर एक श्रावलि प्रत्रिष्ट सूक्ष्मसाम्पराय नहीं होता उतने काल तक सब संसारी छमस्थ जीव मोहनीयके उदीरक ही होते हैं, इसलिए तो कदाचित् सब जीव मोहनीयके जदीरक होते हैं यह वचन कहा है । तथा जब नाना जीव श्रेणी पर आरोहण नहीं करते, किन्तु एक जीव उस पर आरोहण कर एक श्रावलि प्रविष्ट सूमसाम्पराय या उपशान्तकपाय हो जाता है, नब नाना जीव मोहनीयके उदीरक और एक जीव अनुदीरक होता है, इसलिए कदाचिन् नाना जीव मोहनीयके उदीरक और एक जीव अनुदीरक होता है यह वचन कहा है। तथा जब नाना जीव श्रेणी पर आरो• हण कर एक श्रावलि प्रविष्ट सूक्ष्मसाम्पराय और उपशान्तकपाय हो जाते हैं तब नाना जीव मोहनीयके उदीरक और अनुदारक दोनों प्रकारके पाये जाते हैं, इसलिए यहाँ पर कदाचित् नाना जीव मोहनीयके उदीरक और नाना जीव मोहनीयके अन्दीरक होते हैं यह वचन कहा है । यह औषप्ररूपणा है जो मनुष्यत्रिकमें भी बन जाती है, इसलिए मनुष्यत्रिकमें श्रोधके समान जाननेकी सूचना की है। इनके सिवा गतिमार्गणाके अन्य जितन भेद हैं उनमें सब जीव मोहनीयके उदीरक ही होते हैं, इसलिए मोहनीयके सब जीव दीरक होते हैं, अनुदीरक नहीं होते यह वचन कहा है । मात्र मनुष्य अपर्याप्त यह सान्तर मार्गणा है। इसमें कदाचित् एक जीव होता है और कदाचित नाना जीव होते है, इसलिए मनुष्य अपर्याप्रकोंमें कदाचिन् एक जीव उदीरक होता है, और कदाचित् नाना जीव दीरक होते हैं यह वचन कहा है। २६. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोष ओर आदेश । आघस मोहनीयके उदीरक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण है ? अनन्त बहुभागप्रमाण हैं। अनुदोरक जीव अनन्तमें भागप्रमाण है। मनुष्यों में उदोरक जीव असंख्यान बहुभागप्रमाण हैं और अनुदारक जींच असंख्यात भागप्रमाण हैं ? मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें मोहनीयके उदीरक जीव कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यात बहुभागप्रमाण हैं तथा अनुदोरक जोव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। शेष गति मार्गणाके भेदॉमें भागाभाग नहीं है। इसी प्रकार अनाहारक .. मागणातक जानना चाहिए। . विशेषार्थ-आगे घिसे और गति मार्गणाके अवान्तर भेदोंमें माहनीयके उदीरकों और अनुदीरकोंके परिमाणका विचार किया है, उससे भागाभागका झान हो जाता है, इसलिए यहाँ पर अलगसे खुलासा नहीं किया है। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२] मूलपयडिउदीरग्याए, अणियोगद्दारपरूवणा २७. परिमाणाणु० दुविहो णि०–ोघेण आदेशेण य । ओघेण मोह. उदी० केत्ति ० १ अणंता । अणुदी केत्ति ? संखेजा। आदेसेण ऐरइय० मोह० उदीर० केनि? असंखेजा। एवं सचणेरइय०-सवपंचिंदियतिरिक्ख०-मणुसअपज०-देवगइदेवा भवणादि जाव अबराइदा ति । मणुसेसु मोह० उदी० केत्ति ? असंखेजा । अणुदी० केत्ति ? संखेजा। मगुसपज०मणुसिणी. मोह. उदी० अणुदी० केत्ति ? संखेजा । सवढे मोह• उदीर० केत्ति० १ संखेजा। तिरिक्वेसु मोह. उदीरंगा केत्तिया ? अर्णता । एवं जाय। २८. खेत्ताण. दुविहो लि.--ओघेण आदेसे। ओवेण मोह० उदी. केव० १ सयलोगे। अणुदी० लोगस्स असंखे भागे । एवं तिरिक्खा । वरि अणुदीरंगा णत्थि' । सेसगइमग्गाणासु मोह. उदीर० लोगस्स असंखे०भागे । मणुसतिए अणुदी० ओघभंगो । एवं जाव० | २९. पोसणाणु० दुविहो णि०-ओघे० आदेसे० । अोघेण मोह ० उदी० सम्मलोगो । अणुदी लोगस्स असंखे भागो । एवं तिरिक्खेसु । रणवरि अणुदी. २५. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और प्रादेश । श्रोबसे मोहनीयके सादरीकलीत्र कित्तात्री निमिरहेंगर अमुंदीशायजीव कितने हैं. १ संख्यान हैं। आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार सत्र नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त और देवगतिमें देव तथा भवनवासियोंसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्योंमें मोहनीयके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। अनुदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात है। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें मोहनीयके लदीरक और अनुदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं. सर्वार्थसिद्धिमै मोहनीयके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात है। तिर्यञ्चाम मोहनीयके उदीरक जीव कितने हैं ? अनन्त है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। २८. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-अोघ और आदेश । श्रोधसे मोहनीयके उदीरक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सब लोक क्षेत्र है। अनुदीरक जीवों। लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। इसीप्रकार तिर्यश्चोंमें जानना चाहिए. 1 इतनी विशेषता है कि इनमें अनुदीरणा नहीं है। गतिमागणाके शेष भेदोंमें मोहनीयके उदीरकोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। मनुष्यत्रिक अनुदीरकोंके क्षेत्रका भंग श्रोध के समान है। इसीप्रकार अनाहरक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ-- आधसे जो क्षेत्र बतलाया है और गतिमार्गणाके अवान्तर भेदोंका जो क्षेत्र है उसे जानकर यहाँ पर मोहनीयके उदीरकोका क्षेत्र जान लेना चाहिए। अनुदीरक श्रेणिमें होते हैं और उनका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है, इसलिए यहाँ पर वह प्रोबसे तत्प्रमाण कहा है। किन्तु ये अनुवीरक जीव मनुष्यत्रिकमें ही होते हैं, इसलिए. इनमें ओघके समान जाननेकी सूचना की है। २६. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है. श्रोष और आदेश । ओघसे मोहनीयके उहीरक जोवाका स्पर्शन सब लोकप्रमाण है। तथा अनुदीरक जीवोंका स्पर्शन लोकके Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ जयधवलास हिदे कसाय पाहुडे [ वेदगो ७ पत्थि | आदेसेण रइय० मोह० उदीर० के० पोसिद ? लोगस्स असंखे० भागो चोभागा वा देणा । एवं सव्वषेरइय० । वरि सगोसणं । पढमाए खेत्तं । सव्वपंचिदियतिरिक्ख - सच्चमस० मोह० उदीर० लोग० असंखे ० भागो सम्बलोगो वा । वरि मणसतिए अगदी ० श्रधभंगो। सव्वदेवेसु उदीर अप्पप्पो पोस दव्वं । एवं जाव० । मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज 110 ६३०. काला० दुविहो गि०- - ओघेण श्रादेसे० । केवचिरं ? सव्वद्धा । अमुदी० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० वरि मरणुसतियं मोत्तास्थापुदीरगा यत्थि । मरपुसअप खुद्दाभवग्गहणं, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । एवं जाव० । श्रघेण मोह - उदीर ० एवं चदुसु गदीसु । मोह० उदी० जह० । P श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है । इसीप्रकार तिर्यों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें श्रनुदरिक जीव नहीं हैं। आदेश से नारकियों में मोहनीयके उदीरक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके चौदह भागों में से कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसीप्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए । प्रथम पृथवीमें क्षेत्र के समान स्पर्शन है। सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यन और सब मनुष्य मोहनीयके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकका स्पर्शन किया है। किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिक अनुदीरकों का स्पर्शन श्रोघके समान है । सब देवोंमें उदीकोंका स्पर्शन अपने अपने स्पर्शनके समान ले जाना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए | विशेषार्थ मोहनीयके अनुदीरक श्रेणिगत जीव होते हैं और उनका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है, इसलिए यहाँ पर से अनुदीरकोंका स्पर्शन तत्प्रमाण बतला कर मनुष्यत्रिमें भी इसे श्रधके समान जाननेकी सूचना की है। श्रोघसे और गतिमार्गण के अवान्तर भेदोंमें जहाँ जो स्पर्शन है उसे ध्यान में रख कर सर्वत्र उदीरकों का स्पर्शन बतलाया है यह स्पष्ट ही है । ३०. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— श्रघ और आदेश । श्रवसे मोहनीयके उदीरकोंका कितना काल है ? सर्वदा है । अनुदीरकोंका जघन्य काल एक समय है। और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिको छोड़कर अन्यत्र अनुदीरणा नहीं है। मनुष्य अपर्याप्तकों में मोहनीयके उदीरकोंका जघन्य काल तुल्लकभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। - विशेषार्थ – नाना जीवों की अपेक्षा भी मोहनीकी अनुदीरणाका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बन जाता है, क्योंकि बहुतसे नाना जीव एक साथ उपशमश्रेणि पर आरोहण करके एक समय के लिए अनुदीरक होकर उदीरक हो जाँय यह भी सम्भव है और लगातार संख्यात समय तक उपशमश्रेणि पर आरोहण करके मरण के बिना वे उपशमश्रेण अन्तर्मुहूर्त काल तक उसके अनुदीरक बने रहें यह भी सम्भव है । यही कारण है कि यहाँ पर घ तथा मनुष्यत्रिककी अपेक्षा मोहनीयके अनुदीरकोंका जघन्य काल एक समय Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ५२] मूलपयडिउदीरणाए अणियोगहारपरूवणा मार्गदर्शकअंतरावा? पिहो लोवे ठहाबादेसे० । ओघेण मोह० उदी० पत्थि अंतरं । अणुदी० जह० एयसमओ, उक. वासपुधत्तं । एवं चदुसु गदीसु । वरि मणुसतियं मोत्तूणएणत्थ अणुदीरगा पत्थि । मणुसअपज० मोह० उदी. जह० एयसमो, उक० पलिदो० असंखे०भागो । एवं जाच० । ६ ३२. भावो सव्वत्थ ओदइओ भावो । ६३३. अप्पाबहुगाणु० दुविहो णि०-ओघे० आदेसे० । ओघेण मोह० सब्बत्योवा अणुदी० । उदीरगा अणंतगुणा | मणुसेसु सब्बत्थो० मोह. अणुदी० । उदीरगा असंखे०गुणा । एवं मणुसपज०-मणुसिणी. | णवरि संखेनगुणा कायच्चा । सेसगदी पत्थि अप्पाबहुअं । एवं जाव । और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। तथा मनुष्य अपर्याप्त यह अन्तर मार्गणा है और उसका जघन्य काल क्षुल्लकभवप्रमाण तथा उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होनेसे इस मागेगामें उदीरकोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल क्रमसे उक्त प्रमाण कहा है। शेष गतिमार्गणाके भेदोंमें उदीरकोंका काल जो सर्वदा कहा है सो वह उन मार्गणाओंके निरन्तर होनेसे ही कहा है। ६३१. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश श्रोषसे मोहनीयके उदीरकका अन्तरकाल नहीं है। अनुदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षवृथक्त्वप्रमाण है। इसी प्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिकको छोड़कर अन्यत्र अनुदीरणा नहीं है। मनुष्य अपर्याप्तकों में मोहनीयके उदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय है. और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गरणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ उपशमश्रेणिमें मोहनीयके अनुदीरक जीव होकर तथा एक समयका अन्तर देकर पुनः दूसरे जीव अनुदीरक हो जावें यह भी सम्भव है और वर्षपृथक्त्वके अन्तरसे अनुदीरक हों यह भी सम्भव है। यही कारण है कि यहाँ श्रोध और मनुष्यत्रिककी अपेक्षा अनुदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण कहा है। मनुष्य अपर्याप्तक सान्तर मार्गणा होनेसे उनका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इनमें मोनीयके उदीरकोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे उक्त कालप्रमाण कहा है। गतिमार्गणाके शेष भेदोंमें अनुदीरक न होकर उदीरक ही होते हैं, इसलिए उनमें उदीरकोंके अन्तरकालका निषेध किया है। ओघसे भी सब या नाना जीव मोहनीयके उदीरक पाये जाते हैं, इसलिए इस अपेक्षासे भी उदीरकोंके अन्तरका निवेध किया है। 5 ३२. भाव सर्वत्र प्रौदयिक होता है। ६३३. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश 1 ओघसे मोहनीयके अनुदीरक जीव सबसे स्तोक है। उदीरक जीव अनन्तगुणे हैं। मनुष्यों में मोहनीयके अनुदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणे करने चाहिए । शेष गतियोंमें अल्पबहुत्व नहीं है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो ७ ३४. उत्तरपयडिउदीरणा दुविहा–एगेगउत्तरपयडिउदीरणा पयडिट्ठाणउदीरणा च । एगेगउत्तरपयडिउदीरणाए तत्थ इमाणि चउवीसमणि प्रोगद्दाराणिसमुकित्तणा जाब अप्पावहुए त्ति । समुकित्तणाणु० दुविहो णि०–ोघे० आदेसे० । ओघेण अद्यावीसपयडीणमस्थि उदीरगा अणुदीरगा च । श्रादेसेण णेरइय० इत्थिवे.. पुरिसये. अणुदीरगा, सेसाणमुदीरगाणुदीरंगा अस्थि । एवरि णबुसय० अणुदी० णस्थि । एवं सधणेरइय० । तिरिक्खाणमोघभंगो। एवं पंचिदियतिरिक्खतिए । णवरि पंचिं०तिरि०प० इथिवे. अणुदी० । जोणिगी० पुरिस०-रणवंस० अणुदी० । इस्थिवे. अणुदी० णस्थि । पंचिंतिरि० अपञ्ज०-मणुसअपञ्ज० सम्म०. सम्मामि०-इस्थि-पुरिसवे. अणुदी० । मिच्छ०-णस० अस्थि उदीरगा, अणुदीरगा णस्थिसिलिमकवाणिोंक प्रास्थामुदारी अखुदीर० । मणुसतिए ओघ । णवरि मणुसपन० इथिवे. अणुदी० । मणुसिणी० पुरिस०-णवंसयवे० अणुदीर० । देवेसु ओघ । णवरि णस० अणुदी० । एवं भवण०-वाणवे०-जोदिसिय-सोहम्मीसाणदेवाणं | सणकुमारादि जाव णवगेवजा सि एवं चेव । णवरि इत्थिवे. अणुदी० । पुरिसके० अणुदी० णत्थि । अणुदिसादि सव्वट्ठा ति मिच्छ०-सम्मामि० अणंताणु०४-इत्थिवे०णस० अणुदी० । सेसाणमस्थि उदीर० अणुदी० । णवरि पुरिसवे० अणुदी० णस्थि । ३४. उत्तरप्रकृति उदीरणा दो प्रकारकी है-एकैकप्रकृति उदीरणा और प्रकृतिस्थान उतीरणा । एकैकप्रकृति उदारणाके विषय में ये चौबीस अनुयोगद्वार होते हैं-समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक | समुहकीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और 'प्रादेश । ओघसे अट्ठाईस प्रकृतियोंके उदीरक और अमुदीरक जीव हैं। प्रादेशसे नारकियोंमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदक्के अनुदीरक जीव है। शेष प्रकृतियोंके उदीरक और अनुदीरक जीव है। किन्तु इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदकी अनुदारणा नहीं है। इसीप्रकार सब नारकियों में जानना चाहिए। तिर्यम्चा में श्रोत्रके समान भंग है। इसीप्रकार पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि पश्चेन्द्रिय तिर्णञ्च पर्याप्तक स्त्रीवेदके अनुदीरक होते हैं तथा योनिनी जीव पुरुषवेद और नपुसकवेदके अनुदीरक होते हैं। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त जीव सायक्त्व, सम्यग्मिथ्याव, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके अनुदीरक होते हैं। मिथ्यात्व और नपुसकवेदके उदीरक होते हैं, अनुदीरक नहीं होते । सोलह कपाय और छह नोकषायोंके उदीरक और अनुदीरक दोनों प्रकारके होते हैं। मनुष्यधिकमें ओघके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्य पर्याप्त खीवेदके अनुदीरक होते हैं तथा मनुष्यनी पुरुषवेद और नसकवेदके अनुदीरक होते हैं। देवोंमें ओघके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि ये नपु'सकवेदके अनुदीरक होते है। इसीप्रकार भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, तथा सौधर्म और ऐशानकल्पके देघोंमें जानना चाहिए । सनत्कुमारसे लेकर नौवेयकतकके देवोंमें इसीप्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि ये स्त्रीवेदके अनुदीरक होते हैं। इनमें पुरुषवेदकी अनुदीरणा नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव मिथ्यान, सभ्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चतुष्क, स्त्रीवेद और नपुसकवेदके अनुदीरक होते हैं। शेष प्रकृतियोंके उदीरक भी होते हैं और अनुदीरक भी होते हैं। इतनी विशेषता है कि ये पुरुषवेदके अनुदीरक नहीं होते । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गावं ६२ ] एवं जात्र० । ३५. सव्बउदीरणोसव्व उदीरणा० श्रोषेण सयाओ पयडीओ उदीरेंतस्स एवं जाव० । उत्तरपयडिउदीरणाए अगियोगारपरूवणा १६ दुविहो णि० - ओघे० आदेसे० । सव्वुदीरणा । तदूणं णोसव्युदीर० । ६३६ मा कराकर नगर सिहे महाराज्योषेण सब्बुकस्सियाओ पडीओ उदीरयंतस्स उक्क उदीरणा । तद्रणमरणुक० उदीरणा । एवं० जाव० ! ६ ३७. जह० उदी० - अज० उदीरणारसु० दुबिहो णि० – ओघेण आदेसे० । श्रोण एवं पर्याडमुदीरयंतस्स जहरणउदीरणा । तदो उवरिमजह० उदीर० । एवं मणुसतिए । देसेण णेरइय० छप्पयडीओ उदीरेमाण० जह० उदी० । तदो उदरि श्रजह० उदीर० । एवं सच्चरइय० सच्चदेवा० । सव्यतिरिक्खेसु पंचपयडीओ उदीरेमाणस जहणउदी० । तदो उयरिमजह० उदीर० । णवरि पंचि ० तिरिक्खअपज ० - मसाप ० अटूपयडीओ उदीरेमाण० जह० उदीर० । तदो उवरि Q प्रकार अनाहारक मार्गातक जानना चाहिए । विशेषार्थ – कुछ अपवादों को छोड़कर साधारण नियम यह है कि जब जिस प्रकृतिका उदय होता है तब उसकी उदीरणा भी होती हैं । इस नियमको ध्यान में रखकर सर्वत्र समुत्कीनाका विचार कर लेना चाहिए । १ ३५. सर्व और नोसर्व उदीरणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - श्रघ और आदेश । श्रधसे सत्र प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेवाले जीवके सर्व उदीरणा होती है तथा उससे कमकी उदीरण करनेवाले जीवके नीसर्व उदीरणा होती हैं। इसीप्रकार अनाहारक मर्गरणा तक जानना चाहिए। ६३६. उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट उदीरणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - श्रोष और आदेश । श्रवसे सबसे उत्कृष्ट प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेवाले जीवके उत्कृष्ट उदीरणा होती है और उससे कम प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेवाले जांब के अनुत्कृष्ट उदीरणा होती हैं । इसीप्रकार अनाहारक मार्गरणा तक जानना चाहिए | ३३७. जघन्य उदीरणा और अजघन्य उदीरणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । श्रघसे एक प्रकृतिका उदीरणा करनेवाले जीवके जघन्य उदीरणा होती है। तथा इससे अधिक प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेवाले जीवके अजघन्य उदीरणा होती है। इसीप्रकार मनुष्यत्रिक में जानना चाहिए। आदेशसे नारकियोंमें छह प्रकृतियोंकी उदीरण करनेवाले जीवके जघन्य उदीरणा होती है और उनसे अधिक प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेवाले जीवके अजघन्य उदीरणा होती है । इसीप्रकार सब नारकी और सब देवोंमें जानना चाहिए। सब तिर्यश्र्चों में पाँच प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेवाले जीवके जघन्य उदीरणा होती है और इनसे अधिक प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेवाले जीवके अजघन्य उदीरणा होती हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि पश्चेन्द्रिय तिर्यन अपर्याप्त और मनुष्य अपर्यातकों में आठ प्रकृ तियोंकी उदीरणा करनेवाले जीवके जघन्य उदीरणा होती है और इनसे अधिक प्रकृतियोंकी Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -.-. ..-- - ----- -- - जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो अजह उदीर० । एवं जाव।। ३८. सादि०-अणादि-धुव०-अधुवाणु० दुविहो णि-ओघे० आदेसेण । ओघेण मिच्छ. उदीर० किं सादि० ४ ? सादिया वा अणादिया वा धुवा वा अद्धवा या । सेसाणं पयडीरगं सादि-अर्बुवाउदीरखाचार्य दिसणारइयजी सधपचडीएं। सादि० अद्भुवा वा । एवं चदुगदीसु । एवं जावः । उदीरणा करनेवाले जीवके अजघन्य उदीरणा होती है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ--ओघसे कमसे कम एक लोभ प्रकृतिकी उदीरणा होती है। यह जघन्य उदीरणा है। अधिकसे अबक एक मिथ्यात्व, सोलह कपायोंमेंसे क्रोध, मान, माया और लोभ जातिकी कोई चार कपाय, हास्य और शोकमेंसे कोई एक, रति और अरतिमेंसे कोई एक, सीनों वेदोंमेंसे कोई एक तथा भय और जुगुप्सा इन दस प्रकृतियोंकी उदीरणा होती है । यह अजघन्य उदीरणा है। मनुष्यत्रिकमें यह प्रोपप्ररूपणा बन जाती है, इसलिए उनमें पोषके समान जाननेकी सूचना की है। नारकियोंमें कमसे कम बारह कषायोंमेंसे क्रोध, मान, माया और लोभ जातिकी कोई तीन कषाय, हास्य और शोकमेंसे कोई एक, रति और अरतिमेंसे कोई एक तथा एक नपुंसकवेद इन छह प्रकृतियोंकी उदीरणा होती है। यह जघन्य प्रकृति उदीरणा है। अधिकसे अधिक ओघके समान दस प्रकृतियोंकी उदीरणा होती है। मात्र इनमें तीनों वेदोंमेंसे एक नपुंसक वेदकी ही उदीरणा होती है। यह अजघन्य प्रकृति उदीरणा है । नारकियोंके समान सामान्य देवोंमें और ऐशान कल्प तकके देवोंमें व्यवस्था बन जाती है, इसलिए उनमें नारकियोंके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र इनमें स्त्रीवेट और पुरुषवेद इनमेंसे कोई एक वेदकी उदीरणा कहनी चाहिए, क्योंकि देवोंमें नपुंसकवेदकी उदीरणा नहीं होती। आगे नौ प्रैवेयकतकके देवोंमें अन्य सब कथन पूर्वोक्त प्रमाण है। मात्र इनमें एक पुरुषवेदकी ही उदीरणा कहनी चाहिए। तथा नौ अनुदिशादिकमें कमसे कम छह और अधिकसे अधिक नो प्रकृतियोंकी उदीरणा होती है। तिर्यञ्चोंमें पश्चम गुणस्थानकी प्राप्ति सम्भव होनेसे कमसे कम पाँच और अधिकसे अधिक दस प्रकृतियोंकी उदीरणा सम्भव है। तथा पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में एक मिथ्यात्य गुणस्थान सम्भव होनेसे कमसे कम आठ और अधिकसे अधिक दस प्रकृतियोंकी उदीरणा सम्भव है। सर्वत्र अजवन्य उदीरणाके जो अन्य विकल्प सम्भव है वे यथायोग्य लगा लेना चाहिए। यह जघन्य और अजघन्यकी अपेक्षा व्याख्यान है। यही व्याख्यान उत्कृष्ट अनुत्कृष्टकी अपेक्षासे भी जान लेना चाहिए। मात्र सर्वत्र सबसे अधिक प्रकृतियोंकी उदारणा उत्कृष्ट प्रकृति उदीरणा है और उनसे कम प्रकृतियोंकी उदीरणा अनुत्कृष्ट प्रकृति उदारणा है इस व्याख्यानके अनुसार यह कथन करना चाहिए। सर्वप्रकृति उदारणा और नोसर्वप्रकृति उदीरणाका खुलासा भी इसीप्रकार घटित कर लेना चाहिए। ६३८. सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुवानुगमकी 'अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश। ओचसे मिध्यात्वके उदीरक क्या सादि, अनादि, ध्रव या अध्रुव है ? सावि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव है। शेप प्रकृतियोंकी सादि और अध्रुव उदारणा है। आदेशसे नारकियोंमें सब प्रकृतियोंकी सादि और अध्रुव उदीरणा है। इसीप्रकार चारों गतियों में जानना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२] उत्तरपयडिउदीरणाए अणिोगदारपरूवणा ३९. सामिसाणु० दुविहो णि-ओषे० आदेसे० । श्रोषेण मिच्छ.. सम्म०-सम्मामि० उदीर० करस अराणदाय मिच्छाहाहस्सर सम्माइंटिस्स सम्मामिच्याइद्विस्स । अणंताणु०४ उदीर० कस्स ? अण्णद० मिच्छाइद्वि० सासणसम्माइद्विस्स वा ! बारसक०-णवणोक. उदीरणा कस्स ? अण्णद० मिच्छाइट्ठि० सम्माइद्विस्स वा। आदेसेण णेरइय० ओघ । णवरि इथिवे०-पुरिसवे. पत्थि उदीर० । एवं सन्धणेरड्य० । 'तिरिक्खेसु अोघं । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिए। णपरि पंचिंदियतिरिक्खपञ्ज० इथिवेद उदीरणा पत्थि । जोणिणीसु पुरिसवे०-ण_सय उदीरणा णस्थि । पंचिंतिरि०अपज.-मणसअपज्ज. चउवीसंपयडीएं उदीर० कस्स ? अण्णद० । मणुसतिए पंचिंतिरिक्खतियभंगो । देवेसु ओघं । णवरि गवंस उदीर० णस्थि । एवं भवण-वाणवें०-जोदिसि० सोहम्मीसाण | मणक्कुमारादि जाव गवगेवज्जा ति एवं चेव । णवरि इस्थिवे. उदीरणा पत्थि । अणुदिसादि सबट्ठा त्ति चीसएहं पयडीणमुदीरणा कस्स ? अण्णद० । एवं जाव।। विशेषार्थ-मिथ्यात्व प्रकृतिकी उदीरणा मिथ्यात्व गुणस्थानमें निरन्तर होती रहती है, इसलिए ओघसे भव्य और अभव्य दोनोंकी अपेक्षा इतकी उदारणाके सादि श्रादि चारों भंग बन जाते हैं। किन्तु अन्य प्रकृतियोंकी उदीरणा अपने अपने उदयानुसार कादाचित्क है, इसलिए उनकी उदीरणाके सादि और अध्रुव ये दो ही भंग बनते हैं। यह प्रोघनरूपणा है। गति आदि मार्गणारे प्रत्येक जीवकी अपेक्षा काहाचित्क हैं, इसलिए इनमें सब प्रकृतियोंकी उदीरणा सादि और अध्रुव ही है। ३९. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है--श्रीध और आदेश । श्रोषसे मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उदारणा किसके हाती है ? अन्यतर मिथ्याष्टि, सभ्यष्टि और सम्यग्मियादृष्टिके होती है। 'अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उदीरणा किसके होती है ? अन्यतर मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टिके होती है। बारह कयाय और नौ नोकपायोंकी उदीरणा किसके होती है ? अन्यतर मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टिके होती है। आदेशसे नारकियोंमें ओघके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उदारणा नहीं होती। इसी प्रकार सब नारकियों में जानना चाहिए। तियश्चों में श्रोधके समान भङ्ग है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि पश्चेन्द्रिय तियेच पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेदकी उदारणा नहीं होती। तथा योनिनी तिर्यञ्चों में पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी उदीरणा नहीं होती। पञ्चन्द्रिय तियश्च अपयाप्त और मनुष्य 'अपयानका चौबीस प्रकृतियोंकी उदीरणा किसके होती है ? अन्यतरके होती है। मनुष्यन्त्रिकमें पञ्चेन्द्रिय तिर्याचत्रिकके समान भङ्ग है । देवोंमें ओरके समान भङ्ग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें नपुसकवेदकी उदीरणा नहीं है। इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी सौधर्म और ऐशानदेवोंमें जानना चाहिए । तथा सनत्कुमारसे लेकर नौ ग्रेवेयक तकके देवामें इसी प्रकार जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेपता है कि इनमें स्लोवेदकी उदीरणा नहीं होती। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें बीस प्रकृतियोंकी उदीरणा किसके होती है ? अन्यतरके होती है। इसीप्रकार अनाहारक मागणातक जानना चाहिए । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधरलासहिदे कसायपाहुरे [वेदगो ४०. कालाणु० दुविहो णि०–ोषेण आदेसे० । ओषेण मिच्छ०उदीर० फेवचिरं ? तिरिण भंगा । तत्थ जो सो सादियो सपज्जवसिदो तस्स इमो०-जह. अंतोमु०, उक० अद्धपोग्गल० देसू० । सम्म० उदीर० जहः अंतोमु०, उक्क० छावहिसागरोतमाणि प्रावलिजणाणि । सम्मामि० ज० उक्क. अंतोमु० । सोलसक०-भय-दुगुंछ० जह• एयस०, उक्क. अंतोमु० | हस्स-रदि० जह. एयसमओ, उक्क० छम्मासा । अरदि-सोग० जह० एयस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि । इस्थिवे. जह० एयस०, उक्क० पलिदोवमसदपुधत्तं । पुरिसवे. जह० अंतोमु०, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । णवूस. जह, एयस०, उक्क० अणंतकालमसंखज्जाविग्गिलपरियईली सुविधिसागर जी म्हाराज ६४१. श्रादेसेण णेरड्य० मिच्छ. उदी. जह• अंतोमु०, णस. जह. दसवस्ससहस्साणि, अरदि०-सोग०जह एयस, उक्क० सव्यसि तेत्तीसं सागरोवमं । सम्म जह० एप०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । सम्माम्मि० श्रोधं । विशेपार्थ---पश्चेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सम्यक्त्व, सम्य मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके बिना चौबीस प्रकृतियोंकी उदीरणा सम्भव है। तथा अनुदिशादिकमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चतुष्क नपुसकवेद और स्त्रीवेदके बिना बीस प्रकृतियोंकी जदीरणा सम्भव है। शेष कथन सुगम है। ४०. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । श्रोधसे मिथ्यात्वके उदीरकका कितना काल है ? तीन भङ्ग हैं। उनमेंसे जो सादि-सान्त भंग है उसका यह निर्देश है-जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल उपाधं पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। सम्यक्त्वके उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पक पात्रलि कम छयासठ सागर है। सम्यग्मिथ्यात्वके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूत है । सोलह कषाय, भय और जुगुप्साके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । हास्य और रतिके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल छह महीना है। अरति और शोकके उदीरकका जघन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। स्त्रीवेदके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पृथक्त्व सौ पल्य प्रमाण है। पुरुषवेदके उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पथक्त्व सौ सागर प्रमाण है। नपुसकवेदके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है।। विशेषार्थ-प्रत्येक प्रकृतिका जो जघन्य और उत्कृष्ट उदय काल है वहीं यहाँ लिया गया है। श्ररति-शोकके उदीरकका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागर है । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका एक समय काल उपशम श्रेणिसे गिरकर मरने की अपेक्षा है । अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें भय जुगुप्साका एक समयके लिये वेदक होकर अनन्तर समयमें अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके प्राप्त होनेपर उक्त प्रकृतियोंकी उदीरणा व्युच्छित्ति देखी जाती है। ६४१. श्रादेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्वके उद्दीरकका जघन्य काल अन्तमुहर्त है, नपुसकवेदके उदीरकका जघन्य काल दश हार वर्ष है, अरति और शोकके उनीरकका जन्य काल एक समय है तथा सबका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। सम्यक्त्वके उदीरकका जघन्य काल Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ K गा०६२] उत्तरपयविउदारणाए अणियोगदारपरूवणा सोलसक०-हस्स-रदि०-भय-दुगुंछा० जह० एयस०, उक्क० अंतीमु० । एवं सत्तमाए । णयरि रणधुस० जह० चाचीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । सम्म० जह• अंतोमु० । पढमाए जाव छट्टि त्ति णारयभंगो । रणवरि सगदिदी । अरदि-सोग. जह• एयस०, उपक. अंतोमु० । णबुंस. जहण्णुक्कस्सद्विदी। विदियादि जाव छट्टि त्ति सम्म जह० अंतोमु०, उक्क० सगटिदी देरणा । मार्गदर्श४२ अतिस्पिखेसुमिछलामाणसंस्कटलह खुद्दाभव०, उक्क० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । सम्म. उदीर० जहा एगस०, उक्क. तिष्णि पलिदोवमाणि देखणाणि । सम्मामि० ओघं । सोलसक पणोक० जह० एयस०, उक्क. अंतीमु० । इथिवेल-पुरिसके. जह. अंतोमु०, उक्क तिशिण पलिदो० पुनकोडिपुधत्तेणब्भहियारिण | एवं पंचिंदियतिरिक्खतिए । वरि मिच्छ० जह० एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। सम्यग्मिध्यात्वका भंग ओघके समान है। सोलह कषाय, हास्य, रति, भय और झुगुप्साके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है। इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि नपुसकवेदके उदीरकका जघन्य काल साधिक बाईम सागर है तथा सम्यक्त के उदोरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। पहिली पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियोंमें सामान्य नारकियों के समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अपनी स्थिति कहनी चाहिए। तथा अरति और शोकके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। नपुसकवेदके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। दूसरीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियोंमें सम्यक्त्वके उदीरकका जवन्य काल अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। विशेषार्थ-सायिक सम्यक्त्वके सन्मुख वेदक सम्यग्दृष्टि जीव भी मर कर प्रथम नरकमें उत्पन्न होता है इसलिए इसमें सम्यक्त्वकी उदीरणाका एक समय काल बन जाता है और इसी अपेक्षासे सामान्य नारकियोमें सम्यक्त्वकी जदीरणाका एक समय काल कहा है। नारकियोंमें हास्य और रतिकी उदोरणाका उत्कृष्ट काल छह महीना देवोंमें ही घटित होता है। अन्यत्र बह अन्तर्मुहूर्त ही बनता है, इसलिप नारकियोंमें भी वह अन्तर्मुहर्त ही कहा है । परति और शोककी उदीरणाका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर सातवें नरकमें ही बनता है। अन्यत्र वह अन्तर्मुहर्त ही प्राम होता है। यही कारण है कि सामान्य नारकियोंमें और सातवे नरकमें तेतीस सागर कहा है तथा शेप नरकोंमें अन्तर्मुहूर्त बतलाया है । शेष कथन सुगम है । ६४२. तिचोंमें मिथ्यात्व और नपुसकवेदके उदीरकका जघन्य काल तुल्लकभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट अनन्त कालप्रमाण है. जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनके बराबर है। A सम्यक्त्वकी उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है। सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। सोलह कषाय और छह नोकपायोंके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । स्त्रीवेद और पुरुषवेदके उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पूर्व कोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। इसीप्रकार पञ्चेन्द्रिय तियचत्रिकमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें मिथ्यात्वके Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो खुद्दाभव० अंतोमु०, उक्क. सगढिदी । णस० जह० खुद्दाभव० अंतोमु०, उक्क० पलिदोवमाणि पुव्यकोडिपुधत्तेणमहियाणि । णरि पंचिं तिरि पन्ज० इस्थिवेद० णत्थि । जोगिणी० पुरिस०-गस० गायि सम्मअजह अंतामुक्कली तिग्ण पलिदो० देसणाणि । पंचिंतिरि०अपज्ज०-मणुसअपज्ज० मिच्छ०-णस० जह खुद्दाभव०, उक्क अंतीमु० । सोलसक०-छएणोक तिरिक्खोघं । ४३. मणुसेसु पंचिंतिरिक्खभंगो। णवरि सम्म० जह० अंतोमु० । तिण्णिवे० जह० एयसः । एवं मणुसपज्ज० । वरि सम्म० ज० एयसः । इत्थिवे० गस्थि । मिच्छ० जह• अंतोमु० । मणुसिणी. मणुसोघं । णवरि मिच्छ० जह० अंतोमु० । पुरिस-णस० णस्थि । उदीरकका जघन्य काल सामान्य पञ्चेन्द्रिय तिर्वाञ्चोंमें क्षुल्लकभवग्रहणप्रमाण और शेष दो में अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट काल अपनी अपनी कास्थितिप्रमाण है। नपुसकवेदके उदीरकका जबन्य काल पञ्चेन्द्रिय तियोमबाम तुम्बकमवग्रहणप्रमाण और शेपमें अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है तथा उत्कृष्ट काल पूर्व कोटिपृथक्त्य है। किन्तु इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्तकों में खीवेदकी उदीरणा नहीं है तथा योनिनी तिर्यश्लोंमें पुरुषवेद और नपुसकवेदकी उदीरणा नहीं है । सम्यक्त्वके उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त हैं और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है। पञ्चेन्द्रिय तियांश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकाम मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके उदीरकका जघन्य काल क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । सोलह कपाय और छह मोकपायोंका भंग सामान्य तिगेडचोंके समान है। विशेषार्थ-ज्ञायिकसम्यक्त्वके सन्मुख क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव मर कर योनिनी तिर्यलोंमें नहीं उत्पन्न होते, इसलिए उनमें सम्यक्त्वके उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य कहा है । तथा नपुसकवेदकी उदीरणा और उदय भोगभूमिमें नहीं होता, इसलिए इसके उदीरक तिर्यश्चोंका उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्वप्रमाण कहा है। शेप कथन सुगम है। ४३. मनुष्यों में पचेन्द्रिय तिर्याम्चोंके समान भंग है। किन्त इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वके उदोरकका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है । तथा तीनों वेदोंके उदीरकका जघन्य काल एक समय है। इसीप्रकार मनुष्य पर्याप्तकोंमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्व के उदीरकका जघन्य काल एक समय है। इनमें स्त्रीवेदकी उदीरणा नहीं है । तथा मिथ्यात्वके उदीरकका जवन्य काल अन्तमुहूर्त है। मनुष्यनियों में सामान्य मनुष्योंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके उदीरकका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है। तथा इनमें पुरुषवेद और नपुसकवेदकी उतीरणा नहीं होती। विशेषार्थ_पहले पञ्चेन्द्रिय तिर्वाञ्चोंमें सम्यक्त्वके उदरीकका जघन्य काल एक समय कह पाये हैं, इसलिए यहाँ सामान्य मनुष्योंमें उसका निषेध करके वह अन्तर्मुहर्त बतलाया है। वैसे मनुष्य पर्याप्तकोंमें यह काल एक समय बन जाता है, क्योंकि जिसने पहले मनुष्यायुका बन्ध किया है ऐसा मनुयिनी जीव यदि क्षायिक सम्यक्त्त्रको उत्पन्न करता हुश्रा सम्यक्त्वकी उदीरणा में एक समय शेष रहने पर मर कर यदि पर्याप्त मनुष्योंमें उत्पन्न होता है तो उसके सम्यक्त्वकी Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपडिउदीरणा अशिश्रोगहारपरूवणा २५ १४४. देवेसु मिच्य० जह० अंतोमु०, उक्क० एक्कतीसं सागरोवमं । सम्म० जह० एयस०, उक्क तेत्तीसं सागरोवमं । सम्मामि० - सोलसक० -अरदि-सोगमय दुगु० तिरिक्खोवं । इस्सरइ० श्रधं । इत्थवे ० जह० दसवस्ससहस्साणि, उक्क० परणवरणपलिदो० । पुरिस० जह० दसवस्ससहस्सा णि, उक्क० तेत्तीसं सागरो० | भवरणादि जाव वगेवा समितीपिठाक० सगट्टिदी | पुरिस० जह० जह० उक्क० हिंदी । सम्मामि० सोलसक० छष्णोक० तिरिक्खोघं । णवरि भवरण० वाणवें जो दिसि० सम्म० जह० अंतोमु०, उक्क० सगट्टिदी देणा । इत्थवे ० जह० दसवस्ससहस्साणि दसवस्ससह ० पलिदो० अट्टमभागो, उक्क ० तिरिण पलिदो ० पलिदोव० सादिरेयाणि पत्तिदोब० सादिरे ० | सोहम्मीसारय ० इथिवे ० जह० पलिदो ० सादिरे०, उक्क० परणवणं पलिदोवमारिण । सदर - सहस्सार० इस्स - रद्द ० देवोधं । अद्दिसादि सबडा त्ति सम्म० जह० एयस०, उक्क० सगहिदी । बारसक० 0 उदीरणाका जघन्य काल एक समय बन जाता है । परन्तु ऐसा होने पर भी सामान्य मनुष्यों में इसकी उदीरणाका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त ही बनता है। यही कारण है कि यहाँ पर सामान्य मनुष्यों में सम्यक्त्वके उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त बतलाया है । सामान्य मनुष्यों में तीनों arihaatraar aन्य काल एक समय उपशमश्रेणिमें एक समय तक उस उस वेदकी उदीरणा करा कर मरणकी अपेक्षा कहा है । पीत मनुष्यों में पुरुषवेद और नपुंसकवेद के उदीरकका तथा मनुष्यनियों में स्त्रीवेद के उदीरकका जवन्य काल एक समय इसीप्रकार घटित कर लेना चाहिए। शेष कथन सुगम है । I $ ४४. देवोंमें मिथ्यात्यके उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल इकतीस सागर है । सम्यक्त्वके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कपाय, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका भंग सामान्य तिर्यों के समान है । हास्य और रतिका भंग ओघके समान है। स्त्रीवेदके उदीरकका जघन्य काल दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट काल पचवन पल्य है । पुरुषवेदके उदीरकका जघन्य काल दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । भवनवासियोंसे लेकर नौ प्रैवेयक तक के देवोंमें मिथ्यात्व और सम्यक्त्वके उदीरकका जघन्य काल क्रससे अन्नमुहूर्त और एक समय है। तथा उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है । पुरुषवेदके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायों के aatraar भंग सामान्य तिर्यंचोंके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में सम्यक्त्वके उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त हैं और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। बीके उदरकका जघन्य काल क्रमसे दस हजार वर्ष, दस हजार वर्ष और पल्के आठवें भागप्रमाण हैं तथा उत्कृष्ट काल तीन पल्य, साधिक एक पल्य और साधिक एक पल्य है। सौधर्म और ऐशान कल्पमें स्त्रीवेदके उदीरकका जघन्य काल साधिक एक पल्य और उत्कृष्ट काल पचवन पल्य है । शतार और सहसार कल्प में हास्य और रतिके उदीरकका काल सामान्य देवोंके समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवों में सम्यक्त्व के उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है । ४ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vwww.MARA. जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो ७ छएणोक० जह• एगस०, उक्क० अंतोमु । पुरिसवेद० जहएणुकस्सहिदी । एवं जाव। ४५. अंतराणु० दुविहो णि--ोघेण श्रादेसे । ओघेण मिच्छ. उदीर० अंतरं जह० अंतोमु०, उक्क० बेलाबहिसागरो० देखणाणि । सम्म०-सम्मामि० जह० अंतोमु०, उक्क० अद्धपोग्गल० देसूणाणि । अणंताणु०चउक० जह० एयस०, उक० वेछावद्विसागरो० देसूणाणि । अट्टक. जह० एयसमओ, उक. पुष्वकोडी देसूणा । चदुसंज-मय-दुगुंछ, जह० एयस०, उक. अंतोमु । हस्स-रदि० जह० एयस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि । अरदि-सोग. जह• एयस०, उक० छम्मासा । इथिके-पुरिसवे० जह• अंतोमु० एगस०, उक्क० अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरिया । णवंस० जह• अंतोमु०, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । घारह कषाय और छह नोकपायोंके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। पुरुषवेदके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल अपनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ---भवनत्रिकमें क्षायिक सम्यक्त्वके सन्मुख वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंकी उत्पत्ति नहीं होती, इसलिए उनमें सम्यक्त्वकै उदारकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । किन्तु अन्यत्र ऐसे जीवकी उत्पत्ति होती है, इसलिए सामान्य देवोंमें और सौधर्म कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्वके उदीरकका जवन्य काल एक समय बन जानेसे वह तत्प्रमाण कहा है। हास्य और रतिके उदीरकका ओघसे जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छह महीना पहले बतला आये हैं। यह काल सामान्यसे देवोंमें प्राप्त होकर भी वह शतार और सहस्रार कल्पमें ही प्राप्त होता है, अन्यत्र नहीं। इसलिए यहाँ पर सामान्य देवोंमें बह काल ओरके समान यतला कर शतार और सहस्रार कल्पमें उक्त अर्थको फलित करनेके लिए. उसे सामान्य देवोंके समान जाननेकी सूचना को है। शेष कथन सुगम है। ४५. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्वके उदीरकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागर है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उदीरकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहते है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके उदीरकका जघन्य अन्तर एक समय है, और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागर हैं। आठ कषायोंके उदीरकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। चार संज्वलन, भय और जुगुप्साके उदीरकका जघन्य अन्तर एक समय है. और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। हास्य और रतिके उदीरकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। अरवि और शोकके उदीरकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदके उदीरकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । नपुंसकवेदके उदीरकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागरपृथक्त्वप्रमाण है। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिउदीरणाए अणियोगहार परूवणा ०-भय $ ४६. आदेसेण खेरइय० मिच्छ० सम्म० सम्मामि अता ०४-इस्स-रदि० जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूरणाणि । बारसक० - अरदि- सोग०-३ दुध० जह० उक० अंतोमु० । स ० पत्थि अंतरं । एवं सत्तमाए । एवं पढमाए rasa | वरि सगट्टिदी देखणा | हस्स र दि० जहएणुक० तो ० । २७ २. विशेषार्थ - मिध्यात्व गुणस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट जो अन्तरकाल बतलाया है वहीं यहाँ मिध्यात्व उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल लिया गया है। तथा सम्यदर्शनका जघन्य और उत्कृष्ट जो अन्तरकाल है वहीं यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मियात्यके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल लिया गया है। इसीप्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्क आदि कषायों के उदीरकका यथायोग्य उरकत कर लेना चाहिए। मात्र इनके aaraar avय अन्तरकालासमय अहवाल यात्येिक कपायकी तनुगत उदीरणा कारण विशेषसे कमसे कम एक समय तक देखी जाती है। किसी जीव के भय और जुगुप्साकी उदीरणा कमसे कम एक समय तक और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक न हो यह सम्भव है, इसलिए इनके उदीरकका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। आगे जो हास्य, रति, अरति और शोकके उदीरकका जघन्य अन्तर एक समय कहा है वह अपनी सप्रतिपक्ष प्रकृतिकी उदीरणा कमसे कम एक समय तक सम्भव होनेसे कहा है । मात्र सातवें नरकमें निरन्तर अरति और शोकका उदय रहता है। तथा वहाँ जानेके पूर्व भी अन्तर्मुहूर्त काल तक इनका उदय रहता हैं, इसलिए तो हास्य और रतिके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर कहा है और शतार- सहस्रार कल्पमें हास्य और रतिका उत्कृष्ट उदय छह महीना तक सम्भव है, इसलिए अरति और शोकके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तर छह माह कहा है। स्त्रीवेद और पुरुपवेदका उदय तिर्यों में अनन्तकाल तक न हो यह सम्भव है। तथा इसीप्रकार जो जीव सौ सागर पृथक्त्व कालतक पुरुषवेदी है उसके उतने कालतक नपुंसकवेदी उदीरणा नहीं होगी यह भी सम्भव है. इस लिए तो स्त्रीवेद और पुरुषवेदके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल और नपुंसक वेद के उड़ीरकका उत्कृष्ट अन्तर सौ सागरपृथक्त्वयमाण कहा है। तथा स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी अनुदीरणा कमसे कम अन्तर्मुहूर्त कालतक न हो यह भी सम्भव है, क्योंकि एक तो प्रतिपक्ष वेदका वेदन करनेवाले जीवके इन वेदोंकी उदीरणा नहीं होती। दूसरे उपशमश्रेणि में भी इनकी उदीरणाका अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त से कम नहीं बनता, क्योंकि जो इन वेदोंके उदयसे उपशमश्रेणि पर चढ़ता है उसके इनकी अनुदीरणा होकर पुनः उदीरणा होने में अन्तर्मुहूर्तसे कम काल नहीं लगता, इसलिए इनके उदीरकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। किन्तु पुरुषवेदके विषय में यह बात नहीं है, क्योंकि उपशमश्रेणि में इसकी अनुदीरणा होनेपर एक समय तक ही वह इसका अदरक रहे और दूसरे समय में मर कर उसके देव हो जानेपर पुनः पुरुषवेदका उदीरक हो जाय यह सम्भव है, इसलिए इसके उदीरकका जघन्य अन्तर एक समय कहा है । ४६. आदेश से नारकियोंमें मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व अनन्तानुबन्धीचतुष्क, हास्य और रतिके उदीरकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त हैं और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। बारह कषाय, अरति, शोक, भय और जुगुप्साके उदीरकका जवन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त हैं। नपुंसकयेद के उदीरकका अन्तरकाल नहीं हूँ । इसीप्रकार सातवीं पृथिवी में जानना चाहिए । इसीप्रकार पहली पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तक जानना चाहिए। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक : अपायरी महाराज D [ वेदगो ७ ४७. तिरिक्वेसु मिच्छ० अणंतापु०४ जह० तोमु०, उक० तिरिण पक्षिदोषमाणि देखणाणि । सम्म० सम्मामि० ओघं । अपच्चक्खाणच उक्क० जह० अंतोनु०, उक्क० पुव्यकोडी देणा । श्रदृक० दराणोक० जह० उक० अंतोमु० । इत्थवे ० - पुरिस० जह० खुद्दाभव०, उक० अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । एस० जह० अंतोमु० उ० पुञ्चकोडिषुधत्तं । एवं पंचिंदियतिरिक्खाणं० । 0 , वरि सम्म० सम्मामि० जह० अंतीमु०, उक० तिरिए पलिदोवमाणि पुल्चकोडिधत्ते महियाणि । इत्थवेद - पुरिस० जह० खुद्दाभव०, उक्क० पुञ्चकोडिषुधत्तं । एवं पंचि० तिरि० पज्ज० | गवरि इस्थिवे० पत्थि । पुरिस० जह० अंतोमु० । जोगिणी - पंचिदियतिरिक्खभंगी । एवरि सर्वस० पुरिस० णत्थि । इत्थवे ० णत्थि अंतरं । पंचि०तिरि ० अपज ० - मरणुराश्चपञ्ज० मिच्छाधुंस० पस्थि अंतरं । सोलसक०छण्णोक० जह० उक० अंतोसु० । मणुसतिए पंचिदियतिरिक्खतियभंगो । वरि २८ किन्तु इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। तथा इन नरकोंमें हास्य और रतिके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ --- नरक में रति, शोक, भय और जुगुप्साका वेदक जीव अवेदक होकर पुनः अन्तर्मुहूर्त काल के पहले उनका बेदक नहीं होता, इसलिए इनके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। यहाँ इतना विशेष समझना चाहिए कि रति और शोकका अवेदक होनेपर ऐसा जीव हास्य और रतिका अन्तर्मुहूर्त कालतक नियमसे वेदन करता है । ४७. तिर्यश्वों में मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके उदीरकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग के समान है । अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कके उदीरकका जघन्य श्रन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। आठ कषाय और छह नोकषायोंके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । स्त्रीवेद और पुरुषवेदके उदीरकका जन्य अन्तर क्षुल्लक भव ग्रहणप्रमाण हैं और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुहल परिवर्तनप्रमाण हैं । नपुंसकवेदके उदीरकका अन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। इसीप्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्जके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्या और सम्यग्मिथ्यात्व के उदीरकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है । स्त्रीवेद और पुरुपवेद के उदीरकका जघन्य अन्तर तुल्लकभवग्रह प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है। इसीप्रकार पोन्द्रियतिर्थव पर्यातकों के जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेदकी उदीरणा नहीं है । तथा पुरुषवेद के उदीरकका जवन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त हैं। योनिनी तिर्यञ्चों में पञ्चेन्द्रियतिर्योंके समान भंग है । किंतु इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसक वेद और पुरुषवेदकी उदीरणा नहीं होती । तथा स्त्रवेदी उदीरणाका अन्तरकाल नहीं हैं । पञ्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मिध्यात्व और नपुंसकवेदके उदीरकका अन्तरकाल नहीं है । सोलह कषाय और छह नोकषायों के उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। मनुष्य त्रिकमें Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाय ६२] उत्तरपयडिउदीरणाए अणियोगहारपरूवणा ____ २९ पच्चक्खाण०४ अपञ्चक्खाणभंगो । मणुसिणी० इथिवे. जह० उक्त • अंतोमुहुत्तं । ४८. देवेसु मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु०४ जह• अंतोमु०, उक्त एकत्तीसं सागरोवमाणि देसूरणाणि । बारसक०-हस्स-रदि-भय-दुगुंछ० जह० उक्क० अंतोमु० ! अरदि-सोग० जह० अंतोमु०, उक्क० लम्मासा । इत्थिवे०-परिस० स्थि अंतरं । भवणादि जाव णबगेवजा ति एवं चेव । वरि सगहिदी देमूणा । अरदिसोग० जह० उक० अंतोमु । सदर-सहस्सार. अरदि-सोग० देवोघं । सणक्कुमारादि जाव णवमेवजा ति इस्थिवेदो णस्थि । अणुद्दिसादि जाव सबट्ठा ति सम्म०-पुरिस. पत्थि अंतरं । बारसक०-छएणोक० जह, उक० अंतोमुहुर्त । एवं० जाव० । ४९. सएिणयासाणु० दुविहो णि.-ओघे० प्रादेसे० । ओघेण मिच्छत्तमुदीरतो सोलसक०-णवणोक० सिया उदीर० सिया अणुदीर० । सम्मत्त मुदीरतो वारसक०-णवणोक० सो उदीर असर्या अणुरिष्टालाएवं सम्मामिट । अणंताणु.. कोधमुदीरतो तिण्हं कोधाणं णिय० उदीर० । मिच्छ०-णवणोक० सिया उदीर० । एवं तिएहं कसायाणं । अपचक्खाणकोहमुदीरेंतो दोण्हं कोहाणं णिय. उदीर० । पझेन्द्रियतियश्चत्रिकके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें प्रत्याख्यानावरणचतुष्कका भंग अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कके समान है। तथा मनुज्यिनिया स्त्रीवेदके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। ६४८. देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके उदीरकका जघन्य अन्तर अन्तमुहूतं है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। यारह कषाय, हास्य, रति, भय और जुगुप्साके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अरति और शोकके उदीरकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदके उदीरकका अन्तरकाल नहीं है। भवनवासियोंसे लेकर नौ अवेयक तक के देवा में इसीप्रकार जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी स्थिति कहनी चाहिए । तथा इनमें अरति और शोकके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । शतार और सहलारमें अरति और शोकके उदीरकका अन्तरकाल सामान्य देवोंके समान है। सनत्कुमारसे लेकर नौ प्रेवेयक तक्रके देवों में स्त्रीवेदकी उदीरणा नहीं है। मनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्व और पुरुषवेदके उदीरकका अन्तरकाल नहीं हैं। बारह कपाय और छह नोकषायोंके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर 'अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । ६४. सन्निकर्षानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- श्रोष और आदेश । प्रोधसे मिथ्यात्वकी उदीरणा करनेवाला जीव सोलह, कषाय और नौ नोकषायोंका कदाचित् उदीरक होता है और कदाचिन अनुदीरक होता है। सम्प्रक्त्वकी उदीरणा करनेवाला जीव बारह कषाय और नौ नोकषायोंका कदाचित् उदीरक होता है और कदाचित् अनुदीरक होता है। इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी मुख्यत्तासे जान लेना चाहिए। अनन्तानुबन्धी क्रोधकी उदीरणा करनेवाला जीव तीन क्रोधोंका नियमसे उदीरक होता है। मिथ्यात्व और नौ नोकषायोंका कदाचित उदीरक हाता है। इसीप्रकार तीन अनन्तानुबन्धी कषायोंकी मुख्यतासे जान लेना चाहिए । अप्रत्याखयानावरण क्रोधकी उदीरणा करनेवाला जीव दो क्रोधोंका नियमसे उदीरक होता है । अनन्ता Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपरहुडे [ वेदगो ७ ताणु० कोह० - मिच्छ० सम्म० सम्मामि० एव खोक० सिया उदीर० । एवं माणमाय - लोभाएं । पश्चक्खाणकोधमुदीरंतो को संजलण० खिय० उदीर० । दोण्य कोध० - मिच्छ १० सम्म० सम्मामि० णचणोक० सिया उदीर० । एवं पच्चक्खाणमाणमाया- लोहाणं । कोहसंजयमुदीरेंतो मिच्छ० सम्म० सम्मामि० - तिष्णिकोध०-एवपोक० सिया उदीर० । एवं तिए संजलणारणं । इत्थिवे० उदीरेंतो मिच्द० सम्म ०सम्मामि० सोलमक० एणोक० सिया उदीर | एवं पुरिसवे० एस० । इस्समुदीरंतो मिच्छ० सम्म० सम्मामि० सोलसक० - तिरियवे०-भय-दुगंच० सिया उदीर० । रदीए खिय० उदीर० । एवं रदीए। एवमरदि-सोगाणं । भयमुदीरंतो दंसरखतिय- सोलसक०. तिणिवेद-हस्स-रदि-श्ररदि-सोग - दुर्गुछ० सिया उदीर० । एवं दुगुंबा० । ३० ६५०. आदेसेण रहय० मिच्छत्तमुदीरेंतो० सोलसक० छण्ोक० सिया उदीर० । वुंस० यि० उदीर० । सम्मत्तमुदीरें तो ० बारसक० धरणोक० सिया उदीर० । वंस० शियमा उदीर० एवं सम्मामि० । अरणंतागु० कोधमुदीरेंतो तिएवं कोधावं पुंस० यि० उदीर० । मान्छे लोक सेवादार जीएमहाराज बन्धी क्रोध, मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और नौ नोकषायका कदाचित् उदीरक होता है। इसीप्रकार अप्रत्याख्यानावरण मान, माया और लोभकी मुख्यताले जान लेना चाहिए | प्रत्याख्यानावरण क्रोध की उदीरणा करनेवाला जीव कोधसंज्वलनका नियमसे उदीरक होता है । दो कोध, मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व और नौ नोकषायांका कदाचित् उदीरक होता है । इसीप्रकार प्रत्याख्यानावरण मान, माया और लोभकी मुख्यतासे जान लेना चाहिए । क्रोधसंज्वलनकी उदीरणा करनेवाला जीव मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व तीन क्रोध और नी नोकपायोंका कदाचित् उदीरक होता है। इसीप्रकार तीन संज्वलनोंकी मुख्यतासे जानना चाहिये। स्त्रीवेदकी उदीरणा करनेवाला जीव मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक होता है । इसीप्रकार पुरुपवेद और नपुंसकवेदी मुख्यतासे जानना चाहिए। हास्यकी उदीरणा करनेवाला जीव मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सभ्यमिध्यात्व, सोलह कपाय, तीन वेद, भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक होता है । रतिका नियमसे उदीरक होता है। इसीप्रकार रतिकी मुख्यतासे जानना चाहिए। तथा इसीप्रकार अरति और शोककी मुख्यतासे भी जानना चाहिए । भयकी उदीरणा करनेवाला जीव तीन दर्शनमोहनीय, सोलह कषाय, तीन वेद, हास्य, रति, अरति शोक और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक होता है। इसीप्रकार जुगुप्साकी मुख्यतासे जानना चाहिए । ५०. आदेश से नारकियोंमें मिथ्यात्वकी उदीरणा करनेवाला जीव सोलह कपाय और छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक होता है। नपुंसक वेदका नियमसे उदीरक होता है । सम्यक्त्व की उदीरणा करनेवाला जीव बारह कपाय और छह नोकपायोंका कदाचित् उदीरक होता है। नपुंसकवेदका नियमसे उदीरक होता है। इसीप्रकार सम्यग्मिध्यात्वकी मुख्यता से जानना चाहिए । अनन्तानुबन्धी कोधकी उदीरणा करनेवाला जीव तीन क्रोध और नपुंसकबेदका नियमसे उदीरक होता है। मिध्यात्व और छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक होता है । इसीप्रकार अनन्तानुबन्धी मान Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपडिउदीरणाए अगियोग हार परूवरणा ३१ Q तिन्हं कसाया । अपच क्खाएकोधमुदीरेंतो मिच्छ० सम्म० सम्मामि० प्रांतागु० को० णोक० सिया उदीर० | दोन्हं कोधारणं णर्वस० निय० उदीर० । एवमेकारसक० | इस्समुदीरेंतो० मिच्द्र० सम्म० सम्मामि० सोल सक० मय- दुगुंद० सिया उदीर० । स०-रदि० गिय० उदीर० । एवं रदीए। एवमरदि-सोग० । भयमुदी - तो ० दंसणतिय - सोलसक० - इस्स-रदि भरदि-सोग० - दुर्गुबा० सिया उदीर० । णर्चुस ० निय० उदीर० । एवं दुगु द्वा० । एवं सत्तसु पुढवी | १५१. तिरिक्खेसु दंसगतिय-प्रांतासु०४- अपच्च क्खाणचउक्क० णव णोकसाय दोष । पाखनको मुदती मिसम्म सम्मामि० श्रता ०४ - श्रपञ्च क्खाएकोध० णत्रणोक० सिया उदीर० । कोहसंज० पिय० उदीर० । एवं सत्तकसा० । एवं पंचिदियतिरिक्ख ३ । णवरि पंचिदियतिरिक्खपत्तरसु इत्थिवेदो गत्थि । जोखिणी० पुरिस० स० णत्थि । इत्थवे० धुवं कायध्वं । ८ ♡ ५२. पंचिदियतिरिक्ख अपअ ० -मगुस अपज० मिच्छत मुदीरें• सोलसक०उष्णोक० सिया उदीर | शास० खियमा उदीर० । एवं बुंस० । अता- ० आदि तीन कपायोंकी मुख्यतासे जानना चाहिए। अप्रत्याख्यानावरण कोधकी उदीरणा करनेवाला जीव मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व, अनन्तानुबन्धी क्रोध और छह नोकपायका कदाचित् उदीरक होता है । प्रत्याख्यानावरण क्रोध और संज्वलन क्रोध इन दो क्रोधोका नियमसे उदीरक होता है । इसीप्रकार अप्रत्याख्यानावरण मान आदि ग्यारह कषायोंकी मुख्यतासे जानना चाहिए। हास्यकी उदीरण करनेवाला जीव मिध्याक्त्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक होता है। नपु ंसक वेद और रतिका नियमसे उदीरक होता है । इसीप्रकार रविको मुख्यतासे सत्रिकर्षं जानना चाहिए। तथा इसीप्रकार अरति और शोककी मुख्यतासे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए | भयकी उदीरण करनेवाला जीव तीन दर्शनमोहनीय, सोलह कषाय, हास्य, रति, अरति शोक और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक होता है । नपुंसक वेदका नियमसे उदोरक होता है। इसीप्रकार जुगुप्साकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । इसीप्रकार सातों पृथिवियों में सन्निकर्ष जानना चाहिए। ५१. तिर्यश्वा दर्शनमोहनीय तीन, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, अपव्याख्यावरण चतुष्क और नौ नोकषायका भंग श्रोधके समान है । प्रत्याख्यानावरण कोधकी उदीरणा करनेवाला जीव मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व अनन्तानुबन्धीचतुष्क, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध और नौ नोकषायका कदाचित् उदीरक होता है। क्रोधसंज्वलनका नियमसे उदीरक होता है 1 इसीप्रकार प्रत्याख्यानावरण मान आदि सात कषायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्षं जानना चाहिए | इसीप्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक में जानना चाहिए। किंतु इतनी विशेषता है कि पचेन्द्रिय 1 तिर्यश्व पर्याप्तकों में स्त्रीवेदी उदीरणा नहीं होती । तथा योनिनी तिर्योंमें पुरुषवेद और स्त्रीवेदकी उदीरणा नहीं होती । योनिनी तिर्यों में स्त्रीवेदकी उदीरणाको ध्रुव करना चाहिए । ४२. पन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मिध्यात्वकी उदीरणा करनेवाला जीव सोलह कषाय और छद्द नोकपायका कदाचित् उदीरक होता है । नपुंसकवेदका नियमसे उदीरक होता है। इसीप्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ कोधमुदीरेंतो मिच्छ० स० तिराहं कोधाणं णिय उदीर० । छण्णोक० सिया रदीर० । एवं पण्णारसकसाय | हसमुदीरेंतो मिच्छ० स०-रदि० खिय० उदी० | सोलसक० -भय-दुर्गुछ० सिया उदीर० । एवं रदीए। एवमरदि-सोग० । भयमुदीरंतो मिच्छ्र० स० लिय० उदीर० । सेसाणं सिया उदीर० । एवं दुछ० । १५३. मणुसतिए श्रोषं । वरि पत्तरस इस्थिवेदो रात्थि । मणमिणी ० पुरिस० स० णत्थि । इस्थिवे० मा कांदाचार्य सीमा इत्थवेद० सिया उदीरेंतो० । सर्जलमुदारती $ ५४. देवेसु मिच्छ० उदीरेंतो सोलसक० श्रणोक० सिया उदीर० । सम्म० उदीरें तो बारसक० अणोक० सिया उदीर० । एवं सम्मानि० । अताणु० कोइमुदिरेंतो मिच्छ श्रड खोक० सिया उदीर० । तिन्हं कोहाणं शिय० । एवं तिण्डं कमायाणं । अपचक्खाण को हमुदी तो दोन्हं कोहाणं शियमा उदीर० । अता० कोह-दंसस्पतिय क० सिया उदीर० । एवमेकारसकसाय० । इत्थिवेदमुदीरेंतो दंसणतिय - सोलस अनन्तानुबन्धी क्रोधी उदीरणा करनेवाला जीव मिथ्यात्व नपुंसकवेद और तीन क्रोधों का नियमसे उदीर होता है। छह नोकपायोंका कदाचित् उदरक होता है । इसीप्रकार शेष पन्द्रह कपायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। हास्यकी उदीरणा करनेवाला जीव मिध्यात्व, नपुंसक वेद और रतिका नियमसे उदीरक होता है। सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक होता है । इसीप्रकार रतिको मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । तथा इसीप्रकार अरति और शोककी मुख्यतासे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए । भयकी उदीरणा करनेवाला जीव मिध्याल और नपुंसक वेदका नियमसे उदीरक होता है। शेपका कदाचित् उदीरक होता है। इसीप्रकार जुगुप्साकी मुख्यताले सन्निकर्ष जानना चाहिए । • ५३. मनुष्यत्रिक में प्रोत्रके समान भंग है। किंतु इतनी विशेषता है कि मनुष्य पर्यातकों में स्त्रीवेदक उदीरणा नहीं होती । तथा मनुष्यिनियों में पुरुषवेद और नपुंसकवेदक उदीरा नहीं होती। इनमें स्त्रीवेदकी उदीरणा ध्रुव करनी चाहिए। किंतु इतनी विशेषता है कि चार संज्वलन की उदीरणा करनेवाला जीव स्त्रीवेदका कदाचित् उदीरक होता हैं । 1 I ६५४. देवों में मिध्यात्वको उदीरणा करनेवाला जीव सोलह कषाय और आठ नोकपायों का कदाचित् उदीरक होता है। सम्यक्त्वकी उदीरणा करनेवाला जीव बारह रुपाय और आठ नोकायका कदाचित् उदीरक होता है । इसीप्रकार सम्यग्मिध्यात्व की मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए। अनन्तानुबन्धी कोषको उदोरणा करनेवाला जीव मिथ्यात्व और आठ नोकषायों का कदाचित् उदीरक होता है। शेष तीन क्रोधों का नियमसे उदीरक होता है । इसीप्रकार अनन्तानुबन्धीमान, माया और लोभ कपायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जान लेना चाहिए । अव्याख्यानावरण कोबकी उदीरणा करनेवाला जीव प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन इन दो Water नियम उदीरक होता है । अनन्तानुबन्धी कोध, तीन दर्शनमोहनीय और आठ नोकपायोंका कदाचित् उदीरक होता है । इसीप्रकार अप्रत्याख्यानावरण मान यादि ग्यारह कषायकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए । श्रीवेदको उदीरणा करनेवाला जीव तीन दर्शनमोहनीय, Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Y ३३ गा० ६२ ] उत्तरपयडिउदीरणाए अणियोगद्दारपरूवणा 0. क० पोक० सिया उदीर० । एवं पुरिसवे । इस्समुदीरेंतो दंसणतिय सोलसफ०इस्थिये ० पुरिस०-मय- दुछ० सिया उदीर० । रदि० णियमा उदीर० । एवं रदीए| एवमरदि-सोग० | भयमुदीरेंतो से सिया उदीरेंतो । एवं दुगुंछा० । एवं भवरण ०वाणचें ० जोइसि० - सोहम्मीसा० । एवं चैव सणकुमारादि जाव णववगेजाति वरि इथिवेदो गत्थि । पुरिस० धुवं कायव्यं । अशुद्दिसादि सव्वा ति सम्म० उदीरेंतो वारसक० छण्णोक० सिया उदीर० । पुरिस० शिय० उदीर० । अपचक्खाणकोहमुदीरंतो दोहं कोहागपुर सिवा उदीम चरणपरोक्त सिया । उदीर । एवमेकारसक० | पुरिस० उदीरेंतो सम्म बारसक० द्वष्णोक० सिया उदीर० । हस्तमुदीरेंवो सम्प्र० चारसक० -भय-दुगुंड० सिया उदीर० । पुरिस०-रदि० यि उदीर० । एवं रदीए । एवमरदि - सोग० । भयमुदितो सम्म० बारसक० - पंचोक० सिया उदीर | पुरिसत्रे० यि० उदीर० । एवं दुगुंछ० । एवं जाव० | ६ ५५. णाणाजीवेहिं भंगविचयाशु० दुविहो णि० – श्रघेण आदेसेण य | 3G+ सोलह कपाय और छह नोकयायोंका कदाचित् उदीरक होता है । इसीप्रकार पुरुषवेदकी मुरुयता से सन्निकर्ष जानना चाहिए। हास्यकी उदीरणा करनेवाला जीव तीन दर्शनमोहनीय, सोलह कपाय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका कदाचित उदीरक होता है । रतिका नियमसे उदीरक होता है । इसीप्रकार रतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसीप्रकार रति और शोककी मुख्यतासे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए। भयकी उदीरणा करनेवाला जीव शेष प्रकृतियोंका कदाचित् उदीरक होता है। इसीप्रकार जुगुप्साकी मुख्यता से सन्निकर्ष जानना चाहिए । इसीप्रकार भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिपी, सौधर्म और ऐशान में जानना चाहिए। सनत्कुमारसे लेकर नौ प्रेवेयक तक के देवोंमें भी इसीप्रकार जानना चाहिए । किंतु इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेदकी उदीरणा नहीं होती । पुरुषवेदक उदीरणा ध्रुव करनी चाहिए। छानुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक के देवोंमें सम्यक्त्वकी उदीरणा करनेवाला जीव बारह कपाय और छह नोकपायों का कदाचित् उदीरक होता है । पुरुषवेदका नियमसे उदीरक होता है । अयाख्यानावरण क्रोधको उदीरणा करनेवाला जीव प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन इन दो क्रोधों और पुरुषवेदका नियमसे उदीरक होता है । सम्यक्त्व और छह नोकपायोंका कदाचित् उदीरक होता है। इसीप्रकार अप्रत्याख्यानावरण मान आदि ग्यारह कपायोंकी मुख्यतासे सन्निकर्षं जानना चाहिए। पुरुषवेदकी उदीरणा करनेवाला जीव सम्यक्त्व, बारह काय और छह नोकपाका कदाचित् उदीरक होता है । हास्यकी उदीरणा करनेवाला जीव सम्यक्त्व, बारह कपाय, भय और जुगुप्साका कदाचित उदीरक होता है । पुरुषवेद और रतिका नियमसे उदीरक होता है। इसीप्रकार रतिकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसीप्रकार अरति और शोककी मुख्यतासे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए। भयकी उदीरणा करनेवाला जीव सम्यक्त्व, वारह, कपाय और पाँच नोकषायोंका कदाचित उदीरक होता है । पुरुषवेदका नियमसे उदीरक होता है । इसीप्रकार जुगुप्साकी मुख्यतासे सन्निकर्षं जानना चाहिए । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ ५५. नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचयानुगमके आश्रयसे निर्देश दो प्रकारका हूँ -- भो Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुहे [वेवगो. ओघेण मिच्छ०-सम्म-सोलसक०-रावणोक. उदीर अणुदीर० णिय० अस्थि । सम्मामि० सिया सव्ये अणुदोर०, सिया अणुदीरगा च उदीरगो च, सिया अणुदीरगा च उदीरगा च ३। ५६. श्रादेसेण णेरइय० ओघं | गवरि इथिवे.-पुरिस० उदीर० णस्थि । णस० उदीर० णियमा अस्थि । एवं सव्वणेरइय० । तिरिक्खेसु ओघं । पंचिंदियतिक्खितिए ओघं । णवारि पजचएस इस्थिवेदों णस्थि । जोणिणी० पुरिस०-णस. पत्थि । इथिवे. उदारीकणियाचा प्रात्य, अणुदारगाणावा पंचिंदियतिरिक्सअपन मिच्छ०-रावूस. सव्वे उदरिया, अणुदीरया णस्थि । सोलसक०-छण्णोक० उदीर० अणुदीर० गिय० अस्थि । मणुसतिए ओघ | - णवरि पजत्तएसु इत्थिवे. णस्थि० । मणुसिणी० पुरिस०-णस० एथि । इथिवे. सिया सव्वे जीवा उदीरंगा । एवं तिण्णि भंगा। मणुसअपज० मिच्छ०-णQस० सिया उदीरगो, सिया उदीरंगा । सोलसक०-छएणोक० अट्ट भंगा। देवेसु श्रोधं । णवरि एएस० अणुदी० । एवं भवण-वारण०-जोदिसि०-सोहम्मीसाण. । एवं सणकुमारादि जाव णवगेवजा त्ति । णवरि इस्थिवे. उदीरगा णस्थि । पुरिस० णिय० उदीर०, अणुदीर० पत्थि । और श्रादेश। ओघसे मिथ्यात्व, सन्यक्त्व, सोलह कपाय और नौ नोकषायोंके उदीरक और अनुदीरक जीव नियमसे हैं। सम्यग्मिथ्यात्वके कदाचित् सब जीव अनुदीरक होते हैं । कदाचित् नाना जीव अनुदीरफ होते हैं और एक जीव उदीरक होता है। कदाचित् नाना जीव अनुदीरक होते हैं और नाना जीव उदीरक होते हैं. ३ ।। ६५६. श्रादेशसे नारकियों में श्रोधके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदके उदीरक जीव नहीं हैं। नपुंसकवेदके उदीरक जीव नियमसे हैं। इसीप्रकार सब नारकियों में जानना चाहिए। तिर्योंमें अोधक समान भंग है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकमें ओषके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि तिर्यश्च पर्यासकोंमें लीवेदकी उदारणा नहीं होती। योनिनी तिर्यों में पुरुपवेद और नपुंसकवेदकी उदीरणा नहीं होती। इनमें स्त्रीवेदको उदीरणा नियमसे होती है। इसके अनुदीरक नहीं है। पश्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके सब जीव उदीरक होते हैं। इनके अनुदीरक नहीं हैं। सोलह कषाय और छह नोकपायोंके उदोरक और अनुदीरक नाना जीव नियमसे होते हैं। मनुष्यत्रिकमें ओघके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्य पर्याप्तकों में नोवेदकी उदीरणा नहीं होती। तथा मनुष्यिनियों में पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी उदारणा नहीं होती। स्त्रीवेदके कदाचित् सब जीव उदीरक होते हैं। कदाचित् नाना जीव उदीरक और एक जीव अनुदीरक होता है। कदाचित् नाना जीय उदीरक और नाना जीव अनुदोरक होते हैं। इस प्रकार तीन भंग होते हैं। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व और नपुंसकवेदका कदाचित एक जीव उदीरक होता है। कदाचित् नाना जीव उदीरक होते हैं। सोलह कषाय और छह नोकषायोंकी अपेक्षा आठ भंग हैं। देवोंमें ओघके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदकी उदीरणा नहीं होती। इसीप्रकार भवनवासी, ज्यन्तर, ज्योतिषी, सौधर्म और ऐशान देवों में जानना चाहिए । सनत्कुमारसे लेकर नौ प्रवेयक तफके देवों में भी इसीप्रकार जानना चाहिए। किन्तु इनमें स्त्रीवेदकी उदीरणा नहीं होती। इनमें पुरुषवेदके उदीरक नियमसे होते Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा. ६२] उत्तरपयलिउदीरणाए अणियोगहारपरूवणा अणुहिसादि जाव सम्वट्ठा त्ति सम्मत्त. सिया सव्वे उदीर०, सिया उदीरगा च अणुदीरयो च, सिया उदीरगा च अणुदीरगा च । बारसक. छण्णोक. उदीर० अणुदीर० णिय. अस्थि । पुरिसवे. उदीर० णिय. अस्थि । अणुदीरगा पत्थि । एवं जाव। भागायुधानिधिसागरोहासानेसे० । ओयेण मिच्छ.. णस० उदीर० अणंता भागा । अणुदी० अणंतभागो। सम्म० उदीर० असंखेजा भागा । अणुदी. असंखे भागो। सम्मामि० उदीर० असंखे०भागो। अणुदी० असंखेञा भागा। चउपहं लोभाणमुदीर० चउभागो सादिरे । अणुदी० संखे०मागा । बारसक० उदीर० चउब्भागो देसूणा । अणुदी० संखेजा भागा । इस्थिवे०पुरिस० उदीर० अणंतमामो । अणुदीर० अणंता भागा। हस्स-रदि-भय-दुगुंछा. उदीर० संखे०भागों। अणुदीर० संखेजा भागा। अरदि-सोग. उदीर० संखेना मागा । अणुदी० संखे०भागो। ५८. श्रादेसेण णेरड्य० मिच्छ०-सम्म० उदीर० असंखे० भागा । अणुदौर० असंखे० भागो । सम्मामि० ओघं। चउराह कोध० अरदि-सोग० उदीर० संखे० ........................................ ... ... ...................... हैं। अनुदीरक नहीं होते। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्वके कदाचित सब जीव उदीरक होते हैं। कदाचित् नाना जीव उदीरक होते हैं और एक जीव अनुदीरक होता है। कदाचिन् नाना जीव उदीरक होते हैं और नाना जीव अनुदीरक होते हैं । बारह कषाय और छह नोकषायोंके उदीरक और अनुदीरक नाना जीव नियमसे हैं। पुरुषवेदके सब जीव नियमसे उवीरक होते हैं। अनुदीरक नहीं होते। इसीप्रकार अनाहारक भार्गरणा तक जानना चाहिए । ५७. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और नपुसकवेदके उदीरक जीच अनन्त बहुभागप्रमाण हैं। तथा अनुदीरक जीव अनन्तवें भागप्रमाण हैं। सम्यक्त्वके उदीरक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं और अनुदीरक जीव असंख्यात- भागप्रमाण हैं। सम्यग्मिध्यात्वके उदीरक जीव असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं और अनुदीरक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। चार लोभोंके उदीरक जीव कुछ अधिक चतुर्थ भागप्रमाण हैं और अनुदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। धारह कषायोंके उदीरक जीव कुछ कम चतुर्थ भागप्रमाण हैं और अनुदीरक जीव संख्यात पहुभागप्रमाण हैं। स्त्रीवेद और पुरुषवेदके उदीरक जीव अनन्त भागप्रमाण हैं और अनुदोरक जीव अनन्त बहुभागप्रमाण है । हास्य, रति, भय और जुगुप्साके उदीरक जीव संख्यातवं भागप्रमाण हैं और अनुदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण है। श्ररति और शोकके उदीरक जीव संख्यात घहुभागप्रमाण हैं और अनुदीरक जीव संख्यातवें भागप्रमाण है। ५८. प्रादेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व और सम्यक्त्वके उदीरक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं और अनुदीरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। सम्यग्मिथ्यात्वका भंग मोधके समान है। चार क्रोध, अरति और शोकके उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो भागा। अणुदीर० संखे०भागो। बारसक०-इस्स-रह-भय-दुगुंछ. उदीर० संखेजदिभागो। अणुदी० संखेजा भागा। एवं सत्रणेरइय० । तिरिक्खाणमोघं । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिय३ । णवरि मिच्छ०-णवूस. उदीर० असंखेजा भागा । अणुदी. असंखे०भागो। इथिवे-पुरिस० उदीर. असंखे०भागो । अणुदी० असंखे० भागा । णयरि पञ्ज० इत्थिवेदो गत्थि । णस० उदीर० संखेजा भागा । अणुदी० संखे०भागो। पुरिसवे. उदीर० संखे भागो। अणुदी० संखेजा भागा। जोणिणी० पुरिस-णस. णस्थि । इस्थिवेद० णस्थि भागाभागो। पंचिदियतिरिक्खअपज०मणुसअपञ्ज. मिच्छ०-णवुस० णस्थि भागाभागो। सोलसक०-छएणोक० पंचिं०तिरिक्खभंगो। मणुसाणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो । णवरि सम्म० उदीर० असंखे०. भागो । अणुदी० असंखेजा मागा । एवं पञ्जत्त । णवरि संखेल्नं कायध्वं । इथिवे. णत्थि । एवं मणुसिणी० । णवरि पुरिस०-णवूस णस्थि । इत्थिवे. उदीरगा संखेजा भागा । अणुदी० संखे०भागो। ५९. देवेसु मिच्छ० सम्म० सम्मामि० णिरयोघं । चउएहं लोभ० इथिवे.. हस्स-रदि० उदीर० संखेज्जा भागा । अणुदी० संखे०मागो। बारसक० अरदि-सोग और अनुवीरक जीव संख्यातवे भागप्रमाण है। बारह कषाय, हास्य, रति, भय और जुगुप्साके जुदीरक जीव संख्यातवें भागप्रमाण है और अनुदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। इसीप्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। तिर्यञ्चोंमें ओघके समान भंग हैं। इसीप्रकार पश्चेन्द्रियतियञ्चत्रिकर्म जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व और नपुसकवेदके उदीरक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं और अनुदीरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। स्त्रीवेद और पुरुषवेदके उदीरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण है और अनुदीरक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। किन्तु इसनी विशेषता है कि तिर्यञ्च पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेदके उदीरक जीव नहीं हैं। तथा नपुसकवेदके उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं और अनुदीरक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। पुरुषवेदक उदीरक जीव संख्यात भागप्रमाण हैं और अनुदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । योनिनी तियश्लोंमें पुरुषवेद और नपुसकवेदके उदीरक जीव नहीं हैं। तथा इनमें स्त्रीवेदको अपेक्षा भागाभाग नहीं है। पञ्छेन्द्रियतिर्यञ्च अपयाप्त और मनुष्य अपयात कोंमें मिथ्यात्व और नपुंसकवेदकी अपेक्षा भागाभाग नहीं है। सोलह कषाय और बह नोकषायोंके उदीरक जीवोंका भंग पञ्चेन्द्रियतिर्योंके समान है। मनुष्याम पञ्चेन्द्रिय तियञ्चोंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वके उदीरक जीव असंख्यात भागप्रमाण हैं और अनुदीरक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। इसीप्रकार मनुष्य पर्याप्तकोंमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातके स्थान में संख्यात करना चाहिए। इनमें स्त्रीवेदके उदीरक नहीं होते। इसीप्रकार मनुष्यनियों में जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें पुरुपवेद और नपुसकवेदके उदीरक नहीं होते। तथा स्त्रीवेदके उदीरक संख्यात बहुभागप्रमाण है और अनुदीरक जीव संख्यातवे भागप्रमाण हैं। ६५६. देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग नारकियोंके समान है। __ . चार लोभ, स्त्रीयेद, हास्य और रतिके जदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं और अनुदीरक Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपथविजोरणाए अणि श्रोगहार परूवणा ३७ 0 मय- दुगुंछा० - पुरिसत्रे० उदीर० संखेज दिभा०, घणुदीर० संखेजा भागा । एवं भवण० - बारवें ० - जोदिसि ० सोहम्मीसा० । सुणकुमारादि सहस्सारा ति एवं चैव । चरि इत्थवे ० णत्थि । पुरिसके० णत्थि भागा० | आणदादि णत्र मेवज्जा त्तिमिच्द्र०तेरसकसाय० अरदि० सोग-भय- दुर्गुन्दा० उदीर० संखे० भागो । भगुदी ० संखेजा मागा। सम्म० -हस्स-र६० तिरहं लोभाणमुदीरगा संखेजा भागा । अगुदी० संखे०भागो । पुरिसवे० णत्थि भागाभागो । सम्मामि श्रघं । अदिसादि श्रवराजिदा ति सम्म० उदीर० असंखेजा भागा | अखुदीर० असंखे० भागो । तिन्हं लोभारणं हस्स -रदि० उदीर० संखेज | भागा । अणुदीर० संखे० भागो । णवकसा० - अरदि-सोगभय-दुर्गुछा० उदीर० संखे ० भागो । अणुदीर० संखेजा भागा । पुरिसने० णत्थि भागा० । एवं सवट्टे । णवरि संखे कायव्यं । एवं जाव० । - ६०. परिमाणा० दुविहो ०ि ओ० श्रादेसे० । श्रघेण मिच्द्र०जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। बारह कषाय, रति, शोक, भय, जुगुप्सा और पुरुषवेदके उदीरक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं और अनुदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । इसीप्रकार भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, सौधर्म और ऐशान देवोंमें जानना चाहिए। सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें इसीप्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्री के नागाभाग नहीं है। आननसे लेकर नौक तक देवी मिध्यात्व, तेरह कपाय, रति, शोक, भय और जुगुप्साके उदीरक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं और अनुदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । सम्यक्त्व, हास्य, रति और तीन लोभके उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं और अनुदीरक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं । पुरुषवेदकी अपेक्षा भागाभाग नहीं है। सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओके समान है। अनु दिसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें सम्यक्त्वके उदीरक जीव श्रसंख्यात बहुभागप्रमाण हैं और अनुदीरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। तीन लोभ, हास्य और रविके उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं और अनुदारक जीव संख्यात भागप्रमाण हैं। नौ कषाय अरति शोक म और जुगुप्सा उदीरक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं. अनुदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । पुरुषवेदकी अपेक्षा भागाभाग नहीं हैं। इसीप्रकार सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि संख्या के स्थान में संख्यात करना चाहिए। इसीप्रकार नाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ - श्रव और आदेश से जहाँ जितनी प्रकृतियोंकी उदीरणा होती है उसे ध्यान में रखकर भागाभागका विचार किया है। इतना अवश्य है कि जहाँ सप्रतिपक्ष प्रकृतियोंकी उदीरणा न होकर मात्र एक प्रकृति की उदीरणा होती है वहाँ उसको अपेक्षा भागाभाग सम्भव न होनेसे उसका निषेध किया है । इतना अवश्य है कि अनुदिशादिकमें मात्र सम्यग्दृष्टि जीव होते हैं और वहाँ मात्र सम्यक्त्व प्रकृितिको उदीरणा सम्भव है फिर भी वहाँ सम्यक्त्व प्रकृतिकी अपेक्षा भागाभाग बन जाता है, क्योंकि वहाँ पर बहुत से वेदक सम्यग्दृष्टि जीव उसकी उदीरणा करनेवाले होते हैं और अल्प उपशम सम्यग्दृष्टि तथा क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव उसकी उदीरणा नहीं करते । शेष कथन सुगम है । ६०. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-प्रोघ और आदेश । श्रघसे 1 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो सोलसक०-सत्तणोक० उदीर० केलिया ? अणंता । सम्म०-सम्मामि०-इस्थिवे.. परिस० उदीर० केत्तिया ? असंखेजा। प्रादेसे० ऐरइय० सन्चपयडी० उदीर. केत्ति ? असंखेजा। एवं सव्वणेरड्य० सम्वपंचिंदिय०तिरिक्ख-मणुसअपज्जा देवा भवणादि जाव अवराजिदा ति । तिरिक्खेसु ओघं । मणुसेसु मिच्छ०-सोलसक०. मार्गदशजणोकीचन्द्वीप्रसागर सम्मशालाम्मामि०-इस्थिवे०-पुरिस० उदीर · केत्तिया ? संखेन्जा। मणुसपज मणुसिणी०-सव्वट्ठदेवा जानो पयडीओ उदी. तत्थ संखेजा।। एवं जाव। ६१. खेत्तायु० दुविहो णि०-ओघे० आदेसे । ओघेण मिच्छ-सोलसकoसत्तणोक० उदीर० केव० ? सबलोगे। सम्म०-सम्मामि०-इत्थिव-परिस. उदीर० लोग. असंखे० भागे। एवं तिरिक्खाणं । सेसगइमग्गणासु सव्वपदा० लोगस्स असंख०भागे । एवं जाव० । ६२. पोसणाणु० दुविहो णि.---ोषेण आदेसे० । श्रोधेग मिच्छ००। मिथ्यात्व, सोलह कपाय और सात नोकपायके उदीरक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। सम्यक्त्व, सभ्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुपवेदके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। आदेशसे नारकियों में सब प्रकृतियोंके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें जानना चाहिए । तिर्यञ्चोंमें ओघके समान भंग है । मनुष्योंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकपायोंके उदीरक जीव असंख्यात हैं। सम्यक्त्व, सम्यम्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । मनुष्य पर्याप्त, मनुडियनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें जिन प्रकृतियोंकी उदीरणा होती है उनके उदीरक जीव संख्यात हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। १६५. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। प्रोपसे मिथ्यात्व, सोलह कपाय और सात नोकपायोंके उदीरक जीशंका कितना क्षेत्र है ? सर्व लोक क्षेत्र है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्वीयेद और पुरुषवेदके उदीरक जीवोंका क्षेत्र लोकके अमळ्यात भागप्रमाण है। इसीप्रकार तिर्यञ्चों में जानना चाहिए । शंप गति मार्गणाओं में सत्र पदोंकी अपेक्षा क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ-मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकपायोंकी उदीरणा एकेन्द्रियादि जीव भी करते हैं, इसलिए इनका क्षेत्र सब लोक बन जानेसे वह आंघसे तथा सामान्य तिर्यों में सर्व लोकप्रमाण कहा है। परन्तु शेष प्रकृतियोंकी उदीरणा पञ्चेन्द्रिय जीवों में ही सम्भव है और ऐसे जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है, इसलिए सर्वत्र इन प्रकृतियोंके उदीरक जीवांका क्षेत्र उक्त प्रमाण कहा है । सामान्य तियच्चोंको छोड़ कर गति मार्गणाके अन्य जितने भेद हैं उन सबका क्षेत्र लोकके असंख्यातये भागप्रमाण होनेसे उनमें सम्भव सम्र प्रकृतियोंके उदीरकोका क्षेत्र उक्तप्रमाण कहा है। ६६२. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकार है - श्रोध और आदेश । प्रोबसे Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६२] उत्तरपयडिउदीरणाए अणियोगदारपरूवणा सोलसक०-सत्तणोक० उदीर० सव्वलोगो । सम्म-सम्मामि० उदीर० लोग० असंखे०भागो अट्टचोइस भागा० देरणा । इत्थिचे-पुरिस० उदीर० लोग० असंखे भागो पहचोइस० देसूणा सबलोगो वा । ६३. आदेसेण ऐरइय० मिच्छ०-सोलसक-सत्तणोक० उदीर० लोग. असंखे०मागो चोइस० देसूणा। सम्म०-सम्मामि० खेत्तं । एवं विदियादि० जाव सपमा त्ति । णवरि सगपोसणं । पढमाए खेत्तं । ६४ातिरसु मामिश्र-सोलसिकासगीकाराज उदीर० सव्वलोगो। सम्मामि० खेत्तं । सम्म० उदीर० लोगस्स असंखे० छच्चो६० । इथिवे०-पुरिस. मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके उदीरकोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उदीरक जीवाने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और चौदह राजुमसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। श्रीवेद और पुरुषवेदके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्याच भागप्रमाण, चौदह राजुमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ----मिथ्यात्व आदि चौबीस प्रकृतियोंकी उदीरणा एकेन्द्रिय जीवोंमें भी होती है और उनका स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण है, इसलिए यहाँ पर उक्त चौबीस प्रकृतियोंके उदीरकोंका स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण कहा है। सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातचे भागप्रमागा और अतीत स्पर्शन असनालीके चौदह भागोमसे कुछ कम आठ भागप्रमाण बतलाया है। इसी बात को ध्यानमें रख कर यहाँ पर सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्यके उदीरकोंका उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है। नोवेदकी उदीरणा नारकियों और पञ्चेन्द्रिय खन्थ्यपर्यातकोंको छोड़कर अन्य पश्चेन्द्रिय जीवोंमें यथायोग्य होती है और उनका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, विहार आदिकी अपेक्षा अतीत स्पर्शन सनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण और मारणान्तिक समुद्घात या उपपाद पदी अपेक्षा सर्व लोकप्रमाण बतलाया है। इसीसे यहाँ पर इन दो प्रकृतियोंके उदीरकोंका स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। ६३. आदेशसे नारकियों में मिथ्यात्व, सोलह कपाय और सात नोकपायोंके उदीरकाने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके चौदह भागों से कुछ कम छह भागप्रमाण शेनका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उदीरकीका सर्शन क्षेत्रके समान है। इसीप्रकार दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अपना अपना स्पर्शन कहना चाहिए । पहली पृथिवीमें स्पर्शन क्षेत्रके समान है। विशेषार्थ-नरक और प्रत्येक पृथित्रीका जो स्पर्शन है वही यहाँ पर साधारणतः जानना चाहिए। मात्र सम्यक्त्वकी उदीरण सम्यग्दष्टि जीवोंमें और सम्यग्मिथ्यात्वकी उदारणा सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में होती है, इसलिए इन दो प्रकृतियोंके उदीरकोंका स्पर्शन उक्त गुणस्थानवाले नारकियोंके स्पर्शनको भ्यानमें रखकर क्षेत्रके समान लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। ६६४. तिर्यञ्चोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके उदीरक जीवोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यग्मिथ्यात्यके उदीरक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। सम्यक्त्यके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सनालीके चौदह भागोंमें Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो लोग० असंखे भागो सबलोगो या। ..६६५. पंचिंदियतिरिक्खतिय३ मिच्छ० सोलसक०-णवणोक० उदीर० लोगस्स असंखे०भागो सबलोगो । सम्म०-सम्मामि० तिरिक्खोघं । णवरि पज० इथिवे. णस्थि । जोणिणी० पुरिस०-णबुंस० णस्थि । पंचितिरि०अपज-मणुसअपज. मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक० उदीर० लोग० असंखे०भागो सबलोगो वा । मणुसतिए पांचितिरिक्जनियभंगो नापति समज खेती ६६. देवेसु मिन्छ०-सोलसक० काढणोक० उदीर० लोगस्स असंखे०भागो अह-णवचोदस० । सम्म०-सम्मामि० लोग० असंखे भागो अट्ठचोइस० । एवं सव्वदेवाणं । णवरि अप्पप्पणो पयडीओ णादण सगपोसणं णेदव्यं । एवं जावः । --...------ से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद और पुरुपवेदके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ—सम्यग्दृष्टि तियन सोलहवें कल्प तक मारणान्तिक समुद्धात करते हैं, इसीलिए तिर्यञ्चोंमें सम्यक्त्वके उदीरक जीवोंका अतीत स्पर्शन त्रसनालीके चौदह मागोंमें से कुछ कम छह भागप्रमाण कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है। ६५. पञ्चन्द्रिय तिर्थश्चत्रि में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकपायोंके उदीरक जीबाने लोकके असंख्यातवें भागतमाण और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उदीरकोंका स्पर्शन सामान्य तिर्यश्चोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय लियञ्च पर्याप्तकों में स्खविंदकी उदीरणा नहीं होती और पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनियों में पुरुषवेद और नपुसकबेदकी उदीरणा नहीं होती। पञ्चेन्द्रिय तियेच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकपायोंके उदीरक जीवाने लोकके असंख्याता भागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यत्रिकर्म पञ्चेन्द्रियतिञ्चत्रिकके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वका भंग क्षेत्रके समान है। विशेषार्थ_मनुष्यत्रिको संख्यात मनुष्य ही सम्यक्त्वके उदीरक होते हैं और ऐसे मनुष्योंका अतीत स्पर्शन भी लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है, इसलिए यहाँ पर इसके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। सम्यग्मिध्याबके उदीरकोंका स्पर्शन भी इसीप्रकार प्रकृतमें क्षेत्रके समान जान लेना चाहिए । इसका स्पष्टीकरण सामान्य तिर्यामधीमें स्पर्शनका कथन करते समय कर ही आये हैं। शेष कथन सुगम है। ६६६. देवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और पाठ नोकषायोंके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा सनालीके चौदह भागमिसे कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और बसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसीप्रकार सब देवोंमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी प्रकृतियों को जानकर अपना अपना स्पर्शन जानना चाहिए । इसीप्रकार अनाहारक Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { ४१ ० ६‍ ] उत्तरपयविउदीरणाम अणियोगद्दार परूवणा ६ ६७. काला० दुरिहो णि० - ओघे० प्रादेसे० । श्रघेण अट्ठावीसंपयडीणं उदीर० सव्वद्धा । णवरि सम्मामि० जह० अंतोमु०, उक० पलिदो० श्रसंखे ०. मांगो। एवं सव्वर१य० । वरि इत्थिवे० - पुरिस० णत्थि । तिरिक्खेसु ओषं । एवं पंचि०तिरिक्खतिए । वरि पज० इत्थिवेदो गत्थि । जोगिणी० पुरिस०यंस० णत्थि । पंचि०तिरिक्ख अपज० मिच्द० सोलसक० सत्तणोक० उदीर ० । सव्वद्धा । मसतिए पंचि०तिरिक्खतिथभंगो । वरि सम्मामि० उदीर० जह० उप० अंतोमु० । मपुसअपअ० मिच्छ० सय० जह० खुद्दाभव० । सोलसक०इणोक० जह० एयसमश्र, उक० दो वि पलिदो० श्रसंखे० भागो । देवेसु श्रोषं । वरि पर्वसः यत्थि । एवं भवण० वाण० जोदिसि० सोहम्मीसाण० । एवं चैव श्री सुविधा इति णत्थि । अणुद्दिसादि सच्चठ्ठा सकुमारादि जाव एवमेवार्त्ति चि सम्म० - बारसक० - सत्तणोकः सच्वद्धा । एवं जान० । Q 0 मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ — यहाँ इतना ही वक्तव्य है कि सम्यक्त्वके उदीरक जीव एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्धात नहीं करते, इसलिए इसके उदीरक जीवोंका अतीत स्पर्शन मात्र प्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है । ६७. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश | ओघसे अट्ठाईस प्रकृतियोंके उदीरक जीवोंका काल सर्वदा है। किन्तु इतनी विशेषता है कि समयमिथ्यात्व के उदीरक जीवोंका जघन्य काल श्रन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उदीरणा नहीं है । तिर्यों में शोधके समान कालका भंग हैं । इसी प्रकार पचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक में जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि पहलेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त स्त्रीवेद्रकी उदीरणा नहीं है और पचेन्द्रिय तिर्यख योनिनियों में पुरुषवेद और नपुंसकबेदी उदीरणा नहीं है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तकाम मिध्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायों के उदीरक जीवोंका काल सर्वदा है। मनुष्यत्रिमें पचेन्द्रिय निर्यात्रिकके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यग्मिथ्यात्व के उदीरक जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । मनुष्य अपर्याप्तकों में मिध्यात्व और नपुंसकवेदके उदीरक जीवोंका जघन्य काल तुल्लकभव प्रमाण है, सोलह कपाय और छह नोकपायोंका जघन्य काल एक समय हैं तथा उत्कृष्ट काल दोनों प्रकार की प्रकृतियोंके उदीरकों का पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण है। देवोंमें ओघ के समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसक वेद की उदीरणा नहीं है। इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, सौधर्म और ऐशान देवों में जानना चाहिए । सनत्कुमारसे लेकर नौ मैवेयक तकके देवोंमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए | किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेदकी उदीरणा नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थ सिद्धि तक के देवोंमें सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकपायोंके उदीरक जीवोंका काल सर्वदा है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ — सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान सान्तर मार्गणा है । उसे ध्यान में रखकर यहाँ मोसे सम्यग्मिथ्यात्व के उदीरक जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्यके ६ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बेगो. ६८. अंतमार्गदु विहमणि-पोषणाादसेडी पोधिग अट्ठावीसपयडीणं उदीरणा णस्थि अंतरं । णवरि सम्मामि० जह० एयस०, उक्क पलिदो० असंखे०भागो । सव्वणेरड्य०-सव्यतिरिक्ख०-सब्वमणुस्स०-सन्वदेवेसु जाओ पयडीओ उदीरिऑति तासिमोघभंगो । वरि मणुसअपज. सध्यपयडी. जह• एयसममओ, उक्क पलिदो० असंखे०मागो । एवं जाव० । 5 ६९. भावाणुगमेण सम्वत्थ ओदइओ भावो । 5७०. अप्पाबहुवे भागाभागादो साहेदूण णेदव्वं । एवमेगेगउत्तरपयडिउदीरणा ममत्ता । तयो पयट्ठिाणउदीरणा कायवा । ७१. तदो एगेगपडिउदीरणादो अणंतरमिदाणि पडिहाणउदीरणा विहासियच्या त्ति अहियारपरामरसवक्रमेदं काऊण पयडिहाणउदीरणा णाम बुधदेअसंख्यातवें भागप्रपाण कहा है। किन्तु ऐसे मनुष्य संख्यात ही होते हैं. जो इसकी उदीरणा करते हैं। अतः इनमें इसके उदीरक जीयोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त बन सकनेसे उतना ही कहा है। मनुष्य अपर्याप्त यह सान्तर मार्गणा है अतः इस विशेषताको ध्यानमें रखकर इममें जिनकी उदीरणा सम्भव है, उनका काल कहा है। शेष कथन सुगम है। .६६८. अन्तरानुगमको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और श्रादेश | ओघसे अट्ठाईस प्रकृतियोंके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिध्यात्वके उदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय है, और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंरुवातवें मागप्रमाण है। सब नारकी, सम्म तिर्यच, सब मनुष्य और सब देवोंमें जो प्रकृतियाँ उवीरित होती हैं उनका भंग पोषके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके उदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ-सभ्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान सान्तर मार्गणा होनेसे उसका जो जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर है उसे ध्यानमें रखकर ही यहाँ ओघ और आदेशसे सम्यग्मिथ्यात्वके उदीरकोंका अन्तरकाल कहा है। तथा लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंमें सब प्रकृतियोंके उदीरकोंके अन्तर काल कथनमें यही दृष्टि मुख्य है। शेप कथन सुगम है। ६६. भावानुगमको अपेक्षा सर्वत्र औदयिक भाव है। ६७०. 'अल्पबहुत्वको भागाभागसे साधकर ले जाना चाहिए। इसप्रकार एकैक-उत्तरप्रकृति-उदीरणा समाप्त हुई। * तदनन्तर प्रकृतिस्थान उदीरणा करनी चाहिए । 5७१. सतः अर्थात् एकैकप्रकृतिउदीरणाके बाद इस समय प्रकृतिस्थान उदीरणाका व्याख्यान करना चाहिए इसप्रकार अधिकारका परामर्श करनेवाले इस वाक्यको करके प्रकृति Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] उत्तरपयलिउदीरणाप अणियोगहारपरूवरणा एपडीणं वाणं पयडिहाणं । पयडि-समूहो ति मणिदं होइ । तस्स उदीरणा षयडिभणउदीरणा । पयडीणं एककालम्मि जेत्तियाणभुदीरे, संभवो तेनियमेत्तीणं समुदायो पयडिट्ठाणउदीरणा त्ति वृत्तं भवदि । तस्थ इमाणि सत्तारस अणियोगदाराणि णादव्वाणि भवंति-समुक्त्तिणा जाव अप्पाबहुए ति । भुजगार-पदणिक्खेवघड्ढीओ च । एत्थ समुकित्तणा दुविहा--टाणसमुक्किचणा पयडिसमुक्तित्तणा चेदि । तस्थ ताप हाणसमुकित्तणं भणामि त्ति आह ॐ तत्य ठाणसमुषितणा। ७२. तम्मि पयडिहाणउदीरणाए द्वाणसमुकित्तणा तात्र अहिकीरदे ति बुतं होइ। ॐ अस्थि एफिस्से पयडीए पवेशासो :- आचार्य श्री सुविहिासागर जी महाराज । ७३. तं जहा–अएणदरवेद-संजलणाणमुदएप खवगसेढिमुवसमसेटिं वा समारूढस्स वेदपढमहिदीए प्रावलियमेत्तसेसाए वेदोदीरणा फिट्टदि ति तदो प्पहुडि एकिस्से संजलणपयडीए पवेसगो होइ । * दोराहं पयडीणं पवेसगो। ७४. सं जहा-उवसम-खवगसेठीसु अणियट्टिपढमसमयप्पटुडि जाव समयाहियावलियमेसी वेदपढमद्विदि त्ति ताव दोण्हं पयडीणमुदीरगो होदि, तत्थ पयारंतरासंभवादो। स्थान सदीरणाका कथन करते हैं- प्रकृतियोंका स्थान प्रकृतिस्थान कहलाता है। प्रकृतिस्थान अर्थात् प्रकृतिसमूह यह उक्त कथनका तात्पर्य है। उसकी उदीरणा प्रकृतिस्थान उदीरणा है। एक कालमें जितनी प्रकृतियोंकी उदीरणा सम्भव है उतनी प्रकृतियोंका समुदाय प्रकृतिस्थानलदीरणा है। यह उक्त कथनका तात्पर्य है । उसके विषयमें ये सत्रह अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं-समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक तथा भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि । यहाँ पर समुत्कीर्तना दो प्रकारकी है--स्थानसमुत्कीर्तना और प्रकृतिसमुत्कीर्तना । 'उनमेंसे सर्वप्रथम स्थानसमुत्कीर्तनाका कथन करते हैं, इसलिए कहते हैं * प्रकृतमें स्थानसमुत्कीर्तनाका अधिकार है। ६७२. उस प्रकृतिस्थानउदीरणामें सर्वप्रथम स्थानसमुत्कीर्तनाका अधिकार है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * एक प्रकृतिका प्रवेशक जीव है । ६७३. यथा-अन्यतर वेद और अन्यतर संचलनके उदयसे आपकणि या उपशमश्रेणि पर चढ़े हुए जीवके वेदकी प्रथम स्थितिके एक प्रावलिमात्र शेष रहने पर वेवकी उदीरणा होना रुक जाता है, इसलिए वहाँसे लेकर यह जीव एक संज्वलन प्रकृतिका प्रवेशक होता है। * दो प्रकृतियोंका प्रवेशक जीव है। ७४. यथा---उपशम और क्षपकश्रेणिमें अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयसे लेकर एक समय अधिक प्रावलिमात्र वेदकी प्रथम स्थिति शेष रहने तक दो प्रकृतियोंका उदीरक होता है, क्योंकि यहाँ पर अन्य प्रकार सम्भव नहीं है। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिये कसायपाहुडे [वेदगो ॐ तिमहं पयजीणं पवेसगो पत्थि। ७५. कुदो पुच्चुत्तदोपयडीणमुवरि अपुवकरणपविट्ठम्मि हस्सरदि-अरदिसोगाणमएणदरजुगलस्स अक्कमपवेसणेण तिएणमुदीरणट्ठाणस्सायुप्पत्तीदो। * चाझं प्रयडीगायवेअगोवाहासागर जी महाराज ७६. अस्थि ति एत्थाहियारसंबंधो कायन्यो । तदो उक्सम-खइयसम्माइद्विपमत्तापमा संजदेसु. अपुव्वकरणे च हस्सरदि-अरदिसोगाणमएणदरजुगलेण सह अण्णदरवेद-संजलणपयडीओ घेत्तण चउएहं पवेसग्गस्स अस्थित्तं सिद्धं । * एत्तो पाए पिरंतरमस्थि जाव दसरह पयडीणं पवेसगो। ७७. चउराहं पवेसगमादि कादण जाव दसण्हं पयडीणं पवेसगो ति ताव एदेसि ठाणाणं पवेसगो णिरंतरमस्थि ति सुत्तस्थसंबंधो । एत्तो उवरि पत्थि मोहणीयस्स, उकस्सेणुदीरिजमाणपयडीणं दससंखाणइकमादो। एवं समुकित्तिदाणमुदीरणाद्वाणाणमेसा संदिट्ठी १,२,४,५,६,७,८,९,१० । एवमोघेण समुक्किचणा गया । aaaa............................ AAAAA.... * तीन प्रकृतियोंका प्रवेशक जीव नहीं है। ७५. क्योंकि पूर्वोक्त दो प्रकृतियों के ऊपर अपूर्वकरणमें प्रवेश करते समय हास्य-रति और अरति-शोक इनमेंसे अन्यतर युगलके युगपत् प्रवेश करनेपर तीन प्रकृतिकस्थानकी उत्पत्ति नहीं होती है। * चार प्रकृतियोंका प्रवेशक जीव है। ६७६. यहाँ पर 'अस्ति' इस पदका अधिकारवश सम्बन्ध कर लेना चाहिए। तदनुसार उपशमसम्यग्डष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत तथा अपूर्वफरण जीवके हास्य-रति और अरति-शोक इन दो युगलोंमेंसे अन्यतर युगलके साथ अन्यतर एफ वेद और अन्यतर एक संज्वलन प्रकृतिको लेकर चार प्रकृतियोंका प्रवेशकरूपसे अस्तित्व सिद्ध होता है। ___ * इससे श्रागे दस प्रकृतियोंके प्रवेशक जीवके प्राप्त होने तक इन स्थानोंका प्रवेशक जीव निरन्तर है। ६७७. चार प्रकृतियोंके प्रवेशक जीवसे लेकर दस प्रकृतियोंके प्रवेशक जीवके प्राप्त होने तक इन स्थानोंका प्रवेशक जीव है इस प्रकार यह सूत्रार्थसम्बन्ध है। इसके ऊपर मोहनीय कर्मके उदीरणास्थान नहीं हैं, क्योंकि उत्कृष्वरूपसे उदीरणाको प्राप्त होनेवाली प्रकृतियाँ दस संख्याको उल्लंघन नहीं करती हैं। इसप्रकार समुत्कीर्तना अनुयोगद्वारके आश्रयसे कहे गये उदारणास्थानोंकी यह संदृष्टि है-१, २, ४, ५, ६,७,८,६, १० । इस प्रकार श्रोषसे समुत्कीर्तना समाप्त हुई । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिउदारणाए अणियोगद्दारपरूवणा ७८. संपहि आदेसेण मणुसतिए ओषभंगो। गेरइएसु अस्थि दसएहं रणवण्हं अट्टराई सत्तण्हं छण्हं पवेसगा १०,९,८,७,६, { एवं सब्बणेरहय. देवा भवणादि जाव गवगेवजा त्ति । एवं तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खतिए । णवरि पंचएहं पि पसगा अस्थि ५। पंचिंदियतिरिक्खअपजत्त-मणुस०अप्प. अस्थि दसरह णवएहमट्ठएहं पवे० १०,९,८। अणुद्दिसादि जाच सव्वट्ठा त्ति अस्थि णवण्हमट्टराई सत्तण्हं छएहं पवेसगा ९,८,७,६ । एवं जाव० । F७९. एवं हाणसमुक्त्तिणं समाणिय संपहि एदेसु द्वाणेसु पयडिसमुक्तित्तणं कुणमाणो सुत्तपबंधमुत्तरं भणइ ॐ एवेसु हाणेसु पयडिणिसो काययो भवति । ८०. एदेसु अणंतरणिहिवउदीरणाहाणेसु काअो पयडीओ घेत्तृण कदम ट्ठाणमुप्पअदि ति जाणावणहमेत्य पयडिणिद्देसो कायव्यो, अण्णहा तव्विसयगर्गदर्शमसाजापतिपदीधिसागर जी महाराज * एयपयर्षि पवेसेवि सिया कोहसंजलणं वा सिया माणसंजलणं वा सिया मायासंजलणं वा सिया लोभसंजलणं वा। १८१. एदस्सत्यो वुचदे-अस्थि एकिस्से पयडीए पवेसगो त्ति समुक्किचिदं । ७८. अब आदेश प्ररूपणा करते हैं। उसकी अपेक्षा मनुष्यत्रिको ओघके समान भंग है। नारकियोंमें दस, नौ, आठ, सात और छह प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव है--१०, 8,८७, ६। इस प्रकार सब नारकी, सामान्य वेव, और भवनवासियोंसे लेकर नौ अवेयक तकके देवोमें जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार सामान्य तिर्यश्च और पञ्चेन्द्रिय तिर्याश्चत्रिकमें भी जानना, पाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें पाँच प्रकृतियोंके भी प्रवेशक जीव हैं ५ । पनेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें दस, नौ और आठ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव है१०,६,८। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें नौ, पाठ, सात और छह प्रकृतियों के भवेशक जीव है-९, ८, ७, ६ । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ६u. इसप्रकार स्थानसमुत्कीर्तनाको समाप्त करके अब इन स्थानोंमें प्रकृतियोंकी समुकीर्तना करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं--- * इन स्थानोंमें प्रकृतियोंका निर्देश करना योग्य है। FED. पूर्वमें कहे गये इन उदीरणास्थानोंमें किन प्रकृतियोको लेकर कौनसा स्थान उत्पत्र होता है यह जतलानेके लिए यहाँ पर प्रकृतियोंका निर्देश करना चाहिए, अन्यथा तद्विषयक सम्यम्झान नहीं उत्पन्न होता । * एक प्रकृतिका प्रवेश करनेवाला जीव कदाचित् क्रोधसंज्वलनको, कदाचित् मानसंज्वलनको, कदाचित् मायासंज्वलनको · और कदाचित् लोमसंज्वलनको प्रविष्ट करता है। ६८१. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-एक प्रकृतिका प्रवेशक जीव है यह पहले समु Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुरे [वेदगो तत्थेगपयडि पवेसमाणो कदमं पयडिं पवेसेदि ति आसकिय 'सिया कोहसंजलणं वा इचादि बुत्तं । कोहोदएण सेढिमारूढस्स वेदपढमहिदीए प्रावलियं पविट्ठाए तदो पडुडि कोधसंजलणमेकं चेव पवेसेदि तेणेव कोहपढमहिदीए आवलियं पवेसिदार तदो पहुडि माणसंजलणं पवसेदि । तस्सेव माणपढमविदीए आवलियपविद्वाए तदो पहुडि मायासंजलणं पसेदि । तदो मायासंजलणपढमछिदीए प्रावलियपविट्ठाए तदो पहुडि लोभसंजलणस्सेव पसगो होइ । अहवा अप्पप्पणो उदएण चडिदस्स वेदपढमद्विदीए श्रावलियपविहाए कोहसंजलणादीणं पवेसगो होदि ति वत्तच्च । एत्थ सम्वत्थ 'सिया' सदो एयंतावहारणपडिसेइफलो । 'वा' सहो 'च' वियप्पवाचो त्ति घेत्तव्वं । एवमेदे चत्तारि भंगा एयपयडिपवेसगस्स होइ त्ति उपसंहारवकमाह 8 एवं चत्तारि भंगा'नी सुविधासागर जी महाराज ८२. सुगम । दोपहं पपडी पवेसगस्स बारस भंगा। 5.८३. कुदो ? तिरह वेदाणमेकेकसजलणेण सह अक्सपरावतेण तेत्तियमेत- ' भंगुप्पत्तीए णिव्वाहमुबलभादो । तं कधं ? सिया पुरिसवेदं कोहसंजलणं च पवेसेदि । कीर्तना अनुयोगद्वारमें कह पाये हैं सो उस विषयमें एक प्रकृतिका प्रवेश करनेवाला जीव किस प्रकृतिका प्रवेशक होता है ऐसी आशंका करके 'सिया कोहसंजलणं वा' इत्यादि वचन कहा है। क्रोधके उदयसे श्रेणि पर चढ़े हुए जीवके वेदकी प्रथम स्थितिके उदयावलिके भीतर प्रवेश करने पर वहाँसे लेकर वह जीव एक क्रोध संज्वलनको ही उदीरणामें प्रवेश फासा है। उसी जोवके द्वारा क्रोधकी प्रथम स्थितिके उदयापलिमें प्रवेशित करने पर यहाँसे लेकर वह जीव मानसंज्वलनको उदीरणारूपसे प्रवेश कराता है। उसी जीवके मानकी प्रथम स्थितिके उदयावलिमें प्रवेश करने पर वहांसे लेकर मायासंज्वलनको उदीरणारूपसे प्रवेश कराता है। इसके बाद मायासंचलनकी प्रथम स्थितिके उदयावलिमें प्रविष्ट होने पर उससे श्रागे एकमात्र लोभका प्रवेशक होता है। अथवा अपने अपने उदयसे चढ़े हुए जीवके वेदकी प्रथम स्थितिके उदयापलिमें प्रविष्ट होने पर क्रोधसंज्वलन श्रादिका प्रवेशक होता है ऐसा कहना चाहिए। यहां पर सर्वत्र 'सिया' शब्दका फल एकान्तरूप अवधारणका निषेध करना है और 'वा' शब्द 'क' रूप विकल्पका वाचक है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। इसप्रकार ये चार भंग एक प्रकृति के प्रवेशकके होते हैं इसप्रकार इस अर्थक सूचक उपसंहार वाक्यको कहते हैं * इसपकार चार भंग होते हैं। ६८२. यह सूत्र सुगम है। * दो प्रकृतियोंके प्रवेशकके बारह भंग होते हैं । ६८३. क्योंकि तीन वेदोंका एक एक संज्वलनके साथ अक्षपरावर्तन होकर उतने भंग निर्वाधरूपसे उपलब्ध होते हैं। यथा-कदाचिन् पुरुषवेद और क्रोधसंज्वलनको प्रवेशित करता Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा०हर ] उत्तरपथहिडदोर।।ए अणियोगशरपरूवणा * सिया पुरिस० माणसं० च पवे० । सिया पुरिस० मायासंज० च पवे० । सिया पुरिस० लोहसंज० च पये० । एवं पुरिसवेदे चत्तारि भंगा। एवमित्थि णबुंसयवेदेहिं मि पादेकं चत्तारि भंगा उच्चारिय घेत्तव्वा । तदो दोन्हं पयडीएणं पवेसगाणं बारस भंगा चि सिद्धं १२ । * चहं पयडीणं पवेसगस्स चवीसं भंगा । I ६ ८४. किं कारणं ९ इस्सर दि-श्वर दिसोगसण्णिदाणं दोएहं जुगलाणं तिणिवेदचदुसंजलखेहि सह संजोगे कीरमाणे तत्तियमेत भंगाणमुप्पत्तिदंसणा दो । तं जहासिया इस्सरी पुरिसवेद - कोहसंजलणे च पवेसेदि । सिया इस्स- रदीओ पुरिसमाणसंज० पवे० । सिया हस्स- रदीओ पुरिस० - मायासंज० पवे० । सिया इस्स-रदीओ पुरिस० - लोहसंज० पवे० । एवं हस्स रदीगं पुरिसवेदेण सह चदुसु संजलणेसु संचारिदाणि चत्तारि मंगा । एवमित्थि० णवंस० वेदेहिं मि पादेकं चउण्हं भंगारणमुच्चारणा कायव्वा । तदी इस रदी वारस भंगा। अरदि-सोगाणं पि एवमेव बारस भंगा १२ समुप्पजंति मार्गदर्शक. आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज चिन्हं पवेसगस्स उबीस भंगारामुप्पत्ती सिद्धी २४ । * पंचराहं पयडी पवेसगस्स चत्तारि चडवोर्स भंगगा । ८५ तं जहा -- इस्सरदि-अरदिसोगाणं दोएडं जुगलाणं चउरद्दं संजलग्गाणं है । कदाचित् पुरुषवेद और मानसंज्वलनको प्रवेशित करता है। कदाचित पुरुषवेद और मायासंज्वलनको प्रवेशित करता है तथा कदाचित् पुरुषवेद और लोभसंज्वलनको प्रवेशित करता । इसप्रकार पुरुषवेदके साथ चार भंग प्राप्त होते हैं । इसीप्रकार स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके साथ भी प्रत्येक के चार भंगों का उच्चारण कर ग्रहण करना चाहिए । इसलिए दो प्रकृतियोंके प्रवेशकों बारह १२ भंग होते हैं यह सिद्ध हुआ | * चार प्रकृतियोंके प्रवेशकके चौबीस भंग होते हैं । ६८४, क्योंकि हास्य- रति और अरति शोक इस संज्ञावाले दो युगलोंके तीन वेद और संज्वलन के साथ संयोग करने पर उतने भंगों की उत्पत्ति देखी जाती है । यथा— कदाचित् हास्य- रति, पुरुपवेद और क्रोधसंज्वलनको प्रवेशित करता है । कदाचित् हास्य-रति पुरुषवेद और मानसंज्वलनको प्रवेशित करता है । कदाचित् हास्य- रति, पुरुषवेद और मायासंज्वलनको प्रवेशित करता है तथा कदाचित् हास्य- रति, पुरुषवेद और लोभसंज्वलनको प्रवेशित करता है । इस प्रकार हास्य और रतिका पुरुषवेदके साथ चार संज्चलनोंमें संचार करने पर चार भंग होते हैं। इसीप्रकार स्त्रीवेद और नपुंसक वेदके आश्रयसे भी प्रत्येक के चार भंगोंकी उच्चारणा करनी चाहिए | इसलिए हास्य रतिकी अपेक्षा बारह भंग होते हैं । तथा इसीप्रकार अरति शोककी अपेक्षा बारह १२ भंग उत्पन्न होते हैं । इसप्रकार चार प्रकृतियोंके प्रवेशक जीवके चौबीस २४ गोकी उत्पत्ति सिद्ध हुई । * पाँच प्रकृतियोंके प्रवेशक जीवके चार चौबीस भंग होते हैं । ८४. यथा -हास्य रति और अरति शोक इन दो युगलोंका, चार संज्वलनोंका, तीन Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयधवलासहिदे कसायपाहु [ वेदगो तिएहं वेदाणं भय-दुगुंदाणं च जहाकम पत्यारं कादणेत्थ भएण सह एका चउवीसमार्गदर्शक भगोणासलीगाहियदुर्गुलरिहासह अण्णा २ । अण्णेगा भय-दुगुंलाहि विणा सम्मत्तोदयावलंबणेण ३। एवं संजदेसु तिषिण चउवीसभंगा लभंति । पुणो खइगसम्माइडिम्मि उवसमसम्माइडिम्मि वा संजदासंजदम्मि भय-दुगुंछाहिं विणा पञ्चक्खाणकसायप्पवेसणेण अण्णेगा चवीसभंगसलागा लम्मा ४। एवमेदे चत्तारि चदुवीस भंगा पंचण्इं पवेसगस्स लद्धा भवति । एत्य सम्बभंगसमासो एत्तिो होइ ९६ । * छण्हं पयडीणं पवेसगस्स सत्त पउघीस भंगा। ८६. तं जहा-उवसमसम्माइडिस्स सहयसम्माइद्विस्स वा संजदस्स भयदुगंछाहि सह एगा चडचीस भंगसलागा १। संजदस्सेत्र वेदयसम्माहहिस्स भएण विरणा दुगुकाए सह विदिया २ । तस्सेव दुगुंछाए विणा भएण सह तदिया ३ । एवं संजदमस्सिऊण तिण्ण चउवीसभंगा लद्धा । पुणो उवसमसम्माइडिस्स खइयसम्माइटिस्स वा संजदासंजदस्स दुगुंछाए विणा पञ्चक्खाणकसाएण सह भयं वेदयमाणस्स चउत्थी चउवीसभंगसलागा ४ । तस्सेव भएण विणा पञ्चक्खाण-दुगुकाहिं सह पंचमी ५ । वेदगसम्माइविसंजदासंजदस्स भय-दुगुंछोदयविरहियस्स छट्टो चवीसभंगवियप्पो ६ । उवसंतदसणमोहणीयस्स खीणदसणमोइस्स वा असंजद वेदोंका तथा भय और जुगुप्साका कमसे प्रस्तार करके यहाँ पर भयके साथ चौबीस भंगोंकी एक शलाका १, जुगुप्साके साथ उससे भिन्न दूसरी २ तथा भय और जुगुप्साके बिना सम्यक्त्वप्रकृतिके उदयका अवलम्बन लेकर उन दोनोंसे भिन्न एक ३ इस प्रकार संयत जीवोंमें तीन चौबीस भंग प्राप्त होते हैं। पुनः झायिकसम्यग्दृष्टि या उपशमसम्यग्दृष्टि संयतासंयत जीवके भय और जुगुप्सा के बिना प्रत्याख्यानावरण कषायके प्रवेश करनेसे अन्य एक चौबीस भंगरूप शलाका प्राप्त होती है ४ । इस प्रकार पाँच प्रकृतियोंके प्रवेशक जीवके चार चौबीस भंग प्राप्त होते हैं । यहाँ पर सब भंगोंका योग इतना होता है--९६ । * छह प्रकृतियों के प्रवेशक जीवके सात चौवीस भंग होते हैं। १८६. यथा--उपशमसम्यग्दृष्टि या क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयत जीवके भय और जुगुप्साके साथ एक चौबीस भंगशालाका होती है-५। वेदकसम्यग्दृष्टि संयत जीवके ही भयके बिना जगुप्साके साथ दूसरी चौबीस भंगशलाका होती है २ । उसी संयत जीवके जगुप्साके बिना भयके साथ तीसरी चौबीस भंगशलाका होती है । इस प्रकार संयत जीवका आभय कर तीन चौबीस भंग प्राप्त हुए। पुनः उपशमसम्यग्दृष्टि या क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत जीवके जुगुप्साके बिना प्रत्याख्यानावरण कपायके साथ भयका वेदन करते हुए चौथी चौबीस भंगशलाका होती है४। उसी जीवके भयक बिना प्रत्याख्यानावरण और जुगुप्साके साथ पाँचवी चौबीस भंगशलाका होती है -५। भय और जुगुप्साके उदयसे रहित वेदकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत जीवके छठी चौबीस भंगशलाका होती है-६। तथा जिसने दर्शनमोहनीयका उपशम किया है या दर्शन Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ amerk आचार्य श्री सामाशिमीरापहाभियोगहारपरूनणा सम्मा द्विस्स भय-दुगुंगाहिं विणा अपचक्खाणपवेसेण सत्तमो चउवीसभंगपयारो ७ । समेदे सर चेत्र चउवीस भंगा लभंति । एत्थ सब्बभंगसमासो अट्ठसविसदमेतो १६८। ___ सत्तण्हं पयडोएं पवेसगस्स दस चउवोस भंगा। ८७. तं जहा—संजदस्स वेदगसमत्त-चदुसंजलग-तिण्णिवेद-दोजुगल-भयसुंलाओं अस्सिऊण पढमो चउचीसभंगपयारो १ । उवसमसम्माइडिस्स खस्यसम्मापहिस्स वा संजदासंजदस्स पञ्चरखाण-भय-दुगुंकाहिं सह विदियो २ । संजदासजदस्सेव दगसम्मत्तेण भएण च तदियो ३ । भएण विणा दुगुबाए सह चउत्थो ४ । पुणो खीणोवसंतदंसणमोहणीयस्स असंजदसम्माइडिस्म भय-अपञ्चक्खाणेहि सह पंचमो ५ । तस्सेव भएण विणा दुगुंछाए सह छट्टो ६ । तस्सेव अक्खीणोवसंतदसणमोहस्स भय-दुगुंकाहि विणा वेदगसम्मत्तोदएण सत्तमो ७ । सम्मामिच्छाइडिस्स भय-दुगुंबाहि बिगा सम्मामिच्छत्तेण सह अट्ठमो ८ । सासणसम्माइद्विम्मि भय-दुगुंछाहि विणा अणंतागुवंधिपवेसेण एवमो ९ । मिच्छाइद्विस्स अणंताणुयंधि-भय-दुगुंबाहि विणा संजुचपढमावलियाए वट्टमाणस्स दसमो १० । एवं दस चउवीसभंगा सत्तपयडिहाणपवेसगस्स लभंति । एत्थ सबभंगसमासो चालीसुत्तरविसदमेतो २४० । मोहका क्षय किया है ऐसे असंयतसम्यग्दृष्टि जीवके भय और जुगुप्साके विना अप्रत्याख्यानापरणके प्रवेशसे सातवाँ चौबीस भंगोंका प्रकार होता है-७। इसप्रकार ये सात ही चौबीस भंग प्राप्त होते हैं । यहाँ पर सब भंगीका योग एकसौ अरसठमान है.-१६८।। * सात प्रकृतियों के प्रवेशक जीवके दस चौबीस भंग होते हैं। ८. यथा-संग्रत जीवके वेदकसम्यक्त्व, चार संचलन, तीन वेद, दो युगल, भय और जुगुप्साके आश्रयसे पहला चौबीस भंगोंका प्रकार होता है-१। उपशमसम्यग्दृष्टि या सायिकसम्यग्रष्टि संयतासंयत जीवके प्रत्याख्यानावरण, भय और जुगुप्साके साथ दूसरा चौबीस भंगोंका प्रकार होता है-२। संयतासंयत जीवके ही वेदकसम्यक्व और भयके साथ वीसरा चौबीस भंगोंका प्रकार होता है-३। भयके बिना जुगुप्साके साथ चौथा चौबीस भंगोंका प्रकार होता है.४ । पुनः जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय या उपशम किया है ऐसे असंयतसम्यम्दृष्टि जीवके भय और अप्रत्याख्यानावरणके साथ पांचवां चौबीस भंगोंका प्रकार होता है । उसीके भयके बिना जुगुप्साके साथ छठा चौबीस भंगोंका प्रकार होता है,६। जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय या उपशम नहीं किया है, ऐसे उसी जीवके भय और जुगुप्साके विना वेदकसम्यक्त्य (सम्यक्त्व प्रकृति ) के उदयसे सातवाँ चौबीस भंगोंका प्रकार होता है। सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवके भय और जुगुप्साके बिना सम्यग्मिथ्यात्वके साथ पाठवाँ चौबीस भंगोंका प्रकार होता है.८। सासादनसम्यग्दृष्टि जीवके भय और जुगुप्साके बिना अनन्तानुबन्धीका प्रवेश होनेसे नौवाँ चौबीस भंगोंका प्रकार होता है । अनन्तानुबन्धी, भय और जुगुप्साके विना अनन्तानुबन्धीसे संयुक्त प्रथम आवलिमें विद्यमान मिथ्याटि जीवके दसवाँ चौबीस भंगोंका प्रकार होता है। इस प्रकार सात प्रकृतियोंके प्रवेशक जीवके दस चौबीस भंग प्राप्त होते हैं। यहाँ पर सब भंगोंका जोड़ दासौ चालीस २४० होता है । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Va [वेदगो जयधवलासहिदे कसायपाहुडे खालिई पयेड़ा पर्वसस्सिएकारस चउवोस भंगा। ८८. तं जहा-संजदासंजदस्स वेदगसम्मत्त-पच्चखाण-संजलण-वेद-दोजुगलभय-दुगुंछाहि पढमो चउवीसभंगुष्पादो १ । उवसंत-वीणदसणमोहणीयस्स असंजदसम्माइटिस्स अपञ्चवखाणकसाएष सह ताओ चेव सम्मत्त विरहिदाओ घेत्तण बिदियो २। तस्सेव वेदयसम्माइद्विस्स दुगुडाए विणा भएण सह तदियो ३ । मएण विणा दुगुंछाए सह चउत्थो ४ । सम्मामिच्छाइटिम्मि दुगुंडाए विणा सम्मामि०भएहिं सह पंचमो ५। तस्सेव भएण विणा दुगुकाए सह छहो ६ । सासणसम्माइद्विस्स दुगुछाए विणा भयमुदीरेमाणस्स अणंताणुबंधिपवेसेण सत्तमो ७ । तस्सेव भएण विणा दुगुंछ वेदेमाणस्स अट्ठमो = | मिच्छाइद्विस्स संजुत्तपढमावलियाए भएण सह मिच्छत्तं वेदेमाणस्स णवमो ९। भएण विणा दुगुकाए सह मिच्छत्तमुदीरेमारणस्स दसमो १० । भय-दुगुकाहि विणा अणंताणुबंधिणा सह मिच्छत्तं वेदेमाणस्स एक्कारसमो ११ । एवमट्ठएहं पवेसगस्स एकारसभेदेहिं चवीस भंगा लभंति । एत्थ सवभंगसमासो चउसटि-विसदमेतो २६४ । वराह पयडीणं पवेसगस्स छ चवीस भंगा। * आठ प्रकृतियों के प्रवेशक जीवके ग्यारह चौबीस भंग होते हैं। $८८. यथा-संयतासंयत जीवके बेदकसम्यक्त्व, प्रत्याख्यानावरण कषाय, संज्वलन .. कपाय, वेद, दो युगल, भय और जुगुप्साके द्वारा प्रथम चौबीस भंगोंका प्रकार उत्पन्न होता है । जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय और उपशम किया है ऐसे असंयतसम्यग्दृष्टि जीवके अप्रत्याख्यानावरण कषायके साध सम्यक्त्वप्रकृतिके बिना उन्हीं पूर्वोक्त प्रकृतियोंको प्रहरण करके दूसरा चौबीस भंगोंका प्रकार होता है । वेदकसम्यग्दृष्टि उसी जीक्के जुगुप्साके विना भयके साथ तीसरा चौबीस भंगोंका प्रकार होता है ३। भयके विना जुगुप्साके साथ चौथा चौबीस भंगोंका प्रकार होता है ४ । सभ्यग्मिध्यादृष्टि जीवके जुगुप्साके विना सम्यग्मिथ्यात्व और भयके साथ पाँचवा चौबीस भंगोंका प्रकार होता है ५। उसीके भयके विना जुगुत्साके साथ छठा चौबीस भंगोंका प्रकार होता है ६। जुगुप्साके विना भयकी उदीरणा करनेवाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीवके अनन्वानुबन्धीका प्रवेश होनेसे सातवाँ चौषीस भंगोंका प्रकार होता है। भयके विना जुगुप्साका वेदन करनेवाले उसी जीवके आठवाँ चौबीस भंगोंका प्रकार होता है। संयुक्त प्रथम श्रावलिमें भयके साथ मिथ्यात्वका वेदन करनेवाले मिन्यादृष्टि जीवके नौवाँ चौबीस भंगोंका प्रकार होता है. ९ । भयके विना जुगुप्साके साथ मिथ्यात्यकी उदीरणा करनेवाले जीवके दसवां चौबीस भंगोंका प्रकार होता है. १०। भय और जुगुप्साके विना अनन्तानुबन्धीके साथ मिथ्यात्वका बेदन करनेवाले जीवके ग्यारहवां चौबीस भंगोंका प्रकार होता है ११ । इस प्रकार आठ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीवके ग्यारह प्रकारके चौबीस भंग प्राप्त होते हैं। यहां सब . भंगोंका जोड़ दो सौ चौसठ २६४ होता है। * नौ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीवके छह चौबीस भंग होते हैं । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा२] उत्तरपयहिउदोरणाए अणिोगदारपरूवणा १६८९. तं कधं ? असंजदस्स वेदगसम्माइद्विस्स वेदगसम्मत्त-पञ्चक्खाणापञ्चक्खाणसंजलण-वेदपणदरजुगल-मय-दुगुछाओ पवेसेमाणस्स पढमो चउवीसभंगप्पत्ति वियप्पो १। सम्मामिच्छाइडिस्स समचेण विणा सम्मामिच्छत्त-भय-दुगुलाहि विदियो २ । सासगसम्माइट्ठिम्मि सम्मामिच्छात्तेण विणा अणंताणुबंधिणा सह पुबिल्लपयडीओ घेत्तण तदियो ३ । मिच्छाइडिस्स संजुत्तपढमावलियाए मिच्छरेण सह भय-दुगुछावेदयस्स चउत्थो ४ । तस्सेवाणताणु वेदमाणस्स भएण विणा दुगुबाए सह पंचमो ५ । शुकाए विणा भएण सह लट्ठो ६ । एवमेदे छचदुवीसभंगा एवण्हं पवेसगस्स लम्भति । एत्थ सच्चभैगसमासो चउचेतालसदमेत्तो १४४ । दसरहं पयष्ठीणं पवेसगस्स एकचवीस भंगा। १०. तं जहा-मिच्छत्त-अणंताणु०-पचक्खाणापञ्चकखाण-संजलण-वेददो के:-'आचार्य श्री सेविधिसागर जी महाराजे २२ जुगल-भय-दुगुंछाओ एवं ठविय १११ ! अक्खसंचारं काद्ण चउयीसभंगाण मुधारणा कायच्या । एवं पयडिसमुकित्तणाए भंगपरूवणं कादूण संपाहि युत्ताणं भंगाण AAR ८६. सो कैसे ? वेदक सम्यक्त्व, प्रत्याख्यानावरण, अप्रत्याख्यानावरण, संज्वलन, वेद, अन्यतर युगल, भय और जुगुप्साका प्रवेश करनेवाले जीवके प्रथम चौबीस भंगोंकी उत्पत्तिका विकल्प होता है १। सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके सम्यक्त्व के बिना सम्बग्मिथ्यात्व, भय और जुगुप्साके साथ दूसरा चौबीस भंगोंका प्रकार होता है । सासादनसम्यग्दृष्टि जीवके सम्यग्मिथ्यात्वके बिना अनन्तानुबन्ध के साथ पूर्वोक्त प्रकृतियोंको ग्रहण कर तीसरा चौबीस भंगोंका प्रकार होता है. ३ । संयुक्त प्रथम श्रावलिमें मिथ्यात्यके साथ भय और जुगुप्साका वेदन करनेवाले जीवके चौथा चौबीस मंगोंका प्रकार होता है ४। अनन्तानुबन्धीका वेदन करनेवाले उसी जीवके भयके विना जुगुप्साके साथ पाँचवाँ चौबीस भंगोंका प्रकार होता है। जुगुप्साके विना भयके साथ छठा चौबीस भंगोंका प्रकार होता है । इस प्रकार नौ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीवके छह प्रकारके चौबीस भंग प्राप्त होते हैं। यहाँ पर सब भङ्गोंका जोड़ एक सौ चवालीस * दस प्रकृतियों के प्रवेशक जीवके एक चौबीस भंग होते हैं। . यथा-मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी, प्रत्याख्यानावरण, अप्रत्याख्यानावरण, संच २ लन, वेष, दो युगल में अन्यतर युगल, भय और जुगुप्सा इस प्रकार १ १ १ स्थापित कर भक्षसंचार करके चौबीस भंगोंकी पश्चारणा करनी चाहिए। इस प्रकार प्रकृति समुत्कीर्तनामें Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो मुवसंहारगाह परूवेमाणो इदमाह छ एदेखि भंगाणं गाहा वसाहसवीरणट्ठाणमादि कादूण | : ९१. सुगमं । णवरि दसएहमुदीरणट्ठाणमादि कादूणेत्ति वयणं पच्छाणुपुब्बीए गाहा धुचिहिदि ति जाणावणहूँ । तं जहा । ९२. सुगमं । एकगछक्के कारस दस सर्त चउवाट पक्कन चयन। दोसु च वारस भंगा एकम्हि य होति चत्वारि ॥२॥ ९३. सुगम चेदं, अणंतरादीदपबंधेण गयस्थत्तादो। णरि एत्थ गाहासुत्तपुबद्धे चउवीसं भंगा ति पयरणवसेकाहिसंबंधो कायन्वो । एदेसि च भंगाणभप्पप्पणो उदीरणदाणपडियद्वाणमेसो अंकविण्णासो |२०, ९, ८, ७, ६, ५, ४, २, १॥ "| १, ६, ११, १०, ७, ४, १, १२, ४, भंगोंका कथन करके अब उक्त भंगोंकी उपसंहार गाथाका कथन करते हुए यह कहते हैं * दस प्रकृतियोंके उदीरणास्थानसे लेकर इन पूर्वोक्त भंगोंकी गाथा इस प्रकार है। दु. ६१. यह सूत्र सुगम है। किन्तु इतनी विशेषता है कि 'दस प्रकृतियोंके उदीरणा. स्थानसे लेकर' यह वचन पश्चादानुपूर्वीसे गाथा कहेगी यह बतलानेके लिए आया है। * यथा६ ९२. यह सूत्र सुगम है। * दस प्रकृतिक स्थानके एक चौबीस, नौ प्रकृतिक स्थानके छह चौवीस, आठ प्रकृतिक स्थानके ग्यारह चौबीस, सात प्रकृतिक स्थानके दस चौवीस, छह प्रकृतिक स्थानके सात चौवीस, पाँच प्रकृतिक स्थानके चार चौबीस और चार प्रकृतिक स्थान के एक चौवीस तथा दो प्रकृतिक स्थान के बारह और एक प्रकृतिक स्थानके चार भंग होते हैं। ६३. यह गाथासूत्र सुगम है, क्योंकि अनन्तर अतीत प्रबन्धके द्वारा इसका अर्थ कह दिया गया है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इस गाथासूत्रके पूर्वाधमें 'चौबीस भङ्ग' इस पदका प्रकरणवश सम्बन्ध कर लेना चाहिए । अपने अपने उदीरगाथानसे सम्बन्ध रखनेवाले इन भङ्गोका यह अंकविन्यास है-- १ चौ. ६ चौ० ११ चौ० १० चौ० ७ चौ० ४ चौ० १ चौ० १२ ४ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज उत्तरपयडिउदीरणाए अणियोगद्दारपत्रणा एत्य सवभंगसमासो एसियो होइ ९७६ । एवं पयडिसम्मुकित्तणाए समसाए हाणसकित्तणा समत्ता । १९४. एत्थ सादि-अणादि-धुव-अद्भुवाणुगमो ताव कायव्यो, तम्मि अपरूविदे सामित्स्सावयाराभावादो । तं जहा-सादि-अणादि-धुव-अद्धवाणुगमेण दुविहो णिद्देसो भोषादेसमेएण । ओघेण सव्वपदाणि किं सादि. ४ । सादि-अद्भुवाणि । एवं जाव० । ® सामित्तं । १६९५, एत्तो सामित्तं वचाइस्सामो चि पदण्णावकमेदं । ® सामित्तस्स साहणहमिमाओ वो सुत्तगाहाओ | ९६. सुगमं । तं जहा । 5 ९७. सुगम । सत्तादि दसुकस्सा मिच्छत्ते मिस्सए एउक्कस्सा। छादी णव उकसा अविरदसम्मे दु आदिस्से ॥२॥ AAAAAAA" यहाँ पर सब मङ्गोका जोड़ इतना ९७६ होता है-- २४ + १४४-: २६४ १ २४०+ १६८+ ६६+२४-|- १२ + ४-६७६ । इस प्रकार प्रकृतिसमुत्कीर्तनाके समान होने पर स्थानसमुत्कीर्तमा समाप्त हुई। 5६४. यहाँ पर सर्व प्रथम सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुवानुगम करना चाहिए, क्योंकि इसकी प्ररूपणा किये बिना स्वामित्व अनुयोगद्वारका अवतार नहीं हो सकता। यथा-सादि, अनादि, धूव और अध्रुवानुगमकी अपेक्षा ओघ और भावेशके भदसे निर्देश दो प्रकारका है। ओघसे सब पद् क्या सादि हैं, अनादि हैं, ध्रुव है या अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ--पूर्व में दस प्रकृतिकसे लेकर एक प्रकृतिक तक जितने पद बतलाये हैं उनमें प्रकृतियोंके परिवतनसे या अन्य कारणसे स्थायी कोई भी पद नहीं है, इसलिए इन्हें ओघसे भी सादि और अध्रुव कहा है। शेष कथन सुगम है। * स्वामित्व ६ ९५. इससे पागे स्वामित्वको बतलाते हैं इस प्रकार यह प्रतिज्ञावाक्य है। * स्वामित्वकी सिद्धि करनेके लिए ये दो सूत्रमाथाएं हैं। ३९६. यह सूत्र सुगम है। $६७. यह सूत्र सुगम है। * सातसे लेकर दस तकके चार उदीरणास्थान मिथ्यात्व गुणस्थानमें होते हैं, सातसे लेकर उत्कृष्टरूपसे नौ तकके तीन उदीरणा स्थान मिश्र गुणस्थानमें होते * यथा Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागदर जयधवलासहिने कसायपाहुडे [ वेदगो पंचादि-अणिहणा विरदाविरदे उदीरणट्ठाणा। एगादी तिगरहिदा सत्तुक्कस्सा च विरदेसु ॥३॥ ९८. एत्थ ताव पढमसुत्तगाहाए अस्थो बुञ्चदे । तं कधं ? सत्त आदि काण । जाब दस ताव एदाणि चत्तारि उदीरणट्ठाणाणि मिच्छाइद्विगुणहाणे होति । तं जहामिच्छत्तमणंताणुबंधीणमेकदरमपञ्चक्खाणाणमेकदरं पञ्चक्खाणाणमेकदरं संजलणाणमेकदरं तिण्हं वेदाणमेकदरं दोण्हं जुगलाणमेक्कदरं भय-दुगुलाबो च धेषण दसएहमुदीरणड्डाणं होइ १० । एत्थ भय-दुगुकाणमएणदरेण विणा एवण्हमुदीरणहाणं होइ ९ । दोहि मि विणा अहण्हमुदीरणा ८ । भय-दुगुकाणताणुवंधीहि विणा सत्ताहमुदीरणा होइया बदामदेखिमिकाही खामी होइ ति भावस्थो। 'मिस्सए णबुकस्सा' सत्तादिग्गहणमिहाणुवट्टदे, तेणेवं सुत्तस्थसंबंधो कायबो-मिस्सए सम्मामिच्छाइद्विगुणवाणे सत्त आदि कारण जाव एव ताव एदाणि तिएिण उदीरणाट्ठाणाणि लभंति त्ति । तं जहा-सम्मामिच्छत्तमपञ्चक्खाणाणमेकदरं, पञ्चक्खाणाणमेकदरं, संजलणाणमेक्कदरं, तिएहं वेदाणमेक्कदरं, दोण्हें जुगलाणमेक्कदरं, भय-दुगुलाश्रो घेत्तण एवमेदाओ णव ९ । एत्थ भय-दुगुकाणमण्णदरेण विणा अट्ट ८ । दोहि मि विणा हैं, छहसे लेकर उत्कृष्टरूपसे नौ तकके चार उदीरणास्थान अविस्तसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें होते हैं, पाँचसे लेकर पाठ तकके चार उदीरणास्थान विरताविरत गुणस्थानमें होते हैं तथा तीनके सिवा एकसे लेकर उत्कृष्टरूपसे सात तक उदीरणास्थान विरत गुणस्थानों में होता है ॥२-३॥ ८. यहाँ पर सर्वप्रथम पहली सूत्रगाथाका अर्थ कहते हैं। यथा-सातसे लेकर दस तकके ये चार उदीरणास्थान मिध्यावष्टि गुणस्थानमें होते हैं। यथा-मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धियोंमेंसे कोई एक, अप्रत्याख्यानावरणचतुक से कोई एक, प्रत्याख्यानावरणचतुष्कोसे कोई एक, संज्वलनचतुष्कर्मसे कोई एक, तीन वेदोंमेंसे कोई एक, दो युगलोंमेंसे कोई एक युगल तथा भय और जुगुप्सा इनको लेकर दसप्रकृतिक १० उदीरणास्थान होता है। यहाँ पर भय और जुगुप्सामेंसे किसी एकके विना नौ प्रकृतिक ६ उदीरणास्थान होता है। इन दोनोंके विना आठ प्रकृतिक ८ उदीरणास्थान होता है। तथा भय, जुगुप्सा और अनन्तानुबन्धीके विना सातप्रकृतिक ७ उदीरणास्थान होता है, इसलिए इनका मिथ्याष्टि जीव स्वामी है यह उक्त कथनका भावार्थ है। 'मिस्सए णवुकस्सा' इस पदका व्याख्यान करते समय 'सत्तादि' इस पदको महण कर उसकी अनुवृत्ति करनी चाहिए । इसलिए सूत्रका अर्थके साथ इस प्रकार सम्बन्ध करना चाहिए-मिश्र अर्थात् सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सातसे लेकर नौ तक ये तीन उदीरणास्थान प्राप्त होते हैं। यथा -सम्यग्मिथ्यात्व, अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कोसे कोई एक, प्रत्याख्यानावरणचतुष्कमेंसे कोई एक, संज्वलनचतुष्कोसे कोई एक, तीन वेदोंमेंसे कोई एक, दो युगलोमैसे कोई एक युगल तथा भय और जुगुप्सा इनको ग्रहणकर इस प्रकार ये नौ र प्रकृतियाँ होती हैं। इनमें भय और जुगुप्सामेसे किसी एकके विना पाठ ८ प्रकृतियाँ होती हैं तथा दोनों के ही विना Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०६२] उत्तरपयडिउदीरणाप प्रणियोगद्दारपरूषणा सत्त ७ । एवमेदेसि हाणाणं सम्मामिच्छाइट्ठी मामिश्रो होइ । सासणसम्माइट्टिम्मि वि वाणि तिरिण उदीरणहाणाणि होति, सम्मामिच्छत्तेण विणा अताणुबंधीणमण्णदरेण सह तदुप्पत्तिदंसणादो। ण च एदम्मि सुत्तम्मि एसो अत्थो ए संगहिरो त्ति प्रासंकणिजपासमासयभाया प्रचितासागर मालारान उक्कसा अविरदसम्मे दु श्रादिस्से छ आदि कादूण जा उक्क स्सेण एव पयडीओ ति ताव एदाणि चत्तारि उदीरणट्ठाणाणि अविरदसम्मे असंजदसम्माइटिम्मि होति ति प्रादिस्से णिदिस्से । तं कधं ? सम्मत्त-अपञ्चक्खाण-पञ्चक्खाण-संजलग-वेद-अएणदरजुगल-भय-दुगुंछा त्ति पत्रमुक्कस्सेण व पपडीओ असंजदसम्माइटिम्मि उदीरिजमाणाो होति । एत्थ भय-दुगुंबाणं अपणदरेण विणा अगु, दोहि मि विणा सत्त, सम्मत्तेण विणा खीणोबसंतदसणमोहणीयम्स जहणणेण छप्पयडीओ होति । तदो एदेसि हाणाणमसंजदसम्माइट्ठी सामियो होदि । एवं पढमगाहाए अत्थपरूवणा समत्ता । ९९. संपहि विदियगाहाए अत्थो बुच्चदे–'पंचादि अणिहणा०' एवं वुत्ते पंच आदि कारण जावुक्कस्सेण अट्टाणिहणा अपञ्जवसाणा ति एवभेदे चत्तारि उदीरणद्वाणाणि विरदाविरदम्मि संजदासंजदगुणहाणे होति ति मणिदं होइ। तत्थ जहरणेण पंच पयडीयो कदमाओ चि भणिदे उवसमसम्माइट्ठिस्स खयसम्माइडिस्स या संजदासजदस्स पचखाण-संजलण-वेदण्णदरजुगले ति एदारो पंच उदीरणसात ७ प्रकृतियां होती हैं। इस प्रकार इन स्थानोंका सम्यस्मिथ्याष्टि स्वामी होता है । सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें भी ये तीन उदीरणास्थान होते हैं, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके विना अनन्तानुबन्धीचतुष्कोसे किसी एक प्रकृतिके साथ इन स्थानोंकी उत्पत्ति देखी जाती है। इस सूत्रमें यह अर्थ संगृहीत नहीं है ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि देशामर्षक भावसे यह अर्थ सूचित होता है। 'छादी एउकस्सा अविरदसम्मे दु आदिस्से' बहसे लेकर उत्कृष्ट रूपसे नौ प्रकृतियों तक ये चार उदीरणास्थान 'अविरदसम्मे' अर्थात् अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें होते हैं ऐसा निर्देश किया है । अब वे किस प्रकार होते हैं यह बतलाते हैं- सम्यक्त्व, अप्रत्याख्यानाबरणचतुष्कमेंसे कोई एक, प्रत्यार पानावरणचतुष्कमेंसे कोई एक, संवलनचतुष्कमेंसे कोई एक, तीन वेदोंमसे कोई एक, अन्यतर युगल तथा भय और जुगुप्सा इस प्रकार उत्कृष्टरूपसे ये नौ प्रकृतियां असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उदीयमाण होती हैं। यहां पर भय और जुगासामेंसे किसी एकके बिना पाठ, दोनोंके बिना सात तथा उपशान्तदर्शनमोहनीय और क्षीणदर्शनमोहनीय जीवके सम्यक्त्वके बिना जघन्यरूपसे छह प्रकृतियां उदीर्यमाण होती हैं। इसलिए इन स्थानोंका असंयतसम्यग्दृष्टि जीव स्वामी होता है। इस प्रकार प्रथम गाथाकी अर्थप्ररूपणा समाप्त हुई। ६६. अब दूसरी गाथाका अर्थ कहते हैं-'पंचादि अट्ठणिहणा' ऐसा कहने पर पाँचसे लेकर उत्कृष्टरूपसे अाठ पर्यन्त इस प्रकार ये चार उदीरणास्थान विरताविरत अर्थात् संयतासंयत गुणस्थानमें होते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। उनमेंसे जघन्यरूपसे पाँच प्रकृतियाँ कौनसी है ऐसा कहनेपर उपशमसम्यग्दृष्टि या क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासेयतके प्रत्याख्यानावरणचतुष्कमेंसे कोई एक, संज्वलनचतुष्कमेंसे कोई एक, तीन वेदोंमेंसे कोई एक और दो युगलोंमें vvv....... Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ पडीओ होंति । एत्थ भय-दुर्गुडाणमण्णदरे पवेसिदे छ होंति । दोसु वि पट्ठेसु स भवंति । वेद्गसम्माइडम्मि सम्मते पड्डे श्रट्ट होंति । तदो एदेसिं चउरहमुदीरणहाणाणं संजदासंजदो सामी होइ । 'एगादी तिगरहिदा' एदस्सस्थो - जहण्णदो एयपयडिमादिं कारण जा उकस्सदो सत्त पयडीओ ति ताव एदाणि द्वाराणि चिरदेसु होंति । णवरि तिगरहिदा कायव्या । कुदो १ तिराहमुदीरणङ्काणस्स अवताभावेण पडिसिद्धनादो । तदो एकिस्से दोराहं चदुराहं पंचण्डं दण्डं सत्तण्डं च उदीरणट्टाणाणं संजदा सामिणो होति त्ति एसो सुत्तस्थसंगहो । तत्थाणियद्विम्मि संजलणाणमेकदरं होणेकिस्से उदीरणद्वारा लग्भइ । तस्सेच अण्णदरवेदेण सह दोरिए । अपुव्यकरण- पमतापत्तसंजदेसु दोएहमणणदरजुगलेण सह चचारि भएण सह पंच, दुर्गुछाए सह छ। क्षीणदंसणमोहस्स पमत्तापमत्तसंजदस्स सम्म पविट्ठे सत्त होंति । संपहि एदासिं गाई चिहासष्ठुर्मुचरिणामस्थ पनि इसाम । तं जहा १०० सामित्ता० दुविहो णिदेसो- श्रोषेण आदेसेण य । ओषेण दसहमुदीर कस्स ? अरणद० मिच्छाइट्टि । एव अट्ठ सत्त० उदीर० कस्स ? ० सम्माइ हिस्स मिच्चाइट्ठि० । ३० पंच० चत्तारि० दोएिण० एकिस्से उदीर ० Q ० से कोई एक युगल इस प्रकार ये पाँच उदीरणा प्रकृतियां होती हैं। तथा इनमें भय और जुगुप्सा में से किसी एक प्रकृतिका प्रवेश करने पर छह उदीरणा प्रकृतियां होती हैं और दोनों ही प्रकृतियों का प्रवेश करने पर सात उदीरणा प्रकृतियां होती हैं। तथा वेदकसम्यग्दृष्टि जीवके सम्यक्त्व प्रकृतिका प्रवेश करने पर आठ उदीरणाप्रकृतियां होती हैं। इसलिए इन चार उदीरणास्थानों का संयतासंयत जीव स्वामी है। अब 'एगादी सिंगरहिदा' इस पदका अर्थ कहते है - जघन्यरूपसे एक प्रकृति से लेकर उत्कृष्टरूपसे सात प्रकृतियों तक ये स्थान त्रिरत जीवोंके होते हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि तीनप्रकृतिक स्थानसे रहित करना चाहिए, क्योंकि तीन प्रकृतिक उदीरणास्थानका अत्यन्त अभाव होनेसे उसका निषेध किया है। इसलिए एकप्रकृतिक, दोप्रकृतिक, चारप्रकृतिक, पांचप्रकृतिक, छह्मकृतिक और सातप्रकृतिक उदीरणास्थानोंके संयत जीव स्वामी होते हैं इस प्रकार यह सुत्रार्थका संग्रह है । उनमेंसे अनिवृत्ति गुणस्थान में चार संज्वलनों में से कोई एककी उदीरणा होकर एकप्रकृतिक उदीरणास्थान प्राप्त होता है । उसी जीवके अन्यतर वेदके साथ दाप्रकृतिक उदीरणास्थान प्राप्त होता है । अपूर्वकरण, प्रमत्त और अप्रमत्तसंयत जीवोंमें दो युगलों में से किसी एकके साथ चार प्रकृतिक उदीरणास्थान प्राप्त होता है । भय के साथ पांचप्रकृतिक और जुगुप्साके साथ प्रकृतिक उदीरणास्थान प्राप्त होता है । तथा जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय नहीं किया है ऐसे प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीवके सम्यक्त्व प्रकृति के प्रविष्ट होने पर सातप्रकृतिक उदीरणास्थान होता है। अब इन गाथाओंका विशेष व्याख्यान करनेके लिए यहां पर उच्चारणाका अनुगम करके बतलाते हैं। यथा 1 १००. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है--- ओघ और आदेश । श्रघसे दशप्रकृतिक उदीरणास्थान किसके होता है ? अन्यतर मिध्यादृष्टि जीवके होता है। नौ, आठ और सातप्रकृतिक उदीरणास्थान किसके होता है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि और मिध्यादृष्टिके होस। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : मा० ६२ ] उत्तरपयडिउदीरणाए अयोगारपवरणा ५७ फरस ० १ अगद० सम्माइ डिस्स । एवं मणुसतिए । देसेण गोरइय० १०, म, ७, ६ मोघं । एवं सव्वरइय० देवा भवणादि जाव णवगेव चि । तिरिक्खपंचिदियतिरिक्खतिए १०, ९, ६, ७, ६, ५ ओघं । पंचि०तिरिक्खापज०मप० १०, ९, ८ उदीर० कस्स १ श्रएणदरस्स । यहिसादि सव्वट्टा ति ९, ८, ७, ६ उदीर० कस्स ? अण्णद० । एवं जाव० । * एदासु दोसु गाहासु विहासिदासु सामित्तं समत्तं भवदि । ६१०१. सुगमं । * एयजीवेण काली । १०२. सुगममेद महियारसंभालणसुतं । * एकिस्से दोहं चदुरा पंचराहं छुहं सत्तपहं अहं णवरहं दस पहुं पवेसगो केवचिरं कालादो होदि १ ११०३. सुगममेदेसि द्वाणमुदीरगस्स जहररमुक स्सका लगिद्देस | वेक्खं पुच्द्रावकं । मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज * जहणणेण एयसमो । है। छह, पांच, चार, दो और एक प्रकृतिक उदीरणास्थान किसके होता है ? श्रन्यतर सम्यग्दृष्टि के होता है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिमें जानना चाहिए। आदेशसे नारकियोंमें १०,९, ८, ७ और ६ प्रकृतिक स्थानोंका भंग ओधके समान है। इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य देव, और भवन वासियोंसे लेकर नौ मैत्रेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। सामान्य तिर्यक और पचेन्द्रिय सिवत्रिक में १०, ६, ८, ७, ६ और १ प्रकृतिक स्थानोंका भंग ओके समान है । पश्चेन्द्रिय विर्य अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में १०६ और प्रकृतिक स्थान किसके होता है ? अन्यतरके होता है। अनुदिशसे लेकर सवार्थ सिद्धि तक देवों में ९, ८, ५ और ६ प्रकृतिक arity स्थान किसके होता है ? अन्यतरके होता है। इस प्रकार अनाहारकमार्गणा तक जानना चाहिए । * इन दो गाथाओं का व्याख्यान करने पर स्वामित्व समाप्त होता है । ६१०१. यह सूत्र सुगम है । * एक जीवकी अपेक्षा काल । $ १०२. अधिकारकी सम्हाल करनेवाला यह सूत्र सुगम है । * एक, दो, चार, पाँच, वह, सात, आठ, नौ और दस प्रकृतियोंके प्रदेशकका कितना काल है ? $ १०३. इन स्थानोंके उदीरक जीवके जघन्य और उत्कृष्ट कालके निर्देशकी अपेक्षा करनेवाला यह पृच्छावाक्य सुगम है । * जघन्य काल एक समय है । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे - [पेदले ॥ ६१०४. एक्किस्से पवेसगस्स ताप उच्चदे । तं जहा--एको अण्णदरवेद-संजलणाणमुदएण उवसमसेढिमारूढो वेदपढमद्विदीए प्रावलियपविट्ठाए एयसमयमेकिस्से पक्सगो जादो। विदियसमए कालं कारण देवेसुववण्णो । लद्धो एकिस्से पवेसगस्स जहण्णकालो एयसमयमेवो । अधवा ओदरमाणो उत्रसंतकसायो सुहमसांपरायो होदि ति एगसमयमे किस्से पवेसगो जादो । विदियसमए कालं कादूण देवेसुप्पण्णो, लद्धो । एगसमओ। १०५. संपहि दोपहं पवेसग० उच्च दे । तं कधं ? उवसमसेढीए अणिपट्टिकरणपढमसमए दोण्हं पवेसगो होऊण विदियसमए कालं करिय देवेसुप्पएणस्स लद्धो एयसमयमेवो दोण्हं पवेस० जहएणकालो। अधवा ओदरमाणगो अणियट्टिवेदमोकडिऊरणेगसमयं दोएह पवेसगो जादो, विदियसमए कालं काढूण देवेसुक्यण्णो, तस्स लद्धो एगसमो। मार्गदर्शक : श्ववार्यसपहियतमहापर्वसमै उपद-ओदरमाणगो उवसामगो अपुवकरण भावेणेगसमयं चउण्हं पवेसगो होदूण से काले कालगदो देवो जादो, सत्थाणे चेव वा भय-दुर्गछाणमुदीरगो जादो, लद्धो चउण्डं पवेसगस्स जहण्णकालो एयसमयमेत्तो । अथवा खीणोत्रसंनदंसणमोहणीयस्स संजदस्स पढमसमए भय-दुगंछाहि विणा चउण्ड पवेसगत्तं दिटुं । अणंतररामए च भय-दुगुंछासु पविठ्ठासु लद्धो विवक्खियपदस्स एय $ १०४. सर्व प्रथम एक प्रकृति के प्रवेशकका जघन्य काल कहते हैं। यथा--कोई एक जीव अन्यतर वेद और अन्यतर संज्वलनके उदयसे उपशमणि पर चढ़ा । अनन्तर वेदको प्रथम स्थितिके उदयाचलिमें प्रविष्ट होनेपर एक समय तक एक प्रकृतिका प्रवेशक हो गया और दूसरे समयमें मरकर देवोंमें उत्पन्न हुआ । उसके एक प्रकृतिके प्रवेशकका जघन्य काल एक समय प्राप्त हुआ। अथवा उपशान्तकषाय जीव उतरने हुए सूक्ष्मसाम्यराय होकर एक समय तक एक प्रकृतिका प्रवेशक हुआ और दूसरे समयमें मर कर देवों में उत्पन्न हुआ। उसके एक प्रकृति के प्रवेशकका एक समय काज़ भाम हो गया। ६५०५. अब दो प्रकृतियों के प्रवेशकका काल कहते हैं। वह कैसे ? उपशमश्रेणिमें अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयमें दो प्रकृतियोंका प्रवेशक होकर और दूसरे समयमें मर कर देवोंमें उत्पन्न हुए जीवके रो प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य काल एक समय प्राप्त हुआ। अथवा उपशमणिसे उतरनेवाला जीव अनिवृत्तिकरणमें वेदका अपकर्पण कर एक समय तक दो प्रकृतियोंका प्रवेशक हुआ और दूसरे समयरें मर कर देवोंमें उत्पन्न हुआ। उसके दो प्रकृतियों के प्रवेशकका जघन्य काल एक समय प्राप्त हुआ। ६१०६. अब चार प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य काल कहते हैं-उपशमणिसे उतरनेवाला उपशामक जीव अपूर्वकरणभावसे एक समय तक चार प्रकृतियोंका प्रवेशक होकर तद्नन्तर समयमें मर कर देव हो गया । अथवा स्वस्थानमें ही भय और जुगुप्साका उदीरक हो गया। उसके चार प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य काल एक समयमात्र प्राप्त हुआ। अथवा जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय या उपशम किया है ऐसे संयत जीवके प्रथम समयमै भय और जुगुप्साके विना चार प्रकृतियों का प्रवेशकपना दिखलाई दिया और तदनन्तर समयमें भय और Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाद्यासागर जा गा०६९] उत्तरपयडिउदीरणाए अणियोगदारपत्रणा समयमेतो जहण्णकालो। एवं सेसाणं पि पदाणं जहण्णकालो अणुमग्गियचो, तस्य सम्वस्थ पयडिपराबत्तीए गुणपरावत्तीए मरणेण च जहासंभवमेगसमयोवलंभस्स पडिसेहाणुवलंभादो । संपाहि एदेसिनुकस्सकालपरूषणमुत्तरसुत्तमोइपणं-- * उकस्सेणंतोमुहत्तं । तुं कधं हिस्से पराजदे-इस्थि-णसयवेदोदएण खरगसेढिमारूढस्स वेदपदमहिदीए प्रावलियाविट्ठाए एकिस्से पवेसगो होदि । तदो ताव एकिस्से पवेसगो जात्र सुहुमसांपराइयम्स समयाहियावलियचरिमसमयो ति । एसो च कालो अंतोमुहुत्तपमाणो । १०८. संपाहि दोपहं पवे. बुचदे-पुरिसवेदोदएण सेढिमारूढो अणियट्टिकरणपढमसमयप्पहुडि दोण्हं पवेसगो होतो गच्छद जाव पुरिसवेदपढमहिदी अणावलियपविठ्ठा ति; नत्तो परमेकिस्से पवेसगत्तदंसणादो । एसो च कालो [ अंतोमुहुत्तपमाणो] । १०९. संपहि चदुएहं पवेसग० बुच्चदे--अपुवकरणपविठ्ठम्मि खीणोवसंत दंसणमोहणीयपमत्तापमत्तसंजदेस च भय-दुगुंदाणमुदएण विणा अवट्ठाणकालो सन्युस्कृस्सो चउण्हं पवेसगस्स उकस्सकालो होइ । सो घुण अंतोमुहत्त मेत्तो। एवं पंचएहं छहं .............................. ...... - . .. . . .... ... .... जुगुप्साके प्रविष्ट हो जाने पर विवक्षित पदका जघन्य काल एक समयमात्र प्राप्त हो गया। इसी प्रकार शेष पदाफा भी जघन्य काल विचारकर जान लेना चाहिए, क्योंकि उन सब पदोम प्रकृतिके पगवर्नन, गुणस्थानके पगवर्नन और मरणके द्वारा यथासम्भव एक समय कालके उपलब्ध होने में प्रतिषेध नहीं है। अब इनके उत्कृष्ट कालका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र आया है * उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। १०७. वह कैसे ? सर्व प्रथम एक प्रकृति के प्रवेशकका कहते है -स्त्रीवेद और नपुंसकवेद के उदयसे नपकणि पर चढ़े हुए जीवके वेदकी प्रथम स्थितिके उदयावलिके भीतर प्रविष्ट होने पर वह एक प्रकृतिका प्रवेशक होता है। उसके बाद वह सूक्ष्मसाम्परायके एक समय अधिक श्रावलिके अन्तिम समयके शेष रहने तक एक प्रकृतिका प्रवेशक रहता है और यह काल अन्नमुहूर्तप्रमाण है। १०८. अय दो प्रकृत्तियों के प्रवेशकका कहते हैं--पुरुषवेदके उदयसे श्रेणिपर चढ़ा हुआ जीय अनियुनिकरणके प्रथा समयसे लेकर दो प्रकृतियों का प्रवेशक होकर पुरुषवेदकी प्रथम स्थितिके उदयाचलिमें प्रविष्ट होनेके पूर्व तक वो प्रकृतियोंका प्रवेशक रहा, क्योंकि उसके बाद एक प्रकृतिका प्रवेशक देखा जाता है और यह काल अन्तमुहर्तप्रमाण है। ६१०६. अब चार प्रकृतियोंके प्रवेशकका काल कहते हैं-जो जीव अपूर्वकरणमें प्रविष्ट हुआ है ऐसे जीवके तथा जिन्होंने दर्शनमाहनीयका क्षय या उपशम किया है ऐसे प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीवोंके भय और जुगुप्साके बिना जो सर्वोत्कृष्ट अवस्थानकाल है वह चार प्रकृतियोंके प्रवेशकका उत्कृष्ट काल है जो कि अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है। इसीप्रकार पाँच, छह, _ ( Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलास हिदे कसाय पाहुडे सप्त हं [ वेदगो ७ हं च पवेसगस्स उकस्सकालागुगमो कायव्वो, भय-दुर्गुछारमुदय कालं मोरा एस एस स्कॉलर्स विनिक्षितगरी महाराज Fruer | एवं चैवं वहं दसहं पि उक्कस्स कालो अगंतव्यो । पारि भय - दुगुदाणमएणदरस्सारणुदयकालो णवण्हं कायव्वो । दोन्हं पि उदयकालो दस एहमगंतच्चो ति । एवमोवेण कालागमो समत्तो । आदेसेण मसतिए श्रोधभंगो सेससव्वाईस अप्पप्पणी पदासं जह० एयसमओ, उक्क० अंतो० । एवं जाव ० । 1 * एगजीवेण अंतरं । ११०. एतो एगजीव चिसयमंतरं वत्तइस्सामो ति श्रहियारपरामरसवकमेदं । * एकिस्से दोहं च परं पयड़ीणं पवेसगंतरं केवचिरं कालादो होदि १११. सुगमं * जहणणेण अंतोमुहुत्तं । ६ ११२. तं जहा - एकिस्से ताव उच्चदे - सुहुमसांपराइयों एकिस्से पवेसगो लोहसंजल पढमडिदीए अवलियपविङ्काए अपवेसगो होदूांतरिदो तदो उवसंतद्धं बोलाविय परिषदमाण सुमसांपराइयपढमसमए एकिस्से पवेसगो जादो । लद्धमेकिस्से पवेसगस्स जहरणंतरमंतोमुहुत्तमेतं । एवं दोन्हं पवेसगस्स वि वत्तव्यं । सात और आठ प्रकृतियोंके प्रवेशक के उत्कृष्ट कालका अनुगम करना चाहिए, क्योंकि भय और जुगुप्सा उदयकालको छोड़कर अन्यके इनका उत्कृष्ट काल नहीं उपलब्ध होता । तथा इसीप्रकार नौ और दस प्रकृतियोंके प्रवेशकका उत्कृष्ट काल जान लेना चाहिए। किन्तु इतनी विशेपता है कि भय और जुगुप्सामेंसे श्रन्यतरका जो अनुदयकाल है वह नौ प्रकृतियोंके प्रवेशकका उत्कृष्ट काल करना चाहिए और दोनों प्रकृतियोंका जो उदय काल है वह दस प्रकृतियों के प्रवेशुकका जानना चाहिए । इसप्रकार ओघसे कालानुगम समाप्त हुआ । आदेश से मनुष्यत्रिक में ओके सामान भंग है। शेष सब मार्गणाओं में अपने-अपने पदोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । * एक जीवकी अपेक्षा अन्तर | $ ११०. आगे एक जीव विषयक अन्तरको बतलाते हैं । इसप्रकार अधिकारका परामर्श करनेवाला यह वचन है 1 * एक, दो और चार प्रकृतियोंके प्रवेशकका अन्तरकाल कितना है ? $ १११. यह सूत्र सुगम है । * जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । $ ११२ यथा - सर्वप्रथम एक प्रकृतिका अन्तर कहते हैं - एक प्रकृतिका प्रवेशक एक सूक्ष्मसाम्परायिक जीव लोभसंज्वलनकी प्रथम स्थितिके उदद्यावलिमें प्रविष्ट होने पर उसका वेशक होकर अन्तर किया। उसके बाद उपशान्तकपाय गुणस्थानके कालको विता कर गिरते समय वह पुनः सूक्ष्मसाम्पराय के प्रथम समय में एक प्रकृतिका प्रवेशक हो गया। इसप्रकार एक प्रकृतिके प्रवेशकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त हो गया। इसीप्रकार दो प्रकृतियों के Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक:- आचार्य R] उदी रायबर ६१ रिएकिस्से पवेसगकालो पवेसगकालो च तदंतरं होण पुणो ओदरमाणेण म्म वेदो प्रकट्टिदो तम्म अंतरसमती होदि । एवं चउरहं पवेसगस्स वि । णवरि दो पवेसगकालो एकिस्से पवेसगकालो अपवेसगकालो च तदंतरं होण पुणो मोदराणा पुष्यकरणपढमसमए भय-दुगुंडाओ अगदी रेमाणस्स पयदंतर परिसमती होदि सव्वं । अधवा स्त्रीयो वसंतदंसण मोहमत्तापमत्ता पुन्त्रकरणाणमण्णदरगुणड्डाणे अप-दुर्गादाहि विणा चत्तारि उदीरेमाणस्स भय- दुगुदाय मण्णदरपवेसेणंतरिदस्स पुणो हृदयवोच्छेदेण लद्धमंतरं कायव्वं । * उकस्सेव उवडपोग्गलपरियहं । $ ११३. कुदो ? श्रद्धपोग्गलपरियट्टादिसमए पढमसम्मत्तं घेत्तूण सव्वलहुमुवसमसेडिमारुहिय हेडा दरमाणो अप्यप्पणी द्वाणे आदि कादर्शतरिय देसुद्धपोम्गलपरियमेतकालं परिभमिय धोवावसेसे संसारे पुणो वि सम्मतमुप्पादय खवगसेहिमारोहण पडिलद्धत भावम्मि तदुबलीदो । * पंचरहं हं सत्त पहं पयडीणं पवेसगंतरं केवचिरं कालादो होइ ? ११४. सुगमं । N. प्रवेश का भी जघन्य अन्तर कहना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि एक प्रकृतिके प्रवेशकका काल और प्रवेशकका काल उसका अन्तर होकर पुनः उतरते हुए जहाँ वेदका अपकर्षण करता है वहाँ जाकर उसके अन्तर की समाप्ति होती है। इसीप्रकार चार प्रकृतियोंके प्रवेशकका भी जघन्य अन्तर कहना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि दो प्रकृतियोंके प्रवेशकका काल एक प्रकृतिके प्रवेशकका काल और प्रवेशकका काल उसका अन्तर होकर पुनः उतरते हुए अपूर्वकरण के प्रथम समय में भय और जुगुप्सा की उदीरणा नहीं करनेवाले जीवके प्रकृत पदके अन्तर की परिसमाप्ति होती है ऐसा यहाँ कहना चाहिए । अथवा जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय या उपशम किया है ऐसे जीवके प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थानों में से किसी एक गुणस्थान में भय और जुगुप्साके विना चार प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेवाले जीवके भय और जुगुप्सामें से किसी एक प्रकृतिके प्रवेश द्वारा अन्तर कराकर पुनः उन दोनों प्रकृतियोंकी उदयव्युच्छित्तिके द्वारा अन्तरको समाप्तकर उसका अन्तर प्राप्त करना चाहिए। * उत्कृष्ट अन्तर उपार्धषुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है । १९१३. क्योंकि अर्धपुलपरिवर्तन काल के प्रथम समय में प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण कर और अतिशीघ्र उपशमश्रेणिपर आरोहणकर नीचे उतरते हुए अपने-अपने स्थानमें उक्त पदोंका प्रारम्भ कर तथा उसके बाद उनका अन्तरकर कुछ कम अर्धपुलपरिवर्तन कालतक परिभ्रमण कर संसारमें रहनेका कुछ काल शेष रहने पर फिर भी सम्यक्त्वको उत्पन्न कर क्षपकश्रेणि पर श्रारोहण करनेसे उस उस पदके प्राप्त होनेपर उक्त पदका अन्तरकाल प्राप्त हो जाता है । * पाँच, छह और सात प्रकृतियोंके प्रवेशकका अन्तरकाल कितना है ? ११४. यह सूत्र सुगम है। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो * जहणेणाधिसमोभाचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ६११५. पंचएहं पवेसगस्स ताव बुचदे । तं जहा--खइयसम्माइट्ठी उचसमसम्माइट्टी वा संजदो भएण सह पंच उदीरेमाणो विदो, तस्स भयकालो एगसमओ अस्थि त्ति दुगुंछाए पवेसगो जादो । तत्थ छएहमुदीरणहाणेयेक समयमंतरिय विदियसमए भयवोच्छेदेण पुणो वि पंचएहं पवेसगो जादो । लद्धमंतरं जहण्णदो एयसमयमेत्तं । अधवा एसो वेव पंचमे पवेसगो संजदो भयवोच्छेदेणेगसमयं चउण्हं पवेसगो होदूर्णतरिय पुणो विदियसमए दुगुंछापवेसेण पंचएह पवेसगो जादो । लद्धमेगसमयमेत्तं जहणंतरं । ११६. संपहि कण्हं यचे. बुचदे-लएहमुदीरगो होदूण द्विवेदगसम्माइट्ठी संजदरस भयवोच्छेदेणेगसमयमंतरिदस्म पुणो वि से काले दुगुंछोदएण परिणदस्स लद्धमंतरं होइ । अधवा तस्सेव छप्पवेसगस्स भयकालो एगसमयो अस्थि ति दुगंछागमेणंतरिदस्स से काले भयवोच्छेदेण लद्धमंतरं कायव्वं । उपसम-खइयसम्माइद्विसंजदासंजदस्स वि एवं चेत्र दोहि पयारेहि जहण्णंतरमेदं वत्तव्यं । ६ ११७. संपहि सनण्हं पवेसग० उच्चदे---वेदगसम्माइविसंजदासजदस्स ताव * जघन्य अन्तर एक समय है। 5 '१५. सर्वप्रथम पाँच प्रकृतियोंके प्रवेशकका अन्तरकाल कहते हैं। यथा-सायिकसम्यग्दृष्टि या उपशमसम्यग्दृष्टि जो संयत जीव भयके साथ पाँच प्रकृतियोंकी उदीरणा करता हुआ स्थित है उसके भयकी उदीरणाका एक समय काल शेष रहा कि वह जुगुप्साका प्रवेशक हो गया। वहाँ छह प्रकृतिक उदीरणास्थानके द्वारा एक समय तक उसका अन्तर करके दूसरे समयमें भयकी उदयव्युच्छित्तिके द्वारा फिरसे पाँच प्रकृतियों का प्रवेशक हो गया। इस प्रकार पाँच प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य अन्तर एक समयमात्र प्राप्त हो गया। अथवा यही पाँच प्रकृतियों का प्रवेशक संयत जीव भयकी उदयव्युच्छित्तिद्वारा एक समय तक चार प्रकृतियोंका प्रवेशक होकर उस द्वारा उसका अन्तर करके पुनः दूसरे समय जुगुप्साके प्रवेशद्वारा पाँच प्रकृतियोका प्रवेशक हो गया। इस प्रकार पाँच प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त हो गया। ६ ११६. अब छह प्रकृतियोंके प्रवेशकका अन्तरकाल कहते हैं-छह प्रकृतियों की उदारणा करनेवाले जिस वेदकसम्यग्दृष्टि संयत जीवने भयकी न्युजिन्छत्ति कर एक समयके लिए उसका अन्तर किया, उसके फिरसे तदनन्तर समयमें जुगुप्साके जदयसे परिणत होनेपर छह प्रकृतियों के प्रवेशकका एक समय जघन्य अन्तर प्राप्त होता है । अथवा छह प्रकृतियों के प्रवेशक उसी जीवके भयका एक समय काल शेष है, कि उस जीयने जुगुप्साके प्रवेशद्वारा उसका अन्तर किया तथा तदनन्तर समयमें भयकी उदयव्युचित्ति द्वारा वह पुनः छह प्रकृतियों का प्रवेशक हो गया। इस प्रकार भी इसका एक समय जघन्य अन्तर प्राप्त करना चाहिए । उपशमसम्यग्दृष्टि या क्षायिकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत जीवके भी इसीप्रकार दो प्रकारसे इस पदका यह जघन्य अन्तर कहना चाहिए। ६ ११७, अब सात प्रकृतियोंके प्रवेशकका अन्तरकाल कहते हैं--वेदकसम्यग्दृष्टि संयता Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक:- आचार्य श्री सविधिसागर जी । एण्ािंगद्दारपरूवा यह मणिदविहाणेण पयदजहएतराणुगमो कायव्यो । अधवा खीणोवसंतदसणऔरणीयस्स असंजदसम्माइद्विस्स सत्तण्डं जहएहतर भय-दुगुंछाप्रो अस्सिऊरण पुब्बुत्तेणेव साणेणाणुगंतच्वं । 0 उपरसेण उवढपोग्गलपरियहूं । ११८. कुदो ? अद्धपोग्गलपरियादिसमए पढमसम्मत्तगहरणपुच्वं तिण्हमेदेसि समापं जहासंभवमप्पणो विसए उकस्संतराविरोहेणादि कादूर्णतरिय मिच्छ गंतूण चूणमद्धपोग्गलपरियट्ट परियट्टिदृण थोबाबसेसे संसारे पुणो वि सम्मत्तपडिलंभेण हिवाएतब्भावम्मि तदुवलंभादो । अट्ठण्हं णवण्हं पयडीणं पवेसर्गतरं केवचिरं कालादो होदि । ६११९. सुगम जहपणेण एयसमझो। ६ १२०. तं कधं ? असंजदो वेदगसम्माइटी अगुण्इं पवेसगो भयकालो एगसमयों अस्थि त्ति दुगुंलोदएण परिणदो तत्थेगसमयमंतरिय पुणो वि तदणंतरसमए भयवोच्छेदेणट्टाहं पसगो जाहो । लद्धमंतरं । अधया एसो चेव भयवोच्छेदेणेगसमयं सतपसगो होदणंतरिय से काले दुगुंछोदएण लद्भूमंतरं करेदि ति वरव्यं । एवं संयत जीवके जिसप्रकार छष्ट्र प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य अन्तर कहा है. उसीप्रकार प्रकृत पदके जश्न्य अन्तरका अनुगम करना चाहिए। अथवा जिसने दर्शनमोहनीय कर्मका क्षय या उपशम किया है ऐसे असंयतसम्यम्दृष्टि जीवके सात प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य अन्तर भय मौर जुगुप्साका आश्रयकर पूर्वोक्त विधिसे ही जानना चाहिए । * उस्कृष्ट अन्तर उपापुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है । १९८. क्योंकि अर्धपुद्गलपरिवर्तनत्रमाण कालके प्रथम समयमें प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहणपूर्वक इन तीन स्थानोंका यथासम्भव अपने विषयमें उत्कृष्ट अन्तरके अविरोधरूपसे प्रारम्भ करके और अन्तर करके अनन्तर मिथ्यात्वमें जाकर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन कालतक परिवर्तन करके संसारके स्तोक शेष रहने पर पुनः सम्यक्त्वकी प्राप्ति के साथ उन स्थानों के प्राप्त होने पर उनका अन्तर उपलब्ध होता है। * आठ और नौ प्रकृतियों के प्रवेशकका अन्तर कितना है। ११६. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तर एक समय है। ६५२०. वह कैसे कोई एक आठ प्रकृतियों का प्रवेशक असंयत वेदकसम्यग्दृष्टि जीव भयकी उदीरणामें एक समय काल बचा है कि वह जुगुप्साके उद्यसे परिणत होगया और वहाँ एक समय तक उसका अन्तर करके फिरसे तदन्तर समयमें भयकी उदयव्युच्छित्ति करके पाठ प्रकृतियांका प्रवेशक हो गया । इसप्रकार पाठ प्रकृतियोंके प्रवेशकका एक समय अन्तर प्राप्त हुआ। अथवा यह जीव भयकी उदयव्युच्छिचि करके एक समय तक सात प्रकृतियोंका Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज जयधवलासहिदे कसायपाहुसे [बेदगो व सम्मामि०-सासणसम्भाइट्ठीसु वि अट्टण्हं जहण्णंतरं जाणिय जोजेयव्वं । संपहि णवण्हं मिच्छाइद्विम्हि एवं चेव भय-दुगुंलावलंबणेण जहाणंतरमेदमणुगंतव्यं । ॐ उसण पुव्वका दै F१२१. तं जहा-एको मणुस्सो वेदगसम्माइट्टी गम्भादिअदुवस्साणमुवरि अट्ठण्हमादि कादुण रणवपवेसगो होदूरणंतरिदो। तदो विसेहि पूरिय संजमं घेत्तण पुन्यकोडि सव्वमंतरिय कमेण कालं कादृण देवेसुक्वण्रणो तस्स अंतोमुहुत्ते बोलीणे भय-दुर्गुलाणमण्णदरमुदीरमाणस्स लद्धमंतरं होइ । एवमंतोमुत्तम्भहियअहवस्सेहि ऊणिया पुचकोडी अट्ठण्हं पवेउक्कस्संतर होइ । संपहि एवण्हं पवेसगस्स भण्णमाणे अट्ठावीससंतकम्मियमिच्याइद्विस्स पुव्यकोडाउअसम्मुच्छिमतिरिक्खेसुप्पन्जिय छहिं पञ्जनीहिं पञ्जत्तयदभात्रेण विस्संतस्स तत्थेव रणवण्हमादि कादृणंतरिदस्स सब्यविसुद्धीए पडिवण्णसम्मत्तसहिदसंजमासंजमस्स देसूणपुरकोडिमंतरिय भवावसाणे देवेसुप्पण्णस्स अंतोमुहुत्ते गदे लमंतरं होइ ति वत्तव्यं । 8 दसराहं पयडीणं पवेगस्स अंतर केवचिरकालादो होदि ? प्रवेशक होकर और उसका अन्तर करके अनन्तर समयमें जुगुप्साके उदयसे अन्तरको प्राप्त करता है. ऐसा कहना चाहिए। इसीप्रकार सम्यग्मिध्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें भी श्राट प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य अन्तर जानकर उसकी योजना करनी चाहिए। तथा नौ प्रकृतियोंके प्रवेशकका मिथ्याहष्टि गुरग्रस्थानमें इसीप्रकार भय और जुगुप्साके अवलम्बनसे यह जघन्य अन्तर जान लेना चाहिए। * उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। ६ १२१. यथा-एक मनुष्य बेदकसम्यग्दृष्टि जीवने गर्भसे लेकर पाठ वर्षके बाद आठ प्रकृतियाँदी उदीरणाका प्रारम्भ करके अनन्तर नौ प्रकृतियोंका प्रवेशक होकर उसका अन्तर किया। अनन्तर विशुद्धिको पूर्ण करके और संयमको ग्रहण कर पूरे पूर्वकोटि कालका अन्तर देकर कमसे यह मरा और देव हो गया। फिर उसके अन्तर्मुहूर्त काल जाने पर भय और जुगुप्सा इनमेंसे किसी एककी उदीरणा करने पर आठ प्रकृतियों के प्रवेशकका अन्तर प्राप्त हो जाता है। इसप्रकार अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष कम एक पूर्वकोदिप्रमाण पाठ प्रकृतियोंके प्रवेशकका उत्कृष्ट अन्तर होता है। अब नौ प्रकृतियोंके प्रवेशकका उत्कृष्ट अन्तर कहने पर जो अट्ठाईस प्रऋतियोंकी सत्तावाला मिथ्या दृष्टि जीव पूर्वकोटिकी श्रायुवाले सम्मूछिम तिर्यश्चों में उत्पन्न हुश्रा और जिसने छह पर्याप्तयोंसे पर्याप्त होकर लसरूपसे विनाम किया। पुनः वहीं पर नौ प्रकृतियोंके प्रवेशका प्रारम्भ करके अन्तर किया । फिर सर्वविशुद्धिके साथ सम्यक्त्वसहित संयमासंयमको प्राप्त कर कुछ कम एक पूर्वकोटिकालका अन्तर देकर भवके अन्तमें देवोंमें उत्पन्न हुआ। उसके वहाँ पर अन्तमुहृत काल जाने पर उक्त पदका अन्तर प्राप्त हो जाता है ऐसा यहाँ पर कहना चाहिए। * दस प्रकृतियोंके प्रवेशकका अन्तरकाल कितना है ? Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरपषिदीरणाए [रिणयोगदार परूवणा 就 ६१२२. सुगममेदं पुच्छासुतं । जपणेअंतोमुत्तं । ६१२३. कुदो ? दस एहमुदीरगस्स भयचोच्छेदेण सध्वजहणमंतो मृदुत्तमणसिदपदेणंतरिदस्स तदुबलं भादो । * उकस्से छावट्टिसागरोवमाथि सादिरेयाणि । ६१२४. तं जहा -- एको मिच्छाहडी दसहं पवेसगोविदपदेतो मुहुतसंतरिय तदो सम्मतं घेण बेछाबडिसागरोमाणि परिभमिय पुणो मिच्छतं गंतणंतोमुरोण दसरहं पवेसगो जादो । तस्स लद्धमंतरं होई । एवमोघेण सब्धेसिमुदीरणाडाणाणमंतर परूवणा कया । ६१२५. संपछि यादेसपरूवणमुच्चारणाणुगममेत्थ तस्साम । तं जहा— अंतरापुगमेण दुविहो गिद्देसो - श्रघेण आहेसेस य । ओषेण दस एहमुदीर० जह० 'मोर्गदर्शक आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज अंतो४०, उक्क० बेला डिसागरोत्रमाथि देणाणि । एव० अ० जह० एयसमै श्री, उक्ऋ० पुण्यकोडी देणा । सत-पंच० जह० एयसमओ, उक० उचढपोग्गलपरियहं । चदुरा दोहमे किस्से उदीर० जह० अंतोमु०, उक्क० उपोग्गलपरिय | । ६१२६. देसेण रहय० दस० हं जह० अंतोतं मत्त० जह० $ १२२. यह प्रच्छास्थ् सुगम है * जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । १९३. क्योंकि जो दस प्रकृतियों का उदीरक जीव मय की व्युच्छित्ति के साथ सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त कालतक अर्पित पदके द्वारा उसका अन्तर करता है उसके उक्त पदका उक्त अन्तरकाल उपलब्ध होता है * उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छयासठ सागरप्रमाण हैं | १२४. यथा -- किसी एक दस प्रकृतियोंके प्रवेशक मिध्यादृष्टि जीवने अर्पित पदके द्वारा अन्तर्मुहूर्त फालत उसका अन्तर किया। फिर सम्यक्त्वको ग्रहण कर और दो छयासठ सागर कालतक गरिभ्रमणकर पुनः मिध्यात्वमें जाकर अन्तर्मुहूर्त में जो दस प्रकृतियों का प्रवेशक हो गया उसके उक्त कालप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होता है। इसप्रकार से सब उदीरणास्थानोंके अन्तरकी प्ररूपणा की। ६ १२५. अब आदेशका कथन करनेके लिए यहाँ पर उच्चारणाका अनुगम करके बतलाते हैं । यथा - अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - श्रोव और आदेश । श्रघसे दस प्रकृतियों के उदीरकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो पासठ सागर है। नौ और आठ प्रकृतियों के प्रवेशकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है । सात, छह और पाँच प्रकृतियोंके उदीरकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर उपार्थपुलपरिवर्तनप्रमाण है । चार, दो और एक प्रकृतिके उदीरकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर उपार्धपुलपरिवर्तनप्रमाण है । ३ १२६ आदेश नारकियों में दस और छह प्रकृतियोंके उदीरकका जघन्य अन्तर Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो एयस०, उक्क० सव्वेसिं तेतीसं सागरोवमाणि देखणाणि । णव० अ० जह० एस० उक्क० अंतोमु० । एवं सच्चरइय० । वरि सगट्टिदी देखणा । ९ १२७. तिरिक्खेसु दसरहं जह० अंतीमु०, उक्क० तिथिण पलिंदो माणि देणाणि ! एव० जह० एयस०, उक्क० पुञ्चकोडी देखणा । श्रड्डू० जह० एयस०, अन्तर्मुहूर्त है, सात प्रकृतियोंके उदीरकका जघन्य अन्तर एक समय है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। नौ और आठ प्रकृतियोंके उदीरकका जघन्य अन्तर एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इसीप्रकार सत्र नारकियों में जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए। विशेषार्थ - श्रघसे दस, नौ, आठ और सात प्रकृतियों के उदीरका जो जघन्य अन्तरकाल घटित पति करके बतुला या सुचिमा वह घटित कर लेना चाहिए। उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है, इसलिए यहाँ पर उसका अलग से खुलासा नहीं किया है। रह या मात्र छह प्रकृतियोंके प्रवेशक के जघन्य अन्तर कालका खुलासा, सो जो उपशमसम्यग्दृष्टि या ताकि सम्यग्दृष्टि जीव भय और जुगुप्साका अनुदीरक होकर छह प्रकृतियोंका उदीरक होता है, वह भय और जुएलाकी उदीरणा द्वारा इसका अन्तर करके पुनः कमसे कम अन्त मुहूर्त के बाद ही उनका अनुदीरक होकर इस स्थानको प्राप्त कर सकता है। यही कारण है कि नारकियों में छह प्रकृतियोंके उदीरकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। यह तो सब पदों के जघन्य अन्तरकालका विचार है। उत्कृष्ट अन्तरकालका खुलासा इस प्रकार है- जो नारकी ree प्रारम्भ और अन्तमें दस प्रकृतियों का उदीरक होकर मध्यमें कुछ कम तेतीस सागर कालक सम्यग्दृष्टि हो दस प्रकृतियोंका अनुदीरक बना रहता है उसके दस प्रकृतियोंके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर प्राप्त होनेसे तत्प्रमाण कहा हैं तथा जो नारकी जीव rah प्रारम्भ और अन्तमें सम्यग्दृष्टि होकर सात और छह प्रकृतियोंका उदीरक होता है और मध्य में कुछ कम तेतीस सागर काल तक मिध्यादृष्टि बना रहता है उसके छह और सात प्रकृतियोंके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर प्राप्त होनेसे तत्प्रमाण कहा है । अब रहा नौ और आठ प्रकृतियों के उदीरकके उत्कृष्ट अन्तरकालका विचार सो इनका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं प्राप्त हो सकता, क्योंकि जो मिथ्यादृष्टि या वेदकसम्यदृष्टि नारकी है उसके आठ और नौ प्रकृतियों के उदीरकका उत्कट अन्तर अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं प्राप्त होता और जो उपशमसम्यग्दष्टि हैं उसका उसके साथ रहनेका काल ही अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए नारकियोंमें नौ और आठ प्रकृतियोंके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है । यह च प्ररूपण हैं जो सातवें नरकमें अविकल बन जाती है, इसलिए इस प्ररूपराको तो सातवें नरक में इसी प्रकार जानना चाहिए। मात्र अन्य नरकोंरों जघन्य अन्तर तो ओष प्ररूपणा के समान प्राप्त होने में कोई बाधा नहीं है। हाँ दस, सात और छह प्रकृतियों के उदीरकका उत्कृष्ट अन्तर प्रोधके समान नहीं बनता । सो उसका कारण केवल उस उस नरककी भवस्थिति है जिसकी सूचना मूलमें को ही है। ६१२७. तिर्यों में दस प्रकृतियोंके उदीरकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। नौ प्रकृतियों के उदीरकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है । आठ प्रकृतियोंके उदीरकका जघन्य अन्तर एक समय Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ] उत्तरपयडिउदीरणाए अणियोगद्दारपरूवणा कर अंतोमु० । सत्त० छराहं जह० एयस०, पंच० जह. अंतोमु०, उक्क० सन्वेसिपोग्गलपरिय। १२८. पंचिंदियतिरिक्खतिए दस० णव० अढ० तिरिक्खोघं । सत्त० छ० are एयस०, उक्क० तिणि पलिदो० पुवकोडिषुधत्तेणब्भहियाणि। पंच० जहरणुक० अंतोमुः । और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सात और छह प्रकृतियोंके उदीरकका जघन्य अन्तर का समय है, पाँच प्रकृतियोंके उदीरकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर उपापुदल परिवर्तनप्रमाण है। विशेपार्थ-तिर्यनों में सम्यग्दृष्टिका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य प्राप्त होनेसे इनमें इस प्रकृतियोंके उदोरकका उत्कृष्ट अन्तर उक्त काल प्रमाण कहा है । इनमें संयमासंयमका उत्कृष्ट J. काल कुछ कम एक पूर्वकोटि होनेसे नौ प्रकृकियोंके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त कालप्रमाण कहा है, क्योंकि संयमासंयम जीवके नौ प्रकृतियोंकी उदीरणा सम्भव नहीं है। किन्तु तिर्यञ्चोंमें आठ प्रकृतियोंकी उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्तसे अधिक नहीं बन सकता यह स्पष्ट ही है, इसलिए इनमें उक्त प्रकृतियोंके उद्दीरकको उस्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है। यह सम्भव है कि कोई तिर्याच उपार्थ पुद्गलपरिवर्तन कालके प्रारम्भमें और अन्तमें सात, छह और पाँच प्रकृतियोंकी उदीरणा करे और मध्यके काल मिथ्यादृष्टि बना रहकर इनका अमुदीरक रहे यह भी सम्भव है, इसलिए इनके तीन स्थानों के उदीरकका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम उपार्थ पुद्गल परिवर्तन प्रमाण कहा है । यहाँ पर दस आदि अन्य सब स्थानोंके उदीरकका जो जघन्य अन्तर बतलाया है वह ओघ के समान होनेसे उसका आँधनरूपणामें खुलासा कर ही आये हैं, इसलिए इसे वहाँसे जान लेना चाहिए । मात्र निर्यश्वामें पाँच प्रकृतियोंका उदीरक ऐसा उपशमसम्यग्दृष्टि संयमासंयमगुणस्थानबाला जीत्र ही हो सकता है, जो भय और जुगुप्साकी उदारणा नहीं कर रहा है। चूंकि इस जीवको भय या जुगासाका उदीरक होकर तदनन्तर पुनः पाँच प्रकृतियोंका उदीरक होने के लिए कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल लगता है। यही कारण है, कि यहाँ पर पाँच प्रकृतियों के उदीरकका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। ६१२८, पञ्चन्द्रिय तिर्यचत्रिकमें दस, नौ और आठ प्रकृतियोंके उदीरकका भंग सामान्य तिसंञ्चोंके समान है। सात और छह प्रकृतियोंके उदीरकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। पाँच प्रकृत्तियों के उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहर्त है। विशेषार्थ—पश्चेद्रिय तिर्यचत्रिककी उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अपिक तीन पल्य यतलाई है, इसलिये यहाँ पर सात और छह प्रकृतियोंके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण बन जानेसे वह तत्प्रमाण कहा है। तथा उक्त तीन प्रकारके तिर्यञ्चोंमें अपनी अपनी पर्यायके रहते हुए पाँच प्रकृतियोंके उदीरकका अन्तर उपशमसम्यक्त्व सहित संयमासंयमके कालको ध्यानमें रखकर प्राप्त किया जा सकता है और उक्त तीनों प्रकारके नियकोंमेंसे किसी एक तिर्यश्वकी कायस्थितिके भीतर दो बार उपशमसम्यक्त्वका प्राप्त होना सम्भव नहीं है, इसलिए यहाँ पर उक्त तियञ्चोंमें पाँच प्रकृतियोंके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। शेष कथन सुगम है । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे ३ १२९. पंचि०तिरिक्खअपा०-मासयपत्र ० अंतोनु० | णव ० जह० एस० उक० तो ० । } मार्गदर्शक : $ १३० मणस्पतिए दूसह जह० अंतोमु०, उक्क० तिरिय पलिदो ० आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज दस्र्णाणि । णवः अड्ड० जह० एयस०, उक्क० पुव्वकोडी देवणा । सत्त० छ० जह० एयस०, उक० तिरिण पलिदो० पुथ्वको डिपुधतेयमहियापि पंच० जह० एयस०, उक्क पुज्नको डिपुध० । चदुरहं दोहमे किस्से ० जह० अंतोसु०, उक्क० पुत्रको डिपुध ० । 2 ६८ [ वेदगो ७ दस० अट्ठ० जह० उक० १२६. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तक और मनुष्य अपर्याप्तक जीवों में दस और आठ प्रकृतियोंके उदीरक जांबका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त हैं। नौ प्रकृतियोंके उदीरक जीवका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ — दस प्रकृतियोंके उदीरक उक्त जीवों को उनके अनुदीरक होकर पुनः उदीर होने में अन्तर्मुहूर्त काल लगता है । यहाँ यही नियम आठ प्रकृतियोंके उदीरकों के विषय में भी जान लेना चाहिए, इसलिए तो इन दोनों प्रकारके जीवोमें दस और पाठ प्रकृतियोंके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। पर नौ प्रकृतियोंके उदीरकोंके लिए ऐसी बात नहीं है, क्योंकि भयके साथ जो नी प्रकृतियोंकी उदीरणा कर रहा है उसके भयकी उदयव्युच्छित्ति होने पर एक समय के अन्तर से जुगुप्सा की उदीरणा होने लगे यह सम्भव है, इसलिए तो यहाँ पर नौ प्रकृतियोंके उदीरकका जघन्य अन्तर एक समय कहा है और भय के साथ नौ प्रकृतियोंका उदीरक उक्त जीव उसकी उदयव्युच्छित्ति करके अन्तर्मुहूर्त के बाद जुगुप्साका उदीरक हो यह भी सम्भव है, इसलिए नौ प्रकृतियोंके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । $ १३०. मनुष्यत्रिक में इस प्रकृतियोंके उदीरकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य हैं। नौ और आठ प्रकृतियोंके उदीरकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। सात और छह प्रकृतियोंके उदीरकका जघन्य अन्तर एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। पाँच प्रकृतियोंके उदीरकका जघन्य अन्तर एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिप्रथक्त्वप्रमाण है । चार, दो और एक प्रकृति के उदीरकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त हैं और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है । विशेषार्थ - दस श्रादि प्रकृतियोंके उदीरकका जघन्य अन्तर जिस प्रकार श्रोघमें घटित करके बतला आये हैं उसीप्रकार यहाँ पर घटित कर लेना चाहिए। मात्र उत्कृष्ट अन्तर मनुष्यत्रिकी काय स्थिति और अन्य विशेषताओंको ध्यान में रख कर घटित करना चाहिए। यथाइस प्रकृतियोंका उदोरक मिथ्यादृष्टि ही होता है, इसलिए इन प्रकृतियोंके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्य ही प्राप्त होगा, क्योंकि जिसने उत्तम भोगभूमिके प्रारम्भ और अन्तमें दस प्रकृतियोंकी उदीरणा की और मध्य में सम्यग्दृष्टि रह कर इनका अनुदीरक रहा उसके यह अन्तरकाल बन जाता है । युक्तिसे विचार करने पर इससे अधिक अन्तरकाल नहीं बनता, क्योंकि कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि मनुष्यको छोड़ कर अन्य वेदकसम्यग्दृष्टि मनुष्यका मर कर मनुष्यों उत्पन्न होना सम्भव नहीं हैं और अन्यत्र मिध्यादृष्टि रहते हुए इस पदका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त ही प्राप्त होता है। नौ और आठ प्रकृतियोंके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तर कुछ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरपयडिजदीरयाए अणियोगदारपरूवणा १३१. देवेसु दस० छ० जह० अंतीमु०, सत्त० जह० एयस०, उक० सव्वेसिवित्तीससागरो० देरणाणि । णव० अट्ठ. जह० एयस०, उक्क. अंतोसु० । एवं भवणादि जाव गवगेवजा ति। एगवरिदर्शमविदा मात्रा अशुदिनादि जसाहात्ति शव छ० जहणमुक्क० अंतोमु० । अट्ट• सत्त० जह० एगस०, उक • अंतोमु० । एवं जावः । ___ णाणाजीवेहि भंगविचयो। कम एक पूर्वकोटि श्रोधग्ररूपणामें घटित करके बतलाया ही है। उसीप्रकार यहाँ पर भी घटित कर लेना चाहिए। अन्य विशेषता नहीं होनेसे अलगसे खुलासा नहीं किया। सात और छह प्रकृतियोंका उदीरक कोई उपशमसम्यग्दृष्टि मनुष्य मिथ्यात्वमें गया और पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य काल तक वह उसके साथ रहा । फिर अन्तमें उसने उपशमसम्यक्त्वपूर्वक इन पदोंको पुनः प्राप्त किया यह सम्भव है, इसलिए यहाँ पर इन दो पदोंके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य कहा है। पाँच प्रकृतियोंका उदीरक संयमासंयमी या संयमी ही होता है, और मनुष्य पर्यायके रहते हुए संयमासंयम या संयमका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक नहीं प्राप्त होता। यही कारण है कि पाँच प्रकृतियोंके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। पर इतनी विशेषता है कि संयमासंयममें उत्कृष्ट अन्तरके लिए प्रथम बार उपशम सम्यग्दर्शनके साथ संयमासंयम ग्रहण कराना चाहिए और दूसरी बार ज्ञायिक सम्यक्त्वके साथ संथमासंयम ग्रहण कराना चाहिए। चार, दो और एक प्रकृतिके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। ६१३१. देवोंमें दस और छह प्रकृतियाँक उदौरकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सात प्रकृतियोंके उदीरकका जघन्य अन्तर एक समय है और सब पदोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । नी और आठ प्रकृतियोंके उदीरकका जयन्य अन्तर एक समय है, और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार भवनवासियासे लेकर नौ ग्रंयकतकके देवों में जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में नौ और छह प्रकृतियोंके उदीरक जीवका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। आठ और सात प्रकृतियोंके उदीरक जीवका जयन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर 'अन्तर्मुहूर्त है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ- सामान्य देवोंमें सामान्य नारकियोंके समान अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिए। मात्र देवोंमें मिथ्यादृष्टि जीव नौवें अवेयक तक ही पाये जाते हैं और नौवें अवेयफके देवकी उत्कृष्ट आयु इकतीस सागर है। इसलिए यहाँ पर कुछ कम तेतीस सागरके स्थानमें कुछ कम इकतीस सागर कहा है। इसीप्रकार नौ ग्रंवेयक तकके देवाम यह अन्तरकाल बन जाता है, इसलिए उसे सामान्य देवोंके समान जानने की सूचना की है। भान इनमें दस, सात और छह प्रकृतियों के उदीरकका उत्कृष्ट अन्तर अपनी अपनी स्थितिप्रमाण ही प्राम होगा, इसलिए इस विशेषताकी अलगसे सूचना की है। नौ अनुदिशादिमें सम्यग्दष्टि ही होते हैं, इसलिए उनमें यह जानकर वहाँ सम्भव पदोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर कहा है। सुगम होनेसे उसका खुलासा नहीं किया है। * नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय ! Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे www. [ वेदगो ७ $ १३२. अहियारसंभालणपरमेदं सुतं । ॐ सव्वजीवा दसरहं एवरह मट्टहं सत्तयहं दण्डं पंचहं हं पियमा पवेसगा | ३ १३३. एदेसि ठाणाणं पवेसगा खाणाजीवा नियमा अस्थि र तेसिं पवाहो वोदितत्तं होइ | मोह मुस्लि मार्ग १३४. किं कारणं ? उवसम- खवगसेढिपडियद्वाणमंदेसिं निरंतर भावागुवलं भादो । एवमषेण भंगविचयो समत्तो ! ६ १३५. आदेसेण णेरड्य० सव्वाणाणि णियमा अस्थि । एवं पढमाए । विदियादि जाव सत्तमा चि दस० णव० अ० सत्त० यिमा श्रत्थि सिया एदे च हमुदीगो च । सिया एदे च दण्डमुदीरगा च ३ । तिरिक्ख पंचिदियतिरिक्खतियदस० णव० [अ०] सत्त ० ० यि० यत्थि, सिया एदे च पंचउदीरगो च । सिया एदे च पंचउदीरगा च ३ | पंचि०तिरि० अपज ० १०, ९, ८ यि० अस्थि । मसतिए ओवं । मसपज सव्वाणाणि भयणिजाणि | मंगा दव्वीस २६ । १३२. यह सूत्र अधिकार की सम्हाल करनेवाला है । * दस, नौ, आठ, सात, वह पाँच और चार प्रकृतियों के प्रवेशक सब जीव नियमसे हैं । ७ १३३. इन स्थानोंके प्रवेशक नाना जीव नियमसे हैं। उनके प्रवाहका व्युच्छेद नहीं होता यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * दो और एक प्रकृतिके प्रवेशक जीव भजनीय हैं । $ १३४. क्योंकि उपशमश्रेणि और क्षपकश्रेणिसे सम्बन्ध रखनेवाले इन जीवोंका निरन्तर सद्भाव नहीं पाया जाता । इस प्रकार से भंगविचय समाप्त हुआ । १३५. आदेश से नारकियों में सब स्थान नियमसे हैं। इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिए। दूसरी से लेकर सातवीं तक के नारकियोंमें दस, नौ, आठ और सात प्रकृतियों के प्रवेशक जीव नियमसे हैं। कदाचित ये हैं और बह प्रकृतियोंका उदीश्क एक जीव है । कदाचित् ये हैं और छह प्रकृतियोंके उदीरक नाना जीव हैं ३ । तिर्यञ्च और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक इस, नौ, आठ, सात और छह प्रकृतियों के उदीरक जीव नियमसे हैं १ । कदाचित् ये हैं और पाँच प्रकृतियोंका उदीरक एक जीव है २ । कदाचित ये हैं और पाँच प्रकृतियोंके उदीरक नाना जीव हैं ३ । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्यातको १०६ और ८ प्रकृतियों के उदीरक जीव नियमसे हैं । मनुष्यत्रिक के समान भंग है । मनुष्य अपर्यातकों में सब स्थान भजनीय हैं। भंग छब्बीस 14 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ] उत्तरपयडिउदोरणाए अणियोगद्दारपवणा मा सारयभंगो । एवं सोहम्मादि जाव गवगेवजा ति । भवण-वाण-जोदिसि० विषपुढधिभंगो । अणुद्दिसादि सबट्ठा त्ति रणव० अ० सत्त० छ• पिय० अस्थि । जाव० । पीक एक्युप्राताभित्रमुचायासारूविदाणं भागाभाग-परिमाण-कोसपाणमुञ्चारणावलेन परूवणं कस्मामो । तं जहा–भागाभागाणु० दुविहो -ओघे० प्रादेसे० । अोघेण अट्ठण्हमुदीर० सव्यजीवाणं केवडि• ? संखेजा भागा। दस० णव० उदो० संखे भागो। ७, ६, ५, ४, २, १ उदीर० सव्वजी० र ? अणंतिमभागो। ... १३७. आदे० णेरइय, अट्ठ. संखेजा भागा | दम० णव० संखे भागो । समसंखे भागो । एवं सव्वणेर० पंचिंतिरिक निय० देवा भवणादि जाप सहस्सार ।सि। तिरिक्वेसु दस० णव० अढ० सन० छ० पंत्र. ओंघं । पंचिंतिरि०अपज मणुसअपल० दस० पत्र. अट्ट० ओषं । मणुसेसु दस० एन० संखे भागो । अनु० सखेडा भागा। सेसमसंखे भागो। एवं मयुमपञ्जा-मणुसिणीसु । णत्ररि संखेज हायच्वं । आगदादि णवगेवजा त्ति दग० गाव. अ. ल. संखे भागो । सत्त ० ११६ हैं। देवोंमें गारकियों के समान भंग है। इसी प्रकार सौर्म कापस लेकर नौ मेवेयक कके विमि जानना चाहिए। सवनवाली, व्यन्तर और यांनिपी देवों में दूसरी पृथिवीके समान भंग न। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें नौ, आठ, सान और छह प्रकृतियों के प्रवेशक 1. श्रीध नियमसे हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गमा तक जानना चाक्षिण। ६१३६. यहाँ पर सुगम होनेसे चूर्णिसूत्रकारके द्वारा नहीं कहे गये भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र और स्पर्शनका उच्चारणाके बलसे कथन करते हैं। यथा-भागाभागानुगमकी अपेक्षा । निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश । ओघसे पाठ प्रकृतियोंके उदीरक जीव सम जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यात बहुभागप्रमागा है। दस और नौ प्रकृतियोंके उदीरक जीव । संख्यात भागप्रमाण है। सात, छह, पाँच, चार, दो और एक प्रकृतिके उदीरक जीव सब जीयोंके कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्त भागप्रमाण हैं। ६१३७. आदेशसे नारकियोंमें आठ प्रकृनियोंके उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। इस और नौ प्रकृतियों के उदीरक जीत्र संख्यात भागामारण है। शेष प्रकृतियोंके उदीरक जीव " असंख्याता भागप्रमाण है। इसी प्रकार सब नारकी, पन्नेन्द्रिय निर्यचत्रिक, देव और भवन वासियोंसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें जानना चाहिए। तिर्यञ्चोंमें दस, नी, पाठ, सात, अह और पाँच प्रकृत्तियोंके उदीरकोंका भंग श्रोघके समान है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें दस, नौ और आठ प्रकृतियोंके उदीरकों का भंग ओघके समान है। मनुष्योंमें दस और नौ प्रकृतियोंके उदीरक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। आठ प्रकृतियों के अदीरक जीप संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। शेष प्रकृतियों के उदीरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है, कि असंख्यातके स्थानमें संख्यात करना चाहिए । अानत कल्पसे लेकर नौ अवेयक तकके देषोंमें दस, नी, पाठ और छह प्रकृतियोंके उदीरक जीत्र संख्यातवे भागप्रमाण हैं। सात Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहु 1 [वेदगो संखेजा भागा | एवमणुदिसादि सबट्ठा त्ति । णबरि दस णस्थि । एवं जाक० । $ १३८. परिमाणाणु० दुविहो णि.-~-लोवे० प्रादेसे० ! पोधे० दस० एव० अट्ठ. उदीर० केत्तिया ? अयंता । सत्त० छ० पंच० के० ? असंखेजा । चउराह दोण्हमेकि से उदी, के० ? संखेज्जा । प्रादेसेण सेग्इय० सव्यपदा केतिया ? असंखेजा। एवं सब्बरोरइय-पच्यपंचिंदियतिरिक्ख-मणुसअपञ्ज० देवा भवणादि जाव अवराइदा . । तिरिक्वेस सयपदाणमोघं । मणसेसु दस० णव० अट्ठ० के० ? असंखेज्जा । सेसं० के? संखे । मणुसपञ्ज-मसिणी०-सव्वट्ठदेवा सव्वपदा० केत्ति ? संखेजा । एवं जाव। १३९. खेत्ताणु० दुविहो मि०-अोघेण आदेसे । ओघेण दस० णव० अट्ट सचलोगे । सेसं लोग० असंखे०भागे। एवं तिरिक्वेसु । सेसमग्गणासु सव्यपदा लोग० असंखे०भागे । एवं जाव । ............. ....... प्रकृतियोंके उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। इसी प्रकार अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवा में जानना चाहिए । मात्र इनमें दस प्रतियोंके उदीरक जीव नहीं है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । १३८, परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और श्रादेश । ओघसे दस, नी और आठ प्रकृतियाँके उदीरक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। सात, छह और पाँच प्रकृतियोंके उदीरक जीव कितने हैं. ? असंख्यात हैं। चार, दो और एक प्रकृतिके उदीरक जीव . कितने हैं ? संग्ख्यात हैं। आदेशसे नारकियोंमें सब पदोंके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार सत्र नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्गन्च, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव तथा भवनवासियोंसे लेकर अपराजित नकके देवों में जानना चाहिए। तिर्यञ्चों में सब पदोंका भंग श्रोधके समान है। मनुष्यों में दस, नौ और पाठ प्रकृतियोंके उदीरक जीय कितने हैं ? असंख्यात हैं। शेष पदोंके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात है। मनुष्य पर्याप्त, मनुज्यिनी और सर्वार्थसिद्धिके देवामे सब पदोंके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। १३९. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश। ओघसे दस, नौ और पाठ प्रकृतियोके उद्दीरक जीवोंका क्षेत्र सय लोकप्रमाण है। शेष प्रकृतियोंके उदीरक जीवकिा क्षेत्र जोकके असंख्यान भागप्रमाण है। इसी प्रकार तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। शेप मार्गणाओंमें सब पदोंके उदीरक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ-दस, नौ और आठ प्रकृनियोंके उदीरक जीव एकेन्द्रिय भी होते हैं, इसलिए इनका सब लोक क्षेत्र बन जाता है। परन्तु शेष प्रकृतियोंके उदीरक जीव प्रायः संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव ही होते हैं और उनका वर्तमान निवास लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इन पदोंके उदीरक जीवोंका क्षेत्र उक्तप्रमाण कहा है। सामान्य लियश्चोंमें यह प्रोघप्ररूपणा अपने पवानुसार अविकल बन जाती है, इसलिए उनमें सग्भव पदोंका क्षेत्र ओघके समान जाननेकी Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०६२] उत्तरपयष्टिउदीरणाए अणियोगशरपरूवणा ११४० पोसणा० दुविहो नि० - ओषेण आदेसे० । योषेण दस० णव० ॐ० सम्म लोगो । सत्त० लोग० असंखे० भागो श्रट्ट- बारहवोद्दस० । [ छष्णं लोगस्स सखे भट्ठोद्दस ] | सेसं लोग असंखे - भागो । Q १४१. आदेसेण रइय० दस० एव० अ० लोग० असंखे० भागो छ ०उदीर० लोग० असंखे ०। भरणं च सत्तमाए सत्त० . लोइस० । सत्त० लोग० असंखे० भागो पंचचोस० । भागो । एवं विदियादि सत्तमा त्ति । वरि सगपोसणं समीर लोग० असंखे ० भागो । पढमाए खेत्तं । 2 सूचना की है। गतिसम्बन्धी शेष मार्गणाओंका क्षेत्र ही लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए उनमें सब पदका क्षेत्र लोक के असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। आगेकी मार्गणात्रों में इसीप्रकार क्षेत्र जान लेना चाहिए । १४०. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । श्रोघसे एस, नौ और आठ प्रकृतियोंके उदीरकोंने सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सात • मकदियों के उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे किया है। छह प्रकृतियोंके उदीरक जीवोंने लोकके मसंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके चौदह भाग से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातर्वे भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। र विशेषार्थ - दस, नौ और पाठ प्रकृतियोंके उदीरक जीव एकेन्द्रिय जीव भी होते हैं, "इसलिए इन पदोंके उदीरक जीवोंका स्पर्शन सब लोकप्रमाण बतलाया है । सात प्रकृतियोंके सीरकों में देवों और सासादन गुणस्थानवाले जीवोंकी मुख्यता है और इनका स्पर्शन लोकके असंख्यातकों भाग तथा त्रसनालीके चौरह भागों में से कुछ कम आठ और बारह भागप्रमाण हैं, इसलिए इस पदकी अपेक्षा यह स्पर्शन बतलाया है। शेष पदोंको अपेक्षा मूलमें जो स्पर्शन बतलाया है वह सुगम है, इसलिए उसका अलग से खुलासा नहीं किया है। $ १४१. आदेश से नारकियों में दस, नौ और आठ प्रकृतियोंके उदीरक जीवोंने लोकके swaraj भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया हैं । सात प्रकृतियों के उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातयें भाग और सनालीके चौदह भागों में से कुछ कम पांच भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा छह प्रकृतियोंके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी कार दूसरी पृथिवीसे ब्रेकर सातवीं पृथिवीतके नारकियोंमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अपना अपना स्पर्शन कहना चाहिए। तथा इतनी विशेषता और है कि सातवीं पृथिवी में सात प्रकृतियों के aire जीवोंने लोकके असंख्यात भागप्रमारण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पहली पृथिवी में स्पर्शन क्षेत्रके समान है। -- विशेषार्थ दस, नौ और आठ प्रकृतियोंकी उदीरणा सभी मिश्रमादृष्टि नारकी जीवों के सम्भव है और सामान्यसे नारकियों का वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातयें भागप्रमाण और प्रीत स्पर्शन सनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण है । यही कारण हैं कि यहाँ पर उक्त तीन पदवाले जीवोंका यह स्पर्शन बतलाया है। सात प्रकृतिक उदीरणास्थान की १० Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलास हिदे कसाय पाहुडे [ वेदयो ९ १४२. तिरिक्खेसु दस० एव० अ० सव्वलोगो । सत्त० लोग असंखे भागो सत्त० । [ ए ] लोग० असंखे० भागो द्वचोह० | पंच० लोग० असंखेभागो । पंचि०तिरिक्खतिए दस० णव० अ० लोग० असंखे० मागो सच्चलोगो का सेसं तिरिक्खभंगो । पंचि०तिरिक्ख अप ०-मरसप्रपञ्ज० दस० णव० अट्ट० लोग असंखे० भागो सव्वलोगो वा । मसलिए दस० णव० अ० सत्त० पंचिदियतिरिक्तभंगो । सेसं लोग असंखे० भागो । ७४ प्राप्ति सासादनगुणस्थान में सम्भव है और सामान्यसे सासादन सम्यग्दृष्टि नारकियोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन असनालीके चौदह भागों में से कुछ कम पाँच भागप्रमाण है । इसीसे यहाँ पर सात प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेवाले नारकियोका स्पर्शन उक्त क्षेत्रप्रमाण कहा है। छह प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेवाले नारकी जीव या तो उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं या क्षायिक सम्यग्दृष्टि होते हैं और ऐसे नारकियों का स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाणही होता है सानाले नारकियोंका स्पर्शन उक्त क्षेत्रप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है । मात्र सातवीं पृथिवीके नारकी मिध्यात्वं गुणस्थानके साथ ही मरण करते हैं, इसलिए इनमें सात प्रकृतियोंके उदीरक नारकियोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। १४२ तिर्यक्योंमें दस, नौ और धाठ प्रकृतियोंके उदीरक जीवोंने सर्व लोकप्रभाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सात प्रकृतियोंके उदीरक जीवोंने लोकके श्रसंख्यातवें भागमभाग और. सनालीके चौदह भागों में से कुछ कम सात भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। छह प्रकृतियोंके उatre जीवोंने लोकके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । पाँच प्रकृतियोंके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यात में भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पचचेन्द्रिय तिर्यञ्चधिकमें दस, नौ और आठ प्रकृतियोंके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष भंग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य कोंमें दस, नौ और आठ प्रकृतियोंके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यत्रिक दुख, नौ, आठ और सात प्रकृतियोंके उदीरक जीवोंका स्पर्शन पचेद्रिय तिर्योंके समान है और शेष पदवाले जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । विशेषार्थ - एकेन्द्रियादि अधिकतर तिर्यञ्च दस, नौ और आठ प्रकृतियोंकी उदीरणा करते हैं और इनका स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण है, इसलिए दस, नौ और आठ प्रकृतियोंके उदीरक तिनका स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण कहा है। सास्रावन तिर्यच्च ऊपर सात राजु क्षेत्रका स्पर्शन करते हैं, इसलिए तिर्यों में सात प्रकृतियोंके उदीरोंका स्पर्शन त्रनाली के चौदह भागों से कुछ कम सात भागप्रमाण कहा है। संयतासंयत तिचौका वर्तमान स्पर्शन लोकके श्रसंख्यातनें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन त्रसनालीके चौदह भार्गोमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण है । यहीं कारण है कि यहां पर छह प्रकृतियोंके उदीरक तिर्योंका उक्त स्पर्शन कहा है। पांच प्रकृतियोंके उदीरक तिर्यञ्च उपशमसम्यग्दृष्टि विरताविरत होते हैं और इनका स्पर्शन लोकके असंख्यातों भाग प्रमाण होने से यह उक्त प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * उत्तरपयडिउदीरणाए अणियोगदारपरूवणा ३१४३. देवेसु दस० णव० अढ० सत्त० लोग. असंखे०भागो अह-णव । [छएणं लोग० असंखे० अडचोइस० । ] एवं सोहम्मीसाण | भवण.. शब-जोदिसि० दम० णव. अट्ठ० सत्त० लोग. असंखे भागो अधुट्ठा वा मा-गवचोइस० देसूणा । छउदीरलोग मार्गसंख०भागोचावा हाशिवोदका महाराज कुमारादि जाच सहस्सारे ति दस णव० अट्ठ० सत्त. छ० लोग० असंखे भागो चोइ० । आणदादि अचुदा त्ति सव्वट्ठाणाणि लोग० असंखे०भागो छचोहसः । बरि खेलें । एवं जाव० । १ पाणाजीवेहि कालो । ६१४४. सुगममेदमहियारसंभालणसुत्तं । किस्से दोपहं पवेसगा केवधिरं कालादो होति ? ११४५, सुगर्म। * जहरणेण एयसमो । १४३. देयोंमें दस, नौ, पाठ और सात प्रकृतियों के उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा वसनालीके चौदह भागों से कुछ कम पाठ और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पशन किया है । छह प्रकृतियोंके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और असनालोके चौदह भागोंमसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पमें जानना चाहिए । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें दस, नौ, आठ और सात प्रकृतियोंके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातों भागप्रमाण तथा सनालीके चौदह भागों से कुछ कम साढ़े तीन, कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । छह प्रकृतियोंके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्याता भाग, असनालोके चौदह भागों में से कुछ कम साढ़े खोन और कुछ कम बाट भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें दस, नौ, आठ, सात और छह प्रकृतियों के उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यात भागप्रमाण और सनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। श्रानत कल्पसे लेकर अच्युत कल्प तकके देवों में सब स्थानोंक उदोरक जीवोंने लोकके असंख्या-नवे भागप्रमाण और त्रमनालीके चौदह भागोंमेंस कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आगे स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मागणा तक जानना चाहिए। विशेपाथे—देवोंमें जहां जो स्पर्शन बसलाया है उस ध्यान में रखकर स्पर्शन ले आना चाहिए । * नाना जीवोंकी अपेक्षा काल । ६ १४४, अधिकारकी सम्हाल करनेवाला यह सूत्र सुगम है । * एक और दो प्रकृतियों के प्रवेशक जीवोंका कितना काल है ? ६१४५. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल एक समय है । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक : अथर्ववतीसहित विसापूर जी महाराज [ वेदगो १४६. तं जहा - सत्तट्ठ जणा बहुगा वा अणियट्टिवसामगा एकसमयमे किस्से पवेसगा होण बिदियसमए कालं करिय पजायंतरमुब गया, लद्धो एकिस्से पवेसगा जहणेयसमथो । एवं दोण्डं पवेसगाणं पि वत्तव्यं, विसेसाभावादो । उपस्सेय अंतीमुत्तं । છું. ९ १४७. कुदो ? संखेजवार मरसं विदद्यवाहाण मुक्सामग खवगाणमेक-दोपयडिपवेसगपाय परिणदारण मुकस्सा वड्डाणकालस्स तप्यमाणत्तदंसणादो । * सेसाणं पयडीएं पवेसगा सव्वा । ६१४८. सुगममेदं । एवमोघो समतो मणुसतिए एवं चेव । आदेसेण पेरइय० सन्त्रपदा० सच्व्वद्धा । एवं सव्वरइय० । णवरि बिदियादि ससमा चि छ०उदीर० जह० एयसमओ, उक० पलिदो० असंखे० भागो। तिरिक्स-पंचिंदियतिरिक्खतिय सव्वपदा सच्वद्धा । णवरि मंत्र जह० एयस०, उक्क० पलिदो० असंखे ० भागो । पंचि०तिरिक्खप्रपञ्ज० सव्वपदा सव्वद्धा । मरगुसनपत्र सम्वद्वाणाणि जह० एयस०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । देवाणं णास्यमंगो । एवं सोहम्मादि जाव एवमेवजा चि । भवण्य० वाणत्रं०-जोदिसि० बिदियपुढविभंगो | अणुद्दिसादि सव्वा ति a • १४६. यथा - सात आठ अथवा बहुत अनिवृत्ति उपशामक जीव एक समय तक एक प्रकृति प्रवेशक होकर दूसरे समयमें मरकर दूसरी पर्यायको प्राप्त हो गये। इस प्रकार एक प्रकृतिके प्रवेशकों का जघन्य काल एक समय प्राप्त हुआ । इसी प्रकार दो प्रकृतियोंके प्रवेशकों का भी जघन्य काल एक समय कहना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। • * उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त हैं । $ १४७. क्योंकि जिन्होंने संख्यात बार प्रवाहको मिलाया है ऐसे एक और दो प्रकृतियोंकी प्रवेशक पर्याय परिणत हुए उपशामक और क्षपक जीवोंका अवस्थानकाल तत्प्रमाण देखा जाता है। * शेष प्रकृतियोंके प्रवेशकोंका काल सर्वदा है । $ १४८. यह सूत्र सुगम है। इसप्रकार श्रघप्ररूपणा समाप्त हुई। मनुष्यत्रिक में इसी प्रकार जानना चाहिए | आदेश से नारकियों में सब पदवाले जीवोंका काल सर्वदा है। इसीप्रकार सब नारकियों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि दूसरीसे लेकर सातवीं तकके नारकियों में छह प्रकृतियोंके उदीरक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यर्क असंख्यातवें भागप्रमाण है । सामान्य तिर्यों और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमे सब पदोंके उदीरक जीवोंका काल सर्वदा है । किन्तु इतनी विशेषता है कि पाँच प्रकृतियोंके उदीरक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल प्रत्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । वेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याकोंमें सब पदोंके उदीरक जीवोंका काल सर्वदा है। मनुष्य अपर्याप्तकों में सब पदोंके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। देवोंमें नारकियोंके समान भंग है । इसीप्रकार सौधर्म कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देशों में जानना चाहिए। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिपी देवामें दूसरी पृथिवीके समान भंग है। अनुदिशसे I Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरपयडिउदीरणाए श्रश्र गद्दार परूवणा ma‍ ] सव्वाणाणि सव्वद्धा । एवं जाव० । * यापाजीवेहि अंतरं । ९ १४९. सुगममेदमहियारपरामरसवर्क । * एकिस्से दोण्हं पवेसगंतरं केवश्चिरं कालादो होदि ? ६१५०. सुगमं । मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज * जहणणेण एयसमभो । ११५१. एगसमय तरिपवाहा णमेदे सिमांतर समए पुणो वि संभवे विप्पडि सेवाभावादो । * उकस्सेप लुम्मासा । ६१५२. किं कारणं १ खवगसेदिसमारोहण विरहकालस्स उक्कस्सेण तथ्यमाणतोवलं भादो । * सेसाणं पयडी पवेसगाणं पत्थि अंतरं । I SAAARI $ १५३. सुगमं । एवमोघो समतो । मणुसतिए एवं चैव । वरि मरपुसिणीसु हे सर्वार्थसिद्धि तक देवामें सब पदोंके उदीरक जीवोंका काल सर्वदा है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ — द्वितीयादि पृथिवियोंमें छह प्रकृतियोंके उदीरक जीत्र उपशम सम्यग्दृष्टिही हो सकते हैं और उपशम सम्यग्वष्टियोंका उत्कृष्ट काल पल्य के असंख्यात भागप्रमाण है, इसलिए इन प्रभिषियोंमें छह प्रकृतियोंके उदीरकोंका उत्कृष्ट काल पल्के असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। तथा जघन्य काल एक समय प्रकृति परिवर्तनकी अपेक्षा प्राप्त होता है । पाँच प्रकृतियोंके उदीरकका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंस्वासमें भागप्रमाण इसीप्रकार घटित कर लेना चाहिए। शेष कथन सुगम है । * नाना जीर्वोकी अपेक्षा अन्तरकात । ६ १४. अधिकारका परामर्श करनेवाला यह वाक्य सुगम है । * एक और दो प्रकृतियोंके प्रवेशक जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? $ १५०. यह सूत्र सुगम है । * अधन्य अन्तर एक समय हैं । १५१. क्योंकि प्रवाहका एक समय के लिए अन्तर देकर प्राप्त हुए इन जीवोंका श्रनन्तर समय में फिरसे सम्भव होने में कोई निषेध नहीं है । * उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है । $ १४२. क्योंकि क्षपकश्रेणिके आरोहणका विरहकाल उत्कृष्टरूपसे तत्प्रमाण उपलब्ध होता है। * शेष प्रकृतियोंके प्रवेशक जीवोंका अन्तरकाल नहीं है । ० १५३. यह सूत्र सुगम है। इस प्रकार ओमप्ररूपणा समाप्त हुई। मनुष्यत्रिक में इसी Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवालासहिद कसायपाडे प्री सुविद्यासागर जी महोस । दोपहमेकिस्से च जह• एयस०, उक्क वासपुधत्तं । ६१५४, आदेसेण णेरइयसव्वट्ठाणाणं णस्थि अंतरं । एवं सब्बणेरइय० । गर्वा । विदियादि सत्तमा त्ति छ० जह० एयस०, उक्क. सत्त रादिदियाणि | तिरिक्ख-मंदिर तिरिक्खतिय० सम्वट्ठाणाणं रात्थि अंतरं । णवरि पंच उदीर० जह• एयसममा उक्क० चोइस रादिदियाणि । पंचिंतिरि०अपज० सबढाणाणं णस्थि अंतरं। मणुसअपज० सव्वट्ठाणा. जह• एयस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । देवाद णारयभंगो । एवं सोहम्मादि गवगेवला त्ति । भवण-वाण-जोदिसि० रिदियपुढति भंगो । अणुद्दिसादि जाव सम्वट्ठा ति सध्वट्ठाणाणं णस्थि अंतरं । एवं जाव० । * सपिणयासो। 5 १५५. एत्तो सरिणयासो कायव्यो ति अहियार संभालणवक्कमेदं । ६ एकिस्से पवेसगो दोपहमपचेसगो। प्रकार है। किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्यनियोंमें दो और एक प्रकृतियों के प्रवेशक जीोका। जघन्य अन्तर एक समय हूँ और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। १५४. श्रादेशसे नारकियोंमें सब स्थानोका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार सर नारकियोंमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि दूसरीसे लेकर सातवी पृथिवी तक ! नारकियोंमें छह प्रकृतियोंके प्रवेशकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साव , दिन-रात है। सामान्य तिर्यञ्च और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें सब स्थानोंका अन्तरकाल नहीं। है। किन्तु इतनी विशेषता है कि पांच प्रकृतियोंके उदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चौदह दिन-रात है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यव्च अपर्याप्तकोंमें सत्र स्थानोंका अन्तरकाल नहीं है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब स्थानोका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्सर पल्यके असंख्यातयें भागप्रमाण है। देवोंमें नारकियोंके समान भंग है। इसीप्रकार सौधर्म ! कल्पसे लेकर नौ अवेयक तकफे देवोंमें जानना चाहिए। भवनवासी, न्यन्तर और ज्योतिषी । देवोंमें ढसरी पृथिवीके समान भंग है । अनुविशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सब स्थानोंका । अन्तरकाल नहीं है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ- मनुज्यिनियों में क्षपकश्रेणिका जघन्य अन्तरकाल पक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्ष पृयक्त्व प्रमाण है, इसीसे इनमें एक और दो प्रकृतियोंके उदीरकोंका उक्त कालप्रमाण अन्तरकाल कहा है। उपशमसम्यक्त्व और उपशमसम्यक्त्वके साथ संयमासंयम ये सान्तर मार्गणा है। इनका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः सात और चौदह दिन-रात है। यही कारण है कि यहां पर द्वितीयादि पृथिवियोंके नारकियों में छह प्रकृतियोंके उदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय श्रीर उत्कृष्ट अन्तर सात दिन-रात कहा है। तथा सामान्य तिर्यश्चोंमें और पन्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकमें पांच प्रकृतियोंके उदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चौदह दिन-रात कहा है। शेष कथन सुगम है। * सन्निकर्ष । ( १५५. आगे सन्निकर्ष करना चाहिए इस प्रकार अधिकारको सम्हाल करनेवाला यह वाक्य है। * जो एक प्रकृतिका प्रवेशक है यह दो प्रकृनियोंका अप्रवेशक है। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरपयलिउदीरणाए अणियोगदारपरूवणा १५६. कुदो ? परोप्परविरुद्धसहावत्तादो । चउहं पंचण्हं छण्हं सत्तण्हं अट्ठण्हं मण्डं दसण्हं च अपवेसगो त्ति एदमत्थदो लब्भदे, एक्किस्से पवेसगस्स सेसासेसमासमपदेसयभावस्म देसामासयभावणेदस्स पयत्तादो । एवं सेसाणं । ६१५७. सुगमं । उच्चारणाहिप्पाएण पुण सण्णियासो पत्थि, तस्थ सत्तारअहमेवाणियोगद्दाराणं परूवणादों । "६१५८, भावो सव्वत्थ श्रोदइयो भावो । 7 अप्पाषा। ६१५९. एत्तो अप्पाबहुअमहिकयं बहदि भश्चित होना सुविधिसागर जी महाराज सव्वत्थोवा एबिस्से पवेसगा। ३१६०. कुदो ? सुहमसांपराझ्यद्वाए अणियट्टियद्यासंखेजदिभागे च संचिदवगोवसामगजीवाणमिह म्हणादो । दोरहं पवेसगा संखेज्जगुणा । ६१६१. कुदो ? अणियट्टिपढमसमयप्पहुडि तदवाए संखेजेसु भागेसु संचिदखबगोवसामगजीवाणमिहाबलंवणादो । * चउराह पयजीणं पवेसगा संखेनगुणा । १५.. क्योंकि ये परस्पर विरुद्ध स्वभाववाले हैं। जो एक प्रकृतिका प्रवेशक है वह पार, पाँच, छह, सात, भाट, नौ और इस प्रकृतियोंका अमावेशक है यह पूर्वोक्त कथनसे ही फलित हो जाता है, क्योंकि जो एक प्रकृतिका प्रवेशक है वह शेप समस्त स्थानोंका अप्रवेशक इस प्रकार देशामर्षक साबसे इस अर्थको सूचित करनेमें इस सूत्रकी प्रवृत्ति हुई है। * इसी प्रकार शेष स्थानोंके विषयमें जानना चाहिए। 5 १५७. यह सूत्र सुगम है। किन्तु उच्चारणाके अभिप्रायसे सन्निकर्ष अधिकार नहीं है, क्योंकि उसमें सत्रह अनुयोगद्वारोंकी ही प्ररूपणा की है। $ १५८. भाव सर्वत्र औदयिक है। * अल्पबहुत्व। ६ १५६. आगे अल्पवहुत्व अधिकृतरूपसे जानना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * एक प्रकृति के प्रवेशक जीव सबसे स्तोक हैं । ६१६०. क्योंकि सूक्ष्मसाम्परायके काल में और अनिवृत्तिकरणके संख्यातवें भागप्रमाण कालमें सञ्चित हुपक्षपक और उपशामक जीवोंका यहाँ पर ग्रहण किया है । * उनसे दो प्रकृतियों के प्रवेशक जीव संख्यातगुणे हैं। १६१. क्योंकि अनिवृत्तिकरणके प्रथम समयसे लेकर उसके फालके संख्यात बहुभाग प्रमाण कालमें सम्चित हुए क्षपक और उपशामक जीवोंका यहां पर ग्रहण किया है। * उनसे चार प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव संख्यातगुणे हैं। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधालासहिदे फसायपाहुरे [वेदगो मार्गदर्शक- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज १६२. किं कारण। उसम-सहयसम्माइष्टिस्स पमत्तापमत्तसंजदाणमपुजन करणखरगोत्रसामगाणं च भय-दुगुंछोदयविरहिहाणमेत्थ गहणादो । पंचाहं पयडीणं पवेसगा असंखेनगुणा । १६३. कुदो ? उपसम-वझ्यसम्माइट्ठिसंजदासजदरासिस्स संखेाणं मागासमेत्य पहाणभावेणावलंबियनादो। * छपहं पयड्रोणं पसगा असंखेनगुणा। १६४. कुदो १ वेदगसम्माइडिसंजदासजदार्ण संखेन्जेहिं भागेहिं सह उत्समखड्यसम्माइद्विअसंजदरासिस्स संखेजाणं भागाणमिह पहाणभावदसणादो। णेदमसिद्ध, भय-दुगुलाणुदयकालमाहप्पावलंबणेय सिद्धसरूवत्तादो। ॐ सत्सकह पयडीएं पवेसगा असंखेनगुणा । ६१६५. कुदों ? खइयसम्माइट्ठीणं संखेजदिभागेण सह वेदगसम्माइडिअसंजदगसिस्स संखेाणं भागाणमिह पहाणत्तदंसणादो । * दसराहं पयडोणं पवेसगा अणंतगुणा । $ १६६. कुदो १ मियाइद्विरासिस्स संखेजदिभागपमाणसादो । वराह पयडोणं पवेसगा संखेनगुणा ।। ५६२. क्योंकि भय और जुगुप्साके उद्यसे रहित जो उपशमसम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव है तथा अपूर्वकरण उपशामक और क्षपक.. जीव है जनका यहाँ पर ग्रहण किया है। * उनसे पाँच प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव असंख्यातगुणे हैं। ६ १६३. क्योंकि उपशमसन्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि संग्रतासंयत जीवराशिके संख्यात बहुमागप्रमाण जीव राशिका यहां प्रधानभावसे अवलम्बन लिया है। * उनसे छह प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव असंख्यातगुणे हैं। ६१६४. क्योंकि वेदकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत जीवोंके संख्यात बहुभागके साथ उपशम सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि असंयत जीवराशिके संख्यात बहुभागको प्रधानता यहां पर देखी जाती है। और यह असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि भय और जुगुप्साके अनुदय कालके माहात्म्यका अवलम्बन लेनेसे यह सिद्धस्वरूप है। * उनसे सात प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव असंख्यातगुणे है । १६५. क्योंकि तायिकसम्यग्दृष्टियोंके संख्यात भागके साथ वेदकसम्यग्दृष्टि असंयत. राशिके संख्यात बहुभागप्रमाण जीवोंकी यहां पर प्रधानता देखी जाती है। * उनसे दस प्रकृतियोंके प्रवेशक जोच अनन्तगुणे हैं। 5 १६६. क्योंकि ये मिध्यादृष्टि राशिके संख्यात भागप्रमाण हैं । * उनसे नौ प्रकृतियों के प्रवेशक जीव संख्यातगुणे हैं। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरपयहिउदीरणाए अणियोगहारपरूवणा १६७. कुदो माछाप सिहं श्री समविद्यामानालाहो अण्णदरविरहिदस संखेजगुणत्तोवएसादो। 1 अडण्हं पयडोणं पवेसगा संखेनगुणा । १६८. किं कारणं ? अएणदरविरहकालादो दोपहं पि विरहिदकालस्स संखेनचालवणादो। णेदमसिद्धं, एदम्हादो वेव सुत्तादो सिद्धसरूवत्तादो। एवमोघेण जलयुगाणुगमो समत्तो। १६९. संपाहि प्रादेसपरूषणमुवरिमं पबंधमाह--- गिरयगदीए सम्वत्थोवा छएहं पयजीणं पसगा। १७०. किं कारणं ? उपसम-खइयसम्माइट्ठिजीवाणं पलिदोवमासंखेज भागसारणमिह म्हणादो। सत्साह पयडीणं पवेसगा असंखेनगुणा ।। ६ १७१. कुदो ? वेदयसम्माइद्विरासिस्य पहाणभावेणेत्थ विवक्खियत्तादो। वसरहं पपडोणं पवेसगा असंखेनगुणा । 5 १७२. किं कारणं ? भय-दुगुंछोदयसहिदमिच्छाइद्विरासिस्स विवक्खियत्तादो । वयह पयडीएं पवेसगा संखेनगुणा । ६१६७. क्योंकि भय और जुगुप्सा इन दोनोंके मिले हुए उदयकालसे अन्यतर विरहित मत संख्यातगुणा है ऐसा उपदेश है। * उनसे पाठ प्रकृतियों के प्रवेशक जीव संख्यातगुणे हैं । १६८. क्योंकि अन्यतर विरहित कालसे दोनोंके ही उदयसे रहित काल संख्यातगुणा ऐसा अवलम्बन किया गया है। और यह असिद्ध नहीं है, क्योंकि इसी सूत्रसे वह सिस्वरूप है। इस प्रकार ओघसे अल्पबहुत्वानुगम समाप्त हुश्रा । ६१६६. अब आदेशका कथन करनेके लिए आगेका प्रधन्ध कहते हैं* नरकगतिमें छह प्रकृतियों के प्रवेशक जीव सबसे स्तोक हैं। ६१७०. क्योंकि पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण उपशमसम्यम्हाष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि बीयोंका यहॉ पर ग्रहण किया है। * उनसे सात प्रकृतियों के प्रवेशक जीव असंख्यातगुणे हैं। ११७१. क्योंकि वेदकसम्यग्दृष्टि जीवराशि प्रधानभावसे यहां पर विवक्षित है। * उनसे दस प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव असंख्यातशुणे हैं। ६ १७२. क्योंकि भय और जुगुप्साके उदयवाली मिथ्यारष्टि जीवराशि यहां पर दिक्षित है। * उनसे नौ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव संख्यातगुणे हैं । -arnawww.vorror E Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ chod.... .. as ht... n .. . .. " जयधवलाशिकसायपाइचार्य श्री सुविद्यासागर दोषों ६ १७३. कुदो ? भय-दुगुंडाणमएणदरोदयविरहिदकालम्मि दोण्हमुदयकाला संखेजगुणम्मि संचिदत्तादो। अट्ठएहं पयडीणं पसगा संस्खेजगुणा । १ १७४. कुदो ? अण्णदरविरहिदकालादो संखेञगुणम्मि दोहं विरहिदकालम्मि संचिदत्तादो। एवं पिरोघो समत्तो । एवं सब्बणेरइय-देवा भवणादि जान सहस्सारा त्ति । तिरिक्खेसु सम्बत्थोवा पंच. उदीर० । छ. उदीर० असंखे०गुणा । सत्त० उदीर असंखे गुणा । दस० उदीर० अणंतगुणा । णव उदीर० संखे गुणा अट्ठ. उदीर० संखे गुणा। एवं पंचि तिरिक्खितिए । णवरि दस० उदी० असंखे०गुणा । पंचिंतिरि०अप०-मणुसअप० सम्बत्थो० दस० उदी० । णव० उदी० संखेज गु० | अट्ट० उदी० संखे०गु० । मणुसेसु सव्यस्थोवा एक्किसे उदी० । दोएडमुदी० संखेजगुणा । चदुण्हं संखे गुणा । पंचण्हं संखे.गुणा । छ० उदी० संखे० । गुणा । सत्त० उदी० संखे गुणा । दस० उदी० असंखे०गुणा । णव० उदी० । संखे० गुणा । अट्ठ० उदी० संखेगुणा । एवं मणुसपज मणुसिणी । सवार संखे गुणं कायच्वं । आणदादि जाव वगेवजा त्ति सव्वत्थो० दस० उदीर० | छ० उदी० संखे २४३. क्योंकि दोनोंके उदयकालसे संख्यातगुणे भय और जुगुप्सामें से किसी एकके उदयसे रहित कालमें उक्त जीवोंका सम्चय हुआ है। * उनसे आठ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव संख्यातगुणे हैं । . १७४. क्योंकि अन्यतरके उदयसे रहित कालसे दोनों के उदयसे रहित संख्यातगुणे कालमें उक्त जीवोंका सञ्चय हुआ है। इसप्रकार सामान्यसे नारकियों में अल्पबहुत्व समाप्त हुश्रा । इसीप्रकार सब नारकी, सामान्य देव और भवनवासियांसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें जानना । चाहिए। नियच्चोंमें पाँच प्रकृतियोंके उदीरक जीव सबसे स्तोक है। उनसे छह प्रकृतियोंके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे सात प्रकृतियोंके उदीरक जीव असंख्यातगुरणे हैं। उनसे दस प्रकृतियोंके उदीरक जीव अनन्तगुणे है । उनसे नौ प्रकृतियोंके उदीरक जीप संख्यातगुणे हैं। उनसे आठ प्रकृतियोंके उदीरक जीव संख्यातगुग्गे हैं। इसीप्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकमें जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें दस प्रकृतियोंके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें दस प्रकृतियोंके उदीरक जीत्र सबसे स्तोक है। उनसे नौ प्रकृतियोंके उदीरक जीय संख्यातगुणे हैं। उनसे आठ प्रकृतियोंके उदीरक जीव संख्यातगुरणे हैं । मनुष्योंमें एक प्रकृतिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उसे दो प्रकृतियोंके उदोरक जीव संख्यतागुण है। उनसे चार प्रकृतियोंके उद्दीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे पाँच प्रकृतियोंके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे छह प्रकृतियोंके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे सात प्रकृतियोंके लदोरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे इस प्रकृतियोंके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे नौ प्रकृतियोंके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे आठ प्रकृतियोंके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियों में जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणेके स्थानमें संख्यातगुणा करना चाहिए । श्रानत कल्पसे लेकर नौ |वेयक तकके देवों में इस प्रकृतियोंके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे छह Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरपयलिउदोरणार भुजगारपरूवणा । गव० उदी० संखे गुणा । अड्ड. उदी० संखेनगुणा । सत्त. उदी० संखे.. । एयमणुदिसादि पव्वट्ठा त्ति । णवरि दम० उदीरणा पत्थि । एवं जाव० । एवमप्यावहुए समत्ते पयडिट्ठाणउदीरणाए सत्तारस :- आचार्य श्री सुविधामोगद्वारासमत्वाणि । ...: १ एप्तो भुजगारपधेसगो। १७५. एत्तो उबरि पपडिहाणउदीरणाए भुजगारपवेसगो कायन्यो त्ति सहवं पइण्णायक मेदं तत्थ अट्ठपदं कायचं । १७६. तम्मि भुजगारपवेशगपरूवणाए पुव्यमेव ताव अद्वपदपरूत्रणा कायव्वं, भएणहा भुजगारादिपदविसेसविसथगिएणयाणुप्पत्तीदो । तं जहा–अणंतरादिकंतसमए थोवयरपयडिपवेसादो एहि बहुदरियायो पयडीयो पवेसेदि ति एसो भुजगारपवेसगो। अणंतरवदिकंतसमए बहुदरपयडिपत्रेसादो एम्हि थोवयरपयडीओ पवेसेदि सि एसो अप्पदरपत्रेसमो। अणंतरविदिक्तसमए एहि च तत्तियाओ चैव पयडीओ विसेदि ति एसो अवविदपवेसगो। अणंतरविदिक्कतसमए अपवेसगो होदूण एणिंह पोसेदि त्ति एस अवत्तव्यपवेसगो । एवमट्ठपदपरूवणा गया। प्रकृधियोंके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे नौ प्रकृतियों के उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे पाठ प्रकृतियोंके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे सात प्रकृतियोंके उदीरक जीव संख्यातगणे हैं। इसीप्रकार अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में जानना चाहिए । किन्तु सनी विशेषता है कि इनमें दस प्रकृनिचोंके उदीरक जीव नहीं हैं। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । इसप्रकार अल्पबहुत्वके समाप्त होने पर प्रकृतिस्थानउदीरणामें सत्रह अनुयांगद्वार समाप्त हुए। * आगे भुजगारप्रवेशकका अधिकार है। 3 १७४. इससे आगे प्रकृतिस्थान उदीरणामें मुजगारप्रवेशक करना चाहिए इस प्रकार यह प्रतिज्ञावचन कहने योग्य है। * उसके विषयमें अर्थपद करना चाहिए। १७६. उस भुजगारप्रवेशकप्ररूपणामें सर्वप्रथम अर्थपदकी प्ररूपणा करनी चाहिए, अन्यथा भुजगार आदि पदविशेषविषयक निर्णय नहीं हो सकता। यथा-अनन्तर अतिक्रान्त समयमै हुए स्ताकतर प्रकृतियोंके प्रवेशसे वर्तमान समयमें बहुनर प्रकृतियोंको प्रवेश कराता है यह भुजगारप्रवेशक है। अनन्तर अतिक्रान्त समयमें हुए बहुतर प्रकृतियोंके प्रवेशसे वर्तमान समयमै स्तोक तर प्रकृतियों को प्रवेश कराता है यह अल्पतरप्रवेशक है । अनन्तर अतिक्रान्त समयमें और वनमान समय में उतनी ही प्रकृतियों को प्रवेश कराता है यह अवस्थितप्रवेशक है। अनन्तर अतिक्रान्त समय में अप्रवेशक होकर वर्तमान सययमें प्रवेश कराता है यह प्रवक्तव्यप्रवेशक है। इस प्रकार अर्थपद प्ररूपणा समाप्त हुई । . . . . . . . . . . . Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ वेदगरे $ १७७. संपदि एत्थ तेरस श्ररिणयोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति - समुकित स जाव पावहुए ति । तत्थ ताव समुक्कि तणं वत्तइस्सामो । तं जहा - समुचिणाणुः दुविहो णिद्देसो-- योघेण आदेसेण य । श्रघेण श्रत्थि भुज० - अप्प०-७ - श्रवद्वि०उदीर० । एवं मसतिए । आदेसेण रइय० अस्थि भुज० अप्प० श्रवडि ० उदीर० । एवं सव्वरइय० - सव्वतिरिक्ख- मरयुसापञ्ज० सव्वदेवा सि । एवं जाव । एवं सुगमतादो अप्पणीयत्तादो च समुत्तिणागम मुल्लंघिय सामित्तविहासणडुमिदमाह - * तदो सामित्तं । ० अवत्त०० { 5 १७८. सुगमं । ॐ भुजगार अप्पवर अचट्टिदपवेसगो की होइ ? ६ १७९. सुगमं । * अण्णदरो । ६ १८०. मिच्छाइड्डी सम्माहट्टी वा सामिओ होदि ति भणिदं होइ । अवसव्वपवेसगो को होइ । ३ १८१. सुगममेदं पुच्छावकं । * अरणको सामाले प्रतिरोजी महाराज $ १७७. अब यहाँ पर समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक तेरह अनुयोगद्वार ज्ञातव्य । उनमें से सर्व प्रथम समुत्कीर्तन को बतलाते हैं । यथा - समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश, दो प्रकारका है - श्रोध और आदेश । श्रोघसे भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और वक्तव्यपदकं उदीरक जीव हैं। इसी प्रकार मनुष्यत्रिक में जानना चाहिए। श्रादेशसे नारकियों में भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदके उदीरक जीव हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यख, मनुष्य अपर्याप्त और सब देवोंमें जानना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। इस प्रकार सुगम होनेसे और अल्प वर्णनीय होनेसे समुत्कीर्तनानुगमको उल्लंघन कर स्वामित्वका व्याख्यान करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं- * उसके बाद स्वामित्वका अधिकार है । $ १७८. यह सूत्र सुगम है । * भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपद्का प्रवेशक कौन जीव है ? $ १७८. यह सूत्र सुगम है । * अन्यतर उक्त पदका प्रवेशक है । १८०. मिध्यादृष्टि और सम्यन्द्रष्टि जीव स्वामी है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * अवक्तव्य पदका प्रवेशक कौन जीव है ? $ १८१ यह प्रच्छावाक्य सुगम है । * उपशमनासे गिरनेवाला अन्यतर जीव अवक्तव्यपदका प्रवेशक है । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 我 ] उत्तरपडिउदीरणाए भुजगारपरूवणा ३१८२. सव्योवसमं कारण परिषदमाणगो पडमसमय मुहुमसांपराइयो पढमदेवो वा यवतव्यपवेसगो होइ चि भणिदं होइ । एवमोघो समचो एवं मगुस| नारि अवचव्व० पवे० पढमसमयदेवो त्तिण वत्तच्वं । आदेसेण पेरइय० । णवरि अवत्त ० रात्थि । एवं सव्वर० सव्यतिरिक्ख सच्चदेवा त्ति | गवरि वि०तिरिक्खचपञ्ज० - मासलपञ्ज-अहिमादि सुब्बा ति भुज- अप अट्टि० :- अचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज १ अण्णदरस्स । एवं जाव० । १ * एगजोवेण कालो । ६१८३. सामिनात रमेगजीवविसयो कालो बिहासियन्त्र त्ति भणिदं होइ स दुविहो णिसो-ओवादेसभेदेण । तत्थोवपरूवणमाहभुजगारपवेसगो केवचिरं कालादो होवि ? ॐ ६१८४. सुगमं । * जहण एयसमश्र । १८५ तं कथं ? सत्तण्डं पवेसगो होद्य द्विदो सम्माहड्डी मिकाहड्डी वा भयबामणदरं पवेसिय भुजगारपवेसगो जादो । पुणो विदियसमए ततियं चे उदीरेमाणस्स तस्स लद्धो एयसमयमेचो भुजगारपवेसगजहणकालो । एवमात्थ वि महासभवमेय समयो श्रणुगंतव्यो । ७ १८२. सर्वोपशम करके गिरनेवाला प्रथम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक जीव अथवा प्रथम समयवर्ती देव वक्तव्यपदका प्रवेशक है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार रूपम हुई। इसी प्रकार मनुष्य त्रिकमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्यपदका प्रवेशक प्रथन समयवर्ती देव हैं यह नहीं कहना चाहिए। आदेश से सारकियोंमें प्रोध के समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अवकपद नहीं है । इसीप्रकार सब नारकी, सब विर्यश्व और सब देवोंमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता हूँ कि पोन्द्रिय तिर्थव्य अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवा भुजगार, अल्पत्तर और अवस्थिसपद किसके होते हैं ? अन्यतरके होते हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । * एक जीवकी अपेक्षा काल । ६ १८३. स्वामित्व के बाद एक जीवविषयक कालका व्याख्यान करना चाहिए यह उक्त धनका तात्पर्य है । उसका प्रोघ और आदेशके भेद से दो प्रकारका निर्देश है। उनमेंसे ओघका कथन करने के लिए कहते हैं * भुजगारप्रवेशकका कितना काल है ? ६ १८४. यह सूत्र सुगम है । * जघन्य काल एक समय है । ३१८५. वह कैसे ? सात प्रकृतियोंका प्रवेशक होकर स्थित कोई एक मिध्यादृष्टि या सम्यग्दष्टि जीव भय और जुगुप्सामेंसे किसी एकका प्रवेश करा कर भुजगार प्रवेशक हो गया । पुनः दूसरे समय में उतनी प्रकृतियों की ही उदीरणा करनेवाले उसके भुजगारप्रवेशकका जघन्य काल एक समय प्राप्त हुआ । इसीप्रकार अन्यत्र भी यथासम्भव एक समय काल जान लेना चाहिए 1 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ [ वेदा * उकस्से सारि समया । १८६. तं जहा -- उवसमसम्माइद्विणो पमतसंजदा संजदासंजदा असं सम्माइट्टिणो च जहाकमं चचारि पंच छ पयडीओ उदीरेमाणा द्विदा । पुणो के उसमसम्म कालो एक्समयमेचो अस्थि ति सासणगुणं पडिवण्णेसु एको भुजगा समय लो। से काले मिच्छतं पडिवलेसु विदिओ भुजगारसमओ लम्भदे । है काले भये पवेसिदे तदियो जगारसमयो । तदणंवरसमय दुगुछाए पवेसिदाह उत्थो भुजगारसमयो त्ति एवमुकस्सेण चत्तारि समया अजगारपवेसगस्स ला भवति । अथवा श्रदरमाखगो अणिविसामो अण्णदर संजलरण मुदीरे मायो पुरिसवेदोकड्डिय एयसमयं भुजगारपवेसगो जादो । तदतरसमए कालं कादृण देवेसुध्वण्णपदमपमए विदियो भुजगारसमयो । पुणो तो अतरसमए भयमुदीरेमाणस्स तदियो भुजगारसमयो से काले दुगु छोदएण परिणदस्त उत्थ समयो चि एवं चचारि समया । भुजगार जयभवलासहिते कसायपाहुडे * अप्पदरपवेसगो केवश्चिरं कालादो होदि ? $ १८७. सुगममेदं पुच्छायार्गदर्शक * जगणेण एयसमओ । : आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज १८. कुदो ? एयसमयमप्ययरं काढूण तदणंतरसमए भुजगारमबट्टिदं वा दस्तदुवलंभादो | * उत्कृष्ट काल चार समय है । १८६. यथा - उपशमसम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंगत, संयतासंयत और असंयतसम्यग्दृष्टि जीव क्रमसे चार, पांच और छह प्रकृतियोंकी उदीरणा करते हुए स्थित हैं। पुनः उपशम सम्यक्त्वका काल एक समयमात्र शेष है कि उनके सासादन गुणस्थानको प्राप्त होनेपर एक भुजगारसमय प्राप्त हुआ। तदनन्तर समय में मिध्यात्वको प्राप्त होनेपर दूसरा भुजगार समय प्राप्त होता है । तदनन्तर समय में भय के प्रवेश कराने पर तीसरा भुजगार समय प्राप्त होता है, और तदनन्तर समय में जुगुप्सा के प्रवेश कराने पर चौथा भुजगार समय प्राप्त होता है। इस प्रकार भुजगारप्रवेशक के उत्कृष्टरूपसे चार समय प्राप्त होने हैं। अथवा उतरनेवाला तथा अन्यतर संञ्चालनकी उदीरणा करनेवाला अन्यतर अनिवृत्तिउपशामक जीव पुरुषवेदका अपकर्षण करके एक समय तक भुजगार प्रवेशक हो गया। पुनः तदनन्तर समय में मरकर देवों में उत्पन्न होने के प्रथम समय में दूसरा भुजगारसमय प्राप्त हुआ। पुनः उसके बाद अनन्तर समय में भयकी उदीरणा करनेवाले उसके तीसरा भुजगारसमय प्राप्त हुआ। तथा तदनन्तर समयमें जुगुप्साके उदयसे परिणत हुए उसके चौथा भुजगारसमय प्राप्त हुआ। इस प्रकार भुजगारप्रवेशकके चार समय प्राप्त हुए । * अल्पतर प्रवेशकका कितना काल है ? $ १८७, यह प्रच्छावाक्य सुगम है । * जघन्य काल एक समय हैं । ----- ९८८. क्योंकि एक समय तक अल्पतरपद करके तदनन्सर समयमें भुजगार या अवस्थित पदको प्राप्त हुए जीवके उक्त काल उपलब्ध होता हैं । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स उत्तरपयडिउदीरणाए भुजगारपरूवणा उकस्सेण तिपिण समया | १८९. तं जहामिच्छाइटिस्स दस पयडीओ उदीरेमाणस्स भयवोच्छेदेण जमण्यमुदीरणा होदणेको अप्पदरसमयो 1 से काले दुगु छोदयवोच्छेदणाटुं होदण यो अप्पयरसमयो । तदणंतरसमए सम्म पडियण्णास मिच्छनाणताणुबंधिसाखदेण तदियो अप्पदरसमयो चि। एवं अप्पदरपवेसगस्स उक्कासकालो तिसमययो । एवं चेत्रासंजदसम्माइद्विस्स संजमासंजम पडिबज्जमाणस्स संजदासंजदस्स या म पडियज्जमाणस्स तिसमयमंचपदरुक्कस्सकालपरूवरणा कायया । अवहिदपवेसगो केवचिरं कालादो होदि ? ३१९०. सुगमं । जहरणेण एगसमओ। ६१९१. तं कथं ? गावस्यक पंवेसमागासी मुविधाममयसमयामजगारपञ्चायण परिणमिय से काले तनियमेनेणावद्विदस्स तदाँतरसमए भयवोच्छेदेणपदपज्जायमुवगया लट्ठो एयसमयमचो अवविदजइण्णकालो। एवमण्णत्थ वि • उकस्सेण अंतोमुहत्तं । hinnan. । * उत्कृष्ट काल तीन समय है। ६१८१, यथा-दस प्रकृतियोंकी उनीरगण करनेवाले मिध्यादृष्टि जीवके भयकी व्युच्छित्ति हो आनेसे नौकी उदीरणा होकर एक अल्पतर समय प्राप्त हुआ। तदनन्तर समयमें जुगुप्साकी उदयव्युरित्ति हो जानेसे आठ प्रकृतियोंकी उदीरणा होकर दूसरा अल्पतर समय प्राप्त हुआ। तदनन्तर समयमें सम्यक्त्वको प्राप्त हुए उसके मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीकी व्युच्छिति हो जानेसे तीसरा अल्पतर समय प्राप्त हुआ। इसप्रकार अल्पतरप्रवेशकका उत्कृष्ट काल तीन समय होता है। इसी प्रकार संयमासंयमको प्राप्त होनेवाले असंयतसम्यग्हष्टि जीवके तथा संयमको *प्राप्त होनेवाले संयतासंयत जीवके अल्पतर प्रवेशक सम्बन्धी तीन समयमात्र उत्कृष्ट कालकी प्ररूपणा करनी चाहिए। * अवस्थितप्रवेशकका कितना काल है ? ६ १८०. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल एक समय है। १९१. वह कैसे ? जो नौ प्रकृतियोंका प्रवेशफ जीव जुगुप्साके श्रानेसे एक समय तक मुजगार पर्यायसे परिणत हुआ । पुनः तदनन्तर समयमें उतनी ही प्रकृतियोंकी उदीरणाके साथ अवस्थित रहा । फिर तदनन्तर समयमें भयकी व्युच्छितिक द्वारा अस्पतरपर्यायको प्राप्त हो गया उसके अवस्थितपदका जघन्य काल एक समयमात्र प्राप्त हुआ । इसी प्रकार अन्यत्र भी जानना चाहिए। * उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाटुडे [वेदगो । १६२. तं जहा–दसपयडीओ उदीरेभाणस भय-दुगु'छाणमुदयवोच्छेदेख प्पदरं कादूणावट्टिदस्स जाव पुणो भय-दुगुंछाणमणुदयो ताव अंतोमुहुनमेनो अवहिरी पवेसगस्स उकस्सकालो होइ । अवत्तव्यपवेसगो केवचिकालादो साल भी सुविधिसागर जी म्हा ३ १९३. सुगमं । ॐ जहरणकारसेण एयसमयो । ६ १९४. कुदो ? सब्बोवसामग्णादो परिवदिदपढमसमयं मोतूणण्णस्थ तदसम वादा । एवमोघेण कालाणुगमो समतो । ६ १९५. एवं मणुसतिए । प्रादेसे गेरइय० भुज०-अप्प०-अद्वि. ओष ।। एवं सब्बोरइय-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खतिय-देवा भवणादि जाव गवगेवज्जा चि। पंचिंदियतिरिक्खनपज्ज०-मणुसअपज्ज. भुज० जह० एगस०, उक्क० वेसमया। एचमपदर० । अवढि० ओघं । अणुदिसादि सषट्ठा ति भुज-अप्प० जह० एयस०, उक० तिरिण समया-। अवटि अोघं । एवं जावः ।। ६६६२. यथा-दस प्रकृतियों की उदीरणा करनेवाला जो जीव भय और जुगुप्साको उदयव्युच्छित्तिके द्वारा अल्पतरपद करके अवस्थित है । पुनः जबतक उसके भय और जुगुप्साका अनुदय बना रहता है तबतक उसके अवस्थित प्रवेशकसम्बन्धी अन्र्मुहूर्तप्रमाण उत्कृष्ट काल प्राप्त हो जाता है। * अपक्तव्यप्रवेशकका कितना काल है ? ६ १६३. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य और उत्कर काल एक समय है। १४. क्योंकि सर्वोपशामनासे गिरते हुए प्रथम समयको छोड़कर अन्यत्र प्रवक्तव्यपद असम्भव है। इस प्रकार ओघसे कालानुगम समाप्त हुना। : १९५. इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। श्रादेशसे नारकियों में भुजगार, अल्पतर और अवस्थितप्रवेशकका काल अोधके समान है। इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यच, पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिक, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर नी अवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तियांश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्यातकोंमें भुजगार प्रवेशकका जघन्य काल एक समय है, और उत्कृष्ट काल दो समय है। इसी प्रकार अल्पतरप्रवेशकका काल है। अवस्थितप्रवेशकका काल ओघके समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें भुजगार और अल्पतरप्रवेशकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दीन समय है। अवस्थितप्रवेशकका काल ओघके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ---मनुष्यत्रिकमें प्रथमादि सर्वोपशामना तकके सब गुणस्थान सम्भव हैं, इसलिए उनमें ओघप्ररूपणा अषिकल बन जानेसे वह श्रोघके समान जाननेकी सूचना की है। परन्तु सब नारकी, सामान्य तिर्याच, पञ्चेन्द्रिय तिम्वत्रिक, सामान्य देव और भवन Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरपयडिउदीरणगए भुजगारपरूवणा एपजीवेण अंतरं। १९६, सुगममेदमहियारपरामरसवकं । भुजगार-अप्पदर-अवडिदपदेसगंतरं केवधिरं कालादो होवि ? १९७. सुगमं । जपणे मांगी आचार्य श्री सुविहिासागर जी महाराज १६८. तं जहा-भुजगारस्स ताव उच्चदे। एको श्रोदरमागउवसामगो मदीरेमाणो परिसवेदमोकड्डिय भुजगारपवेसगो जादो । तदो से काले तशियसहिदो होदणंतरिदो । तदर्णतरसमा कालं कादूण देवेसुप्पएको भुजगारपवेसगो । लछमंतरं । हेछिमगुणहाणेसु चि लव्भदे । तं कधं ? भय-दुगुंछाविरहिदमप्पप्पणो भावारणमुदीरेमाणो अपणदरगुणट्ठागजीयो भयागमेणेगसमयं भुजगारं काद से लेकर नौ ग्रेवयक तक्रके देवों में सर्वोपशामनाकी प्राप्ति सम्भव नहीं होनेसे उनमें तीन की अपेक्षा कालका निर्देश किया। ये तीन पद पवेन्द्रिय तिर्यकच अपर्याप्त, मनुष्य पर्याप्त और अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें भी सम्भत्र हैं। परन्तु पन्चेन्द्रिय तिर्यकच पर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें एक मिथ्यात्व गुणस्थान होनेसे वहाँ भुजगार और अल्पतर का उत्कृष्ट काल दो समय ही बनता है तथा अनुदिशादिक में जो उपशमसम्यग्दृष्टि और त्योधक सम्यग्दृष्टि उत्पन्न होता है, उसके यह काल तीन समय भी बन जाता है। रामसम्यग्दृष्टिके प्रथम समयमें सम्यक्त्व प्रकृतिकी, दूसरे समयमै भयकी और तीसरे ग्रम जुगुप्साको उदीरणा करानेसे भुजगार प्रवेशकका तीन समय उत्कृष्ट काल बन जाता सषा अत्तकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिके प्रथम समयमें सम्यक्त्व प्रकृतिको, दूसरे समयमें भयको और वीसरे समयमें जुगुप्साको अनुदीरणारूपसे परिणत करने पर अल्पतर प्रवेशकका तीन समय उत्कृष्ट काल बन जाता है। शेष कथन सुगम है। * एक जीवकी अपेक्षा अन्तर । 5 १८६. अधिकारका परामर्श करनेवाला यह वाक्य सुगम है । * मुजगार, अल्पतर और अवस्थितप्रवेशकका अन्तरकाल कितना है ? 5 १६७यह सूत्र सुगम है। जघन्य अन्तरकाल एक समय है। FREE. यथा-सर्वप्रथम भुजगारका कहते हैं, संज्वलनकी उदीरणा करनेवाला उत्तरता असा एक उपशामक जीव पुरुपवेदका अपकर्षण करके भुजगारप्रवेशक हुआ। इसके बाद सदनन्तर समयमें उतनी ही प्रकृतियोंकी उदीरणाके साथ अवस्थित्तप्रवेशक होकर उसने भुजगार. का अन्तर किया। पुनः तदनन्तर समयमें मरकर और देवोंमें उत्पन्न होकर वह भुजगारदेशक हो गया। इसप्रकार भुजगारप्रवेशकका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त हो गया। यह तर नीचे के गुणस्थानों में भी प्राप्त होता है। . शंका-वह कैसे ? समाधान-भय और जुगुप्साकी उदीरणासे रहित अपने उदीरणास्थानकी उदीरणा करनेवाला अन्यतर गुणस्थानवी जीव भयके आगमन द्वारा एक समय तक भुजगारपद Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक:-Tीम जयधवलासहिदे कसायपाटुडे गणंतरसमए तत्तियमेत्तावदाणेणूत रिदो से काले सदरमा सारिणदो, पुणो । भुजगारपवेसगो जादो । लद्धमंतरं होह। १९९. संयहि अप्प.पवे. उच्चदे। तं जहा- भग-दुगुलाहि सह अणि मुदीरणट्ठाणमुदीरेमाणस्स अण्णदरगुणट्ठाणजीवस्स भयवोच्छेदेणेगसमयमप्पदरपज्जए परिणदस्स तदणंतरसमए तत्तियमेत्तेणंतरं होदूण से काले दुगुंछोदयवोच्छेदेण भर दरभावमुनगयस्स लद्धमंतर होइ । अधवा मिच्छाइटिणा सम्मत्ते गहिदे तप्पढमसमपनि मिच्छताणताणुबंधिवोच्छेदेणप्पदरं कादणाणंतरसमए तचियमेत्तेणावहिदस्स एगसमान मंतरं होदूण नदियसमयम्मि भय-दुगुकाणमण्णदरवोच्छेदेणुभयवोच्छेदेण वा लद्धमंतर, होइ । एवमसंजदसम्माइद्विणा संजमासंजमे गहिदे संजदासंजदेण वा संजमे गहिदे अप्पदरस्स एगसमयमेत्तजहण्णंतरोक्लंभो वत्तव्यो। संपहि अवट्टि-पवे. जहएणंतर, उच्चदे । तं जहा सत्त वा अट्ट चा पयडीओ पवेसेमाणगस्स भयागमेणेगसमय भुजगारेणंतरं होदूण तदुवरिमसमपम्मि तत्तियमेतणावद्विदस्स तद्धमंतरं होई ।। एवमप्पदरेण वि अवट्टिदस्स जहएणंतरं साहेयव्यं । जफरसेण अंतोमुटुसं।। करके पुनः तदनन्तर समयमै उतनी ही प्रकृतियोंकी उदीरमगारूप अवस्थित पद द्वारा भुजगार. पदको अन्तरित करके सदनन्तर समयमें जुगुप्साके उदयरूपसे परिवात होकर पुनः भुजगारप्रवेशक हो गया । इसप्रकार भुजगारप्रवेशकका एक समय जघन्य अन्तर प्राप्त होता है। 6 १६८. अब अल्पतरप्रवेशकका कहते हैं। यथा-भय और जुगुप्साके साथ विवत्तिक जदीरणास्थानकी पदारणा करनेवाला अन्यतर गुणस्थानवाला जो जीव भयकी उदयम्युछित्ति . द्वारा एक समय तक अल्पतर पर्यायसे परिणत हुआ, पुनः तदनन्तर समयमें उतनी हो। प्रकृतियोंकी उदीरणा द्वारा अल्पतर पदका अन्तर करके तदनन्तर समयमें जुगुप्साको उदयव्युच्छित्ति द्वारा अल्पतरपरको प्राप्त हुश्रा, उसके अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त होता है। अथवा जो मिथ्याइष्टि जीव सम्यक्त्वको ग्रहणकर उसके प्रथम समयमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीकी उदयव्युच्छित्ति द्वारा अल्पतरपदको करता है, पुनः तदनन्तर समयमें उतनी ही प्रकृतियों की उदीरणा द्वारा अल्पतरपदका अन्तर करता है और तीसरे समयमें भय और जुगुप्सासे किसी एक प्रकृतिकी उदयव्युच्छिति द्वारा या दोनोंकी उदयव्युच्छितिद्वारा अल्पतरपद करता है उसके अल्पदरपदका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त होता है। इसीप्रकार असंयतसम्यग्दृष्टिके द्वारा संयमासंयमके ग्रहण करने पर या संयतासंयतके द्वारा संयमके ग्रहण करने पर अल्पतरपदका जघन्य अन्तर एक समयमात्र प्राप्त होता है ऐसा कथन करना चाहिए । अब अवस्थितप्रवेशकका जघन्य अन्तर कहते हैं। यथा सात या आठ प्रकृतियोंका प्रवेश करनेवाला जो जीव भयके आगमन द्वारा एक समय तक भुजगारपद करता हुथा उस द्वारा अवस्थित पदका अन्तर करके पुनः तदनन्तर समयमें उतनी प्रकृतियोंके उदय द्वारा अवस्थित पद करता है उसके अवस्थितपदका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त होता है। इसी प्रकार अल्पतरपदका आश्रय लेकर भी अवस्थितप्रवेशकका जघन्य अन्तर साध लेना चाहिए। * उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [R] उत्तरपटिदीरणाए भुजगारपरूवणा ६१ ६२०० तत्थ ताब भुज०पवे० बुचदे । तं जहा – एको संजदासं जदो माणगी असंजमं षडियष्णो, पदमसमए भुजगारस्सादि कादूतरिंदो | वसमतो हुतमच्त्रिय भय - दुर्गुछोदयवसेण पुणो वि भुजगारपवेसगो जादो । मंतरं होई। अear एको उत्रसमसम्माइड्डी पमत्तापमससंजदो चदुमुदीरगो अय-दुगागमेण भुजगारस्सादि कारण पुणो सत्था चैव तोमुत्तमयिक्खियजीएतरिदो उवसम सेडिमारुहिय सव्धोवसमं कादृणोदरमाणमो लोभसंजलणमुदीरेद् | विदिय जम्मि इत्थवेदमुदीरे माणगो भुजगारपवंसगो जादो तम्मि लद्धमंतरं होई । ३ २०१. पदर प्रवेस श्रा बुवा मित्रा दुख लापयडीओ उदीरेमाणस्स -छोदय वोच्छेदे णप्पदरजाय परिणदस्तावरसमए अंतरं हो तो मुहुरोण भय-दुबासु उदयमागदासु पुणो वि अंतोमुदुशमंतरिदस्स तदुदयवच्छेदसमकालमप्पदरभाषण लद्धमंतरं होई । प्रधवा उवसमसेदिमारुदिय इत्थिवेदोदय वोच्छेदेणप्पदरस्सादि कातास्थि उपरि वढिय हेट्ठा श्रोदिण्णस्स भय- दुगुद्राणमुदीरणा हो तो मुहुण अस्य तदुदयवोच्छेदो जादो तत्थ लद्वमंतरं कायच्वं । १२०२. पहि अवदिपवे० उचदे – उवसामगो लोहसंजलणमुदोरेमाणो 'अवदसादि कारणादीरगो होतो मुहुत्त मंतरिय पुणो श्रोदरमाणो सुमसांषरायो २०५. उसमें सर्वप्रथम भुजगारप्रवेशकका कहते हैं। यथा- पाँच प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेवाले एक संयतासंयत जीवने असंयमको प्राप्त होकर प्रथम समयमें भुजगारपदका आरम्भ"कर उसका अन्तर किया । पुनः सबसे उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर अन्तमें भय और जुगुप्साके उदय द्वारा फिरसे जो भुजगारप्रवेशक हो गया उसके भुजगारपदका उत्कृष्ट अन्तर धम्र्मुहूर्त प्राम होता हूँ। अथवा चार प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेवाला एक उपशमलभ्यग्दृष्टि प्रमत्त और अप्र. संयत जीव भय और जुगुप्सा आगमन द्वारा भुजगारपदका प्रारम्भ करके पुनः स्वस्थान में ही अन्तर्मुहूर्त कालतक अविवक्षित पर्यायके द्वारा उसका अन्तर करके उपशममेणि पर चढ़ा और वहाँ सर्वापम करके उतरते हुए लोभसंज्वलनकी उदीरणा करके तथा नीचे गिरकर जहाँ जाकर स्त्रीवेदकी उदीरणा करना हुआ भुजगारप्रवेशक हुआ वहाँ उस जीवके भुजगारपरका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होता है। १ २०१. अब अल्पतरप्रवेशकका कहते हैं- नो या इस प्रकृतियोंकी उदीरणा करनेवाला कोई एक जीव भय और जुगुप्साकी उदयव्युच्छित्तिद्वारा अल्पसर पर्याय से परिणत हुआ । पुनः अनन्तर समय में उसका अन्तर होकर अन्तर्मुहूर्त काल के बाद भय और जुगुप्साके उदय में थाने पर फिर अन्तर्मुहूर्त काल तक उसका अन्तर किया। फिर उन दोनों प्रकृतियों की उदयव्युच्छित्ति के काल में ही अल्पतर पर्यायसे परिणत हुआ उसके अल्पतरपदका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। अथवा उपशमरिण पर चढ़कर श्रीवेदकी उदयव्युच्छित्ति द्वारा अल्पतरपदका प्रारम्भकर और अविवक्षित पदद्वारा उसका अन्तर कर ऊपर चढ़ा। फिर नीचे सतरते हुए उसके भय और जुगुप्साकी उदीरणा होकर अन्तर्मुहूर्त काल बाद जहाँ उन दोनोंकी उदयत्र्युच्छित्ति होती है वहाँ अल्पतर पदका प्राप्त हुआ उत्कृष्ट अन्तर करना चाहिए । २०२. अब अवस्थितप्रवेशकका कहते हैं- लोभसंज्वलनकी उदीरखा करनेवाला उपशामक जीव अवस्थित पदका प्रारम्भ करके बादमें उसका अनुदीरक होकर अन्तर्मुहूर्त काल Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गदशव जयधवलासहिदे कसायपाहुडे होदण बिदियसमए कालं कादण देवेसुप्पजिय जहाकममण्णेसु दोसु समएसुस दुगछाप्रो उदीरिय तदो अवविदपवेसनो जादो, लद्भूमंतर होह। * अषसन्धपवेसगंतरं केवचिरं कालादो होदि? २०३. सुगमं । ॐ अहणण अंतोमुत्तं । २०४. तं जहा-उवसमसेडिमारुहिय सन्चोवसामणापडिवादपढमसका अवत्तबस्सादि कादृण हेट्ठा णिवदिय अंतरिदो | पुणो वि सबलहुमंतोमुहूसे उवसमसेढिमारोहणं कादृण सुमाइयचरिचालिसपसरावामानामुलक मिय तत्व कालं कादूण देवेसुषण्ण पढमसमए लद्धमंतर करेदि, पयारंतरेण जहएस, तराणुप्पत्तीदो। ॐ उकस्सेण उबड्डपोग्गलपरिय। २०५. तं कधं ? अद्धपोग्गलपरियदृपढमसमए सम्मत्तमुप्पाइय सव्वलहुमुवसमसेढिसमारोहणपुरस्सरपडिवादेणादि कादणंतरिदो किंचूरगमद्धपोग्गलपरियट्ट परियविदा थोवावसेसे संसारे पृणो वि सन्यविसुद्धो होदृण वसमसेढिमारूढो पडिवादपढमसमए। लद्धमंतरं करेदि त्ति वत्तव्यं । एवमोघपरूवणा र ता। तक अवस्थितपदका अन्नर करके पुनः उत्तरता हुमा सूदमसाम्परायिक होकर तथा दूसरे समा. मरकर और देवोंमें उत्पन्न होकर क्रमसे अन्य दो समयों में भय और जुगुप्साकी उदारणा करके अनन्तर अवस्थितप्रवेशक हो गया। इसप्रकार अवस्थितप्रवेशकका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हो जाता है। * अवक्तव्यप्रवेशकका अन्तरकाल कितना है? ६२०३. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त है। २०४. यथा--उपशमश्रेणिपर आगेहप करके नथा सर्वोपशामनासे गिरनेके प्रथम समयमें प्रवक्तव्यपदका प्रारम्भ करके पुनः नीचे गिरकर उसका अन्तर क्रिया । पुनः सबसे लघु अन्तर्मुहर्त कालके द्वारा उपशमश्रेणिपर श्रारोहण करके सूक्ष्मसाम्परायकी अन्तिम श्रावलिके प्रथम समयमें अप्रवेशकभावको प्राप्त होकर और वहीं पर मरकर जो देवों में उत्पन्न हुआ वह वहाँ उत्पन्न होने के प्रथम समयमें अवक्तव्यप्रवेशकसम्बन्धी अन्तरको प्राप्त करता है, क्योंकि प्रकारान्तरसे जघन्य अन्तरकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। * उत्कृष्ट अन्तर उपाधं पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। (२०५. शंका-- बाह कसे ? समाधान--- अर्धपुद्गल परिवर्तनके प्रथम समयमें सम्यक्त्यको उत्पन्न करके प्रतिशोध उपशमश्रेणिपर आरोहण पूर्वक गिरते समय अवक्तव्यपदका प्रारम्भ करके जो उसका अन्वर करता है। पुनः कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल नक परिभ्रमरणकर संसारमें रहनेका थोड़ा काल शष रह जाने पर फिरसे जो सर्व विशुद्ध होकर अपशमश्रणि पर आरोहण करता है वह गिरनेके प्रथम समयमें उसका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त करता है ऐसा यहाँ कहना चाहिए । इस प्रकार ओघप्ररूपण समास हुई। . Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [A] उत्तरपयहि उदीरणाए भुजगारपरूपणा ८३ " २०६ श्रादेसेस रइय० ज० अप्प० जह० एयसमो उक० तोमु० । ० जह० एयस०, उक्क० चन्तारि समया । एवं सव्वणिरय-तिरिक्ख-पंचिदिय- देवा भवरणादि जात्र खवमेवजा चि । पंचि ० तिरि० पञ्ज ० मशुमपञ्ज० वि० [प्रप्प० श्रघं । श्रवट्ठि० जह० एयस०, उक्क० वेसमया । मगुसतिए भुज ०म० श्रवडि० श्रोधं । श्रवश० जह० अंतोसु०, उक्क० पुञ्चकोडियुधधं । दिसादि सच्चट्टा ति भुज० प० श्रोषं । अट्टि० जह० एयसमयो, उक्क ० लिपि समया । : आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ॐ पाणाजीवेहि संग विचयादिअणियांगद्दाराणि अप्पाबहुश्रवञ्जाणि यष्याणि । १२०७. खाणाजीवेहि भंगविचय-भागाभाग - परिमाण - खेच-पोसरण - कालंतर-भावअणदारामणि गद्दाराणामेदेण सुरेख समप्पिदामुचार गावलेख परूवणमिह साम । तं जड़ा ६२०६. आदेश से नारकियों में भुजगार और अल्पतरप्रवेशकका जघन्य अन्तर एक -समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित प्रवेशकका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है। इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यञ्च पश्लेन्द्रिय विर्यश्वत्रिक, सामान्य देव और भवनवासियोंस लेकर नौ ग्रेवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए । पंचेन्द्रिय तिर्यव पर्याप्त और मनुष्य अपर्यातकोंमें भुजगार और अल्पत प्रवेशकका अन्तर ओके समान है । अवस्थित प्रदेशकका जघन्थ अन्तर एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तर समय है। मनुष्यत्रिक में भुजगार, अल्पतर और अवस्थित प्रवेशकका अन्तरकाल के मान है। प्रवेशकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्दर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। अनुदिशसे लेकर सवार्थसिद्धितकके देवोंमें भुजगार और अनतर प्रवेशकका अन्तरकाल के समान है। अवस्थित प्रवेशकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्वर तीन समय है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ - मनुष्य त्रिकको छोड़कर अन्य सम गतियों में और उनके अवान्तर भेदों में जहाँ जो भुजगारपदका उत्कृष्ट काल बतलाया है वहीं वह अवस्थितप्रवेशकका उत्कृष्ट अन्तरका जानना चाहिए। मनुष्यत्रिकका कर्मभूमिमें रहनेका उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है। यह सम्भव है कि कोई जीव पूर्वकोटिपृथक्त्व कालके प्रारम्भमें और अन्त में कव्यपद करे और मध्यमें उसका अन्तरकाल रद्दा आये । इसीसे इनमें अवक्तव्य प्रवेशकका पत्कुल अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण कहा है। तथा अवक्तव्य पदका जधन्य अन्तर अतिशीघ्र दो बार उपशमश्रेण पर चढ़ाकर ले आना चाहिए। शेष कथन सुगम हैं । * अल्पबहुत्वके सिवा नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय आदि अनुयोगद्वार करने चाहिए। ०७. इस सूत्र के द्वारा मुख्य भाषको प्राप्त हुए नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर और भाव संज्ञावाले अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा राके बसे यहाँ पर बतलाते हैं। यथा--नाना जीवोंका श्राश्रय लेकर भंगविचयासुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है -- ओघ और श्रादेश । श्रोघसे भुजगार, अल्पतर और I Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदन २०८. णाणाजीवहि भंगविचयाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-प्रोषेण आदे य। ओघेण भुज०-अप्प०-अबढि उदीर० णिय. अस्थि, सिया एदे अवतव्वो च, सिया एदे च अवनव्वगा च । भंगा तिएिण ३। आ । रइय० अहि. णियमा अस्थि, सेसपदा भयणिजा। भंगा ९ । एवं सव्वणेरहमा सवपंचिंदियतिरिक्ख-सव्वमणुस-सव्वदेवा चि । वरि मणुस अप सवपदा भयणिजा । भंगा २६ । मसतिए भंगा २७ । तिरिक्खेसु सुज अप्प०-अवहिणिय० । एवं जाव० । २०९. भागाभागाणु० दुविहो णि-प्रोघेण आदेसेण य | ओघेण भुज असवजीची सविसरमामहाराशिवट्ठि. असंखेज्जा भागा | अवस अवस्थित पदके उदोरक जीव नियमसे हैं। कदाचिन् ये नाना जीव हैं और एक अवक्तव्यपर उदीरक जीव है। कदाचित् ये नाना जीव हैं और प्रवक्तव्यपदके उदीरक जीव नाना है। भंग तीन हैं ३ | आदेशसे नारकियोंमें अवस्थितपदके उदीरक जीव नियमसे हैं। शेषपद भजनी । हैं। भंग ५ हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च, सब मनुष्य और सक देवा | जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सष पद भजनीय है। भंग २६ हैं। मनुष्यत्रिको भंग २७ हैं। तियोश्चोंमे भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदक उदीरक जीव नियमसे हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। विशेषार्थ सब नारकी, सब पछेन्द्रिय तिर्थब्च और सब देवों में एक ध्रुव पद है और दो अध्रव पद हैं, इसलिए एक जीव और नाना जीवोंकी अपेक्षा इन पदोंके ध्रुय भंग सहित नी भंग होते हैं। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें तीन अध्रुव पद हैं, इसलिए इनके एक और नाना जीवोंकी) अपेक्षा छब्बीस भंग होते हैं। मनुष्यत्रिकमें एक ध्रुव पद और तीन अध्रुव पद हैं, इसलिए इनमें ध्रुव भंगके साथ एक और नाना जीवोंकी अपेक्षा सत्ताईस भंग होते हैं। २०८ भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है.-प्रोध और आदेश । प्रोषसे भुजगार और अल्पतरपदके उदीरक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितपदके उदीरक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। तथा अवक्तव्य पदके उदीरक जीव अनन्त भागप्रमाण हैं। आदेशसे नारकियोंमें ओघके समान भंग है। किन्तु प्रवक्तव्यपदके उदीरक जीव नहीं हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तियेकच, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें जानना चाहिए। मनुष्योमें भुजगार, अल्पतर और प्रवक्तव्यपदके उदीरक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। अवस्थितपदके उदीरक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण है। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातके स्थानमें संख्यात करना चाहिए। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिमें जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अषक्तव्यपदके उदीरक जीव नहीं हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। ६२०६. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है--प्रोच और आदेश । श्रोधसे भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदके उदीरक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। अवक्तव्यपदके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात है। इसी प्रकार तिर्यालयों में जानना चाहिए। किन्तु इतनी Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१] उत्तरपटिउदीरणाए भुजगारपरूपणा भाग। श्रदेसेण रइय० श्रोधं । णवरि अवत० णत्थि । एवं सव्वरइय०तिरिक्त मणुमयपज्ज० देवा भवणादि जाव वराजिदा चि । मरणसेसु भुज०० श्रवच० सव्वजी केवडि० १ श्रसंखे० भागो । अडि० असंखजा भागा । णवरि संखेखं कायव्वं । एवं चैव सव्वट्टे । णवरि ० माणुसपअ० मरणुसिणी० अ० उदीर० णत्थि । एवं जाव० । ६५ २१०. परिमाणा० दुविहो णि० - श्रोधे० आदेसे० । श्रोषेण भुज० अप्प०(वडि० उदीर० केत्तिया ? अगंता । अवत्त० केत्ति ० १ संखेखा । एवं तिरिक्खेसु । निरिवत्त ० णत्थि । आदेसेण रइय० भुज० अप्प० अवडि०उदी १२० केत्ति ० १ असंखेजा । एवं सव्वणेरइय० - सच्चपचिदिय तिरिक्ख- मणुस श्रपत्र ० देवा भवरयादि से भुज गिरी असा । अवस० के० १ संखेज्जा । मरणुसपज्ज० - मधुसिणी -सव्वदेवेषु सव्वपदा संखेज्जा | एवं जाव ० | हाति ० .० : २११. खेना० दुविहो णि० - श्रघेण आदेसेण य । श्रघेण भुज० अप्प ०विशेषता है कि इनमें वक्तव्यपदके उदीरक जीव नहीं हैं। आदेश से नारकियो में भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । इसी प्रकार सब नारकी, सब पचेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासियों से लेकर अपराजित तक के देवों में जानना चाहिए । मनुष्यों में भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदके उदीरक जीव किसने है ? असंख्यात हैं । श्रवप्त व्यपदके उदीरक जीव जितने हैं ? संख्यात हैं। मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और सर्वार्थसिद्धि के देवोंमें सब पदके उदीरक जीव संख्यात हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । ६ २१०. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-- श्रोध और प्रदेश | प्रोसे सुगार, श्रल्पतर और अवस्थितपक्के दोरक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सर्व लोक क्षेत्र है । अवक्तव्यपदके उदीरक जीवोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है । इसी प्रकार तिर्यञ्चों में जानना चाहिए | किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्यपदके उदरिक जीव नहीं हैं। शेष मार्गणाओं में सब पदोंके उदीरक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । - विशेषार्थ - भुजगार आदि तीन पद एकेन्द्रिय आदि जीवोंमें भी होते हैं और उनका क्षेत्र सर्व लोक है, इसलिए यहाँ पर ओघसे इन तीन पदोंके उदीरक जीवोंका क्षेत्र सर्व लोक कहा है । परन्तु वक्तव्य पद उपशमश्रेणिसे गिरते समय ही होता है और ऐसे जीवोंका क्षेत्र लोक के श्रसंख्यातवें भागमभाग है, इसलिए ओघ से अवक्तव्य पदके उदीरक जीवोंका क्षेत्र लोक के असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। यह व्यवस्था सामान्य तिर्यश्चों में बन जाती है, इसलिए सम्भव पदका भंग ओके समान जानने की सूचना की है। मात्र तिर्यों में उपशमश्रेमिकी प्राप्ति सम्भव नहीं है, इसलिए इनमें अवक्तव्यपद सम्भव न होनेसे उसका निषेध किया है। गतिमा के शेष भेदोंका क्षेत्र ही लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इनमें सम्भव सब पदोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। २१. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-प्रोध और आदेश । श्रघसे भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदके उदीरक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन क्रिया है ? सर्व Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवला सहिदे कसाय पाहुडे ६ [ वेदगो ७ ६ अबडि - केवडि खेते ? सन्चलोगे । श्रवत्त० उदीर० लोग० श्रसंखे० भागे । एवं तिरिक्ता० । सुवरि अवत्त० गत्थि । सेसगद्मग्गण सञ्चपदा० लोग० असंखे ० भागे । एवं जात्र० । :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज 0-5 Q * २१२. पोसणा० दुविहो णिः- योषेण श्राद्रेसे ओषेण भुज अ० अडि० के० पोसिदं ? सव्वलोगो । अवत० के० पोसिदं १ लोग० असंखे - भागो । एवं तिरिक्खा | वारे अवत्त० रात्थि । आदर्श रइये.. पदेहिं लोग असंखे० भागो छ चोदस० देखणा । एवं विदियादि सत्तमा ति । वरि सगपोमणं । पढाए खेतं सव्वपंचिदियतिरिक्ख माणूस अश्अ० भज - अप्प० - श्रवट्टि० लोग० असंखे० भागो सबलोगो वा । एवं मसतिए । वरि अवतः लोग० असंखे० भागो। देवेसु सच्चपद० लोग० असंखे ० भागो अड्ड यचोदस० । मत्रणादि जाव सव्वा च सव्यपदारणं सगपोसणं कायन्त्रं । एवं जाय० । | लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। वक्तव्य पदके उदीरक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका सर्शन किया है । इसीप्रकार तिचीमें जानना चाहिए | किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अवकपद नहीं है। श्रादेशसे नारकियोंमें सत्र पत्रों के उदीरक जीवाने लोके असंख्यात भागप्रमाण और जलनालीके चौदह भागों में से कुल कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसीप्रकार दूसरी पृथिवीसे लेकर बटी पृथिवी तक के नारकियोंमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अपना स्पर्शन कहना चाहिए। पहली पृथिवी में क्षेत्र के समान भंग है। सब पचेन्द्रिय तिर्यख और मनुष्य अपर्याप्तकों में भुजगार, अल्प और अवस्थितपदके उदरक जीवोंने लोकके असंख्यानवें भागप्रमाण र सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसीप्रकार मनुष्यत्रिक में जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें वक्तव्यपदके उदीरक जीवोंने लोकके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवोंमें सब पके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और मनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ और नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। भवनवासियों से लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवरोंमें अपना अपना स्पर्शन करना चाहिए । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । " विशेषार्थ - श्रघसे और श्रादेशसे गतिमार्गलाके सब भेदोंमें जहाँ जो स्पर्शन है वह वहाँ भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदके उदीरकोंका होता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । मात्र अवक्तव्यपदके उदीरकोंका स्पर्शन लोक के असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है । कारणका निर्देश हम पूर्व में कर आये हैं, इसलिए श्रोघसे और मनुष्यत्रिक में इस पद के उदीरकों का स्पर्शन लोकके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। 1 ६ २१२. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— श्रोध और श्रादेश । श्रघसे भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदके उदीरक जीवों का कितना काल है ? सर्वदा है | अवश्य पदके उदीरक जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । इसीप्रकार तिर्यनोंमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्यपद नहीं है | Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा०६२] उत्तरपयडिजदीरणाए भुजगारपरूषणा - कालाणुगमेण दुविहो णि० -ओघेण आदेसे० । मोघेण भुज-अप्प०अबहिः केचिरं ? सम्बद्धा । अवत० जह, एगसमो, उक्क० संखेजा समया । एवं तिरिक्सावरि अमन विहासागर जी महाराज २१४. आदेसेख ऐरइय० भुज-अप्प० जह• एपस०, उक्क० श्रावलि असंखे भागों । अबढि सम्बद्धा । एवं सन्धणेरहय० सयपंचिंदियतिरिक्ख-देवा भवणादि जाव अवराजिदा ति । २१५ मणुसेसु णारयभंगो । णवरि अयत्त० ओघं । मांसपज०-मणुसिणी० भुज-अप्प अवच० जह० एयस० उक्क० संखेजा समया। अवढि मुबद्धा । एवं सबढे । णरि अवत्त० णस्थि । मणुसअपज भुज-अप्प० जह० एस०, उक्क० आवलि. असंखे भागो । अवट्टि जह० एगस०, उक्क ० पलिदो० असंखे० more ---------------nareneuruna... विशेषार्थ- अबक्तव्यपदकी उदीरणा उपशमश्रेणिसे उतरते समय ही होती है। और उपशमश्रेणि पर आरोहणका काल कमसे कम एक समय और लगातार संख्यात समय है, इसलिए अवक्तव्यपदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। २१४. प्रादेशसे नारकियोंमें भुजगार और अल्पतर पदके उदीरक जीवों का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितपदके दीरक जीवोंका काल सर्वदा है। इसीप्रकार सम्म नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवों में जानना चाहिए। विशेषार्थ- पहले नारकियों में एक जीवकी अपेक्षा भुजगारपदके चुदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल चार समय तथा अल्पतरपदके उदीरकाका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय बतला पाये हैं। इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर यहाँ पर नाना जीवों की अपेक्षा भुजगार और अल्पतरपदके उदीरकोंका जयन्य काल एक समय और उत्कृष्ट फाल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है, क्योंकि अनेक नारकी जीव भी उक्त दोनों पद एक समय तक करके दूसरे समयमें न करें यह भी सम्भव है, 'पीर नारकियोंकी संख्या असंख्यात होनेसे लगातार असंख्यात जीव भी क्रमसे यदि उक्त दोनों पद करें तो भी सब कालका योग श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है। पहले एक जीवकी अपेक्षा अवस्थित पदके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त बसला आये हैं, इसलिए यहाँ पर नाना जीवोंकी अपेक्षा इस पदके उदीरकोका सब काल बन जानेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। २१५. मनुष्योंमें नारकियों के समान भङ्ग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि श्रवक्तव्य पदके उदीरकोंका भंग श्रोधके समान है। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में मुजगार, भल्पतर और श्रवक्तव्यपदके उदीरकों का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अवस्थितपदके उदीरकोंका काल सर्वदा है। इसीप्रकार सर्वार्थसिद्धिमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्यपद नहीं है। मनुष्य अपर्याप्तकों में भुजगार और अल्पतरपदके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितपदके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे &८ भागो । एला । ० $ २१६. अंतरा० दुविहो णि० - श्रघे० दे० । श्रघेण भुज० - अप०अब गत्थि अंतरं । श्रवत्त० जह० एयसमत्रो, उक्क० वासपुधरां । एवं तिरिक्वेसु | णवरि अवतः खत्थि । आदेसेण खेरइय० भुज० - अप्प० जह० एयस ० उक० अंतोमु० । श्रवट्टि ० पत्थि अंतरं । एवं सव्वणेरइय-सञ्चपंचिंदियतिरिक्खसव्वदेवाति । मणुसतिए खारयभंगो । णवरि अवत्तः श्रधं । मणुस अपज० भुज०अप्प ०० अहि० जह० एयस०, उक्क० पलिदो० असंखे ० भागो । एवं जाव० । मार्गदर्शक - सप्लार्य माधोदी मावी । एवमेदे सिमुच्चारणावलेण परूवणं काढूण संपहि अप्पाचहुअपरूवणद्वमुत्तरं पबंधमोदारइस्लामो [ वेदगो ७ **** असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गेणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ - मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंकी संख्या संख्यात है, इसलिए इनमें भुजगाः, अल्पतर और श्रवव्यपदके उदीरकोंका अन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है । मनुष्य अपर्याप्त यह सान्तर मार्गणा है और इनकी संख्या असंख्यात है, इसलिए इनमें भुजगार और अल्पतर पदके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा अवस्थित पदके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्य के असंख्यात भागप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। ०२१६. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- श्रोध और आदेश | ओघसे भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है। उदीरकोंका जधन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व प्रमाण है । इसीप्रकार सामान्य तिर्यक्वोंमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्यपद नहीं है । आदेश से नारकियों में भुजगार और अल्पतरपदके उदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदके उद्दीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । इसीप्रकार सब नारकी, सब पचेन्द्रिय तिर्यञ्च और सब देवों में जानना चाहिए। मनुष्यत्रिक में नारकियों के समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अवयपदके उदीरकों का भंग श्रषके समान है । मनुष्य अपर्यातकों में भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पड़के उदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ - प्ररूपणा में और मनुष्यत्रिक में अवक्तव्यपदके उदीरकों का जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर उपशामकोंके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरको ध्यान में रखकर कहा है । सब नारकी, सब पचेन्द्रिय तिर्यच और सब देवोंमें सुजगार और अल्पतरपद कमसे कम एक समय के अन्तरसे और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्तके अनरसे नियमसे होते हैं। इससे इनमें इन उदीरा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। मनुष्य पर्याप्त यह सान्तर मार्गणा है। इसका जघन्य अन्सर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है । इसीसे इसमें सम पदोंके उदीरकोंका जघन्य श्रन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है । १ २१७, भाव सर्वत्र भौदधिक है। इसप्रकार इनका उच्चारणाके बलसे कथन करके अब : Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२] उत्तरपयदिउदीरणार भुजगारपरूपणां अप्पाबहुलं । । २१८. सुगममेदमहियारपरामरसवक्कं । 8 सव्वस्थोवा अवसव्वपचेसगा। २१९. कि कारगं ? उबसमसेढीए सव्योवसमं कादूग परिवदमाणजीवेसु चेव तदुवलंभादो । 9 भुजगारपवेसगा अपंतगुणा । : २२०. किं कारणं ? दुसमयसंचिदेइंदियजीवाणमेत्थ पहाणभावेणावलंबणादो । अप्पवरपवेसगा विसेसाहिया । मार्गदर्शवर१. स्मच्यारणो? सुमितंगपचियमनामावसम्माइटवीणं समत्तं पडिबजमाणमिच्छाइट्टीणं च जहाकम भुजगारप्पदरपरिणदाणं सस्थाणमिच्छाइट्ठीणं च सन्यस्थ मुजगारप्पदरपवेसगाणं समाणत्त संते वि सम्मत्तमुप्पाएमारणाणादियमिच्छाइट्ठीहि सह दसण चाग्निमोहक्खवयजीवाणं भुजगारेण विणा अप्पदरमेव कुणमाणाणमेस्थाहियत्रदंसणादो। अबढिवपवेसगा असंखेनगुणा। 5 २२२. किं कारणं १ अंतोमुहुत्तसंचिदेइंदियरासिस्स पहाणत्तादो । एवमोधो समत्तो। अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए भागेका प्रबन्ध लिखते हैं * अल्पबहुत्वका अधिकार है। 5२५८. अधिकारका परामर्श करानेवाला यह वचन सुगम है। * अवक्तव्यप्रवेशक जीव सबसे स्तोक हैं। २५६. क्योंकि उपशमश्रेणिमें सर्वोपशम करके गिरनेवाले जीवोंमें ही यह पद पाया जाता है। * उनसे भुजगारप्रवेशक जीव अनन्तगुणे हैं । ६२२०. क्योंकि दो समयके भीतर सश्चित हुष एकेन्द्रिय जीवोंका यहाँ पर प्रधानभावसे अबलम्बन लिया है। * उनसे अल्पतरप्रवेशक जीव विशेष अधिक है। ६२२१ क्योंकि क्रमसे भुजगार और अल्पतरपदसे परिणत हुए मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले सम्यग्दृष्टि और सम्यक्वको प्राप्त होनेवाले मिथ्यादृष्टि तथा भुजगार और अल्पतरपदमें प्रवेश करनेवाले स्वस्थान मिश्याइष्टि जीव यद्यपि सर्वत्र समान है तो भी सम्यम्बको उत्पन्न करनेवाले अनादि मिथ्यादृष्टि जीवों के साथ भुजगारके बिना केवल अल्पतरपदको ही प्राप्त ऐसे दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनिय कर्मकी क्षपणा करनेवाले जीवोंकी यहाँ पर अधिकता देखी जाती है। * उनसे अवस्थितप्रवेशक जीव असंख्यातगुणे हैं। ६ २२२. क्योंकि अन्तर्मुहूर्तके भीतर सञ्चित हुई एकेन्द्रिय जीवराशिकी प्रधानता है। इस प्रकार ओघप्ररूपणा समाप्त हुई। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० अयधवलासहिले कसायपाहुडे [वेदगो ७ २२३. आंदेसेण शेरहय० सम्वत्थोवा भुज प० । अप्प. विसेसा० । अवहि० असंखे० गुणा । एवं सवणेरइय-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खतिय-देवा भवणादि जाव अवराजिदा ति । पंचिंतिरिक्खअपज्ज० सम्वत्थोवा मुज०-अप्प.. पवे० । अवडि० असंखेज्जगुणा । मणुसेसु सब्बत्थोवा अवत्त० उदीर० । भुज० असंखे०गुणा । अप्प० विसेसा० | अबढि० असंखे०गुणा । एवं मणुसपज्ज.. मणुमिणी० । एवरि संखेज्जगुणा कायया । एवं सबढे । परि अवत्त० उदीर० णस्थि । एवं जाव! एवं भुजगारो समत्तो। ॐ पदणिक्खेष-वडीनी कादवानी । $ २२४, एदेण सुत्तेण समप्पियाएं पदणिवेव-वड्ढीणमुच्चारणावलंबणेण परूवणं कस्सामो। तं जहा-पदणिक्वे ति तत्थ इमाणि तिष्णि अणिोगद्दाराणि-समुकित्तरगा सामित्तमप्पाचहुए त्ति । समुकित्तणा दुविहा-जहाणा उक्कस्सा च । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि०–ोधे० प्रादेसे० । ओघेण अस्थि उक्क० बड्डी उक्क पहाणा उक्क अबापट्टा सहिषयदुःसु नदीमा एवं जावः । एवं जहण्णयं पि णेदव्वं । ६२.३ आदेशमें नारकियोंमें भुजगारप्रवेशक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अल्पतर• प्रवेशक जीव विशेष अधिक हैं। उनसे अवस्थितप्रवेशक जीव असंख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार । सब नारकी, सामान्य तिर्यश्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिक, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर .. अपराजित तकके देवोंमें जानना चाहिए। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त जीवोंमें भुजगार और अल्पतरप्रवेशक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थितप्रवेशक जीव असंख्यातगुणे हैं। मनुष्यों में प्रवक्तव्यउदीरफ जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे भुजगार उदीरक जीष असंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतरउदीरक जीव विशेष अधिक हैं। उनसे अवस्थितउदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणेके स्थानमें संख्यातगुणे करने चाहिए । इसीप्रकार सर्वार्थसिद्धिमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्यउदीरक जीव नहीं हैं। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । इसप्रकार भुजगार समाप्त हुआ। * पदनिक्षेप और धृद्धि करनी चाहिए । २२४. इस सूत्रके आश्रयसे मुख्यताको प्राप्त हुए पवनिक्षेप और बुद्धिका उच्चारणाके अवलम्बन द्वारा प्ररूपण करते हैं । यथा-पदनिक्षेपका प्रकरण हैं। उसमें ये तीन अनुयोगद्वार हैं—समुस्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । समुत्कीर्तना दो प्रकारकी है-जधन्य और उत्कष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-प्रोध और आदेश | ओघसे उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान है। इसीप्रकार धारी गतियों में जानना चाहिए। तथा इसीप्रकार अनाहारक मार्गरण तक जानना चाहिए । इसीप्रकार जघन्य भी ले जाना चाहिए। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ गा० ६२] उत्तरपयलिउदोरणाए पणिक्खवपरूपणा २२५. मालिशंहिचान उकस्से पुयद दुविहो णि०--ओषे० आदेसे० । ओघेण उक्क० वेड्डी कस्स ? अण्णदरस्स जो एगमुदीरेमाणो मदो देवो जादो तदो अट्ठ उदीरेदि तस्स उक्क० चड्डी। तस्सेव से काले उकस्समवट्ठाणं । उक्क. हाणी कस्स ? अण्णद० जो णव उदीरेमाणो संजमं पडिवण्णो तदो चत्तारि उदीरेदि तस्स उक्कस्सिया हाणी । २२६. आदेसेण णेरड्य० उक्क० बड्डी कस्स ? अएणद० छ उदीरेमाणो जो दस उदीरेदि तस्स उक्क० वड्डी। तस्सेव से काले उकय अवट्ठाणं । उक्क. हाणी कस्स ? अण्णद. जो णय उदीरेमाणो छ उदीरेदि तस्स उक० हाणी । एवं सब्वणेरड्य-देवा० जाव. णवगेवजा ति । तिरिक्ख-पंचितिरिक्खतिए उक० बड़ी कस्स ? एणद. जो पंच उदीरेमारगो दस उदीरेदि तस्स उक्क. उड्डी । तस्सेव से काले उकस्समवहाणं । उक्क हाणी कस्स ? अण्णद० णव उदीरे० पंच उदीरेदि तस्स उक्क० हाणी । पंचिदियतिरिक्खअपज्ज-मणुसअपञ्ज. उक्क० चड्डी कस्स ? अण्णद० अट्ट उदीरे० दस उदीरेदि तस्स उक्कस्सिया चड्डी । उक्त ० हाणी कस्स ? अण्णद. दस उदीरे० अट्ट उदीरेदि तस्स उक० हाणी । एगदरस्थ अबढाणं । २२७. मणुसतिए उक्क० बढी कस्स ? अण्णद० जो चत्तारि उदीरे० दस ६२२५ स्वामिन दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है- और अादेश । ओघसे उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? एक प्रकृतिकी उदीरणा करनेवाला जा अन्यतर जीव मरकर देव हुआ और आठ प्रकृतियोंकी उदीरणा करने लगा उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है । उसीके तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। उत्कष्ट हानि किसके होती है ? नौ प्रकृत्तियोंकी उदीरणा करनेवाला जो अन्यतर जीय संयमको प्राप्त हो चार प्रकृनियोंकी उदीरणा करता है उसके उत्कृष्ट हानि होती है। २२६. श्रादेशसे नारकियों में उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है । छहकी उदीरणा करनेवाला जो अन्यतर जीव दमकी उदीरणा करता है उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उसीके तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? नौकी उदीरणा करनेवाला जो अन्यतर जीव छहकी उदीरणा करता है उसके उत्कृष्ट हानि होती है। इसीप्रकार सब नारकी, सामान्य देव और नौ वेयक तकके देवों में जानना चाहिए । सामान्य सिर्यश्च और पन्नेन्द्रिय तिर्यत्रिकमें उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? पाँचकी उदीरणा करनेवाला जो अन्यतर जीव दसकी उदारणा करता है उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उसीके तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? नौकी उदीरणा करनेवाला जो अन्यतर जीव पाँचकी उदीरणा करता है उसके उत्कृष्ट हानि होती है। पञ्नेन्द्रिय निर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त जीवों में उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? अाठकी उदीरणा करनेवाला जी अन्यतर जीव दसकी उदीरणा करता है उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? दसकी उदीरणा करनेवाला जो अभ्यतर जीव आठकी उदीरणा करता है उसके उत्कृष्ट हानि होती है। किसी एक जगह उत्कृष्ट अवस्थान होता है। १२२७. मनुष्यत्रिकमें उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? चारकी उदीरणा करनेवाला जो Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे वेदगो ७ उदीरेदि तस्स उक्क० बड्डी । तस्सेव से काले उक्क० अवठ्ठाणं । उक्क० हाणी कस्स ? अण्णद० णव उदीरे० चत्तारि उदीरेदि तस्स उक्क ० हाणी । अणुदिसादि सम्बट्ठा त्ति उक्क० अड्डी कस्स ? अण्णद० जो छ उदीरे णव उदीरेदि तस्स उक्क० वड्डी । उक्क० हाणी कस्स ? अण्णद० णव उदीरे० छ उदीरेदि तस्स उक्क० हाणी। एगदरस्थमवट्ठाणं । एवं जाव। २२८. जहणणे मयदं । दृविहो णि० -- ओघे० आदेसे० । ओघेण जह० बड्डी कस्स ? अण्णद० णव उदीरे० दस उदीरेदि तस्स जह० वडी | जहः हाणी कस्स ? अण्णद० दस उदीरे० रणव उदीरेदि तस्स जह० हाणी । एगदरस्थ अवट्ठाणं | एवं चदुसु गदीसु | णरि अणुदिसादि सबट्ठा त्ति जह० वड्डी कस्स ? अण्णद० अट्ठ उदीरे० गाव उदीरेदि तस्स जह० वटी । जह० हाणी कस्स ? अण्णद० रणव उदीरे. अट्ठ उदीरेदि तस्स जह० हाणी | एगदरस्थ अवठ्ठाणं । एवं जाव० । २२९. अप्पाबहुअाहि-जहाचाकी किस्स पयद । विहाँ णि०श्रोषे० आदेसे० । ओघेण सन्मत्थोवा उक० हाणी । चड्डी अवठ्ठाणं च दो त्रि सरिसाणि विसेसा० । एवं चदुसु गदीसु । शवरि पंचिंतिरिक्षअपञ्ज०-मणुसअपज०अन्यतर जीव दसकी उदारणा करता है उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उसीके तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? नौकी उदीरणा करनेवाला जो अन्यतर जीव चा उदीरणा करता है उसके उत्कृष्ट हानि होती है। अनुदिशसे लेकर । सर्वार्थसिद्धि तक्रके२ . उत्कृष्ट वृशि किसके होती है ! छहकी उदीरणा करनेवाला जो .. अन्यतर जीव नौकी उदीरणा करता है उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उत्कृष्ट हानि किसके होती है १ नौकी उदारणा करनेवाला जो अन्यतर जीव छहकी उदीरणा करता है उसके उत्कृष्ट हानि होती है। किसी एक जगह उत्कृष्ट अवस्थान होता है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गरणातक जानना चाहिए । २२८. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है--ओघ और आदेश । श्रोधसे जघन्य वृद्धि किसके होती है ? नौकी उदीरणा करनेवाला जो अन्यत्तर जीव दसकी उदीरणा करता है, उसके जघन्य वृद्धि होती है। जघन्य हानि किसके होती है ? दसकी उदीरणा करनेवाला जो अन्यतर जीव नौकी उदारणा करता है, उसके जघन्य हानि होती है। किसी एक जगह जघन्य अवस्थान होता है। इसीप्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जघन्य वृद्धि किसके होती है ? आठकी उदीरणा करनेवाला जो अन्यतर जीव नौकी उदीरणा करता है उसके जघन्य वृद्धि होती है। जघन्य हानि किसके होती है ? नौकी उदीरणा करनेवाला जो अन्यतर जीव पाठकी उदीरणा करता है, उसके जघन्य हानि होती है। किसी एक जगह जघन्य अवस्थान होता है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातफ जानना चाहिए। ६२२६. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्ट का प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। श्रोघसे उत्कृष्ट हानि सबसे स्तोक है। उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान दोनों समान होकर विशेष अधिक है। इसीप्रकार चारों गतियों में जानना Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -- ___ गा०६२] उत्तरपयडिउदीरणाए बड्डिपरूवणा अणुहिसादि सचट्ठा ति उक्क० चड्डी हाणी अबढाणं च तिष्णि वि सरिमाणि । एवं जावः। २३०. जह० पयदं । दुविहो णि०-प्रोघे० प्रादेसे० । ओघेरण जह० वड्डी हाणी अवद्वाणं च तिगिण वि सरिसाणि । एवं चदुसु गदीसु । एवं जावः । एवं पदणिक्खेवो समचो । १२३१, वहिउदीरणाए तत्थ इमाणि तेरस अणियोगदाराणि--समुकित्तणा जाव अध्याबहुग त्ति | समुक्त्तिणाणु० दुचिहो णि० - ओधे० श्रादेसे० । ओघेण अस्थि संखेअभागवड्डी हाणी संखेजगुणवड्डी हाणी अवष्टि० अवत्त । एवं , मणुसदिए । प्रादेसेण रहय० अस्थि संखेजभागवड्डि-हाणि-अत्रट्ठा० । एयं सचणेरड्य०पंचितिरि अपज भणुसअपज० मध्यदेवा ति । तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खतियम्मि अस्थि संखे०भागवड्डी-हाणी संखे गुणबढी हाणी अबढाणे । एवं जाब । २३२. सामिर्माणुछ दुविहीनी श्रीवासप्रदिर्स फाशोघेण संखे०भागवष्टी हाणी संखे०गुणवड्डी अवट्ठा० कस्स ? अण्णद० सम्माह० मिच्छाइ० । संखे०. गुणहाणी कस्स ? अण्णद० सम्माइ० । अवरा० भुजगारभंगो । एवं मणुसतिए । चाहिए | किन्तु इतनी विशेषता है कि पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और अनुदिशसे लेकर सार्थसिद्रितकके देवोंमें उत्कृष्ट वृद्धि, हामि और अवस्थान तीनों ही समान है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गरणा तक जानना चाहिए। ६२३०. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश । घिसे जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान तीनों ही समान हैं। इसीप्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए । तथा इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । इसप्रकार पदनिक्षेप समाप्त हुआ। F२३१. बृद्धि उद्दीरणाका प्रकरण है। उसमें समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक ये तेरह अनुयोगद्वार हैं। समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है—ोष और श्रादेश। भोधसे संख्यातभागवृद्धि, संख्यातमागहानि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणहानि, अवस्थित और अवक्तव्य उदीरणा है। इसीप्रकार मनुष्यत्रिक में जानना चाहिए। प्रादेशसे नारकियों में संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि और अवस्थित उदीरणा है। इसीप्रकार सत्र मारकी, पवेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त, मनुध्य अपर्याप्त और सम देवों में जानना चाहिए। सामान्य तिर्यन्च और पझेन्द्रिय तिर्यचत्रिकमें संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणवृद्धि और अवस्थान है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। २३२ स्वामित्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओष और आदेश । ओघसे संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि,, संख्यातगुणवृद्धि और अवस्थान किसके होते है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि और मिथ्याष्टिके होते हैं । संख्यातगुणहानि किसके होती है ! अन्यतर सम्यग्दृष्टिके होती है। प्रवक्तव्य उदीरणाका भंग भुजगारके समान है। इसी प्रकार मनुष्य १ आ. प्रतो गुणचड्ढी हाणी प्रयट्ठाण० इति पाठः । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जयधचला सहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ सव्वणिरय ० - पंचिंदियति रिक्खा प० - मसापच ० सव्वदेवा त्ति भुजगारभंगो । तिरि० पंचि०तिरिक्खतिए भुजगारमंगो । वरि संखेजगुणवडी कस्य ? श्रएणद० मिच्छाइडि० । एवं जाब ० | Q1 उक्क० १२३३. काला० दुविहो खि -ओषेण श्रादेसे० । श्रघेण संखे० भागवडी जह० एस० । उक्क० चत्तारि समया । संखे० भागहाणी जह० एयम, तिरिण समया । अचडि० जह० एयस०, उक्क० एयस०, उक्क० वे समया । संखे० गुणहाणि अवत० मसतिए | वारे संख० गुणवडि० जहरपु० एयस० अपज्ज० - मरणुस अपज्ज० सव्वदेव त्ति भुजगारभंगो । भुजगारभंगो | वरि संखे० गुणवडि० जह० एयसम Q तो० | संखे० गुणवडी जह० जहरणुक० एयसमश्र । एवं सन्नोरइय० – पंचितिरि०तिरिक्ख पंचि०तिरिक्खतिए । एवं जाव० । । त्रिक में जानना चाहिए। सब नारकी, पब्वेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और सब देवोंमें भुजगार के समान भंग है। सामान्य तिर्यञ्च और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक में सुजगार के मग है अव सुनिशित गुणवृद्धि किसके होती है ? अन्यतर मिध्यादृष्टि होती है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गातक जानना चाहिए । ३२३३. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है – ओघ और आदेश | ओघसे संख्यादभागवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है। संख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन समय है । अवस्थित उदीरणा का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । संख्यातगुणहानि और अवक्तव्य उदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । इसीप्रकार मनुष्यत्रिक में जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । सब नारकी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त मनुष्य अपर्याप्त और सब देवोंमें भुजगार के समान भंग है । सामान्य तिर्यक्च और पवेद्रिय तिर्यचत्रिक में भुजगारके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यात्तगुणवृद्धिका जयन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेपार्थ- पहले भुजगारानुगममें भुजगार उदीरणाका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल चार समय, श्रयतर उदीरणाका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय तथा अवस्थितपदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त घटित करके बतला आये हैं। वहीं यहाँपर क्रमसे संख्यात्त भागवृद्धि, संख्यात भागहानि और अवस्थित उदीरणा का जघन्य और उत्कृष्ट काल जान लेना चाहिए। जो उपशामक उतरते समय श्रन्यतम संज्वलन की उदीरणा करता हुआ भर कर देव होने पर आठकी उदीरणा करने लगता है उसके संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है और जो उपशामक उतरते समय अन्यतम संज्वलनकी उदीरणा करता हुआ अन्यतम वेदके साथ दोकी उदीरणा करता है और तदनन्तर समय में मरकर देव होनेपर श्राठकी उदीरणा करने लगता है उसके संख्यात गुणवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय प्राप्त होता है। यही कारण है कि यहाँ पर संख्यात गुणवृद्धिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा है। जो मिध्यादृष्टि जीव नौ की Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ गा. ६२] उत्तरपयडितदीरणाए. वडिपरूषणा २३४. अंतराणु० दुविहो णिसो-ओघेण आदेसे० । प्रोपेण संखे०भागरवि-हाणि-अवट्ठि-अवन. उदीर० भुजगारभंगो । संखेजगुणवडि-हाणी० जह. एग• अंतो०, उक्क० उवढपोग्गल । सधणेर-पंचि निरिक्खअप०-मणुसअप०सन्चदेवा ति भुजगारभंगो। तिरिक्ख-पंचितिरिकातिए भुज भंगो। णवरि तिरिक्खेसु संखेजगुणवडि० जह० पलिदो० असंखे० भागो, उक. उबड्डपोग्गलपरियढें । पंचिंदियतिरिक्खतिए संखेनगुणवड्डी० रणस्थि अंतरं । मणुसतिए भुज मंगो। णवरि संखेगरणवडि-हाणि-अवत्त० जह० अंतोमु०, उक ? पुचकोडिपुवनं । एवं जाव० । उदीषणा करता हुआ अनन्त' समयमें संयत होकर चारकी उदीरणा करने लगता है उसके संख्यातगुणहानिका काल एक समय प्राप्त होनेसे यहाँ इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। जो किसी भी प्रकृतिको उदीरा नहीं करनेवाला उपशान्तमोह जीव गिर कर पसर्वे गुणस्थानमें एककी उदीरणा करने लगता है, उसके अवतन्य उदोरणाका काल एक समय मात्र प्राप्त होनेसे इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। मनुष्यत्रिकमें यह ओघ. प्ररूपणा बन जाती है, इसलिए उनमें अोधके समान जाननेकी सूचना की है । मात्र संख्यातगुण वृद्धि उदीरणाका उत्कृष्ट काल अोधप्ररूपणामें दो गतियांकी अपेक्षा घटिन करके बनलाया गया है जो मनुष्यात्रिको सम्भव नहीं है, इसलिए इनमें उक्त पदका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। पञ्चेन्द्रिय विर्यचत्रिकमें पांचकी उदारणा करनेवाला जो संयतासंयत जीव मिथ्यात्वम जीकर देसका उदारणा करनालगताई पासमान संख्यातगुणवृद्धिका काल मात्र एक समय प्राप्त होनेसे यहां पर इन तीनों प्रकारके तिर्यञ्चोंमें इस पदका जयन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। शेष कथन भुजगार उदीरणाके समान होनेसे उसे दृष्टिपथमें लाकर यहां घटित कर लेना चाहिए । पुनरुक्तः दोषके भयसे यहां पर हमने उसका अलगसे निर्देश नहीं किया है। २३४. अन्तगनुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । श्रोघसे संख्यातभागबुद्धि, संख्यातभागहानि, अवस्थित और अवक्तव्य उदीरणाका भंग भुजगारउदीरणा के समान है। संख्यानगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर क्रमसे एक समय और अन्तर्मुहूर्त है तथा दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर उपार्थ पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। सब नारकी, पछेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और सब देवोंमें भुजगारउदीरणाके समान भंग है। सामान्य तियश्च और पवेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें भुजगारदीरणाके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सामान्य तिर्यञ्चोंमें संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यात भागप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर सपा पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकमें संख्यातगुणवृद्धिका अन्तरकाल नहीं है । मनुष्यत्रिकों भुजगारउदीरणाके समान भंग है। किन्तु इतनी विशषता है कि संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुण हानि और श्रवक्तव्य उदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहते है और उत्कृष्ट अन्तर पूजे-कोटिपृथक्त्वप्रमाण है। इसीप्रकार अनाहारक यार्गणातक जानना चाहिए। विशेषार्थ-जो उपशान्तमोह जीव गिरते समय एककी उदीरणा करता हुआ अनन्तर समयमें दोकी उदीरणा एक समयके अन्तरसे मरकर देवोमें उत्पन्न हो पाठकी उदीरणा करने लगता है उसके संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय बन जाता है। तथा जो मिथ्या Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ बेहगो ७ ६२३५. पायाजीवेदि भंगविचया० दुविहो गिद्देसो-- ओवेण आदेसेण य । श्रघेण संखे० भागवड्डि-हारिण-अवडि० लिय० अस्थि, सेसपदाणि भयणिखाणि । भंगा २७ । आदेसेण णेरइय० अवट्टि० निय० श्रत्थि, सेसपदा भयरिणा । भंगा ९ । एवं सब्बणेरइय० सब्जपंचिंदियतिरिक्ख मरणसतिय सव्वदेवाति । वरि भंगविसेसो जाणियच्च । तिरिक्खेसु संखे० भागवड्डी हासी अवडि० यि० अस्थि, सिया एदे च संखे० गुणवडिउदीरगो च, सिया एदे च संखेजगुरव डिउदीरगा च ३ । मपुस - मार्गदर्शक १०६ आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज 'जयधवलासाहि कसायपाहुडे दृष्टि जीव नौकी उदीरणा करता हुआ संयत हो चारकी उदीरणा करके संख्यातगुणहानि करता है। पुनः वह अन्तर्मुहूर्त बाद मिध्यात्वमें जाकर और अन्तर्मुहूर्त के भीतर संयत हो नौकी उदीरणा के बाद चारकी उदीरणा करने लगता है उसके संख्यातगुगृहानिका जधन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त बन जाता है। यही कारण है कि यहाँ पर से संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय और संख्यात गुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। संख्यातगुणहानिका यह जघन्य अन्तर दो घार उपशमश्र पर चढ़ाने से भी प्राप्त किया जा सकता है। यथा कोई उपशामक अपूर्वकरण जीव चारकी उदीरणा करता हुआ अनिवृत्तिकरण हो दोकी उदीरणा द्वारा संख्यातगुणहानि करता है । पुनः वह अन्तर्मुहूर्त के भीतर संवेदभाग में दोकी उदीरणा करता हुआ अवेदभाग में नपुंसकयेदकी उदयव्युच्छित्तिकर एककी उदीरणा द्वारा संख्यातगुणहानि करता है उसके संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। पूर्व में दिये गये उदाहरणकी अपेक्षा इस दूसरे प्रकार में अन्तर कालका समय कम है, इसलिए यहाँ इसकी प्रधानता है । पिछला उदाहरण केवल अन्तरका प्रकार बतलाने के लिए दिया है। इन दोनों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर उपार्ध पुदल परिवर्तन प्रमाण है यह स्पष्ट ही है। सामान्य तिर्यखों में पाँचकी उदीरणा करनेवाला जो जीव दसकी उदीरणा करता है वह उपशमसम्यग्दृष्टि संयतासंयतले च्युत होकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ जीव ही हो सकता है। और ऐसे जीवकी यह अवस्था पुनः कमसे कम पल्पका असंख्यातवाँ भाग काल जाने पर और अधिकसे अधिक उपार्श्वपुल परिवर्तन प्रमाण काल जानेपर ही प्राप्त हो सकती है, इसलिए यहाँ पर उक्त जीवों में संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर उपाध पुल परिवर्तनप्रमाण बतलाया है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यत्रिकी कर्मभूमिकी अपेक्षा उत्कृष्ट कायस्थति पूर्व कोटिपू वस्त्रप्रमाण ही है, अतः इनमें दो बार संख्यातगुणवृद्धिका प्राप्त होना सम्भव न होने से इनमें उक्त पदके अन्तरकालका निषेध किया है। मनुष्यत्रिक में अन्तर्मुहूर्त के अन्तरसे दो बार उपशमश्रेणिपर चढ़ना और उतरना सम्भव है तथा पूर्वकोटिपृथक्त्व के अन्तर से भी यह सम्भव है इसलिए इनमें संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका जधन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिप्रथक्त्व प्रमाख कहा है। शेष कथन सुगम है । ३ २३५. नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचयानुगमका आश्रय लेकर निर्देश दो प्रकारका हैलोव और आदेश । श्रोघसे संख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागहानि और अवस्थित पदके उदीरक जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं। भंग २७ होते हैं। आदेश से नारकियोंमें अवस्थित पदके उदीरक जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं। भंग नौ होते हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पचेन्द्रिय तिर्यख मनुष्यत्रिक और सब देवोंमें जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि भंगविशेष जानने चाहिए । तिर्यञ्चमं संख्यात भागवृद्धि, संख्यातभागद्दानि और अवस्थित पदके उदीरक जीव नियमसे हैं। कदाचित् ये हैं और एक संख्यातगुणवृद्धिका उदीरक Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ गा० ६२ ] सरपयडिउदीरणाए वडिला अप० सव्वपदा भयशिखा । भंगा २६ । एवं जाव० । $ २३६. भागाभागापु० दुविहो णि० श्रोषे० प्रादेसे० । श्रघेण संखे० भागब-हाण० सव्वजी० के० ? असंखे० भागो । अडि० असंखेजा भागा । सेसमरणंतभंगो । एवं तिरिक्खा० । आदेसेण णेरइय० श्रत्रुट्टि० असंखेजा भागा | सेसमसंखे ०मार्गदर्शक आचार्य श्री देव भवभागो । एवं सुवणेरड्य० सव्त्रपंचि०तिरिक्ख-मरपुस-ममपेज राजिदा ति । मणुसपज ० - मधुमिणी- सव्यदेवा० बडि ० संखेजा भागा। सेसपदा संखे० भागो | एवं जाव० । १ २३७. परिमाणा० दुरिहो णि० श्रोषेण आदेसेण । श्रघेण संखे० भागवड्डिहाणि द्वि० केत्तिया ? यता । संखे० गुणवड्डि के ? असंखेजा । संखे० गुणहाणिअवस० के ० ? संखेजा । आदेसेण सव्यणेरड्य० पंचिदियतिरिकख अपज ०-मरपुरा चपा सव्वदेवा भुजगारभंगो। तिरिक्खेसु सुच्चपदा ओघं । पंचि०तिरिक्खतिए सन्त्रपदा केतिया : असंखेजा | मणुसेसु संखे० भागवडि- हाखि अडि० केति० १ असंखे । 0 है। कदाचित् ये हैं और नाना संख्यातगुणवृद्धिके उदीरक हैं। मनुष्य अपर्याप्तकों में सब पद भजनीय हैं। भंग २६ होते हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ पचेन्द्रिय तिर्यवित्रिक में तीन पद भजनीय हैं, इसलिए ध्रुव भंगके साथ २७ भंग होते हैं। तथा मनुष्यत्रिक में पाँच पद भजनीय हैं, इसलिए घुष भंगके साथ २४३ भंग होते हैं। शेष कथन स्पष्ट ही है। -- $ २३६. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है – ओघ और आदेश । श्रघसे संख्यात भागवृद्धि और संख्यात भागद्दानिके उदारक जीव सब जीवों के कितने भागप्रमाण हैं ! असंख्यातर्वे भागप्रमाण हैं। अवस्थितपदके उदीरक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं । तथा शेष पदोंके उदीरक जीव अनन्तवें भागप्रमाण हैं । इसी प्रकार तिर्यों में जानना चाहिए । आदेश से नारकियों में अवस्थित पदके उदीरक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। शेष पदोंके उदीरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय सिर्यच, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त सामान्य देव और अपराजित विमानतकके देवों में जानना चाहिए। मनुष्य पर्याप्त मनुष्यिती और सूर्यार्थसिद्धिके देवों में अवस्थित पदके उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं और शेष पदोंके उदीरक जीव संख्यासवें भागप्रमाण हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । २३. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - भोष और आदेश । श्रवसे संख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागहानि और अवस्थित पदके उदीरक जीव कितने है ? अनन्त हैं । ( संख्यातगुणवृद्धि उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। संख्यातगुणहानि और पदके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। आदेश से सब नारकी, पचेन्द्रिय तिर्यकेच अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और सब देवोंमें भुजगार के समान भंग है । तिर्यच्चोंमें सब पदोंके aateकों का भंग ओघ के समान है। पचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक में सब पदोंके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। मनुष्यों में संख्यात भागवृद्धि, संख्यातभागहानि और अवस्थित पदके उदीरक Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज [ वेवो ७ सेसपदा के० सखेखा । मणुसपञ्ज० - मणुसिणी सव्वदेवा सव्वपदा के० ९ संखेआ । एवं जाब० । २३८. खेचा० दुबिहो णि० ओषेण आदेसेण य । ओषेण संखेजभागवड्डिहाणि वडि० केव० खेते ? सव्वलोगे । सेसपदा० लोग० असंखे० भागे । एवं तिरिक्खा | ऐसगदीसु सव्वपदा लोग० असंखे ० भागे । एवं जाव० । ६ २३९. पोसणा० दुविहो णि० - श्रोषेण आदेसे० । श्रघेण संखेज भागवहिहाणि - अवद्वि० केव० खे० पोसि० । सव्वलोगो । सेसपदेहिं लोग असंखे० भागो । एवं तिरिक्खा० । सव्वणेरइय ० -पंचि०तिरिक्ख अपज० मणुस अपज ० सव्वदेवा० भुज०भंगो | पंचिंदियतिरिक्खतिय ३ मन्युस - ३ संखेअ भागवडि- हाणि श्रवडि ० लोग० असंखे० भागो, सच्वलोगो वा । सेसयदेहिं लोग असंखे - भागो । एवं जान० | Q जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। शेष पदोंके उदारक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। मनुष्य पयाँम, मनुष्यिनी और सर्वार्थसिद्धि देवोंमें सब पदोंके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ३ २३८. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - श्रोध और आदेश । श्रघसे संख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागहानि और अवस्थित पदके उदीरकोंका कितना क्षेत्र है ? सर्वलोक क्षेत्र है। शेष पदोंके उदीरकों का लोक संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। इसी प्रकार सामान्य तिर्थयों में जानना चाहिए। शेष गतियों में सब पदोंके उदीरक जीवोंका क्षेत्र लोक के श्रसंख्यात में भागप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना जाहिए। विशेषार्थ --- संख्यात भागवृद्धि, संख्यावभागद्दानि और अवस्थित उदीरणा मिध्यात्व अनन्त हैं, इसलिए गुणस्थान में बहुलतासे होती हैं। इन पदों की उदीरणा करनेवाले जीव भी इनकी अपेक्षा सर्वलोकप्रमाण क्षेत्र बन जानेसे वह तत्प्रमाण कहा है। किन्तु शेष पदका सम्बन्ध गुणस्थान प्रतिपन्न जीवोंसे छाता है और ऐसे जीवांका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए वह तत्प्रमाण कहा है। सामान्य तिर्यों में अपने सम्भव पदोंकी अपेक्षा प्ररूपणा बन जाने से वह श्रधके समान बतलाई है। तथा गतिसम्बन्धी शेष मार्गणा श्रका क्षेत्र लोक असंख्यातवें भागप्रमाण होनेसे उनमें सम्भव सब पदोंके उदीरकों का क्षेत्र तत्प्रमाण कहा है। ६ २३८. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - श्रोत्र और आदेश । श्रघसे संख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागहानि और अवस्थितपदके उदीरकों ने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सर्वलोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है, शेष पदोंके उदीरकांने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चों में जानना चाहिए। सब नारकी, पचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और सब देत्रों में भुजगार उदीरणा के समान भंग है | पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिक और मनुष्यत्रिमें संख्यात भागवृद्धि, संख्यातभागहानि और अवस्थित पदके कोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया हैं। शेप पदारोंने लोकके असंख्यात भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरपयरिणाए बड्डिपरूपणा १०६ 0 ? वाकालवा . महाद्यषेण आदेसेण । ओघेण संखे० भागवष्टिहाणि वट्टि ० के ० १ सव्त्रद्धा | संखे० गुणवढि जह० एयस० उक्क० भावलि० श्रसंखे० भागो । संखे० गुणहाणि अवत्त० जह० एस० उक्क० संखेखा समया । आदेसेण सव्वणेरड्य०-पंचिं० तिरि० प० - मरगुसअप ० - सव्वदेवाति भुज०भंगो । दिक्खिसु सव्वपाणमोत्रं । पंचि०तिरिक्खतिए अट्टि० सब्बद्धा | सेसपदा० जह० एमओ, उक० आवलि० असंखे० भागो । मणुसेसु संखे० भागवष्टि हाणि जह० एयसमओ, उक्क० श्रावलि० असंखे० भागो | वडि० सम्बद्धा । संखे० गुणवड्डि- हाणिअवत्त० जह० एयस०, उक्क० संखे० समया । एवं मरणुसपञ्ज० - मरखुसिणी० । वरि मा० ६२ ] मार्गदर्शक , विशेषार्थ – श्रवसे संख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागहानि और अवस्थितपदके उदीरकों का जब क्षेत्र ही सर्व लोकप्रमाण बतलाया है तब उन पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन सर्वलोकप्रमाण होगा इसमें सन्देह नहीं । रहे शेष पद सो एक तो उनका सम्बन्ध गुणस्थानप्रतिपन्न जीवोंके साथ श्रा | दूसरे ये पद यथासम्भव जो मिध्यादृष्टि जीव संयमासंग्रम या संयमको प्राप्त होते हैं उनके होते हैं या जो उपशमश्रे रिस् पर चढ़ते या उतरते हैं या उपशमश्रेणिमें मरकर देव होते हैं उनके होते हैं । यतः ऐसे जीवोंका स्पर्शन लोकक असंख्यातवें भागप्रमारण होता है अतः इन पकी अपेक्षा वह उत्तप्रमाण कहा है। सामान्य तिर्यक्वोंमें यह स्पर्शन अपने सम्भव पदोंकी अपेक्षा इसी प्रकार बन जाता है, इसलिए वह ओके समान कहा है। सब नारकी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और सब देवों में भुजगार उदीरणा के समान कहने का कारण यह है कि इनमें सम्भव तीन पदका स्पर्शन भुजगार उरणा में जैसा भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदका कहा है वैसा यहाँ क्रमसे संख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागहानि और अवस्थित पदका बन जाता है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक और मनुष्यत्रिकका वर्तमान स्पर्शन लोकके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सर्वलोकप्रमाण हैं जो संख्यात भागवृद्धि संख्यातभागहानि और अवस्थितपदकी अपेक्षा इनमें घटित हो जाता है, इसलिए इनमें इन पदोंकी अपेक्षा तो उक्त स्पर्शन कहा है और शेष पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। २४०. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । श्रघ संख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागहानि और अवस्थितपदके उदीरकों का काल सर्वदा है । संख्यातगुणवृद्धिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यात में भागप्रमाण है । संख्यातगुणहानि और अवक्तव्य पदके उदीरकों का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। आदेश से सब नारकी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और सब देवों में भुजगार उदीरणाके समान भंग है । तिर्यों में सब पदोंका भंग ओके समान है। पकत्वेन्द्रिय निर्ययत्रिक में अवस्थितपदके उदीरकोंका काल सर्वदा है। शेष पदोंके उदीरकका जयन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्य । तर्षे भागप्रमाण है। मनुष्यों में संख्यात भागवृद्धि और संख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट फाल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितपदके उदीरकोंका काल सर्वदा है। संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणहानि और अवक्तव्यपदके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जयधवलासहिदे कस्रायपाहुडे [वेबगो. संखे० समया । एवं जाव। २४१. अंतराणु० दुविहो णि०--श्रोघेण श्रादेसेण य । अोधेण संखेज्जभागवडि-हा-अवढि० रणत्थि अंतरं । संखेगुणवाढि० जह० एयस०, उक्क० चोइस रादिदियाणि । संखे गुणहाणि० जह० एयस०, उक्क पण्णास गदि दियाणि । अवत्त० जह. एयस०, उक्क. वासपुधत्तं । श्रादेसेण मुव्यणेरड्य-पंचितिरि०अपज०मणसअपल-मन्चदेवा ति भुज भंगो। तिरिक्व-पचितिरिक्खनिय ० भुजगारमंगो । णवरि संखेजगुरणबड्डी० श्रोपं । मणस३ भुज मंगो । पचरि संख० गुणवाड-हाणि-अवच० श्रोध । एवं जाव। जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें श्रावलिके असंख्यातवें भागके स्थानमें संख्यात समय करना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। मार्गदर्शक :विशेषाया-प्रसामुग्यतानाजीलाझकयानभागवृद्धि, संख्यातभागहानि और श्रवस्थितपदकी उदारणा करते हैं, इसलिए ओघसे इनका काल सर्वदा बन जानेसे वह उक्तप्रमाण कहा है। संख्यातगुणवृद्धि अधिकसे अधिक असंख्यान जीव करते हैं, इसलिए इस पदी .. अपेक्षा जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अाबलिके असंख्यातवं भागप्रमाण प्राप्त होनेसे वह तत्प्रमारण कहा है। संख्यातगुणहानि और श्रवक्तव्यपदकी उदीरणा अधिकसे अधिक संख्यात जीव करते हैं, इसलिए इनकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। यह सामान्य न्याय है इसी प्रकार गतिमार्गणाके सब भेदोंमें उनका परिमाण और पद जानकर काल घटित कर लेना चाहिए । मात्र अवस्थित्त पदका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होनेसे उसका काल सर्वत्र सर्वदा बन जाता है इतना विशेष जानना चाहिए । २४१. अन्तगनुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है.--श्रोध और आदेश। ओघसे संख्यातमागवृद्धि, संख्यातभागहानि और अवस्थितपदक उदीरदोंका अन्तरकाल नहीं है। संख्यातगुणवृद्धिके जदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चौदह दिन-रात है । संख्यातगुणहानिके उदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पन्द्रह दिन-रात है। प्रवक्तव्यपदके उदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय है. और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व है। आदेशसे सब नारकी, परचेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और सब देवोंमें भुजगार दीरणाके समान भंग है। सामान्य तियन और पश्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकम भुजगार उदीरणाके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें संख्यातगुणवृद्धिके उदीरकोंका अन्तर ओघके समान है। मनुष्यत्रिकमें भुजगार उदीरणाके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणहानि और अवक्तव्यपदके उदीरकोंका अन्तरफाल ओघके समान है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ-उपशम सम्यक्त्वके साथ जो संयतासंयत मिथ्यात्वमं पाते हैं उनका जघन्य अन्दर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चौदह दिन-रात है, क्योंकि प्रायके अनुसार हानि होती है। और ऐसे जीवोंके संख्यातगुणवृद्धि उदीरणा सम्भव है, इसलिए यहाँ संख्यातगुणवृद्धि उदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चौदह दिन-रात कहा है। तथा जो मिध्यादृष्टि उपशम सम्यक्त्व के साथ संयमको स्वीकार करते हैं उनका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पन्द्रह दिनरात होता है और ऐसे जावोंके संख्यातगुणहानि उवीरणा Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरपयविषदीरणा वढि परूपणा $ २४२. भावागमेण सव्वत्थ ओद भावो । Q 0 0 ९ २४३. अप्पात्रहुआ० दुविहो णि० - ओघे० आदेसे ० । श्रघेण सव्वत्थोवा भवत्त० उदीर० | संखे० गुणहाणिउदीर० संखे० गुणा । संखे० गुणवडिउदी० असंखे०गुणा । संखे० भागवडिउदीर अपंतगुणा । संखे ० भागहारिणउदीर० विसेसाहिया | अ० उदी० [सं० गुणा । आदेसेण खेरइय० सव्वत्थोवा संखे० भागवडिउदीर० । संखे० भागहा० उदीर० विसेसा० | अवडि० उदीर० श्रसंखे० गुणा । एवं सव्वरइय ०. सय्यदेव त्ति | वरि सव्वट्टे संजगुणं कायव्यं । तिरिक्खेसु सव्वत्थोवा संखे० गुणबडिउदीर ० | संखे ० भार्गवादी० श्रार्तगुरु जिविसेसहाचाप्रवह्निः असंखे गुणा । एवं पंचिं ० ति रिक्खतिए । णवरि जम्मि अांतगुरया तम्मि श्रसंखे० ० गुणा । पंचि ० तिरि०प०- मरणुस प० सव्वत्थोत्रा संखे ० भागवडि० हाणि० दो वि सरिसा 1 श्रवट्टि ० उदीर असंखे० गुणा | मरणुसेसु सच्चस्थोचा प्रवत्त ०उदी० | संखे ० गुणहाणि - उदीर० संखे० गुणा संखेअगुणवडिउदी० संखे० गुणा । संखे ० भागवडिउदीर० असंखे० गुणा | हाणिउदी ० विसेसा | अवड्डि० उदी० असंखे० गुणा । एवं मणुसपञ्ज० 0 O गा० ६२ ] १११ होती है, इसलिए यहाँ पर संख्यातगुणहानि उदीरणाका जधन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पन्द्रह दिन-रात कहा है। शेष कथन सुराम है, क्योंकि उसका अनेक बार स्पष्टीकरण कर आये हैं। ३ २४२. भाव सर्वत्र प्रदयिक होता है। $ २४३. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश | घोघसे अवक्तव्यउदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे संख्यातगुणहानिउदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यातगुणवृद्धि उबीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यातभागवृद्धि उदीरक जीव अनन्तगुणे हैं उनसे संख्यात भागहानिउदीरक जीव विशेष अधिक हैं। उनसे अवस्थित उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। आदेश से नारकियों में संख्यात भागवृद्धिउदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे संख्यात भागहानिउदीरक जीव विशेष अधिक हैं। उनसे अवस्थित उरक जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सूत्र नारकी और सब देवों में जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता हैं कि सर्वार्थसिद्धिमें असंख्यातगुणेके स्थान में संख्यातगुणे करने चाहिए। तिर्यों में संख्यातगुणवृद्धिदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे संख्यात भागवृद्धि उदीरक जीव अनन्तगुणे हैं। उनसे संख्यात भागहानिउदीरक जीव विशेष अधिक हैं। उनसे अवस्थित उदीरक जीव श्रसंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक में जानना चाहिए। किन्तु जहाँ पर अनन्तगुणे कहे हैं वहाँ असंख्यातगुणे करने चाहिए। पञ्चेन्द्रिय तिर्यन्त्र अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में संख्यात भामवृद्धि और संख्यात भागहानिके उदीरक दोनों प्रकारके जीव समान हैं। उनसे अवस्थित उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। मनुष्यों में अवक्तव्य उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे संख्यातगुणहानिउदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यात गुणवृद्धिदरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यात भागवृद्धि उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यात भागहानि उatre जीव विशेष अधिक हैं। उनसे अवस्थित उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो मणुसिभी० । रणवरि संखेजगुणं कायव्वं । एवं जाव० । एवं चड्ढी समत्ता । एवं पयडिहाणउदीरणा समत्ता | तदो 'कदि वलियं पवेसेदि' त्ति पदं समत्तं । एवं पयडिउदीरणा समत्ता । १ कपि च पविसंति कस्स आयलियं ति । मार्गदर्श४४. अहिवारसभालणसुसमदनी रहती उपरि 'कदि च पविसंति कस्स श्रावलियमिदि बिदियो गाहासुत्तावयत्रो विहासियव्यो ति पयवृत्तादो । गवरि एदम्मि सुत्तावयचे पयडिपवेसो पडिबद्धो; उदयाणुदयसरूवेणुदयावलियमंतरं पविसमाणपयडिमेत्तेणेत्याहियारादो । सो वुण पयडिपवेसो दुविहो-मूलपयडिपवेसो उत्तरपडिपवेसो चेदि । उत्तरपडियवेसो च दुत्रिहो-एगेगुत्तरपयडिपवेसो पयडिहाणपवेसो चेदि । तत्थ मूलपयडिपवेसो एगेगुत्तरपयडिपवेसो च सुगमो ति ह सुत्ते विहासिदो । तदो पादेकं चउवी समणियोगदारेहिं तेसिमेत्थ विहासा जाणिय कायब्धा । तदो पयडिट्ठाणपवेसे पयदं । तत्व इमाणि सत्तारस अणियोगदाराणि-समुकित्तणा सादि० अणादि० जाव अप्पाचहए ति भुज० पदणि० वढीओ च । * २४५. तस्थ समुक्त्तिणा दुविहा–ठाणसमुक्त्तिणा पयडिसमुकित्तणा चेदि । असंख्यातगुणेके स्थानमें सख्यातगुरमे करने चाहिए। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। इसप्रकार वृद्धि समाप्त हुई। इसप्रकार प्रकृतिस्थान उदीरणा समाप्त हुई। इसलिए 'कदि श्रावलियं पवेसेदि' इस पदका व्याख्यान समाप्त हुआ। इसप्रकार प्रकृतिउदीरणा समाप्त हुई। * किस जीवके कितनी प्रकृतियाँ उदयावलिमें प्रवेश करती हैं। ६२४४. अधिकारकी सम्हाल करनेवाला यह सूत्र है। अब पूर्वोक्त कथनके आगे गाथा सत्रका कदि च पविसंति कस्स श्रावलिय' यह दूसरा पद प्रकृतमें प्रवृच होनेसे व्याख्यान करने योग्य है । इतनी विशेषता है कि इस सूत्रपदमें प्रकृतिप्रवेश अनुयोगद्वार प्रतिबद्ध है, क्योंकि उदय और अनुदयरूपसे उदयावलिमें प्रवेश करनेवाली प्रकृतिमात्रका यहाँ अधिकार है। वह प्रकृतिप्रवेश दो प्रकारका है मूलप्रकृतिप्रवेश और उत्तर प्रकृतिप्रवेश । उत्तर प्रकृतिप्रवेश दो प्रकारका है-एकैक उत्तरप्रकृतिप्रवेश और प्रकृतिस्थानप्रवेश । उनमें मूलप्रकृतिप्रवेश और एकैक उत्तरप्रकृतिप्रवेश सुगम हैं, इसलिए इस सूत्रमें उनका व्याख्यान नहीं किया। इसलिए अलग अलग चौबीस अनुयोगद्वारोंका श्राश्रय लेकर यहां पर उनका व्याख्यान जानकर कर लेना चाहिए। अतएव प्रकृतिस्थानप्रवेश प्रकृत है। उसमें समुत्कीर्तना, सादि, और अनादिसे लेकर अल्पत्रहत्य तक ये सत्रह अनुयोगद्वार तथा भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि ये सीन अनुयोगद्वार हैं। २१५. उनमें समुत्कीतना दो प्रकारको है-स्थानसमुत्कीर्तना और प्रकृतिसमुत्कीर्तना । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरपयडिपरणार ठाणसमुत्तिरा पयडिपिसी च पड़ाव क्रमाह गा० ६२ ] संपहि तदुभयपरूवणमुदरिमसुणावसरो कीरदे— एथ पुवं गमणिजा ठाणसमुक्किन्तथा पय डिपिसो च । २४६. एत्थ एदम्मि पथ डिडाणपवेसे पुण्वं पढममेव गमणि श्रणुमग्गियन्ब्बा ठाणसमुत्ति पडिणिसो च । तत्थ द्वाणसमुक्किसणा गाम अवीसाए पर्याडिद्वाणमादि काढूण श्रधादेसेहिं एसियाणि पयडिद्वाणाणि उदयावलियं पविसमाणारिण अस्थि त्ति परूवणा । पथडिणिसो गाम एदाओ पयडीओ घेतखेदं पवेसाणमुत्पज्जर तिरुवणा । एदेसिं च दोएहमेयपघट्टएण परूवणं कस्सामो चि जाणावमुत्तरं - * ताषि एकदो भणिस्संति । $ २४७. सुगमं । * अट्ठावीसं पयडीओ उद्यावलियं पविसंति । १५३ 1 २४८ अट्ठावीस पायप्पयमेचंय पचितिहास जिस माणमस्थि ति समुक्रित्तिदं होड़ । एत्थ पडिणिसो जर वि मुत्तकंठं प परुविदो तो वि तणिसो को चेवेति दङ्कव्योः अट्ठावीस संखाणिदेसेणेव मोहपयडीणं सामणिसस्स जाणाविदत्तादो । * सत्तावीसं पयड़ोओ उदयावलियं पविसंति सम्भन्ते उव्वेल्लिदे । २४९. श्राससंतकम्मियमिच्छाइद्विणा पुव्युत्त द्वारा दो सम्मत्ते उम्बेल्लिदे अब इन दोनोंका कथन करनेके लिए आगे के सूत्रद्वारा अवसर करते हैं--- * यहाँ पर सर्व प्रथम स्थानसमुत्कीर्तना और प्रकृतिनिर्देश ज्ञातव्य है । ६ २४६, यहां पर अर्थात् इस प्रकृतिस्थानप्रवेश अनुयोगद्वार में 'पु' अर्थात् प्रथम ही स्थानसमुत्कीर्तना और प्रकृतिनिर्देश 'गमणिज्जा' अर्थात् अनुमार्गण करने योग्य हैं। उनमें से मासप्रकृतिक स्थान से लेकर घोघ और आदेश से इतने प्रकृतिस्थान उदद्यावलिमें प्रविशमान हैं ऐसी प्ररूपणा करना स्थानसमुत्कीर्तना है। तथा इन प्रकृतियोंको ग्रहण कर यह प्रवेशस्थान उत्पन्न होता है ऐसी प्ररूपणा करना प्रकृतिनिर्देश है। इन दोनोंका एक प्रबन्धके द्वारा कथन करेंगे ऐसा ज्ञान कराने के लिए आगेका प्रतिज्ञानाक्य करते हैं - * उन दोनोंको एक साथ कहेंगे । $ २४७. यह सूत्र सुगम है । * अट्ठाईस प्रकृतियाँ उदयावलिमें प्रवेश करती हैं । $ २४८ अट्ठाईस प्रकृतिसमुदायका एक प्रकृतिस्थान उदयावलि में प्रविशमान है यह इस सूत्र द्वारा कहा गया है। इस सूत्रमें यद्यपि मुक्तकण्ठ होकर प्रकृतियोंका निर्देश नहीं किया गया है तो भी उनका निर्देश किया ही है ऐसा जानना चाहिए, क्योंकि बट्टाईस संख्याका निर्देश करनेसे ही मोहनी की प्रकृतियों का नामनिर्देश जता दिया है। * सम्यक्त्रकी उद्वेलना करने पर सत्ताईस प्रकृतियाँ उदयावलिमें प्रवेश करती हैं। $ २४६. अट्ठाईस सत्कर्मिक मिध्यादृष्टिके द्वारा पूर्वोक्त स्थानमेंसे सम्यक्त्वकी उद्वेलना १५ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ मार्गदर्शक:-आचे जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो सत्तावीसपयडिसमुदायप्पयमणणं पवेसट्ठाणमुप्पञ्जदि ति समुकित्तिदं होइ । एस्थ वि यदिरेगमुहेण पयडिणिसो को त्ति दह्रन्यो । छन्वीसं पयडीओ उदयायलिय परिसंति सम्मत्त-सम्मामिच्छुत्तेसु उव्वेल्सिवेसु। २५०. पुव्वुत्तअट्ठावीसपवेसटाणादो सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तेसु जहाकममुम्बेल्लि- .. देसु थ्वीसाए पवेसवारणमुप्पादि ति भणिदं होइ । एण केवलमुन्बेल्लिदसम्मत्तसम्मामिच्छत्तस्सेव, किंतु अण्णादिमिच्छाइडिणों वि बच्चीसाए पवेसट्ठाणमत्थि ति घेत्तव्वं । अट्ठावीस-सत्तावीसाणमएणदरसंतकम्मियमिच्चाइटिणा वा उवसमसम्मत्ताहिमुहेणंतरं कादूण सम्मत्त-सम्मामिच्छताणमावलियमेत्तपढमहिदीए गलिदाए छब्बीसपवेसट्ठाणमुवलब्भइ । उवसमसम्माइडिया पणुवीसपवेसगेण मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छताणमण्णदरे ओकड्डिदे सासणसम्माइट्ठिणा वा मिच्छत्ते पडियण्णे एयसमयं छन्वीसाए पवेसट्ठाणमुवलब्भइ । णवरि सुत्ते सम्मत्त-सम्मामिच्छतेमु उन्धेल्लिदेसु त्ति णिद्देसो उदाहरणमेत्तो, तेणेदेसि पि पयाराण संगहो कायव्यो । ॐ पणुवीस पयडीओ अक्यालिग विझति दसपतियं मोत्तण । २५१. कसाय-णोकसायफ्यमणं उदयायलियपवेसस्स कत्थ वि समुवलंभादो । करने पर सत्ताईस प्रकृनिसमुदायात्मक अन्य प्रवेशस्थान उत्पन्न होता है ऐसा इस सूत्रद्वारा कहा गया है। यहाँ पर भी व्यतिरेकमुखसे प्रकृतिनिर्देश किया है ऐसा जानना चाहिए । * सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करने पर छब्बीस प्रकृतियाँ उदद्यावलिमें प्रवेश करती हैं। + २५०. पर्वोक्त अट्ठाईस प्रकृतिक प्रवेशस्थानमेंसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी क्रमसे उद्वेलमा कर देने पर छचीस प्रकृतिक प्रवेशस्थान उत्पन्न होता है. यह उक्त कथनका तात्पर्य है । जिसने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना की है केवल ऐसे जीवके ही नहीं किन्तु अनादि मिथ्याष्टिके भी छब्बीसप्रकृतिक प्रवेशस्थान होता है ऐसा यहाँ प्रहण करना चाहिए। अथवा अट्ठाईसप्रकृतिक और सत्ताईसप्रकृतिक इनमेसे अन्यतर सत्कर्मवाले उपशम. सम्यक्त्वके अमिमुख हुए मिथ्याष्टिके द्वारा अन्तरकरण करके सम्यक्त्व और सम्यग्मिय्यात्वकी श्रावलि प्रमाण प्रथम स्थितिके गला देने पर छब्बीसप्रकृतिक प्रदेशस्थान प्राप्त होता है। पच्चीस प्रकृत्तियों के प्रवेशक उपशमसम्यग्दृष्टि द्वारा मिथ्यात्व सम्यक्त्व और सम्यग्मिन्यात्व इनमेंसे किसी एक प्रकृतिका अपकर्षण करने पर अथवा सासादनसम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्वको प्राप्त होने पर एक समय तक छब्बीस प्रकृतिक प्रवेशस्थान उपलब्ध होता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सूत्र में 'सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उझेलना करने पर यह वचन उदाहरणमात्र है, इसलिए इन प्रकारोंका भी संग्रह करना चाहिए। ___ *दर्शनमोहनीयत्रिकको छोड़कर पच्चीस प्रकृतियाँ उदयावलिमें प्रवेश करती हैं। ६२५१. क्योंकि कषाय और नोकषायोंकी प्रकृतियोंका उदयावलिमें प्रवेश कहीं पर भी Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___गा०६२] उत्तरपयडिउदाहिाठिाणसवितणापत्रासहसाच्चजी म्हाराज ११५ तं कस्स होइ ति आसंकाए. उत्तरसुत्तमाह ६ अणंताणुबंधीणमविसंजुत्तस्स उवसंतदसणमाहणीयस्स । २५२. कि कारणं ? उवसंतदंसगमोहणीयम्मि दंसणतियं मोत्तूण पणुचीसचरितमोहपयडीणमुदयावलियपवेसस्स णिप्पडियंधमुवलंभादो। एत्थाणताणुबंधीणमविसंजुत्तस्से ति विसेसणं त्रिसंजोइदाणताणुबंधिचउकम्मि पणुवीसपवेसटाणासंभवपप्पारणफलं; उवसमसम्माइद्विणा अणंताणबंधीसु विसंजोइदेसु इगिवीसपवेसट्ठाणुप्पत्तिदसणादो। स्थि अण्णस्स कस्स वि । ६ २५३. एत्तो अण्णस्स कस्स वि एदं पवेसट्ठाणं णथि । कुदा ? अविसंजोइदाएंताणुवंधिचउक्कमुत्रसमसम्माइट्टि मोचूणएणस्थ पणुवीसपवेसट्ठाणासंभवादो। चवीसं पयडीओ उदयावलियं पविसंति अणताणुबंधिणो धज्ज । २५४. चउवीससंतकम्मियवेदयसम्माइद्वि-सम्मामिच्छाइट्ठीसु तदुवलंभादो । विसंजोयणापुबसंजोगपढमसमए बट्टमाणमिच्छाइडिम्मि वि पदस्स पवेसट्ठाणस्स संभवो दट्ठन्यो । तेषीसं पयडीओ उदयावलियं पविसंति मिच्छत्तं खविदे। उपलब्ध होता है । यह स्थान किसके होता है ऐसी आशंका होनेपर भागेका सूत्र कहत है ___* यह स्थान जिसने अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना नहीं की है किन्तु दर्शनमोहनीयका उपशम किया है ऐसे उपशमसम्यग्दृष्टिके होता है। ६२५२. क्योंकि जिसने दर्शनमोहनीयकी उपशमना की है ऐस जीपक तीन दर्शनमोहनीयको छोड़कर चारित्रमोहनीयकी पच्चीस प्रकृतियोंका जदयावलिमें प्रवेश दिना रुकावटके उपलब्ध होता है। यहाँ पर 'जिसने अनन्तानुबन्धियोंका विसंयोजमा नहीं की है। यह विशेषाप जिसने अनन्तानुअन्धीचतुककी विसंयोजना की है. उसके पच्चीस प्रकृतिक प्रवेशस्थान असम्भव है, यह निष्कर्ष फलित करने के लिए दिया है, क्योंकि उपशमसम्यग्दृष्टिके द्वारा अनन्तानुबन्धियांकी विसंयोजना कर देने पर इक्कीस प्रकृतिक प्रवेशस्थानकी उत्पत्ति देखी जासी है। * यह स्थान अन्य किसीके नहीं होता | हु२५३. उक्त जीवको छोड़कर अन्य किसी जीवके यह प्रवेशस्थान नहीं होता, क्योंकि जिसने अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना नहीं की है ऐसे उपशमसम्यग्दष्टिको छोड़कर अन्यत्र पच्चीसप्रकृतिक प्रवेशस्थान असम्भव है। * अनन्तानुवन्धियोंको छोड़कर चौबीस प्रकृतियाँ उदयावलिमें प्रवेश करती हैं । ७२५४. क्योंकि चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले वेदकसम्याष्टि और सम्यग्मिथ्याष्टि जीवांके यह स्थान उपलब्ध होता है। विसंयोजनापूर्वक संयोगके प्रथम समयमें विद्यमान मिथ्यादृष्टि जीवके भी इस प्रवेशस्थानकी सम्भावना जाननी चाहिए। * मिथ्यात्वका क्षय होनेपर तेईस प्रकृतियाँ उदयावलिमें प्रवेश करती हैं। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासाहिदे कसाय पाहुडे २५५. ते चउच्चीसपबेस मेण वेदगसम्माहट्टिणा दंसणमोहक्खवणाए अन्युयि मिते खविदे इगिवीस कसाय सम्मत्त सम्मामिच्छाणि ति एदाओ तेवीसं पयडीओ उदयावलियं पविसंतिः तत्थ पयारंतरासंभवादो | ११६ [ वेदगो ७ * मावीसं पयडीओ उदयावलियं पविसंति सम्मामिच्छते ग्वविदे | ९ २५६. नेव तेवीसपवेसगेण तत्तो तोमुहुत्तं गंतूण सम्मामिन्द्र खत्रिदे सम्मतेण सह एकवीसचरित्त मोह पडीमुदयावलियपवेसस्स सुबत्तमुवलभादो एसो एको पयारो सुत्तयारेण गिट्टिो ति पयारंतरेण वि एदस्स संभवविसयो अणुमरिंगयदो, अतानुबंधिणो विसंजोय इगिवीसपवेसयभावेणावट्टिदस्स उवसमसम्माइट्टिस्स मिच्छत - वेदयसम्मत्त सम्मामिच्छत्त सासणसम्मत्ताणमष्णदर गुणवडिवत्तियढमसमए पयदट्ठासंभव णयमदंसणादो । मार्गदर्शक - आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ९ २५४. चौबीस प्रकृतियां प्रवेशक उसी वेदकसम्यग्दृष्टिके द्वारा दर्शनगोहनीय की araj लिए aaa sोकर मिथ्यात्वका क्षय कर देनेपर इक्कीस कषाय, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये तेषीस प्रकृतियाँ उदद्यावलिमें प्रवेश करती हैं, क्योंकि वहाँ पर अन्य प्रकार सम्भव नहीं है । * सम्यग्मिथ्यात्वका क्षय होने पर बाईस प्रकृतियाँ उदयावलिमें प्रवेश करती हैं। २५६. तईस प्रकृतियोंकि प्रवेशक उसी जीवके द्वारा वहाँसे अन्तर्मुहूर्त बिताकर सम्यमिथ्यात्वका क्षय करने पर सम्यक्त्वके साथ चारित्रमोहनीयकी इक्कीस कृतियोंका उद्यावलि में प्रवेश सुब्यक्त उपलब्ध होता है । सूत्रकारने यह एक प्रकार निर्दिष्ट किया है, इसलिए प्रकारान्तर से भी २२ प्रकृतियों का विषयभूत स्थान सम्भव हैं यह जान लेना चाहिए, क्योंकि श्रनन्ताबन्धियोंकी विसंयोजना कर इक्कीस प्रकृतियांचे प्रवेशक भावसे अवस्थित उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके मिथ्याल, वेदकसम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सासादनसम्यक्त्व इनमें से किसी एक गुणस्थान को प्राप्त होनेके प्रथम समय में प्रकृत स्थानके सम्भव होनेका नियम देखा जाता है । 1 विशेषार्थ — जिस उपशभसम्यग्दृष्टिने श्रनन्तानुबन्धचतुष्ककी विसंयोजना की है वह जब मिथ्यात्वप्रकृति की अपकर्षण द्वारा उदीरणा करके मिध्यात्वभावका अनुभव करता है तब उसके प्रथम समयमें अनन्तानुबन्धीचतुष्कका बन्ध भी होता है और अप्रत्याख्यानावरण आदि रूप द्रव्यको अनन्तानुबन्धीरूपसे संक्रमित कर उसका उदद्यावलिके बाहर निक्षेप भी करता है। किन्तु इस समय अनन्तानुबन्धीचतुष्कका उद्यावलिमें प्रवेश नहीं होना, इसलिए ऐसा मिथ्यादृष्टि जीव प्रथम समय में बाईस प्रकृतियोंका ही उदद्यावलिमें प्रवेशक होता है, क्योंकि उस समय उसके चारित्रमोहनीयकी इक्कीस और एक मिथ्यात्व ऐसी बाईस प्रकृतियोंका प्रवेश देखा जाता है। यही उपशमसम्यग्दृष्टि जीव यदि वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होता है तो उसके प्रथम समय में चारित्रमोहनीयकी इक्कोस और एक सम्यक्त्व इसप्रकार बाईस प्रकृतियोंका उदद्यावलि में प्रवेश देखा जाता है । यही जीव यदि सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होता है तो उसके प्रथम समय में चारित्रमोहनीयकी इक्कीस और एक सम्यग्मिध्यात्व इसप्रकार बाईस प्रकृतियों का उदद्याललिमें प्रवेश देखा जाता है । यही जीव यांद सासादनगुणस्थानको प्राप्त होता है तो उसके प्रथम समय में अनन्तानुबन्धचतुष्ककी किसी एक प्रकृतिके साथ चारित्रमोहनीयकी बाईस प्रकृतियोंका उद्या Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माग 17 गा० ६२] उत्तरपडिउदीरणाए टासमुषित्तापयडिदि सो च ११७ * एकवीस पयडीओ उदयावलिगं पविसंति दंसणमोहणीए खविदे । २५७. पुचावीसवे सयदंसणमोहखवरण सम्मत्ते खविदे हगिवीसचरितमोह पडणं चैव तत्थ पसदंसणादो। एत्थ वि त्रिसंजोइदाताणुत्रं धिचउक्कमुत्रसमसम्माइट्टिमस्सिऊण पथारंतरेण वि पर्यट्टाणसंभवो समत्थणियो । । नसागर जी महाराज २५८. दाणि अतरणिहिडाणि अट्ठावीसादिपवेसट्टाणाणि असंजदपाओग्गाणि संजदपडिबद्धाणि नि वृत्तं होइ । ण एत्थासंजदारणं चेच पाओग्गाणि असंजदपारगाणि तिहारणं कायन्त्रं, सत्तावीसवजाणमेदेसि संजदेसु वि संभोवलं भादो । किंतु एतो उवरिमाणमेयं तसं जदपा ओग्गत्तपदंसणमे देसिम संजदपाओग्गत्तं परूविदं । णच उवसम सेटीए कालं काढूण देवसुप्परसापटमसमए केसिं त्रिविद्वाणाणभुवरिमाणमसंजदपाओग्गत्तसंभवमस्सिदृण पञ्चवद्वाणं कायच्वं, तेसिं सुत्ते वित्रक्खाभावादों, बलि में प्रवेश देखा जाता है, क्योंकि जिस समय ऐसा जीव सासादनसभ्य हुआ है उस समय अनन्तातुबन्त्री चतुष्कमंसे जिस प्रकृतिको उदीरणा हुई हैं उसके सिवा शेष तीन प्रकृतियों का संक्रम होकर उदद्यावलिके बाहर ही निक्षेप होता है। इसप्रकार सूत्रोक्त प्रकारके सिवा अन्य कितने प्रकार बाईस प्रकृतिक प्रवेशस्थान सम्भव है इसका विचार किया । * दर्शन मोहमय क्षय होने पर इक्कीस प्रकृतियाँ उदयावलिमें प्रवेश करती हैं । :- आचार्य ६२५७ पत्रक बाईस प्रकृतियों के प्रवेशक दर्शनमोहनीयके क्षपक जीवके द्वारा सम्यक्वका चय कर देने पर चारित्रमोहनीयको इक्कीस प्रकृतियोंका ही वहाँ प्रवेश देखा जाता है। यहाँ पर भी जिसने अनन्तानुबन्धचतुरकको विसंयोजना की है ऐसे उपशमसम्यग्दष्ट्रिका आश्रय लेकर प्रकारान्तरमे भो प्रकृत स्थानकी सम्भावनाका समर्थन करना चाहिए । विशेषार्थ सूत्र में जो इक्कीस प्रकृतियों के प्रवेशकका प्रकार बतलाया है वह तो स्पष्ट ही | दूसरा प्रकार यह सम्मत्र है कि जो उपशमसम्यष्टि जीव अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना कर लेता है उसके दर्शनमोहनीयकी तीन और अनन्तानुबन्धचतुष्क इन सात प्रकृतियोंके सिवाय इक्कीस प्रकृतियोंका उदयावलिमें प्रवेश देखा जाता है। यद्यपि यहाँ प्रकृतियोंके प्रदेशकी अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है, क्योंकि क्षायिकसम्यग्दृष्टिके जिन इक्कीस प्रकृतियोंका उदयानि में प्रवेश होता है, उन्हीं प्रकृतियोंका पूर्वोक्त उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके भी प्रवेश होता है | परन्तु स्वामित्वभेद अवश्य है । मात्र इसलिए इस प्रकारान्तर कहा है । I * ये स्थान असंयत प्रायोग्य हैं । २५८. जो ये अट्ठाईस प्रकृतिक आदि प्रवेशस्थान पूर्व में कहे हैं ये असंयतप्रायोग्य हैं। वं असंयतों से सम्बन्ध रखते हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । परन्तु यहाँ पर असंयतप्रायोग्य पदका अर्थ असंतोंके ही योग्य हैं ऐसा अवधारणपरक नहीं करना चाहिए, क्योंकि सत्ताईस प्रकृतिक प्रवेशस्थानको छोड़कर शेष स्थान संयतों में भी सम्भवरूपसे उपलब्ध होते हैं । किन्तु इससे आगे प्रवेशस्थान एकान्तसे संगतों के योग्य ही होते हैं यह दिखलाने के लिए पूर्वोक्त के योग्य कहा है। उपशमश्रेणिमें मरकर देवोंमें उत्पन्न हुए जीवोंके प्रथम समयमें आगे कितने ही स्थान असंयतोके योग्य सम्भव हैं, अतः इसका आश्रय लेकर व भी Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जथधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ केण त्रि गएण तेसि पि संजदपाओग्गत्तदंसणादो च । एवमसंजदपाओग्गाणं हाणाणमेत्येव बोच्छेदं कादूण संपहि संजदपाओग्गाणमेत्तो परूवणं कुणमाणो पइएणावकमुत्तरं भणइ-- मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविहिासागर जी म्हा १ एत्तो जवसामगपाओग्गाणि ताणि भणिस्सामो। २५९. एत्तो उवरि संजदपाओग्गाणं हाणाणं परूषणे कीरमाणे तत्थ ताब उवसामगपाओग्गाणि जाणि पत्रसट्टाणाणि ताणि मणिस्सामो ति पइण्णावकमेदं, उवसामग-खयगपाओग्गत्तण दुविह्ना विद्वत्ताणं नेसि जुगवं योत्तुमसचीए कमावलंबणादो। उवसामणाको परिवदंतेण तिविहीं लोहो पोकल्डिवो । तत्थ लोभसंजलणमुदए दिएणं, दुधिहो लोहो उदयावलियबाहिरे णिक्वित्तो। साधे एका पयडी पषिसदि। २६०. उवसमसेढीग सच्चोवसमं कादृण तत्तो परिवदमाणएण सुहमसांपराइयपढमसमयम्मि जाधे तिविहो लोहो विदियविदीदो ओकड्डिय जहारिहं णिसित्तो ताधे एका पयडी पविसदि, तत्थ लोभसंजलणस्स एकस्सेव उदयावलियम्भंतरपवेसदसणादो। से काले तिपिण पयडीओ पविसंति । २६१. पुन्चमुदयावलियवाहिरे णिसित्तस्स दुविहस्स लोहस्स तदणंतरसमए असंयतोंके योग्य हैं ऐसा निश्चय नहीं करना चाहिए, क्योंकि उन स्थानोंकी सूत्रमें विवक्षा नहीं की हैं और किसी नयकी अपेक्षा वे भी संयतोंके योग्य देखे जाते हैं। इसप्रकार असंयतोंके योग्य स्थानोंका यहीं पर विच्छेद करके अब संयतोंके योग्य प्रवेशस्थानोंका आगे व्याख्यान करते हुए श्रागेका प्रतिज्ञावाक्य कहते हैं * आगे उपशामकोंके योग्य जो प्रवेशस्थान हैं उनका कथन करेंगे। १२५६. इससे पागे संयतोंके योग्य स्थानोंका कथन करते हुए उसमें सर्व प्रथम उपशामकोंके योग्य जो प्रयेशस्थान हैं उनका कथन करेंगे इसप्रकार यह प्रतिज्ञावाक्य है, क्योंकि उपशामक और क्ष पोंके योग्यरूपसे दो भागोंमें बटे हुए उन प्रवेशस्थानोंकी एक साथ कहनेकी शक्ति न होनेसे यहाँ पर क्रमका अवलम्बन लिया है। __* उपशामनासे गिरते हुए जीवने तीन प्रकारके लोभका अपकर्षण किया । उनमेंसे लोभसंज्वलनको उदयमें दिया और दो प्रकारके लोभका उदयावलिके बाहर निक्षेप किया। तय एक प्रकृति प्रवेश करती है। २६०. उपशमश्रेणी में सोशम करके वहांसे गिरनेवाले जीवचे सूक्ष्मसाम्परायके प्रथम समयमें जब तीन प्रकारके लोभका द्विसीय स्थितिमैसे अपकर्षणकर यथायोग्य निक्षेप किया तष एक प्रकृति प्रवेश करती है, क्योंकि वहां पर एक लोभसंज्वलनका ही उदयायलिमें प्रवेश देखा जाता है। * तदनन्तर तीन प्रकृतियाँ प्रवेश करती हैं। २६१. क्योंकि पूर्व समयमें उन्यावलिके बाहर निक्षिप्त हुए दो प्रकारके लोभका तद. .. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९ गा०६२] उत्तरपजिउदीरणाए ठाणसमुकित्तणा पडिणिहे सो च उदयावलियम्भंतरपवेसेण तिण्हं पवेसस्स परिष्फुडमुवलंभादो। तको अंतोमुटुत्तेण तिधिहा माया श्रोकडिदा । तत्थ मायासंजलणमुदए दिण्णं, दुविहमाया उदयावलियबाहिरे णिक्रिवत्ता। ताधे चत्तारि पयडोभी पविसंति । से काले छप्पयडोश्रो पविसंति । तदो अंतोमुहुत्तेण तिविही माणो ओकड्डियो । तस्थ माणसंजलणमुदए दिरणं, दुबिहो माणो उदयावलिययाहिरे णिकिग्वत्तो। साधे सत्त पयडीनो पविसंति । से काले एव पयडीओ पविसंति । ॐ तदो अंतोमुलुत्तेण तिविहो कोहो प्रोकड्डिदो । तत्थ कोहसंजालणमदए दिएणं, दुविहो कोहो उदयावलियबाहिरे णित्रिग्वत्तो। ताधे दस पयडोओ पविसंति । 8 से काले वारस पयडीयो पविणार्यक - आचार्य श्री सुविधासागर जी म्हाराज तदो अंतोमहुसेण पुरिसपेद-एणोकसायवेवणीयाणि ओकष्टिदाणि । तस्य पुरिसवेदी उदए दिएणों, पणोकसायवेदणीयाणि उदयानन्तर समयमें उदयावलिके भीतर प्रवेश हो जानेसे तीन प्रकृतियोंका प्रवेश स्पष्टरूपसे उपलब्ध होता है। * तदनन्तर अन्तर्मुहूर्त बाद तीन प्रकारको मायाका अपकर्षण किया। उनमेंसे मायासंज्वलनको उदयमें दिया और दो प्रकारकी मायाका उदयावलिके बाहर निक्षेप किया । तब चार प्रकृतियाँ प्रवेश करती हैं। * तदनन्तर समयमें छह प्रकृतियाँ प्रवेश करती हैं। ॐ तदनन्तर अन्तर्मुहूर्त बाद तीन प्रकारके मानका अपकर्पण किया। उनमेंसे मानसंज्वलनको उदय में दिया और दो प्रकारके मानका उदयावलिके बाहर निक्षेप किया । तब सात प्रकृतियाँ प्रवेश करती हैं। * तदनन्तर समयमें नौ प्रकृतियाँ प्रवेश करती हैं। * तदनन्तर अन्तर्मुहूर्त बाद तीन प्रकारके क्रोधोंका अपकर्पण किया। उनमेंसे क्रोधसंज्वलनको उदयमें दिया और दो प्रकारके क्रोधोंका उदयावलिके बाहर निक्षेप किया । तब दस प्रकृतियाँ प्रवेश करती है। * तदनन्तर समयमें बारह प्रकृतियाँ प्रवेश करती हैं। * तदनन्तर अन्तर्मुहूर्त बाद पुरुषवेद और छह नोकपाय चेदनीयका अपकर्षण किया । उनमें से पुरुषवेदको उदयमें दिया और छह नोकषायवेदनीयका उदयापलिके Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयभवलासहिदे कसायराहुडे वलिंगबाहिरे शिक्खित्ताणि । ता सरस पयडीओ पविसंति । * से काले एणवीसं पयडीओ पविसंप्ति | ६ २६२. दाणि सुतारण सुगमाणि । * तदो अंतोमुरोण इरिथवेदमाकडिण उदयावलियमाहिरे शिवियदि । १२. [ बेगो ७ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ९ २६३. कुढो ? पुरिसवेदोदरण चढिदत्तादो। ण न सोदएण विणा उदयादिनिक्स्वेव संभवो विष्पडिसेहादो । * से काले वीसं पयडीओ पविसंति / इ २६४. कुदो ! उदयाबलियवाहिरे णिक्खितस्स इत्थवेदस् ता उदयाच लिअंतरपसदंसणादो | * नाव जाव अंतरं ए विणस्सदि ति । १२६५. एत्तो पाए जाव अंतरं पण विणस्सदि ताव एवं चैव पवेसाणमवडिदं व्यमिदित्तं होइ | * अंतरे विणासिजमाये एवं समवेदमाकडिण उदयावलियम हिर णि विवाद | * से काले एक्कावलं पयडीओ पविसंति | बाहर निक्षेप किया । तत्र तेरह प्रकृतियाँ प्रवेश करती हैं । * तदनन्तर समय में उन्नीस प्रकृतियाँ प्रवेश करती हैं । १२६२. ये सूत्र सुगम हैं । * तदनन्तर अन्तर्मुहूर्त बाद स्त्रीवेदका अपकर्षण करके उदयानलिके बाहर निक्षेप करता है । ९ २६३. क्योंकि यह पुरुषवेदके उदयसे चढ़ा है और वोदय के बिना उदय समय से लेकर निक्षेप होना सम्भव नहीं है, क्योंकि इसका निषेध है। * तदनन्तर समय में बीस प्रकृतियाँ प्रवेश करती हैं । $ २६४. क्योंकि उद्यावलिके बाहर निक्षिप्त हुए श्रीवेदका तब उदद्यावलिके भीतर प्रवेश देखा जाता है । * यह स्थान तब तक रहता है जब तक अन्तरका नाश नहीं होता । ६२६५. इससे भागे जब तक अन्सरका नाश नहीं होता तब तक इस प्रवेशस्थानको अवस्थित जानना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * अन्तरका नाश करने पर नपुंसकवेदको अपकर्षित कर उदयावलिके बाहर निक्षेप करता है। * तदनन्तर समय में इक्कीस प्रकृतियाँ प्रवेश करती हैं । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिउदीरणाए ठाणसमुचित्त रणा पयडिणि सो च १२१ २६६. गर्बुसयाद ओकष्टुिंदे तकाले चेवांतरविणासो होइ । तदणंतरसमए णQसयवेदेण सह एकवीस पयडीओ उद्यावलियं पविसंति त्ति भणिदं होइ । 9 एत्तो पाए जइ स्वीसणमोहलोपोगरवायोसएककोसंहायवडीयो पविसति जाव अक्ग्वचग-अणुवसामगो ताव ।। २६७. एत्थ जई खीणदंस गमोहणीयो ति वयणमक्खीणदंसणमोहणीयम्मि विणटुंतरम्मि अंतोमुहुत्तादो उपरि पयारंतरसंभवपदप्पायणहूँ । अक्खवगाणुवसामगविसेसणं खगोवसामगपजाएण परिणदम्मि तम्मि पुणो वि अंतरकरणादिवसेण इगियीसपोसट्ठाणविणासो होइ ति जाणायणटुं । तदो उवसामणादो परिवदिदो खझ्यसम्माइट्ठी हेटा णिपदिय पमत्तापमत्तसंजद-संजदासजद-असंजदसम्माइद्विगुणहारणेसु जेत्तियं कालमच्छइ तेतियं कालमिगिवीसपवेसट्ठाणमविणई होदण पुणो खवगोवसमसेढिमारोहणे विणस्सदि ति एसो एदस्स भावत्थो । संपहि उवसंतदसणमोहणीयमस्सिऊण एत्तो हेटा अण्णाणि वि पवेसट्ठाणाणि समुप्पजंति ति जाणावेदुमुत्तरसुत्तपबंधमाह ॐ एक्स्स चेव कसायोवसामणादो परिवदमाणयस्स । २६८. एदस्स चेव कसायोवसामणादो परिवदमाण यस्स उवसंतदंसणमोहणीयस्स किं चि णाणत्तमस्थि तमिदाणि वृत्तहस्सामो ति एवं पदसंबंधो कायन्त्रो । जह २६६. नपुंसकवेदका अपकर्षण होने पर उसी समय अन्तरका विनाश होता है। पुनः तदनन्तर समयमें नपुंसकवेदके साथ इक्रीस प्रकृतियाँ उदयावलिमें प्रवेश करती हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * इसके आगे यदि वह क्षीणदर्शनमोहनीय है तो ये इक्कीस प्रकृतियाँ तब तक प्रवेश करती हैं जब तक वह अक्षपक और अनुपशामक रहता है। ६२६७. यहाँ पर बनीणदर्शनमोइनीयके अन्तरका नाश होने पर अन्तर्मुहूर्तके याद प्रकारान्तर सम्भव है इस बातका कथन करने के लिए 'यदि क्षीणदर्शनमोहनीय है। यह वचन दिया है। क्षपक और उपशामक पर्यायसे परिणत जस जीवके फिर भी अन्तरकरण आदिके शसे इकोस प्रकृत्तियोंका प्रवेशस्थान नष्ट होता है इस बातका शान करानेके लिए 'अक्षपक अनुपशामक' विशेषण दिया है। इसलिए उपशामनासे गिरा हुआ क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव नीचे गिर कर प्रमत्तसंयत्त, अप्रमत्तसंयत, संयतासंयत और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में जितने काल रहता है उतने कालतक इक्कीस प्रकृतियोंका प्रवेशस्थान नष्ट न होकर पुनः क्षपक श्रेणि और उपशमणि पर. श्रारोहण करने पर नष्ट होता है यह इस सूत्रका भावार्थ है। । अब उपशान्तदर्शनमोहनीय जीवका आश्रय कर इससे नीचे अन्य भी प्रवेशस्थान उत्पन्न होते हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए भागेके सूत्रप्रबन्धको कहने हैं * कषायोंकी उपशामनासे गिरनेवाले इसी जीवके । $ २६८. जिसने दर्शनमोहनीयका उपशामना की है ऐसे कषायोंकी उपशामनासे गिरमेवाले इसी जीवके कुछ विभिन्नता है उसे इस समय बतलावेंगे इसप्रकार इस विधिसे पदसम्बन्ध ... . ..... ........ .. .. .... ..... . ..... १६ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जय वला सहिदे कसाय पाहुडे [ वेदगो ७ fa एत्थ उवसंत दंसणमोहणीयस्ले ति सुत्ते ण वृत्तं तो षि पारिसेसियण्णाएण तदुवलंभो दुव्वो । * जावे अंतरं विनुं तत्तो पाए एकवीसं पयडीओ पविसंति जाव सम्मत्तमुदीरेंतो सम्मसमुदए देदि, सम्मामिच्छत्तं मिच्छ्रत्तं च श्रवलियबाहिरे fuक्विवदि । ताधे बावीस पगडीओ पावसंति । दुक्तविणामारीतरभव समुवलद्धसरूवरस इगिवीसपवेद्वास्स ताव अवद्वाणं होइ जाव उवसंतसम्मत्त कालच रिमसमयो ति । तत्तो परमु समसम्मत्तद्धावखरण सम्मत्तमुदीरेमागेण सम्पत्ते उदय दिए मिच्छत्त- सम्मामिच्छतेमु च आवलियबाहिरे णिक्खिते तक्काले बाचीसपवेसट्टणमुप्पत्ती जायदि चि । ण केवलं सम्मत्तमुदीरे मारणस्स एस कमो, किंतु मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं वा उदीरेमाणस्स वि देणेव कमेण बाबीसपचे सद्वागुध्यत्ती वचच्या, सुत्तस्सेद्स्स देसामासयत्तादो । * २७० संपहि तस्सेव विदियसमए अविक्खियदोदसरा मोहपय डिपवेसेण चवीसपत्रसङ्कागुप्यत्ती होदि ति परुवरणमाह करना चाहिए । यद्यपि यहाँ पर सूत्र में 'उपशान्तदर्शनमोहनीयके' यह वचन नहीं कहा है तो भी परिशेषन्याय से उसका सद्भाव जान लेना चाहिए । * जब अन्तर विनष्ट हो जाता है, वहाँ से लेकर इक्कीस प्रकृतियाँ तब तक प्रवे करती हैं जब तक सम्यक्त्वकी उदीरणा करके सम्यक्त्वको उदयमें देता है और सम्यग्मिथ्यात्व तथा मिध्यात्वको उदद्यावलिके बाहर निक्षेप करता है, तब बाईस प्रकृतियाँ प्रवेश करती हैं । $ २६८. तात्पर्य यह है कि अन्तरका विनाश होनेके बाद ही समुपलब्धस्वरूप इक्कीस प्रकृतिक प्रवेशस्थानका तब तक अत्रस्थान रहता है जब तक उपशमसम्यक्त्वके कालका अन्तिम समय प्राप्त होता है । श्रागे उपशमसम्यक्त्वके कालका नाश होनेसे सम्यक्त्वकी उदीरणा करते हुए सम्यक्त्वको उदयमें देनेपर तथा मिथ्यात्व और सम्यग्मिध्यात्वका आवलि के बाहर निक्षेप करने पर उस समय बाईस प्रकृतियोंके प्रवेशस्थानकी उत्पत्ति होती हैं। केवल सम्यक्त्यकी उदीरणा करनेवालेका ही यह क्रम नहीं है किन्तु मिध्यात्व और सम्यग्मिध्यात्वकी उदीरणा करनेवाले के भी इसी कमसे बाईस प्रकृतियोंके प्रवेशस्थानकी उत्पत्ति कहनी चाहिए, क्योंकि यह सूत्र देशामर्षक है । विशेषार्थ - उपशमसम्यग्दृष्टि जीव अपने कालको समाप्त कर वेदकसम्यग्दृष्टि, मिध्यादृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि इनमें से कोई भी हो सकता है। जब जो होगा तब उस गुणस्थानके अनुरूप मिथ्यात्व श्रादि तीन मेंसे किसी एक प्रकृति की उदीरणा होगी और अन्य दोका उदयावलिके बाहर निक्षेप होगा। यहाँ दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियों में से सम्यक्त्व की अपेक्षा यह कथन किया है। ०२७० अब उसी जीवके दूसरे समय में अविवक्षित दर्शनमोहनीयकी दो प्रकृतियों का प्रवेश होनेसे चौबीस प्रकृतियोंके प्रवेशस्थानकी उत्पत्ति होती है इस बातका कथन करनेके लिए कहते हैं Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयविउदीरणाए ठारणसमुक्ति पय डिपियो श्री सुविधिसागर जी महाराज _१२३ * से काले चडवीसं पयडीओ पविसंति । २७१. सुगमं । जइ वि पुव्यमसंजदपाओग्गद्वाणपरूवणाए इगिवीस-बावीसचउदीसपवेसडाणाणं समुचिणा कया तेरा उवसामगपडिवादसंबंधेण पुणो वि पयारंतरेणदेसिवण्णासो कति स पुरुरादोसो । * जइ सो फसायउवसामणादो परिवदिदो दंस मोहोय उवसंत डाए अचरिमेसु समएस आसाणं गच्छ तदो आसाएगमपादो से काले पशुवीसं पडीओ पविसंति । १२७२. एस्स स्सत्थो तुच्च दे - कलायोवसामणादो परिवदिदस्स दसरामोहणीयञ्चसंता तोमुहुत्ती सेसा अस्थि तिस्से बावलियावसेसाए प्पहूडि जाव तदद्धाचरिमसमयोचिताव सासरणगुणेण परिणामेतुं संभवो । तत्थ चरिमसमए सासणभावं परिणममाणस्स अण्णा परूवणा भविस्सदित्ति तं मोत्तूण दृचरिमादिहेड्डिमसमएस हेट्ठिमभावं पडिवमाणस्स ताव पवेसडाणगवे सखमेदेण सुरेख कीरदे | तं जहा -- कमायो सामणादो परिवदिदो उवसंतदंसणमोहणीयो दंसणमोइउत्रसंतद्धाए दुरिमा दिहे कि मममएस जड़ श्रसारणं गच्छछ तदो तस्स सासणभावं पडवण्णस्स पढमसमए प्रावीण मरणद्रस्स पत्रेसेण बावीसपवेसङ्कारणं होई । कुदो तत्थारणं * तदनन्तर समय में चौबीस प्रकृतियाँ प्रवेश करती हैं १२७१. यह सूत्र सुगम है । यद्यपि पहले असंयत जीवोंके योग्य स्थानोंकी प्ररूपणा करते समय इक्कीस बाईस और चौबीस प्रकृतिक प्रवेशस्थानोंकी समुत्कीर्तना कर आये हैं तो भी उपशामक जीवके प्रतिपातके सम्बन्धसे फिर प्रकारान्तरसे इनका उपन्यास किया है, इसलिए पुनरुक्त दोष नहीं है । * यदि वह कपायोंकी उपशामना से गिरता हुआ दर्शन मोहनीय के उपशामनाकालके अचरम ( चरम समय से पूर्व ) समय में सासादन गुणस्थानको प्राप्त होता है तो उसके सासादन गुणस्थान में जानेके एक समय बाद पच्चीस प्रकृतियां प्रवेश करती हैं । $ २७२. इस सूत्रका अर्थ कहते हैं - कपायोपशामनासे गिरे हुए जीवके दर्शन मोहनीयके उपशमनाका काल अन्तमुहूर्त शेष बचता है । उसमेंसे जब छह आवलि काल शेष रहे वहाँसे लेकर उपशामना कालके अन्तिम समय तक सासादन गुणरूप से परिणामन करना सम्भव है । उसमें से अन्तिम समय में सासादनभावको प्राप्त होनेवाले जीवकी अन्य प्ररूपणा होगी, इसलिए उसे छोड़कर द्विवरम आदि श्रवस्तन समयोंमें अस्तन भावको प्राप्त होनेवाले जीवके सर्व प्रथम प्रवेशस्थानकी गवेषण। इस सूत्र द्वारा करते हैं । यया--कपायोपशामनासे गिरता हुआ उपशान्त दर्शनमोहनीय जीव दर्शनमोहके उपशमना के कालके अन्तर्गत द्विवरम आदि अवस्तन समयों में यदि सासादनगुणस्थानको प्राप्त होता है तो सासादनभावको प्राप्त होनेवाले उसके प्रथम समयमें अनन्तानुबन्धियों में से किसी एक प्रकृतिका प्रवेश होनेसे बाईस प्रकृतियोंका प्रवेशस्थान होता है। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मी सविधिसागर जी १२४ जयधवलासहिदे कसायपाछुडे [बेगो ताणुबंधीणमण्णदरपवेसरिणयमो ? ण, सासणगुणस्स तदुयाविणाभाविचादो । कधं पुन्बमसंतस्साणताणुबंधिकसायत्स तत्धुदयसंभवो ? ण, परिणामपाहम्मेण सेसकसायदव्यस्स तकालमेव तदायारेण परिणामिय उद्यदसणादो। तदो आसाणगमणादो से काले पणुवीसं पयडीओ षविसंति । किं कारणं १ उदयावालियबाहिरदिदति विहाणंताणुबंधीणं तम्मि समए उदयविलियम्मतरपवसदसैणादो। * जाधे मिच्छत्तमुदोरेदि ताधे छब्बीसं पयडीओ पविसंति | २७३. कमेए। तेणेव मिच्छत्ते उदीरिजमाणे मिच्छरेण सह छब्बीसं पयडीणमुदयावलियपवेसस्स परिप्फुडमुवलंभादो । णवरि पढमसमयमिच्छाइट्टी मिच्छत्तमुदीरेमाणो दसणतियमोकडिजण मिच्छचमुदयादि णिक्खिवदि । सम्मनसम्मामिच्छचाणि उदयावलियबाहिरे णिक्खियदि ति घेत्तव्यं । अदो चेव से काले तेसिमुदयावलियएनेसो अवस्संभावि ति पदुप्पायणट्ठमाह * तदो से काले महावीसं पयडीओ पविसंति । : २७४. गयस्थमेदं सुर्च | एवं ताव दुचरिमादिसमएसु सासणभावं पडिवा• मायास्स जहाकम चाबीस-पणुवीस-छब्बीस-अट्ठावीसपवेसहाराणि होति ति समुक्कित्तिय शंका--वहाँ अनन्तानुबन्धियोंकी किसी एक प्रकृतिके प्रवेशका नियम क्यों है ? समाधान--नहीं, क्योंकि सासादनगुण उसके उदयका अविनाभावी है। शंका-पूर्वमें सत्तासे रहित अनन्तानुबन्धीकषायका वहां पर उदय कैसे सम्भव है ? समाधान नहीं, क्योंकि परिणामोंके माहात्म्यवश शेष कषायोंका द्रव्य उसी समय उस रूपसे परिणमकर उसका उदय देखा जाता है। इसलिए सासादनमें जानेके बाद अनन्तर समय पच्चीस प्रकृतियां प्रवेश करती हैं, क्योंकि उदयावलिके बाहर स्थित सीन प्रकारकी अनन्तानुबन्धियोंका उस समयमें उदयावलिके भीतर प्रवेश देखा जाता है। _*जिम समय मिथ्यात्वकी उदीरणा करता है उस समय छब्बीस प्रकृति प्रवेश करती हैं। ६२७३. क्योंकि उसी जीवके द्वारा क्रमसे मिथ्यात्वकी उदीरणा करने पर मिथ्यात्यके साथ छब्बीस प्रकृतियोंका उदयावलिमें प्रवेश स्पष्ट उपलब्ध होता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रथम सम्यवर्ती मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्त्रको उदीरणा करता हुश्रा तीन दर्शनमोहनीयका अपकर्षण कर मिथ्यात्वका उदय समयसे लेकर निक्षेप करता है तथा सम्यक्त्व और सम्य. ग्मिथ्यात्वका उदयावलिके बाहर निक्षेप करता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए । और इसी लिए तदनन्तर समयमें उनका उदयावलिमें प्रवेश अवश्यंभावी है इस बातका कथन करने के लिए कहते हैं * इसके बाद तदनन्तर समय में अट्ठाईस प्रकृतियाँ प्रवेश करती है। ६२७४. यह सूत्र गतार्थ है। इस प्रकार सर्व प्रथम द्विचरम आदि समयों में सासादनभावको प्राप्त होनेवाले जीवके क्रमसे बाईस, पच्चीस, छब्बीस और अट्ठाईस प्रकृतियोंके प्रवेश Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . गा० ६२ ] उत्तरप डिउदीरगाए ठा समुसिरा पर्याडिदि सो च सिमोन १२५ परिवज्रमाणस्स किंचि खाचमस्थि तितप्पदुष्पायामाह - * सो कसायउवसामणादो परिवदिदां दंसणमोहणीयस्स उवसंताए श्ररिमसमए आसाणं गच्छड़ से काले मिच्छ्रत्त मोकडुमाणयस्स छब्बीसं पयडीओ पविसंनि । - २७५ श्रह जर सो वेध कसायउचसामणादो परिवदिदो उबसमसम्मत द्धाचरिमसमए सासणणं पडिवजड़ तो तस्स तम्मि समय पुव्युतेोब कमेण चावीसपवेसद्वाणं होण से काले मिच्छामो कड्डमाणस्स पगुवीस पवेसट्टा महोदृण मिच्छत्ते सह तिण्डमणंतावंधीणमक मपवेसेण दव्वीसं पयडीओ उदयावलियं पविसंति नि एसो एत्थतो विसेसो । * तदो से काले अठ्ठावीस पगडीओ पविसंति । २७६. सुगममेदं । * एदे वियप्पा कसाययसामणादो परिवदमा रागादी । : २७७. ए अनंतरखिदिट्ठा विषप्पा कसायोवसामखादो परिमाणमस्तिऊण परूविदा ति पयदत्यो वसंहारवकमेदं । णवरि अण्णे वि वियप्पा एत्थ संभवति तेसि स्थान होते हैं ऐसी समुत्कीर्तना करके अब दर्शनमोहके उपशान्तकालके अन्तिम समय में सम्पादन गुणको प्राप्त होनेवाले जीवके कुछ भेद है इस बातका ज्ञान करानेके लिए कहते हैं— * यदि वह कषायोपशामनासे गिरता हुआ दर्शनमोहनीय के उपशामनके कालके अन्तिम समय में सासादन गुणस्थानको प्राप्त होता है तो तदनन्तर समय में मिथ्यात्व का अपकर्षण करनेवाले उसके छब्बीस प्रकृतियाँ प्रवेश करती हैं। २७५ यदि Est जब कषायोपशामना से गिरता हुआ उपशमसम्यक् के काल के अन्तिम समय में सासादनगुणको प्राप्त होता है तो उसके उस समय में पूर्वोक्त क्रमसे ही बाईस प्रकृतियों का प्रवेशस्थान होकर अनन्तर समय में मिथ्यात्वका अपकर्षण करते हुए पच्चीस प्रकृतिका प्रवेशस्थान न होकर मिथ्यात्वके साथ तीन अनन्तानुबन्धियों का युगपत् प्रवेश होनेके कारण छब्बीस प्रकृतियाँ उद्यावलिमें प्रवेश करती हैं यह यहाँ पर विशेष है । * इसके बाद तदनन्तर समयमें अट्ठाईस प्रकृतियाँ प्रवेश करती हैं । ३ २७६. यह सूत्र सुगम हैं । विशेषार्थ — इस मिध्यादृष्टि जीवके प्रथम समय में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अपकर्षण होकर उदयावलिके बाहर निक्षेप होता है और दूसरे समय में उन सहित हाईस प्रकृतियाँ उदद्यावलिमें प्रवेश करती हैं यह इस सूत्रका भाव है । * ये विकल्प कषायोपशामनासे गिरनेवाले जीवकी अपेक्षा होते हैं । $ २७०. ये पूर्व में कहे गये विकल्प कषायोपशामनासे गिरनेवाले जीवका आश्रय लेकर कहे गये हैं इस प्रकार यह प्रकृत अर्थका उपसंहार वचन है। किन्तु इतनी विशेषता है कि Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जयधवलासहिदे फसायपाहुडे [वेदगो परूवणं कस्सामो । तं जहा---उवसामणादो परिवदमागो तिविहं लोभमोकड्डिय तिरह पवेसगो होदूण विदो कालं कादण देवेसुप्पएणो तस्स पढमसमए पुरिसवेद-हस्स-रदीओ धुवा होदृण भय-दुगुंछाहिं सह अट्ठ पयडीअो पविसंति | तहा छप्पवेसगरण कार्ल कादृण देवेसुप्पण्णपढमसमए बट्टमाणएण पुन्यं व पुरिसवेद-हस्स-रदि-भय दुगुबासु अक्कमेण पोसिदासु एक्कारमपवेसद्वाणमुप्पञ्जदि । पुणो णच पोसगस्स काल मागमरिक देवेसुपरहिननासप्रतिलिठ्ठिपंचपयडीमु पचिट्ठासु चोइस पसट्टाणं होइ । नहा तिविहं कोहमोकड्डियूण द्विदवारसपबेसगेण कालं कादण देवेसुप्पण्णपढमसमए भय-दुगुयाहि विणा हस्स-रदि-पुरिसवेदेसु पर्वसिदेसु पण्णारस पवंसट्ठाणं होई । तेणेव बारसपवेसगेण कालं करिय देवेसुप्पण्णपढमसमए हस्स-रदि-पुरिसवेदसु भय-दुगुछाणमएणदरेण सह पवेसिदेसु सोलसपवेसठ्ठाणमुप्पजदि । अथ तेणेक बारसरहमुबरि पुरिसवेद-हस्स-रदि-भय-दुगुका ति एदारो पंच पयडीओ जुगचं पवेसिदाओ तो तस्स पढमसमयदेवस्स सत्तारसपवेसट्ठाणं होइ । एवमेदाणि अठेक्कारस-चोद्दस-परणारस सोलस-सत्तारसपर्वमट्टाणाणि देवेसुप्पण्णपढमसमए येव लम्भंति । पदाणि च सुत्तयारेण ण परूविदाणि, सत्थाणसमुक्त्तिणाए चेव सुत्ते विवक्खियत्तादो। एत्तो खवगायो मग्गियव्या कदि पवेसाणाणि त्ति । यहाँ पर अन्य विकल्प भी सम्भव हैं, अनः उनका कथन करते हैं। यथा-उपशामनासे गिरनेवाला जो जीव तीन प्रकारके लोभका अपकर्षण करके तीनका प्रवेशक होकर स्थित है वह । मरकर देवाम उत्पन्न हुआ, उसके प्रथम समयमें पुरुषवेद, हास्य और रति ध्रुव होकर भय और जुगुप्साक साथ आठ प्रकृतियाँ प्रवेश करती हैं। तथा छह, प्रकृतियोंके प्रवेशके साथ मरकर देवा में उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें विद्यमान जीवके द्वारा पूर्ववत् पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्साका युगपन प्रवेश कराने पर ग्यारह प्रकृतियोंका प्रवेशस्थान उत्पन्न होता है । पुन: नौ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीवके मरकर देवोंमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें पूर्वमें कहीं गई पाँच प्रकृतियों का प्रवेश होने पर चौदह प्रकृनियोंका प्रवेशस्थान होता है। तथा तीन प्रकारके क्रोधका अपकर्षण कर बारह प्रकृतियों के प्रवेशक हुए जीवके द्वारा मरकर देवोंमें उत्पन्न होनेपर भय और जुगुप्साके बिना हास्य, रति और पुरुषवेदका प्रवेश होनेपर पन्द्रह प्रकृतियोंका प्रवेशस्थान होता है। उसी बारह प्रकृतियों के प्रवेशक जीवके द्वारा मरकर देवोंमें उत्पन्न होने के प्रथम समयमें भय और जुगुप्सामसे किसी एकके साथ हास्य, रति और पुरुषवेदके प्रवेश करने पर सोलह प्रकृतियों का प्रवेशस्थान उत्पन्न होता है। और यदि उसी जीवने बारह प्रकृत्तियों के ऊपर पुरुषवेद, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इन पाँच प्रकृतियांका एकसाथ प्रवेश कराया तो उस प्रथम समयवर्ती देवके सत्रह प्रकृतियों का प्रवेशस्थान होता है। इस प्रकार ये आठ, ग्यारह, चौदह, पन्द्रह, सोलह और सत्रह प्रकृतियों के प्रवेशस्थान देवा में उत्पन्न होनेके प्रथम समयमै ही प्राप्त होते हैं। किन्तु ये सूत्रकारने नहीं कहे हैं, क्योंकि सूत्र में स्वस्थान समुत्कीर्तनाकी ही विवक्षा रही है। * आगे क्षपकके आश्रयसे कितने प्रवेशस्थान होते हैं इसकी मार्गणा करनी चाहिए। NARA. . .. . .. . ... .. . Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ गा० ६२ ] उत्तरपडिउदीरणाए ठाण समुत्तिणा पर्यादिशिद्द सो च १२७८. उपसागपात्रोग्गपवेसद्वारा परूवणाणंतर मेत्तो खबगादो पर्वसङ्काणसमुक्कित्तणा श्रणुमरिंगच्या कदि तत्थ पसद्वाणाणि होंति ति जाणावणहूं- तं जहा । * दंसणमोहणीए विदे एक्कावीस पगडीओ पविसंति । २७९. जहवि एसो श्रत्थो पुब्वमसंजदपाश्रग्गद्वाणपरूवणावसरे परुविदो तो वि ण पुणरुत्तदोसो, पुच्छुत्तस्सेवत्थस्सावादं काढूण एत्तो अव्वत्थषरूवणं कस्सामोति जाणाचण मेदस्स सुत्तस्सावयारादो | * अफसाएसु खविदेसु तेरा अफिसमा (सुविधिसागर जी महाराज २८० पु०त गिवीसपचेसगेण खत्रगसेढिमारूढे अरियद्विगुणद्वाणं पविसिकसासु खविदेसु तत्तो पहुडि जाव अंतरकरणं ण समप्पइ ताच चदुसंजलग्ण-रणवणोकसायसण्णिदाओ तेरस पयडीओ तस्स खवगस्स उदयावलियं पविसंति त्ति समुक्किचिदं होड़ | अंतरे को दो पयडीओ पविसंति | $ २८१. तं जहा – अंतरं करेमाणो पुरिसवेद- कोहसंजलणाणमंतोमुत्तमेति पढमट्टिदि ठवेदि । सेयकसाय णोकसायाणमुदयाव लियवज्जं सव्वमंतरमागाएदि । एवमंतरं करेमाणेण जाधे अंतरं समाणिदं ताघे पुरिसवेद को संजलणाणमंतो मुहुत्तमेती २०८. उपशामकके योग्य प्रवेशस्थानोंकी प्ररूपणा करनेके बाद भागे क्षपकके श्राश्रयसं वहाँ कितने प्रवेशस्थान होते हैं इसका ज्ञान करानेके लिए प्रवेशस्थान समुत्कीर्तनाका विचार करना चाहिए । * यथा * दर्शनमोहनीयका क्षय होनेपर इक्कीस प्रकृतियाँ प्रवेश करती हैं । २७६. यद्यपि यह अर्थ पहले असंयत प्रायोग्य स्थानोंके कथन के समय कह आये हैं तो भी पुनरुक दोष नहीं है, क्योंकि पूर्वोक्तः श्रथका ही अनुवाद करके आगे अपूर्व अर्थका कथन करेंगे इस बातका ज्ञान करानेके लिए इस सूत्रका अवतार हुआ है। * आठ कषायों का क्षय होनेपर तेरह प्रकृतियाँ प्रवेश करती हैं। ८०. क्षपकभे पर चढ़े हुए पूर्वोक्त इक्कीस प्रकृतियोंके प्रवेशक जीवके द्वारा अनिवृत्तिगुणस्थान में प्रवेश करके आठ कपायोंका क्षय कर देने पर वहाँसे लेकर जब तक अन्तरकरण समाप्त नहीं होना है तब तक चार संज्वलन और नौ नोकपाय संज्ञावाली तेरह प्रकृतियाँ उस क्षपकके उदद्यावलिमें प्रवेश करती है यह इस सूत्र द्वारा कहा गया है। * अन्तर करनेपर दो प्रकृतियाँ प्रवेश करती हैं। ६२८१. यथा -- अन्तर करनेवाला क्षपक जीव पुरुषवेद और क्रोधसंज्वलनकी अन्तमुहूर्तमात्र प्रथम स्थिति स्थापित करता है। शेष कपायों और नोकषायोंकी उदद्यावलिको छोड़कर शेष सब स्थिति अन्तरको प्राप्त हो जाती है। इस प्रकार अन्तरको करनेवाला जब अन्तरको Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे । येहगो पढमहिदी चिट्ठदि, सेसाणमेकारसपयडीणमुदयावलियम्भंतरे समयूणावलियमेनागोयुच्छा सेसा । पुणो तेसु अहिदीए गिरवसेसं गालिदसु ताधे दो चेच पयडीओ उदयावलियं पविसंति, पुरिसवेद-कोहसंजलणे मोक्षणण्णेसिं पढमद्विदीए असंभवादो । पुरिसघेदे खविदे एका पयडी पविसदि। 5 २८२. तेणेच दोण्हं पवेसगेण खवगेण जहाकम णबुस-इथिवेदे खविय तत्तो 4 अंतोमुह गंतूण पुरिसवेदपढमद्विदिचरिमसमए छण्णोकसाएहिं सह पुरिसवेदचिराणसंतकम्मे खविदे तदो पहुडि एका चेव पयडी पक्सिदि, तत्थ कोहसंजलणं मोत्तण अण्णेसिं पढमहिदीए अणुचलंभादो। णरि पढमे द्विदीए सह पुरिसवेदचिराणसंतकम्मे खविदे पुरिसवेदो खरिदो चेवे त्ति सुने विवक्खियं; बिदियविदिसमबढिदणवकबंधस्स पहाणत्ताभावादो। एसो अत्यो उरिमसुत्तेसु वि वक्ताणेयन्चो । * कोधे खविदे माणो पविसदि। माणे खरिदे माया पविसदि। मायाए स्वविवाए लोभो पषिसदि । लोभे स्वपिदे अपवेसगो। ६२८३. पदाणि सुत्ताणि सुगमाणिं । णवरि कोहपढमहिदीए प्रावलियमेत~~~... मादिर्शक आचार्यश्री तुविधिसागर जी हाससमाप्त करता है तब पुरुषवेद और क्रोधसंज्वलनको अन्तर्मुहर्त मात्र प्रथम स्थिति स्थित रहती है, शेप ग्यारह प्रकृतियोंकी एक समय कम भावलि भात्र गोपुरला शेष रहती है। पुनः अधःस्थितिके द्वारा उनको पूरी तरहसे गला देनेपर तब दो प्रकृतियाँ ही उदयालिमें प्रवेश करती हैं, क्योंकि पुरुषवेद और क्रोधसंज्वलनको छोड़कर अन्य प्रकृतियोंकी प्रथम स्थिति वहाँ सम्भव नहीं है। * पुरुपवेदका क्षय होनेपर एक प्रकृति प्रवेश करती है । २८२. दो प्रकृतियोंके प्रवेशक उसी चपक जीवके द्वारा क्रमसे नपुसकवेद और स्त्रीवेदका क्षय करके उसके बाद अन्तर्मुहूत जाकर पुरुषवेदकी प्रथम स्थिति के अन्तिम समयमें छह नोकषायोंके साथ पुरुषवेदके प्राचीन सत्कर्मका क्षय कर देने पर उनके भागे एक प्रकृति ही प्रवेश करती है, क्योंकि वहाँ पर क्रोधसंज्जलनको छोड़कर अन्य प्रकृतियों की प्रथन स्थिति नहीं पाई जाती। किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रथम स्थितिके साथ पुरुषवेदके प्राचीन सत्कर्मका तय होनेपर पुरुषवेदका क्षय कर ही दिया यह सूत्र में विवक्षित है, क्योंकि द्वितीय स्थिति में अवस्थित नश्कबन्धकी प्रधानता नहीं है यह अर्थ प्रागेके सूत्रोंमें भी कहना चाहिए । * क्रोधका क्षय करने पर मान प्रवेश करता है। * मानका क्षय करने पर माया प्रवेश करती है । * मायाका क्षय करने पर लोभ प्रवेश करता है। * लोभका क्षय करने पर अप्रवेशक होता है। F२८३. ये सूत्र सुगम हैं। किन्तु इसनी विशेषता है कि क्रोधसंचलनको प्रथम स्थिति Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२] उत्तरपयडिउदीरणाए ठाणसमुकित्तणा पयडिणि सो च १२६ सेसाए माणसंजलणमोकड्डिय पढमहिदि करेदि । तत्थुच्लिट्ठावलियमेत्तकालं दोण्हं पवेसगो होदृण तदो एकिस्से पवेसगो होदि त्ति घेत्तव्यं । एवं सेससंजलणेसु वि वत्तव्यं । लोभे खविदे पुण ण किंचि कम्म पविसदि, विवक्खियमोहणीयकम्मरस तत्तो परमसंभवादो। एवमेकिस्से पवेसट्ठाणस्स चत्तारि भंगा। दोएहं पवेसगस्स पण्णारस भंगाणससणि पि पवाणिजिहासमय भगदमाणाणुगमो कायव्यो । एवमोघेण हाणसमुकित्तणा समत्ता २८४. संपहि एत्थे। णिपणयजणणगुमादेसपरूवणमुच्चारणं वत्तहस्सामो। तं जहा-समुक्तित्तणाणु, दुविहो णि-प्रोघे० प्रादेसे० । अोषेण अस्थि २८, २७, २६, २५, २४, २३, २२, २१, २०, १९, १३, १२, १०, ९, ७, ६, ४, ३, २, १ पवेसगो त्ति । एवं मणुसतिए। आदेसेण ऐरइयः अस्थि २८, २७, २६, २५, २४, २२, २१ पवेसः । एवं सब्बणेरइय-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खतिय-देवा भवणादि जाव णवगेवज्जा त्ति । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज.-मणुसअपज. अस्थि २८, २७, २६ पवेसगा। अपहिमादि सबढा त्ति अस्थि २८, २४, २२, २१ पवेसगा । एवं जाव । आपलिमात्र शेष रहने पर मानसंज्वलनका अपकर्षण कर प्रथम स्थिति करता है। यहाँ पर उच्छिष्टावलिमात्र काल तक दोनोंका प्रवेशक होकर अनन्तर एकका प्रवेशक होता है ऐसा यहाँ पर ग्रहण करना चाहिए। इसी प्रकार शेष संज्वलनों में भी कहना चाहिए । परन्तु नोभका क्षय होने पर कोई कर्म प्रवेश नहीं करता, क्योंकि विवक्षित मोहकर्म उसके आगे नहीं है। इस प्रकार एक प्रकृति के प्रवेशस्थानके चार भंग हैं। दो प्रकृतियोंके प्रवेशस्थानके पन्द्रह भंग है। शेष प्रवेशस्थानों के भी भंगोंके प्रमाणका अनुगम करना चाहिए। इस प्रकार ओघसे स्थानसमुत्कीतना समाप्त हुई। . २८४. अब यहीं पर निर्णय उत्पन्न करनेके अभिप्रायसे आदेश प्ररूपणा करने के लिए उच्चारणाको बतलाते हैं। यथा-समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है ओघ और आदेश। ओघसे २८, २५, २६, २५, २४, २३, २२, २१, २०, १६, १३, १२, १०, ६, ७,६, ४, ३, २ और १ इन प्रकृतिस्थानोंके प्रवेशक जीव हैं। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। प्रादेशसे नारकियोंमें २८, २५, २६, २५, २४, २२ और २१ प्रकृतिस्थानोंके प्रवेशक जीव हैं । इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यब्ध, पनवेन्द्रिय तिर्यचत्रिक, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर नौ वेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय सिर्यन अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें २८, २७ और २६ प्रकृतिस्थानोंके प्रवेशक जीव हैं। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें २८, २४, २२ मौर २१ प्रकृतिस्थानोंके प्रवेशक जीव हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गग्णातक जानना चाहिए। विशेषार्थ—कषायोपशामनासे व्युत होनेपर चूणिसूत्रोंमें जिन प्रवेशस्थानोंका निर्देश किया है अन्य स्थानोंके साथ वे ही यहाँ ओवप्ररूपणामें परिगणित किये गये हैं। कषायोपशामनासे ध्युत हुए जीवकी अपेक्षा जो अन्य प्रकारसे ८, ११, १४, १५, ५६ और १७ प्रकृतिक प्रवेशस्थान जयधवला टीकामें पतलाये हैं उन्हें यहाँ परिगणित नहीं किया है। शेष कथन सुगम है। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयला सहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ ३२८४. सादि० - अय्यादि० ध्रुव ० श्रद्धवाणु० दुविहो शि० - ० आदेसे ० | ओघेण लब्बीसंपवे० किं सादि० ४ १ सादि० प्रणादि० धुव० अधुवा वा । सेसहाखाणि सादि - अधुवास खाणाणि सादि श्रधुवाणि । एवं जावार्गदर्शक आचार्य श्री देसी १३० * एवममाणिय सामित्तं वच्वं । ९२८६ एवमणंतरपविदं समुत्तियागममणुमाणिय णिबंधरणं काढूण सामित्तं दव्वं । कुदो ? इमाणि हाणाणि असंजदपायोश्गाणि इमाणि च संजदपाओग्णाणि तत्थ वि असंजदपाओगे इमाणि सम्माइडिया प्रोग्गाणि इमाणि च मिच्दाइट्ठिपाओग्गाणि संजदपाओगेसु वि एदाणि उचसामगपाओग्गाणि एदाणि च खगपाओग्गाणि त्ति एवंविहविसेसस्स समुत्तिणाए सवित्थरमुवणिबद्धत्तादो । संपहिएदेश सुतेण समप्पिदत्यस्स परूवणमुचारणाबलेख वचसामो । तं जहादुविहो शि० - - श्रघे० आदेसे० । श्रघेण २८, २६, २४, २२ पवेसाणाणि कस्स ? अण्णद० सम्माइट्टि० मिच्छाइट्टि० सम्मामिच्छा ३२८७. सामना २८. सादि, अनादि, ध्रुव और अघुत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । श्रघसे २६ प्रकृतियों के प्रवेशक जीव क्या सादि हैं, क्या अनादि हैं, क्या ध्रुव हैं. या क्या अध्रुव हैं ? सादि, अनादि, ध्रुव और अधुत्र हैं। शेष स्थान सादि और अध्रुव हैं । आदेश से सब गतियों में सब स्थान सादि और अघुष हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ – २६ प्रकृतिक प्रवेशस्थान जीवोंके अनादि कालसे तब तक पाया जाता है जब तक प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं होती, इसलिए तो यह अनादि है। उसके बाद पुन: इसकी प्राप्ति सम्यवत्वसे च्युत हुए मिध्यादृष्टिके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की उद्वेलना होने पर ही होती है, इसलिए वह सादि है । तथा अभव्योंके वह ध्रुव है और भव्यों के अध्रुव है । इस प्रकार २६ प्रकृतिक प्रवेशस्थान सादि आदिके भेदसे चारों प्रकारका बन जाता है । किन्तु शेष स्थानों की प्राप्ति जीवों के गुणस्थान प्रतिपक्ष होनेके बाद ही बनती है, इसलिए वे सादि और ध्रुव हैं। गतिसम्बन्धी सन मार्गणा कादाचित्क हैं, इसलिए उनमें सब स्थान सादि अभुव हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है । और * इस प्रकार अनुमान कर स्वामित्वको जान लेना चाहिए । ९ २८६. इस प्रकार पूर्व में कही गई समुत्कीर्तनाको अनुमान कर अर्थात् उसे हेतु बनाकर स्वामित्वको जान लेना चाहिए, क्योंकि ये स्थान असंयत्तप्रायोग्य हैं और ये स्थान संयत प्रायोग्य हैं। उसमें भी असंप्रायोग्य स्थानों में ये सम्यग्दृष्टिप्रायोग्य हैं और ये मिध्यादृष्टिप्रायोग्य हैं। संयतप्रायोग्यों में भी ये उपशामकप्रायोग्य हैं और ये क्षपकप्रायोग्य हैं इस प्रकारकी जो विशेषता है उसको विस्तार के साथ समुत्कीर्तनामें उपनिबद्ध कर दिया है। अब इस सूत्रके द्वारा सूचित होनेवाले अर्थका कथन उच्चारणा के बलसे करते हैं। यथा- ८७. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- ओष और आवेश | मोघसे २८, २६, ०४ और २२ प्रकृतिक प्रवेशस्थान किसके होते हैं ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि, मिध्यादृष्टि Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिउदीरणाए ठाणाणं एयजीवेण काला इडि० । णवरि बावीसदसिणसम्मासि विस्थिगा इस परिसर कस्स ? अण्णद. मिच्छाइद्विस्म । २५ पवेस० कस्स ? अण्णद० सम्माइट्टि सासणसम्मा० } तेवीस. इगिवीसप्पहाडि जाव एकिस्से पवेस० कस्स ? अण्णद० सम्माइट्टि । एवं मपुसतिए | आदेसेण ऐरइय० २८, २७, २६, २५, २४, २२, २१ ओयं । एवं मन्त्रणेरड्य-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खतिय-देवा भवणादि जाव गवगेवजा ति । पंचिंदियतिरिक्खअपज-मणुसम्मपन्न०-अणुदिसादि सबट्टा ति सबढाणाणि कस्स ? अण्णद० । एवं जाव० । 9 एयजीवेण कालो। २८८. अहियारसंभालणवक्कमेदं । तस्स दुविहो णिहसो मोघादेसभेदेण । तत्थोधपरूवणट्ठमाह * एक्किस्से दोगह तिपहं छपहं गवाहं धारसरह तेरसएहं एगूणवीसराह बोसराहं पयडोणं पवेसगो केवचिरं कालादो होइ ? २८९. सुगर्म । * जहएण्ण एयसमओ। । २९०, तं जहा- एकिस्से पवे० ताव वुच्चदे । उवसमसेढीदो ओदरमाणगो और सम्यग्मिध्यादृष्टिके हते हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि बाईसप्रकृतिक प्रवेशस्थान सासादनसम्यग्दष्टिके भी होता है। २७ प्रकृतिक प्रवेशस्थान किसके होता है ? अन्यनर मिथ्याष्ट्रिक होता है। २५ प्रकृतिक प्रवेशस्थान किसके होता है ? अन्यतर सम्यग्हष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टिके होता है। २३ और २१ से लेकर १ प्रकृतिक प्रवेशस्थान तक सब स्थान किसके होते हैं ? अन्यतर सम्यग्दष्टिके होते हैं। इसी प्रकार ममुज्यत्रिकमें जानना चाहिए । आदेशसे नारकियों में २८, २५, २६, २५, २४, २२ और २१ प्रकृतिक प्रवेशस्थानीका स्वामित्व ओघके समान है। इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यच, पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिक, सामान्य देव और भवनवासियों से लेकर नौ ग्रेवेयकतकके देवों में जानना चाहिए। पझेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें यथासम्भव सन प्रवेशस्थान किसके होते हैं ? अन्यसरके होते हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। * एक जीवकी अपेक्षा कालका अधिकार है। २८. अधिकारकी सम्हाल करनेवाला यह वाक्य है। उसका निर्देश दो प्रकारका है--प्रोध और श्रादेश । उनमेंसे ओघका कथन करने के लिए कहते हैं * एक, दो, तीन, छह, नौ, बारह, तेरह, उनीस और बीम प्रकृतियोंके प्रवेशक जीवका कितना काल है। २८६, यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल एक समय है। $ २६०. यथा-सर्व प्रथम एक प्रकृतिके प्रवेशक का कहते हैं- उपशमश्रेणिसे उतरनेवाला Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ जयधषलासहिदे कसायपाहुडे [दगो लोहसंजलणमोकाडिय एगसमयमे किस्से पवेसगो होदण से काले तिराह पवेसगो जादो । अथवा उवसमसेडिं चढमाणगो पुरिसवेदपढमट्ठिदि गालिय एगसमय मेकिस्से पवेसगो होदूण से काले कालं कादण देवेसुप्पण्णो, लदो एयसमयमेत्तो एकिस्से पवेसगस्स जहएणकालो। ६२९१. संपहि दोण्हं पवेस० वुचदे । तं कथं ? उवसमसेटिं चढमाणो अंतरकरणं समाणिय तदो समयूणावलियमेत्तकालं बोलाविय दोण्हं पये जादो । से काले कालगदो देवेसुष्पञ्जिय पञ्जायंतरं गदो लदो दोएहं पवेस० जह० एयसमयो। एवं माण-माया-लोभेसु ओकड्डिदेसु चि ययदजहण्णकालसंभवो समयाविरोहणाणुगंतव्यो। २९२. तिण्डं पवेस० वुश्चदे-तिविहं लोभमोकड्डिय एयसमयं तिण्हं पवेसगो होदूण से काले कालगदो देवेसुप्पञ्जिय अण्णं पवेसहारणं पडिवएगो लद्धो एगसमयमेतो तिण्हं पवेसगस्स जहएणकालो । एवं लएहं पवेसगस्स वि जहण्णकालो परूवेयव्वो। परि तिविहं मायमोकड्डिय एगसमयं छण्हं पवेसगो होदूण कालगदो ति वत्तव्यं । एवं चेव णवण्हं बारसएह पि जहण्णकालपरूवणा कायया । णवरि जहाकम तिविहं माणं तिविहं च कोहमोकद्देऊण से काले कालगदो त्ति बत्तनं । एवं तेरसण्हं । णवरि पुरिसवेदमोकड्डिय एगसमयं तेरसपवेसगो होदूण से काले एगूणवीसपवेसहारण .... ... .. मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविहिमसागर जी महाराज. . . जीव लोभसंज्वलनका अपकर्पण कर एक प्रकृतिका प्रवेशक हो तदनन्तर समयमें तीन प्रकृतियों का प्रवेशक हो गया। अथवा उपशमणि पर चढ़नेवाला जीव पुरुषवेद की प्रथम स्थितिका " गलाकर एक समय तक एक प्रकृतिका प्रवेशक हो तदनन्तर समयमें मरकर देवाम उत्पन्न । हुआ । इस प्रकार एक प्रकृतिके प्रवेशक्का जघन्य काल एक समयमात्र प्राप्त हुआ। $२६१. अब रो प्रकृतियोंके प्रवेशकका जयन्य काल कहते हैं। वह कैसे ? उपशमश्रेणि पर चढ़नेवाला जीव अन्तरकरणको समाप्त कर अनन्तर एक समय कम एक श्रारलि कालको बिसाफर दो प्रकृतियोंका प्रवेशक हो गया । फिर तदनन्तर समयमें मरकर और देवोंमें उत्पन्न हो पर्यायान्तर ( स्थानान्तर ) को प्राप्त हुआ । इस प्रकार दो प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य काल एक समय प्राप्त हो गया। इसी प्रकार मान, माया और लोभका अपकीरण करने पर भी प्रकृप्त जघन्य कालका सम्भव समयके अविरोधपूर्वक जान लेना चाहिए। २६२. अब तीन प्रकृतियोंके प्रवेशकका कहते है--तीन लोभोंका अपकर्षण कर एक समय तक तीन प्रकृतियोंका प्रवेशक हो तथा मर कर देवा में उत्पन्न हो अन्य प्रवेशस्थानको प्राप्त हो गया । इस प्रकार सीन प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य काल एक समय प्राप्त हो गया । इसी प्रकार छह प्रकृतियों के प्रवेशकका भो जघन्य काल एक समय कड़ना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि तीन प्रकारकी मायाका अपकर्षण कर एक समय तक छह प्रकृतियों का प्रवेशक हो मरा ऐसा कहना चाहिए । तथा इसी प्रकार नौ और बारह प्रकृतियोंके प्रवेशकके भी जघन्य . कालका कथन करना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि क्रमसे तीन प्रकारके मान और सीन प्रकारके क्रोधका अपकर्षण कर तदनन्तर समयमें मरा ऐसा कहना चाहिए । इसी प्रकार तेरह प्रकृतियोंके प्रवेशकका भी जघन्य काल कहना चाहिए। किन्तु इसनी विशेषता है कि पुरुषवेदका अपकर्षण कर एक समय तक तेरह प्रकृतियों का प्रवेशफ हो तदनन्तर समयमें उन्नीस प्रकृतियों Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिउदीरणाए ठाणाणं एयजीवेण कालो पडिवएणो चि वसव्यं । एगूणवीस-वीसपवेसगाणं पि अप्पणो पयडीयो अोकड्डेऊण सक्काले चेव कालं कादण देवेसुप्पण्णो त्ति वत्तव्यं । 8 उकस्सेण अंतोमुटुत्तं । । २९३. तं जहा–एकिस्से पवे. ताच उच्चदे । इस्थिवेदलोहसंजलणाणमुदएण खवगसेटिं चढिदो अवगदवेदपढमसमयप्पडुडि जाव सुहुमसांपराइयचरिमसमयो त्ति ताव एक्किस्से पत्रेसगो होइ । एसो एकिससे पवेसगस्स उक्कस्सकालो । दोएहं पवेसगस्स वि खवगसेढीए चेत्र उकासकालो घेत्तव्यो, पुरिसवेदोदएश खवगसेढिमारूढस्स अंतरकरणं कादण समऊणावलियमेत्तकाले गदे तदो प्पहुडि जाब पुरिसवेदपढमद्विदिचरिमसमयो तात्र दोण्हं पवेसगत्तदंसरणादो | तिहं पवेसगस्स तिविहं लोभमोड्डिय हेट्ठा प्रोदग्माणगो उचसामगो जाव तिविहं मायं ण ओकहदि ताव एसो उकस्सकालो घेत्तव्यो । एवं सेसाणं पि वत्तव्यं । णवरि तेरसण्हं पवे० खबगसेढीए अट्ठकसाएसु सविदेसु जाव अंतरकरणं कादण दोराहे पचेसगो ण होइ ताव एसो कालो घेतव्यो । प्यदुराहं सत्तएहं दसराहं पयहीणं पवेसगो केवचिरं कालादो होइ ? . २९४. सुगम । मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविहिासागर जी महाराज जहणुकास्सण एयसमश्री। - के प्रवेशस्थानको प्राप्त हुआ ऐसा फहना चाहिए। उन्नीस और बीम प्रकृनियों के प्रवेशकोंके भी अपनी अपनी प्रकृतियोंका अपकर्णरण कर उसी समय मरकर दवाम उत्पन्न हो गया ऐसा करना चाहिए। * उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। २३. यथा-एक प्रकृतिके प्रवेशकका सर्व प्रथम कहते हैं जो जीव स्त्रीवेद और लोभसंज्वलमके उदयसे क्षपकणिपर चढ़ा है वह अपगतवेदके प्रथम समयसे लेकर सूक्ष्मसाम्यराय गुणस्थानके अन्तिम समय तक एक प्रकृतिका प्रवेशक होता है। यह एक प्रकृतिक प्रवेशकका उत्कृष्ट काल है। दो प्रकृतियों के प्रवेशकका भी उत्कृष्ट काल क्षपकौणिमें प्राप्त करना चाहिए, क्योंकि पुरुषवेदके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए जीवके अन्तरकरण करके एक समय कम एक श्रावलि मात्र काल जाने पर वहाँसे लेकर पुरुषवेदकी प्रथम स्थितिके अन्तिम समय तक दो प्रकृतियांका प्रवेश देखा जाता है। तीन प्रकारके लोभका अपकर्षण कर उतरता हुआ उपशामक जीत्र जब तक तीन प्रकारकी मायाका अपकर्षण नहीं करता तव सक सोम प्रतियोंके प्रवेशकका यह उत्कृष्ट काल होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। इसी प्रकार शेष प्रवेशस्थानोंका भी उत्कृष्ट काल कहना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि तेरह प्रकृतियोंके प्रवेशकके, क्षपकवेगिमें आठ कषायोंका क्षय कर जब तक अन्तरकरण कर दो - प्रकृतियोंका प्रवेशक नहीं होता तब तकका काल लेना चाहिए। * चार, सात और दस प्रकृतियों के प्रवेशकका कितना काल है ? 5 २६४. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। - -- - -- Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिने कसायपाहुडे [ वेदगो ७ * २९५ तं जहा - तिन्हं छण्हं णत्रन्तं पवेसगेण जड़ाकमं माय-माण कोहजलसुडिदे यदङ्काणाणमेय समयमेत्तो कालो होह, तत्तो उवरिमसमएस जहाकमं छण्हं णवण्हं बारसहं च नियमेण पवेसदंसणादो । * पंच अड-एक्कारस-घोदसादि जाव अट्ठारसा न्ति एवाणि सुराणहाणाणि । २९६. कुदो ? पंच/रसवेसाणाणं सव्वत्थ सव्वकालमवलंभादो | सेसाणं च सत्थाणविवक्खाए मार्भववलाक्षाय तदी प्रदास जहएणुकस्सकालपरिक्खा यत्थि त्ति एसो एत्थ भावत्थो । * एकवीसाए पयडीए पवेसगो केवचिरं कालादो होदि ? २९७. सुगमं । जहएष चंतासं । ३ २९८. तं कथं ? चउची सयवेसगेण वेदगसम्माइडिया दंसणमोहणीय खविय इगिवीपवेसगभावसुवगण सच्चजह तो मुद्दत्तमेन कालेन खवणाए अन्भुट्टिय अट्ठ कसा खविदेसु शिरुद्ध पवेसाणविणासेण तेरसपवेसहाय्यमुप्पज्जइ । यहवा उवसमसम्माद्विणो तारबंधिचक्कं विसंजोइय सव्वजहणंतोमुहुत्तमेत्तकालमिगिवीसपवेसगभावेच्द्रिय लावलियावसेसे सासणं पडिवज्जिय वाची सपवेसगत्तमुवगयस्स एसो १३४ : २६५. यथा -- तीन, छह और नौ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीवके द्वारा क्रमसे माया, मान और क्रोधसंज्वलन के अपकर्षित करने पर उसके प्रकृत स्थानोंका एक समयमात्र जघन्य काल होता है, क्योंकि उनसे उपरिम समय में क्रमसे छह, नौ और बारह प्रकृतियोंका नियमसे प्रवेश देखा जाता है । * पाँच, आठ, ग्यारह और चौदहसे लेकर अठारह प्रकृतियों तक के ये शून्यस्थान हैं । ९ २६६, क्योंकि पाँच और अठारह प्रकृतियोंके प्रवेशस्थान सर्वत्र सर्वदा उपलब्ध नहीं होते । तथा शेष स्थान स्वस्थान विवक्षा में सम्भव नहीं हैं । इसलिए इन स्थानोंके जघन्य और उत्कृष्ट कालकी परीक्षा नहीं है यह इस सूत्रका भावार्थ है 1 * इक्कीस प्रकृतियोंके प्रवेशकका कितना काल हैं ? २७. यह सूत्र सुगम है । * जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त है । २६८. वह कैसे ? क्योंकि चौषीस प्रकृतियोंका प्रवेशक कोई वेदकसम्यग्दृष्टि जीव दर्शनमोहनीयका क्षयकर इक्कोस प्रकृतियोंके प्रवेशकभावको प्राप्त हो सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा पखाके लिए उद्यत हो तथा आठ कषायका क्षयकर विवक्षित प्रवेशस्थानके विनाश द्वारा तेरहप्रकृतिक प्रवेशस्थान उत्पन्न होता है । अथवा जो उपशमसम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी त्रिसंयोजना कर और सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक इक्कीस प्रकृतियोंके प्रवेशक मासे रहकर छह श्रावलि काल शेष रहने पर सासादन गुणस्थानको प्राप्त Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] जहणकालो वत्तच्यो । मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज उत्तरपयखिदीरणाए ठाणा एयजीवेण कालो १३५ * उक्करसेण तेत्तीसं सागरांवमाथि सादिराणि । २९९. तं जहा - एको देवो खेरइओ वा चउवीससंतकम्मिश्र पुनकोडाउपसु मणुस्सेसु उवष्णो । गम्भादिअद्भुवस्सामंतोमुत्तम्भहियाणमुवरि दंसणमोहणीयं खविय एकवीसपवेसगो होरा पुब्वकोडिं जीविय कालं कारण तेत्तीससागरीवमिसु देवेववज्जिय तत्तो चुदो पुञ्जकोडा उश्रमण से सुववज्जिय तोमुहूत सेसे संसारे खरगसेढिमारूदो अकसाए खविय तेरसहं पवेसगो जादो । एवमंतोमुहुत्तभविस्सेहिं परिही दोपुन्नकोडीहिं सादिरेयाणि तेत्तीस सागरोवमाणि एकवीसपवेसगस्स उस्सकालो होइ । * बावीसाए पणुवीसाए पयडीणं पवेसगो केवचिरं कालादो होदि ? ३००. सुगमं । ॐ जहणणे एयसमश्र । ९३०१. बावीस पवेसगस्स तात्र उच्चदे | अणताणुबंधि० त्रिसंजोएदूसरा दि उवसमसम्माइट्ठी इगिवीपवेसगी सासयसम्मत्तं मिच्छत्तं सम्मामिच्छतं वेदगसम्मत्ताणि वा पडिवण्णो, पदमसमए वासपवेसगो होदृरण पुणो विदियसमए जहाकर्म पणुचीसाए अट्टारीसाए चदुवीमाए पवेसगो जादो, लद्धो बावीस पवेसगस्स हो वा प्रकृतियोंका प्रवेशक हो गया उसके यह जघन्य काल कहना चाहिए। * उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर हैं । * बाईस और पच्चीस प्रकृतियोंके प्रवेशकका कितना काल है ? ६३००. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल एक समय है । - २६. यथा- एक देव या नारकी चौबीस प्रकृतियों की सत्तावाला पूर्वकादिकी श्रायुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। वह गर्भसे लेकर आठ वर्ष और अन्तर्मुहूर्त के बाद दर्शनमोहनीय का क्षय कर इक्कीस प्रकृतियोंका प्रवेशक हो तथा पूर्वकोटि काल तक जीवित रहकर मरा और तीस सागरकी युवाले देवोंमें उत्पन्न हो पुनः वहाँसे च्युत हो तथा पूर्वकोटिकी श्रायुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हो संसार में रहनेका अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहनेपर क्षपकश्रेणि पर चढ़कर तथा आठ कषायों का क्षय कर तेरह प्रकृतियोंका प्रवेशक हो गया। इस प्रकार सान्तर्मुहूर्त आठ वर्ष कम दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर प्रमाण इक्कीस प्रकृतियोंके प्रवेशकका उत्कृष्ट काल होता है । 4 २०१. सर्वप्रथम बाईस प्रकृतियोंके प्रवेशकका कहते हैं— अनन्तानुबन्धचतुष्ककी त्रिसंयोजना कर इक्कीस प्रकृतियोंका प्रवेशक हो स्थित हुआ उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सासादन सम्यक्त्व, मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व या वेवकसम्यक्त्वको प्राप्त करके प्रथम समय में बाईस प्रकृतियों का प्रवेशक हो फिर दूसरे समय में कमसे पक्चीस, अट्ठाईस और चौबीस प्रकृतियोंका प्रवेशक हो गया । इस प्रकार बाईस प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य काल एक समय प्राप्त हुआ । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३६ जयधवलासहिढे कसायपाहुरे [वेदगो ७ जहण्णकालो ए यसमयमेत्तो। संपहि पणुवीसपवे० उच्चदे-विसंजोइदाणताणुनंधिचउक्केण उवममसम्माइटिणा उसमसम्मत्त द्वादुचरिमसमए सासणभावे पडिवराणे तस्स पढमसमा अणंताणुबंधीणमण्णदरपत्रसेण बावीसपवेसद्वाणं होण से काले उदयावलियबाहिरहिदसेसाणंताणुबंधितियस्म उदयावलियपवेसेण एणुवीसट्टाणं जादं । एवमेगसमयं पणुवीसपचेसहाणं होदूण तदणंतरसमए मिच्छत्तं पडिवण्णस छब्बीसं पवेसट्ठाणुप्पत्तीए णिरुद्धं पवेसट्ठाणं त्रिणटुं होइ । $ उकस्सेण अंतोमुत्तं ।। ३०२. तं जहा–सम्मामिच्छत्तं खविय जाव सम्मत्तं ण खवेह ताव बावीसपसेसगस्स अंतोमुहुत्तमेत्तो उकस्सकालो होइ । पणुवीसपवेसट्ठाणस्स वि अणंताणुबंधीहि अविसंजुतउवसमसम्माइटिकालो सयो चेव होइ । 8 तेवीसाए पयोर्णबक्सिगोपचिर कालाक्षाहीदि महाराज ६३०३, सुगर्म । ॐ जहएणुकस्सेण अंतोमुहत्तं । ३०४. न जहा–सम्मामिच्छत्तक्खवणकालो सन्चो व तेवीसपदेसगकालो होइ। चउधोसाए पयडोणं पवेसगो केवचिरं कालादो होदि ? अब पचीस प्रकृतियोंके प्रवेशकका कहते हैं जिसने भनन्तानुबन्धीचतुम्सकी विसंयोजना की है ऐसा उपशमसम्यग्दृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्व के कालके द्विचरम समयमै सासादानभावको प्राम दुआ। उसके प्रथम समयमें अनन्तानुबन्धियों में से किसी एक प्रकृतिका प्रवेश होनेसे बाईस प्रकृतियोंका प्रवेशस्थान होकर तद् नन्तर समयमें उदयावलिके बाहर स्थित शेष अनन्तानुषन्धीचतुष्कके उदयावलिमें प्रवेश करनेसे पच्चीस प्रकृतियोंका प्रवेशस्थान हो गया। इस प्रकार पक समय तक पच्चीस प्रकृतियों का प्रवेशस्थान होकर तदनन्तर समयमें मिथ्यात्वको प्राम हुए उसके छब्बीस प्रकृतयोंके प्रवेशस्थान की उत्पत्ति हानेसे विवक्षित प्रवेशस्थान विनष्ट होता है। * उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। F३०२. यथा-सम्यग्मियात्वका क्षय करके जब तक सम्यक्त्वप्रकृतिका क्षय नहीं करता है तब तक बाईस प्रकृतियोंके प्रवेशकका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होता है। तथा जिसने अनन्तानुबन्धीचतुष्की विसंयोजमा नहीं की है ऐसे उपशमसम्यग्दृष्ट्रिका सब काल पचीस प्रकृतियों के प्रवेशकका उत्कृष्ट काल होता है। * तेईस प्रकृतियों के प्रवेशकका कितना काल है ? 5 ३०३, यह सूत्र सुगम है। * जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहत है। ६३०४. यथा-सम्यग्मिथ्यात्वका सत्रका सब क्षपणाकाल तेईस प्रकृसियोंके प्रवेशकका काल होता है। * चौबीस प्रकृतियोंके प्रवेशकका कितना काल है ? Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] · उत्तरपग्लिदीरणाय ठाणाणं एयजीवेण कालो ३०५. सुमर्शिक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज जहणणेण अंतोमुहुरतं । ४३०६. तं कथं ? अट्ठावीससंतकम्मियवेदयसम्माइट्ठी अणंताणुबंधिचउक्क - विसंजोय चउवीसपवेसगो होदूण तदो सबजहणतोमुहुत्तेण मिच्छत्तं गदो तस्स विदियसमए चउवीसपवेसट्टाणं फिट्टिदहावीसपवेसट्ठाण जादं,लद्धो पयद जहण्णकालो। उकस्सेण घेछावहिसागरोचमाणि देसूणाणि । ६३०७. तं जहाएगो मिच्छाइट्ठी उसमसम्मत्तं घेत्तृण तत्कालभतरे चेत्र चउवीससंतकम्मित्रो जादो वेदगसम्म पडिवण्णविदियसमयप्पॉडि चउवीसपवेसगी होदण बेद्धावहिसागरोवमाणि परिभमिय तदवसाणे देसणमोहक्खवणाए अद्विदो मिच्छत्तं खत्रिय तेवीसपवेसगो जादो । एवं समयाहियसम्मामिच्छन-सम्मत्तक्खवण. कालेगुणवेछाच द्विसागरोचममेत्तो पयदुकस्सकालो होदि । बेछावट्ठीणमवसाणे मिच्छन णेदूण पयदकालो किण्ण परूविदो ? ण मिच्छत्तं गच्छमाणस्स सव्वजहण्णंतोमुहुत्तस्स वि सम्मामिच्छत्त-सम्मत्तक्खयणकालादो बहुत्तेण तहाकादुमसत्तीदो । छुच्चासाए पयडोणं पवेसगो केवषिरं कालादो होदि ? ६३०८, सुगम । ६३०५. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । १. ३०६. वह कैसे ? क्योंकि अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो वेदकसम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजनाकर चौधीस प्रकृतियांका प्रवेशक हो अनन्तर समसे जघन्य अन्तर्मुहूते कालके द्वारा मिथ्यात्वमें गया उसके दूसरे समयमें चौबीस प्रकृतियों का प्रवेशस्थान नष्ट होकर अट्ठाईस प्रकृतियों का प्रवेशस्थान उत्पन्न हो गया। इस प्रकार प्रकृत जघन्य काल उपलब्ध हुआ। * उत्कृष्ट काल कुछ कम दो छयासठ सागरोपम है। ६३०७. यथा--एक मिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण कर उसके कालके भीतर ही चौबीस कर्मोकी सत्तावाला हो गया। पुनः वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करनेके द्वितीय समयसे लेकर चौबीस प्रकृतियोंका प्रवेशक हो कुछ कम दो कथासठ सागर काल तक परिभ्रमण कर उसके मन्तमें दर्शनमोहकी क्षपणाके लिए उद्यात हुआ और मिथ्यात्वका सय कर तेईस प्रकृतियोंका प्रवेशक हो गया। इस प्रकार एक समय अधिक सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्यके क्षपणा कालसे कम दो छयासठ सागर कालप्रमाण प्रकृत उत्कृष्ठ काल होता है। शंका-दो छयासठ सागर कालके अन्त में मिथ्यात्वमें ले जाकर प्रकृत कालका कथन क्यों नहीं किया ? समाधान नहीं, क्योंकि मिथ्यात्यमें जानेवाले जीवका सबसे जघन्य अन्न मुहूर्त काल भी सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वके क्षपणाकालसे बहुत होनेके कारण वैसा करने में प्रशक्ति है। . * छब्बीस प्रकृतियोंके प्रवेशकका कितना काल है? ३०८. यह सूत्र सुगम है। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ वेदगो ७ * तिरिए भंगा | ३ ३०९. कुदो ? प्रणादिवत्र पञ्जवसिदादी तिन्हं भंगारणमेत्य णिम्बाहमुलंमादो। * तत्थ जो सो सादिनो सपज्जवसिदो तस्स जण एयसमओ । मार्गदर्शक २१भ्राफुद्दीन मियउपसमसम्मा द्विणा मिस सम्मामिच्छत्तवेदगसम्मत्तामण दरगुणे पडिवणे साससम्मादट्टिणा या मिच्छते पडिवणे एगसमयं तदुवलंभसंभवादी । * उक्कस्से जवढपोग्गल परियठ्ठे । $ ३११. कुदो ? श्रद्धषोग्गल परियद्वादिसमए पढमसम्मत्तमुप्पाइय सव्वजहस्तोमुहुत्तकालमच्द्रिय मिच्छत्तं गंतूण सव्वलहुँ सम्मत-सम्मामिच्छत्ताणि उब्वेलिय छब्बीस पवेसगभावेणद्धपोग्गलपरियङ्कं परिभमिय तोते सेसे संमारे सम्मत्तं पडवण्णस्स देणद्वपोग्गल परियट्टमे त्तपयदुक्क स्सकालोवलंभादो । * सत्तवीसाए पपडीणं पवेसगो के चिरं कालादो होदि ? $ ३१२. सुगमं । * जहरणेण एयसमओ । ६ ३१३. तं जहा सम्मत्तमुब्वेलमारणमिच्छाइट्ठी सम्माहिमुह होण अंतरं करेमाणो अंतरदुचरिमफालीए सह सम्मत्तचरिमुवेलणफालि घत्तिय तक्काले सम्मतस्स १३८ जयधवलास हिदे कसाय पाहुडे * इस कालके तीन भंग हैं । ३०. क्योंकि अनादि-अनन्त आदि तीन भंग यहाँ पर निर्वाधरूपसे उपलब्ध होते हैं । * उनमें जो सादि-सान्त भंग है उसका जघन्य काल एक समय है । ३१०, क्योंकि अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाले उपशमसम्यग्दृष्टिके मिध्यात्व, सम्यग्मि ध्यात्व और वेदकसम्यक्त्व इनमें से किसी एक गुणस्थानको प्राप्त होने पर अथवा सासादनसम्यग्दृष्टि के मिथ्यात्वको प्राप्त होने पर एक समय तक उक्त कालकी उपलब्धि होती है। * उत्कृष्ट काल उपार्थ पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । ६ ३११. क्योंकि अर्ध पुद्गल परिवर्तन नामक कालके प्रथम समय में प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न कर और सबसे जधन्य अन्तर्मुहूर्त कालतक रहकर, मिध्यात्व में जाकर अति लघुकालके भीतर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर फिर छब्बीस प्रकृतियों के प्रवेशकभावसे कुछ कम अर्धपुल परिवर्तन नामक कालतक परिभ्रमण कर संसार में अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहनेपर सम्यक्त्वको प्राप्त हुए उसके कुछ कम अर्धपुलपरिवर्तन प्रमाण उत्कृष्ट काल उपलब्ध होता है । * सत्ताईस प्रकृतियोंके प्रवेशकका कितना काल है ? ३१२. यह सूत्र सुगम है । * जघन्य काल एक समय है । ६ ३१३. यथा – सम्यक्त्वकी उद्वेलना करनेवाला कोई मिध्यादृष्टि जीव सम्यक्त्वके अभिमुख होकर अन्तर करता हुआ अन्वरकी द्विचरम फालिके साथ सम्यक्त्वकी चरम Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ड मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज उत्तरपडिउदीरणाए ठाणा एयजीवेण कालो गा० ६२ ] -१३६ समपूणावलियमेतद्विदीओ परिसेसिय से काले मिच्छत्त सम्मामिच्छसाणमंतर चरिमफालि पादिय सम्मामिच्छत्तस्स व समरायणावलियमेतद्विदीओ डुविय पुणो कमेण दो पि समयूणावलियमेत्तगोबुच्छे गालेमाणो पुन्त्रमेव सम्मत्त गोबुच्छाओ णिल्लेत्रिय एगसमयं सत्तावीसपवेसगो जादो । तदणंतरसमए सम्मामिच्छत्तगोवुच्छं पि पिल्लेविथ बीसवेसगो होदि । एवमेसो एयसमयमेत्तो सत्तावीसपवेसगस्स जहण्णकालो लडो होइ । * उकस्सेण पलिदोषमस्स प्रसंखेज्जदिभागो । ३१४. कुदो ? सम्मत्तमुच्वेल्लिय सत्तावीसपवेसस्सादि कारण पुणो जाब सम्मामिच्छत्तमुव्वेल्लेदि ताव एदस्स कालस्स पलिदोवमा संखेजभागप्रमाणस्स पयदुकस्सकालतेण विवक्खियत्तादो । * अट्ठावीसं पयडीएं पवेसगो के चिरं कालादो होदि ? ३१५. सुगमं । * जहणणे तोमुत्तं । १३१६. तं जहा -- मिच्छाही उवसमसम्मत्तं घेत्तूण वेदगभावं पडिवञ्जिय अट्टासीससस्सादि काढूण पुणे सम्बलहुमताणुबंधिचकं विसंजोय चउचीसपवेसगो जादो, लद्धो पयदजहण्णकालो । उद्वेलना फालिका घातकर उस समय सम्यक्त्वकी एक समय कम आवलिमात्र स्थितियों को शेष रास्खकर तदनन्दर समयमें मिथ्यात्व और सम्यग्मिध्यात्यके अन्तर की अन्तिम फालिका पतन कर सम्यग्मिथ्यात्व की भी एक समय कम आवलिमात्र स्थितियोंको स्थापितकर पुनः क्रमसे दोनों की ही एक समय कम श्रावलिमात्र गोपुच्छाओं को गलाता हुआ पहले ही सम्यक्त्वकी को गलाकर एक समय तक सत्ताईस प्रकृतियों का प्रवेशक हो गया। तथा तदनन्तर सम्यग्मध्यात्वकी गोपुच्छाको भी गलाकर छब्बीस प्रकृतियोंका प्रवेशक हुआ। इस प्रकार यह सत्ताईस प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है । गो * उत्कृष्ट काल पल्पके असंख्यातवें भागप्रमाण है । $ ३१४. क्योंकि सम्यक्त्वकी उद्वेलना कर सत्ताईस प्रकृतियोंके प्रदेशका प्रारम्भ कर पुनः जब तक सम्यग्मिध्यात्यकी उद्वेलना करता है तब तकका यह पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण काल प्रकृत उत्कृष्ट कालरूपसे विवक्षित है । * अट्ठाईस प्रकृतियोंके प्रवेशकका कितना काल है ? ६३१५. यह सूत्र सुगम है । * जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । ६ ३१६. यथा— कोई मिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको ग्रहणकर पुनः वेदकभावको प्राप्त हो अट्ठाईस प्रकृतियोंके प्रवेशका प्रारम्भ कर पुनः अति शीघ्र अनन्तानुबन्धचतुष्ककी विसंयोजना कर चौबीस प्रकृतियोंका प्रवेशक हो गया । प्रकृत जघन्य काल प्राप्त हुआ । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० जयधवला सहिदे कसायपाहुडे * उकस्से बेछावसिागरोवमाणि सादिरेयाणि । ६ ३१७. एत्थ तीहिं पलिदोवमस्सा संखे अभागेहिं सादिरेयत्तं दव्वं । एवमोघेण कालाणुगमो समत्तो । [ वेगो ७ ६३१८. संपहि एदेण सूचिदादेसपरूवणट्टमुच्चारणं वत्तस्साम । तं जहाआदेसे ग्य० २८ २६ जह० एयसमयो, उक्क० तेत्तीस सागरोवमारिण संपुराणापि । २७ २५ २२ श्रोत्रं । २४ जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० तेतीसं सागरो ० देणाणि | २१ जह० अंतोनु०, उक्क० सागरोवमं देणं । एवं सत्तसु पुढवीसु । वरि सगट्टिदी | विदियादि जाव सत्तमा ति २२ जहराणुक्क० एस० । २१ जहरक० अंतोमु० । * उत्कृष्ट काल साधिक दो छ्यासठ _ आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज मार्गदर्शक : ६ ३१७. यहाँ पर तीन बार पल्यके असंख्यातवें भागोंसे साधिकपना जानना चाहिए। इस प्रकार से कालानुगम समाप्त हुआ। ३ ३१८. अब इससे सूचित हुए आदेशका कथन करनेके लिए उच्चारणाको बतलाते हैं । यथा - आदेश से नारकियोंमें २८ और २६ प्रकृतियों के प्रवेशकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूरा तेतीस सागर हैं । २७, ६५ और २२ प्रकृतियोंके प्रवेशकका काल चोघके समान है । २४ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । २१ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक सागर हैं । इसी प्रकार सातों पृथिवियों में जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं तक प्रत्येक पृथिवीमं २२ प्रकृतियों के प्रवेशकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है, तथा २१ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ – २८ प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवका नरक में उत्पन्न करावे । फिर अन्तर्मुहूर्त में उसे वेदसम्यक्त्वा करा कर अन्त में अन्तर्मुहूर्त काल रहने पर मिध्यात्व में ले जावें । ऐसा करनेसे २८ प्रकृतियोंके प्रवेशकका उत्कृष्ट काल तंतीस सागर बन जाता है । २८ प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीवको नरक में उत्पन्न कराये। फिर अन्तर्मुहूर्त में वेदकसम्यक्त्व पूर्वक अनन्तानुबन्धी agrost विसंयोजना करा कर जीवन के अन्तमें अन्तर्मुहूर्त काल रहने पर मिध्यात्वमें ले जावे । ऐसा करनेसे २४ प्रकृतियोंके प्रवेशकका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर प्राप्त होता है । नरक में उपशमसम्यक्त्वके साथ अनन्तानुबन्धीकी वियोजना करानेसे इक्कीस प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त 2राप्त होता है । तथा क्षायिक सम्यग्दृष्ट्रिको नरक में उत्पन्न करानेसे इस प्रकृतियोंके प्रवेशकका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक सागर प्राप्त होता है। सामान्य नारकियों की अपेक्षा शेष कालका खुलासा सुगम है। प्रथमादि नरकों में अन्य सब काल इसी प्रकार बन जाता है । मात्र एक तो जहाँ जी उत्कृष्ट स्थिति है उसे जान कर २८, २६ और २४ प्रकृतियोंके प्रवेशकका उत्कृष्ट काल कहना चाहिए। दूसरे २२ और २१ प्रकृतियोंके प्रवेशकका सामान्य से नरक में जो काल कहा है वह पहले नरक में ही घटित होता है, इसलिए द्वितीयादि f Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपडिउदीरणाए ठाणा एयजीवेण कालो १४१ $ ३१९. तिरिक्खेसु २८ जह० एयस०, उक्क० तिष्णि पलिदो० सादिरेयाणि पलिदो० श्रसंखे० भागेण । २७ २५ २२ ओघं । २६ जह० एयस०, उक अरणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । २४ जह० तोमु०, उक्क० तिष्णि पलिदो ० देणानि । २१ जह० अंतोमु मार्ग तिष्णिापलो एवं पंचिदियतिरिक्खतिए | णवरि २८ २६ जह० एयस०, उक्क० तिरिण पलिदो ० पुव्व कोडियुधत्ते महियाणि । जोणिणि० २२ २१ विदियविभंगो। पंचि०तिरि०अपज ० - मणुस अपज्ज० २८ २७ २६ जह० एयसमत्र, उक्क० अंतोमु० । नरकों में उसे अलग से जान लेना चाहिए। जिसका निर्देश मूल में किया ही है । बात यह है कि द्वितीयादि नरकों में सम्यक्त्वकी क्षपणा सम्भव नहीं हैं, इसलिए वहाँ बाईस प्रकृतियों के प्रवेशकका जघन्य र उत्कृष्ट काल एक समय ही बनता है। तथा द्वितीयादि नरकों में क्षायिकसम्यष्टिकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है, इसलिए वहाँ इक्कीस प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही बनता है। ३३१६ तिर्यों में २८ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तीन पल्य है । २७, २५ और २२ प्रकृतियों के प्रवेशकका काल के समान है । २६ प्रकृतियों के प्रवेशकका जयन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जो असंख्यात पुलपरिवर्तनप्रमाण है । २४ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है । २१ प्रकृतियों के प्रवेशकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पूरे तीन पल्य है। इसी नकार पक्षेन्द्रिय तिर्यवत्रिक में जानना चाहिए। किन्तु इतना विशेषता है कि इनमें २८ और २६ प्रकृतियों के प्रवेशकका जघन्य काल एक समय है और एत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है । योनिनी तिर्यञ्चों में २२ और २१ प्रकृतियोंके प्रवेशकका काल दूसरी पृथिवीके समान है। पलेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में २८, २७ और २६ प्रकृतियोंक प्रवेशकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थतिर्यञ्चमं उपशमसम्यक्त्वपूर्वक सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी ससा उत्पन्न कराकर तथा तिर्यञ्च पर्याय में रखते हुए उक्त प्रकृत्तियों की उद्वेलनाद्वारा सत्ता नाश होने के पूर्व ही तीन पल्की युवाले तिर्यों में उत्पन्न करा कर तथा अतिशीघ्र वेदकसम्यक्त्वको उत्पन्न Free उसके साथ जीवन भर रखनेसे २८ प्रकृतियोंके प्रवेशकका उत्कृष्ट काल पल्यका श्रसंख्यातवां भाग अधिक तीन पल्य बन जानेसे उक्त प्रमाण कहा है। तिर्यञ्च पर्यायमें रहनेका उत्कृष्ट काल अनन्त काल हैं और इतने काल तक वह जीव २६ प्रकृतियों का प्रवेशक बना रहे यह सम्भव है, इसलिए इनमें २६ प्रकृतियोंके प्रवेशकका उत्कृष्ट काल अनन्त काल कहा है। अनन्तानुबन्धकी विसंयोजना कर वेदकसम्यक्त्वके साथ तिर्यञ्च पर्याय में निरन्तर रहनेका उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य ही बनता है, इसलिए इनमें २४ प्रकृतियों के प्रवेशकका उत्कृष्ट फाल कुछ कम तीन पल्य कहा है। जो क्षायिक सम्यग्दृष्टि मनुष्य मरकर तिर्यच्चों में उत्पन्न होते हैं वे उत्तम भोगभूमि में ही उत्पन्न होते हैं और उत्तम भोगभूमि में एक जीव की उत्कृष्ट आयु तीन पल्य है, इसलिए यहाँ २१ प्रकृतियों के प्रवेश कका उत्कृष्ट काल तीन पल्य कहा है । सामान्य तिर्यों में यह जो काल घटित करके बतलाया है वह पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्वत्रिक में कुछ विशेषताको लिए हुए ही प्राप्त होता है । वह यह है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्वत्रिक की काय स्थिति पूर्व Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे । दगा । ३२०, मणुसतिए २८ २७ २६ २५ २४ पंचिदियतिरिवखभंगो। २१ जह. एयस०, उक्क० तिणि पलिदो० पुनकोडितिभागेण सादिरेयाणि । सेसमोघं । णवरि मणुसिणी० २१ जाह० एयस०, उक्क० पुन्चकोडी देसूणा । ३२१. देवेसु २८ जह० एयस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । २७ २५ २२ श्रोघं । २६ जह• एयस०, उक एकत्तीसं सागरो० । २४ २१ जह० अंतोमु०, उक्क. कोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य ही है, अतः इनमें २८ और २६ प्रकृतियों के प्रवेशकका उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य प्राप्त होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है । तथा योनिनी सिर्यश्चोंमें न तो सम्यक्त्व प्रकृतिकी क्षपणा सम्भव है और न क्षायिक सम्यग्दष्टि जीव ही मरकर उत्पन्न होते हैं, अतः इनमें २२ और २१ प्रकृतियों के प्रवेशकका काल दूसरी पृथिवीके समान घटित होनेसे इसका भंग दूसरी पृथिवीं के समान जाननेकी सूचना की है। यह सम्भव है कि सम्यक्त्वकी उद्वेलना करनेवाला कोई जीव जब उसकी उद्वेलनामें एक समय बाकी रहे तब वह पश्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न हो । यह भी सम्भव है कि जब सम्यग्मिथ्यात्वकी उवेलनामें एक समय शेष रहे तब वह उक्त जीवों में उत्पन्न हो और यह भी सम्भव है कि जब उक्त जीवोंकी पर्यायमें एक समाशिक : रधिधियायशिक्यावीरउल्लाहोज जावे। ऐसा करनेसे उक्त जीवों में २८, २७ और २६ प्रकृतियों के प्रवेशकका जघन्य काल एक समय बन जानेसे वह उक्तप्रमाण कहा है। तथा एक जीवकी अपेक्षा उक्त जीवोंकी उत्कृष्ठ स्थिति अन्तर्मुहूर्त है और इतने काल तक इनमें उक्त पद बने रहें इसमें कोई आधा नहीं पाती, इसलिए इनमें उक्त पदोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। शेष कथन स्पष्ट है, क्योंकि उसका खुलासा ओघप्ररूपणाके समय मूलमें ही कर दिया है, इसलिए वहाँ देखकर यहाँ उसकी संगति , बिठा लेनी चाहिए। ३२०. मनुष्यन्त्रिक में २८, २७, २६, २५ और २४ प्रकृतियोंके प्रवेशकका पन्चेन्द्रियतिर्यश्चोंके समान भंग है । २१ प्रकृतियों के प्रवेशकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिका निभाग अधिक तीन पल्य है। शेष भंग ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्यनियोंमें २१ प्रकृत्तियों के प्रवेशकका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। विशेषार्थ-जिस पूर्वकोटिकी श्रायुवाले मनुष्यने विभाग शेष रहने पर आयुबन्धक याद क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न किया है और जो मरकर तीन पल्यकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुभा है उसके २१ प्रकृतियोंके प्रवेशकका उत्कृष्ट काल प्राप्त होनेसे यह पूर्यकोटिका त्रिभाग अधिक तीन पल्य कहा है। तथा जो मनुष्य उपशमश्रेणी से उतरते समय २१ प्रकृतियों का प्रवेशक होकर और दूसरे समयमै मरकर देवोंमें उत्पन्न होता है उस मनुष्यके २५ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य काल एक समय मन जानेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। यह तो हम पहले ही बतला आये है कि क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव मरकर मनुष्यनियों में नहीं उत्पन्न होता। हाँ मनुष्यनी क्षायिक सम्यक्त्वको उत्पन्न कर सकती है, अतः मनुष्यत्रिकमेंसे शेष दोमै २१ प्रकृतियों के प्रवेशकका पूर्वोक्त काल कहा है और मनुष्यनीमें कुछ कम पूर्वकोटि कहा है । शेष कथन सुगम है। ६३२१. देवों में २८ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य काल एक समय है और सत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। २७, २५ और २२ प्रकृतियोंके प्रवेशकका काल पोषके समान है। २६ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपउिदीरणाए ठाणा एयजीवेण अंतरं १४३ ० तेत्तीस सागरी । एवं भवरणादि जाव णवगेवज्जा ति । खवरि सगहिदी । भवण०वाणयें ० - जोदिसि० २२२१ विदियपुढविभंगो । अणुद्दिसादि सम्बडा ति २८२४ २१ जह० अंतोमु०, उक० सगहिदी० । २२ जह० एयस०, उक्क० अंतोमुडुत्तं । एवं जाव० । * अंतरमणुचिंतियूण ऐवव्धं । $ ३२२. पण सूचिदत्यस्स परूवणमुच्चारणादो कस्सामो । तं जहा - अंतराणु० दुविहो शि० - ओषेण आदेसेण य । श्रघेण २८ २५२४२२२०१९ १३१२ १० ९७६४३२१ पवेसमंतर जह० अंतोन०, उक्क० उबडपोग्गलपरियहं । २७ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल इकतीस सागर है । २४, हैं और २१ प्रकृतियों के प्रवेशकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल तीस सागर I इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर नौ मैत्रेयक तकके देशों में जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें २२ और २१ प्रकृतियोंके प्रवेशकका काल दूसरी पृथिवीके समान है। अनुदिश से लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवामें २८ २४ और २१ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । २२ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त साप्रामा हरिमान जानाईए । विशेषार्थ – जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना नहीं की है ऐसा वेदकसम्यग्दृष्टि जीव देवोंकी उत्कृष्ट आयु लेकर उत्पन्न होकर अन्त तक वह उसी प्रकार बना रहे यह सम्भव है, इसलिए सामान्य देवोंमें २८ प्रकृतियों के प्रवेशकका उत्कृष्ट काल तेवीस सागर कहा है । मिष्टदेव नौ पैवेयक तक ही पाये जाते हैं, इसलिए इनमें २६ प्रकृतियोंके प्रवेशकका उत्कृष्ट काल इकतीस सागर कहा है। किन्तु ये ऐसे देव लेने चाहिए जो सम्यक्व और सम्यरिमध्यात्वकी सत्ता से रहित होते हैं। जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है ऐसा वेदकसम्यग्दृष्टि जीव और तायिकसम्यग्दृष्टि जीत्र देवोंकी उत्कृष्ट श्रायु लेकर उनमें उत्पन्न हो यह भी सम्भव है, इसलिए सामान्य देवोंमें २४ और २१ प्रकृतियों के प्रवेशक उत्कृष्ट काल तेतीस सागर कहा है ग्रैवेयक तक के देवोंमें यह प्ररूपणा बन जाती है, इसलिए उनमें सामन्य देवोंके सामान जानने की सूचना की हैं। परन्तु इसके दो अपवाद हैं। एक तो इन rint प्रथक पृथक है, इसलिए इस विशेषताको ध्यान में रखकर उक्त पदका काल कहना चाहिए। दूसरे भवनन्त्रिक में सम्यग्दृष्टि जीव मरकर उत्पन्न नहीं होते, इसलिए इनमें २२ और २१ प्रकृतियों के प्रवेशकका काल दूसरी पृथिवीके समान प्राप्त होनेसे उसके समान घटित कर लेना चाहिए | तथा इतनी विशेषता और जाननी चाहिए कि इनमें २४ प्रकृतियोंके प्रवेशकका उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण ही बनता है। कारण स्पष्ट है । अनुदिशादिक में २८, २४, २२ और २१ प्रकृतियों के प्रवेशक जीव ही उपलब्ध होते हैं, इसलिए इनमें इन पदों प्रवेशकोंकी अपेक्षा काल कहा है। शेष कथन सुगम है । * अन्तरको विचार कर जानना चाहिए । ३२२ इससे सूचित होनेवाले अर्थका कथन उच्चारणा के अनुसार करते हैं। यथाअन्तरानुगमको अपेक्षा निर्देश वो प्रकारका है— श्रघ और आदेश । श्रोष से २८, २४, २४, २२, २०, १८, १३, १२, १०, ६, ७, ६, ४, ३, २ और १ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य अन्तर Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो जह० पलिदो ० संखे ० भागो । २१ जह० बेसमया, उक्क० दोद्दं पि उबडपोग्गल ० | २६ जह० अंतोमु०, उक० बेला वड्डिसागरो० सादिरेयाणि । २३ पस्थि अंतरं । अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर उपार्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । २७ प्रकृतियोंके प्रवेशक का जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यात भागमगाए है, २१ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य अन्तर दो समय है और दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर उपार्थपुद् गल परिवर्तन प्रमाण है । २६ प्रकृतियोंके प्रवेशकोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त सिपमारण है । २३ प्रकृतियों के प्रवेशकका अन्तरकाल नहीं है । - विशेषार्थ – कोई २८ प्रकृतियोंका प्रवेशक बंदकसम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्क की विसंयोजना करके अन्तर्मुहूर्त में मिध्यात्वमें जाकर पुनः २८ प्रकृतियों का प्रवेशक हो गया। इस प्रकार २८ प्रकृतियों के प्रवेशकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। कोई जीव उपशम सम्यग्दृष्टि होकर २५ प्रकृतियों का प्रवेशक हुआ। फिर अनन्तानुबन्धीकी त्रिसंयोजनाके द्वारा २१ प्रकृतियोंका प्रवेशक हो अन्तरको प्राप्त होगया । उपशम सम्यक्त्वके काल में ६ आवली शेष रहने पर सासादनको प्राप्त हो दूसरे समय में पुनः २५ का प्रवेशक होगया, उसके २५ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। जो अन्तर्मुहूर्त के अन्तर से दो बार वेदकसम्यदृष्टि हो अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करता है उसके २४ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। जो अनन्तानुबन्धीका त्रियोजक उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सासादन में जाकर प्रथम समय में २२ प्रकृतियों का प्रवेशक होता है । पुनः मिथ्यात्वमें जाकर व अतिशीघ्र वेदकसम्यक्त्व पूर्वक मिध्यात्वव सम्यग्मिध्यास्व की क्षपणाकर २२ प्रकृतियोंका प्रवेशक होता है उसके २२ प्रकृतियों के प्रवेशकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। आगे २०, १६, १३, १२, १०, ६, ७, ६, ४, ३, २ और १ प्रकृतियों के प्रवेशकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त दो बार उपशमश्रेणि पर चढ़ाकर और उतार कर प्राप्त होता है। यह उक्त स्थानोंके जघन्य अन्तरका विचार है । इन स्थानोंका उत्कृष्ट अन्तर उपार्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण इन स्थानोंको अर्ध पुद्गल परिवर्तन प्रारम्भ और अन्तमें प्राप्त करानेसे घटित हो जाता है। मात्र यह अन्तर प्राप्त कराते समय जहाँ जो विशेषता हो उसे जानकर कहना चाहिए । २७ प्रकृतियोंका प्रवेशस्थान सम्ममिध्यात्वकी पहेलना करानेसे प्राप्त होता है और इसकी उद्वेलनामें पल्यका असंख्यातवाँ भागप्रमाण काल लगता है, अतः यह क्रिया दो बार उपशमसम्यक्त्वसे गिरा कर करानी चाहिए। ऐसा करने से इस स्थानका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त हो जाता है। कोई द्वितीयोपशम जीव पुरुषवेद के उदयसे उपशमश्रेणि पर चढ़ा | अन्तरकरणके बाद वह नपुंसक वेदका उपशम कर २१ के स्थानमें २० प्रकृतियोंका प्रवेशक हुआ और उसी समय मर कर तथा देव हो देव होनेके प्रथम समय में नपुंसकवेदका अपकर्षणकर उसका उदद्यावलिके बाहर निक्षेप किया तथा दूसरे समय में पुनः वह २१ प्रकृतियों प्रवेशक हो गया । इस प्रकार २१ प्रकृतियों के प्रवेशकका जघन्य अन्तर दो समय प्राप्त होता है। अन्य वेदोंके उदयसे भी यह अन्तर प्राप्त किया जा सकता है सो जानकर कथन कर लेना चाहिए । यह २७ और २१ प्रकृतियोंके प्रवेशकका अन्य अन्तर है । इनका उत्कृष्ट अन्तर उपार्थपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण होता है जो इन स्थानोंका उक्त कालके आदिमें और अन्तमें अधिकारी बनाने से प्राप्त होता है । जो २६ प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त कर अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करता है। पुनः जब सम्यक्त्वके काल में एक समय शेष रहने पर सासादन में जाकर दूसरे समय में मिध्यात्वमें प्रवेश करता हुआ २६ प्रकृतियोंका प्रवेशक होता है उसके Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२] उत्तरपयडिउदीरणार ठागाणं एयजीवेण अंतरं ३२३. श्रादेसेण णेरइय० २५ २६ २५ २४ जह• अंतोमु०, २७ २२ २१ जह. पलिदो० असंखे भागो; उक० सव्वेसि पि तेत्तीसं सागगे० देसू० । एवं सवणेर० । णवरि सद्विदी देसू० । ३२४. तिरिक्खेसु २८ २५ २४ जह० अंतोमु०, २७ २२ २१ जह पलिदो० असंखे० भागो, उक्क • सव्वेसिमुवड्डपोग्गल० । २६ जह० अंतोमु०, उक्क. तिरिण पलिदो० सादिरेयाणि । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिए । णवरि सन्त्रपदाणमुक्क० २६ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जयन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त उपलब्ध होता है। तथा जो छब्बीस प्रकृतियोंकी सत्तापाला उपशम सम्यवस्त्र पूर्वक वेदक सम्यादष्टि हो और यथाविधि अन्तर्मुहूर्त कम दो छयासठ सागर काल तक बीच में सम्यम्मिथ्यात्वको प्राप्त हो वेदकसम्यक्त्वके साथ रह कर मिथ्यात्वमें जाकर पल्यके असंख्यात भागप्रमाण कालके द्वारा सम्यक्त्व और सभ्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर २६ प्रकृतियों का प्रवेशक हो जाता है उसके २६ प्रकृतियोंके प्रवेशकका उत्कृष्ट अन्तर साधिक दो छयासठ सागर प्राप्त होता है। तेईस प्रकृतियोंका प्रवेशक जीव क्षपणाके समय प्राप्त होता है, इसलिए इसका अन्तरकाल नहीं बनता । इस प्रकार ओमसे किम प्रवेशस्थानका क्या अन्तर काल है इसका विचार किया। ६३२३. श्रादेशसे नारकियों में २८, २६, २५ और २४ प्रकृतियों के प्रवेशकका जघन्य मानवशन्तर्मुहर्मक विधीसागर प्रमाविष्टाोपवेशकका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवं भागप्रमाण है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। इसी प्रकार सष नारकियोंमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए। विशेषार्थ-रम, २६, २५ चौर २४ प्रकृतियों के प्रवेशकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त तथा २७ प्रकृतियों के प्रवेशकका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण जिस प्रकार श्रोघप्ररूपामें स्पष्ट करके बतला आये हैं उसी प्रकार यहाँ पर भी जान लेना चाहिए । जो पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण अरतरसे दो बार उपशम सम्यक्त्व के साथ अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना पूर्वक सम्यक्त्वके साथ २१ प्रकृतियों का प्रवेशक और सम्यक्त्वसे च्युत हो सासाचनमें आकर २२ प्रकृतियोंका प्रवेशक होता है उसके २२ और २१ प्रकृतियोंके प्रवेशकका अन्तर पल्यके असंख्यात भागप्रमाण प्राप्त होनेसे इन स्थानोंका जघन्य अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। ओघसे नरकमें जो सब प्रवेशस्थानोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर कहा है सो यह प्रारम्भमें और अन्त में उस उस स्थानके प्राप्त करानेसे ही प्राप्त होता है। प्रथमावि नरकोंमें उक्तं सब प्रवेशस्थानोंका जघन्य अन्तर तो सामान्य नारकियों के समान ही है। मात्र उत्कृय अन्तर कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिको ध्यानमें रख कर घटिव करना चाहिए । विशेष वक्तव्य न होनेसे यहाँ उसका अलग अलग स्पष्टीकरण नहीं किया है । ३२४. तियश्चोंमें २८, २१ और २४ प्रकृतियों के प्रवेशकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, २७, २२ और २१ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है तथा इन सष स्थानों के प्रवेशकका उत्कृष्ट भन्तर उपाधे पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। २६ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकमें जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि सब पदोंका उत्कृष्ट अन्तर Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [वेदगो मागदश जयधवलासहिदे कसायपाहुडे तिषिण पलिदो० पुनकोडिपुधत्तेणमहियाणि । पंचि तिरि अपज०-मणुसअपज० २८ २७ २६ णस्थि अंतरं । ___ ३२५. मणुसतिए २८ २६ २५ २४ २२ २१ जह० अंतोमु०, २७ जह० पलिदो० असंखे भागो, उक्क० सव्वेसिं तिष्णि पलिदो पुवकोडिषुध० । २३ पत्थि अंतरं । २० १९ १३ १२ १० ९७ ६ ४ ३ २ १ जह० अंतोमुहूत्तं, उक. . पुन्यकोडिपुध० । पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। पश्शेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त जीशे में २८, २७ और २६ प्रकृतियोंके प्रवेशकका अन्तरकाल नहीं है। विशेषार्थ- यहाँ पर सर्वत्र जघन्य अन्तर सब पदोंके प्रवेशकका जिस प्रकार नरकमें घटित कर बतला आये हैं उसीप्रकार घटित कर लेना चाहिए। मात्र उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त करते समय अधिकसे अधिक कितने अमरोये प्रवेशान ग्रामवाहासावितोमानकर उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त करना चाहिए। यथा-२८, २७, २५, २४, २२ और २१ प्रकृतिक प्रवेशस्थान उपार्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण अन्तरसे प्राप्त किये जा सकते हैं, क्योंकि ये प्रवेशस्थान सम्यक्त्व पूर्वक होते हैं और सम्यक्त्वका उत्कृष्ट अन्तर अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। मात्र २६ प्रकृतियोंके प्रवेशस्थानका उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य ही बनता है, क्योंकि जो २६ प्रकृतियोंकी सत्तावाला तिर्यच उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त कर क्रमसे यथायोग्य अविवक्षित स्थानोंका प्रवेशक हो जाता है वह अधिकसे अधिक साधिक तीन पल्य काल तक ही अन्य अविवक्षित पदोंके साथ तिर्यश्च पर्यायमें रह सकता है। उसके बाद या तो तिर्यश्व पर्याय अदल जाती है या वह पुन: २६ प्रकृतियोंका प्रवेशक हो जाता है। चूं कि यहाँ २६ प्रकृतियों के प्रवेशकका तिर्यञ्च पर्याय रहते हुए उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त करना है, इसलिए २६ प्रकृतियोंकी सत्तावाला ऐसा तिर्यश्च जीव लो जो उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त कर मिथ्यात्वमें जावे और वहाँ सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्वी उद्वेलना करता हुआ वेदक कालके भीतर तीन पल्यकी आयुवाले तियनों में उत्पन्न हो । फिर सम्यग्दृष्टि हो, जब इस आयुमें पल्यका पसंख्यातवाँ भाग काल शेष रहे तब मिथ्यात्वमें जाफर उक्त दोनों प्रकृतियाँकी उद्वेलना कर पुन: छब्बीस प्रकृतियोंका प्रवेशक हो जाये । पञ्चन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकी उत्कृष्ट कायस्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है, इसलिए इनमें सब प्रवेशस्थानोंका उत्कृष्ट अन्तर उक्त काल प्रमाण कहा है। जघन्य अन्तरका स्पष्टीकरण पूर्ववत् ही है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त जीवों में २८, २७ और २६ प्रकृतियोंके प्रवेशस्थान इन पर्यायोंके रहते हुए दो बार नहीं प्राप्त होते, इसलिए इनमें उक्त प्रवेशस्थानोंके अन्तर कालका निषेध किया है। ६३२५. मनुष्य त्रिको २८, २६, २५, २४, २२ और २१ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, २७ प्रकृतियों के प्रवेशकका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है और सब स्थानोंके प्रवेशकका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक सीन पल्य है। २३ प्रकृतियों के प्रवेशकका अन्तरकाल नहीं है । २० १६, १३, १२, ५०, ५, ७, ६, ४,३, २ भौर १ प्रकृतियों के प्रवेशकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण है। विशेषार्थ-ओषप्ररूपणामें सब स्थानोंका जो जघन्य अन्तर घटित फरके बतलाया है वह यहाँ पर भी उसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। मात्र वहाँ २१ प्रकृतियोंके प्रवेशकका Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज गा० ६२] उत्तरपयरिउदीरणाए ठाणाणं णाणाजीवेहि भंगश्चियो १४७ ३२६. देवेसु. २८ २६ २५ २४ जह० अंतोमु०, २७ २२ २१ जह पलिदो० असंखे०मागो, उक्त • सव्येसिमेक्कत्तीसं सागरो० देसूणाणि । एवं भवणादि जाव णवगेयजा त्ति । णवरि सगहिदी देसूणा । अणुद्दिसादि सवडा त्ति २८ २४ २२ २१ पत्थि अंतरं । एवं जाव० | पाणाजोवेहि भंगविचयो। । ३२७. सुगमभेदमहियारपरामरसवक्कं । अट्ठावीस-सत्तावीस-छब्धीस-चदुवीस-एकवीसाए पयडीओ णियमा पविसंति। rom --- - जघन्य अन्तर दो समय दो पर्यायोंकी अपेक्षा घटित होता है जो यहाँ सम्भव नहीं है, इसलिए यहाँ इस प्रवेशस्थानका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त करनेका प्रकार यह है कि पहले उपशम सम्यक्त्व पूर्वक अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करा कर २१ प्रकृतियोंका प्रवेशक बनावे। फिर वेदकसम्यक्त्वपूर्वक क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न कराके पुनः २१ प्रकृतियों का प्रवेशक बनावे । अन्तर्मुहूर्त के भीतर यह क्रिया करानेसे इस प्रवेशस्थानका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त आ जाता है। सब प्रवेशस्थानाका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त करते समय यह विशेषता ध्यानमें रखनी चाहिए कि भोगभूमिमें उपशमश्रेणिका प्राप्त होना सम्भव नहीं है, इसलिए २० श्रादि जो प्रवेशस्थान उपशमश्रेणिसे सम्बन्ध रखते हैं उनका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण कहा है जो अपनी कर्म भूमिसम्बन्धी काग्रस्थितिके प्रारम्भमें और अन्तमें दो बार उपशमणि पर प्रारोहण करानेसे 4 प्राप्त होता है। शेष प्रवेशस्थानोंका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है यह स्पष्ट ही है। २३ प्रकृतियों के प्रवेशकका अन्तरकाल नहीं है यह स्पष्ट ही है। ६३२६. देवों में २८, २६, २५और २१ प्रकृतियोंके प्रवेशकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त है, २७, २२ और २१ प्रकृत्तियों के प्रवेशकका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, तथा सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर नी ग्रंवेयक तकके देवों में जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिए। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें २८, २४, २२ और २१ प्रकृतियों के प्रवेशकका अन्तरकाल नहीं है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा जानना चाहिए | विशेषार्थ. यहाँ सामान्य देवोंमें और नौ प्रैवेयक तकके देवों में सब प्रवेशस्थानोंका यथायोग्य जघन्य अन्तर जिसग्रकार नरकमें घटित करके बतलाया है उसी प्रकार यहां मी घटिप्त कर लेने में कोई बाधा नहीं है। मात्र सामान्य देवोंमें उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त करते समय नौ मवेयकको उत्कृष्ट आयु ही विवक्षित करनी चाहिए, क्योंकि गुणस्थान परिवर्तन वहीं तक सम्भव है। शेष कथन स्पष्ट ही है। * नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयका अधिकार है। ६३२७. अधिकारका परामर्श करनेवाला यह वाक्य सुगम है। * अट्ठाईस, सत्ताईस, छब्बीस, चौबीस और इकीस प्रकृतियाँ उदयावलिमें नियमसे प्रवेश करती हैं। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ___३२८. दो ? णाणाजीवावेक्खाए एदेसि पवेसट्ठाणाणं धुवभावेण सव्वकाल ससाणाण धुचभावण सचकालपाबालदसणाक्षर्व श्री सुविधिसागर जी म्हाराज ॐ सेसाणि हाणाणि भजियन्वाणि | ३२९. कुदो ! पणुवीसादिसेसपवेसठ्ठाणाणमधुवभावदसणादो । एत्थ भंग.. पमाणमेदं १४३४८९०७ । एवं मणुसतिए । आदेसेण गरइय० २८ २७ २६ २४ .. २१ रिणय अस्थि । सेसपदाणि भयणिजाणि । भंगा ९ । एवं पढमाए तिरिक्खपंचिदियतिरिक्ख०२-देवा सोहम्मादि जाव णवगेवजा ति। विदियादि सत्तमा त्ति २८ २७ २६ २४ रिणयमा अस्थि । सेसपदा भयणिज्जा । भंगा २७ । एवं जोणिणिभवण-बाणवें-जोदिसियाणं । पंचिंतिरि०अपज्ज. २८ २७ २६ णियमा अस्थि । मणुसअपल० सव्वपदा भयणिज्जा | भंगा २६ । अणुद्दिमादि सब्वट्ठा ति २८ २१२१ णियमा अस्थि । २२ पवे० भयणिजा। भंगा ३ । एवं जाप० । ६३२८. क्योंकि नाना जीवाकी अपेक्षा इन प्रवेशस्थानोंका ध्रुवरूपसे सर्वदा अवस्थान देखा जाता है। * शेष प्रवेशस्थान भजनीय हैं। ६३२६. क्योंकि पचीस प्रकृतिक श्रादि शेष प्रवेशस्थान अधूवरूप देखे जाते हैं। यहाँ पर भंगाका प्रमाण यह है-१४३४८६०७ । इसीप्रकार मनुष्यत्रिक में जानना चाहिए । आदेशसे ..... नारकियोंमें २८, २७, २६, २४ और २१ प्रकृतियों के प्रवेशक जीव नियमसे हैं । शेष पद भजनीय । हैं। भंग ६ हैं। इसी प्रकार प्रथम पृथिवोके मारकी, सामान्य तिर्थच, पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चद्विक -.. सामान्य देव और सौधर्म कल्पसे लेकर नौ ग्रेवेयक तकके देवों में जानना चाहिए। दूसरीस लेकर सासवीं तक के नारकियों में २८, २७, २६ और २४ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं ! भंग २७ हैं। इसीप्रकार योनिनी तिर्यन, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवामें जानना चाहिए । पश्चेन्द्रिय तिर्थश्च अपर्याप्तकोंमें २८,७ और २६ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव नियमसे हैं। मनुष्य अपर्याप्तकाम सब पद भजनीय है। भंग २६ हैं। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें २८, २४ और २१ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव नियमसे हैं। २२ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव भजनीय हैं। भंग तीन हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ-प्रोबसे पाँच प्रवेशस्थान ध्रुव हैं भौर पन्द्रह प्रवेशस्थान अध्रुव हैं । अतएष एक जीन और नाना जीवोंकी अपेक्षा पन्द्रह बार तीन संख्या रखकर गुणा करने पर कुल भंग १४२४८६०७ आते हैं। इनमें एक ध्रुव भंग भी सम्मिलित है। यथा-३४३४३४३४३४३ x ३४३४३४३४३४३४३४३ x ३-१४३४८६०७ । इसी प्रकार आगे गति मागरणाके भेदोंमें जहाँ जितने अधूव प्रवेशस्थान हैं उतनी बार तीन संख्या रखकर गुणा करनेसे उस उस मागणाके सब भंग प्राप्त कर लेने चाहिए। कोई विशेषता न होनेसे अलग अलग स्पष्टीकरण नहीं किया है। मात्र मनुष्य अपर्याप्तकीम २८, २७ और २६ ये तीन प्रवेशस्थान हैं जो अध्रुव हैं, इसलिए इनमें एक ध्रुव भंगको छोड़कर २६ भंग प्राप्त होते हैं। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०६२ ] उत्तरपत्र डिउदीरणाए ठाणा भागाभागादिश्र णियां गद्दाराणि १४६ ० ३३०. संपहि पत्थुसे सुगमतादो चुण्णिमुतेणारूविदाणं भागाभाग परिमाणखेत-पोसणाणं परूवणमुच्चारणावतंत्रणेण कस्सामो। तं जहा - भागाभागानुगमेण दुबिहो विदेसो-- श्रघेण देण य । ओषेण लब्जीमपत्रे ० सव्यजी ० केवडिओ भागो ? अता भागा | सेसमांत भागो । एवं तिरिक्खा । आदेसेण खेरइय० २६ पवे० सवजी ० केव० भागो ? असंखेजा भागा । सेसप० असंखे० भागो । एवं सच्चखेरड्य० सव्वपंचिदियतिरिक्ख मणूस-मास या भवनादि आप सहरसाएयचि । मणुसपज ०मणु सिणी० २८५० के० १ संखे भागा । सेसपदपवे० संखेज दिभागो | श्राणदादि एवमेव त्ति २८ संखेज्जा भागा । २६ २४ २१ संखेजदिभागो । २७२५ २२ सच्चजी० असंखे० भागो । अणुद्दिसादि अवराजिदा ति २८ पवे० संखेजा भागा । २४ २१ संखे० भागो । २२ श्रसंखे० भागो । एवं सव्वट्टे । वरि संखे कादव्वं । एवं जाव० । ३३१. परिमाणाणु० दुविहो णिद्देसो- श्रघेण आदेसेण य । श्रघेण २६ पर्व० केति ० १ अांता । २८ २७२४ २२ २१ पचे० केत्ति ० १ असंखेज्जा | सेससच्चपदा संखेज्जा । आदेसेण खेरइय० सम्पदा केत्ति ? असंखेज्जा । एवं O ३३०. अब इस स्थान पर सुगम होनेसे चूर्णसूत्रकारके द्वारा नहीं कहे गये भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र और स्पर्शनकी प्ररूपणा उच्चारणाका अवलम्बन लेकर करते हैं। यथा-भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश | ओबसे मी प्रकृतियों के प्रवेशक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्त बहुभागप्रमाण हैं। शेष पदों के प्रवेशक जीव अनन्तवें भागप्रमाण हैं। इसी प्रकार सामान्य विर्यों में जानना चाहिए । आदेश से नारकियोंमें २६ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं। शेष पदके प्रवेशक जीव असंख्यात भागप्रमाण हैं ? इसी प्रकार सब नारकी, सब पंचेन्द्रिय तिर्यश्व, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके दयामं जानना चाहिए। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियों में २६ प्रकृतियों के प्रवेशक जीव कितने हैं ? संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। शेष पद के प्रवेशक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं । श्रानत कल्पसे लेकर नौ मैवेयक तकके देवों में २८ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव संख्या बहुभाग प्रमाण हैं । २६, २४ और २१ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं । २७, २५ और २२ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव सब जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । अनुदिशसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें २८ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । २४ और २१ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं तथः २२ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । इसीप्रकार सर्वार्थसिद्धि में जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातवें भाग के स्थान में संख्यातवें भाग करना चाहिए। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । १३३१. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । श्रघसे २६ प्रकृतियों के प्रवेशक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । २८, २७, २४, २२ और २१ प्रकृतियों के प्रवेशक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। शेष सब पदके प्रवेशक जीव संख्यात हैं। आदेश से Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो सवणेरड्य०-सव्वपंचिदियतिरिक्ख-मणुसअपज्ज०-देवा भवणादि जान गवगेवज्जा त्ति । तिरिक्वेसु मव्यपदाणमोघं | मणुसेसु २८ २७ २६ केसि० ? असंखेज्जा । सेसपदा संखेज्जा । मणुसयज्ज०-मणुसिणी-सहदेवेसु सबपदा संखेज्जा । अणुदिवसादियानाडा सुविधासमारी शहात्ति ? असंखेज्जा । २२ पवे० के० ? संखेज्जा । एवं जार० । ३३२. खेत्ताणु० दुविहो णि०--ओघेण आदेसेण य । ओघेण छब्बीसयवे० केवडि खेत्ते ? सबलोगे । सेसपदाणि लोग० असंखे भागे । एवं तिरिक्खा०। सेसदीसु सव्यपदा लोग० असंखे०भागे । एवं जाव० | ३३३. पोसणाणु० दुविहो णि-अोघेण आदेसेण य । ओघेल छब्बीसपदे० सबलोगो। २८ २७ लोग० असंखे भागो अट्ठचोदस० देखणा सबलोगो वा । २५ पवे लोग. असंखे० भागो अह-बारहचोदस० । २४ २२ २१ लोग० नारकियोंमें सब पदोंके प्रवेशक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसीप्रकार सब नारकी, सब पञ्चन्द्रिय तिर्यन, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर नौ अवेयक तकके देवों में जानना चाहिए। तियनोंमें सन्य पदों के प्रवेशक जीवोंका परिमाण अोधके समान है। मनुष्योंमें २८,२७ और २६ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव कितने हैं ? असंख्यात है। शेष पबोके प्रवेशक जीव संख्यात हैं। मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और सर्वार्थसिद्धिके देवाम सब पदोंके प्रवेशक जीव संख्यात हैं। अनुदिशसे लेकर अपराजित तकके देवा में २८, २४ और २१ प्रकृतियों के प्रवेशक जीव कितने हैं । असंख्यात हैं । २२ प्रकृतियों के प्रवेशक जीव कितने हैं ? संख्यात है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ३३२. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है. घोष और आदेश । श्रीघ छब्बीस प्रकृतियोंके प्रवेशक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सर्व लोक क्षेत्र है। शेष पोंके प्रवेशक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवं भागप्रमाण है। इसीप्रकार तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए । शेष गतियोंमें सब पदोंके प्रवेशक जीगेका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ- यद्यपि २६ प्रकृतिक प्रवेशस्थान सम्यग्दशनके होनेपर भी होता है, परन्तु सम्यग्दर्शन होनेके पूर्व सब जीव छत्रीस प्रकृतियोंके प्रवेशक ही होते हैं और वे अनन्त है, इसलिए उनका क्षेत्र सर्व लोक कहा है। किन्तु शेष स्थानों के प्रवेशक जीव सम्यग्दर्शन होनेके बाद यथा योग्य गुणस्थानके प्राप्त होनेपर ही होते हैं, अनः उनका सर्व लोक क्षेत्र नहीं बन स ता, इसलिए उनका लोकका असंख्यातवां भागप्रमाण क्षेत्र कहा है। अपने सम्भव पदांकी अपेक्षा यह क्षेत्र सामान्य तिर्यश्चोंमें बन जाता है, इसलिए उनकी प्ररूपणा ओषक समान जाननेकी सूचना की है। तथा गतिमार्गणाके शेष भेदोंका क्षेत्र ही लोकके असंख्यात्त भागप्रमाण है, इसलिए उनमें सम्भव सय पदोंके प्रवेशकोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। ३३३, स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है -ओघ और आदेश । श्रोषसे छब्बीस प्रकृतियों के प्रवेशकोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । २८ और २७ प्रकृतियोंके प्रवेशकोंने लोकके असंख्यातवें भाग, त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम पाठ भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । २५ प्रकृतियोंके प्रवेशकोंने लोकके असंख्यातवें भाग Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ गा०६२] उत्तरपयडिउदीरणाए ठाणाणं पोसणारिणयोगद्दारं असंखे० भागो अनुचोड्स० । सेसपदे लोग असंखे भागो। ३३४, आदेसेण गेरइय० २८ २७ २६ पवे लोग. असंख०भागो छ चोदस० देसूणा। २५ लोग० असंखे भागो पंचचोद्दस० । सेसं खेतं । एवं विदियादि जाव सत्तमा त्ति । गवरि सगपोसणं । सत्तमाए २५ पत्रे० खेत्तं । पढमाए खेनं । और त्रसनालीके चौदह भागामसे कुछ कम आठ और बारह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। २४, २२ और २१ प्रकृतियों के प्रवेशकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनाली के चौवह भागोंमेंसे कुछ कम माठ भागामारण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंके प्रवेशकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ-ओबसे छब्बीस प्रऋतियोंके प्रवेशकोंका जब क्षेत्र ही सर्व लोक प्रमाण कहा है तघ इनका स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण होना सुनिश्चित है। जो सम्यक्त्वसेच्युत होकर सम्यक्त्वकी अद्वेलना होने के पूर्व तक मिथ्यात्यके साथ रहते हैं या अनन्तानुबन्धीके अवियोजक वेदकसम्यग्दृष्टि होते हैं वे ही २८ प्रकृतियोंके प्रवेशक होते हैं। तथा जो २८ प्रकृतियोंके प्रवेशक होते हैं, तथा जी २८ प्रकृतियों की सत्तावाले जीव सम्यक्त्व प्रकृतिकी उद्वेलना कर लेते हैं वे २७ प्रकृतियोंके प्रवेशक होते हैं. इसलिए इनका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, विहारवस्वस्थान श्रादिकी अपेक्षा अतीशकसनालोकोचोदा था शाम अगममाण और मारणान्तिक समुद्घात तथा उपपादपदकी अपेक्षा अतीन स्पशन सर्व लोकप्रमाण प्राप्त होना सम्भव है। यही समझकर इन दो पदोंके प्रवेशकोंका उक्तः स्पर्शन कहा है। यह सामान्य कथन हैं। वैसे अनन्तानुबन्धो चतुष्क के अविसंयोजक २८ प्रकृतियों के प्रवेशक सम्यग्दृष्टि जीवोंका स्पर्शन सर्वलोक प्रमाण नहीं बनता है इतना विशेष जानना चाहिए । २५ प्रकृतियों के प्रवेशकोंमें सासा. दन जीवोंकी मुख्यता है और इनका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग तथा सनालीके चौदह भागों में से कुछ कम पाठ और कुछ कम बारह भागप्रमाण बतलाया है, इस लिए यहाँ पर उक्त पदके प्रवेशकोंका यह स्पर्शन कद्दा है । २४, २२ और २१ प्रकृतियोंके प्रवेशकों में सम्यग्दृष्टि जीवोंकी मुख्यता है। और इनका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग तथा सनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम पाठ भागप्रमाण कहा है। यही कारण है कि यहाँ पर उक्त पदोंके प्रवेशकों का यह स्पर्शन कहा है। शेष पदोंके प्रवेशकोंका सम्बन्ध उपशमणि और क्षपकणिसे है और ऐसे जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है। यही कारण है कि इन पदोंके प्रवेशकों का यह स्पर्शन कहा है। ६३३४. आदेशसे नारकियों में २८, २७ और २६ प्रकृतियोंके प्रवेशकोंने लोकके असंख्यातवं भाग और असनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। २५ प्रकृतियोंके प्रवेशकोंने लोकके असंख्यातयें भाग और बसनालीके चौदह भागोमसे कुछ कम पाँच भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंके प्रवेशकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारक्रियों में जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि अपना स्पर्शन कहना चाहिए । सातवी पृथिवीमें २५ प्रकृतियों के प्रवेशकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। पहली पृथिवीमें सब पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान है। विशेषार्थ-.-सामान्यसे नारकियोंमें २८, २७ और २६ प्रकृतियोंके प्रवेशक मिथ्याष्टि जीवोंके मारणान्तिक समुद्घात और उपपादके समय भी सम्भव हैं, इसलिए इनकी अपेक्षा वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग और अतीत स्पर्शन समालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाण कहा है। छटवें नरक तकके सासादन जीव ही मरकर अन्य गति में उत्पन्न Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अययवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदो ७ ६३३५. तिरिक्खेसु २८ २७ लोग० श्रसंखे० भागो सव्वलोगो वा । २६ पर्व० सच्चलोगी दिछु लोग सर्व भागों सत्तचोह० दे०। २४ लो० श्रसंखे० भागो सुविधिसागर महाराज छवोस देखणा | सेसं लोग असंखे० भागो । एवं पंचि०तिरिक्खतिए । वरि २६ लोग० श्रसंखे० भागो सव्वलोगो वा । पंचि०तिरिक्खप्रपज ०~ मणुस अपज० सच्चपदा० ० असंखेजदिभागो सञ्चलोगो वा । मणुसतिए २८ २७२६ २५ पंचिदियतिरिक्खभंगो | सेसपद० खेत्तं । | १५२ होते हैं और २५ प्रकृतियोंके प्रवेशकों में सासादन जीवों की मुख्यता है। यही कारण है कि इनकी अपेक्षा वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग और नालीके चौदह भागों में से पाँच भागमा कहा है । यहाँ शेष पदोंके प्रवेशकों में सम्यग्दृष्टि जीवोंकी मुख्यता है, इसलिए इनके प्रवेशकों का लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शन कहा है। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक के नारकियों में अन्य सब कथन सामान्य नारकियोंके समान ही है। मात्र दो बातोंको विशेषता है। प्रथम तो यह कि अतीत स्पर्शन कहते समय अपना अपना स्पर्शन कहना चाहिए । दूसरे सातवीं पृथिवीके नारकी मिध्यात्वके साथ ही मरण करते हैं ऐसा एकान्त नियम है, इसलिए उनमें २५ प्रकृतियों के प्रवेशकों का स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है। तथा पहली पृथिवीके नारकियों का स्पर्शन ही क्षेत्रके समान है, इसलिए इनमें सब पोंके प्रवेशकों के स्पर्शनको क्षेत्रके समान जाननेकी सूचना की है। १३३५ तिर्यश्वामें २८ और २७ प्रकृतियोंके प्रवेशकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । २६ प्रकृतियोंकि प्रवेशकोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। २५ प्रकृतियों के प्रवेशकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और नालीके चौदह भागों में से कुछ कम सात भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। २४ प्रकृतियोंके प्रवेशकोंने लोकके असंख्यात भाग और मनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंके प्रवेशकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यवत्रिक में जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें २६ प्रकृतियोंके प्रवेशकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लाकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त और मनुष्य अपयातकों व पोंके प्रवेशकोंने लोकके असंearn भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यत्रिक में २८, २५, २६ और २५ प्रकृतियों के प्रवेशकका स्पर्शन पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोके समान है। शेष पदोंके प्रवेशकांका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । विशेषार्थ --तियंचा २८ प्रकृतियोंके प्रवेशकों में २८ प्रकृतियोंकी सत्तावाले सादि मिध्यादृष्टि और अनन्तानुबन्धीके अवियोजक वेदक सम्यग्दृष्टियोंकी मुख्यता है । २७ प्रकृतियोंके प्रवेशक सम्यक्त्वकी उद्वेलना कर स्थित हुए मिध्यादृष्टि हैं और ऐसे तियंचोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग और अतीत स्पर्शन सर्व लोक प्रभास सम्भव होनेसे उक्त पदों के प्रवेशकों का यह स्पर्शन कहा है। परन्तु अनन्तानुबन्धी चतुष्क के वियोजक वेदकसम्यग्दृष्टियों का स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और प्रसन्नालीके चौदह भागों में से कुछ कम छेद भाग प्रमाण ही समझना चाहिए । यहाँ पर २८ प्रकृतियों के प्रवेशक कौन जीव हैं यह दिखलाने के लिए उक्त जीवोंका संग्रह किया है । २६ प्रकृतियोंके प्रवेशक सामान्य तियचोंका Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपडिउदीरणाए ठाणा से साणियोगदार परूवणा १५३ आचार्य श्री सविधिसागर जी महाराज 81 ३३३६. देवेस २८ २७ २६ २५ लोगस्स असंखे० भागो अट्ट - एवचोद्दस० देणा । २४ २२ २१ लोग० असंखे० भागो श्रइचोइस० देखणा । एवं सोहम्मीसाण | एवं चैव सव्वदेवेसु । वरि सगपोसणं पदविसेसो च जाणियन्यो । एवं जाव० । * पाणाजीवेहि कालो अंतरं च अणुचितिक दव्वं । ६ ३३७, एदस्स दव्वट्टियायमा क़ि :विरथररुसत्ताणुग्गमुच्चारणाबलेण कीरदे । तं जहा — कालाजु० दुविहो णि०. श्रोषेण आदेसेण य । श्रघेण २८ २७ २६ २४ २१ सव्वद्धा । २५ जह० सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन है यह स्पष्ट ही है। सम्यग्दृष्टि तिर्यक्षों का वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यात भाग और अतीत स्पर्शन त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाण बतलाया है । यही कारण है कि यहाँ २४ प्रकृतियोंके प्रवेशकोंका उक्त क्षेत्रप्रमाण स्पर्शन कहा है। इनमें शेष पोंके प्रवेशकों का स्पर्शन लोकके असंख्यात भागप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। पश्चन्द्रय तिर्यवत्रिक में अपने सब पदोंकी अपेक्षा यह स्पर्शन बन जाता है । मात्र इनका वर्तमान स्पर्शन लोक असंख्यात भागप्रमाण प्राप्त होनेसे इनमें २६ प्रकृतियों के प्रवेशकका लोकक असंख्यातवें भाग और स्वर्व लोकप्राण स्पर्शन कहा है। पचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य पर्यातकों का जो स्पर्शन है वह स्पर्शन उनमें सम्भव पदोंके प्रवेशकोंका बननेमें कोई प्रत्यवाय नहीं है, इसलिए उनमें सम्भव पदोंके प्रवेशकोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग और सर्वं लोकप्रमाण कहा है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिमें जो स्पर्शन कह । है व घटित कर लेना चाहिए। ३३६. देषों में २८, २७, २६ और २५ प्रकृतियों के प्रवेशकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और समालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। २४, २२ और २१ प्रकृतियोंके प्रवशकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और मनाली के चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पके देवोंमें जानना चाहिए तथा इसी प्रकार सब देवो में जानना चाहिए, किन्तु सर्वत्र अपना अपना स्पर्शन और पदविशेष जान कर कथन करना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ – देवोंमें २८, २७, २६ और २५ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव मारणान्तिक पद और उपपादपदके समय भी सम्भव हैं, इसलिए इनमें सामान्य देवोंका जो स्पर्शन सम्भव है वह बन जाने से वह उक्त प्रमाण कहा है। तथा शेष पदों के प्रवेशकों में सम्यग्दृष्टियों की मुख्यता है, इसलिए उन पदों के प्रवेशकों का स्पर्शन सम्यग्दृष्टियों की मुख्यता से कहा है। सौधर्म और ऐशानears aaiमें यह स्पर्शन बन जानेसे उसे सामान्य देवोंके समान जानने की सूचना की हैं। शेष देवोंमें पूर्वोक्त विशेषता के साथ अपना अपना स्पर्शन जानकर उसे घटित कर लेना चाहिए । विशेष वक्तव्य न होनेसे वह पृथक् पृथक नहीं बतलाया है । * नाना जीवों की अपेक्षा काल और अन्तरका विचारकर घटितकर लेना चाहिए। ३३७. द्रव्यार्थिकनयका आश्रय कर प्रवृत्त हुए इस सूत्रकी पर्यायार्थिक प्ररूपणा बिस्तार रुचि वाले जीवों का अनुग्रह करनेके लिए उच्चारणा के बलसे करते हैं। यथा- कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - श्रोध और आदेश । श्रघसे २८, २७, २६, २४ और २१ प्रकृतियों के प्रवेशकों का काल सर्वदा है । २५ प्रकृतियोंके प्रवेशकोंका जघन्य काल एक समय २० Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का सावाद्यासागर जा महाराज जयधवलासहिदे कसायपाहुडे वेदगो एयसमओ, उक० पलिदो० असंखे भागो । २३ जहष्णु० अंतोमु० । २२ २०१९ १३ १२९६३२१ जह० एगसमओ, उक्क० अंतोषु० । १०७ ४ जह एगस०, उक्त संखेशा समया । ३३८, आदेसेण गैरइय० सव्वपदा० सव्वदा । णवरि २५ पवे. ओघं । २२ जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । एवं पढमाए । तिरिक्त-पंचिं०तिरि० दुग०देवा सोहम्मादि जार णयगेवजा ति विदियादि जाव सत्तमा ति एवं चैव । णवरि है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । २३ प्रकृतियोंके प्रवेशकोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। २२, २०, १६, १३, १२, ९, ६, ३, २ और १ प्रकृतियों के प्रवेशकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त हैं । १०, ७, और ४ प्रकृतियों के प्रवेशकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। विशेषार्थ-२८, २७, २६, २४ और २१ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव सर्वदा पाये जाते हैं, इसलिए इनकी अपेक्षा सर्वदा काल कहा है। कारण स्पष्ट है। २५ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव सासादन सन्यहीष्ट होते है और उनका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । यही कारण है कि यहाँ पर इस पदके प्रदेशकोंफा उक्त काल कहा है। २३ प्रकृतियोंके प्रवेशक जिन्होंने सम्यग्मिथ्यात्वकी क्षपणा कर ली है वे हाते हैं और पेसे जीव लगातार अन्तर्मुहूर्त काल तक ही पाये जाते हैं, क्योंकि मिथ्यात्वकी क्षपणा बाद सम्यग्मिथ्यात्वकी नपणामें अन्तर्मुहूर्त काल लगता है। अब यदि नाना जीव भी क्रमसे अत्रुटित परम्पराके साथ सम्यक्त्वकी क्षपणा करें तो वे संख्यात होनेसे उनके कालका जोड़ अन्तर्मुहूर्त .. ही होगा। यही कारण है कि यहोंपर २३ प्रकृतियोंके प्रवेशकोंका जघन्य और उत्कृष्ट फाल । अन्तर्मुहूर्त कहा है। २२, २०, १६, १३, १२,६, ६, ३, २ और १ प्रकृतियों के प्रवेशकोंकी पूर्वमें जो समुत्कीर्तना बतलाई है और उस आधारसे जो स्वामित्व कहा है उसे देखते हुए इन पदोंके प्रवेशकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूतं बनने में कोई बाधा नहीं वाती, इसलिए इन पदोंके प्रवेशकोंका उक्त काल कहा है। तीन प्रकारके लोनमें मायासंज्वलनका प्रवेश कराने पर चार, तीन प्रकारकी मायाके ऊपर भानसंज्वलनका प्रवेश कराने पर सात और तान प्रकारके मानके ऊपर क्रोध संज्वलनका प्रवेश कराने पर १० प्रकृतियों का प्रवेशक होता है। चूंकि इन प्रवेशस्थानों का एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अब यदि अत्रुटित सन्तानके साथ नाना जीव इन प्रवेशस्थानों को प्राप्त हों तो उस सष कालका जोड़ संख्यात समय ही होगा और एक समय तक इन प्रवेशस्थानों को प्राप्त कर दूसरे समयमै सन्तान भंग हो जाय तो इन प्रवेशस्थानका एक समय काल प्राप्त होगा। यही सब समझकर यहाँ पर इन पदोंके प्रवेशकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। ६३३८. आदेशसे नारकियों में सब पोंके प्रवेशकोंका काल सर्वदा है। किन्तु इतनी विशेषता है कि २५ प्रकृतियों के प्रवेशकोंका काल पोषके समान है। तथा २२ प्रकृतियों के प्रवेशकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है। इसी प्रकार पहली पृथिवीके नारकी, सामान्य तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यचद्विक, सामान्य देव और मौधर्मकल्पसे लेकर भौ प्रवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। दूमरौ पृथिवीसे लेकर सातवों पृथिवी तक नारकियों में इसी प्रकार जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि २२ प्रकृतियों के प्रवेशकोंका Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " गा० ६२ ] उत्तरपडिउदीरणाए ठाणाएं से साथियोगदार परूवणा १५५ २२ जह० एस० उ० आवलि० असंखे० भागो । २१ जह० अंतोमु०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । एवं जोगिणी० - भवण० वाण० जोदिसियाणं । पंचि०तिरिक्त अप० सच्चपदा सन्वद्धा । मणुसतिए योघं । णवरि २५ जह० एयसमओ, उक० तोमु० । मणुस अपज • २८ २७२६ ज६० एयस०, उक० पलिदो ० संभागो । अणुद्दिसादि सम्बट्टा त्ति २८ २४ २१ सन्नद्धा | २२ जद्द० एगम, उक्क० अंतोमु० । एवं जाय । मार्गदर्शक आचार्य श्री सुविधियागर जी महाराज.. जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । २१ प्रकृतिथोंके प्रवेशकोंकः जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्य के असंख्यात भागप्रमाण हैं | दसी प्रकार योनिनी तिर्यञ्च भवनवास, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए | पश्चान्द्रय तिर्यन अपर्याप्तकों में सम पदोंके प्रवेशकों का काल सर्वदा है। मनुष्यत्रिक में श्रोत्रके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें २४ प्रकृतियोंके प्रवेशकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। मनुष्य अपर्याप्त २८, २७, और २६ प्रकृतियों के प्रवेशकोंका जघन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल पल्य के असंख्यातयें भागप्रमाण है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक के देवामें २८, २४ और २१ प्रकृतियोंके प्रदेशकों का काल सर्वदा है । २२ प्रकृतियोंके प्रवेशकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ – अनानुबन्धीका बियोजक जो उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सासादन में जाता है वह प्रथम समय में २२ प्रकृतियोंका प्रवेशक होता है और यदि वह द्वितीयादि समय में सासादनमें रहता है तो २५ प्रकृतियोंका प्रवेशक हो जाता है। तथा जो उपशमसम्यग्दृष्टि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना किये बिना सासादन में जाता है वह जितने काल तक सासादनमें रहता है उसने काल तक पच्चास प्रकृतियोंका ही प्रवेशक होता है। एक समय तक रहता है तो उतने काल तक २५ प्रकृतियोंका प्रवेशक होता है और छह आवलिकाल तक रहता है तो उत्तने काल तक पच्चीस प्रकृतियों का प्रवेशक होता है । अब यदि त्रुटित सन्तानकी अपेक्षा इस कालका विचार करते हैं तो वह कमसे कम एक समय प्राप्त होता है और अत्रुटित सन्तानकी अपेक्षा इसका विचार करते हैं तो वह पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है । यही कारण है कि यहाँ पर नारकियों में इस पद के प्रवेशकों का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। २२ प्रकृतियों के प्रवेशकों का जघन्य काल एक समय है यह तो हमने पूर्व में बतलाया ही है। किन्तु इस पदके प्रवेशकोंका उत्कृष्ट काल उन जीवोंके होता है जो सम्यक्त्वकी क्षपणा कर रहे हैं। अन्यथा यह काल श्रावस्तिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है। यही कारण है कि सामान्य नारकियों में और प्रथम पृथिवीके नारकियों में २२ प्रनियोंके प्रवेशकों का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। तथा द्वितीयादि पृथिवियां नारकियों में इस पद के प्रवेशकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। तिर्यद्धद्विक और सौधर्म कल्पसे लेकर नौ मैवेयक तके देव तो सामान्य नारकियोंके समान ही काल बन जाता है, क्योंकि इनमें कृतकृत्यचेदक सम्यग्दृष्टि जीवोंकी उत्पत्ति सम्भव हैं । किन्तु योनिनी तिर्यञ्च और भवनन्त्रिक में दूसरी पृथिवीके मानं काल बनता है, क्योंकि इनमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्टष्टियों की उत्पत्ति नहीं होती । उक्त सब मार्गणाओं में कालका शेष कथन समान है। मनुष्य त्रिक में संख्यास जीव ही पच्चीस प्रकृतियों के प्रवेशक होते हैं। इसलिए इनमें इस पदके प्रवेशकों का जघन्य काल एक Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो ७ ३३९, अंतराणु० दुविही णि..-भोघेण आदेसेण य । श्रोषेण २८ २७ २६ २४ २१ णस्थि अंतरं । २५ जह० एगस०, उक्क सत्त रादिदियाणि । २२ पवे. जह० एयसमो, उक० चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे। २३ १३ २ १ जह० एगस०, उक. छमासा । २० १९१२ १० ९७६ ४ ३ जह० एगसमो , उक्क० वासपुधत्तं । 5 ३४०. आदेसेग्ग णेरइय० २८ २७ २६ २४ २१ णस्थि अंतरं । २५ २२ श्रोघं । एवं पढमाए तिरिक्ख-पंचिंतिरि०२-देवा सोहम्मादि णवगेवजा ति । समय और उप्कृष्ट काल अन्तर्मुहूत कहा है । मनुष्य अपर्याप्त सान्तर मार्गणा है, इसलिए इसमें सब पदोंका जघन्य काल एक साय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होनेसे वह तत्प्रमाण कहा है। नौअनुदिश आदि में जिस कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिको २१ प्रकृनियोंके प्रवेशक होने में एक समय काल शेष है ऐस एक जीव तथा नाना जीय भी उत्पन्न हो सकते हैं और कृतकृत्यवेदक सम्यग्दष्टि जीव लगातार भी उत्पन्न होते है जो अत्रुटित सन्तान रूपसे अन्तमुर्त काल तक बाईस प्रकृतियों के प्रवेशक बने रहते हैं । यही कारण है कि इनमें इस पदके प्रवेशकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। शेष कथन सुगम है । ३३६. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है--ओघ और आदेश । ओघसे २८, २१, २५ सावरिमगरमचेरापोवाकान्तरकाल नहीं है । २५ प्रकृतियों के प्रवेशकोंको जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर सात दिन रान है। २२ प्रकृतियोंके प्रवेशकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौशीस दिन-रात है। २३, १३, २ और १ प्रकृतियों के प्रवेशकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। २०, १६, १२, १८, ६, ७, ६,४ और ३ प्रकृतियोंके प्रवेशकों का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। विशेषार्थ-२६, २७, २६, २१ और २१ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव निरन्तर उपलब्ध होते हैं, इसलिए इनके अन्तरकालका निषेध किया है । २५ प्रकृतियों के प्रवेशक अनन्तानुबन्धी चतुष्कके अचियोजक उपशमसम्यग्दृष्टि जीव भी होते हैं और इनका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर सात दिन रात हानेसे यह उक्त प्रमाण कहा है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कका बियोजक जो सपशन सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्व में जाता है वह प्रथम समयमें २२ प्रकृतियोंका प्रयेशक होता है, यतः ऐसे जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन-रात होता है, इसलिए यहाँ पर इस पदके प्रवेशकोंका उक्त अन्सरकाल कहा है। दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकी क्षपणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है, इसलिए यहां पर २३, १३, २ और १ प्रकृत्तियों के प्रवेशकोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना काहा है, क्योंकि २३ प्रकृतिक प्रवेशस्थान दर्शनमो: नीयकी क्षपणा के समय ही होता है और शेष तीन स्थान चारित्रमोहनीयकी क्षपणा के समय नियमसे पाये जाते हैं । शेप प्रवेशस्थान उपशमश्रेणिमें होते हैं, इसलिए उसके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरको ध्यान में रख कर उन प्रवेशस्थानोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण कहा है। ३४०. श्रादेशसे नारकियों में २८, २७, २६, २४ और २१ प्रकृतियोंके प्रवेशकोंका अन्तरकाल नहीं है। २५ और २ प्रकृतियों के प्रवेशकोंका अन्तरकाल ओधके समान है। इसी प्रकार पहली पृथिवीके नारकी, सामान्य तिर्यन, पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्वद्विक, सामान्य देव Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : गा० ६२ ] उत्तरपडिउदीरणार ठाणा सेसा थियो गद्दारपरूवरणा १५७ ० सव्व 2 म्होरीज एवं चैव विदियादि सत्तमा चि । खबरि २१ जह० एयस०, उक्क० चउवीस महोरते सादिरेंगे । एवं जोगिणी. भवण वाण ० - जोदिमि० । पंचिदियतिरिक्ख श्रपञ्ज पदाणं णत्थि अंतरं णिरंतरं । मणुसतिए ओयं । णवरि मणुसिणी०जम्मिलम्मासं, तम्मि वासवतं । मणुसअप सच्चपदर वे० जह० एयस० उक० पलिदो० असंखे० भागो । अणुद्दिमादि २६२४२१ प्रागदेश कसबडा जय श्री सुविधा एलिस अंतर । २२ जह० एम०, उक्क० वासपुधत्तं । सब्ब पलिदो ० संखे भागो । एवं जावे० । और सौधर्म कल्पसे लेकर नौ मैवेयक तक के देवों में जानना चाहिए। दूसरी पृथिवीसे लेकर ernal प्रथिवी तक इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि २१ प्रकृतियोंके प्रवेशकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन-रात है । इसी प्रकार योनि तिर्यञ्ज, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में जानना चाहिए। पब्वेन्द्रिय तिर्यवपर्यातकों में सब पदोंके प्रवेशकों का अन्तर नहीं है, निरन्तर हैं। मनुष्यत्रिक में के समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्यिनियों में जहां छह माह कहा है वहां वर्षपृथक्त्व कहना चाहिए । मनुष्य अपर्याप्तकों में सब पदोंके प्रवेशकों का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्य के असंख्यानवें भागप्रमाण है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवों में २८, २४ और २१ प्रकृतियों के प्रवेशकों का अन्तर काल नहीं है २२ प्रकृतियों के प्रवेशका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्प्राण है तथा सर्वार्थसिद्धिमें उत्कृष्ट अन्तर पल्यके संख्यातवें भाग प्रमाण है । इसीप्रकार अनाहारक मागे तक जानना चाहिए | I מ , विशेषार्थ – नारकियों में २८, २ २६, २४ और इक्कीस प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव सर्व पाये जाते हैं, इसलिए उनके अन्तर कालका निषेध किया है । २५ और २२ प्रकृतियों के प्रवेशकों का अन्तरकाल जैसा श्रीघप्ररूपणा में घटित करके बतलाया है वैसा यहां भी बन जाता है। पहली पृथिवी नारकी, सामान्य तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय तिर्यस्य द्विक, सामान्य देव और सौधर्म कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें यह प्ररूपणा बन जाती है, इसलिए उनमें सामान्य नारकियों के समान जानने की सूचना की हैं। द्वितीयादि पृथिवियोंके नारकी, योनिनी तिर्यच और मनन्त्रिक में और सब प्ररूपणा तो सामान्य नारकियोंके समान बन जाती है मात्र इनमें क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होते हैं, इसलिए श्रनन्तानुबन्धीतुष्कके वियो जक उपशमसम्यग्दष्टियों की अपेक्षा २१ प्रकृतियोंके प्रवेशकों के अन्तरकालका कथन किया हूँ जो जघन्य एक समय और उत्कृष्ट २४ दिन-रात प्राप्त होता है। पचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्या I कोंमें सम्भव सब पढ़ोंका अन्तरकाल नहीं है यह स्पष्ट ही है। मनुष्यत्रिक में प्रधके समान है यह भी स्पष्ट है । मनुष्यिनियों में क्षपणाका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट श्रान्तर वर्षत्प्रमाण है, इसलिए इनमें २३, १३, २ और १ प्रकृतियोंके प्रवेशकोंका उक्त अन्तर बतलाने के लिए यह सूचना की है कि इनमें जहां छह माह अन्तर कहा है वहां वर्षपृथक्त्व जानना चाहिए । मनुष्य अपर्याप्त सान्तर मार्गणा है। इसका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यात्तव भागप्रमाण है, इसलिए यहां सब पर्दोंके प्रवेशकोंका उक्त अन्तर कहा है। नौ अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक के देवोंमें २८, २४ और २१ प्रकृतियों के प्रवेशकों का अन्तरकाल नहीं है यह स्पष्ट है। साथ ही इनमें कृतकृत्यवेक सम्यष्टि जीव कमसे कम एक समय के अन्तर से और अत्रिकसे अधिक वर्षपृथक्त्वके अन्तरसे उत्पन्न होते हैं, इसलिए इनमें २२ प्रकृतियोंके प्रवेशकोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पृथक् प्रमाण कहा है। मात्र सर्वार्थसिद्धि में उत्कृष्ट अन्तर पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण है । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो. ६३४१. भावो सव्वस्थ ओदइयो भावो । * अप्पाषाहुवे । । ३४२. सुगममेदमहियारसंभालणसुत्तं । उपहं सत्तण्हं वसाहं पयडीणं पसगा तुल्ला थोवा । ६३४३. कुदो ? एयसमयसंचिदत्तादो । तं जहा-तिण्हं लोभाणमुवरि मायासंजलणे पवेसिदे एयसमयं चदुहं पवेसगो होइ । विण्हं मायाणमुवरि माणसंजलणं पवेसिय एगसमयं सत्तएहं पवेसगो होइ । तिण्हं माणाणमुवरि कोहसंजलणं पवेसयमाणो एयसमयं चेव दसएह पवेसगो होदि ति एदेण कारणेण एदेसि तिण्हं पि पवेसद्वाणाणं सामिणो जीवा अण्णोण्णेण सरिसा होगुण उवरि भणिस्समाणासेसपदेसेहितो थोया जादा। ॐ तिरहं पवेसगा संखेनगुणा । ३४४. किं कारणं ? संचयकालबहुत्तादो | तं जहा-तिविहं लोभमोकड्डिऊण द्विदमुहुमसांपराइयकाले पुणो अणियट्टिअद्धार संखे० भागे च सचिदो जीवरासी तिण्हं पवेसोगहोइन :-तेमायुविलादीविहगसमयसँचयादा एसो अतोमुहृत्तसंचनो संखेज्जगुणो त्ति णस्थि संदेहो । छएहं पवेसगा विसेसाहिया । ३३४१. भाव सर्वत्र प्रौदयिक है। * अल्पवहुत्वका अधिकार है। ६३४२ अधिकारकी सम्हाल करनेवाला यह सूत्र सुगम है । * चार, सात और दस प्रकृतियों के प्रवेशक जीव परस्पर तुल्य होकर सबसे स्तोक हैं। ३४३, क्योंकि इनका एक समयमें संचय होता है। यथा-तीन लोभोंके ऊपर मायासंज्वलनका प्रवेश होने पर एक समय तक चार प्रकृतियों का प्रवेशक होता है। तीन प्रकारकी मायाके ऊपर मान संज्वलनका प्रवेश कर एक समय तक सात प्रकृतियोंका प्रवेशक होता है। तीन मानोंके उपर क्रोधसंज्वलनका प्रवेश करता हुआ एक समय तक ही दस प्रकृतियोंका प्रवेशक होता है। इस कारणसे इन तीनों ही प्रवेशस्थानोंके स्वामी जीव परस्पर समान होते हुए आगे कहे जानेवाले समस्त प्रवेशस्थानोंके स्वामियोंकी अपेक्षा स्सोक हुए। उनसे तीन प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव संख्यातगुणे हे । ६३४४. क्योंकि इनका सञ्चयकाल बहुत है। यथा--- तीन लोभोंका अपकर्षण कर सूक्ष्म साम्परायके काल में स्थित होकर पुनः अनिवृत्तिकरणके फालके संख्यातवें भागप्रमाण । कालमें सञ्चित हुई जीव राशि तीन प्रकृतियोंकी प्रवेशक होती है। इसलिए पूर्वके प्रवेशस्थानोंमें एक समय में हुए सायसे यह अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर हुश्रा सञ्चय संख्यातगुणा है इसमें सन्देह नहीं है। * उनसे छह प्रकृतियों के प्रवेशक जीव विशेष अधिक हैं । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिउदीरणाए ठाणाणं सेसाणियोगदारपरूषणा . १५६ १३४५. केण कारणेण ? बिसेसाहियकालभतरसंचिदत्तादो। णेदमसिद्धं, श्रोदरमाणयस्स लोभवेदगकालादो तस्सेब मायावेदगकालो विसेसाहियो त्ति परमागमचक्खूणं सुप्पसिद्धत्तादो । वपहं पवेसगा विसेसाहिया । ७६४६. कुदो ? मायावेदगकालादो विसेसाहियमाणवेदगकालम्मि संचिदजीवरासिस्स गहणादो। बारसरहं पचेसगा विसेसाहिया । ३४७. किं कारणं ? पुब्धिल्लसंचयकालादो विसेसाहियकोहवेदगकालम्मि अगदवेदपडिबद्धम्मि संचिदजीवरासिस्स गहणाहो । एगणवीसाए पवेसगा विसेसाहिया । १३४८, किं कारणं ? पुरिसवेद-छण्णोकसाए प्रोकड्डिय पुणो जाब इत्थिवेदं ण ओकडदि ताव एदम्मि काले पुब्बिलसंचयकालादो विसेसाहियम्मि संचिदजीवरासिस्स विवक्खियत्तादो। बीसाए पवेसगा विसेसादिया। ३४९. कुदो मार्गइरिक्वेदमलाहिर्च अपुण्यक्जिीमागणबुसयवेदयाल श्रोकडदि तार एदम्मि काले पुचिल्लसंचयकालादो विसेसाहियम्मि संचिदजीवाणमिह म्गहणादो। ६३४५. योंकि, ये विशेष अधिक कालके भीतर सञ्चित हुए हैं। यह असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि उतरनेवाले जावके लोभवेदक कालसे उसीका मायावेदक काल विशेष अधिक है, यह बात परमागमरूप चनुवालोंके लिए सुप्रसिद्ध हैं। * उनसे नौ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव विशेष अधिक हैं। ६३४६. क्योंकि यहाँ पर मायावेदक कालसे विशेष अधिक मानवेदक कालमें सश्चित हुई ज बराशिका ग्रहण किया है। * उनसे बारह प्रकृतियों के प्रवेशक जीव विशेष अधिक है। ६३४६, क्योंकि पूर्वक सञ्चयकालसे विशेष अधिक अपगतवेदसे सम्बन्धित क्रोधवेदक कालमें सञ्चित हुई जीवराशिका ग्रहण किया है। * उनसे उन्नीस प्रकृनियों के प्रवेशक जीव विशेष अधिक हैं। ३४८. क्योंकि पुरुषवेद और छह नोकपायोंका अपकर्षण कर पुनः जब तक स्रीवेदका अपकर्षण नहीं करता तब तक, जो कि पूर्वके सश्चय कालसे विशेष अधिक है ऐसे इस कालमें सम्बित हुई जीवराशि यहाँ पर विवक्षित है। * उनसे बोस प्रकृतियों के प्रवेशक जीव विशेष अधिक हैं। ३४.. क्योंकि स्त्रीवेदका अपकर्षण कर जब तक नपुंसकवेदका अपकर्षण नहीं करता है तक्र तक पूर्वक सञ्चयकालसे विशेष अधिक इस सन्चयकालमें सहिचत हुए जीवोंका यहां पर ग्रहण किया है। he--- - - - - Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जयधवलासहिदे कसायपाहुदे [ वेदगो ७ * दोपहं पवेसगा संखेजगुणा । । ३५०. केण कारणेण ? पुरिसवेदोदपण खबगसेढिमारूढस्स अंतरकरणादो समयूणावलियाए गदाए तदो पहुडि जाव पुरिसवेदपढमट्टिदिचरिमममयो ति ताव पदम्मि कालविसेसे पुरसंचयाचलंबगावाटसाद त्रिी बामसेढीए चेव पयदसंचयो अवलंविञ्जदे तो चि पुचिल्लादो एदस्स संचयकालमाहप्पेण संखेजगुणत्तं ण विरुज्झदे । ॐ पकिस्से पवेसगा संखेजगुणा।। ३५१. कुदो ? पुविल्लादो एदस्म संचयकालमाहप्पदंसणादो। तं जहादोराहं पवेसगकालो णाम पुरिसवेदपढमट्टिदीए णसवेद-इस्थिवेद-अण्णोकसायक्खवणद्धामेत्तो । एकिस्से पवेसगकालो पुरण पुग्सिवेदयढमट्टिदीए गालिदाए तत्तो प्पहुडि अस्सकएणकरणकालो किट्टीकरणकालो कोधतिण्णिसंगहकिट्टिवेदगकालो माणवेदगकालो मायावेदगकालो लोभवेदकालो त्ति एदासि छएहमद्धाणं समुदायमेत्तो । एसो च पुब्बिल्लसंचयकालादो किंचूणदुगुणमेत्तो। तदो किंचूणदुगुणकालभंतरसंचिदत्तादो एसो रासी पुन्विलादो संखेनगुणो ति सिद्धं । इत्थिरणसयवेदाणमण्णदगेदएण खवगसेढिमारूढस्स सादिरेयतिगुणमेत्तो पथदसंचयकालो किष्णावलंविञ्जदे ? पुरिसवेदोदयं मोत्तरण सेसवेदोदएण चढमाण जीवाणं बहुत्तासंभवादो । *उनसे दो प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव संख्यातगुणे हैं । ६३५० क्योंकि पुरुषवेदके उदयसे ज्ञपकवेरिण पर आरूद्ध हुए जीवके अन्तरकरणसे लेकर एक समय कम एक आवलिकाल जानेपर वहांसे लेकर पुरूपवेदकी प्रथम स्थितिके “न्तिम समक्के प्राप्त होने तक इस काल के भीतर हुए प्रकृत सञ्चयका अक्लम्बन लिया गया है। यद्यपि उपशमणिका अपेक्षा है। प्रकृत सम्चयका अवलम्बन लिया जा सकता है तो भी पूर्वसे यह सञ्चयकाल बड़ा है, इसलिए इसमें संख्यातगुणी जीवराशिके प्राप्त हाने में कोई विरोध नहीं पाता। * उनसे एक प्रकृति के प्रवेशक जीव संख्यातगुणे हैं। ३५१. कमों क पूर्वके सब्चयकालसे यह सञ्चयकाल बड़ा देख जाना है। यथादो प्रकृतियों का प्रवेशकाल पुरुपवेदकी प्रथम स्थिनिके रहते हुए नपुसकवेद, स्त्रीवेर और छह मोकषायोंका क्षपणाकालमात्र है। परन्तु एक प्रकृतिका प्रवेशकाल पुरुषवेदकी प्रथम स्थितिके गल जानेपर वहांसे लेकर श्रश्वकर्माकरणकाल, कृष्टिकरणकाल, क्रोधकी तीन संग्रहकृष्टिवेदककाल, मानघरककाल, मायावेदफकाल, और लोभवेदक काल इसप्रकार इन छह कालाके ममुदायप्रमाण है। और यह पहलेके सञ्चयकालसे कुछ कम दूना है, इसलिए कुछ कम दूने कालके भीतर सहिचत होनेके कारण यह राशि पूर्वकी राशिसे संख्यातगुणी है यह सिद्ध हुप्रा। शंका-स्त्रीवेद और नपुसकवेदमेंसे किसी एक वेदके उदयसे ज्ञपकश्रेणी पर चढ़े हुपकी अपेका साधिक निगुरो प्रकृत सञ्चयकालका अवलम्बन क्यों नहीं लिया जाता ? ममाधान-~-नहीं, क्योंकि पुरुषवेदको छोड़कर शेष वेदोंके उदयसे चढ़े हुए जीवोंका बहुत होना असम्भव है। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ गा० ६२] उत्तरपयडिउदोरणाप ठाणाणं सेसाणियोगदापरूवणा * तेरसरहं पवेसगा संखेनगुणा | ३५२. किं कारणं ? अट्ठकसाएसु खबिदेसु ततो पहुडि जाव अंतरकरणं समाणिय समयणावलियमेत्तो कालो महादकताव भएदामी कालाटिनुचिल्लकालादोन संखेजगुणे तेरसपवेसगाणं संचयावलंबरणादो । नेवीसाए पवेसगा संखेजगुणा । ई ३५३. कुदो ? दंसणमोहक्खवणाए अन्मुट्ठिदेण मिच्छत्ते खबिदे तत्तो पहुडि जाव सम्मामिच्छनक्खवणचरिमसमयो ति ताव एदम्मि काले पुब्बिल्लकालादो संखेजगुणे संचिदजीवाणं गहणादो। वावीसाए पवेसगा असंखेनगुणा । ई.३५४. कुदो ? पलिदोवमस्सासंखेजभागपमाणगादो । ॐ पणुवासाए पवेसगा असंखेज गुणा । ई ३५५. कुदो ? अणंताणुवंधिविसंजोयणाविरहिदाणमुक्समसम्माइट्ठीणं सासणसम्माइट्ठीणं च अंतोमुहृत्तसंचिदाणमिह गहणादो। * सत्ताधीसाए पवेसगा असंवेनगुणा । ६३५६. कुदो ? सम्मने उव्वेल्लिदे पुणो पलिदोवमासंखेजभागपमाणसम्मामि.. छत्तुन्वेलणाकालभंतरे पयदसंचयावलंबणादो। एकवीसाए पवेसगा असंखेनगुणा । * उनसे तेरह प्रकृतिगेंके प्रवेशक जीव संख्यातगुणे हैं । ६३.२. क्योंकि पाठ कषायोका क्षय करने पर वहाँसे लेकर अन्तरकरणको समाप्त कर एक समय कम श्रावलिमात्र काल जाने तक पहलेके कालसे संख्यातगुणे इस कालके भीतर तेरह प्रकृतियों के प्रवेशकोंके सञ्चयका अवलम्बन लिया है। * उनसे तेईस प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव संख्यातगुणे हैं। ६ ३५३. क्योंकि दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके लिए लद्यत हुए जीवके द्वारा मिथ्यात्वका क्षय कर देने पर यहाँसे लेकर सम्यग्मिथ्यात्वकी क्षपणाके अन्तिम समय तक पहलेके कालसे संख्यातगुणे इस कालके भीतर सञ्चित हुए जीवोंका यहाँ पर प्रहण किया है। * उनसे बाईस प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव असंख्यातगणे हैं । ३३५४. क्योंकि ये जीव पल्यके मसंख्यात भागप्रमाण हैं। * उनसे पच्चीस प्रकृतियों के प्रवेशक जीव असंख्यातगुणे हैं । ३५ . क्योंकि अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर सञ्चित हुए. अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयो. जनासे रहित उपशमसम्यग्दृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंका यहाँ पर ग्रहण किया है: * उनसे सत्ताईस प्रकृतियों के प्रवेशक जीव असंख्यातगुणे हैं। ३५६. क्योंकि सम्यक्त्वकी उद्वेलना कर लेने पर पुनः पल्य के असंख्यातवे भागप्रमाण सम्यग्मिथ्यात्वके उद्वेलनाकालके भीतर हुए प्रकृत सञ्चयका अक्लम्बन लिया गया है। २१ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ .गो ७ ३५७ किं कारणं ? सोहम्मीसासु सागरोवममेत्तकाल अंतरसंविदाणं खइपसाइडिजीपाणमिह विवाखयत्तादो । ॐ चडवीसाए पवेसगा असंखेज़गुणा । १६२ $ ३५८. कुदो १ चडवीससंतकम्मिय वेदय सम्माहिरा सिस्स गहणादो । * अट्ठावीसाए पवेसगा असंखेजगुणा | ७३५९. किं कारणं ? अट्ठावीससंतकम्मिय वेदगसम्माइद्विरासिस्स पहाणभावेण विवक्खियचादो | छवीसाए पवेसगा अतगुणा । ९३६०. कुदो ? किंचूणसव्यजीवरासिपमाणचादो | एवमोघे पात्रहु समन्तं । ० ६ ३६१. संपहि श्रादेसरूवमुच्चारणं वतइस्साम । तं जहा - आदेसेख रइय० सव्वत्थोवा २२ पवे० । २५ पवेस असंखेजगुणा । २७ पवे० असंखेज्जगुणा । २१ पवे० श्रसंखेज्जगुणा । २४ पवे० श्रसंखेज्जगुणा । २८ पवे० असंखेज्जगुणा | २६ पवे० असंखेज्जगुरणा । एवं पदमाए पंचिदियतिरिक्ख० २.देवा सोहम्मादि सहस्सार त्ति | * उनसे इक्कीस प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव असंख्यातगुणे हैं । $ ३५७. क्योंकि सौधर्म और ऐशानकरूपमें दो सागरप्रमाण काल के भीतर सचित हुए क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंकी यहां पर प्रधानभावसे विवक्षा की गई है । * उनसे चौवीस प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव असंख्यातगुये हैं । ६३५८. क्योंकि चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले वेदकसम्यग्दृष्टियों का यहां पर मह किया गया है। * उनसे श्रट्टाईस प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव असंख्यातगुणे हैं । ३ ३५८. क्योंकि अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाली वेदकसम्यग्दृष्टि जीवराशि प्रधानभासे यहां पर विवक्षित है । * उनसे छब्बीस प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव अनन्तगुणे हैं । ३६०, क्योंकि ये कुछ कम सब जीव राशिप्रमाण हैं, इस प्रकार प्रोघले अल्पबहुत्व समाप्त हुआ ६ ३६१. अम आदेशका कथन करनेके लिए उच्चारणा को बतलाते हैं । यथा - आदेश से नारकियोंमें २२ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव सबसे स्टोक हैं। उनसे २५ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे २७ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव श्रसंख्यातगुणे हैं। उनसे २१ प्रकृतियों के प्रवेशक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे २४ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे २८ प्रकृतियों के प्रवेशक जीव श्रसंख्यातगुणे हैं। उनसे २६ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव असंख्यात - गुणे हैं। इसी प्रकार पहली पृथिवीके नारकी, पचेन्द्रिय तिर्यञ्चद्विक, सामान्म दे और सौधर्म कल्प से लेकर सहसा रकल्प तकके देवों में जानना चाहिए । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज गा० ६२] उत्तरपयष्टिउदीरणाए ठाणाणं सेसाणियोगद्दारपरूवणा १६३ ३६२. विदियादि सत्तमा त्ति सम्वत्थोचा २२ पवे० । २१ पवे. असंखेज्जगुणा । २५ पवे. असंखेजगुणा । २७ पवे. असंखेअगुणा । २४ पवे. असंखेज्जगुणा । २८ पवे. असंखेज्जगुणा । २६ पवे. असंखेज्जगुणा । तिरिक्खाणं णारयमंगो। णवरि २६ पवे० अणंतगुणा। जोणिणी० विदियपुढवीभंगो । एवं भवणवाण३०-जोदिसि । पंचितिरिक्खअपज्ज०-मणुणप्रपज्ज० सम्वत्थोवा २७ पवे । २८ पवे. असंखेज्जगुणा । २६ पवे. असंखेज्जगुणा । ३६३. मणुस्सेसु सव्वत्थोवा ४७१० पयेसगा सरिसा । ३ पवेसगा संखेजगुणा । ६ पवेसगा विसेसाहिया। ९ पवे. विसेसा० । १२ पवे० विसेसा० । १९ पवे० विसे० । २० पर्व विसेसा० । २ पवे० संखेजगुणा। १ पवे० संखेजगुणा । १३ पवे० संखेज्जगुणा । २३ पर्व० संखेजगुणा । २२ पर्व० संखेजगुणा । २५ पवे० मुखज्जगुणा । २१ पके० संखेज्जगणा । २४ पवे. संखेज्जगुणा । २७ पवे. असंखेञ्जगुणा । २८ पवे. असंखेजगुणा । २६ पर्व० असंखेज्जगुणा । एवं मणुसपज्ज०मणुसिणी० । णवरि संखेज्जगुणं कादध्वं । ३६२. दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तफके नारकियोंमें २२ प्रकृतियों के प्रवेशक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे २१ प्रकृतियों के प्रवेशक जीव असंख्यातगुरणे हैं। उनसे पचीस प्रकृतियों के प्रवेशक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे २७ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव असंख्यातगुणे है। उनसे २४ प्रकृतियों के प्रवेशक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे २८ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे २६ प्रचतियों के प्रवेशक जीव असंख्यातगुणे हैं। तिर्यञ्चोंमें सामान्य नारकियों के समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि २६ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव अनन्तगुणे । योनिनी तिर्यलोंमें दूसरी पृथिवीके समान भंग है। इसी प्रकार भवनवासी, ज्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए। पञ्चेन्द्रिय तिर्यकच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तका २७ प्रकृतियों के प्रवेशक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे २८ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे २६ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव असंख्यातगुणे हैं। ३६३ मनुष्यों में ४, . और १० प्रकृतियों के प्रवेशक जीव परस्पर समान हो कर सबसे स्तोक हैं। उनसे ३ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे ६ प्रकृतियों प्रवेशक जीव विशेष अधिक हैं। उनसेह प्रकृत्तियोंके प्रवेशक जीव विशेष अधिक हैं। उनसे १२ प्रकृतितियोंके प्रवेशक जीव विशेष अधिक है। उनसे १६ प्रकृतियों के प्रवेशक जीव विशेष अधिक हैं। उनसे २० प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव विशेष अधिक है। उनसे २ प्रकृतियों के प्रवेशक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे १ प्रकृति के प्रवेशक जीव संख्यातगुण है। उनसे १३ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे २३ प्रकृतियों के प्रवेशक जीथ संख्यातगुणे हैं। उनसे २२ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव र ग्न्यातगुरणे हैं। उनसे २५ प्रकृतियों के प्रवेशफ जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे २१ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव संख्यानगुणे हैं। उनसे २४ प्रकृतियों के प्रवेशक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे २७ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीब भसंख्यातगुणे हैं। उनसे २८. प्रकृतिोंके प्रवेशक जीव असंख्यातगुण हैं । उनसे २६ प्रकृतियों के प्रवेशक जीव असंख्यातगुणे है। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुयिनियोंमें जानना पाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंख्यातगुणेके स्थानमें संख्यातगुणा करना चाहिए । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जयधवलासहिदे कसाय पाहुडे [ वेदगो ७ ६ ३६४. श्रदादि जाव णवगेवज्जा त्ति सव्वत्थोवा २२ प० । २५ पत्रे ० असंखेज्जगुणा । २७ पवेसगा असंखेज्जगुणा । २६ पवेसगा असंखेज्जगुणा । २१ यसमा असंखेज्जगुणा । २४ पवेसमा संखेज्जगुणा' । २८ पर्व ० संखेज्जगुणाः । अणुद्दिसादि सव्वा ति सव्वत्थोवा २२ पवे० । २१ पवे० असंखेज्जगुणा । २४ पवे० संखेज्जगुणाः | २८ पवे० संखेज्जगुणा । वरि सब्बड़े संखेज्जगुणं कायध्वं । एवं जान० । एवमयाब हुए समत्ते पयडिट्ठापवेसस्स सत्तारस अणियोगद्दाराणि समत्ताणि $ ३६५. संहि एत्थेव भुजगारादिपरूवणदुमुवरिमं सुसकलावमाह-* भुजगारो कायव्वो । * पदविकायच्वो । * चड्डी वि कायव्वा । ३ ३६६. तं जहा -- भुजगारपवेसगे त्ति तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि समुक्कित्ता जाव श्रध्याबहुए ति । समुक्कित्तणाणु० दुविहो णि० श्रोषेण श्रादेश्री असंग एवं मणुस सेण य । श्रोषेण श्रत्थि ० ३६४. आनत कल्पसे लेकर नौवेयक तकके देषों में २२ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे २५ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे २७ प्रकृतियो के प्रवेशक जी असंख्यात हैं। उनसे २६ प्रकृतियों के प्रवेशक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे २१ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे २४ प्रकृतियों के प्रवेशक जीव संख्यातगुणे हैं । उनसे २८ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव संख्यातगुणे हैं। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक के देवों में २२ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे २१ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव संख्यातगुऐ हैं। उनसे २४ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे ८ प्रकृतियों के प्रवेशक जब संख्यातगुणे हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि सर्वार्थसिद्धि में असंख्य तगुणे के स्थान में संख्यातगुणा करना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । इस प्रकार अल्पबहुत्व के समाप्त होनेपर प्रकृतिस्थान प्रवेशक के सत्रह अनुयोगद्वार समाप्त हुए । ७३५. अब यहाँ पर भुजगारादिका कथन करने के लिए आगे के सूत्रकलापको कहते हैं-* भुजगार करना चाहिए । * पदनिक्षेप करना चाहिए । * वृद्धि करनी चाहिए । 6 ३६६. यथा - भुजगार प्रवेशकका अधिकार है। उसमें समुत्कीर्तनासे लेकर अलहुन सक ये तेरह अनुयोगद्वार होते हैं। समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैं-ओ और प्रदेश । श्रोत्रसे भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यनवेशक जीव हैं | १. ता० प्रती अखेज्जगुखा इति पाठ: । २. ताज्जगुग्गा इति पाठः । ३. ता० प्रती असंखेज्जगुणा इति गाठ: । ४ ता प्रती प्रसंजगुरण छवि एकः । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२] उत्तरपयडिउदीरणाए ठाणाणं सेसाणियोगद्दारपरूवणा १६५ तिए । श्रादेसेण णेरड्य० अस्थि भुज०--अप्प०--अद्वि०प० । एवं सम्बणेरइय० तिरिक्ख०-पंचिंदियतिरिक्खतिय३--सव्वदेवा सि | पंचिं०निरि०अपज ०-मणुसअपज्ज० अस्थि अप्प-अवहि०पवे० । एवं जाव० | १३६७. सामित्ताणु० दुविहो णि०-अोघेण प्रादेसे० । श्रोघेण भुज०अप्प०--अववि पवेसगो को होदि ? अण्ण. सम्मादि० मिच्छाइट्टी वा । अवत्त.. पवेसगो को होदि ? अण्ण० मणुसो वा मणुसिणी वा उचसामगो परिवदमाणगो देवो वा पढमसमयपवेसमो । एवं मणमतिए । णरि पढमसमयदेवो त्ति ण भाणियन्वं । एवं सधणेरइय०-सव्यतिरिक्ख-सचदेवा ति। णवरि श्रवत्त० णस्थि । वरि पंचिं०तिरिक्सअपक्ष --मणुसअपञ्ज. अप-अपट्टि • कस्स ? अण्णद० । अणुद्दिसादि सबट्ठा ति भुज-अप्प०-अवढि० कस्स ? अण्णदः । एवं जाव० येविकालाबादुपिहोतुमिछात्रोवणीआईसेन। श्रोघेण भुज० जह० एयस०, उक० चत्तारि समया। तं कथं ? अणंताणुबंधी विसंजोएदण द्विदउयसमसम्माइट्ठी उत्रसमसम्मत्तद्धाए वे समया अस्थि ति सासणभावं पडिक्ण्णो तस्स पढमसमए बावीसइसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। आदेशसे नारकियोंमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थित प्रवेशक जीव हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य तियरूच, पन्चेन्द्रिय तिर्यकचत्रिक और सब देवोंमें जानना चाहिए। पञ्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याष्ट और मनुष्य अपर्याप्त जीवोंमें अल्पतर और अवस्थित प्रवेशक जीव हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ३६७. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और श्रादेश । ओघसे भुजगार, अल्पतर और अवस्थित प्रवेशक कौन होता है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि होना है। प्रवक्तव्य प्रवेशक कौन होता है ? उपशमश्रेणिसे गिरनेवाला मनुष्य या मनुष्यनी अथवा प्रथम समयमें प्रवेश करनेवाला देव होता है। मनुष्यत्रिकमें इसीप्रकार जानना चाहिए । किन्तु इननी विशेपता है कि 'प्रथम समयमें प्रवेश करनेवाला देव' ऐसा नहीं कहना चाहिए। इसीप्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च और सब देबोंमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता हूँ कि इनमें अवक्तव्यप्रवेशक नहीं है। तथा इतनी और विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में अल्पतर और अवस्थित पद किसके होता है ? अन्यतरके होता है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवामें भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपद किसके होते हैं ? अन्यतरके होते हैं ? इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ६३६८. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है.--श्रोध और आदेश । श्रोषसे ( भुजगार प्रवेशकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है। शंका-वह कैसे ? समाधान–अनन्तानुवन्धीचतुम्की विसंयोजना करनेवाला उपशमसम्यादष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वके काल में दो समय शेष रहने पर सासादनभावको प्राप्त हुआ। उसके प्रथम समयमें वाईस प्रकृतिकस्थान होकर एक भुजगार समय प्राप्त हुआ। उसी जीवके टूपरे Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ डाणं होण एगो भुजगारसमयो, तस्सेव विदियसमए पणुवीसपवेसङ्कालुष्पत्तीए विदियो भुजगारसमयो, से काले मिच्छत्तं पडिवगणस्स छब्बीसपवेसाणसंभवेण तदियो, पुणो तदणंतरसमए श्रद्धाबीसपवेसङ्काणपडिबद्धो चउत्यो समयो ति एवं भुजगारस्स चत्तारि समया भवति । अप० अवत्त० जहण्णुक० एस० । अथवा अप० उक० वे समया । तं कथं ? सम्मत्तमुम्बेल्लेमारयो वेदगपाओग्गकालं बोलाविय सम्मसाहिमुदो होदूरतरं करेमाणो अंतरदुचरिमफालीए सह सम्मत्तव्येल्लणाचरिभफालि शिवादिय से काले अंतरकरणं समातिय कमेण सम्मत्तममयूणावलियमेत्त हिदी श्रो गालिय एयसमयः पदरपवेसगो जादो, तम्मि समए सत्तावीसपवेसुलभादो । पुणो से काले सम्मामिच्छत पढमडिदिं णिल्लेविय वीसपवेसगो जादो। एसो विदियो अप्प - दरसमयो । एवं वे समया । व्यवडि० तिष्णि मंगा । तत्थ जो सो सादिश्रो सपज्जवसिदो तस्स जह० एयसमत्रो, उक्क० उबड्ढपोग्गलपरियहूं । समय में पच्चीस प्रकृतिक प्रवेशस्थानकी उत्पत्ति होनेसे दूसरा भुजगार समय हुआ । पुनः तदनन्तर समग्र में मिध्यात्वको प्राप्त हुआ उसके जा जि प्रवेशस्थान सम्भव होने से तीसरा भुजगाम । पुना तदनन्तरे समय में महाईस प्रकृतिक प्रवेशस्थान से सम्बन्ध रखनेवाला चौथा भुजगारसमय हुआ । इस प्रकार भुजगारके चार समय होते हैं । अल्पतर और अवक्तव्य प्रवेशकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अथवा अल्पतरप्रवेशकका उत्कृष्ट काल दो समय है । शंका- कैसे ? समाधान – सम्यक्त्वकी उद्वेलना करनेवाला जीव वेदक प्रायोग्य कालको बिसाकर और सम्यक्त्व के अभिमुख होकर अन्तर करता हुआ अन्तरकी द्विचरम फालिके साथ सम्यवत्वकी उद्वेलना सम्बन्धी अन्तिम फालिका पातकर तथा तदनन्तर समय में अन्तरकरणको पूराकर क्रमले सम्यक्त्वकी एक समय कम आवलिप्रमाण स्थितियोंको गला + र एक समय तक अल्पतर प्रवेशक हुआ, क्योंकि उस समय सत्ताईस प्रकृतियोंका प्रवेश देखा जाता है । पुनः तदनन्तरं समय में सम्यग्मिथ्यात्व की प्रथम स्थितिका अभाव कर छब्बीस प्रकृतियों का प्रवेशक हो गया । यह दूसरा अल्पतर समय है । इसतरह अल्पतर प्रवेशक के दो समय प्राप्त हुए । अवस्थित प्रवेश के तीन भंग हैं। उनमें जो सादि- सान्त भंग है उसका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल उपार्थ पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । विशेषार्थ - - यहां मोघसे भुजगार और अल्पतर प्रवेशकके उत्कृष्ट कालका निय erreira स्वयं किया है। इनके जघन्य कालका विचार सुगम है । उदाहरणार्थ १६ प्रकृतियोका प्रवेशक जो उपशमखिसे गिरनेवाला जीव जब स्त्रीवेदका अपकर्षण र २० प्रकृतियों का प्रवेशक होता है तक उसके भुजगार प्रवेशकका जघन्य काल एक समय देखा जाता है । तथा अठ्ठाईस प्रकृतियोंका प्रवेशक जो मिध्यादृष्टि जीव सम्यक्त्वकी उद्वेलना कर दूसरे समय सत्ताईस प्रकृतियोंका प्रवेशक होता है उसके अल्पतर प्रवेशकका जघन्य काल एक समय देखा जाता है। अवक्तव्यपद एक समय तक ही होता है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है यह स्पष्ट ही है । तथा उपशम सम्यक्त्वके सन्मुख हो सम्यक्त्वको प्राप्त करने के दो समय पूर्व सम्यक्त्वकी उद्वेलना करके प्रथम समय में २८ से २७ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयहिउदीरणाए ठाणारणं सेसारिणयोगहारपरूवणा १६७ . ३६९. प्रादेसेण णेरड्य० भुज० जह० एयस०, उक्क० चनारि समया। अप्प० जहण्णुक० एयसमो, अथवा उक्क० चे समया । अबढि० जह० ए यस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । एवं सत्तसु पुढवीसु | णरि सगद्विदी। तिरिक्खेसु भुज०अप्प. णारयमंगो । अवद्वि० जह० एयम०, उक्क. अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिए । णवरि अबढि० जह. एयस०, उक० तिण्णि पलिदो० पुव्यकोडिपुषर्तममहियानि कततिला जीवहिप्रवत्त० ओघं । पंचितिरिक्खअपज्ज०-मणु०पज्ज. अप्प० जहण्णुक० एयममओ। अवद्वि० जहरू एयस०, उक० अंतोमु० । देवाणं णारयभंगो । एवं भवणादि जाव गवगेवज्जा त्ति । णवरि सगढिदी । अणुहिसादि सव्वट्ठा ति भुज० जह० एयस०, उक० वे समया । अष्प० जहण्णुक एयस० ! अयहि जह० एगस०, उक्क० सगहिदी । एवं जाव० । प्रकृतियों का प्रवेशक होकर दूसरे समयमें अवस्थित पदका प्रवेशक होता है उसके अवस्थित पड़के प्रवेशकका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है और जो जीव अधपुद्गल परिवर्तनकालप्रथम समयमें उपशम सम्यक्त्वका उत्पन्न कर क्रमसे अतिशीघ्र मिथ्यात्वमें जाकर और अति स्वल्प उद्वेलनाकाल के द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्त्रकी उद्वेलना कर २६ प्रकृतियोंका प्रवेशक को कुछ कम अधपुद्गल परिवर्तनकाल तक इसी पदका प्रवेशक बना रहता है । पुनः संसारमें रहने का अन्तमुहूत काल शेष रहने पर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त कर जो इस पदका । विघटन करता है उसके अन्तर्मुहूर्त अधिक पल्पका असंख्यातवाँ भागप्रमाण काल कम उपाधं पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण अवस्थित पदका उत्कृष्ट काल देखा जाता है। ३६६ श्रादेशसे नारकियोंमें भुजगारप्रवेशकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है। अल्पतरप्रवेशकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अथवा उत्कृष्ट काल दो समय है । अवस्थित प्रवेशकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेनीस सागर है । इसी प्रकार सातों पृथिविया में जानना चाहिए । किन्तु अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए। तिर्योंमें भुजगार और अल्पतर प्रवेशकका भंग नारकियोंके समान है। अवस्थितप्रवेशकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जो भसंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अवस्थितप्रवेशकका जघन्य काल एफ समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। इसी प्रकार मनुष्यों में जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें प्रवक्तव्यप्रवेशकका काल ओषके समान है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें 'अल्पतरप्रवेशकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितप्रवेशकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है । देवोंमें नारकियों के समान भंग है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर नौ मैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि अवस्थितप्रवेशकका उत्कृष्ट काल कहते समय अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिदिमें भुलगारप्रवेशकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अल्पतरप्रवेशकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितप्रवेशकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। इसी प्रकार अपहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधबलास हिदे कसाय पालुडे [ बेदगो ७ - ३७० अंतरासु दुविहो णि० श्रोषेण आदेसेण य । श्रोषेण भुज० अध्प ० जह० एस० अंतोमु०, अधवा अप्पदरस्स वि एगसमयो । एसो अत्थो उचरि वि जहासंभवं जोजेपव्वो । उक्क उड्डयोग्गल परियट्टा । अबडि० जह० एस० उक्क० अंतोसु०, प्रवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० 2 उबड्ढपो० परियङ्कं । मार्ग १६८ माहियों जितना उसका कायस्थिति या भवस्थितिकी उतने काल तक उसे २६ प्रकृतियोंका प्रवेशक बनाये रखनेसे उस गतिमें अस्थिप्रवेशका उत्कृष्ट फाल भा जाता है। मात्र पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में २८, २७, और ६ इनमेंसे किसी भी पदकी अपेक्षा अवस्थित प्रवेशकका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त किया जा सकता है। कारण स्पष्ट है। तथा नौ धनुविशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवों में २८, २४ और २१ प्रकृतियोंके प्रवेशककी अपेक्षा अपनी अपनी स्थितिप्रमाण अवस्थित प्रवेशकका उत्कृष्ट काल प्राप्त करना चाहिए। इन पदोंकी अपेक्षा अवस्थित प्रवेशकका उत्कृष्ट काल सौधर्मादिकल्पोंमें भी प्राप्त किया जा सकता है इतना यहाँ विशेष समझना चाहिए । शेष कथन सुगम है। किन्तु इस सम्बन्ध में कुछ विशेष वक्तव्य है । जो इस प्रकार है- पञ्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त को जो जीव अपनी पर्यायके उपान्त्य समयमे उद्वेलना कर २७ या २६ प्रकृतियोंका प्रवेशक होता है मात्र उसी अवस्थित पदका जघन्य काल एक समय कहना चाहिए। इसी प्रकार जो अनुदिशादिकका उपशम सम्यग्दृष्टि देव वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त हो प्रथम समय में २१ से २२ प्रकृतियों का प्रवेशक होता है और दूसरे समय में २४ प्रवेशस्थानको प्राप्त करता है उसके भुजगारप्रवेशकका उत्कृष्ट काल दो समय कहना चाहिए। इनमें अवस्थित पदका जघन्य काल एक समय स्पष्ट ही है जो उपशमश्रेणिसे मर कर देव होने पर प्राप्त होता है । बैंक : विशेष उत्कृष्ट का ३७० अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— श्रोथ और मादेश । श्रघसे भुजगार और अल्पतरप्रधेशकका जघन्य अन्तर एक समय और अन्तर्मुहूर्त है । अथवा अल्पतरप्रवेश का भी जघन्य अन्तर एक समय है। इस अर्धकी आगे भी यथासम्भव योजना करनी चाहिए | तथा उत्कृष्ट अन्तर उपार्थ पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । अवस्थित प्रवेशकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवन्यप्रवेशकका जधन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर उपार्थ पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । विशेषार्थ - अनन्तानुबन्धीका वियोजक कई उपशम सम्यग्दृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्वके काल में तीन समय शेष रहने पर सासादनभावको प्राप्त हो २२ प्रकृतियों का प्रवेशक हुआ। तथा दूसरे समय में शेष अनन्तानुबन्धत्रिक के उदद्यावलि में प्रवेश करने पर २५ प्रकृ तियोंका प्रवेशक हुआ। इसके बाद वह तीसरे समय में पच्चीस प्रकृतियोंका ही प्रवेशक बन रक्षा और तदन्वर समयमें मिध्यात्व में जाकर वह २६ प्रकृतियोंका प्रवेशक हो गया। इस प्रकार भुजगार प्रवेशकका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त हुआ। कोई छब्बीस प्रकृतियों का प्रवेशक मिध्यादृष्टि जोष उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त कर पच्चीस प्रकृतियोंका प्रवेशक हुआ, उसके बाद वह अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी बिसंयोजना कर इक्कीस प्रकृतियोंका प्रवेशक हो गया इस प्रकार अल्पतर प्रवेशकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त हुआ। अल्पतर प्रवेशकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त उपशमणि और क्षपणामें भी प्राप्त किया जा सकता है सो जान कर घटित कर लेना चाहिए। घोष प्ररूपणा में यद्यपि इसकी मुख्यता है। फिर भी चारों 17 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिउदोरगाए ठाणाणं सेसारिणयोगदापावणा १६९ ३७१. प्रादेसेण णेरड्य० भुज-अप्प० जहः एयस० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि 1 अबहि० जह० एयर०, उक्क • चत्तारि समया । एवं सचणेरइय० । णयरि सद्विदी देसूणा । तिरिक्खेसु भुज०-अप्प० ओघं । अवट्टि. णारयभंगो। एवं पचितिरिक्खतिए | णवरि सगढिदी देसूरणा । पंचितिरि०अपज०-मणुसअपज्ज० अप्प० णस्थि अंतरं । अवढि० जहएणु० पयस० । मणुसतिए पंचिं निरिक्खभंगो । णवरि अववि० जह० एयम०, उक्क० अंतोमु० । अवत्त० जह० अतोमुख, उक्क. पुष्यकोडिपुधः । गतियों में अल्पतर पदके जघन्य अन्तरका प्रकार बतलानेके लिए हमने प्रथम उदाहरण लिपिपद्ध किया है। अथवा अल्पतर पदका जघन्य अन्तर एक समय जो टीकामें कहा है वह जो उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करनेके दो समय पूर्व सम्यक्त्वकी उद्वेलना कर लेता है उसकी अपेक्षा प्राप्त होता हेमार्गदर्भकोनों पदोकार्यप्रवेशिकावधिलाष्ट सास्वार्ध पुद्गलपरिवर्तनप्रमाणा है यह स्पष्ट ही है। जो अबस्थितप्रवेशक जीव एक समय तक भुजगार या अल्पतरप्रवेशक हो एक समयके अन्तरसे पुनः अवस्थितप्रवेशक हो जाता है उसके अवस्थितप्रवेशकका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त होता है। तथा जो एक प्रकृतिक प्रवेशक सर्वोपशामना करके अन्तर्मुहर्त तक अप्रवेशक बना रहता है। पुनः उपशमश्रेणिसे उतरते हुए प्रथम समयमें अवरुव्यप्रवेशक हो और दूसरे समयमें भुजगार प्रवेशक हो अवस्थितप्रवेशक हो जाता है उसके अवस्थितप्रवेशकका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहर्त प्राप्त होता है। प्रान्तर्मुहूर्तके अन्तरसे दो बार उपशमश्रेगि पर चढ़ानेसे प्रवक्तव्य प्रवेशकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है और में उपार्धपुद्गलपरिवर्तनके अन्तरसे चढ़ाने पर उत्कृष्ट छन्तर उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण प्राप्त होता है। यह श्रोधको अपेक्षा सब पदोंके अन्तरकालका खुलासा है। आदेशसे अपनी अपनी विशेषताको समझ कर इसे घटित करना चाहिए। जो विशेष वक्तव्य होगा मात्र उतनेका निर्देश करेंगे। ३७१, आदेशसे नारकियों में भुजगार अल्पतरप्रवेशकोंका जघन्य अन्तर एक समय और अन्तर्मुहर्त है और दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अवस्थितप्रवे. शकका जघन्य अन्तर एक समय है और सुत्कृष्ट अन्तर चार समय है। इसी प्रकार सत्र नारकियोंमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। नियमों में भुजगार और अल्पतरप्रवेशकका अन्तरकाल भोधके समान है। अवस्थित प्रवेशकका अन्तरकाल नारकियोंके समान है। इसी प्रकार पश्चेन्द्रिय तियश्चत्रिक में जानना राहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्यापकोंमें अल्पतरप्रबंशकका अन्तरकाल नहीं है। अवस्थितप्रवेशकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। मनुष्यत्रिकमें पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अवस्थितप्रवेशकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अवक्तव्यप्रवेशकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट श्रन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्वप्रमाण है। विशेषार्थ--नारकियों में अवस्थितप्रवेशकका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर चतला आये हैं, इसलिए यहाँ भुजगार और अल्पतरप्रवेशकका उक्त कालप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर बन जाता है। तथा इनमें पहले भुजगारप्रवेशकका उत्कृष्ट काल घार समय बतला आये हैं, इसलिए २२ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयवबला सहिदे कसाय पाहुडे 1 , : ३७२. देवेसु भूज० - अप्प० जह० एस० अंनोमु०, उक्क० एकत्तीस सागरो ० गाणि । त्रडि० जह० एस० उक्क० चत्तारि समया । एवं भणादि जाव णत्रगेवज्जाति । वरि सगडिदी देसूणा । अणुद्दिसादि सम्बट्टा ति भुजः जहण्णु तोमु० | अप० णत्थि अंतरं । अवह्नि० जह० एयस०, उक० ने समया । एवं 6 १७० [ बेदगो जाव० । यहां बावस्थितप्रवेशकका उत्कृष्ट अन्तर चार समय बन जाता है । सब नारकियों में यह अन्तर काल इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। मात्र प्रत्येक नरककी अलग-अलग भवस्थिति होनेसे उसे ध्यान में रख कर भुजगार और अल्पतरप्रवेशकका उत्कृष्ट अन्दर कहना चाहिए। तिर्यखोंमें कार्यस्थिति अनन्त काल है। इसलिए उनमें भुजगार और अल्पतर प्रवेशकका उत्कृष्ट अन्तर उपाघ्र पुद्गल परिवर्तनप्रमा घटित होने में कोई बाधा नहीं आती। यही कारण है कि इनमें उक्त दोनों पदोंकी अपेक्षा अन्तर कालको ओषके समान जाननेकी सूचना की है। तथा अवस्थित प्रवेशकका अन्तरकाल नारकियोंके समान बन जानेसे उनके समान जानने की सूचना की है। यही बात परचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक में जाननी चाहिए। मात्र इनकी काय स्थिति पूर्व कोटिमाथ विकासासा उत्कृष्ट अन्तर अपनी कार्यस्थितिमास जानने की सूचना की हैं। पछेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त और इनमें भुजगार और अल्पतरप्रवेशकका मनुष्य अपर्याप्तकों में अपनी-अपनी कार्यस्थिनिके भीतर दो चार अल्पतरपद सम्भव नहीं है, इसलिए इनके अन्तरकालका निषेध किया है। किन्तु जिसके इनकी काय स्थिति के भीतर सम्यक्या सभ्यमिध्यात्वकी उद्वेलना होकर एक समय तक अल्पतर पद होता है उसके व स्थित प्रवेशका अन्तरकाल एक समय देखा जाता है, इसलिए इनमें अवस्थित प्रवेशकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय कहा है। मनुष्यत्रिक अन्य सब भंग पकवेन्द्रिय तिर्यखों के समान है यह स्पष्ट दी है। मात्र इनमें उपशमश्रेणिकी प्राप्ति सम्भव होनेसे श्रवस्थित प्रवेशकका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त तथा अवक्तव्य प्रवेशकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्वप्रमाण बन जाने से उसे अलग से कहा है । ६३७२, देषों में भुजगार और अल्पतरप्रवेशकका जघन्य अन्तर एक समय और अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । अवस्थित प्रवेशकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर चार समय है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर यकों तक देवों में जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देव में भुजगारप्रवेशकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अल्पतरप्रवेशकका अन्तरकाल नहीं है । अवस्थित प्रवेशकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दो समय है । इसी प्रकार अग दारक मार्गणा तक जानना चाहिए । ७ विशेषार्थ -- देवों में जो २६ प्रकृतियोंके प्रवेशक मिध्यादृष्टि हैं उनको अपेक्षा ही भुजगार और अल्पतरप्रवेशकका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हो सकता है, इसलिए यह तत्नमाण का है। मात्र भवनवासी आदि नौ मैवेयक तकके देवोंमें भवस्थिति अलग-अलग है, इसलिए उस उस निकाय देवोंमें अपनी अपनी भवस्थितिको ध्यान में रख कर भुजगार और चल्पतर प्रवेशका उत्कृष्ट अन्तर लाना चाहिए। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें जो Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपडिउदीरणाए ठाणा से साणियोगदारपण १७१ ३७३. णाणाजीवेहिं भंगविचयाणुगमेण दुविहो णिद्देसो- ओषेण आदेसेण य । श्रोषेण अव०ि सव्त्रजीव० णिय० श्रत्थि सेसपदा भयणिज्जा । एवं चदुसु गदी | गावरि पंचि०तिक्खिपज्ज० अवडि णिय अस्थि, सिया एदे च अप० अप०- - अडिο ष्यदरवित्तया च मणुसअप विहत्तिओ च, सिया एदे च भय णिज्जा । एवं जाय ० I ६ ३७४ भागाभागाणु० दुविहो खि० - ओषेण श्रादेसेण य । ओमंग अवडि० सब्जी० के० १ श्रता भागा | सेसमांत भागो । एवं तिरिक्खा० । आदेसेण रइय० श्रवडि सब्वजी० श्रसंखेज्जा भागा। सेममसंखे० भागो । एवं सव्त्रणिरय ०-- सत्रपचिदिवतिरिक्त मर्यादेन महाप्रचराजिदा ति । मणुमपज्ज०मसरणी०० - मव्व० अट्टि० संखेज्जा भागा। सेस संखे० भागों । एवं जाव० ० ९३७५. परिमाणाणु ० दुविहो णिः - श्रघेण श्रादेसे० । श्रघेण भुज०. अप० उपशान्तकषायसे मरकर प्रथम समयमें ६ का प्रवेशक और दूसरे समय में २१ का प्रवेशक होकर भुजगार हो गया अतः अन्तर्मुहूर्त पश्चात् उसने वेदकसम्यक्त्व प्राप्त करते समय प्रथम समय में २२ प्रकृतिक प्रवेशस्थान और दूसरे समय में २४ प्रकृतिक प्रवेशस्थान प्राप्त किया। इस प्रकार इन देवों में भुजगारप्रवेशकका जघन्य और उत्कृष्ट श्रन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होनेसे वह तत्प्रमाण कहा हूँ | पतरका अन्तर नहीं है, क्योंकि वहाँ पर या तो २२ से २१ वालेके या २८ से २४ वाले के एक बार अल्पतर होता है। पहले इनमें भुजगार प्रवेशकका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय बतला आये हैं, इसलिए उसे ध्यान में रख कर यहाँ पर अवस्थित प्रवेशका जघन्य अन्दर एक समय और उत्कृट अन्तर दो समय कहा है । शेष कथन सुगम है । १३०३, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-आंघ और आदेश | आपसे अवस्थित प्रवेशक सब जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं। इसप्रकार चारों गतियों में जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यच्व अपर्याप्त जीवों में अवस्थितप्रवेशक जीव नियमसे हैं। कदाचित् ये हैं और एक अल्पत र प्रवेशक जीव है । कदाचित् ये हैं और नाना अल्पतरप्रवेशक जीव हैं। मनुष्य अपर्याप्तकों में अल्पतर और अवस्थित प्रवेशक जीव भजनीय हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गेरणा तक जानना चाहिए। ६ ३७४. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-थोघ और आदेश । ओघ अवस्थितप्रवेशक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं। अनन्त बहुभागप्रमाण हैं। शेष पत्रोंके प्रवेशक जीब अनन्तयें भागप्रमाए हैं। इसीप्रकार तिर्यचामें जानना चाहिए । आदेश से नारकियों में अवस्थित प्रवेशक जीव सब जीवोंके असंख्यात बहुतभागप्रमाण हैं। शेष पदों के प्रवेशक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पचेन्द्रिय सिर्यन, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपयाप्त, सामान्य देव और अपराजित विमान तक देवीमें जानना चाहिए। मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी और सर्वार्थसिद्धि देवों में अवस्थितप्रवेशक जीव सब जीवोंके संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। शेष पदों के प्रवेशक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । ६ ३७५ परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-आं और आदेश | आंघस Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जयथवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ 1 O ० के० १ असंखेज्जा | वडि० केत्ति ० १ अता । श्रवत्त० केसि० ? संखेज्जा | एवं तिरिक्खा | वरि अवत्त० णत्थि । सव्वणिरय०- सव्वपंचि०तिरिक्ख- मणूस अपज ०देवा भवणादि जब वगेवजा त्ति मादा असखर्जी असे अप्प अवि सविधिसागर महाराज ०१ असंखेजा । भुज० अवत्त० केत्ति० १ संखेजा । मणुसपज० मणुसिणी०० सम्पदा संखेजा । अणुद्दिसादि अवगड्दा ति अप्प० - अवद्वि० केसि० । असंखेजा । भुज० केत्ति० १ संखेजा | एवं जाव० । केति O ६ ३७६. खेनाणु ० दुविहो णि - ओघेरा आदेसे० । श्रघेण श्रवद्वि० केवडि० खेते ? सच्चलोगे । सेसपदा० लोग० असंखे० भागे । एवं तिरिक्खा० | सेसगदीसु सवपदा० लोग असंखे० भागे । एवं जाव० । Q ३७७. फोसभाणु० दुविहो शि० -- श्रघेण आदेसे० । श्रघेण भुज० श्रसंखे० भागो अट्ट- बारहचोदस० देसूणा । अप्प० लोग असंखे० भागो चोदस लोग० ० भुजगार और अल्पतरप्रवेशक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । अवस्थित प्रवेशक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । अवक्तव्य प्रवेशक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसी प्रकार तिर्यखोमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य प्रवेशक जीव नहीं हैं। सब नारकी, सब पच्चेन्द्रिय तिर्यञ्ज, मनुष्य अपर्याप्त सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर aashat सब पदोंके प्रवेशक जीव असंख्यात हैं। मनुष्यों में अल्पतर और अवस्थित प्रवेशक जीव कितने हैं ? श्रसंख्यान हैं। भुजगर और अवक्तव्य प्रवेशक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और सर्वार्थसिद्धि देवों में सब पदोंके प्रवेशक जीव संख्यात हैं। अनुदिशसे लेकर अपराजित तके देत्रों में अल्पतर और अवस्थितप्रवेशक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। भुजगारप्रवेशक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गमा तक जानना चाहिए । ३६. क्षेत्रानुगमको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । श्रोधसं अवस्थित प्रवेशक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सर्व लोकप्रमाण क्षेत्र हैं। शेष पदोंके प्रवेशक जीवोंका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र हैं । इसीप्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। शेष गतियों में सब पदोंके प्रवेशक जीवोंका लोके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र | इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ से अवस्थित प्रवेशकों में २६ प्रकृतियों के प्रवेशकोंकी मुख्यता है और इनका क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण पहले घतला आये हैं, इसलिए यहाँ पर अवस्थितप्रवेशकों का क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण कहा है। शेष पत्रके प्रवेशकोका क्षेत्र लोकके श्रसंख्यातवें भागप्रम है यह स्पष्ट ही है। यह प्ररूप । सामान्य सिर्याम बन जाती है, इसलिए उनमें मोघके समान जानेकी सूचना की है। शेष मार्गशाओंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमारा होने से उनमें सब पदोंके प्रवेशकों का लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र कहा है । ३७७. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । श्रघसे भुजगारप्रवेशक जीवाने लोके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा मनाली के चौदह भागा में से कुछ कम आठ और कुछ कम बारह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अल्पतरप्रवेशक T Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२] उत्तरपयडिवीरणाए ठाणारणं से साणियोगदारपरूवणा मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज दे० सबलोगो वा । अबढि० सबलोगो । अवत्त० लोग० असंखे भागो । ३७८. आदेसेणणेरइय० अप्प-अवडि० लोग असंखेज० छचोइस । भुजा लोग० असंखे०भागो पंचचोद्द० देसूणा । पढमाए खेत्तं। शिदियादि सत्तमा ति सबपदारणं सगपोसणं । णयरि सत्तमाए भुज० खेत्तभंगो। तिरिक्खेसु भुज० लोग० असंखे०भागो सत्तचोदस० देसूणा । अप्प० लोग. असंखे०भागो सबलोगो वा । अवटि. सबलोगो । एवं पंचिंदियतिरिक्वतिय० । णरि अववि० लोग० असंखे भागो सम्वलोगो वा । पंचितिरि०अपज-मणुसअपञ्ज० अप्प०अद्वि० लोग० असंखे भागो जीवोंने जोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, त्रसमालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण और सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवस्थितप्रवेशकाने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। श्रवक्तव्यप्रवेशकोंने लोकफे असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया। विशेषार्थ-जो गुणास्थान प्रतिपन्न जीव यथायोग्य अधस्तन मुणस्थानोंको प्राप्त होते हैं उनके भुजगारपद होता है ऐसे जीव सम्यग्दृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानीको भी प्राप्त होते हैं, वहीं देख कर यहाँ पर सोपसे भुजगार प्रवेशकोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और त्रसमालीके चौदह भागोमसे कुछ कम पाठ और कुछ कम बारह भागप्रमाण कहा है। जो जीव मिथ्यात्वादि गुणस्थानोंसे ऊपरके गुणस्थानों में जाते हैं वे तो अल्पतरप्रवेशक होते ही हैं। साथ ही जो मिथ्याष्टि सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्त्रकी लढेल ना करते हैं वे भी अल्पतरप्रवेशक होते हैं। यही मात्र इनमें सासादन जीव नहीं होते। यही देख कर यहाँ अल्पतरप्रवेशकोंका लोकके असंख्यातवें भाग, बसनालोके चौदह भागांचे कुछ कम पाठ भाग और सर्वलोक प्रमाणा क्षेत्र कहा है। इतना अवश्य है कि यहाँ पर सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन उन जीवोंके कहना चाहिए जो २८ प्रकृतियों से सम्यक्त्वकी उद्वेलना होने पर २७ प्रकृतियाम और. २७ प्रकृतियों से सम्यग्मिथ्यात्यकी उद्बलना होने पर २६ प्रकृतियों में प्रवेश कर अल्पतरप्रवेशक होते हैं । अवस्थितप्रवेशकोंका स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण तथा अवक्तव्यप्रवेशकोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है वह स्पष्ट ही है। इसी प्रकार आगेके स्थानों में स्पर्शनका विचार कर लेना चाहिए । विशेष वक्तव्य न होनेसे हम पृथक पृथक खुलासा नहीं करेंगे। ६३७८. आदेशसे नारकियोंमें अल्पतर और अवस्थितप्रवेशकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। भुजगारप्रवेशकोंने लोकके असंख्यात भाग और सनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम पाँच भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पहली पृथिवीका क्षेत्रके समान स्पर्शन है। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नाकियाम सम पदों की अपेक्षा अपना अपना स्पर्शन जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि समम पृथिवीमें भुजगारका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तिर्यकचोंमें भुजगारप्रवेशकोंने लोकके असंख्यातयें भाग और बसनालीके चौदह भागाम स कुछ कम सात भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अल्पतरप्रवेशकाने लोफके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवस्थितप्रवेशकोंने सर्व लोकप्रमाना क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसीप्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यक वत्रिकमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अवस्थित प्रवेशकोंने लोकक असंख्यातवें भाग और सर्व लोकागा दोत्रका स्पर्शन किया है। पन्चेन्द्रिय तिर्यकच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्यातकाग अल्पतर और अवस्थित Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो सब्बलोगो वा । मणुसतिए पंचिंदियतिरिक्सभंगो। गरि अवत्त० खेत्तं । देवा. भवणादि जाव अच्चुदा ति सबपदाणं सगफोसणं । उवरि खेत्तं । एवं० जाव० । ६३७९. कालाणु० दुविहो णि-पोषेण श्रादेसे० । ओघेण भुज-अप्य. जह० एयस०, उक्क. श्रावलि० असंखे०भागो। अवहि० मधद्धा । अवत्त० जहा एयस०, उक्क० संखेजा समया। एवं सचणेरड्य-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खतिय-देवा भवणादि जाव णयगेवजा ति | णवारि अवत्त० णस्थि । पंचितिरिक्खअपज्जा अप्प०-अवष्टि ओघं । ३८०. मणुसेसु भुज--प्रवत्त० जह० एयस०, उक्क० संखेजना समया । अप्प०अवढि० अोघं । एवमणुदिमादि जाव अवराजिदा ति । णवरि अवत्तः णस्थि । मणुसपज्ज-मणु सिणी-सबढ० अवडिभावकहा- अमेसर्वदास बहिहिास्यसना उकार प्रवेशकोंने लोकक प्रसंख्यातवें भाग और मर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्र्शन किया है। मनुष्यत्रिको पञ्चेन्द्रिय तिर्यक चोंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि श्रवक्तव्यप्रवेशकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर अच्युत कल्प तकके देवोंमें सब पदाकी अपेक्षा अपना अपना स्पर्शन जानना चाहिए। ऊपरके देवोंमें क्षेत्रके समान स्पर्शन है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ६ ३७६. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-मोघ और श्रादेश । ओघसे भुजगार और अल्पतरप्रवंशकाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यात भागप्रमाण है। अवस्थितप्रवेशकोंका काल सर्वदा है। प्रवक्तव्यप्रवेशकोंका . जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। इसीप्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यकच, पञ्चेन्द्रिय तियंचत्रिक और भवनवासियोंसे लेकर नौ अवेयक तकके देवों में जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें प्रवक्तव्यपद नहीं है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें अल्पतर और अवस्थितप्रवेशकोंका काल आपके समान है। विशेषार्थ- ओघसे भुजगारपद और अल्पतरपद एक समयतक हो और दूसरे समयमें न हो यह सम्भत्र है। तथा नाना जीव यदि निरन्तर इन पदोका करें तो उस कालका योग प्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होगा, इसलिए ओघसे भुजगार और अल्पर प्रवेशकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। अवस्थितप्रवेशकोंक। काल सर्वदा है यह स्पष्ट ही है। प्रवक्तव्यप्रवेशक उपशमश्रेणिसे गिरनेवाले जीव होते हैं, इसलिए इनके प्रवेशकों का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। यहाँ कही गई मार्गरमा प्रों में यह काल बन जाता है, इसलिए, उनमें श्रोधके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र इनमें उपशमश्रेणीकी प्राप्ति सम्भव न होनेसे प्रवक्तव्यपदका निषेध किया है। ३८०. मनुष्यों में भुजगार और प्रवक्तव्यप्रवेशकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अल्पतर श्रीर अवस्थितप्रवेशका का काल ओघके समान है। इसीप्रकार अनुदिशसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें प्रवक्तव्यपद नहीं है। मनुष्यपर्याप्त, मनुष्यनी और सर्वार्थसिद्धिके देवों में अवस्थितप्रवेशकोंका काल सर्वदा ।। शेफ पदोके प्रवेशकाका जघन्य काल एक समय Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपउिदीरणाए ठाणा सेखायोगहार परूवणा उक० संखेज्जा समया । मणुसचपज्ज० अप्प० श्रोधं । ग्रवट्टि० जह० एस ०, पलिदो० असंखे० भागो । एवं जाव० । १७५ १३८१. अंतरा० दुविहो णि० - प्रोषेण आदेश य । श्रघेण भुज० अप्प ० जह० एयस०, उक्क० सच रार्दिदियाणि । श्रवट्टि० णत्थि अंतरं । अवत्त० जह० एयस०, उक० वासपुधत्तं । एवं मणुस निए। एवं सव्यणिरय - तिरिक्ख पंचि०तिक्खितिय देवा भवणादि जाव णत्रवज्जा चि । णवरि अवत्त० णत्थि । ६ ३८२. पंचिदियतिरिक्ख अपज्ज० अप्प० जह० एयस० उक० चउवीसमहोरते सादिरेगे । अवट्टि० रात्थि अंतरं । मसुम अपज्ज० अप्प० अडि० जह० एक्स०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । अशुद्दिसादि सन्त्रा त्ति अवडि० पत्थि अंतरं । श्रु० प० जह० एयसमत्रो, उक्क० वासपुधत्तं । सब्बट्टे पलिदो० असंखे० 0 है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । मनुष्य अपर्यातकों में अल्पतरप्रवेशकों का काल आंधके समान हैं । अवस्थितप्रवेशकों का जघन्य काल एक समय और उस्कृष्ट काल परूयके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ – सामादमुष्यों में अनुपसर्मवित्तमवपमुख्यक में ही होते हैं, इसलिए इनकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है । शेष पद अपर्याप्त मनुष्यों में भी सम्भव है, इसलिए इनमें उनका काल ओघके समान बन - जाने से वह तत्प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है । ६ ३८१. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । श्रोघसे भुजगार और अल्पत प्रवेशकों का जघन्य अन्तर एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तर सात दिन-रात है । अवस्थित प्रवेशकों का अन्तर काल नहीं है। अवक्तव्यप्रवेशकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिक में जानना चाहिए तथा इसीप्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय तिर्यक पत्रिक सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर नौ मैवेयक तक्के देवोंमें जानना चाहिए। मात्र इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्यपद नहीं है । विशेषार्थ --- यहाँ विशेष वक्तव्य इतना ही है कि उपशमसभ्य वस्त्रका उत्कृष्ट अन्तर सात दिन-रात बतलाया है। और उपशमसम्यक्त्व के अभाव में भुजगार तथा अल्पतरपद सम्भव नहीं, इसलिए यहाँ पर घसे और उल्लिखित मार्गणाश्रमें उक्त पदों उत्कृष्ट अन्तर सात दिन-रात कहा है। यद्यपि पाके काल में अल्पतरपद होते है पर उसकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर छह महीना से कम नहीं है, इसलिए वह प्रकृत में उपयोगी नहीं । $ ३८२. पञ्च न्द्रियांतर्यच अपर्याप्त जीवों में अल्पतरप्रवेशकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और प्रत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन-रात है । अवस्थितमवेशकोंका अन्तरकाल नहीं । मनुष्य अपर्याप्तकों में अल्पतर और अवस्थित प्रवेशकों का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवों में अवस्थिनप्रवेशकों का अन्तरकाल नहीं है । भुजगार और अल्पतर प्रवेशकों का जघन्य अन्तर एक समय हैं और उत्कट अन्तर वर्षकत्व प्रमाण हैं । सर्वार्थसिद्धि में उत्कृष्ट अन्तर Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ भागो । एवं जाव० | जयधवला सहिदे कसायपाहु दे [ वेदगो ७ महासागर जी महाराज ९३८३ भाव सो ६३८४. बहु० दुविहो णि० - श्रोषेण आदेसे० । श्रोषेण सव्वत्थोत्रा अवत्त० । अप्प० असंखे० गुणा । भुज० पवे० विसेसा० । श्रवद्वि० श्रणंतगुणा । ३३८५. आदेसेण रहय० सव्वत्थोरा अप्प०पवे० | भुज०पवे० विसेसा० । वडि० प० श्रसंखे० गुणा । एवं सव्वणिरथ० पंचिंदियतिरिक्खतिय ३ - देवा भवणादि जात्र ववज्ज्ञाति । पंचिंदियतिरिक्खयपज्ज० - मशुस अपज्ज० सव्वत्थोश अप्प०पवे० । श्रवडि०प० असंखे० गुणा । । ६३८६. तिरिक्खेसु सव्वत्थोवा अध्य०प० । भुज०पवे० विसेसा० । अट्टि०पवे० श्रणंतगुणा | मणुसेसु सव्वत्थोवा अवत्त ० पवे० । भुज० पवे० संखे० गुणा । अप्प०पवे० असंखे० गुणा | अवट्टि० पवे० असंखे० गुणा एवं मणूसपज्ज० - मणुसिणी० । वरि संखेज्जगुणं कायव्यं । श्रणुद्दिसादि सच्चङ्का ति सव्त्रत्थोवा भुज०पवे० । अप्प०पवे० असंखे० गुणा । अवट्टि० पवे० असंखे० गुणा । णरि सन्य संखेज्जगुणं कायव्यं । एवं जाव० । पल्य के असंख्यात भागप्रमाण है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । 8 ३८३. भाव सर्वत्र औदयिक भाव है । ६३८४. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओोष और आदेश । से वक्तव्य प्रवेशक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अल्पतरप्रवेशक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगारप्रवेशक जीव विशेष अधिक हैं। उनसे अवस्थितप्रवेशक जीव अनन्तगुणे हैं । $ ३८४. आदेश से नारकियोंमें अल्पतरप्रवेशक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे सुनागर - प्रवेशक जी विशेष अधिक हैं। उनसे अवस्थितप्रवेशक जीव असंख्यातगुणे हैं । इसीप्रकार सब नारकी, पचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक, सामान्य देव तथा भवनत्रिकसे लेकर नौ मैत्रेयकतकके देवों में जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में अल्पतरप्रवेशक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थितप्रवेशक जीव असंख्यातगुणे हैं। ६ २८६. तिर्यों में अल्पसरप्रवेशक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे भुजगारप्रवेशक जीव विशेष अधिक हैं। उनसे अवस्थितप्रवेशक जीव अनन्तगुणे हैं। मनुष्योंमें अवक्तव्य प्रवेशक जी सबसे स्तोक हैं। उनसे भुजगारप्रवेशक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतरप्रवेशक जीव असंख्यातगुण हैं। उनसे अवस्थितप्रवेशक जीव असंख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें श्रसंख्यातगुणे के स्थान में संख्यातगुणा करना चाहिए। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक के देशों में भुजगारप्रवेशक जीत्र सबसे स्तोक हैं। उनसे अल्पतरप्रवेशक जीव श्रसंख्यातगुणे हैं। उनसे अवस्थित प्रवेशक जीव असंख्यातगुणे हैं। इतनां विशेषता है कि सर्वार्थसिद्धि में असंख्यातगुणे के स्थान में संख्यातगुणा करना चाहिए । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक:- आचार्य श्री सविहिासागर जी महाराज गा०६२] उत्तरपयडि उदारणाए. ठाणा सेसारिणयोगहारपरूवण १७७ ३८७. पदणिक्वेवे तत्व इमाणि निषिण अणिओगद्दाराणि- समुक्त्तिणा० सामित्तमप्याबहुअं च । समु० दुविहा-जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिोघेण आदेसे । अोघेण अस्थि उक्त चड्डी हाणी अवट्ठाणं च । एवं चदुगदीसु । णवरि पंचिंदियतिरिक्ख अपज्ज०मणुसअपज्ज. अस्थि उक्क. हाणी अवट्ठाणं च । एवं जाप० । एवं जहाणयं पिणेदव्वं । ३८८. सामित्ताणु० दुविह। णि जह• उक० । उक्क० पयदं । दुविहो णि.--ओघेण श्रादेसेण य । ओघेग उक• बड्डी कस्स ! अण्णद० उत्रसमसेढिमारुहमाणो अंतरकरणं कादृण मदो देवो जादो तदो छपवेसिय इगिवीसपवेसगो जादो, तस्स विदियसमयदेवस्स उक० वड्डी । उक० हाणी कस्स ? अण्णद० उषसमसेटिमारुहमाणो एकावीसंपय पवेसगो अंतरे कदे समयूणावलियमेत्तं गंतूण दोण्ह पवेसगो जादो, तस्स उक्त हाणी । तस्सेत्र से काले उक्क० समवठ्ठाणं । ३८९. आदेसेण णेर० उक० वड्डी कस्स ? अएणद. जो चउवीसं पवेसमाणो अट्ठात्रीसं पवसेदि तस्स उक्क० वढी । उक्क० हाणी कस्स ? अण्णद० अट्ठावीसं पवेसेमाणेण अर्णताणुबंधिच उके णासिदे तस्स उक० हाणी । एगदरत्थावद्वाणं । एवं सत्रणेरइय-तिरिक्ख ०-यनिदियतिरिकावतिय ३-देवा भवणादि जाब वगेवजा त्ति । AA ३३८७. पदनिक्षेपका अधिकार है। उसमें ये तीन अधिकार हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । समुत्कीर्तना दो प्रकारको है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है—ोध और आदेश । प्रोधको अपेक्षा उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थान है। इसी प्रकार थारों गतियों में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट हानि और अवस्थान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए | तथा इसी प्रकार जघन्य भी जानना चाहिए । ८८. स्वामिस्त्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश के प्रकार का है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । श्रोबसे उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कोन है ? जो अन्यतर उपशमश्रेणिपर आगेहण करनेवाला अन्तरकरण करके मरा और देव हो गया । उसके बाद छह प्रकृतियों का प्रवेशक यह इक्कीस प्रकृतियों का प्रवेशक हो गया । ऐसा वह द्वितीय समयवर्ती देव सत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है । उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? अन्यतर जो उपशमणिपर प्रारोहण करनेवाला इक्कीस प्रकृतियोंका प्रवेशक अन्तर करनेपर एक समय कम श्रावलिमात्र जाकर दोका प्रवेशक हो गया वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है । तथा वहीं अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है। 5२८६. आदेशसे नारकियों में उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर जो चौबीस प्रकृतियों का प्रवेशक अट्ठाईस प्रकृतियों का प्रवेशक होता है वह उत्कृष्ट वृद्धि का स्वामी है । उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? अन्यतर जो अट्ठाईस प्रकृतियों का प्रवेशक है वह अनन्तानुबन्धीचतुकका नाश होनेपर उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। इनमेंसे किसी एक स्थानमें उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है। इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यन्च, पळचेन्द्रिय तिर्यम्पत्रिक, सामान्य देव Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिसागर जी महाराज १७८ . जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ अथवा आदेसे० ऐरइय० उक्क० वड्डी कस्स ? अण्णद. जो वावीमं पवेसेमाणो उबसमसम्मा० अठ्ठावीसं पवेसेदि, तस्स उक० बढी । तस्सेब से काले उक्क अवट्ठाणं । एवं जाव० णवगेवजा ति अपजत्तवजं । पंचितिरि०अपज-मणुसअपज० उक० द्वाणी कस्म ? अण्णद० जो अट्ठावीस पवेसेमाणो सत्तावीसं पवेसेदि तस्स उक० हाणी । तस्सेव से काले उक्क० अवठ्ठाणं । ३९०. मणुसतिए उक्क० वड्डी कस्स ? अण्णद० उपसमसेढीदो ओदरमाणो पारस पवेसिय पुणो सत्तणोकसायाणं पवेसगो जादो, तस्स उक्क० बडी । उक्क. हाणी अवहाणं च ओघं । देवेसु उक्क• बड्डी ओघ । तस्सेत्र से काले उक्क० अबद्वाणं । उक्क हाणी कस्स ! अण्णद० अट्ठावीसं पवेसेमाणो चउवीसपये जादो तस्स उक्क. हाणो । एवमणुदिसादि जाव सव्वट्ठा ति । एवं जाव० ! ३९१. जह० पयदं । दुविहो णि०-ओषेण आहेसे० | भोघेण जह. बड्डी कस्स ? एलर्दक पणुवीस प.समर्माणों छब्बीसपवेसगो जादो तस्स जह• वढी । जह० हाणी कस्स ? अपणद० अट्ठावीसं पवेसेमाणो सत्तावीसफ्वेसगो जादो तस्स जह. हाणी। तस्सेव से काले जह• अवट्ठाणं | एवं चदुगदीसु । णवरि पंचि०तिरिक्खअपज०-मणुसअपज. जह० वड्डी गत्थि | अणुद्दिसादि सब्बड्वा ति जह. और भवनवासियों से लेकर नौ प्रवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। अथवा प्रादेशसे नारकियों में उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर जो बाईस प्रकृतियों का प्रवेशक उपशमसम्यग्दष्टि जीव अहाईस प्रकृतियों का प्रवेशक होता है वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। वही अन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है। इसी प्रकार अपर्याप्तकोंको छोड़कर नौ अवेयक तक जानना चाहिए । पंचेन्द्रिय तियेच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? अन्यतर जो श्राहाईस प्रकृत्तियोंका प्रवेशक जीव सत्ताईस प्रकृतियोंका प्रवेशक होता है वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है । तथा वही अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है। ३६०. मनुष्यत्रिकमें उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर उपशमश्रेणिसे उतरनेवाला जो बारह प्रकृतियों का प्रवेश कर पुनः सात नोकषायोंका प्रवेशक हो गया वह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी है। उत्कृष्ट दानि और उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामित्व पोषके समान है। देवों में उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामी ओघके समान है। तथा वही अनन्तर समयमै उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी है । उत्कृष्ट हानिका स्वामी कौन है ? अन्यतर जो अट्ठाईस प्रकृतियों का प्रवेशक चोचीस प्रकृतियोंका प्रवेशक हो गया वह उत्कृष्ट हानिका स्वामी है। इसी प्रकार अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक जानना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए। ६३६१. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । मोघसे जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यसर जो पच्चीस प्रकृति योंका प्रवेशक छब्बीस प्रकृतियों का प्रवेशक हो गया वह जघन्य वृद्धिका स्वामी है। जघन्य हानिका स्वामी कीन है ? अन्यत्तर जो अट्ठाईस प्रकृतियोंका प्रवेशक सत्ताईस प्रकृतियों का प्रवेशक हो गया वह जघन्य हानिका स्वामी है। तथा वही अनन्तर समयमें जघन्य अवस्थानका स्शमी है। इसी प्रकार चारों पतियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय तियेच अपर्याप्त मौर मनुष्य अपर्यापकोंमें Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिउदीरणाए ठाणा से साथियो गद्दारपणा १७९ वड्डी कस्स ? अण्णद० एक्कावीसं पवेसेमाणो सम्मत्तं पवेसेदि तस्स जह० चष्टी । जह० हाणी कस्स ? अण्ण० बाबीसं पवेसेमाखेण सम्मत्तं खविदे तस्य जह० हाणी | तस्से से काले जह० वाणं | एवं जा० | | ३९२. अप्पाहु दुविहं -- जह० उक० | उकस्से पयदं । दुविहो लि०श्रधेासेण या चायोगोपसुतो जक म्हारी । हाणी अवद्वाणं च दो वि सरिसाणि विसे० | आदेसे० शेरइय● उकस्सव हि- हाणि श्रद्वाणाणि तिणि वि सरिसारण | वा सव्वत्थो० उक्क० हाणी । उक्क० वढी अवद्वाणं च दो विसरिसाणि विसेस ० । एवं सव्वरइय० सव्यतिरिक्ख- देवा भवणादि जाब एवमेवाति । वरि पंचि०तिरिक्खापत्र० मणुसअप ० उक्क० हाणी अवद्वाणं च दो त्रि सरिसारिख । मणुसतिए सच्चत्थो उक्क० बढी । हाणी अड्डाणं च दो त्रि सरिसाणि संखेजगुणाणि । देवेसु सव्वत्थो० उक० हाणी | बड्डी अवद्वाणं च दो वि सरिसाणि संखे०गुणाणि । एवमहिसादि सब्बट्टा ति । एत्र जाव० । ३ ३९३. जह० पदं । दुविहो गिद्देसी श्रघेण आदेसे० | बड्डी हाणी अत्राणं तिष्णि वि सरिसाणि । एवं चदुगदीसु । ० 1 ओषेण जह० गवरि पंचि जघन्य वृद्धि नहीं है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवानं जघन्य वृद्धिका स्वामी कौन है ? अन्यतर जी इक्कांस प्रकृतियोंका प्रवेशक सम्यक्त्वका प्रवेशक होता है वह जघन्य वृद्धिका स्वामी है । जघन्य हानिका स्वामी कौन है ? अन्यतर जो बाईस प्रकृतियों का प्रवेशक सम्यक्त्व प्रकृतिका क्षय करता है वह जघन्य हानिका स्वामी है। वहीं अनन्तर समय में जघन्य अवस्थान का स्वामी है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए । ३ ३६२. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है— जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - ओ और आदेश । घोघसे उत्कृष्ट वृद्धिके प्रवेशक सबसे स्तोक हैं । उत्कृष्ट हानि और अवस्थानके स्वामी दोनों ही परस्पर समान होकर विशेष अधिक हैं । देशसे नारकिया में उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थान के प्रवेशक तीनों ही समान हैं । अथवा उत्कृट हानिके प्रवेशक सबसे स्तोक हैं। उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थानके प्रवेशक दोनों ही परस्पर समान होकर विशेष अधिक है। इसी प्रकार सब नारकी, सब वियंच, सामान्य देव और नवासियोंसे लेकर नौ मैवेयक तक्के देवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्यातकों में उत्कृष्ट हानि और अवस्थानके प्रवेशक दोनों ही समान हैं। मनुष्यत्रिमें उत्कृष्ट वृद्धिके प्रवेशक सनसे स्तोक हैं। उनसे उत्कृष्ट हानि और स्थानके प्रवेश दोनों हो परस्पर समान होकर संख्यातगुणे हैं। देवामें उत्कृष्ट हानिके प्रवेशक सबसे लोक हैं । उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थानके प्रवेशक दोनों हो परस्पर समान होकर संख्यातगुणे है । इसी प्रकार अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धिके देवों तक जानना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए । ६ ३६३. जयन्त्रका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है- मांध और आदेश | ओघ जवन्य वृद्धि, हानि और अवस्थानके तीनों ही प्रवेशक परस्पर समान हैं। इसी प्रकार चारों गतियों जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय निर्यच अपर्याप्त और मनुष्य Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयभवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ तिरिक्खअपज० - मणुसम पञ० जह० हाणी अवड्डा० दो वि सरिसाणि । एवं जाव० । ६ ३९४. डिपो ति तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि - समुत्तिणा जाय पाचहुए ति । समुक्कित्तणा० दुविहो णि० - अघेख आदेसे० | ओघेण थ संखे० भागवड्डि- हाणि संखे० गुणवडि-हाणी वडि० अवत्त० पवेसगा एवं मणुसतिए । ६३९५. आदे० णेरइय० अस्थि संखे भागवडिहाणि अवडि० पवे० । एवं सम्वणिरय ०-तिरिक्त-पंचि०तिरिक्खतिय ३ भवणादि जाव णवगेवजा त्ति । पंचि०तिरि० अपज० - मणुस अपजः प्रत्थि संखे० भागहा० श्रवट्टि वढि हाणि संखे० गुणवद्धि अब । देवेसु अस्थि संखे० भाग पत्र सव्वा चि । एवं जाव० | •मार्गदर्शक ९ ३९६. समिता० दुविहो णि० -- श्रघेण आदेसे० । श्रघेण संखे० भागवडि- हाणि अवडि० कस्स १ अण्णद० सम्माइडि० मिच्याइडि० | संखे० गुणवहिहाणि० कस्स ? अण्णद० सम्माइडि० । श्रवत्त० भुजगारभंगो। एवं मणुसतिए । सब्बर इय- सच्चति रिक्ख- मणुस अपज्ज० - भवणादि जात्र णवमेवजा त्ति भुजगारभंगो । वरि संखेञ्जभागवडि-हाणि श्रवद्विदालावेस येदव्यं । देवशणमोधं । णवरि संखे० गुणअपर्याप्तकों में जघन्य हानि और अवस्थानके प्रवेशक दोनों ही समान हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए । ३६४. वृद्धिप्रवेशका अधिकार है। उसमें ये तेरह अनुयोगद्वार हैं- समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक । समुत्कीर्तना के अनुसार निर्देश दो प्रकारका है - श्रोध और आदेश | संख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागहानि, संख्यात गुणवृद्धि, संख्यात गुणहानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदके प्रवेशक है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिक में जानना चाहिए । १८० ३६५. आदेश से नारकियों में संख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागहानि और अवस्थित पदके प्रवेशक हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य तियंव, पंचेन्द्रिय तिर्यचत्रिक और भवनवासियोंसे लेकर नौ बेशक तक्के देवोंमें जानना चाहिए। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में संख्यात भागहानि और अवस्थित पदके प्रवेशक हैं। देवोंमें संख्यान भागवृद्धि, संख्यात भागहानि, संख्यात गुणवृद्धि और अवस्थित पदके प्रवेशक है। इसी प्रकार अनुविशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देव में जानना चाहिए। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक ले जाना चाहिए । ६. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - आंध और आदेश । श्रघसे संख्यात भागवृद्धि, संख्शतभागहानि और अवस्थित पदका स्वामी कौन है ? अन्यतर सम्यदृष्टि और मिध्यादृष्टि स्वामी है। संख्यातगुणवृद्धि और संख्यात गुणहानिका स्वामी कौन हैं ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि स्वामी है । अवक्तव्य पदका भन्न सुजगार के समान है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिक में जानना चाहिए। सब नारकी, सब तिर्यक्च, मनुष्य अपर्याप्त और भवनवासियों लेकर भी मैवेयक तक देवोंमें भुजगार के समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें संख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागहानि और अवस्थित पदके आलाप के साथ स्वामित्व ले जाना चाहिए । देव आपके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इसमें संख्यातगुगुहानि और श्रवव्य पद Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिउदारणाए ठाणाणं सेसारिणयोगहारपरूवणा हाणि-अवत्त पस्थि । अणुद्दिसादि सबट्ठा ति सब्वपदाणि कस्स ? अण्णद. एवं जावः । ३९७. कालाणु० दुत्रिहो णि०-अोघेण आदेसे । ओघेण संखेजभागवडि० जह० एयस०, उक्क. चत्तारि समया। संखे०भागहाणि-संखेजगुणहाणि-अवत्त० जहष्णु० एयस० । अधबा संखे भागहाणि० उक्क० वे ममया । संखे गुणवढि० जह० एयसमो, उक्क० तिएिण समया । अबढि० भुज भंगो । ३९८. आदेसेण सचणेरड्य०-सव्यतिरिक्ख-मणुमअपज. भवणादि जाव रणवगेयजा त्ति, भुजगारभंगो । मणुसलिए संखे भागवटि. जह• एयस०, उक्क० चत्तारि समया। संखे भागहाणि-सखे गुणवाड-हाणि-अवत्त० जह० उक्क० एयस० । संखे० भागहा० उक्त वेममया वा । अहि. भुज भंगो । देवाणं णारयभंगो। वरि संखे०गुणपड्डि• जह• उक्क ० एयस० । 'अणुहि सादि सबट्ठा त्ति संखे भागवटि ० जह• एयस०, उक्क० बेममया । संखे भागहा० संखे० गुणवडि० जह ० उक० एयस०। नहीं हैं। अनुदिशस लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवांमें सब पदोंका स्वामी कौन है ? अन्यतर जीव स्वामी है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गरणा तक ले जाना चाहिए। ३६७. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। प्रोसे . संख्यातभागवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है। संख्यात भागहानि, संख्यात गुणहानि और अवच पदका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अथवा संख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल दो समय है। संख्यात गुणवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काम तीन समय है । अवस्थित पदका मंग भुजगार के समान है। विशेषाथ-पहले भुजगारका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल चार समय यतला अाये हैं उसी प्रकार यहाँ संख्यान भागवृद्धिका जबन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल चार समय घटित कर लेना चाहिए | पहले अल्पतर और अवतव्य पदका जवन्य और उत्कृष्ट काल एक समय बनला आये है उसी प्रकार यहाँ संख्यातभागहानि, संख्यासमुशहानि और श्रवक्तव्यका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय घटित कर लेना चाहिए। वहाँ प्रकारान्तरसे अल्पतर पदका उत्कृष्ट काल दो समय बतला आये हैं वहीं यहाँ संख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल दा समय जानना चाहिए । शेष कथन सुगम है। ३९. श्रादेशसे सब नारकी, सब तिर्यब्च, मनुष्य अपर्याप्त और भग्नवामियोंसे लेकर नौ बेयक तकके देवा में भुजगारके समान भंग है। मनुष्यत्रिको संख्यातभागधृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है। संख्यानभागहानि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणहानि और प्रवक्तव्य पदका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अथवा संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल मो समय है। अवस्थित पदका भंग भुजगारके समान है। देवोंमें नारकियोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुदिशसं लेकर मार्थमिद्धितकके देवाम संख्यान भागवृद्धिका अनन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। मंत्र्यान भागहानि और संख्यात - Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ जयधषला सहिदे कसायपाहुडे मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज अट्टि जह० एयसमश्र, उक्क० सगट्ठिदी । एवं जात्र० । ६३९९. अंतराणु दुविहो णि० ओषेण आदेसे० । श्रघेण संखे० भागसंखे० गुणवडि० जह० एस० संखे० भागहा० संखे ० गुणहा० अवत्त० जह० अंतोमु० | अथवा संखे० ०भागहा० जह० एवम० । उक्क० सव्वेसिवडपो० परियहं । अडि० जह० एस० उक० अंतोमु० । F [ वेदगो ७ ? | ४०० आदेसेण सव्वरिय ०- सव्यतिरिक्ख मणुस श्रपञ्ज० भवणादि जाय एवमेवजाति ज०भगो । मणुसतिए भुज०भंगो । वरि संखे० गुणवड्डि- हाणिअवत० जह० अंतोमु०, उक० पुनको डिपृधत्तं । देवगदिदेवा अणुद्दिसादि सच्चा त्ति भुज०भंगो । वरि संखेगुणवडि० णत्थि अंतरं । एवं जाव १४०१. लालाजीवेहि भंगविचयाणु० दुविहो णि श्रोषेण प्रादेसे० । श्रवेण अव०ि शिप अस्थि । सेसपदा भयणिञ्ज ।। भंगा २४३ । एवं चदुगदीसु । वरि भंगा जाणिय वक्तव्या । मणुस अपज्ज० सव्वपदा भवणिज्जा । भंगा८ । एवं जाव० । ० १४०२. भागाभागाणु० दुविहो शि० -- ओघेण आदेसे० । श्रघेण अव०ि सच्चजी० के० ? अता भागा। सेमांत भागो । एवं तिरिक्खा० । सव्वर० गुणवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। श्रावस्थित पदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। $ ३६६ अन्तमनुगमको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - श्रोष और आदेश । श्रघसे संख्यात भागवृद्धि और संख्यात गुणवृद्धिका जधन्य अन्तर एक समय है, संख्यात भागहानि, संख्यातगुग्राहानि और अवक्तव्य पत्रका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त हैं अथवा संख्यात भागहानिका जघन्ध अन्तर एक समय है और सत्रका उत्कृष्ट अन्तर उपार्थ पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । अवस्थित पदका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। ४००. आदेश से सब नारकी, सब विच मनुष्य अपर्याप्त और भवनवासियों से लेकर नौवे सके देव भुजगारके समान भंग है। मनुष्यत्रिक में भुजगारके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणहानि और अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पृवकोटिपृथक्त्व प्रमाण है। देवगति में सामान्य देव तथा अनुदिश लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवी भुजगारके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणवृद्धिका अन्तरकाल नहीं है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ४०१. नानाजत्रोंका अवलम्बन लेकर संगविचयानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है और आदेश । श्रोघसे अवस्थित पद नियमसे हैं, शेष पद भजनीय हैं। भंग २४३ हैं । इसीप्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि भंग जानकर कहने चाहिए। मनुष्य अपर्याप्तकों में सत्र पद भजनीय हैं। संग आठ हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । ४०२. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओष और आदेश | अवस्थित पचा जीव जब जीवों कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्त बहुभागप्रमाण हैं | । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + गा० ६२ ] a उत्तरपदीरणाए ठाना योगविधिसागर जी विराज सव्यपंचि०तिरिक्त माणुस मणुम पञ्ज० देवा भत्रणादि जाव अवराजिदा ति अि असंखेज्जा भागा। सेसमसंखे० भागो । मणुसपज्ज० - मणुमणि० सत्र हृदेवेसु अवट्टि संखेज्जा भागा। सेसं संखे० भागो । एवं जाव० । 0 ४०३. परिमाणाणु ० दुविहो शि० - श्रघेण आदेसे० । श्रघेण संखे० भागचडि हाणि० केति० ? असंखेज्जा । श्रवट्टि० केत्ति० १ अता । संखे० गुणवडिहाणि प्रवत्त ० केति ० १ संखेज्जा | सव्वणिरः सव्यतिरिक्त मणुस आपज्ज० -भवणादि जाब एवमेवज्जा त्ति भुजभंगो | मणुसेसु संखे० भागहा० अवडि० केत्ति० ? असंखेज्जा | सेसपदा संखेज्जा । मणुस पज्ज० - मरणु सिणी० सच्चदुदेवेसु सव्त्रपदा संखेज्जा | देवगदिदेवा अणुद्दिसादि अवराजिदा ति भुज०भंगो। णवरि संखे० गुणबड्डि० केत्ति ० १ संखेज्जा । एवं जाव० । 1 ६४०४ खेताणु० दुविहो णि० - ओघेण आदेसेण य । प्रघेण अ०ि सन्चलोगे । सेसपदा लोग० असंखे० भागे । एवं तिक्खिा० । सेसगदीसु सच्चपदा लोग असंखे० । एवं जाव० । शेष पदवाले जीव सब जीवोंके अनन्तयें भागप्रमाण हैं। इसीप्रकार तिर्यकचोंमें जानना चाहिए । सब नारकी, सब पचेन्द्रिय तिर्यच्च सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और 'भवनवासियोंसे लेकर अपराजित कल्पतकके देवों में अवस्थित पढ़वाले जीव असंख्यात बहुभाग 'प्रमाण हैं तथा शेष पदवाले जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनो और सर्वार्थसिद्धि में अवस्थित पदवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाणु हैं तथा शेष पदवाले जीव संख्यात भागप्रमाण हैं । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए । t ६४०३. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश ओसे संख्यात भागवृद्धि और संख्यात भागहानि पदवाले जीव किसने हैं ? असंख्यात हैं । अवस्थत पदवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणहानि और अव्य परवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त और भवनवासियोंसे लेकर नौ मैवेयक तकके देवोंका भंग भुजगारके समान है। मनुष्यों में संख्यात भागहानि और अवस्थित पदवाले जीव कितने हैं ! असंख्यात हैं। शेष पदवाले जीव संख्यात हैं। मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें सब पदवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । देवगति में देव और नौ अनुदिशसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें भंग भुजगार के समान । इतनी विशेषता है कि संख्यात गुणवृद्धि पदवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । इसीप्रकार अनाहारक मार्गात जानना चाहिए । ४०४. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- भोष और आदेश । श्रोसे अवस्थित पदवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सर्व लोक क्षेत्र है । शेष पदवाले जीवोंका क्षेत्र लोक असंख्यात भागप्रमाण है। इसीप्रकार तिर्यञ्चों में जानना चाहिए। शेष गतियों में सब पदवाले जीवा क्षेत्र लोकके असंख्यात भागप्रमाण है। इसीप्रकार 'अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ बेगो ७ 2 ९४०५. पोमणाणु दुविहो णि० - प्रो० आदेसे० । श्रयेण संखे० भागवडि० लोग० असंखे० भागो - बारह चोहस० देसूणा । संखेज्जभागहाणि० लोग० असंखे० भागो अट्ठचोस० देखणा सच्चलोगो वा । श्रवद्वि० सव्वलोगो । सेसपदा लोग० असंखे० भागो । सव्वणिरय ० सव्वतिरिक्ख० मणुस श्रयञ्ज० भवणादि जाव वगेवजाति भुज०मंगो मणुसविए भुज०भंगो। णवरि संखे० गुणवड्डि- हाणि० लोग असंखे० भागो | देवादिदेवा अणुद्दिसादि सबट्टा ति भुज०भंगो । नवरि संखे० गुणवडि० लोग० असंखे० भागो । एवं जान० । ० ४०६. काला० दुविहो ०ि -- ओघेण आहेसे० । श्रघे० संखे० भागवडिहाणि० जह० एयस०, उक्क० श्रावलि० असंखे ० भागो । अडि० सव्वद्धा । सेसपद० जह० एयस०, उक्क० संखेजा समया । सव्वरिय० सव्यतिरिक्ख० मणुसच्यपज ० भवणादि जाव णववा ति भुज०भंगी । मणुसतिए भुज०भंगो। णवरि संखे०गुणचड्डि-हि ० जह० एस० उक० संखेजा समया । देवगदिदेवा अणुदिसादि सव्वा त्ति भुज०भंगो । वरि संखे० गुणवडि० जह० एन०, उक० संखेजा समया । १८४ ४०५. स्पर्शनानुगागर जी महाराज [ श्रघ और आदेश । श्रोघसे संख्यात भागवृद्धि, पदवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा नालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ और बारह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया हैं । संख्यात भागहानि पदवाले जीवोंने लोकके असंख्यात भागप्रमाण तथा मनाली के चौदह भागों से कुछ कम आठ भागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अवस्थित पवाले जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदवाले जीवाने लोकके असंख्यात भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सब नारकी, सब तिर्यञ्च मनुष्य अपर्याप्त और भवनवासियोंसे लेकर नौ मैत्रेयक तक के देवों में भुजगारके समान भंग है। मनुष्यत्रिक में भुजगार के समान भंग है। इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणानि पदवाले जीवोंने लोकके का संख्यातयें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवगति में सामान्य देव और अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवों में भुजगारके समान भंग है। इतनी विशेषता हैं कि संख्यात गुणवृद्धि पदवाले देवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गमा तक जानना चाहिए । $४०६. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । श्रोघसे संख्यात भागवृद्धि और संख्यात भागहानि पदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अवस्थित पदका काल सर्वदा है। शेष पदोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । सब नारकी, सब तिर्थन, मनुष्य अपर्याप्त और भवनवासियोंसे लेकर नौ मैवेयक तकके देवोंमें सुजगारके समान भंग है । मनुष्यत्रिक में भुजगार के समान भंग है। इतनी विशेषता है कि संख्यात गुणवृद्धि और संख्यात गुणदान पदका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। देवगति में सामान्य देव तथा अनुशिसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवामें भुजगार के समान भंग है। इतनी विशेषता है कि संख्यात गुणवृद्धि पत्रका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात -1 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपडि उसीरणार. ठाणागणं सेसाणियोगहारपरूषणा - एवं जाय। ४०७. अंतराण. दुविहो णि.---श्रोघेण आदेसे० | ओघेण संखेञ्जभागवडिल हाणि जह० एयस०, उक्क० सत्तगर्दिदियागि । अहिदाणि णस्थि अंतरं । संखे गुणवडिल-अवत्त० जह० एयस०, उक्क० बासपुधत्तं । संखे गुणहाणि. जह० एयस०, उक० छम्मासा । एवं मणुसतिए । णारि मणुमिणी० संखे०गुणहाणि. जह. एयसमो, उक्क • बासपुधत्तं । सधणेरइय-सव्यतिरिक्ख०-मणुसअपज० भवणादि जाव गवगेवजा ति भुज भंगो । देवगइदेवा अणुदिसादि मन्बट्ठा ति भुज.. भंगो। णवरि संखे० गुणयष्टि जहएयस०, उक्क० वासपुधत्तं । णवरि सबढे पलिदो० संख भागो । एवं जाव० । ४०८. मावणुगमेण सन्चस्थ ओदइयो भावो | १४०९, अध्याबहुगाणु० दुविहो णि०--प्रोषेण आदेसे० । ओघेण सम्वत्थो० अबत्त०प० । संख०गुणवडिपवे. अखे० गुणा । संखे०गुणहाणिपवे. विवेसा० । संखे०भागहाणि० असंखे०गुणा । संखे०भागवटि त्रिसेसा० । अहि. अणंतगुणा । ४१०. आदेसेण णेरड्य० सबथो संखे भागहा. । संखे०भागवढि० मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधासागर जी महाराज........ ..... . समय है । इसी प्रकार अनारक मागेरणा तक जानना चाहिए। ४०७. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-बोध और आदेश | श्रोधसे संख्यात भागवृद्धि और संख्यात भागहानिका जघन्य अन्तर काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर मात दिन-रात है। अवस्थित पदका अन्तरकाल नहीं है। संख्यात गुणवृद्धि और अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तर एक समय है, और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथस्त्वप्रमाण है । संख्यात गुणहानिपदका जघन्य अन्तर एक समय है अर उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। इसीप्रकार मनुष्यन्त्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुषियनियों में संख्यात गुन्हानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमागा है । सब नारकी, सब निर्यञ्च मनुष्य अपर्याप्त और भवनवासियांसे लेकर नौ ग्रेवेयकतकके देवोंमें भुजगारके समान भंग है। देवगतिमें सामान्य देव तथा अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें भुजगारके समान भंग है। इननी विशेषता है कि संख्यात गुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। इतनी विशेषता और है कि सर्वार्थसिद्धिमै पल्यक संख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जागना चाहिए । pr. भावानुगमको अपेक्षा सर्वत्र औदायिक भाव है। ____ ०६. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-प्रोध और आदेश । ओघसे अवक्तव्य पदके प्रवेशक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे संख्यात गुणवृद्धि पदके प्रवेशक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यात गुगाहानि पदके प्रवेशक जीव विशेष अधिक हैं। उनसे संख्यात भागहानि पदके प्रवेशक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यात भागवृद्धि पदके प्रधेश क जीव विशेष अधिक हैं। उनसे अवस्थित पदके प्रवेशक जीव अनन्तगुणे हैं। ४१०. आदेशसे नारकियोंमें संख्यात भागहानि पदके प्रवेशक जीच सबसे थोड़े हैं। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ ..... ..... . .... . .. . .. . .. .... जयधवलामहिदे कसायपाहुडे [वेदगो विसे० । अवटि. असंख० गुणा । एवं सच्चरणेरड्य-पंचिंदियतिरिक्खतिय३-भवणादि जाव गवगेवजा ति । तिरिक्खेसु सव्वत्थो० संख० भागहाणि । संखे०भागड्डि. विसेमा | अवहिपवे अपंतगुणा । पंचितिरिक्खअपञ्ज-मणुपअपज० सम्वत्थो० संख०भागहाणिप० । अबढि०प० असंखे०गुणा । ४११. मणुसेसु सम्वत्थो० अवत्त०प० । संखे गुणवडिपवे० संखेगुणा । संखे०गुणहाणिपत्रे विसेसा०। संखेमास्यविपके०संस्खेगुगासविसम्मानहाविपक्षेत्र असंखे०गुणा । अहि०पवे. असंखे गुणा । एवं मणुसपज मणु सिणी० । णवरि संखजगुणं कादच्वं । ४१२. देवेसु सव्वत्थो० संखे० गुणवद्धिपवे० । संखे भागहाणिपवे. असंखे०गुणा । संखे०भागवडिपवे. विसेसा । अववि०प० असंखे गुणा । अणुदिसादि सबट्टा ति सबथोवा संखे० गुणवडियवे० । संखे० भागवडियवे, बिसेमा० । संखेनभामहा०प० असंखे० गुणा । अववि०पवे. असंखे गुणा । शररि सब्य संखेजगुरणं कायव्यं । एव जात्र० 1 एवमेदेसु भुजगारादिअणियोगद्दारेसु बिहासिदेव नदो 'कदि च पविस्संति कम्स प्रावलियं' ति पदं ममतं । उनसे संख्यात भागवृद्धि पदके प्रवेशक जीव विशेष अधिक हैं। उनसे अवस्थित पदके प्रवेशको जीव असंख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार सब नारकी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक तथा भवनवासियोंसे . लेकर नौ प्रैधेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए । तिर्यश्चों में संख्यास भागहानि पदके प्रवेशक .." जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे संख्यात भागवृद्धि पदके प्रवेशफ जीव विशेष अधिक हैं। उनसे अवस्थित पदके प्रवेशक जीव अनन्तगुणे हैं। पंचेन्द्रिय तियन अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में संख्यात भागहानि पदके प्रवेशक जीत्र सयसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थित पदके प्रवेशक जीव असंख्यातगुरणे हैं। ४११. मनुष्यों में प्रवक्तच्य पदके प्रवेशक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे संख्यात गुणवृद्धि पदके प्रवेशक जीव संख्यानगुणे हैं। उनसे संख्यात गुणहानि पदके प्रवेशक जीव विशेष अधिक हैं। उनसे संख्यात भागवृद्धि पदके प्रवेशक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यात भागहानि पदके प्रवेशक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अवस्थित पदके प्रवेशक जीव असंख्यातगुणे हैं । इसीप्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणा करना चाहिए । ६४१२. देवोंमें संख्यात गुणवृद्धि पदके प्रवेशक जीव सबसे स्तांक हैं। उनसे संख्यान भागहानि पदके प्रवेशक जीव असंख्यातगुरणे हैं। उनसे संखपात भागवृद्धि पदके प्रवेशक जीव विशेप अधिक हैं। उनसे अवस्थित पदके प्रवेशक जीव असंख्यानगुणे हैं। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि सकके देवोंमें संख्यात गुणवृद्धि पदके प्रवेशक जीव सबसे स्तोक है। उनसे संख्यात भागवृद्धि पदके प्रवेशक जीव विशेष अधिक हैं। उनसे संख्यान भागहानि पदके प्रवेशक जीय असंख्यातगुणे हैं। उनसे अवस्थित पदके प्रवेशक जीव असंख्यातगुणे है । इतनी विशेषता है कि सर्वार्थसिद्धिमें संख्यातगुणा करना चाहिए । इस प्रकार अनाहारक मार्गरणा नक जानना चाहिए । इस प्रकार इन मुजगार आदि अनुयोगद्वारोंका व्याख्यान करने पर कादि व पविस्संति फरस भावलिय' इस पदका व्याख्यान समान हुआ। Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिजदोरणाप ठाणाणं सेसाणियोगमारपरूषणा 8 'खेत्त - भव - काल - पोग्गल-डिविधिवागोव्यस्त्रयो दु' त्ति एक्स्स विहासा। ४१३. एतो एदस्स गाहापच्छिमद्धस्स पत्ताव सरा परूवणा कायब्वा त्ति पइण्णायकमेदं । संपहि पदस्स गाहापद्धस्म समुदायस्थे प्रणयगये तब्धिसया विहासा पयदि ति तप्परूवणमुत्तरसुत्तमाह 8 कम्मोदयों खेत-भव-काल-पाग्गल विदिविवागोदययखो भवदि । ६४१४, कम्मेण उदयो कम्मोदयो । अपकपाचणाए विणा जहाकालजणिदो कम्माणं डिदिक्खरण जो विवागो सो कम्मोदयो ति भण्णदे । सो चुण खेत्त-भवकाल-पोग्गलद्विदिविवागोदयखयो ति एदस्स गाहापच्छद्धस्स समुदायत्थो भवदि । कुदो ? खेत-भव-काल-पोग्गले अस्सिऊण जो द्विदिक्खयो उदिण्णफलकम्मक्खंध. परिसडणलक्षणो सोदयो ति सुत्तत्थावलंबणादो। तदो कम्मोदओ 'दु' सद्देण सूचिदासेमविसेसपरूवणो पार्मिक माहापछि मावि सिवाणिलीणी स्वाणि विहासियव्यो त्ति एमो एदस्स चुण्णिसुत्तस्स भावत्यो । सो च कम्मोदयो पयडि-हिदि-अणुभाग-पदेसविसयत्तेग्ण चउबिहो । तत्थेह ताव पयडिउदएण पयद, पयडिउदीरणाएंतरमेदस्स परूवणाजोगत्तादो। जइ एवं, कम्मोदयस्स अत्यविहासा किमट्ठमेत्थ सुत्तयारेण " -............ ~~ ~..................------............ * 'क्षेत्र, भव, काल और पुद्गलको निमित्त कर स्थितिविपाकसे उदयक्षय होता है। इसका विशेष व्याख्यान करना चाहिए। ६४१३. श्रागे इस गाथाके उत्तरार्धका अवसर प्राप्त कथन करना चाहिए इस प्रकार यह प्रतिज्ञावाक्य है। अब इस गाथाके उत्तरार्धका समुदायार्थ अवगत होने पर तद्विषयक विशेष व्याख्यान प्रवृत्त होता है, इसलिए उसका कथन करनेके लिए आपका सूत्र कहते हैं ____% काँका उदय क्षेत्र, भव, काल और पुद्गलको निमित्त कर स्थितिविपाकसे उदयक्षारूप होता है। ४१४. कर्मरूपसे उदयका नाम कर्मोदय है त्रिपक्वपाचन के बिना काँका स्थितिक्षयसे जा या कालजनित विपाक होता है वह कर्मादय कहा जाता है। परन्तु वह 'क्षेत्र, भव, काल भौर पुद्गलको निमित्त कर स्थितिविपाकसे उदयक्षयरूप है। इस प्रकार गाथाके इस उत्तारर्धका समुदायार्थ है, क्योंकि क्षेत्र, भय, काल और पुद्गलको आश्रय कर उदीर्ण फल कर्म स्कन्धका परिशानन लक्षण जो स्थितिक्षय होता है, वह उदय है, इस प्रकार सूचक अर्थका अवलम्बन लिया है। इसलिए माथाके अन्तम आये हुए. 'तु' शब्दस सूचित प्रशंष विशपांका कथम करनेरूप जो कर्माद्य गाथाके इस उत्तरार्धमें लीन है उसका इस समय व्याख्यान करना चाहिए इसप्रकार यह इस चूर्णिसूत्रका भावार्थ है। वह कर्मोदय प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशका विषय करनेवाला हानेसे चार प्रकारका है। उनमंसे यहाँ पर प्रकृति उदय प्रकृत है, क्योंकि प्रकृति उदीरणके बाद यह प्ररूपणा योग्य है । - शंका-यदि ऐसा है तो यहां पर सूत्रकारने कर्मोदयकी अर्थषिभाषा क्यों नहीं की ? Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ कीरदि त्ति णासंकणिज, उदीरणादो चेव कम्मोदयस्स बि गयस्थत्तादो । ण च उदयादो उदीरणा एयंतेण पुधमूदा अस्थि, उदयविसेसस्सेव उदीरणाववएसादो। तदो उदीरणाए परूविदाए एसो वि परूविदो चेव | जो च थोवयरो विसेसो एत्थ त्रि वक्खाणकारएहि वक्खाणेयव्यो ति एदेणाहिप्पारण कम्मोइयो एत्थ सुत्नयारेण ण विस्थारिदो । अत्यसमप्पणामेत्तं चेत्र काय, तदो एंदाच सीमासयययणपस्सिदन कम्मोदयो एस्थ विहासियव्यो । एवं कम्मोदए विहासिए पढमगाहाए अस्थो समत्तो होइ। * को कदमाए डिवोर पवेसगी त्ति पदस्स विदिउदारणा कायव्वा । १४१५. पयडिउदीरणाणंत मेत्तो हिदिउदीरणा कायब्बा, पचायमरत्तादो । सा धुण द्विदिउदीरणा बिदियगाहाए पढमपादे णिबद्धा ति जाणावणट्ठमेदं सुत्तमोहणं 'को कदमाए द्विदीए पवेसगो ति ।' :४१६. एदरस पदस्स अस्थो द्विदिउदीरणाए ति तदो एदं बीजपदं द्विदिउदीरणासामित्तविसयपुच्छामुहेण पयट्टमस्सिऊण हिदिउदीरणा विहासियबा त्ति एसो एदस्स भावत्यो । सा च द्विदिउदीरणा मृलुत्तरपडिविसयभेदेण दुविहा होदि त्ति जाणाक्णद्वमुत्तरसुत्त माह समाधान-ऐसी अाशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उदीरणासे ही कर्मोदयके - : अर्थका भी ज्ञान हो जाता है। यदि कहा जाय कि उदयसे उदीरणा एकान्तसे पृथग्भूत है सा भी बात नहीं है, क्योंकि उदयविशेषकी ही उदीरणा संज्ञा है। इसलिए उदारणाका कथन करने पर उदयका भी कथन हो ही गया। और जो थोड़ी-सी विशेषता है सो उसका यहाँ पर भी व्याख्यानकारकोंका व्याख्यान करना चाहिए. इसप्रकार इस अभिप्रायसे कर्मादयके व्याख्यानका यहां पर सूत्रकारने विस्तार नहीं किया, अर्थका समर्पणभात्र किया। इसलिए इसी दशामर्षक वचन का आनय कर कर्मादयका यहाँ पर व्याख्यान करना चाहिए । इसप्रकार कर्मादयका व्याख्यान करने पर प्रथम गाथाका अर्थ समाप्त होता है। * 'कौन जीय किस स्थितिमें प्रवेशक है। इस पदका आश्रय लेकर स्थिति उदीरणा करनी चाहिए। ४१५. अकृति उदारणाके बाद आगे स्थितिउदीरणा करनी चाहिए, क्योंकि वह अवसर प्राप्त है । परन्तु वह स्थिति उरणा दूसरी गाथा प्रथम पादमें निबद्ध है, यह बतलानेके लिए यह सूत्र अवतीर्ण हुना है-कौन किस स्थितिमें प्रवेशक है। ६४१६. इस पदका अर्थ स्थितिउदोरणास सम्बन्ध रखता है, इसलिए स्थिति उदारणाके स्वामित्त्रविषयक पृच्छाके द्वारा प्रवृत्त हुए इस बीजपदका प्राश्रय कर स्थितिजदीरणाका व्यापान करना चाहिए। यह इसका भावार्थ है। और वह स्थितिउदीरणा मूलप्रकृति और उत्तरप्रकृतिरूप विषयके भेदसे वा प्रकारकी , यह ज्ञान कगनेके लिए भागेका सूत्र कहते हैं Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिउदारणा, ठाणाणं सेसाणियोगदारपरूवणा १८९ ____ॐ एस्थ विदिउदीरणा दुविहा-मूलपपडिविदिउदीरणा उत्तरपयद्धिद्विपिउदीरणा च । । ४१७. एस्थ एदम्मि द्विदिउदीरणापरूवणावसरे मूलपयडिविदिउदीरणा उत्तरपयार्ड हिदिउदीका दिशाविहणायेटिदिउधरणा होइ, तदुभयवदिरेगेण द्विदिउदीरणाए पयारंतरासंभवादो। एवं दुधियापाए हिदिउदीररणाए अणियोगद्दारहि विणा परूवणा ण संभवदि ति तब्धिसागमणियोगद्दाराणमुवण्णासो कीरदे । ॐ तत्थ इमाणि अणियोगदाराणि । तं जहा--पमाणापुगमो सामित्तं कालो अंतरं जाणाजोवेहि भंगविचयो कालो अंतरं सपिणयासो अप्पापहुअं भुजयारो पदणिवेवो वड्डी हाणाणि च । ४८. एत्थ सुगमत्तादो अणुवइद्वारणं सन्न-णोसब-उकस्साणुकस्म-जहण्णाजहणण-सादिअणादि-धुव-अर्द्धवाणियोगहागणमद्धाच्छेदाणंतरणिमारिहाणं भागाभागपरिमाण-खेत्त-पोसणाणं च भंगविचयाणंतरणिदेयजोगाणं भाषाणुगमस्स च संगहो कायव्यो। ण च एदेमिमणियोगदागणं माहासुत्ते णिबंधां णस्थि ति आसंकणिजं, 'सांतर-णिरंतरं बा०' इच्चेदेण गाहापच्छद्ध ण सूचिदत्तादो । तदो मूलपाडविदिउदीरणाए सएिणयासेण विणा तेवीसमणियोगद्दाराणि भुजगार-पदणिक्खेव-वड्-िट्टाणाणि च उत्तरपयडिडिदिउदीरणाए खुण मणियासेण सह चउवीसमणियोगहाराणि संपुष्पाणि * यहाँ स्थितिउदीरणा दो प्रकारकी हैं-मूलनकृति स्थिति उदीरणा और उत्तरप्रकृति स्थितिउदीरणा । १४१७. यहाँ इस स्थितिउारणाके कथन के अवसर पर मूलप्रकृत्ति स्थितिउदीरणा और उत्तरप्रकृति स्थिति उदीरणा ग्रह दो प्रकारकी ही स्थिति उदीरणा है, क्योंकि इन दोनोंसे भिन्न स्थिति उदीरणका प्रकारान्तर असम्भव है। इसप्रकार दो प्रकारकी स्थितिउदीरणाका अनुयोगद्वारोंके बिना कथन सम्मान नहीं है, इसलिए तद्विषयक अनुयोगद्वारोंका उपन्यास करते हैं * उसमें ये अनुयोगद्वार हैं । यथा-प्रमाणानुगम, स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर, सम्भिकर्षे, अल्पबहुत्व, भुजगार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थान | ४१८, यहाँ पर सुगम होनेसे नहीं कहे गये तथा अद्धाच्छेदके अनन्तर निर्देश योग्य ऐसे सर्व, भोसर्व, उत्कृष्ट, अनुस्कृष्ट, जघन्य, श्रजघन्य, सादि, अनादि, ध्रुव, और अध्रुव अनुनयोगद्वारोंता तथा भंगविचयके बाद निर्देश योग्य भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र और स्पर्शन अनयोगद्वारोंका तथा भावानुगमका संग्रह करना चाहिए। इन अनुयोगद्वारोंका गाथासूत्र में संग्रह नहीं है ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि सांतर-णिरंतरं वा' इसप्रकार इस गाधा के उत्तरार्धके द्वारा इनका सूचन हुआ है। इसलिए मूलप्रकृति स्थितिजदीरणाम सन्निकषके बिना तेईम अनुयोगदार नथा भुजगार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थान ये अनुयोगद्वार होते हैं तथा उत्तरप्रकृति स्थिति उदारणा में तो सन्निवपके साथ पूर चौबीस अनुयोगद्वार तथा भुजगार, Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९. अयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगा . भुजगार-पदणिकालक-हाणागिविधि सम्मोहल्लस्स मुक्तसारबन्यो । एवेसु अणियोगहारसु विहासिदेसु 'को कदमाए द्विदोए पवेसगों त्ति पदं समतं । । ४१९. संपहि मंदबुद्धिजणाणुग्गहट्ठमेदेण समप्पिदत्थपरूषणमुच्चारणाइरियोवएमत्रलेण पयासइस्सामो । तं जहा—द्विदिउदीरणा दुविहा—मूलपयडिडिदिउदीरणा उत्तरपडिद्विदिउदीरणा च । मूलपयडिडिदिउदीरणाए ताव पयदं । तस्थ इमाणि तेवीसमणियोगद्दाराणि णादच्याणि भवंति पमाणाणुगो जाय अप्पावहुए ति भुज० परिण• बड्डीहाणाणि च । ४२०. तत्थ पमाणाण. दुविहं- जह० उक० । उक० पयदं । दुविही णिहमो--ओघेण आदेसेग य | आघण मोह. उक्क द्विदिउदीरणा सच रिमागरोबमकोडाकोडीनो दोहि श्रावलियाहिं ऊणाओ । एवं चदुगदीसु । णवरि पंचिंदियतिरिक्खअपज ०-मणुसअपन० मोह० उक० विदिउदीरणा सत्तरिसागरो०कोडाफोडीयो अंतोमुहुतणाओ। आरणदादि सबट्ठा ति मोह. उक्क० द्विदिउदी अंनोकोडाकोडीओ। एवं जाव० । पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थान के अनुयोगद्वार होते हैं यह इस सूत्रका भावार्थ है। * इन अनुयोगद्वारोंका व्याख्यान करने पर कौन किस स्थितिमें प्रवेशक है। यह पद समाप्त हुआ। ४६. अब मन्दबुद्धि जनोंके अनुग्रहके लिए इसके द्वारा समर्पित अर्थका कथन उचारणाचार्यके उपदेशके बलसे प्रकाशित करेंगे। यथा-स्थितिउदीरणा दो प्रकारको है मूलप्रकृति स्थिति उदीरणा और उत्तरप्रकृति स्थिति उदीरणा । सर्व प्रथम मूलप्रकृतिस्थिति उदीरणा प्रकृत है। उसमें ये तेईस अनुयोगद्वार नातव्य है-प्रमाणानुगमसे लेकर अल्पबहुत्व तक तथा भुजगार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थान ।। ४२०. उसमेंसे प्रमाणानगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है.-ओघ और प्रादेश। अाघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिउदारणा दो श्रावलि कम सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपम होती है। इसीप्रकार चारों गतियां में जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यकच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मोहनीय की उत्कृष्ट स्थितिउदारमा अन्तर्मुहूतकम सत्तर काडाकाड़ी सागरोपम हाती है। प्रानत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवाम मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिउदारणा 'अन्तःकाडाकोड़ा प्रमाण होती है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ.मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होने पर धन्धावलिके याद उदयावलिस उपरितन निपकोंकी उदीरणा हनिपर वह मो प्रावलि कम सत्तर काडाकाड़ो सागरापम प्राप्त होती है। शेष कथन सुगम है। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] १०१ मार्गदर्शक जी महाराज --- १ ४२१. जहणए पदं । दुविहो णि ओघेण आदेसे० । श्रघेण मोह० जह० हिदिउदीरणा एया हिंदी समयाहियावलियकालडिदिया । एवं मणुसतिए । रइय० मोह० जह० द्विदिउदीरणा सागरोवमसहस्सस्स सत्तमत्तभागा पलिदो ० संखेभागेण ऊणिया । एवं पढमपुढवि० देवा भवण० वाणवैतर० । सेसमगणासु द्विदिविहनिमंगो । वरि उदीरणालावो काचो । श्रादेसेण 3 ९४२२. सन्चउदीरणा- गोसव्बउदीरणाणु० दुविहो णि० श्रघेण श्रादेसे० । ओघेण वा द्विदीओ उदीरेमाणस्स सव्वाट्ट दिउदीरणा । तदूर्ण गोसव्वट्टिदिउदीरणा | एवं जाव० । ३४२३. उ० डिदिउदी० श्रणुक० हिदिउदीरणाणु० दुविहो णि० – ओघेण आदेसेण य | ओघेण सम्बुकस्मियं द्विदिमुदीरेमाणस्स उक द्विदिउदी० तदूणमणुक०| | डिदिउदीरणा | एवं जाय० । ९४२१. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-प्रोध और आदेश । श्रधसे मोहनीयकी जघन्य स्थितिउदीरणा एक समय अधिक एक अवलि काल स्थितिवाली एक स्थिति है । इसीप्रकार मनुष्यविक्रमं जानना चाहिए। प्रदेश से नारकियों में मोहनीयकी जघन्य स्थितिउदीरणा एक हजार सागर के सात भागों से पल्यका संख्यातवाँ भाग कम सात भाग. प्रमाण है । इसी प्रकार प्रथम प्रथित्री, सामान्य देव, भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें जानना चाहिए। शेष मार्गणाओं में स्थितिविभक्तिकं समान भंग है। इतनी विशेषता है कि स्थितिसके स्वानमें स्थितिउदीरणा कहनी चाहिए । विशेषार्थ – यहाँ पर सामान्यसे मोहनीयकी जघन्य स्थिति उदीरणा एक समय अधिक एक पल काल स्थितिवाली एक स्थिति कहीं हैं सो क्षपक सूक्ष्मसपराधिक के संज्वलन सूक्ष्म लोभकी जब अधस्तन स्थिति एक समय अधिक एक अवलिप्रमाण शेष रहती है तब यह जघन्य स्थितिउदीरणा प्राप्त होती है। मनुष्यत्रिमें प्रोघ प्ररूपणा अभिकल बन जानेसे उसे घोष के समान जानने की सूचना की है। सामान्य नारकी, प्रथम पृथिवी के नारकी, सामान्य देव, भवनवासी और व्यन्तरोंमें असंही पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीव मरकर उत्पन्न हो सकते हैं, इसलिए इन मार्गणाओं में असंही पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवांके मोहनीय सम्बन्धी जघन्य स्थिति को ध्यान में रखकर जघन्य स्थितिउदीरणाका प्रमाण कहा है। प्रमाणका उल्लेख मूल में किया ही है। शेष कथन स्पष्ट है । ९४२२. सर्व उदीरणा और नांसर्व उदीरणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— श्रोष और आदेश | ओघसे सब स्थितियोंकी उदीरणा करनेवालेके सर्वस्थितिउदीरणा होती है और उससे न्यून स्थितियोंकी उदीरणा करनेवालेके नोसर्वस्थितिउदीरणा होती है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए | १४०३. उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा और अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - प्रोध और आदेश । श्रोषसे सर्वोत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा करनेवालेके उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा होती है और उससे न्यून स्थितिकी उदीरणा करनेवाले श्रष्टस्थितिहोती है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ जयधवलासहिदे कसायपाहडे [बंदगो १४२४, जह उदीर०-अजह द्विदि०-उदीरणाणु० दुविहो णि-पोषण आदेसे० । अोघेण सव्यजण्णियविदिमुदीरेशाणपस्स जह० विदिउदीरणा। तदो उपरिमजहहिदिउदीरणा । एवं जाव० । ४२५. सादि० प्रणादि०-धुव०-अर्द्धवाणु दुविहो णि-प्रोघेण श्रादेसे०। अोघेण मोह. उक्क. अणुक्क • जह० किं सादि. ४ ? सादि-अधुवा । अजह हिदिउदीर० किं सादि० ४ ? सादि० अणादि० धुवा अदुवा वा । सेसगदीसु उक्क० अणुक० जह ० अजह० सादि-अधुवा । एवं जाय। ४२६. सामित्ताणुगमं दुविहं-जह० उक्क०। उक्कस्से पयदं । दुविहीं णि.-- ओघेण आदेसे० | ओषेण मोह० उक० द्विदिउदी० कस्स ? अण्णद० उक्कसहिदि मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविक्षिसागर जी दादरस, एवं दस गदीस हारावरि पंचिंतिरिकाप अपज०-मणुम६४२४, जघन्य स्थिति उनीणा और अजवन्य स्थिति उदारणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकार का है---श्रीध और श्रादेश । श्रोबसे सबसे ज बन्य स्थिनिकी उदीरणा करनेवाले जीवके जघन्य स्थितिउदीरणा होती है। उससे ऊपर अजघन्य स्थिति उदारणा होती है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा नक जानना चाहिए। ६४२५. सादि, अनादि, ध्रुव और अध्र वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैअोव और आदेश । ओघसे मोहनीयको उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य स्थिति उदीरणा क्या सादि है, अनादि है, ध्र व है या अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है। अजघन्य स्थिति उदारणा क्या सादि है, अनादि है, ध्रुव है या श्रध्रुवे है ? सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव है। शेष गतियोंमें उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य स्थिति उदारणा सादि और अध्र व है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ-- उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा पुनः पुनः प्राप्त हो सकती है, इसलिए उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरनामें अनादि और ध्र व ये दो विकल्प नहीं बन सकने । यही कारण है कि इन दोनों प्रकारकी उदीरणाओं को सादि और अध्रव कहा है। जघन्य स्थितिउदीरणा उपशामक या क्षपक होती है, इसलिए इसे भी सादि और अध्र व कहा है। किन्तु इसके पूर्व श्नजन्य स्थिति उदीरणा अनादि है, उपशामकके जघन्य स्थिति दीरणाके बाद सादि है, तथा भव्योंमें ध्रुव और अभव्योमें ध्रुव है, इसलिए इसे चारों प्रकारकी कहा है । यह ओधप्ररूपणा है। गति मार्गाके उत्तर भेद कादाचित्क हैं, इसलिए उनमें चारों प्रकारकी स्थिति उदारणा सादि और अध्रुव कही है। शेष मार्गणाओं में इसीप्रकार जहाँ जिस प्रकार सम्भव हो घटित कर लेना चाहिए। ४२६. स्वामित्वानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्ठका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है--योघ और ध्यादेश। अघिसे मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका स्वामी कौन है ? उत्कृष्ट स्थिति पाँधनेके बाद जिसे एक प्रावलि काल गया है ऐसा अन्यतर जीव मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका स्वामो है। इसीप्रकार चारों गांतयों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्यातकोंमें मोह Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ गा० ६२ ] उत्तरपयडिउदीरणाम ठाणा सेसालियोगहारपत्र अप० मोह० उकासिणी या पंचि०तिरिक्खजोणिश्रो वा उकस्सट्टिदि बंधिदूण अंतमुत्तट्ठि दिघादम काऊ अज० उबवण्णो तस्स पढमसमय उबवण्णल्लयस्स | आरणदादि नवगेवजाति मोह० उक्क० विदि० उदीर० कस्म १ अण्णद० दव्त्रलिंगियो तप्पा थोग्गुकस्सट्टिदिसंन० पढमसमयउष्णल्लयस्स | अणुदिसादि सट्टा ति मोह उक्क० डिदिउदी • कस्स १ अण्णद० जो संजदो तप्पा ओग्गक० द्विदिसं० पदमसमयववण्णो तस्स उक० डिदिउदीरणा | एवं जाव | ४२७ जह० पदं । दुविहो णिः - श्रघेण श्रादेसे० । श्रघेण मोह ० जह० हिदिउदी० कस्स ? अण्णद० उबसामगस्स वा खवगस्स वा समयाहियावलियउदीरेमास्स । एवं मणुमतिए । : ४२८. देसेण णेरड्य० मोह० जह० डिदि०उदी० कस्स ? अण्णद० सष्णिपच्छायद दुसमयाद्दियावलिउचवण्णल्लयस्स | एवं पढमाए देवा भवन०वावें । विदियादि जात्र ट्टि ति मोह ० जह० द्विदिवदी० कस्स ? अण्णद० दीहाए उडिदीए उपवजिऊण अंतोमुत्ते सम्मत्तं पडिवज्जिय अनंत णु० चउकं० विसंजो 0 नीकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका स्वामी कौन है ? जो मनुष्य, मनुष्पिनी या पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच योनिवाला अन्यतर जीव उत्कृष्ट स्थिति बाँधकर स्थितिघात किये बिना अन्तर्मुहूर्त में अपर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ वह जीव उत्पन्न होनेके प्रथम समय में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका स्वामी है। आनत कल्पसे लेकर नौ मैवेयक तक्के देत्रों में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका स्वामी कौन है ? तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थिति सत्कर्मत्राला अन्यतर जो द्रव्यलिंगी मरकर उक्त देवामें उत्पन्न हुआ वह उत्पन्न होनेके प्रथम समय में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका स्वामी है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका स्वामी कौन है ? सत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थिति सत्कर्मवाला जो अन्यतर संयत मरकर उक्त देवोंमें उत्पन्न हुआ, वह उत्पन्न होनेके प्रथम समय में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका स्वामी | इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । ६ ४२७. जघन्यक्का प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । श्रघसे मोहनीयकी जघन्य स्थितिउदीरणाका स्वामी कौन है ! उपशामक या क्षपक जो अन्यतर जीच एक समय अधिक आवलिप्रमाण स्थितिके रहनेपर उड़ीरणा कर रहा है वह मोहनीयकी जघन्य स्थितिउदीरणाका स्वामी है। इसीप्रकार मनुष्यत्रिक में जानना चाहिए। ४२८, प्रदेश से मोहनीयकी जघन्य स्थितिउदीरणाका स्वामी कौन है ? श्रन्यतर जो असंज्ञी मरकर नरक उत्पन्न हुआ है और जिसे वहाँ उत्पन्न हुए दो समय अधिक एक बलि हो गया है वह मोहनीयकी जघन्य स्थितिउदीरणाका स्वामी है। इसीप्रकार प्रथम पृथिवोके नारकी, सामान्य देव, भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियों में मोहनीयकी जघन्य स्थितिउदीरणाका स्वामी कौन है ? अन्यतर जो दीर्घ श्रायुस्थिति के साथ उत्पन्न होकर, अन्तर्मुहूर्त में सम्यक्त्वको प्राप्त होकर और २५ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ वेदगी ७ एव तत्थ य भवद्विदिमखुपालिय चरिभसमयणिम्पिडमाणयस्व । एवं जोदिसि० । सत्तमाए एवं चैव । णवरि तत्थ भवद्विदिमणुपालेऊण थोत्रावसेसे जीविदच्चए ि मिच्छत्तं गढ़ो जात्र सताव संतकम्मस्स हेड्डा बंधिऊण समविदियं वा बंधिऊण संतकम्मं बोलेण वा श्रावलियादीदस्स वस्स जह० हिदिउदीरणा । श्री. ४२९. तिरिक्वेसु मोह० जह० डिदिउदी कस्स ? अण्णद० चादरेइंद्रियस्स हृदसमुत्पत्तियस्स जाव पकं ताव संतमराज संतकम्मं बोलेदूण वा आवलियादीदस्स तस्स जह० ट्टिदिउदीरः । सव्वपंचिंदियतिरिक्ख मरणसश्रपञ्ज० मोह० जहण्णडिदिउदी० कस्स ? अरसद बादरेइंदिय पच्छा ० हृदसमुप्पत्ति श्रावलियउबवण्णो तस्स जह० विदिउदी० | सोहम्मादि जाब सच्च चि मोह० जह० डिदिउदीर० कस्स ? रणद० खड्यसम्माइडि० उसम से हिपच्छाय० दीहार आउहिदीए उववजिऊण चरिमसमयणिम्पिडमाणयस्स तस्स जह० हिदिउदी० । एवं जाव० । o 2 ६४३०. कालागमं दुविह जह० उक० | उकस्से पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । श्रोषेण मोह० उक० डिदि उदीर० जह० एयसमत्रो, उक्क० अनन्तानुबन्धचतुष्ककी विसंयोजना करके उसी अवस्थामें भवस्थितिका पालन कर जब अन्तिम समय में वहाँ से निकलनेवाला होता है, तब मोहनीयकी जघन्य स्थितिउदीरणाका स्वामी है। इसीप्रकार ज्योतिषी देवोंमें स्वामित्व है। सातवीं पृथिवी में इसीप्रकार है। इतनी विशेषता है कि वहाँ भवस्थितिका पालन कर जीवितव्य के स्तोक शेष रहनेपर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ और जब तक शक्य है तब तक सत्कर्मसे कम या समान स्थितिका बन्ध कर उत्कर्मको बिताते हुए जब एक आवलि काल चला जाता है तब वह जघन्य स्थितिउदीरणाका स्वामी है। १४२६ तिर्यच्चोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिउदीरणाका स्वामी कौन है ? जो इत समुत्पत्ति अन्यतर बावर एकेन्द्रिय जीव जब तक शक्य है तब तक सत्कर्म से कम या समान स्थितिको बाँधकर सत्कर्मको बिताते हुए जब एक आवलि काल चला जाता है तब वह मोहनीयकी जघन्य स्थितिउदीरणा का स्वामी है। सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मोहनीयकी जवन्य स्थितिउदीरणा का स्वामी कौन है ? जिस इतसमुत्पत्तिक जीवको बादर एकेन्द्रियों से आकर यहाँ उत्पन्न हुए एक भावलि हुआ है वह अन्यतर जीव मोहनीयकी जघन्य स्थितिउदीरणाका स्वामी है। सौधर्म कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक के देवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिउदीरणाका स्वामी कौन है ? अन्यतर जो क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव उपशमश्रेणिसे आकर दीर्घ आयुस्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न होकर जब वहाँसे निकलने के अन्तिम समय में स्थित होता है तब वह मोहनीय की जघन्य स्थितिउदीरणा का स्वामी है। इसप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए | ६४३०. कालानुगम दो प्रकारका है— जघन्य और उत्कृष्ट | उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - श्रोध और आदेश । श्रघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिउदीरणाए ठाणाणं सेसारिणयोगदारपरूवणा अंतोमु० ! अणुक्क० जह• अंतोमु०, उक० अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । एवं तिरिक्खाणं । णवरि अणुक्क० जह• एयस० । ४३१. आदेसेण गरइय. उक० द्विदिउदीर. जह० एयसमओ, उक्क० अंतोमु० । अणुक्क. जह० एयम०, उक्क० तेत्तीसं सागरोबमाणि 1 एवं सचणेरइय० पंचिंदियतिरिक्खतिय ३ मणुसतिय-देवा भवणादि जाव सहस्सार त्ति । णवरि सगदिदी । मार्गदर्शक :- आई सी पाचदियातरिक्व अवजल-माणुसअपज्ज० मोह, उक्क हिदि उदीरणा जह० उक्क० एयस० । अणुक० जह. खुद्दाभवग्गहरणं समऊणं, उक्क० अंतोमु० । जवन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यान पुगल परिवर्तनप्रमाण है। इसी प्रकार तिर्यकचा में है। इतनी विशेषता है कि इनमें अनुत्कृष्ट स्थिति उदारणाका जघन्य काल एक समय है। विशेपार्थ-मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य बन्धकाल एक समय और उत्कृष्ट बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त होनेस उसकी उदीरणाका यह काल बन जानेसे उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। उत्कृष्ट स्थितिबन्धके बाद पुनः उसका बन्ध कमसे कम अन्तर्मुहूत के पहले नहीं होता और ऐसा जीव यदि एकेन्द्रियों में मरकर उत्पन्न हो जाता है और सबसे अधिक काल तक यहाँ तथा यथायोग्य असंनियों में रहकर पुनः संज्ञी पर्याप्त होता है तो अधिकसे अधिक अनन्त काल बाद ही वहाँ उत्पन्न होता है । यही कारण है कि ओघसे मोइनीयकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल कहा है । तिर्यञ्चोंमें यह श्रीधप्ररूपणा बन जाती है, इसलिए उनमें ओषके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र तिर्यकचोंमें ऐसा जीव भी श्राकर उत्पन्न हो सकता है जो अनुत्कृष्ट स्थितिउनीरणा एक समय तक करके उत्कृष्ट स्थितिजदीरणा करने लगे। यह। कारण है कि इनमें अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका जघन्य काल एक समय कहा है। ५३१. श्रादेशसे नारकियोंमें उत्कृष्ट स्थितिउदारणाका जवन्य काल एक समय है, और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरयाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इसीप्रकार सब नारकी, पन्देन्द्रिय तिर्यचत्रिक, मनुष्यत्रिक, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्प सकके देवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। विशेषार्थ—पूर्वमें जिस प्रकार सामान्य तियंचामें स्पष्टीकरण किया है उस प्रकार यहाँ कर लेना चाहिए । यहाँ सर्वत्र जो अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण कहा है यो उस उस गतिमें यथायोग्य सम्यक्त्व और मिथ्यात्त्र परिणाम के साथ इसप्रकार रखे जिससे उस उस गतिमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध तथा तदनुसार उत्कृष्ट स्थिति उदारणा न प्राप्त हो। ६४३२. पन्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्रकोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिनि उदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट स्थिति उदारणाका जघन्य काल एक समय कम क्षुल्लकभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। आनत कल्पस Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो आणदादि मन्चट्ठा ति मोह० उक्क डिदि० उदी० जहण्णुक० एयस० | अणुक० जह जहणहिदी समयूणा, उक० उक्कस्सहिदी । एवं जाव० । ४३३. जहण्णए पयदं । दुविहो ,णि..--ओषेण श्रादेसेण य । ओघेण मोह० जहद्विदिउदी. जह० उक० एयस० । अजह० तिषिण भंगा । जो सो सादिश्रो सपञ्जवसिदो जह० अंतोमु०, उक्क. उबड्डपोग्गलपरियहूँ । ४३४. श्रादेसेण गैरइय. मोह० जा०द्विदिउद्दी० जहण्णुक० एयम । अज० जह० श्रावलिया समयाहिया. उक० तेत्तीसं सागरोवमाणि । एवं पढमाए देवा भवण०-वाणातर० । वरि सद्विदी। लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवाम मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति उदारणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट स्थितिबदीरणाका जघन्य काल एक समय कम जघन्य स्थिति प्रमाण और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाझिादर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज विशेषार्थ- पूर्वोक्त दोनों लमध्यपर्याप्त जीवोंमें अपने स्वामित्वके अनुसार मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरगा। एक समय तक ही प्राप्त होती है, इसलिए इनमें इनका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा इस एक समयका क्षुल्लकभवके काल मेंसे कम कर. देने पर इनमें मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थित उदीराका जघन्य काल एक समय कम शुल्लक भवप्रमाण प्राप्त होता है, इसलिए इनमें मोहनीयकी अनुस्कृष्ट स्थिति उदीरणाका जघन्य काल उक्त कालप्रमाण कहा है। तथा इनमें मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका उत्कृष्ट काल ..." अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है यह स्पष्ट ही है। इसीप्रकार आनतादि देवों में स्वामित्वका विचार कर काल प्ररूपणा समझ लेनी चाहिए। विशेष वक्तव्य न होनेसे अलगसे स्पष्टीकरण नहीं ... किया है। ४३३. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है---प्रोध और आदेश । ओत्रसे मोहनीयकी जघन्य स्थिति उदारणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्। स्थितिउदारणाके तीन भंग हैं। उनमें जो वह सादिसपर्यवस्मित भंग है उसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल उपाधं पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। विशेषार्थ—-अपने स्वामित्वके अनुसार जघन्य स्थितिउदीरण एक समय तक होती है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। किन्तु किसी जीवके अर्धपुद्गलपरावर्तके प्रारम्भमें और अन्समें यथायोग्य जघन्य स्थिति उदीरणा हो श्रीर मध्यमें अजघन्य स्थितिजदीरणा होती रहे तथा किसी जीवके अन्तर्मुहूर्त काल तक ही यह ही यह भी सम्भव है, इसलिए प्रोघसे अजघन्य स्थितिजदीरणाका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल उपाध पुद्गलपरावर्तप्रमाण कहा है। ६४३४. श्रादेशसे नारकियों में मोहनीयकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय अधिक एक श्रावलि श्रार उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । इसी प्रकार प्रथम पृथिवा नारकी, सामान्य देव, भत्रनवासी और व्यन्तर देवाम जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिउदीरणाप ठाणाणं सेमाणियोगदारपरूवरणा ४३५. बिदियादि छट्टि त्ति मोह, जह द्विदिउदी. जहण्णुक्क० एयस० । अज० जहष्णुक्कस्सहिदी । एवं जोदिसियादि जात्र सन्नट्ठा ति । सत्तमाए मोह. जह डिदिउदी० जह• एयस०, उक्क० अंतोमु० । अज० जह. अंतोमु०, उक्क० तेतीसं सागरो। ४३६. तिरिक्वेसु मोह० जहटिदिउदी० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । अज० जह० एयस०, उक्क० असंखेला लोगा। पंचिंदियतिरिक्खतिए मोह. जह. ट्ठिदिउदी० जहण्णुक० एयस० । अजह. जह० श्रावलिया समयूणा, उक. विशेषार्थ-- नारकियोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति उदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय जैसे पूर्वमें घटित करके बतला पाये हैं उसी प्रकार यहाँ और आगे घटिप्त कर लेना चाहिए । विशेषता न होनेसे उसका अलगसे खुलासा नहीं करेंगे। नरकमें अपने स्वामित्वके अनुसार जघन्य स्थिति उदीरणा यहाँ उत्पन्न होनेके बाद एक प्रावली भौर एक समय जानेपर द्वितीय समयमें ही प्राप्त होती है। इससे पूर्व अजघन्य स्थितिउदीरणा होती रहती है, इसलिए इनमें अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय अधिक एक आवलि कहा है। शेष कथन सुगम है। मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविहिासागर जी महाराज ४३५. दूसरी पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियों में मोहनीयकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है,। इसीप्रकार ज्योतिषियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि त कके देवाम जानना चाहिए । सातत्री पृथिवीम मोहनीयकी जघन्य स्थिति'उदीरणाका जयन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है। अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। विशेषार्थ----दूसरे नरकसे लेकर छठे नरक तक जघन्य स्थिति उदीरणा अपने-अपने स्वामित्वके अनुसार भवके अन्तिम समय में प्राप्त होती है। अतः इनमें जघन्य स्थिति उदारणा. का जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा जो उक्त नारक। उक्त प्रकारसे जघन्य स्थिति उदीरणा नहीं करते उनके सर्वदा अजघन्य स्थितिकदीररणा बन जानसे इस अपेक्षा अजयन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा है। ज्योतिषी देवोंसे लेकर सार्थसिद्धि तक देवों में यह काल अपने स्वामित्वके अनुसार उक्त पद्धतिसे बन जाता है, अतः इनमें द्वितीयादि नरकोंके समान कालके जानने की सूचना की है। सातवें नरकमें अपने स्वामित्वके अनुसार जघन्य स्थितिउदीरमाका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त बन जाता है, इसलिए इनमें यह काल उक प्रमाण कहा है। तथा इनमे अजघन्य स्थिति नदीरणाका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त जघन्य स्थितिउदीरणाके बाद प्राप्त होनेवाला लिया है। उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट भवस्थितिप्रमाण दाता है यह स्पष्ट ही है। ६४३६. निर्योंमें मोहनीयको जघन्य स्थिति जीणाका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थिनिध्दीराका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकपमाग है। पञ्चेन्द्रिय निर्थञ्चत्रिक माहनीयको जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य स्थिति उदीरणाका जघन्य काल Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज सहिदी । एवं पंचिदियतिरिक्खा पञ्ज० मणुसच पञ्च० । णवरि अंतोमु० | मणुसतिए मोह० जह० द्विदिउदी • जहण्णुक एयसमत्र । एयसमओ, उक्क० सगट्टिदी | एवं जाव० । ० ५ [ वेदगो ७ जह० उक० अज० जह० ३४३७. अंतरं दुविहं – जह० टक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो खिदेसोघे आदेसेण । श्रघेण मोह० उक्क० डिदिउदी० जह० अंतोनु०, उक० अतिकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । प्रणुक० जह० एयस०, उक्क० अंतो० । एवं तिरिक्खेसु । ४३८. देसेण रइय० मोह० उक्क० हिदिउदी० जह० अंतोमुहुतं, उक० तेत्तीस सागरो० देणाणि । अणुक्क० ओघं । एवं सव्व णेरइय० । णरि सगहिदी ...... VINOZY एक समय कम एक आवति है और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रभार हैं। इसीप्रकार पक्रेन्द्रिय निर्यच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें श्रजघन्य स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। मनुष्यत्रिक में मोहनीयकी जघन्य स्थितिउदीरणा । जवन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गशा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ — पूर्व में जो खुलासा कर आये हैं उसे ध्यान में रखकर तथा अपने-अपने स्वामित्वको लक्ष्य में रखकर उक्त विषयका स्पष्टीकरण हो जाता है, इसलिए यहाँ अलगसे खुलाखा नहीं किया । ६४३७. अन्तर दो प्रकारका है- - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृटका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - और आदेश । श्रवसे मोहनी की उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त हैं और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । अत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इसीप्रकार तिर्यक्रम है। त्रिशेषार्थ – मोहनीका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होकर पुनः उसका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कमसे कम के पहले नहीं होता तथा संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त पर्यायका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है। यही कारण है कि यहाँ मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल कहा है। मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक समय तक हो यह भी नियम है और अन्तर्मुहूर्त काल तक हो यह भी नियम हैं । इसीसे यहां अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है । सामान्य तिर्यचामं यह ओघप्ररूपणा अविकल घटित हो जाने से उनमें आपके समान जानने की सूचना की है। ६ ४३८. आदेश से नारकियों में मोहनीयको उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका अन्तरकाल ओके समान है। इसीप्रकार सत्र नारकियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है, Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ देगा | पंचिदियतिरिक्खतिय- मणुसतिए मोह० उक० डिदिउदी० जह० अंतीमु०, उक० पुनकोडितं । अणुक० ओघं । पवि०तिरि० अपज ०- मणुमपञ्ज० आणदादि सव्वड्डा चि मोह० उक्त० विदिउदी० ऋणुक० डिदिउदी० सत्थि अंतरं । देवेसु मोह० उक० ड्डि दिउदी० जह० अंतोमु०, उक्क० अट्ठारस सागरो० सादिरेयाणि । अणुक० श्रोधं । एवं भवणादि जाब सहस्सार ति । णवरि सगहिदी । एवं जाव० । ६४३९. जहणे पदं । दुविहो णि० -- श्रीवेण आदेसे० । श्रघेण मोह० जह० डि दिउदी ० जह० अंतोमु०, उक० उबडपो० परियङ्कं । अजह० जह० यस०, उक्क० अंतोमु० । $ ४४० आदेसेण रइय० मोह० जह० द्विदिउदी० णत्थि अंतरं । ज० " गा० ६२ ] मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज उत्तरपडिउदीरणाए ठाणाएं से साज़ियोगहारपरूवणा कि कुक कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक और मनुष्यत्रिक में मोहनी की उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोदिपृथक्त्वप्रमाण है । अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका अन्तरकाल ओघ के समान हैं । पञ्चेन्द्रिय विर्य अपर्याप्त, मनुष्य अपयी और आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवाम उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा और अनुत्कृष्ट स्थितिदीरका अन्तरकाल नहीं है । देवों मोहनी की उत्कृष्ट स्थितिरका जचन्य अन्तर अन्नमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका अन्तरकाल प्रोघके समान है । इसोप्रकार भवनवासियोंसे लेकर सहस्रारकल्प तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनीअपनी स्थिति कहनी चाहिए। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक अन्तरकाल घटित कर जान लेना चाहिए । विशेषार्थ — तिर्यञ्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि ash देवोंमें उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा अपने-अपने स्वामित्वके अनुसार मात्र भवके प्रथम समय में प्राप्त होती है, इसलिए इनमें मोहनी की उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाके अन्तरकालका निषेध किया है। शेष कथन सुगम 霞 I १४४६. जघन्य प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है- श्रघ और आदेश | ओघसे मोहनीयकी जघन्य स्थिविउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर उपाध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ - उपशामकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर उपा पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। यही कारण है कि यहां मोहनीयकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर उपार्थ पुद्गल परिवर्तनप्रभारण कहा है। तथा जो उपशामक जघन्य स्थितिउदीरणा करके दूसरे समय में मरकर देव हो जाता है उसके मोहनी की जघन्य स्थितिउदरीयाका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त होता है और उपशामकके मोeatest अजघन्य स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए यहाँ मोहनीयकी अजघन्य स्थितिउदीरणाका जधन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्त हा है ३ ४४० आदेश से नारकियोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिउदीरणाका अन्तरकाल नहीं 1 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयबलासहिते कसायपाहुडे जहण्णुक० कृता किर्शक :एसचीमा तिरियम अपज० देवा भवण०वणवंतगति । विदियादि डिचि मोह० जह० जह० डिदि ० उदीर० णत्थि अंतरं । एवं जोदिसियादि जाव सव्वड्डा नि । सतमाए मोह० जह० द्विदिउदी ० व्यस्थि अंतरं । जह० जह० एयसमओ, उक्क० अंतोमु० । तिरिक्खेसु मोह० जह०डिदिउदीर० जह० अंतोमु०, उक्क० प्रसंखेआं लोगर । अज० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० | मणुसतिए मोह० जह० डिदि ० उदी० जह० अंतोमुहतं, उक० पुन्यकोडिपुध० | अज० जह० एस० उ० अंतोमु० । एवं जाव० । २०० [ वेदगो ७ " Q ६ ४४१. णाणाजीवभंगविचयाणुगमं दुबिहं- जह० उक० | उकस्से पपदं । दुविदो णि०. - श्रयेण आदेसे । योघेण उदीर गेसु पय० । श्रणुदीरगेसु अन्हारो । एदेण देण उकस्सियाए द्विदीए सब्वे अणुदीरगा, सिया अणुदीरगा च उदीरगो च, सिया अणुदीरगा च उदीरगा च । अणुकस्स द्विदीए सिया सच्चे उदीरगा, सिया उदीरगा च अणुदीरगो च, सिया उदीरगा च अणुदीरंगा च एवं चदसु गदीसु । | अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है । इसीप्रकार प्रथम पृथिवी, सच पञ्चं न्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त सामान्य देव, भवनवासी और व्यन्तर देवों में जानना चाहिए। दूसरी पृथिवी से लेकर छटी पृथिवी टकके नारकियोंमें मोहनीयकी अघन्य और अजन्य स्थितिउदीरणाका अन्तरकाल नहीं है। इसीप्रकार ज्योतिषियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवामें जानना चाहिए। सातवीं पृथिवी में मोहनीयकी जघन्य स्थितिउदीरणाका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । तिर्यों में मोहनीयकी जघन्य स्थितिउदीरणाका अन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त हैं और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक नमारण है । श्रजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कट अन्तर अन्तमुहूर्त है। मनुष्यत्रिक में मोहनीयको जघन्य स्थितिउदीरणाका जयन्य अन्तर अन्नमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है । अजघन्य स्थितिउदीरणाका अन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर तमुहूर्त है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ – यहां प्रतिपादित सभी मार्गणाओं में स्वामित्वको जानकर अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिए । सुगम होनेसे विशेष स्पष्टीकरण नहीं किया । १४४१. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगम दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण हैं। निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । श्रघसे उदीरकों का प्रकरण है, अनुदीरक व्यवहार योग्य नहीं हैं। इस अर्थपदके अनुसार उत्कृष्ट स्थिति कदाचित् सब अनुदीरक हैं, कदाचित् नाना जीव अनुदीरक हैं और एक जीव उदीरक है, कदाचित् नाना जीव अनुदीरक हैं और नाना जीव उदीरक हैं। अनुत्कृष्ट स्थिति के काचित् सब जीव उदीरक हैं, कदाचित् नाना जीव उदीरक हैं और एक जीव अनुदारक है, कदाचित् नाना जीव उदीरक हैं और नाना जीव अनुदारक हैं। इसीप्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' गा० ६२ ] उत्तरपयष्टिउदीरणाए ठाणा से सागियोगारपरूवणा वरि मणुस पत्र मोह० उक० श्रणुक० डि दिउदीर० अट्ठ गंगा । एवं जाव Q ६ ४४२. जह० पदं । दुविहो णि० ओघेण घासे० । प्रोषेण तं नेत्र अप काढूण मोह० जह० जह० विदिउदीरगाणं तिरिण भंगा। एवं चदुसु गदीसु । वरि तिरिक्खेसु जह० जह० डिदिउदीरगा खिय० ग्रन्थि । मणुस अपज्ज० जह०श्रजह० श्रभंगा । एवं जाव० | n , -1 ३४४३. भागाभागा दुविहं - जह० उक० | उकस्से पयदं । दुविहो णि०श्रोषेण आदेसेण य । श्रोषेण मोह० उक्क० द्विदिउदी० सव्वजी० के० ? श्रांतभागो । अणुक्क० अता भागा। एवं तिरिक्खेसु । आदेसेण शोरइ० मोह० उक्क०विदिउदी० असंखे० भागो । अणुक० असंखेजा भागा । एवं सच्चणे रइय० - सव्वपंचिदियतिरिक्ख मणुस मणुस अपज० देवा जाव अवराइदा ति । मणुसपअ ०मसिणी- सव्वदेवे उकस्सट्टिदिउदी० संखे० भागो । अणुक्क० संखेजा भागा | एवं जाब० । 0 ४४४. जह० पदं । दुविहो णि ध्यानचमोत्रेण आदेश सिरमोद महाराज जह० डिदिउदीर० सबजी० के० भागो १ असंतभागी । श्रजह० अयंता भागा । किरकि कि मनुष्य अपर्याप्तकामे मोहनीयकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके उदरकोंके आठ भंग हैं । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए | २०१ ६ ४४२. जनन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । श्रोसे पदको करके मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थिति के उदीरकों के तीन भंग जानने चाहिए | इसीप्रकार चारों गतियों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि तिर्यखों में जघन्य और अन्य स्थितिके उदारक जीव नियमसे हैं। मनुष्य अपर्याप्तकों में मोहनीयकी जयन्य और अजघन्य स्थिति के उदारकों के आठ भंग हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए | - ३४४३. भागाभागानुगम दो प्रकारका है- -- जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है— श्रोव और आदेश । श्रघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति के उदीरक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं । अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीव अनन्त बहुभागप्रमाण हैं । इसीप्रकार विर्यश्चांमें जानना चाहिए। आदेश से नारकियोंमें मोहनीकी उदष्ट स्थितिके उदीरक जीव सब जोषोंके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं तथा अनुत्कृष्ट स्थिति के उदीरक जीव सच जीवोंके असंख्यात बहुभागप्रमाण है । इसीप्रकार सब नारकी, सब पचेन्द्रिय तिर्यञ्च सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त सामान्य देव और अपराजित कल्प तक देवों में जानना चाहिए। मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें उत्कृष्ट स्थिति के उदीरक जीव सब जीवों के संख्यातवें भागप्रमाण है और अनुत्कृष्ट स्थिति के उदीरक जीव सब जीवोंके संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए | १४४४. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है— मोघ और आदेश । श्रोपसे aisatest जन्य स्थितिके उदीरक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्तर्वे २६ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ ७ 0 आदेसेण खेर० मोह० जह० डिदिउदी० श्रसंखे ० भागो । अजह० असंखेजा भागा । एवं सव्वरइय० सम्वतिरिक्ख- मणुस - मणुस अपज० देवा जाव अवराजिदा ति | मधुसवा० मणुसिणी० सम्बठ्ठदेवा जह० डिदिउदीर० संखे० भागो । अज० संखेखा भागा | एवं जाय० । २०२ --- ० ४४५. परिमाणं दुविहूं- -जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो शि०श्रोषेण आदेसेण य | ओघेण मोड़ उक्क हिदिउदी० केसिया १ संखे । अणुक्क० हिदिउदी० केत्ति ० १ अनंता० । एवं तिरिक्खा० । भदेसे. खेरहय० मोह० उनक० अणुक्क० डिदिउदी० केलि ? असंखेजा । एवं सव्वग्ड्य० सव्यपंचिंदियतिरिक्ख मणुस अप० देवा भबणादि जाव सहस्सार सि । मणुसेसु मोह० उक्क० हिदिउदी० केत्ति ० १ संखेजा । अणुक्क० द्विदि० उदीर० केति० ? असंखे । एवमादादि जाव मादा सा प्रमिजी सचदेव उक्क० महाराज मरएस ० अणुक्क० डि दिउ दीर० ति० ? संखेजा । एवं जाय० । ६४४६. जह० पय० । दुत्रि० णिद्देमो- ओघेण आदे० । श्रघे० मोह० जह० दिउदी० केत्ति० ? संखेखा । अजह० -डिदिउदी० केति० । अनंता । श्रदे० भागप्रमाण हैं, अजघन्य स्थितिके उदीरक जीव सब जीवोंके अनन्त बहुभागप्रमाण हैं । आदेश से नारकियोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिके उदीरक जीव सब जीवोंके असंख्ातवें भागप्रमाण हैं, अजघन्य स्थितिके उदीरक जीव सब जीवोंके असंख्यास बहुभागप्रमाण हैं | इसीप्रकार सच नारकी, सब तियकय, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त और सामान्य देशस लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए। मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिती और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें जघन्य स्थितिके उदीरक जीव सब जीवोंके संख्यातवें भागप्रमाण है तथा अजघन्य स्थितिके उदीरक जीव सब लीधोंके संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। इसीप्रकार अन्नाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । ४४५. परिमाण दो प्रकारका है— जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका हैं - श्रोध और आदेश । श्रोत्रले मोहनी की उत्कृष्ट स्थिति उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। अनुत्कृष्ट स्थितिके अदरक जीव कितने हैं ! अनन्त हैं। इसीप्रकार सामान्य तिर्योंमें जानना चाहिए। आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीव कितने हैं ? श्रसंख्यात हैं ! इसीप्रकार सत्र नारकी, सव पश्चेन्द्रिय तिर्यक्रय, मनुष्य अपर्याप्त सामान्य देव और भवनवाaियों से लेकर सहस्रार कल्प तक के देवों में जानना चाहिए। मनुष्यों में उत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात है । इसीप्रकार श्रात कल्पसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए। मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यती और सर्वार्थसिद्धिके वेबमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके उरीरक जीव कितने हैं? संख्यात हैं। इसीप्रकार श्रनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । ६ ४४६. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका ६ प्रोच और आदेश । श्रयसे मोहनी की अन्य स्थितिके प्रदीरक औष कितने हैं ? संख्यात हैं । अजघन्य स्थितिके उदीरक Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प 2 गा० ६२ ] उत्तरपथखिन्दीरणाए ठाणं से सागियांगदार परूवणा २०३ ० र० मोह० जह० - अजह० द्विदिउदीर० केशि० ! असंखेजा । एवं पढमाए सत्तमाए सव्वर्षचि०तिरिक्त्र- मरणुसअप ० -देवा भवण० त्राण ० । विदियादि वह्नि ति मोहगदर्शक. द्विद्विरदी के सिंह केति०] असंखेजा । एवं मणुसजोदिसियादि जाव वराजिदा ति । तिरिक्खेसु मोह ० जह० जह० केति ० ? अनंता । मास पञ० - मधुमिणी० सव्वदेवा मोह० जह० अह० डिदिउदी० केनि० १ संखेजा । एवं जाव० । ४४७. नाणु० दुविहो - जह० एक० | उक० पदं । दुबिहा मि० -- ओघेण आदेसे० । श्रघेण मोह० उक्क० डिदिउदीर० केडि खेत्ते १ लोगस्स असंखे० भागे । अणुक० केव० खेत्ते ? सुन्लोगे । एवं तिरिक्खा | आदेसेण सगदीस मोह उ०- अणुक० हिदीउदी० लोग० असंखे० भागे । एवं जाव० । · ० ० ४४८. जह० पथदं । दुधिहो णि० - भोषेण आदेसेण य । ओषेण मोह जह० ड्डि दिउदीर • लोग असंखे० भागे । श्रज० सव्वलोगे । तिरिक्खसु मोह० जह०डिदिउदी० लोग० संखे० भागे । श्रज० सव्वलोगे । सेसमदीसु जह० - अजह० लोग० 0 जीव कितने हैं ! अनन्त हैं। आदेशसे नागकियों में मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थिति के उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इस प्रकार प्रथम पृथिवी और सातवीं पृथिवीक नारकी तथा सब पश्चेन्द्रिय तिर्यच्च मनुष्य अपर्याप्त सामान्य देव, भवनवासी और व्यन्तर देवों में जानना चाहिए। दूसरी पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियों में मोहनीयकी | जघन्य स्थितिके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात है। अजघन्य स्थितिके बदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । इसीप्रकार सामान्य मनुष्य तथा ज्योतिषियोंसे लेकर अपराजित विमान तक देवों में जानना चाहिए। तिर्यच्चोंमें मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके उदीरक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और सर्वसिद्धिकं देवोंमें मोहनीयक जघन्य और भजघन्य स्थितिके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । ९ ४४७. क्षेत्रानुगम दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट उत्कृष्टका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- श्रोध और आदेश | ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीवों का कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है । अनुत्कृष्ट स्थिति उere itaोंका कितना क्षेत्र है ? सर्व लोक क्षेत्र है । इसीप्रकार सामान्य खियंखों में जानना चाहिए। श्रादेशसे शेष गतियोंमें मोहनी की उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति के उदीरकोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागग्रमाण क्षेत्र है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गमा तक जानना चाहिए। १४४८. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश वां प्रकारका हूँ-भोध और आदेश । ओक्स मोहनीयकी जघन्य स्थितिके उदीरकों का कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है और अजघन्य स्थितिके उद्दारकों का सर्वलोक क्षेत्र है। तिर्यश्वामें मोहनीयकी जन्य स्थितिके उदीरकोंका लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है और अजघन्य स्थितिके उदीरकों का सर्व लोक क्षेत्र है। शेष गतियों में मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके पदरोंका Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ सविाहासागर जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो . असंखे भागे । एवं जावः । ४४९. पोसणं दुविहं-जहः उक० । उकस्से पयदं। दुविहो णि-- भोघेण प्रादेसे । ओघेण मोह. उक्क० द्विदिउदी० लोग० असंखे० भागो अट्ठ-तेरहचोदस० | अणुक्क० सबलोगो । ४५०. आदेसेण णेरइय० मोह० उक्क ०-अणुक द्विदिउदी लोग० असंखे०. भागो छचोइस० । एवं विदियादि सत्तमा ति । वरि सगपोसणं । पढमाए खेत्तं । । तिरिक्वेसु मोह० उक्क द्विदिउदीर० लोग असंखे०भागो छचोद्दस० । अणुक. सबलोगो। पंचिंदियतिरिक्खतिए मोह. उकाटिदिउदी० लोम० असंखे० मागो छचोदस० देनणा । अणुक० द्विदिउदीर० लोग असंख०भागो सबलोगो वा । लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ-तिर्यश्लोंमें मोहनीयको जघन्य स्थितिके उग्रीरफ वे हतसमुत्पत्तिक बादर एकेन्द्रिय जीव होते हैं जो सत्कर्भसे कम या सम स्थितिको बाँधकर एक श्रावलि के बाद उसकी उदीरणा करते हैं। यही कारण है कि यहाँका क्षेत्र लोकके मुख्यात भागप्रमाण कहा है। मार्गदर्शवक्षेत्र सम्बन्धी सब कथन सुगम है। ४४९. स्पर्शन दो प्रकारका है--जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है -श्रोध और आदेश। ओघसे मोदनायकी उत्कृष्ट स्थिति के उदीरकाने लोकक असंख्यात भागप्रमाण क्षेत्रका तथा समालीके चौदह भागों में से कुछ कम अाठ ओर तेरह । भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंने मर्व लोकप्रमाग क्षेत्रका स्दर्शन किया है। विशेषार्थ-यहाँ त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागनमाय स्पर्शन विहारवत्स्वस्थानकी अपेक्षा और कुछ कम तेरह भागप्रमाण स्पर्शन मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा कहा है। शेष कथन सुगम है। ४५०, आदेशसे नारकियों में मोहनायकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके उद्धारकाने लोकके असंख्यातवें भाग तथा सनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसीप्रकार दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियों में जानना चाहिए । इसनी विशेषता है कि अपना अपना स्पशन कहना चाहिए। प्रधम पृथिवी में क्षेत्रके समान स्पर्शन है। तिर्यकचामें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिक वीरकोंने लोकक असंख्यात भाग और असमालीके चौदह भागामें से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकाने सर्व लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रि में माहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और समालीके चौदह भागामे से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है तथा अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंने लोककेर असंख्याचवें भाग और सर्व लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । विशेगार्थ-- यहाँ सामान्य निर्यञ्चों और पन्नेन्द्रिय तियं च त्रिकमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके पदीरकोंका बसनालीके चौदह भागों से कुछ कम छह भागप्रमाण स्पर्शन मारणान्तिक Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिउदोरणाए ठाणाणं सेसाणियोगदारपरूषणा २०५ ४५१. पचितिरि० अपज०-सब्वमणुस० मोह. उक्कविदिउदी० लोग। असंखे०भागो । अणुक्क० लोग० असंखे०भागो सबलोगो वा । .४५२. देवेसु मोह. उक्क०-अणुक० द्विदिउदीर० लोग० असंख०भागो अट्ठणवचोदस देसूणा । एवं सोहम्मीसाणे । मवण०-वाण-जोदिसि० मोह० उक्क.. अणुक ट्ठिदि उदीर० लोग. असंखे० भागो अन्धुढा बा अद-णवचोइस० । सणकुमारादि सहस्सार ति मोह० उक० अणुक विदि० उदीर० लोग० असंखे भागो अदुचो६० दे। आणदादि अच्चुदा ति मोह० उक० द्विदिउदी० लोग० असंखे०भागो । अणुक्क० लोग० असंखे भागो छचोदस० । उपरि खेत्तं । एवं जाव० । ४५३. जह० पयदं । दुविहो णि-पोषेण आदसे० । ओघेण मोह. . . समुद्घातकी मुख्यतासे बतलाया है, क्योंकि ऐसे जीवोंका नीचे सातवी पृथिवीप्तकके नारकियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करना बन जाता है । शेष कथन सुगम है । ६४५१, पंचेन्द्रिय तिर्यच अपयशक्रिोरं मनापीप्तकमिमामायकी उष्ट्रास्थतिके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है तथा अनुत्कृष्ट स्थिसिके उदीरकोंने लोकके असंख्यात भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ_जो मनुष्य, मनुयिनी या 'चेन्द्रिय तिथंच उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कर और उसका घास किये बिना अन्तर्मुहर्तमें वक्त दोनों प्रकारके जीवों में मरकर उत्पन्न होते है उन्हीं के - माहनीयको उत्कृष्ठ स्थितिकी उदीरणा होती है। यतः ऐसे जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है अतः इ. में यह स्पर्शन उक्तप्रमाण कहा है । शेष कथन सुगम है। ६४४२. देवीमें मोहनीयकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और बसनालोके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम पाठ तथा कुछ कम नौ भागप्रमाण मंत्रका स्पर्शन किया है। इसीप्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पमें जानना चाहिए | भवनवासी, व्यस्तर और ज्योतिषी देवों में मोहनीयको उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके सदीरकोंने लोकके असंख्यात भाग तथा असनालीके चौदह भागामसे कुछ कम साढ़े तीन भाग तथा कुछ कम आठ और नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सनत्कुमारसे सहस्रार कल्प तकके देवोंमें मोहनीयको उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति के उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा बसनालीके चौदह भागों से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पानतसे लेकर अच्युत कल्पतकके देवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति के उदीरकाने लोकके श्वसंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है तथा अनुत्कृष्ट स्थिति के उतीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और खनालीके चौदह भागामसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। प्रागेके देवा में स्पर्शन इंत्रके समान है। इसप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ..यहाँ अपनी-अपनी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति की उदीरणाके स्वामित्व का विचार कर स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए । सामान्य और अवान्तर देवांका जो स्पर्शन बतलाया है उससे यहाँ कोई विशेषता नहीं है। इसलिए इसका स्पष्टीकरण नहीं किया । ॐ ४५३. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-प्रोच और भादेश । भोधसे Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जयधवलासहिदे कसायपाहुले [वेदगो ७ जह द्विदिउदीर० लोग. असंखे० भागो | अज० सबलोगो । आदेसे० पेरहम० मोह. जह० ट्ठिदिउदी. लोग. असंखे० भागो। अज लोग. असंखे०भागो छचोदम० देमणा । एवं विदियादि मत्तमा त्ति । णवरि सगपोसणं । पढमाए खेतं । :४५४. तिरिक्खेसु मोह. जह द्विदिउदी. लो० संखे०भागो। अज. सबलोगो । सन्त्रपंचिंदियतिरिक्ख-मनमणुस्सेसु मोह. जहः लोग० असंखे भागो । अज० लोग० असंखे भागो सबलोगो वा । देवा जाच सहस्सार ति जह द्विदिउदीर लोगअसिखंभोगी जहविनिगपासण हारणदादि अच्चुदा ति जह० लोग० असले०भागो: अजह लोग. असंखे० भागो छचोहम० देसूणा । उारि वेत्तं । एवं जाव० । ४५५. कालाणु० दुत्रिह-जह० उक्क० । उकस्से पयदं । दुविहो णि० - ओघेण आदेसे० । ओषेण मोह. उक०डिदिउदी० जह० एयसमओ, उक्क० पलिदो० मोहनीयको जघन्य स्थिनिके उदीपकॉन लोकक असंख्यासर्व भागप्रमाण क्षेत्रका स्पशन किया है तथा अजघन्य स्थिति के उदारमाने सर्व लोकका स्पर्शन किया है। आईशस नारकियों में मोहनीयकी जघन्य स्थितिके उदीर कोने नोकके असंख्यासवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है तथा अजघन्य स्थितिके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और प्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसीप्रकार दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक नारकियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपना-अपना पर्शन कहना चाहिए। पहली पृथिवीमें क्षेत्रके समान स्पर्शन है। ४५४. तिर्यचोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थिनिक उदारकाने लाक के असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है नथा अजघन्य स्थिति के उदारकोंने सर्व लोकका स्पर्शन किया है। सत्र पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और सब मनुष्यों में मोहनीयकी जघन्य स्थितिके उदीरकोंने लोकके असंख्यातर्फे भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है तथा अजघन्य स्थितिके उदीरकोंने लोकके असंख्यानवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सामान्य देव और सहस्रार कल्पतकके देशों में मोहनीयकी जघन्य स्थिनिक उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है तथा अजघन्य स्थितिके उदीरकोंका अपना-अपना स्पर्शन है। पानस लेकर अच्युत कल्प तकके देवोंमें भोहन यकी जघन्य स्थिति के उदारकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है तथा प्रजघन्य स्थितिके उदोरकोंन लोकके असंख्यातवें भाग तथा बसनालोके चौदह भागामसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पशन किया है। ऊपर के देवोंमें स्पर्शन क्षेत्र के समान है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ-स्वामित्र और अपने-अपने स्पर्शनका विचार कर यह स्पर्शन घटिन कर लेना चाहिए। ४५५. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्ट का प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है--ओघ और मादेश । भोघसे मोहनीयको उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है. और उपकृष्ट काल पल्यके मसंख्यात भरगप्रमाण है। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ गा० ६२] उत्तरपडिऔरणाए ठाणाणं सेसागियोगदारपरूवरणा असंखे०भागो। अणुक० मध्यद्धा । एवं सव्वणेग्य-तिरिक्खपंचिंदियतिरिक्खतियदेवा भवरणादि जाव महस्सार त्ति । ४५६. पंचितिरि०अपञ्ज० मोह. उपक द्विदिउदीर० जह० एयस०, उक्क० आचलि० असंखे भागो । अणुक्क० सम्बद्धा । एनं मणुम अपन० । गरि अएक्क० जह खुहाभवग्महणं समयूर्ण, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । ६४५७. मणुमतिए मोह० उक्काटिदिउदी० जह० एयस०, उक्क० अंगोमु० । अणुक्स० मध्यद्धा । प्राणदादि सबट्ठा ति मोह • उकास्स-द्विदिउदो० ज.१० पयस०, उक्क० संखेमा समया | अक्क० सचद्धा । एवं जाय० । अनुत्कृष्ट स्थिति के उदीरकोका काल सर्वा है। इसीप्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तियचत्रिक, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर सहसार कल्प तकके देवोंमें सानना चाहिए। मार्गदर्शक:- आचार्य श्री सविधिसागर जी महाराज विशेषार्थ-मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति के उदीरकोंका एक जीव की अपेक्षा जघन्य काल एक ममय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बलला आये हैं। अब यदि नाना जीव मोहीयको उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा एक समय तक करें और द्वितीयादि समयमें न करें तो यह भी सम्भव है और सन्तानमें भंग पड़े बिना लगानार करते रहें तो यत् काल पल्यके असंख्यात भागप्रमाणसे अधिक नहीं हो सकता। इसी बातका विचार कर यहां मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदोरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्तप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। . ४५६. पचेन्द्रिय तियच अपर्याप्तकों में मोहनीयको उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पावलिके असंख्यातवे भागप्रमाग है। अनुत्कष्ट स्थितिके उदीरकों का काल सर्वदा है। इसीप्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोका जघन्य काल एक समय कम शुल्लक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। विशेषार्थ- उक्त जीवोंमें एक जीवकी अपेक्षा मोहनीयको उत्कृष्ट स्थिति के उदीरकों का जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय बवला पाये हैं। यही कारण है कि यहाँ नाना जीवोंकी अपेक्षा मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। ४५७. मनुष्यत्रि कमें मोहनीयको उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिके बदीरकोंका काल सर्वदा है। आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थ सिद्धि सकके देवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके आदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका काल सर्वदा है। इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ- यहाँ सामान्य मनुष्योंमें शेष दो प्रकारके मनुष्यों की मुख्यता है, इसलिए इनमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिकी खदीरणा यदि नाना जीव लगातार करते रहें तो भी उस कालका योग भन्तर्मुहूर्स ही होगा। यही कारण है कि यहाँ इनमें पस्कृष्ट स्थितिके एदारकोंका उत्कृष्ट Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ जयधवलासहिने कसायपाहुरे [वेदगो ७ १४५८. जह० पददकिदुविझणि श्री बोचणसाश्रादेस म्हाराोषेण मोह. जह द्विदि० जइ एयस०, उक्क० मंखेज्जा समया । अज० सम्बद्धा । एवं विदियादि छट्टि ति मणुसतिए जोदिसियादि सव्वट्ठा ति । ४५९. श्रादेसेण रोग्य मोह० जह० द्विदिउदीर० जह. एयस०, उक्क. आवलि. असंखे०मागो | अज० सनद्धा । एवं पढमाए सवपंचिंदियतिरिक्ख-देवा० भवण-वाण । सत्तमाए मोह, जह० डिदिउदी० जह० एयस०, उक्क० पलिदो. असंखे०भागो' । अज० सव्वद्धा | तिरिक्खेसु मोह० जह-अज० सव्वद्धा । मणुसअपन. मोह० जह० विदिउदी. जह• एयस०, उक्क० आपलि. असंखे० भागो । अज० जह० आपलिया समयूणा, उक्क० पलिदो० असखे०भागो । एवं जाव० । काल अन्तर्मुहर्त कहा है। अपने-अपने स्वामित्व के अनुसार आननादि कल्पोंमें भवके प्रथम समयमै ही मोहनीयको उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा बनती है। अब यदि ऐसी नदीरणा करनेवाले नाना जीव लगातार इन कल्पों और कल्पातीतों में उत्पन्न हों तो संख्यात समय तक ही यह का चल सकता है। यही कारण है कि इनमें मोहनीय की उत्कृष्ट स्थितके उदीरकोंका उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। शेष कथन सुगम है । ४५८. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका द्र-ओघ और आदेश । श्रोषसे मोहनीयकी जघन्य स्थितिके उदीर कोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अजघन्य स्थितिके उदीरकोंका काल सर्वदा है। इसीप्रकार दूसरोसे लेकर छठी ...| पृथिवीं तक के नारकी, मनुष्यत्रिक और ज्यानिपियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में जानना चाहिए। विशेषार्थ--स्व मित्वको ध्यानमें लेने पर स्पष्ट हो जाता है कि मोहनीयको जघन्य स्थितिको उदीरपणा नाना जीवोंकी अपेक्षा लगातार संख्यान समय तक ही हो सकती है। यही कारण है कि यहाँ मोहनीयको जघन्य स्थितिके उदीरकोंका उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। शेष कथन भुगम है। आगे भी सुगम होनेसे अलग-अलग खुलासा नहीं करेंगे। ५६, आदेशसे नारकियों में मोहनीयकी अधन्य स्थितिके उदीरकोका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलिके 'असंख्यातवें भागप्रमाए है। अजघन्य स्थितिके उदोरकोंका काल सर्वदा है। इसीप्रकार प्रथम पृथिवीके नारकी, सब पन्चेन्द्रिय तिर्यकच, सामान्य देव भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें जानना चाहिए। साती पृथिवीमें माहनीयकी जघन्य स्थिनिके उदोरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कर काज पल्यफे असंख्यात भागप्रमाण है। अजधन्य स्थितिके उदीरफोका काल सर्वदा है। निर्धश्चोंमें मोहनीयकी जघन्य और मजघन्य स्थिति के उदीरकोंका काल सर्वदा है। मनुष्य अपर्याप्तकों में मोहनीय की अयाय स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल भावलिके असंख्यात + भागप्रमाण है । अजघन्य स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय कम एक आवलिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यानवे भागप्रमाण है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। 1. प्राप्तौ श्रावलि असंखेषभागो इति पाठः । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपडिउदीरणाए ठाणा से सागियो गद्दार परूवणा २०६ - ४६०. अंतरं दुविहं जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो स्थि० - ओ० आदेसे० । श्रघेण मोह० उक० विदिउदी० अंतरं जह० एयसमत्रो, उक० अंगुलस्स असंखे० भागो । अणुक० रास्थि अंतरं । एवं चदुसु गदीसु । यरि मणुस अपज० मोहक दवा उसका पति सखे ० भागो । एवं जाव० । Q महाराज - ६ ४६१. जह० पदं । दुविहो णि० - ओषेण प्रादेसे० । श्रघेण मोह ० जह० हिदिउदी० अंतरं जह० एक्समओ, उक० छम्मासा । यज० णत्थि अंतरं । एवं मणुसतिए । णवरि मणुसिणी वासपुधन्तं । ४६२. आदेसेण रइय० मोह ० जह० द्विदिउदी० जह० एयस०, उक्क० अंगुलस्स असंखे० भागो । अज० पत्थि अंतरं । एवं सव्वरइय० - सच्चपंचिदियतिरिक्ख सव्वदेश ति । तिरिक्खेसु मोह० जह० अज० णत्थि अंतरं । मणुसअपज्ज० मोह० ६४६०. अन्तर दो प्रकारका है— जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है - श्रोध और आदेश । श्रघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकों का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । इसीप्रकार चारों गतियों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर प्रत्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ - मोहनी की उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा कोई भी जीव न करे तो अंगुलके श्रसंख्यातवें भाग काल तक वह नहीं होती, इसके बाद उसके उदीरक एक या नाना जीव श्रवश्य होते हैं। यही कारण है कि यहाँ माना जीवोंकी अपेक्षा उसका उत्कृष्ट अन्तर काल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है। शेष कथन सुगम हैं । 1 $ ४६१. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-- श्रघ और आदेश | ओघले मोहनीयकी जघन्य स्थिति के उदीरकों का जघन्य श्रन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छड़ मह है । अजघन्य स्थितिके उदीरकका अन्तरकाल नहीं है। इसीप्रकार मनुष्यत्रिक में जानना चाहिए | किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्यनियोंमें जघन्य स्थितिके उदीरकों का उत्कृष्ट अन्तर पृथक्त्व प्रमाण हैं | विशेषार्थ – मनुष्यनियों का उपशम और क्षपक श्रेणिपर श्रारोहणका उत्कृष्ट अर वर्षपृथक्त्व प्रमाण है इसलिए इनमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिके उदरकोंका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है । ६४६२. आदेश से नारकियों में मोहनीयकी जघन्य स्थितिके उदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य स्थितिके aureater अन्तरकाल नहीं हैं। इसीप्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और सब देवोंमें जानना चाहिए । तिर्यों में मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थिति के उरकों का अन्तरकाल नहीं है । मनुष्य अपर्याप्तकों में मोहनीयकी जघन्य स्थितिके प्रदीरकोंका जघन्य २७ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [षेदगो ७ जह विदिउदी० जह० एयसमो, उक० अंगुलस्स असंखे भागो। अज० जह० एयस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । एवं जाव० । १४६३. भावो उक्क०-अणुक्क० जह• अजह० सम्वत्थ प्रोदइओ भावो । ६४६४. अप्पाहुक्दुविहाचाहनउकालिदायकस्सपियदराजदुविहो णिओघेण आदेसे० । अोघेण सव्वत्थोवा मोह. उक्क द्विदिउदी० । अणक द्विदिउदी अणंतगुणा । एवं तिरिक्खा० । आदे० णेर० मोह० सम्वत्थोवा उक्क द्विदिउदी०, अणुक द्विदिउदी० असंखेनगुणा । एवं सब्बणेरड्य-सव्यपंचिंदियनिरिक्ख-मणुसमणुसअपज०-देवा अवराजिदा सि । मणुसपज०-मण सिणी०-सुबहदेवा मध्यस्थो० मोह० उ०डिदिउदी०, अणुक्क डिदिउदी० संखे गुणा । एवं जाव० । ६४६५. जह० पयदं । दुविहो णि-पोषेण आदेसे० । ओघेण सव्यस्थो. मोहक जहहिदिउदी०, अज० द्विदिउदी० असंतगुणा । आदेसे० रइय० सम्वत्थो० मोह. जह द्विदिउदी०, अज विदिउदीर० असंखे गुणा । एवं सुव्यणेरइय०-सत्रअन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवे भागप्रमाण है। मजधन्य स्थितिके उदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यात भागप्रमाण है। विशेषार्थ—मनुध्य अपर्याप्त यह सान्सर मार्गणा है। आगममें इसका जघन्य अन्तर ... एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है। उसे ध्यानमें रखकर यहाँ मोहनीयकी अजघन्य स्थितिके उदीरकोंका जयन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। ६४६३. भाव-मोहनीयकी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य स्थितिके उदीरकोंका सर्वत्र औदयिक भाव है। ४६४. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है---जधन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है- प्रोष और आदेश । श्रोबसे मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरफ जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीव अनन्तगुणे हैं। इसीप्रकार नियंचोंमें जानना चाहिए । श्रादेशसे नारकियों में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार सब नारकी, सब पन्चेन्द्रिय तिर्यच, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त और सामान्य देवोंसे लेकर अपराजितविमान तकके देवों में जानना चाहिए। मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें मोहनीयको उत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानमा चाहिए । __४६५. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और श्रादेश । श्रोषसे मोहनीयकी जघन्य स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अजघन्य स्थिति के उदीरक जीय अनन्तगुणे हैं। श्रादेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अजघन्य स्थितिके पदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार सब नारकी, Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उसरपयडिउदीरणाए ठाणार्ण भुजगारपरूवणा २११ तिरिक्ख-मणुस-मणुमअपञ्ज-देवा जाव अबराइदा ति । मणुसपज मणुसिणी०सव्वट्ठदेवा० सव्वत्थोवा मोह० जह० विदिउदी०, अज० द्विदिउदीर० संखे० गुणा । एवं जाय। ४६६. भुजगारद्विदिउदीरणाए तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि-समुकित्तणा जाव अप्पाबहुए नि । समुकित्तणाणु० दुविहो णि-ओघेण आदेसे० । ओघेग मोह० अधिार्मुलाप्रपाम्भवद्धि-शुक्नदिव्सदहमा एवं मणुमतिए । आदेसेण णेरइय० मोह. अस्थि भुज० अप्प० अवटि विदिउदी० । एवं सन्चणेरड्य०० सध्यतिरिक्ख-मणुमअपज०-देवा जाव सहस्सार त्ति । श्राणदादि सबवा ति मोह० अस्थि अप्पदर उदीर० । एवं जाव० | :४६७. सामित्ताणु० दुविहो णिसो-ओघेण प्रादेसे० । श्रोघेण भुज. अववि० कस्स ? अण्णद० मिच्छाइट्वि । गरि सेढिविवक्खाए भुज० सम्माइविस्स वि लब्भइ । एदमेस्थ ण विवक्खियं । अप्प० कस्म ? अण्णद० सम्माइट्ठि० मिच्छाइदि० । अवत० कस्स ? अण्णद. जो उक्सामगो परिवदमाणगो मणुसो देवो वा पढमसमयउदीरगो। एवं मणुसतिए । णवरि देवो ति ण भाणिदब्बो । एवं सब्ध सब तिर्यञ्च, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त और सामान्य देवासे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए। मनुष्य पर्याप्त, मनुयिनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अजघन्य स्थिति के उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । ४६६. मुजगार स्थिति उदीरणामें वहाँ ये तेरह अनुयोगद्वार हैं—समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पभहत्व तक । समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश ो प्रकारका है—ओघ और भादेश । मोघसे मोहनीयफ्री भुजगार, अल्पनर, अवस्थित और प्रवक्तव्य स्थिति के उदीरक जीव हैं। इसीप्रकार मनुध्यत्रिकमें जानना चाहिए । आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थिति के उदीरक जीव हैं। इसीप्रकार सब नारकी, सब तिर्यन, मनुष्य अपर्याप्त और सामान्य देवोंसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें जानना चाहिए । श्रानत कल्पसे लेकर सर्वार्थपिद्धि तकके देवोंमें मोहनीयकी अल्पतर स्थितिक उदीरक जीव हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गरणा तक जानना चाहिए । ४६७, स्वामित्वको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है--ओघ और आदेश । 'प्रोसे भुजगार और अवस्थित स्थितिकी उदीरणा किसके होती है ? अन्यतर मिथ्याष्टिक होती है। इतनी विशेषता है कि श्रेणिकी विवक्षामें भुजगार स्थितिको उदीरणा सम्यग्दृष्टिके भी प्राप्त होती है। किन्तु इसकी यहाँ विवक्षा नहीं है। अल्पतर स्थितिकी उदारणा किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि और मिथ्याष्टिके होती है । अवक्तव्य स्थितिकी उदीरणा किसके होती है ? जो गिरनेवाला अन्यतर उपशामक मनुष्य या ( मरण होनेपर) देव प्रथम समयमें मोहनीयकी स्थितिका उदीरक है. उसके मोहनीयकी अवक्तव्य स्थितिकी उदारणा होती है। इसीप्रकार मनुप्यत्रिकी कहना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें देव पदका पालाप Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ मार्गदर्शक अयधा श्री सविधिसागर जी महाराज कसाय पाहुडे ७ [ वेदगो णेरइय-तिरिक्ख-पंचिदियतिरिक्खतिय० देश जान सहस्सार ति । णवरि भवत० णस्थि । पंचि०तिरि० श्रपञ्ज० - मणुस अपज० सञ्चपदाणि कस्स १ अण्णद० | श्राणदादि सट्टा ति मोह० अप्प कस्स १ ऋणणदरस्स । एवं जाव० । 0 91 १४६८. कालाजु दुविहो शि० - श्रघेण आदेसे० । श्रोषेण मोह० ज० जह० एयस०, उक० चत्तारि समया । अप्प० जह० एयस०, उक्क• सदं तिष्णि पलिदो ० सादि० । अवडि० जह० एयस०, उक्क० अंतो० । अवत० द्विसागरोत्रम - जह० उक० एयसमझो । ९ ४६९. देसेण णेरइय० मोह० भुज० जह० एस० उक्त० तिष्णि समया । अप० जह० एयस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देखणाणि । अवडि० ओवं । एवं पढमाए । गवारे सागरोवमं देखणं । MAAN नहीं करना चाहिए। इसीप्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय तिर्यवत्रिक और सामान्य देवोंसे लेकर सहस्रार तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें कव्य पद नहीं है । पवेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य पर्यातकों में सब पद किसके होते हैं ? अन्यतरके होते हैं। आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें मोहनीयकी अल्पतरस्थितिकी उदीरणा किसके होती है ? अन्यतरके होती है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । ६४६८. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ध और आदेश । श्रघसे मोहनी की भुजगारस्थितिके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है । अल्पतर स्थितिके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त और तीन पल्य अधिक एक सौ त्रेसठ सागर है। अवस्थित स्थितिके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट कल अन्तर्मुहूर्त हैं। श्रवक्तत्र्यस्थितिके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । विशेषार्थ ---स्थितिविभक्ति पु० भाग ३ ० ६८ में भुजगार आदि तीन पदोंका स्थितिसत्त्वकी अपेक्षा जैसा खुलासा किया है उसी प्रकार यहाँ उदीरणाकी अपेक्षा खुलासा कर लेना चाहिए। इतना विशेष है कि यह काल उदीरणाकी अपेक्षा जैसे घटित हो वैसे लाउके साथ कहना चाहिए। अवक्तव्य स्थितिउदीरणा उपशमश्रेणिसे गिरते समय सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानके प्रथम समय में या मरण कर देव होनेके प्रथम समय में ही होती है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। ४६. आदेश से नारकियोंमें मोहनीयकी भुजगारस्थितिके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन समय है । अल्पतरस्थितिके उदीरकका जघन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल कुछ तीस सागर है । अवस्थितस्थितिके उदीरका काल के समान | इसीप्रकार प्रथम पृथिवीमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यहाँ अल्पतरस्थितिके उदीरकका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक सागर हैं । विशेषार्थ -- नरक में असंबी जीवोकी मरकर उत्पत्ति सम्भव है, इस अपेक्षा से यहाँ * पर भुजगार स्थिनिकी उदीरणा के तीन समय ही बन सकते हैं। यही कारण हैं कि नारकियों में Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --------------------moran.-. गा० ६२] उत्तरपयडिउतीरणाए ठाणाणं भुजगारपत्रणा २१३ ४७०. विदियादि सत्तमा ति भुज० जह० एयस०, उक्क० बे समया । अप्प० जह० एयस०, उक्कम संगट्टिदी देवाणा श्रीवहिदिमायागर जी महाराज ४७१. तिरिक्वेसु भुज-अवट्टि. ओयं । अप्प. जह० एयस०, उक्क० तिष्णि पलिदो० सादिरेयाणि । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिए । पंचिंतिरिक्खअपज ०. मणुसअपज मुज० जह० एयम०, उक्क. चत्तारि समया । अप०-अवढि० जइ० एयस०, उक० अंतोमु० । ६४७२. मणुसतिए भुज० जह• एयस०, उक० चत्तारि समया । अप्पः जह० एगस०, उक० तिण्णि पलिदो० पुचकोडितिभागेण सादिरेयाणि । णवरि मणुसिणी० अंतोमुहुत्तेण सादिरेगे । अबढि०-अवत्त० ओघं । । ४७३. देवेसु भुज० जह० एयस०, उक्क०, तिष्णि समया । अप्प. जह. एगस०, उक्क तेत्तीस सागरोवमं । अबढि० श्रोधं । एवं भरण-बाणवेत. । णवरि भुजगारस्थितिके उदार फका उत्कृष्ट काल तीन समय कहा है। यहाँ श्रद्धाक्षय, शरीर ग्रहण और संक्लेशक्षयसे भुजगारके तीन समय प्राप्त कर भुजगार स्थिति उदीरणाके तीन समय प्राप्त करने चाहिए । शेष कथन सुगम है। ४४. दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियों में भुजगारस्थितिके जदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अल्पतरस्थितिके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। अवस्थितस्थितिके उदीरकका काल ओघके समान है। विशेषार्थ- इन नरकोंमें असंज्ञी जीव मरकर नहीं उत्पन्न होते, इसलिए इनमें अद्भाक्षय और संक्लेशक्षयसे ही भुजगार स्थिति उदीरकके दो समय प्राप्त होते हैं। शेष कथन सुगम है। ६४५१. तिर्यचा में भुजगार और अवस्थितस्थितिके उदीरकका काल माघके समान है। अल्पतरस्थितिके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है। इसीप्रकार पञ्चेन्द्रिय तियंचत्रिक में जानना चाहिए । पंचेन्द्रिय तिय व अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें भुजगारस्थितिके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है । अल्पतर और अवस्थितस्थिति के उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त है। ४५२. मनुष्यत्रिकमें भुजगारस्थितिके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है। अल्पतरस्थितिके उदीरकका जघन्य काल एक समय और उकृष्ट काल पूर्वकोटिका त्रिभाग अधिक तीन पत्य है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यनीमें यह काल अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य है। अवस्थित और अवक्तव्यास्थतिके उदीरकका काल प्रोधक समान है। ४७३. देवोंमें मुजगारस्थितिके उदोरकका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है। अल्पतरस्थिति के उदीरफका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । अवस्थितस्थितिके उदीरकका काल श्रीफके समान है। इसीप्रकार भवनवासी और - Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ सगट्टिदी | जोदिसियादि सहस्सारे चि एवं चैव । वरि भुज० जह० एयस०, उक्क ० बेसमधा | आणदादि सव्बट्टा त्ति मोह० अप्प० जह० उक० एवं जाव० । जणुकसहिदी । ९ ४७४ अंतराणु० दुविहो णि० - ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० भुज०अवद्वि० जह० एयस०, उक० तेवट्टिसागरोवमसदं निष्णि पलिदोषमं सादिरेयं । अप्प ० जह० एयस", उक्क तोमु० । अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० उबड़पोग्गल परियई । ४७५. आदेसेण खेरइय० भुज० श्रवट्ठि० जह० एस० उक्क० तेत्तीसं सागरोवमं देणं । अप्प० श्रवं । एवं सव्वणेरइय० । णवरि सगट्टिदी देखणा । तिरिक्खेसु ज० - वडि० जह० एयस०, उक्क० पलिदो० श्रसंखे० भागो । अप० व्यन्तर देवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए | ज्योतिषियों से लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि इनमें भुजगारस्थितिके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । नत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक के देवो मोहूनीकी स्थिति ठीकर जघन्य और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । घिसें : विशेषार्थ -- कालका प्रारम्भ में ओघसे और कतिपयगति मार्गणा के भेदों की अपेक्षा ओ स्पष्टीकरण किया है उसे ध्यान में लेनेपर शेष गतिमार्गणा के भेोंमें स्पष्टीकरण करनेमें कठिनाई नहीं जाती, इसलिए अलग से स्पष्टीकरण नहीं किया है। 5 ४७४ अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- श्रय और आदेश । श्रघसे मोहनीयकी भुजगार और अवस्थितस्थितिके उदीरकका जघन्थ अन्तर एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य अधिक एक सौ त्रेसठ सागर है । अल्पतरस्थितिके उदीरकका जधन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्यस्थितिके उदीरकका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर उपार्ध पुलपरिवर्तनप्रमाण है । विशेषार्थ – पहले अपतर स्थिति के उदीरकका उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य अधिक एक सौ त्रेसठ सागर बतला आये हैं। वहीं यहाँ सुजागर और अवस्थितस्थितिके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त होता है, इसलिए यह तत्प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। ३४७५. आदेश से नारकियोंमें भुजगार और अवस्थितस्थितिके उदीरकका जवन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर है । अल्पतरस्थितिके उदीरकका अन्तरकाल ओघ के समान हैं । इसीप्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। तिर्यञ्चोंमें भुजगार और अवस्थित स्थिति उदीरकका जवन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्य असंख्यात भागप्रमाण है । अल्पतरस्थितिके उदीरकका अन्तरकाल ओघके समान महाराश HOMAST STREET Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपडिउदीरणाए ठाणाएं भुजगारपरूत्रा २१५ श्रधं । पचिदियतिरिक्ततिए भुज० अबडि० जह० एयसमओ, उक्क० पुच्त्रकोटिबुधसं । पंचिदिद्यतिरिक्ख पञ्ज ० - मणुराश्रपञ्ज० सुज० अप्प० अवडि० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । G १४७६. मणुमतिए भुज० - श्रवट्टि जह० एयस०, उक० पुन्वकोडी देखणा । श्रवत्त० जह० अंतोमु०, उक० पुत्रको डिपुधत्तं । अध्य० ओ० । ६४७७. देवेसु भुज० श्रवद्वि० जह० एस० उक्क० अङ्कारससागरोवमं सादिरेयं । अप० श्रघं । एवं भवणादि जात्र सहस्सार ति । वरि सगहिदी देणा । श्राणदादि सब्बट्टा ति अप्प० णत्थि अंतरं । एवं जाय० । ४७८ णाणाजीवभंगविचयाणु० दुविहो मि० श्रघेण आदेसे० | ओघेण मोह० भुज० अ० वडि० निय० अस्थि, सिया एदे व अवतगो च, सिया एदे है। पंचेन्द्रिय तिर्थचत्रिकर्मै भुजगार और अवस्थितस्थितिके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तोंमें भुजगार, अल्पत सापस्थत शिकार उरी महाराज अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ – सामान्य तिर्थ बोंमें एकेन्द्रिय जीव भी सम्मिलित है और उनमें अल्पतर स्थितिकी मीराका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है । उसे ख्याल में रखकर ही यहाँ सामान्य नियंचोंमें भुजगार और अवस्थितस्थितिके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तर काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है । ६४७६. मनुष्यत्रिक में भुजगार और अवस्थितस्थितिके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है । अवक्तव्य स्थिति के उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है । अल्पतरस्थितिके उदीरकका अन्तरकाल ओघके समान है। विशेषार्थ – जो मनुष्य आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त होनेपर सम्यक्त्व उपार्जित कर भवके अन्तर्मुहूर्तं पूर्वं तक सम्यग्दृष्टि रहकर मिथ्यादृष्टि हो जाता है उसीके भुजगार और अवस्थितस्थितिके उरीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्व कोटि बनता है। इसी तथ्यको ध्यान में रखकर मनुष्यत्रिक में यह अन्तरकाल उक्त कालप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम हैं । $ ४७७. देवों में भुजगार और अवस्थितस्थितिके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागर है। अल्पतर स्थितिके उदीरकका अन्तरकाल घोघके समान है। इसीप्रकार भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतक के देवों में जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। श्रानतकल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें अल्पतर स्थितिके उदीरकका अन्तरकाल नहीं है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जाना चाहिए । S४७८. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविषयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है - और आदेश | ओसे मोहनी की भुजगार, अल्पतर और अवस्थितस्थितिके उशेरक जीव नियमसे Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ अयधवला सहिदे कला पाहुडे [ बेदगो ७ - च अवगा च । श्रदेसेण शेरइय० प० अट्टि० णियमा अस्थि, सिया एदे च जगाओ च, सिया एदे च भुजगारगा च । एवं सव्वरइय० सव्यपंचिदियति रिक्खदेवा जाव सहस्सार चि । तिरिक्वेसु भुज० - अप० धत्रडि० जिय० अस्थि । मणुसतिए अप्प० अवट्टि० णिय० अस्थि । सेमपदा भयरिणा । मणुस पज० सन्नपदा मणिजा | आणदादि सब्बड्डा ति अप्प लिय० अस्थि । एवं जाव० । ६ ४८०, ·1 आदे १४७९. भागाभागाणु ० दुविहो जि० - ओघेण आदेसे० । श्रघेण श्रवत्त०उदीर० सव्वजी० के० ? अतभागो । भुज० असंखे० भागो । अवद्वि० संखे० भागो । अप्प संखेज्जा भागा । एवं सच्चरइय० सतिरिक्ख० मणुस अपज० -देवा जात्र सहस्सार ति । णवरि अवत्त० णस्थि । मणुसेसु अबडि० संखे० भागो । अप० संखेजा भागा। सेसपदा श्रसंखे० भागो । मखुसपज्ज० मणुसिणी० अप्प० संखेआ भागा | सेसपदा संखे० भागो । आणदादि सट्टा त्ति णत्थि भागाभागो । एवं जाव० । आदे० । श्रघेण मोह० मार्गदर्शक आचार्य श्री सुविधिसागर हैं, कदाचित ये नाना जीव हैं और एक अव्यस्थितिका उदीरक जीव है, कश चित् ये नाना जीव हैं और नाना अवक्तव्यस्थितिके उदीरक जीव हैं। आदेश से नारकियों में अल्पतर और अवस्थित स्थिति के उदीरक जीव नियमसे हैं, कयाचित् ये नाना जीव हैं और एक भुजगार स्थितिका उदीरक जीव है, कदाचित् ये नाना जीव हैं और नाना मुजगारस्थितिके उदीरक जीव हैं। इसी प्रकार सभी नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च सामान्य देव और सहस्रार कल्पतकके देवोंमें जानना चाहिए । तिर्यखों में भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिके उदीरक जीव नियमसे हैं। मनुष्यत्रिक में अल्पतर और अवस्थितस्थितिके उदीरक जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं। मनुष्य अपर्याप्तकों में सब पद भजनीय हैं। आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवों में अल्पतरस्थितिके उदीरक जीव नियमसे हैं । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । 1 ६ ४७६. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- श्रोध और आदेश । श्रोघसे अवक्तव्यस्थितिके उदीरक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्त भागप्रमाण हैं । भुजगारस्थितिके उदीरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । अवस्थित स्थिति के उदीरक जीव संख्यातवें भागप्रमाण है और अल्पतरस्थितिके उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । इसीप्रकार सब नारकी, सब तिर्यश्व, मनुष्य अपर्याप्त और सामान्य देवोंसे लेकर सहस्रार कल्पतके देवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं | मनुष्यों में अवस्थितस्थितिके उदीरक जीव सब जीवोंके संख्यातवें भागप्रमाण हैं । अल्पतर स्थितिके उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। शेष पों उर्वरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्विनियों में अल्पतर स्थितिके उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण है और शेष पदोंके उदीरक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। आनत कल्पसे ११ लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें भागाभाग नहीं है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । ४८०. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— श्रोत्र और आदेश । श्रोसे Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपडिजदारणाए ठाणाणं भुजगारपरूषणा २१७ भुज०-अप्प-अवष्टि० केतिया ? अणंता । अवत्त० केति ? संखेनी । एवं तिरिरखेसु । णकरि अयत्त० णस्थि । प्रादेसे साक्षाधकेतिक्षविजया महाराज एवं सचणेरइय०-सब्बपंचिंतिरिक्ख-मणुसअपज-देवा भरणादि जाव सहस्सार त्ति | मणुसेसु अवत्त० केत्ति ? संखेजा। सेसपदा केत्ति ? असंखेना । मणुसपन०मणुसिणी० सब्यपदा केति ? संखेजा । आणदादि सबट्ठा ति अप्प० केत्ति ? असंखेजा । णवरि सबढे संखेजा । एवं जावः । ४८१. खेत्ताणु० दुविहो णि०-प्रोघेण प्रादेसे० । अोघेण मोह तिष्णि पदा केव० ? सबलोगे। अयत्त० लोग० असंखे० भागे । एवं तिरिक्खा० । वरि अवत्त. पत्थि । सेसगदीसु सव्वपदा लोग० असंखे भागे । एवं जाव० । ४८२. पोसणाणु, दुविहो गि०-ओघेण आदेसे० । अोधेण मोह. तिएिणपदेहिं सबलोगो पोस । अवत्त० लोग० असंखे०भागो । एवं तिरिक्खा । णवरि अपत्त० णस्थि । ४८३. आदेसे णेरइय० सन्चपद० लोग. असंखेजदिभागो छचोइस० मोहनीयको भुजगार, अल्पतर और अवस्थितस्थितिके उदीरक जीव कितने हैं ? अनन्त है। अवक्तव्यस्थितिके उदीरक जीव किनने है १ संख्यात हैं । इसीप्रकार तिर्यकचों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवतव्यपद नहीं है। आदेशसे नारकियों में सब पदोंके उदीरक .. जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । इसीप्रकार सत्र नारकी, सब पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवों में जानना चाहिए । मनुष्यों में श्रवक्तव्यस्थितिके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं ? शेष पदोंके उवीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में सब पदोंके उदीरक जीव कितने है ? संख्यात हैं। क्रानतकल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में अल्पतरस्थितिके उदीरक जीव कितने हैं ! असंख्यात हैं। इतनी विशेषता है कि सर्वार्थसिद्धिमें संख्यान है । इसीप्रकार अनाहारक मागणा तक जानना चाहिए। ४८१, क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश। ओघसे मोहनीयके तीन पदोंके उदीरक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सर्व लोक क्षेत्र है। प्रवक्तव्यपदके उदीरक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसीप्रकार सामान्य तिर्यकचों में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें अयक्तव्यपद नहीं है। शेष गतियोंमें सब पदों के उदीरक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। १४८२, स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-प्रोध और भादेश । श्रोधसे मोहनीयके तीन पदोंके उदीरक जीवोंने सर्व लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्यपदके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसीप्रकार सामान्य तिर्यस्त्रोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें प्रवक्तव्यपद नहीं है। ४८३. आदेशसे नारकियों में सब पदोंके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातः भाग १. साप्रती असंज्जा इति पाठः । २. प्रा०-ता०प्रस्योः वसंखेज्जा इति पाठः । २. Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो ७ देसूणा । एवं विदियादि सत्तमा ति। णवरि सगपोसणं । पढमाए खेन । सबपंचिदियतिरिक्ख-सम्बमणुस सब्चपद० लोग० असंखे० भागो सबलोगो बा। णवरि मणुसतिए अवत्त० लोग० असंखे भागो। देवेसु मोह तिषिणपद० लोग० असंखे.. भागो अट्ठ-णवचोद्दम० देखा। एवं सत्र्यदेवाणं । णवरि सगपदाणं सगपोसणं णेदव्वं । एवं जाव० । ६४८४, कालाणु० दुविहो णि०–ोघेण प्रादेसेण य । ओघेण मोह. भुज०अप्प०-अवढि० सन्धद्धा । अवत्त० जह० एयस०, उक्क० संखेना समया । आदेसेण णेरड्य. भुज. जह० एयस०, उक० श्रावलि. असंखे० भागो । अप्प०-अवष्टि सम्बद्धा । एवं सत्रणेरइय०-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-देवा जाव सहस्सार ति ।। मार्गश५- विविश्वेमा समपदसामध्यम महायशुसेसु णारयभंगो । णबरि अवत्त० ओघं । मणुसपञ्ज०-मोसणी. अप्प०-अबढि० सम्बद्धा । भुज-अवत्त० जह एयस०, उक्क० संखेज्जा समया । मणुसअपज० भुज. जह० एयस०, उक्क० आवलि. . और मनालीके चौदह भागोंमसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसीप्रकार दूसरीसे लेकर सातवों पृथिवी तकके नारकियों में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपना- अपना स्पर्शन द्वितीयादि पृथिवियोंके कहना चाहिए। प्रथम पृथिवीके नारकियों में स्पर्शन क्षेत्रके समान है। सष पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च और सब मनुष्योंमें सब पदोंके उदीरक जीवोंने लोकके, असंख्यातवें भाग और सर्व लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिको अवक्तव्यपदके उदीरक जीवाने लोकके असंख्यातवे भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवों में मोहनीयके तीन पदोंके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातये भाग और सनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसीप्रकार सब देवामें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपने-अपने पदोंका अपना-अपना स्पर्शन ले आना चाहिए। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ४८४, कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितस्थितिके उदीरकोंका काल सर्वदा है। प्रवक्तव्यस्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। श्रादेशसे नारकियों में भुजगारस्थितिके लदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यात भागप्रमाण है। अल्पतर और अवस्थितस्थितिके उदीरकोंका काल सर्वदा है। इसीप्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च, सामान्य देव और सहस्रार कल्पसकके देवों में जानना चाहिए। ६४८५. तियनों में सब पदोंके उदीरकोंका काल सर्वदा है। मनुष्योंमें नारकियोंके समान । भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्यपदके उदीरकोंका काज ओघके समान है। मनुष्य पर्यात और मनुष्यनियों में अल्पतर और अवस्थितस्थितिके उदीरकोंका काल सर्वदा है। भुजगार और प्रवक्तव्यस्थितिके उदीरकों का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें भुजगारस्थिति के उदीरकोंका जघन्य काल एक समय Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावाद्यासागर जी महारा ܝܐ गा० ६२] उत्तरपयडिउदीरणाए ठाणाणं भुजगारपरूवणा २१६ असंखे०भागो। अप्प०-अवडि. जह० एगस०, उक० पलिदो० असंखे०भागो। आयदादि सन्वट्ठा ति अप्प० सव्वद्धा । एवं जाव० । ४८६. अंतराणु० दुविहो णि-पोषेण आदेसे० । ओघेण तिएहं पदारणं 'यादशथि श्रृंत अवतजाः एयसका उक. वासपुधत्तं । एवं तिरिक्खेसु । णवरि अवत्त० णस्थि । ओदेसेण परइय० भुज. जह० एयस०, उक० अंतोमु० । अप्प०अवढि णस्थि अंतरं । एवं सम्बणेरइय० सम्वपंचिदियतिरिक्ख-देवा जाव सहस्सार त्ति । मणुसतिए शारयभंगो। रणवरि अवत्त० ओघ । मणुसअपञ्ज. सव्वपदा जह० एयस०, उक० पलिदो० असंखे०भागो। प्राणदादि सबट्टा ति अप्प० गस्थि अंतरं । एचं जावः । $ ४८७. भावाणुगमेण सव्वस्थ प्रोदइयो भावो । ६४८८. अप्पाबहुआणु० दुविहो णि०-प्रोघेण आदेसे० । ओघेण सम्वत्थो० अवत्तक । भुज० अरणंतगुणा । अवद्वि० असंखे०गुणा | अप्प० संखे गुणा ! ४८९. श्रादेसेण णेग्इय. सपत्थो० भुज० । अवढि० असंखे०गुणा । और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अल्पतर और अवस्थितस्थितिके उदीरकों का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्य के असंख्यात भागप्रमाण है । बानतकल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवों में अल्पतरस्थितिके उदीरकोंका काल सर्वदा है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जाना चाहिए। ६४८६. 'अन्तगनुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-प्रोध और आदेश । ओघसे तीन पदोंके उदीरकोका अन्तरकाल नहीं है। प्रवक्तव्यस्थितिके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है। इसीप्रकार तिर्यश्चोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें प्रवक्तव्यपद नहीं है। आदेशसे नारकियोंमें भुजगारस्थितिके उदीरकोका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहर्त है। अल्पतर और अवस्थित स्थितिके उदीरकोका अन्तरकाल नहीं है। इसीप्रकार सत्र नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय नियंञ्च और सामान्य देवोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्यत्रिकमें नारकियोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें प्रवक्तव्यपदका भंग श्रोधके समान है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब पदोंके उद्दीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्पके असंख्यातबै भागप्रमाण है। आनतकल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धिठकके देवों में अल्पतरस्थितिके उदीरकों का अन्तरकाल नहीं है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । ४८७. भावानुगमकी अपेक्षा सर्वत्र श्रीदयिक भाव है।। ८. अल्पबहुत्वानुगमी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्राप और आदेश । ओघसे प्रवक्तव्यस्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे भुजगारस्थिति के उदीरक जीव अनन्तगुणे हैं। उनसे अयस्थितस्थिति के उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतरस्थितिके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। १४८६. आदेशसे नारकियोंमें मुजगारस्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो . अप्प० संखे० गुणा । एवं सध्यणरइय-मव्यतिरिक्ख-मणुसअपज०-देवा जाव सहस्सार त्ति | मणुसेसु सबथो० अवत्त द्विदिउदी० । भुज. असंखे गुणा | अववि० असंखे० गुणा । अप्प० संखे०गुणा । एवं मणुसपज०-मणुसिणी० । णवरि संखे०गुणं कायव्यं । आणदादि सचट्ठा ति पत्थि अप्पाबहुअं । एवं जाव० | ४९०. पदणिक्खेवे ति तत्थ इमाणि । तिष्णि अणिोगद्दाराणि-~समुकित्तणा सामित्तं अध्यात्रहुअं चेदि । समुक्कि० दुविहं - जह० उक० | उक्कस्से पयद । । दुविहो णि.-अोघेण आदेसेण य । अोघेण मोह० अस्थि उक्त यड्डि-हाणिअवट्ठा० । एवं चदुगदीसु । गरि आणदादि सचट्ठा ति अस्थि उक्काहाणी । एवं जात्र। ४९१. एवं जहण्णयं पि णेदव्वं । ४९२. सामित्तं दुविहं-जह० उक्क० । उक्सस्से पथदं । दुविहो णिओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उकबड्डी कस्स ? अण्णद० तप्पाश्रोग्गजहष्णद्विदिमुदीरेमाणो उकस्सद्विदि पबद्धो तस्स प्रावलियादीदस्स तस्स उक्कबड्डी। तस्सेव से काले उक० अवट्ठाणं । उक्क०हाणी कस्म ? अण्णद० उक्कसहिदिमुदीरेमाणो अवस्थितस्थिनिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतरस्थिति के उदारक जीव संख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार सब नारकी, सब तिर्यन्च, मनुष्य अपर्याप्त, और सामान्य देयोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्यों में अवक्तव्यस्थितिके उदीरक जीव .. सबसे स्तोक हैं। उनसे भुजगारस्थितिके उदीरक जीव असंख्यातमुणे हैं। उनसे अवस्थित स्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतरस्थितिके उदीरक जीव संख्यातगुणे है । इसीप्रकार मनुष्य पर्याप्त और गनुम्पिनियों में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें असंख्यातगुणे के स्थानमें संख्यातगुणा करना चाहिए । आननकल्पसे लेकर सत्रार्थसिद्धितकके देवोंमें अल्पबहुत्व नहीं है। इसीप्रकार असाहारक मार्गगणा तक जानना चाहिए। ६४६०. पदनिक्षेपका अधिकार है । उसमें ये तीन श्रनुयोगद्वार हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । समुत्कीर्तनाकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है.-अन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और श्रादेश | अोधसे मोहनीयकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थान है। इसीप्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि श्रानतकल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवा में उत्कृष्ट हानि है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। १४९१. इसीप्रकार जयन्य पदनिक्षेपको भी जानना चाहिए। ४६२. स्वामित्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्ट का प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है.-प्रोध और आदेश । ओयसे मोहनीयकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है? ? तत्यायोग्य जघन्य स्थितिकी उदीरणा करनेवाला अन्यतर जो उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है, एक प्रापलिके बाद उसके उत्कृष्ट वृद्धि होता है। उसीके अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान हाला है। उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? उत्कृष्ट स्थितिको उदीरणा करनेवाला जो अन्यतर Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिउदीरणाप ठाणाणं पदणिक्लेवपरूवणा २२१ उकस्सयं द्विदिखंडयं हणदि, तस्स उकहाणी । एवं चदुगदीसु | गवरि पचितिरिक्खअपज-मणुसअपज० उक्क० वड्डी कस्स ? अण्णद. तपाओग्गजहण्णहिदिमुदीरेमायो तप्पाओग्गुउकस्सविद्धि पत्रद्धो तस्स आवलियादीदस्स उक्क०वड्डी । तस्सेव से काले उक्क० अबट्ठा० । उक० हाणी कस्स ? अण्ण तिरिक्खो वा मणुसो उक्कस्सटिदिमुदीरमाणो उक्कस्मयं द्विदिखंडयं पादयमाणो अपजत्तएसु उवयपणो तस्स पढमे द्विदिखंडये हदे तस्स उकहाणी० । आणदादि गवगेवजा ति उक्क हाणी कस्स ? अण्णद० तप्पाओग्गुक्कस्सटिदिमुदीरेमाणो पढमसम्मत्ताहिमुद्दो जादो तेण पढमे द्विदिखंडए हदे तस्म उक्क०हाणी० । अणुदिसादि सम्बट्ठा ति उक्क हाणी कस्स ? अण्णद० चेदयसम्माइटिस्स अणंताणुबंधी विसंजोएतस्स पढमे द्विदिखंडए हदे तस्स उहाणी | एवं जाव। ४९३. जह० पयदं | दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । श्रोषेण मोह० जाहवड्डी कस्स ? अण्णद० जो समयूणमुक्कस्सविदिमुदीरेमाणो उक्कस्सविदिमुदीरेदि तस्स जहचड्डी। जहहाणी कस्स ? अण्णद० जो उक्कस्सद्विदिमुदीरमाणो समयूणद्विदिमुदीरेदि तस्स जहहाणी । एगदरस्थावट्ठाणं । एवं चदुगदीसु । णवरि आणदादि जीव उत्कृष्ट स्थितिकाण्डकका हनन करता है उसके उत्कृष्ट हानि होती है। इमीप्रकार चारों गतियों में जानना चाहिए । इसनो विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में उत्कृष्ट वृद्धि, किसके होती है। तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिकी उदीरणा करनेवाला अन्यतर जो जीव तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है, एक श्रावलिके बाद उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है । लसीके अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है | उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? उत्कृष्ट स्थितिकी उदारणा करनेवाला जो अन्यतर लियंञ्च या मनुष्य उत्कृष्ट स्थितिकाण्डकका घात करता हुश्रा अपर्यापकोंमें उत्पन्न हुआ, उसके प्रथम स्थितिकाण्डकका घात करने पर उत्कृष्ट हानि होती है। प्रानतकल्पसे लेकर नौ अवेयक तकके देषामें उत्कृष्ट हानि किसके होती है । जो तस्त्रायोग्य उत्कृष्ट स्थिनिकी उदीरणा करनेवाला अन्यतर जीव प्रथम सम्यक्त्वके अभिमुख है उसके प्रथम स्थितिकाण्डकके घात करने पर उत्कृष्ट हानि होती है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में उत्कृष्ट हानि किसके होती है ! अन्यतर जो वेदकसम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना कर रहा है उसके प्रथम स्थितिकाण्डकके घात करने पर उत्कृष्ट हानि होती है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । ४६३. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है—ोष और आदेश । ओघसे मोहनीयकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? अन्यतरजो एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा करनेवाला उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा करता है, उसके जघन्य वृद्धि होती है। जघन्य हानि किसके होती ? अन्यतर जो उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा करनेवाला एक समय कम स्थितिकी उदीरणा करता है उसके जघन्य हानि होती है। इसमेंसे किसी एक जगह जयन्य अवस्थान होता है। इसीप्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि आनतल्पकसे Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ जयचंबलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो सव्वट्ठा ति जहहाणी कस्स ? अण्णद० अधढिदि गालेमाणस्स तस्स जहहाणी । एवं जाव० । ४९४. अप्पबहुअं दुविहं-जह० उक० । उकस्से फ्यदं । दुविहो णि. ओघेण प्रादेसे० | ओषेण सन्मस्थो० उक० हाणी | बड्डी अवठ्ठाणं च विसेमा० । एवं चदुगदीसु । णकरि पंचिंतिरिक्खअपज -मगुम अपञ्ज. सवत्थो० उक्क ०बड्डी अबढाणं च । हाणी संखेगुणा । प्राणदादि सच्चट्ठा ति गथि अप्पाबहुअं । एवं जाव | ४९५. जहदायद आबिहोमुिक्याटालोरणमा मादे । ओघेण मोह. जह०वष्टि-हारिण-अवठाणाणि सारिमाणि । एवं चदुगदीसु । णवरि आणदादि सयट्ठा त्ति पत्थि अप्पाबहुअं । एवं जाव० । ४९६. वडिउदीरगे नि तत्थ इमाणि तेरस अणियोगदाराणि-समुक्त्तिणा जाव अप्पाबहुए ति । समुक्त्तिणाणु० दुविहो णि.- प्रोधेण आदेसेण य । ओघेण मोह० अस्थि असंखे भागवति-हाणी संम्खे भागवड्डि-हाणी संखे गुणवडि-हाणी असंखे०गुणवड्डि-हाणी अवढि० अवत्त । आदेसेण ऐरइय० अस्थि तिण्णिवडि-हाणीअवढि० । एवं सव्यरणेर०-सव्यतिरिक्ख०-मणुसअपल०-देवा जाव सहस्सार ति । लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जघन्य हानि किसके होती है ? अधःस्थितिकी गाल ना करनेवाला । जो अन्यतर जीव है उसके अघन्य हानि होती है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ४६४. अलबहुत्व दो प्रकारका हैं-जघन्य और उत्कृए । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और प्रदेश । ओघसे उत्कृष्ट हानि सबसे स्नोक है। उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान विशेष अधिक है। इसीप्रकार चारों गलियों में जानना चाहिए. इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय तियं व अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान सबसे स्तोक है। उससे उत्कृए हानि संख्यातगुणी है। श्रानत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अल्पबहुत्व नहीं है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए | ४६. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । प्रोपसे मोहनीयकी जघन्च वृद्धि, हानि और अवस्थान समान हैं। इसीप्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि श्रानतकल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक देवोंमें अल्पबहुत्व नहीं है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ४९६. वृद्धि उदीरणाका प्रकरण है। उसमें ये तेरह अनयोगद्वार हैं-समुत्कीर्तनगसे लेकर अल्पबहुत्य तक। समुत्कीर्तनाका निर्देश दो प्रकारका है-श्रीध और श्रादेश। ओघसे मोहनीयकी असंख्यात भागवृद्धि हानि, संख्यात भागद्धि हानि, संख्यात गुणवृद्धि हानि, असंख्यात गुणवृद्धि हानि, अवस्थान और प्रवक्तव्यपद है। आदेशसे नाकियोंमें नीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थान पद है । इसप्रकार सब नारकी, सय तियंच, मनुष्य अपर्याप्त और सामान्य Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा• ६२] उत्तरपडिउदीरणाए ठाणाणं वडिपवणा २२३ मणुसतिए ओयं । प्राणदादि सञ्चट्ठा त्ति अस्थि असंखे०भागहाणी संखे०भागहाणी । एवं जाव० । मार्गदर्शक सामिलाई प्रशिक्षणठ-बाओषणान प्रादेसे० | ओधेण मोह० तिण्णिवढि०-अवट्टि कस्स ? अण्णद० मिच्छाइटिस्स । तिएिणहाणि० कस्स ? अण्णद० सम्माइद्वि० मिच्छाइट्ठि० । असंखे०गुणवडि-हाणि. कस्स ? अण्णद. सम्माइडि० । अवत्त. भुज०भंगो । एवं मणुसतिए । ४९८. आदेसेण णेरइय० तिपिणवड्डि-हाणी-अवट्ठि० ओघ । एवं सब्यणेरम-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खतिय-देवा भवरणादि जाव सहस्सार नि । पंचि०तिरिक्खअपञ्ज०मणुसअपज्ज. तिणियड्डि-हाणि-अवद्धिः कस्स ? अण्णद० । आणदादि वगेवज्जा ति असंखे०भागहाणि-संखे भागहाणि कस्स ? अण्णद. सम्माइटि० मिच्छाइद्विस्स था। अणुदिसादि सब्वट्ठा ति असंखे०भागहा०-संखे०. भागहा० कस्स ? अण्णदरस्स । एवं जाव० । ४९९, कालाणु० दुविहो णिक-श्रोघेण श्रादेसे य । अोघेण तिण्णिवड्डी केवचिरं ? जह० एयस०, उक्क० बेसमया। असंखे०भागहा. जह० एयस०, उक० तेवद्विसागरोयमसदं पलिदो० असंखे० भागेण सादिरे । संखे० भागहाणिक-संख० देवासे लेकर सहसार कल्पतकके देवोंमें जानना चाहिए | मनुष्यत्रिक आघके समान भंग है। आनत कल्पसे लेकर सार्थसिद्धि तकके देवों में असंख्यात भागहानि और संख्यात भागहानि है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । • $४६७. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश | अोघसे मोहनीयकी तीन बृद्धि और अवस्थान किसके होते हैं। अन्यतर मिथ्याष्टिके होते हैं। तीन छानि किसके होती हैं ? अन्यतर सम्यम्दृष्टि और मिथ्याष्टिके होती हैं। असंख्यात गुणवृद्धि और हानि किसके होती है ! अन्यतर सम्यग्दृष्टिके होती हैं। प्रवक्तव्यपदका भंग भुजगारके समान है। इसीप्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए । ४६८. श्रादेशसे नारकियों में तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थानका मंग ओघके समान है । इसीप्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यञ्च, पंचेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिक, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार तकके देवोंमें जानना चाहिए । पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में तीन बृद्धि, तीन हानि और अवस्थान किसके होते हैं ? अन्यतरके होते हैं। प्रानतकल्पसे लेकर नौ त्रैवेयक तकके देवोंमें असंख्यात भागहानि और संख्यात भागहानि किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि या मिथ्याहष्टिके होती हैं। चनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें पसंख्यात भागहानि और संख्यात भागहानि किसके होती हैं। अन्य तरके होती है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गेरणा तक जानना चाहिए । F४६६. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश । ओघसे तीन वृद्धियोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है। असंख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयभवाला सहिदे काय पाहुडे [ बेगो ७ गुणहाणि असंखे जगुणवड्डि० हाणि श्रवत्तः जहष्णुक्क० एस० । अवडि० जह० यस उक्क० अंतोमु० । संग भागवविध श्रावधि ५०० आदेसेण णेरड्य० जमराजेसमया । श्रसंखे० भागहाणि० जह० एस० उक्क० तेतीसागरो० देणाणि । दोन डि हारिण० ० जह० उक० एयसमश्र । अव०ि ओषं । एवं सव्वरइय० । वरि सहिदी देखणा | २२४ O एक सौ श्रेष्ठ सागर है। संख्यात भागहानि, संख्यात गुणहानि, असंख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अवस्थितका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । 1 विशेषार्थ -- असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि और संख्यात गुणवृद्धिका अद्धाक्षय या संक्लेशनयसे एक समय प्राप्त कर उसी रूपमें उसकी उदीरणा होनेपर इनके उदीरकका जघन्य काल एक समय कहा है तथा जो जीव पहले समय में श्रद्धाक्षयसे और दूसरे समय में संक्लेशतय से असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिको बढ़ाकर बाँधता है तथा क्रमसे उसी रूप में उनकी उदीरणा करता है तब असंख्यात भागवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय प्राप्त होनेसे वह तत्प्रमाण कहा है। तथा जब कोई द्वीन्द्रिय जीव एक समय तक संक्लेशचयसे संख्यातवें भागप्रमाग स्थितिको बढ़ाकर बाँधता है और दूसरे समय में मरकर तथा त्रीन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर पूर्वीस्थति से संख्यातवें भाग अधिक श्रीन्द्रिय के योग्य स्थितिको बढ़ाकर बाँधता है और क्रमसे उसी रूपमें उनकी उदीरणा करता है तब संख्यात भागवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय प्राप्त होने से वह प्रमाण कहा है। तथा जो एकेन्द्रिय जीव एक मोड़ा लेकर संशियों में उत्पन्न होता है उसके पहले समय में संशी के योग्य और दूसरे समय में संज्ञीके योग्य स्थितिबन्ध होता है । इसप्रकार इस जीवके संख्यात गुणवृद्धिके दो समय प्राप्त कर क्रमसे उसी रूप में उनकी उदीरणा करनेपर संख्यात गुणवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय कहा है । श्रसंख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पत्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक १६३ सागर स्पष्ट ही है। इसका विशेष खुलासा स्थितिविभक्ति भाग ३ पृ० १४२ से जान लेना चाहिए | शेष हानि और वृद्धियों तथा वक्तव्यपदका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है यह स्पष्ट ही है । अत्रस्थित उदीरणा कमसे कम एक समजतक और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक हो यह सम्भव है, इसलिए इसका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। १५००. आदेश से नारकियों में असंख्यात भागवृद्धिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है । असंख्यात भागद्दानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। दो वृद्धियों और दो हानियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अवस्थितका भंग श्रोषके समान है। इसीप्रकार सब नारकियों में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए । विशेषार्थ- - यहाँ अद्धाक्षय और संक्लेशक्षय से असंख्यात भागवृद्धिके दो समय प्राप्त होना सम्भव है, इसलिए इसका उत्कृष्ट काल दो समय कहा है। शेष कथन सुगम है । इसी प्रकार विचारकर आगे भी कालको घटित कर लेना चाहिए । I Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ गा० ३२] उत्तरपठिउदीरणाए. ठाणार्ण भविपरूधरणा ५०१. तिरिक्खेसु तिष्णिवडि-दोहाणि-अवट्ठिअोघं । असंखे० भागहा. जह• एयस०, उक्क. तिणिपलिदो. सादिरेयाणि | एवं पंचिंदियतिरिक्खतिए । णवरि संखे० भागवड्डि० जहण्णुक्क० एयस० । पंचिंतिरि०अपज-मणुसअपज० असंखे० मागवड्डि०-संखेन्गुणवढि० जह० एयस०, उक्क. बसमया। असंखे०भागहाणिअवट्टि जी दर्शयम,आज प्रामुहसागसले मामत्रड्डि-दोहाणि जपणुक्क एयस० । मणुसतिए पंबिंदियतिरिक्खभंगो । णवरि असंखे गुणवड्डि-हाणि-अवत्ता जह-उक्त एयसः । ५०२. देवेसु असंखे भागहा० ज० एयसमओ, उक्क० तेत्तीस सागरोवमा० । सेमपदाणं णारयभंगो । एवं भवणादि जाव सहस्सार त्ति | णवरि सगदिदी । आणदादि सव्वट्ठा ति । असंखे०भागहा. जह• अंतोमुहुत्तं, उकासगढिदी । संखे०भागहाणि जइण्णु० एयसः । एवं जाव। . .. ............ ---------- -- - A A A AA ५०१. तिर्थञ्चोंमें तीन वृद्धियों, दो हानियों और अवस्थितपदका भंग श्रोधके समान है। असंख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है। इसीप्रकार पश्चेन्द्रिय निर्यश्चत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषना है कि इनमें संख्यात भागवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । पञ्चेन्द्रिय निर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में असंख्यात भागवृद्धि और संख्यात गुणवृद्धिका जघन्य काल एक समय और .. उत्कृष्ट काल दो समय है। असंख्यात भागहानि और अवस्थितका अधन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। संख्यात भागवृद्धि और दो हानियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। मनुष्यत्रिकमें परचेन्द्रिय निर्यश्चके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि असंख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्यका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। ५०२. देवोंमें असंख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तनीस सागर है। शेष पदोंका भंग नारकियों के समान है। इसीप्रकार भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। श्रानतकल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धिनकके देवों में असंख्यात भागहानिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। संख्यान भा गहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ-जो अानतादिका देव वहाँ उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहर्तमें अनन्तानुषन्धीकी विसंयोजना करता है उसके प्रारम्भसे लेकर उसके पूर्व असंख्यात भागहानि होती रहती है, इसलिए यहाँ इसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। नौवें वेयक तकके देव वहाँ उत्पन्न होनेके प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्तमें प्रथमोपशम सम्यक्त्वको भी प्राप्त करते हैं, इसलिए इस अपक्षासे इनमें असंख्यात भागहानिका जघन्य काल अन्तर्मुहर्त बन जाता है। इन पानतादि सब देवोंमें विसंयोजनाके समय संख्यात भागहानि होती है तथा नौ ग्रेयेयफ तकके इन देवामें प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति के समय भी संख्यात भागहानि होती है। यतः इसका काम एक समय है, अतः इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । शेष कयन सुगम है। २६ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ जयधक्लासहिदे फसायपाहुडे [वेगो १५०३. अंतराणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । श्रोषेण असंखेजभागवटि अबाहि० जह० एगस०, उक० तेवहिसागरोवममदं तिणि पलिदो. सादिरेयाणि । असंखे०भागहा. जह० एयस०, उक्क० अंतोमु. । दोववि-हाणि जह एगस० अंतोमु०, उक्क० अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । असंखे०गुणवडि-हाअवत्त० जह• अंतोमु०, उक्क. उत्रबुधोकास्त्रिी आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ६५०४. आदेसेण ऐरइय० असंखे भागवडि-अवढि० जह० एयस०, दोबड्डीहाणि जह० अंतो०, उक्क० तेतीसं सागरो० दे० । असंखे०भागहा. श्रोधं । एवं सव्वरोर० । णवरि सगहिदी देसू० ।। ६५०५. तिरिक्खेसु असंखे०भागवड्डि-अवढि० जह• एयस०, उक० पलिदो० असंखे०भागी। असंखे भागहा. जह० एयस०, उक्क० अंतोमु ० । दोषड्डि-हाणिक जह. एगस०, अंतोमु० उक्क० अणंतकालमसंखे०। पंचिंदियतिरिक्वतिए असंखे०भागवष्टि-संखे०गुणवड्डि० अबढि० जह• एयस०, संखे भागवड्डि०-संखेगुणहाणिक + ५०३. अन्तरानुगमको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोत्र और श्रादेश | ओघसे असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थितपदका जघन्य अन्तर काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तीन पत्य अधिक १६३ सागर है। असंख्यात भागहानिका जघन्य अन्तर काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। दो वृद्धियों और नो हानियोंका जघन्य अन्तरकाल क्रमसे एक समय तथा अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त काल - है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। असंख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणहानि और प्रवक्तव्यका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपाधं पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। विशेषार्थ-स्वामित्व और कालको ध्यानमें रखकर अन्तरकालका स्पष्टीकरण सुगम है, इसलिए अलगसे खुलासा नहीं किया। आगे भी यही समझना । दिशाका झान करने के लिए स्थितिविभक्ति भाग तीन पृ० १५० आदिके विशेषार्थ देखो। इतना अवश्य है कि यहाँ उदीरणाकी अपेक्षा यह अन्तरकाल घटिव करना चाहिए। ५०४. आदेशसे नारकियोंमें असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थितका अघन्य अन्तर काल एक समय है, दो वृद्धियों और दो हानियोंका जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है तथा सबका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर है। असंख्यात भागहानिका भंग ओधके समान है। इसीप्रकार सब नारकियों में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनीअपनी स्थिति कहनी चाहिए। १५०५ तिर्यश्चोंमें असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। असंख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। दो वृद्धिों और दो हानियोंका जघन्य अन्तरकाल क्रमसे एक समय और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमागा है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकमें असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि और अवस्थितपदका जघन्य अन्तरकाल एक समय है, संख्यात Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयजिउदीरणाए ठाणाणं बड्डिपरूवाणा २२७ जह० अंतोमु०, उक्क० पुवकोडिपुधत्तं । असंखं भागहा. जह• एगस०, उक. अंतोमु०। संख०भागहा. जह • अंतोमु०, उक्क० तिणि पलिदो० सादिरेयाणि | पंचिं०तिरि०अपज-मणुसअपज. असंखे० भागवाड्डि-हाणि - संखे गुणवड्डि - अवट्टि जह एगस०, उक्क. अंतोमु० । संखे०भागववि-हारिण-संखे० गुणहाणि जह० उक० अंतोमु० । १५०६. मणुसतिए असंख०भागववि-संखे०गुणवष्टि-प्रवद्वि. जह० एगस०, संखे० भाग ह-संखे०गुणहाणि. जह० अंतोनु०, उक्क० सम्वेसिं पुठ्यकोडी देसूणा । असंखे०भागहा० जह० एयस०, उक्क अंतोमु० । संखे०भागहाणि० जह० अंतोमु०, उक्क० तिणि पलिदो० सादिरेयाणि । असंखे०गुणवड्डि-हाणि-अवत्त० जह० अंतोमु०, उक० पुच्चकोडिपुधन । मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ५०७. देवेसु असंखे०भागवटि-अबढि० जह० एयस०, दोवडि-संख-गुणहाणिक जह० अंतोमु०, उक० श्रद्वारस सागरो० सादिरेयाणि । असंखे० भागहा० ओघ । संखे०भागहाणि० जह० अंतोमु०, उक्क० एक्कत्तीसं सागरो० देमणाणि । एवं भवणादि जाब सहस्सार ति । णवरि समद्विदी देसूणा । आणदादि वगेवजा ति भागवृद्धि और संख्यात गुणहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है तथा सषका उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। असंख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहर्त है । संख्यान भागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तीन पल्य है। पञ्चेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त कोंमें असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि, संख्यान गुणद्धि और अवस्थित. पदका जघन्य अन्तरकाल ॥ समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। संख्यात मागवृद्धि, संख्यात भागहानि और संख्यात गुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। ६५०६. मनुष्यत्रिक असंख्यात भागवृद्धि संख्यात गुणवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तरकाल एक समय है, संख्यात भागवृद्धि और संख्यात गुणहानि का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है तथा सबका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि है। असंख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहर्त है। संख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूत है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तीन पल्य है। असंख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणहालि और अवक्तव्यका जवन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। ५०७. देवा में असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थितपदका जघन्य अन्तरकाल एक समय दो वृद्धियों और संख्यात गुणहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है तथा सबका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागर है। असंख्यात भागहानिका अन्तरकाल ओयके समान है। संख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहत है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागर है। इसीप्रकार भवनवासियोंसे लेकर सहवार कापनको दे में जानना चाहिए । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ जयधवलासहिदे कसायपाहुष्ठे [ वेदगो ७ संखे ० भागहा० जह० उक्क० एयसमत्र । संखे० भागहा० जह० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देवा । अणुदिसादि सव्धट्टा ति असंखे० भागहा० जहष्णु० एयसमओ । संखे० भागहा० जहण्णुक्क० अंतोभु० । एवं जाव० । १५०८. णाणाजीव भंगविषयाणु० दुविहो शि० - श्रघेण आदेसे० | ओघेण असंखे० भागवड्डि-हाणि अनडि० थिय० अस्थि । सेसपदा भवणिज्जा । एवं तिरिक्खे। आदेसेण रइय० असंखे० भागहा० अबडि० निय० अस्थि । सेसपदा भणिजा । एवं तिरिक्खेसु । आदेसेा खेरड्य० असंखे० भागहा ० श्रवट्ठि० गिय० अस्थि । सेसपदा भयणिजा । एवं सव्वणेरड्य० सध्वपंचिदियतिरिक्ख-मणुसतिय- देवा जाव तहस्सार ति । मणुस श्रपञ्ज० सव्वपदा भयणिजा । श्राणदादि सच्चड्डा ति असंखे० भागहा० गिय० अस्थि, सिया एदे च संखे० भागहाणिगोच, सिया एदे च संखे० भागहाणिगा च । एवं जाव० । I 0 Q १ ५०९. भागाभागाणु ० दुविहो णि० - श्रोषेण प्रदेसे० | ओघेण असंखे ०भागहारिण० संखेजा भागा । अत्रद्वि० संखे० भागो । असंखे ० भागवड्ढि असंखे ० भागो । पदा भागो । सेसमम्गणासु विहत्ती व कायच्यो । वरिं मणुस्सेसु असंखे०इतनी विशेषता है कम अनाथ पहना चाहिए। अतिकल्पसे लेकर नौ मैवेयक तक देवोंमें असंख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है। संख्यात भागद्दानिका जबन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धिकके देश में असंख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है । संख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल श्रन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ०८. नाना जी का आश्रय कर भंगविचयानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैश्रध और आदेश | ओोघसे असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितपद नियमसे हैं, शेष पद भजनीय हैं। इसी प्रकार तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। आदेशसे नारकियों में असंख्यात भागहानि और अवस्थितपद नियमसे हैं, शेष पद भजीनय हैं। इसीप्रकार सब नारकी, सच पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च मनुष्यत्रिक और सामान्य देवोंसे लेकर सहस्रारकल्प तक के देवों में जानना चाहिए। मनुष्य अपर्याप्तकों में सब पद भजनीय हैं। आनतकल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक के देवामें असंख्यात भागहानि स्थितिके उदीरक जीव नियमसे हैं, कदाचित् ये नाना जीव हैं और एक संख्यात भागहानि स्थितिका उदीरक जीव है, कदाचित् ये नाना जीव हैं और नाना संख्यात भागहानि स्थितिके उदीरक जीव हैं। इसीप्रकार अगद्दारक मार्गणा तक जानना चाहिए । १५०८. भागाभागनुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है ओ और आदेश | श्रीसे असंख्यात भागहानि स्थितिके उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। अवस्थित स्थिति उदीरक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यात भागवृद्धिस्थितिके उदरक जीव श्रसंख्यातथें भागप्रमाण हैं। शेष पदोंके उदीरक जीव अनन्तवें भागप्रमाण हैं। शेष मार्गगाबा Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयविउदीरणा ठायाणं वडिला २२६ " गुणवडि- हाणि श्रवत्त० असंखे भागो । मयुपञ्ज० -मपुसिणी० असंखे० मागहा ० संखे भागा | सेमपदा संखे० भागो । एवं जात्र० । ६५१०. परिमाणाशु० दुविहो० शि० श्रघेण आदेसेण य । श्रघेण असंखे भागवड्डि-हाणि अवडि० केति० ? अनंता । दोवडि-हारिण० असंखेजा । असंखे० गुणवड्डि- हाणि अवत० संखेजा । सेसमम्गणासु वित्तिभंगो | मणसलिए असंखे० गुणवड्डि-हाणि अवत्त० संखेजा । एवं जात्र० । 2. वरि s जी ५११. खेलाणु० माविको णि॰आ ओषेण श्रसंखे०भागवहि-वाणि प्र०ि सव्चलोगे । संसपदा लोग असंखे० भागे । एवं तिरिक्खा० । सेमगदी सच्चपदा लोग असंखे० भागे । एवं जाव० | O य ५१२. पोसणा० दुविहो णि० – ओघेण आदसेण य । श्रघेण असंखे०भाग- वह्नि हारिणश्रवट्टि० सव्वलोगो । दोषड्डि-हाणि० लोग असंखे० भागो अट्ठचो० देखणा | सेसपदा लोग असंखे० भागो । सेसगइमग्गषासु विहत्तिभंगो । वरि स्थितिविभक्तिके समान भागाभाग करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्यामं श्रसंख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणदानि और अवक्तव्य स्थितिके उदारक जीव असंख्यात सागमा हैं। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में असंख्यात भागहानि स्थिति के उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। शेष पदोंके उदीरक जोब संख्यातवें भागप्रमाण हैं । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । १०. परिमाणानुगम की अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-प्रोच और थादेश । श्रोष से श्रसंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागदानि और अवस्थितस्थितिके उदीरक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं ? दो वृद्धि और दो हानिरूप स्थितियोंके उदीरक जीव असंख्यात हैं। असंख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्य स्थितिके उदारक जीव संख्यात हैं। शेष मार्गणाओं में स्थितिविभक्तिके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिमें असंख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणदानि और अवक्तव्यस्थितिके उदीरक जीव संख्यात हैं । इसीप्रकार नाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए | ५११. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश | असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितस्थितिके उदीरक जीवोंका क्षेत्र सर्व लोक है। शेष पदों के उदीरक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमारण है। इसीप्रकार तिर्यचोंमें जानना चाहिए । शेष गतियों में सघ पदके उदीरक जीवीका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। 1 ५१२. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - श्री और आदेश | भोले - असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितस्थितिके उदीरक जीवोने सर्व लोकका स्पर्शन किया है। दो वृद्धि और दो हानिरूप स्थित्तियोंके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातव भाग और नालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष पदोंके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यात भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष गतिमार्गाश्रमं स्थितिविभक्तिकं समान मंग है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिकमें Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० अयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ मणुसतिए असंखे० गुणवड्डि-हाणि अवत्त० लोग० असंखे ० भागो । एवं जाव० | - १५१३. कालानु० दुविहो णि० - श्रोण देसेण य । श्रघेण असंखे०भागत्रडि हाणि श्रवडि० सव्वद्धा । दोवडि- हाणि० जह० एयस०, उक्क० आबलि० असंखे० भागो । असंखे० गुणवड्डि- हाणि अवत० जह० एयस० उक० संखेआ समया । मणुसतिए असंखे० गुणवड्डि-हाणि प्रयत० जह० एगसमओ, उक० संखे० समया । सेमपदा से समग्गणाओ च विहत्तिभंगो | एवं जाव० । " $ ५१४. अंतरा० दुविहो णि० - ओघेण मदेसे० । श्रघेण विहसिभंगो । वर असंखे० गुणवड अवत० जह० एयस० उक० वास धत्तं । मणुसतिए वित्तिभंगो सरह एस० उ० वासपुधतं । सेसगइसुविधिसागर जी महाराज मग्गणासु वित्तिभंगो । एवं जाव० । 1 : ५१५. भावाणु० सव्त्रत्थ मोदओ भावो । $ ५१६. अप्पाच हुआ णु० दुविहो खि० - ओषेण आदेसे० । श्रघेण सव्वत्थो ० 1 । असंख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्यस्थितिके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गरणा तक जानना चाहिए। ६५१३. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है --- ओध और आदेश । श्रोसे असंख्यास भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितस्थितिके उदीरक जीवोंका काल सर्वदा है। दो वृद्धि और दो हानिरूप स्थितियोंक उदीरक जीवोंका जयन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यात भागप्रमाण है। असंख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणहानि और अव्यस्थितिके उदीरक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । मनुष्यत्रिक में असंख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात गुणहानि और ratoस्थितिके उदीरक जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। शेष पद और मार्गरणाओंका भंग स्थितिविभक्तिके समान है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ ५१४. अन्तरानुगम की अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- आंध और आदेश | ओषसे स्थितिविभक्तिके समान भंग है । इतनी विशेपता है कि असंख्यात गुणवृद्धि और भवक्तव्यस्थिति के उदीरक जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्वप्रमाण है | मनुष्यत्रिमें स्थितिविभक्तिके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि असंख्यात गुणवृद्धि और अवक्तव्यस्थितिके उदीरक जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। शेष गतिमार्गणाओं में स्थितिविभक्तिके समान भंग है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । १५१५. भावानुगमकी अपेक्षा सर्वत्र औदयिक भाव है । $ ५१६. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-प्रोध और आदेश । -- Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ गा० ६२] उत्तरपडिउदहारणाए ठाणाणं भुजगारपरूषणा अवत्त उदीर० । असंखे गुणवडिउदीर० संखेगुणा । असंखे० गुणहाणिउदी० मंखे०गुणा । संग्वे गुणहा० असंखेगुणा। संखे०भागहा० संखे०गुणा । संखे० गुणवडि. असंखे०गुणा । संखे भागवडि० संखे गुणा । असंखे भागवडि० अणंतगुणा । अवडि० असंखे गुणा । असंखे०भागहा० संखे०गुणा । सेसमग्गणासु वित्तिभंगो । णवरि मणुमतिए सबथो० अवत्त० । असंखे०गुणववि० संखे गुणा । असंखे०गुणहाणि० संखे गुणा । सेसपदासांदविहत्तिमंगोचार्य श्री सुविधासागर जी महाराज एवं बड्डी समत्ता। ३५१७. एस्थ द्वाणपत्रणे क्रीरमाणे द्विदिसंक्रमभंगो । ___ एवं मूलपयडिटिदिउदीरणा समत्ता । ६५१८. एत्तो उत्तरपयडिविदिउदीरणा । तत्थ इमाणि चउवीसमणिोगदाराणि अद्धाच्छेदो जाव अप्पाबहुए ति भुजगार-पदणिक्खेव-वडिउदीरणा च । श्रद्धाछेदो दुविहो-जह० उक० । उकस्से पयदं । दुविहो णि-ओघेण श्रादेसेण य। ओषेण मिच्छ० उक्कस्सिया टिदिउदीरणा सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीनो दोहिं ओघसे प्रवक्तव्यस्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक है। उनसे असंख्यात गुणवृद्धिस्थितिके ने उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यात गुणहानिस्थितिके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यात गुणहानिस्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। जनसे संख्यात भागहानिस्थितिके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यात गुणद्धिस्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यात भागवृद्धिस्थितिके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। पुनसे असंख्यात भागवृद्धिस्थितिके उदीरक जीव अनन्तगुणे हैं। उनसे अवस्थितस्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यात भागहानिस्थितिके उदीरक जीव संख्यातगुरणे हैं। शेष मार्गणाओंमें स्थितिविभक्तिके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिकमें प्रवक्तव्यस्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे असंख्यात गुणवृद्धिस्थितिके उदीरक जीत्र संख्यातगुणे है। उनसे असंख्यात गुणहानिस्थितिके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। शेष पदोंका भंग स्थितिविभक्तिके समान है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। इसप्रकार वृद्धि समाप्त हुई। ६५१७. यहाँ पर स्थानप्ररूपणा करनेपर उसका भंग स्थितिसंक्रमके समान है। इसप्रकार मूलप्रकृतिस्थितिउदीरणा समाप्त हुई। ५८. आगे उत्तरप्रकृतिस्थिति उदीरणाका प्रकरण है। उसमें ये चौबीस अनुबोगद्वार ई-अद्धाच्छेदसे लेकर अल्पबहुत्व सक तथा भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धिउदीरणा । अक्षाच्छेद दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओंघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा दो श्रावलि फम सप्तर Xn. Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ जयघषलासहिये कमायपाहुडे [ वेदगो श्रावलियाहि ऊणाओ। मम्म०-सम्मामि० उक्क ० द्विदिउदी. सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ अंतीमुहत्तृणाश्रो। सोलसक० उक्क • द्विदिउदी. चत्तालीसंसागरो० कोड़ाकोडीअो दोहिं आवलियाहि ऊगाओ ! सोसायष्टिविविधीलावतालीमसाज कोडा. तीहिं प्रावलियाहि ऊणाओ । एवं सब्बणेरइय० । णवरि इथिवेद-पुरिसवेद० दीरणा गस्थि । ५१९. तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खतिए ओघं । णवरि पन० इथिवेद उदी० णस्थि | जोणिणीसु पुरिस०-णgम. उदी० णस्थि । पंचिंतिरि० अएज० मणसअपज० मिच्छ.सोलमक०-सत्तणोक. उक० द्विदिउदी० मत्तरि-चत्तालीसंसागरोकोडा० अंतोमुहृत्तणाओ । मसतिए पंचिंदियतिरिक्खनियभंगो । देवाणमोघं । पवरि णयुस० उदीरणा गस्थि । एवं भवण-वाण-०-जोदिसि०-सोहम्मीसाणा त्ति । सणकुमारादि सहस्सारा ति एवं चेव । णवरि इस्थिवेद. उदी० पत्थि। प्राणदादि वगैवज्जा ति छुव्वीसं पयडीणं उक० द्विदिउदीर० अंनोकोडाकोडी | अणुदिसादि सन्चट्ठा ति सम्म०-वारसक०-सत्तणोक० उक० टिदिउदीरणा अंतोकोडाकोडी | एवं जाव० । ५२०. जहण्णाए पयदं । दुविहो णि-ओघेण आदेसेण य | ओघण - कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण है। सम्यक्त्र और सम्यस्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा अन्त- ....51 मुहूर्त कम सत्तर कोड़ाफोड़ी सागर है। सोलह कपायकी उत्कृष्ट स्थितिउदीपणा दो श्रावलि कम चालीस कोडाकोड़ी सागर है। मी नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति उदोरणा तीन श्रावलि कम चालीस कोड़ाकोड़ी सागर है। इसीप्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उदीरणा नहीं है। ६५१६. तिर्यश्च और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिको पोषके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि पचेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त कामें स्त्रीवेद की उदारणा नहीं है। तथा पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनियों में पुरुषवेद और स्त्रीवेदकी जदीरणा नहीं है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त कामें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंको उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा अन्नमुहूर्त कम सत्तर और चालीस कोड़ाफोड़ी सागर है। मनुष्यत्रिको पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकके समान भंग है। देवोंमें ओपके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि देवीमें नपुंसकवेदकी उदीरणा नहीं है। इसीप्रकार भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिषी तथा सौधर्म और ऐशान कल्पके देवों में जानना चाहिए। सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें इसीप्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेदकी उदीरणा नहीं है। प्रानतकल्पसे लेकर नौ अवेयक तकके देवोंमें २६ प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा अन्तःकाडाकाडोप्रमाण है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण है। इसीप्रकार अमाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। १५२०, जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-प्रोध और प्रादेश। ओघसे Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... मा० ६२ ] उत्तरपयडिट्टिदीरणाए श्रद्धाच्छेदपरूवणा मिच्छ० सम्म० बसंजल० - तिरिणवेद० जह० डिदिउदी० एया हिंदी समयाहियाचलियदि । सम्मामि० जह० हिदिउदी० सागरोत्रमवतं । बारसक० - कृष्णोक० जड़ ० डिदिउदी ० सागरोस् चत्तारि सत्तभागा पलिदो ० श्रसंखे० भागेगा | १५२१. श्रादेसेण रइय० मिच्छ० सम्म० सम्मामि० श्रोषं । सोलसक०सत्तणोक० ६० जह० डिदिउदी० सागरोवमसहस्सस्स चत्तारि सतभागा पलिदो० संखे ०भागेगा | एवं पढमाए । विदियादि सत्तमा तिमिच्छ० श्रोषं । सम्म० सम्मामि० जह० डिदिउदीर० सागरोदमपुधनं । सोलसक० सत्तणोक० जह० डिदिउदी० अंतोकोडा० । ९५२२. तिरिक्खेषु मिच्छ० सम्म० सम्मामि० चषं । सोलसक० णवणोक ० जह० डिदिउदी० सागरो० चत्तारि सत्तभागा पलिदो० श्रसंखे० भागेण ऊणा । एवं पंचिदियतिरिक्खतिए । णवरि पज० इत्थिवेदो णत्थि । जोगिणी० पुरिस० स० णत्थि । सम्म० सम्मामि० भंगो | पंचिदियतिरिक्ख अपज० - मणुम अपज० मिल०सोलसक० सत्तणोक० जह० द्विदिउदी ० सागरोक्म० सत्त सत्तभागा चत्तारि सत्तभागा पलिदोवमस्सा संखे० भागेण दर्शक : :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ३५२३. मनुसतिए ओघं । णवरि पञ्ज० इस्थिवे० णत्थि । मपुसिणी ० मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, चार संज्वलन और तीन वेदको जघन्य स्थितिउदीरणा एक समय अधिक 'एक अवलिप्रमाण स्थितिके रहनेपर एक स्थिति है । सम्यग्मिध्यात्वकी जघन्य स्थितिउदीरणा सागरपृथक्त्व प्रमाण है । धारह कषाय और छह नोकषायकी जघन्य स्थितिउदीरणा एक सागरकी चार बढ़े सात भागप्रमाण है जो कि पल्यका असंख्यातवां भाग कम है । ६५२१. आदेश से नारकियों में मिध्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग श्रधके समान है | सोलह कषाय और सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिउदीरणा एक सागरकी चार बटे सात भागप्रमाण हैं जो कि पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम है। इसीप्रकार प्रथम पृथिवीमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें मिथ्यात्वका भंग के समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मियात्वकी जघन्य स्थितिउदीरणा सागरपृथक्त्व प्रमाण है । सोलह कषाय और सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिउदीरणा अन्तःकोदाकोड़ी है। ९४२२ तिर्यश्चों में मिध्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वका भंग श्रोत्रके समान है । सोलह कषाय और नौ नोकपायोंकी जघन्य स्थितिउदीरणा एक सागरकी चार बढ़े सात भागप्रमाण है जो कि पल्या असंख्यातवाँ भाग कम है। इसीप्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यवत्रिक में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकों में स्त्रीवेदकी स्थितिउदीरणा नहीं है तथा योनिनी तिर्यों में पुरुषवेद और नपुंसकवे की स्थितिउदीरणा नहीं है । सम्यक्त्वक भंग सम्यग्मि ध्यात्व के समान है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यख अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिउदीरणा एक सागरकी क्रम से पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग कम सात बटे सात भागप्रमाण और पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम चार बटे साव भागप्रमाण है। २३३ - ६५२३. मनुष्यत्रिक में श्रोघके समान है। इतनी विशेषता है कि पर्याप्त कौमें स्त्रीवेदकी ३० Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेवगो. पुरिस०-णस. त्थि । देवाणं णारयभंगो । णवरि णवूम. णस्थि । एवं भवणावाण३० । रणवरि सम्म० सम्मामि भंगो। जोदिसि० मिच्छ-सम्म० सम्मामि० विदियपुढविभंगो। सोलसक-अहणोक. जह० द्विदिउदी. अंतोकोडाकोडी । एवं सोहम्मीसाणे । णवरि सम्म० ओघ । सणक्कुमारादि जाव णवगेवजा ति एवं चेव । पवरि सियदि परिवादी सविधादिसादि सघट्टा ति सम्म० ओघ । बारसक०. सत्तणोक० जह० विदिउदी० अंतोकोडाकोडि ति । एवं जाव० | 3 ५२४. सन्युदीर०-गोसब्बुदीर०-उक०-अणुक-जह०-अजह उदीर० मूलपयडिमंगो। ५२५. सादि-श्रणादि०-धुवक-अर्द्धवाणु० मिच्छ. उक्कल-अणुक०-जह• किं सादि०४ १ सादि-अधुवा । अज० किं सादि०४१ सादी अणादी धुवा अधुवा वा | सेसपयडीणमुक्क० अणुक० जह० अजह. किं सादि० ४ १ सादि-अधुवा । सेसगदीसु सन्त्रपय० उक्क० अणुक्क, जह• अजह. सादि-अधुवा० । स्थितिउदीरणा नहीं है। मनुष्यमियोंमें पुरुपवेद और नमुसकवेदकी स्थितिउदीरणा नहीं है। देवोंमें नारकियोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें नपुसकवेदकी स्थितितदीरणा नहीं है । इसीप्रकार भवनवासी और व्यन्तरोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। ज्योतिषियों में मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग दूसरी पृथिवीके समान हैं। सोलह कषाय और आठ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिउदीरणा अन्तःकोड़ाकोड़ी है। इसीप्रकार सौधर्म और ऐशानकल्पमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वका भंग श्रोधके समान है। इसीप्रकार सनत्कुमार कल्पसे लेकर नौवें प्रवेयक सकके देयों में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेदकी नदीरणा नहीं है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितफके देवोंमें सम्यक्त्वका भंग ओघके समान है। बारह कषाय और सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिउदीरणा अन्तःकोदाकोहीप्रमाण है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। १५२४. सर्व स्थितिजदीरणा, नोसर्व स्थिति उदारणा, उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा, मनुत्कृष्ट स्थिति उदीरणा, जघन्य स्थितिउदीरणा और अजघन्य स्थितिउदीरणाका भंग मूलप्रकृतिके समान है। ५२५. सादि, अनादि ध्रुव और अधुवानुगमकी अपेक्षा मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य स्थिति उदीरणा क्या सादि है, अनादि है, ध्रुव है या श्रध्रुव है ! सादि और अध्रुव है। अजघन्य स्थितिउदीरमा क्या सादि है, अनादि है, ध्रुव है या अध्रुव है ? सादि, अनादि ध्रुव और अध्रुव है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और मजघन्य स्थितिउदीरणा क्या सादि है, अनादि है, ध्रुय है या अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है। शेष गतियों में सब प्रकृसियोंकी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य स्थितिउदीरणा सादि और अध्र व है।। विशेषार्थ- ओघसे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणा कादाचित्क है तथा इसकी जघन्य स्थितिउदीरणा ऐसे जीवके होती है जो उपशमसम्यक्त्रके सन्मुख होकर एक समय अधिक एक श्रावलिप्रमाण स्थितिके शेष रहनेपर पावलिकी उपरिवनपर्ती प्रथम Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०६२ ] उत्तरपट्टि विषदीरणाए सामितं २३५ १५२६. सामित्तं दुहिं- जह० उक० | उकस्से पयदं । दुविहो णि०- - श्रघेण आदेसेण य । श्रोषेण मिच्छत्त-सोलसक० उक० डिदिउदी० कस्स १ अणद० मार्ग सिद्धि हि []त्रिक पावलियाद्वीदस्स । रावणोक० उक० डिदिउदी० कस्स ? अण्णद० मिच्छाइडि० उक० डिदि पडि च्छिदूगा लियादीदस्स | सम्म० उक० डिदिउदी० कस्स० १ अण्णद० जो पुण्यवेदगो मिच्छत्त० उक० हिदिं बंधिऊण अंतोमु० दिवादका सम्मतं पडिवण्णो तस्स विदियसमयसम्मास्मि । सम्मामि० करसडिदिउदी० कस्स ? अण्णद० स एव वेदयसम्माइट्ठी अंतमुत्तम चिऊ पढमसमयसम्ममाइको जादो, तस्स उक्क हिदिउदी० । एवं सच्चरणेग्ड्य०तिरिक्खपंचि०तिरिकखतिय सणुसतिय देवा जाव सहस्सार ति । वर अप्पप्पणी पडीश्रो जाणिदवाओ । ね , ० - मणुस अपज० १५२७. पंचि०तिरि० अपज ०मिच्छ० सोलसक० सत्तणोक० उक० डिदिउदी० कस्स १ अगद० मगुस्सस्स वा मणुसिणीए वा पंचि०तिरिक्ख Q - स्थितिकी उदरणा करता है, इसलिए ये तीनों स्थितिउदीरणा सादि और अध्रुव की है । किन्तु जघन्य स्थितिउदीरणा जघन्य स्थितिउदीरणा के पूर्व भी होती है और बादमें भी मिथ्यात्व गुणस्थानके प्राप्त होनेपर होती है, इसलिए इसे सादि आदि चारों प्रकारका कहा है । शेष प्रकृतियोंकी चारों प्रकारकी स्थितिउदीरणा अपने-अपने स्वामित्व के अनुसार कदाचित् ही होती है, इसलिए इन्हें सादि और अध्रुव कहा है। गतिमार्गणा के सब भेद सादि और ध्रुव हैं, इसलिए इनमें स्थितिउदीरणाके उत्कृष्टादि चारों भेदोंको सादि और अध्रुव कहा है। इसीप्रकार अन्य मार्गणाश्रमें विचार कर घटित कर लेना चाहिए । ६५२६. स्वामित्व दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट | उत्कृटका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - और आदेश । श्रघसे मिध्यात्व और सोलह कपायको उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा किसके होती है ? जिस अन्यतर मिध्यादृष्टिको उत्कृष्ट स्थिति बाँधकर एक आवलि काल व्यतीत हुआ है उसके होती है। नौ नोकवायोंकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा किसके होती है ? जिस मिध्यादृष्टिको कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका नौ नोकपायोंमें संक्रमण करनेके बाद एक आवलि काल गया है उसके होती है। सम्यक्त्वक उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा किसके होती है ? पूर्व में वेदकसम्यक्त्व प्राप्त कर चुके हुए जिस मिध्यादृष्टि जीवने मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति बांधकर और स्थितिघात किये बिना अन्तर्मुहूर्त में वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त किया है उस द्वितीय समग्रवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टिके सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा होती है । सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा किसके होती है ? अभ्यंतर बड़ी वेदकसम्यग्दृष्टि जीव अन्तर्मुहूर्त रहकर सम्यग्मिध्यादृष्टि हो गया, प्रथम समयवर्ती उस सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा होती हैं । इसीप्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यञ्ज, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक, मनुष्यत्रिक और सामान्य देवोंसे लेकर सहचार कल्पतकके देवमिं जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी प्रकृतियां जानना चाहिए । १५२७ पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकाम मिध्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकपायोंको उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा किसके होनी है ? अन्यतर जो मनुष्य Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ जोणिणीयस्स वा उक्कस्सट्ठिदि बंधिऊण अंतोमुहुतं द्विदिधादमकादूण अपक्ष एसु उत्रवण्णल्लयस्स तस्स पढमसमय उबवण्णल्ल यस्स उक्क० द्विदिउदी० । ६५२८. आणदादि एवमेवजा चि मि० मोलसक०-सन गोक० उक० डिदिउदी० कस्स ? अण्ण० दव्यलिंगी तप्पा योग्गुकस्सट्टि दिसंतकम्मिश्र पदमसमयउववरणलगो तस्स | वरि अरदि- सोग० तो मुहुत्त उवण्णल्लगो तस्स उक० द्विदिउदी० | सम्म उक्क० हिंदिउदी० कस्स १ अण्णद० तप्पाचग्गुकरसडिदिसंतकम्मि० वेदयसम्म इडि० पढमसमयउबवण्णल्लयस्थ । तस्सेवतोमुहुत्तेण सम्मामिच्छतं पडिवरणस्स पढमसमयसम्म मिच्छाइट्ठिस्स सम्मामि० उक० द्विदिउदी० । अदिसादि सट्टा चि सम्म० बारसक० - सत्तलोक० उक० इिंदिउदी० कस्स ? अण्णद० वेदयसम्माइट्ठी तप्पाश्रग्गक० द्विदिसंतकम्भि० पदमसमयउबवण्णल्लगो तस्स उक्क० डिदिउदी० | वरि अरदि-सोग० अंतोमुहुत्तोववरणल्लयस्स । एवं जात्र० | ५२९ जण पदं । दुवि। साईसी आषण श्री श्रीराज मिच्छ० जह० डिदिउदी० करम १ ऋणद० मिच्छाइट्ठिस्स उवसमसम्मत्ता हिमुहस्स समयाहियावलियगढमहिदिउदीग्गस्स तस्स जह० डिदिउदी ● G सम्म० जह० हिदिया मनुष्यनी या पचेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिवाला जीव उत्कृष्ट स्थिति बांधकर स्थितिघात किये बिना अन्तर्मुहूर्त में उक्त अपर्याप्तकों में मरकर उत्पन्न हुआ है उसके वहाँ उत्पन्न होनेके प्रथम समय में उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा होती है । साग ६५२८. नत कल्पसे लेकर नी मैवेयक तकके देवोंमें मिध्यात्व, सोलह कषाय और सात नाकषायों की उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा किसके होती है ? अन्यतर तत्मायोग्य उत्कृष्ट स्थिति सत्कर्मवाला जो द्रव्यलिंगी मरकर उक्त देवोंमें उत्पन्न हुआ है उसके वहाँ उत्पन्न होनेके प्रथम समय में उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा होती है। इतनी विशेषता है कि जिसे वहां उत्पन्न हुए अन्तर्मुहूर्त हुआ है उसके भरति और शोककी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा होती है | सम्यक्त्वका उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा किसके होती है ? तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मवाला जो वेदकसम्यन्द्रष्टि जीव मरकर वहां उत्पन्न हुआ है उसके वहां उत्पन्न होनेके प्रथम समय में सम्यक्त्वक उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा होती है । उसीके अन्तर्मुहूर्त में सम्यग्मिध्यात्वको प्राप्त होने पर प्रथम समयवर्ती उस सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवके सम्यग्मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा होती है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धिन के देवो में सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिदीरणा किसके होती है ? तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थिति सत्कर्मवाला अन्यतर जो वेदकसम्यग्दृष्टि जीव मरकर उक्त देवोंमें उत्पन्न हुआ है उसके यहाँ उत्पन्न होनेके प्रथम समय में उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा होती हैं। इतनी विशेषता है कि जिस उक्त जीवको वहाँ उत्पन्न हुए अन्तर्मुहूर्त काल गया है उसके अरति और शोककी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा होती है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ६५२६. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है— श्रोध और आदेश | ओघ मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिउदीरणा किसके होती है ? उपशमसम्यक्त्वके श्रभिमुख श्रन्यतर जो मिध्यादृष्टि जीव मिध्यात्वकी प्रथम स्थितिकी एक समय अधिक एक आवलि स्थिति शेष २३६ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] अत्तरपडिद्विविउवीरणाए सामित्तं २३७ उदी० कस्स ? अण्णद० दसणमोहक्खवयस्स समयाहियावलियउदीरगस्स । सम्मामि० जह. द्विदिउदी० कस्म ? अण्णद० जो मिच्छाइट्ठी वेदगपाओग्गजहण्णविदिसंतऋम्मिश्रो सम्मामि० पडिवपणो अंतीमुहत्तं विगई सम्मामिच्छत्तद्धमणुपालिय चरिमसमयसम्मामिच्छाइद्विस्व तस्स जह० द्विदिउदी० । वारसक० जह० दिदिउदी० कस्स ? अण्णद्० बादरेइंदियस्स हदसमुप्पत्तियस्स जावदि सकं ताव संतकम्मस्स हेट्ठा बंधिद्ण समद्विदि वा वंधिदरग संतकम्म बोलेग वा प्रावलियादीदस्स । एवं भय-दुगुंछा० । णवरि वेआपलिपादीदस्स तस्स जह० । हस्स-रदि-अरदि-सोग० जह० द्विदिउदी० कस्स ? अण्णद० जो बादरेइंदियपच्छायदो हदसमुप्पत्तियो सण्णिपंचिंदिगपञ्जत्तएसु उबवण्णो तस्स अंतोषबुलुकवष्णलावसमाजविनिदिदी हातिण्हं वेदाणं जहर द्विदिउदी० कस्स ? अण्णद० उपसामगो खबगो वा अप्पप्पणो वेदेण सेढिमारूढो समयाहियावलियं उदीरेमाणयस्स तस्स जह० । चदुसंज० जह० डिदिउदीर० कस्स ? अण्णद० उक्सामगरस वा खवगस्स वा अप्पप्पणों कसाएहिं सेढिमारूढस्स समयाहियावलियउदी तस्स जहः ।। रहनेपर प्रथम उपरितन ) स्थितिकी उदीरणा करता है उसके जघन्य स्थितिउदीरणा होती है। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिउदीरणा किसके होती है ? दर्शनमोहनीयको क्षपणा करनेवाला जो अन्यसर कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्वकी एक समय अधिक एक आवलि स्थिति शेष रहनेपर उपरितन एक स्थितिकी उदीरणा करता है उसके जघन्य स्थिति उदीरणा होती है। सम्यस्मिथ्यात्वी जघन्य स्थिति उदारणा किसके होती है ? वेदकप्रायोग्य जघन्य स्थितिसत्कर्मवाले जिस अन्यतर मिथ्यादृष्टि जीवको सभ्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुए उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल गया है, सम्यग्मिध्यात्वके कालका पालन करनेवाले उस सम्यग्मिध्याष्ट्रि जीवके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट स्थिति उतरणा हाती है। बारह पायकी जघन्य स्थिति उदीरणा किसके होती है ? इतसमुत्पत्तिक जिस अन्यतर पादर एकेन्द्रिय जीवने जमतक शक्य है तबतक सत्कर्मसे कम स्थितिका बन्ध किया है या समान स्थितिका बन्ध किया है, या सत्कर्मको बिताकर जिसे एक श्रावलि गया है उसके जघन्य स्थिति उदीरणा होती है। इसीप्रकार भय और जुगुप्साके विपमें जानना चाहिए । इतना विशेषता है कि जिसे दो पावलि काल गया है उसके भय और जुगुप्ताकी जयन्य स्थितिजदीरणा होती है। हास्य, रति, अरति और शोककी जघन्य स्थितिउदारणा किसके होती है ? जो अन्यतर इतसमुत्पत्तिक बादर एकेन्द्रियों से आकर संज्ञी पञ्चेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुया है उसके वहाँ उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहूर्तके अन्तमें उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिउदीरणा होती है। तीन वेदोंकी जघन्य स्थिति उदीरणा किसके होती है ? जो उपशामक या क्षपक अपने-अपने वेदसं श्रेणिपर आरूढ़ हुआ है, प्रथम स्थिति में एक समय अधिक एक प्रावलि स्थितिके शेष रहनेपर उपरितन स्थितिकी उदीरणा करनेवाले उसके उक्त वेदोंकी जघन्य स्थिति उदारणा होती है। चार संज्वलनकी जघन्य स्थितिउदीरणा किसके होती है ? जो उपशामक या ज्ञपक अपनी-अपनी कषायसे श्रेणिपर श्रारूढ़ हुआ है, प्रथम स्थिति में एक समय अधिक एक पावलि स्थितिके शेष रहनेपर उपरितन स्थितिकी उदारणा करनेवाले उसके चार संज्वलनकी जघन्य स्थिति उदीरणा होती है। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ जापही अयधवलासहिदे कसायपाहुई [ वेदगो ५३०. प्रादेसे. ऐरइय. मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि. ओघं । सोलसक०भय-दुगुंछ० जह० ट्ठिदिउदी० कस्म ? अएणद० असण्णिपच्छायदहदसमुत्पत्ति यस्स दुसमयाहियावलियउववष्णन्लयस्म तस्म जह० । पंचोका जह० ट्ठिदिउदी० कस्म ? अण्णद० असणिणपच्छायद हदसमुप्पत्तियस्म अंतोमुहत्तादीदस्म तस्म जह० द्विदिउदी० । एवं पढमाए । त्रिदियादि जाच सत्तमा ति द्विदिसंकमभंगो । गरि मिच्छसम्मामि पढमपुढविभंगो । सम्म० जह० डिदिउदी० कस्म ? अण्णद. वेदगसम्मत्तपाओग्गजका दिद्धिसंतरिक्ष अम्मारिणो तस्य पढमसमयवेदयसम्माइडिस्म । अणंताणु०४ जह० डिदिउदी० कस्स ? अण्णद दीहाउढिदिगसु उववजिऊण अंनोमहत्तण सम्म पडिवण्णो अणंताणु० चउक विसंजोए दण थोबायसेसे जीविदम्बए ति मिच्छत्तं गदो जाय सकं मनकम्मस्म हेट्ठा बंधिदरण समद्विदि वा बंधिदण संतकम्म था बोलेद्ण श्रावलियादीदस्स तम्स जह० । ५३१. सव्यतिरिक्खेसु अप्पप्पणो द्विदिसंकमभंगी । णवरि दसणनिय-अणंताणु०४ अोघं । पंचिंदियनिरिक्खतिए अणंनाणु०४ अपनखाणभंगो । गवरि जोणिणासु सम्म• विदियपुढविभंगो। पंचि तिरि अपज मणुसअपज. जाओ ६५३०. आदेशसे नारकियाम मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग श्रोधफे समान है। सोलह कयाय, भय और जुगुप्साका जघन्य स्थिति उदारणा किसके होनी है ! जिस हतसमुत्पत्तिक जीवको असंज्ञियांमसे आकर दो समय अधिक एक श्रावलि काल गया है उसके जघन्य स्थिति दारणाती है। पांच नोकपायोंकी जघन्य स्थितिउदीरणा किसके होती है? जिस हतसमुत्पत्तिक जीवका प्रसंझियासे श्राकर अन्तमुहत काल अतीन छपा है उसके जघन्य स्थिति उदारण होती है। इसीप्रकार प्रथम पृथिवीमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सानवीं पृथिवीतकके नारकियोंमें स्थितिसंकमके समान भंग है। इननी विशंपता है कि इनमें मिथ्याव और सम्यग्मिाका भंग प्रथम पृथिवीं के समान है। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिउदोरणा किसके होती है ? वेदकसम्यक्त्वके योग्य जघन्य स्थितिसत्कर्मवाला जो अन्यतर जीव सम्यक्त्यको प्राप्त हुश्रा उस प्रथम समयवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टि जीवके जघन्य स्थितिउदीरणा होती है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य स्थिति उदीरण। किसके हानी है ? जो अन्यत्तर दीर्घ श्रायुस्थितिबाले जाबोंमें उत्पन्न होकर अन्तर्मुहर्तमें सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। फिर अनन्तानुबन्धी चतुष्फी विसयोजना कर जीवितके थोड़ा शेष रहने पर मिथ्यात्वको प्राप्त हुश्रा और जवतक शक्य है तबतक सत्कर्मसे नीचे स्थितिका बन्ध कर या समान स्थितिका बन्ध कर या सत्कर्मको बिताकर एक श्रावलि अतीत हुए उस जीवके जघन्य स्थितिउदीरण होती है। ६५२१. सब तिर्यम्चा में अपने-अपने स्थितिसंक्रमक समान भंग है। इतनी विशेषना है कि दर्शनमहिनीयकी नीन श्री अनन्नानुवन्धी वनुष्कका भंग मायके ममान है। पञ्चेन्द्रिय नियञ्चत्रिसमे अनानुन्धीयतुल्क का भंग श्रप्रत्याख्यानक समान है। इननी विशेषता है कि यानिनियाम सम्यक्त्व का भंग दुमरी पृथिवीके समान है। पन्द्रिय निगश्च पर्याम भीर Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गो० ६२ ] उत्तरपडणार सामित्तं २३८ पडीओ अस्थि नासि द्विदिसंक्रमभंगो । मणुसतिए जाओ पयडीओ अस्थि तारिमोघं । एवरि बारसक० मय- दुगुंद्र० जह० हिदिउदी - करम ? अण्णद० बादरेइंदियपच्छायदहदसमुष्पत्तियस्स आवलियउवण्णल्लयस्य तस्स जह० । हस्त-रदि- अरदिसोग० तस्सेव पर अनोमुत्तुववल्लयस्य । ५३२. देवां णारयभंगो । वरि इत्थवे० - पुरिसवे० - हस्सनइ श्ररइ सोग० असष्णिपच्छायदहदसमुत्पत्तियस्स अंतो मुहुत्तु ववष्णल्लयम्स । एवं भवण० - त्राणवें । वरि सम्म० विदियपुढविभंगो । जोदिसि बिदियपुढविभंगो | णवरि एवं सयं छंडेऊण इत्थवेदे पुरिसवेदे भारिणदयं । C $ ५३३. सोहम्म० जाव सहस्सार चि दंसणतियमोघं । अरांता ०४ विदियपुढविभंगो | वारसक० सत्तणोक० जह० डिदिउदी० कस्स ? अण्णद० जो खड़यसम्माडी उसम सेढिपद्रापदो दीहाए आउट्ठदीए उबवण्णो तस्स चरिमसमयणिष्पिदमाणस जह० हिदिउदी० । वरि सोहम्मीसारखे इत्थिचे० जह० डिदिउदी० कस्स ? जो पणवणं पलिदोवमिसु उपाय अंतोमुत्र शिंबाणु ०चटकं विसंजोएदृण चरिमसमयणिप्पिदमारायस्स तस्स जह० । उवरि इथिवे ० मनुष्य पर्यातकों में जो प्रकृतियाँ हैं उनका भंग स्थितिसंक्रमके समान है। मनुष्यत्रिक में जो प्रकृतियाँ हैं उनका भंग ओके समान है। इतनी विशेषता है कि बारह कपाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिउदीरणा किसके होती है ? जिसे अन्यतर हृतसमुत्पत्तिक बादर एकेन्द्रियोंमें से आकर उत्पन्न हुए एक आवलि काल हुआ है उसके जघन्य स्थितिउदीरणा होती है। तथा उसके पर्याप्तकों में उत्पन्न हुए अन्तर्मुहूर्त होनेपर हास्य, रति, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिउदीरणा होती है । ६५३२. देवोंका भंग नारकियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य रति, अरति और शोककी जघन्य स्थितिउदीरणा जिसे इनसमुत्पत्तिक असंज्ञियोंमेंसे आकर उत्पन्न हुए अन्तर्मुहूर्त हुआ है उसके हाती है। इसीप्रकार Hai और व्यन्तर देवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वका भंग द्वितीय पृथिवीके समान है । ज्योतिषी देवों में दूसरी पृथिवी के समान भंग है। इतनी विशेषता है कि नपुंसकचेदको छोड़कर स्त्रोवेद और पुरुषवेद कहलाना चाहिए । ५३३. सौधर्मकल्प से लेकर सहस्रार कल्पतकके देवों में दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियों का भंग श्रोघके समान है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग दूसरी पृथिवीके समान है । बारह कषाय और सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिउदीरणा किसके होती है ? जो अन्यतर क्षायिक सम्यम्द्रष्टि जीव उपशमश्रेणिले पीछे आकर दीर्घ चास्थितिवाले उक्त देवों में उत्पन्न हुआ उसके वहाँसे निकलते हुए अन्तिम समयमें जघन्य स्थितिउदीरणा होती है। इतनी विशेषता है कि सौधर्म और ऐशानकल्पमें स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिउदीरणा किसके होती है ? जो पचवन पन्याले स्त्रीवेदियों में उत्पन्न हुआ, पुनः अन्तर्मुहूर्त में सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ, पुनः अनन्तानुबन्धचतुष्क की विसंयोजना करके वहाँ से निकलनेके अन्तिम समयमें स्थित है उसके Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ गस्थि । अागदादि णवगेवला त्ति सणकुमारभंगो। णयरि अणंताणु०४ जह० हिदिउदी० कस्स ? अण्णद. जो वेदयसम्माइट्ठी चउवीससंतकम्मिो उकस्साउद्विदीए उबवण्णो मिच्छत्तं गंतूण अणंताणु०४ संजोजित्ता चरिमसमयणिप्पिदमाणयस्स तस्स जह० द्विदिउदी० । अणुदिसादि सव्वट्ठा त्ति सम्म बारसक-मत्तणोक० आणदभंगो । एवं जाव० । ५३४. कालाणु० दुविहो णि०--जह० उक्क० । उकस्से पयदं । दुविहो णि-ओघेण आदेसेण य । अोघेण मिच्छ० उक्क० द्विदिउदी० जह० एगस०, मर्यानंतोमुभानामछिजिएट अतोमुहान उक्क. अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । सम्म० उक्क० द्विदिउदी० जह० उक्क० एयस० । अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० छावहिसागरोवमाणि देसूणाणि । सम्मामि० उक० विदिउदी० जह. उक्क० एयस० । अणुक० जह० उक० अंतोमु० । सोलसक०-भय-दुगुंछ ० उक्क० अणुक्क० जह० एगसमो, उक्क० अंतोमु० । इत्थिवेद-परिसवेद० उक्क० हिदिउदो० जह० एस०, उक्क० श्रावलिया० । अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० पलिदोयमसदपुधत्तं सागरोवमसदपुधत्तं । हस्स-रदि० उ० द्विदिउदी० जह• एयस०, उक्क० जघन्य स्थिति उदीरणा होती है। इन दोनों फल्पोंके ऊपर स्लोवेदकी उदीरणा नहीं है। श्रानत कल्पसे लेकर नौ चेयक तकके देवामें सनत्कुमार कल्पके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कफी जघन्य स्थिति उदारणा किसके होती है ? जो अन्यतर चौबीस कर्मों की सत्तावाला वेदकसम्यग्दृष्टि जीव उत्कृष्ट मास्थितिवालोंमें उत्पन्न हो और मिथ्यास्त्रमें जाकर तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्कका संयोजन कर वहांसे निकलनेके अन्तिम समयमें स्थित होता है उसके जघन्य स्थिति उदीरणा होती है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवा में सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकपायोंका भंग आनत कल्पके समान है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ५४. कालानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । श्रोघसे मिथ्यात्वी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थिनिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समर है। अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागरप्रमाण है। सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट स्थितिउदोरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सोलह कषाय, भय और जुगुप्ताकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहत है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थिति नदीरणा का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल एक प्रावलि है। अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल क्रमसे सौ पृथक्त्त पल्यप्रमाण और सौ पृथत सागरप्रमाण है। हास्य और रतिकी उत्कृष्ट स्थिति उदार|का जघन्य काल एक समय है और Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज उत्तरपयडिहिदिउदीरणाए एयजीवेण कालो आवलिया० । अणुक्क० जह० एयस, उक्क० छम्मासं । अरदि-सोग०-णमय. उक० हिदिदी० जह• एयस०, उक० अंतोमु० । अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि । वरि पस० अणंतकालमसंखेन्पो परियट्ट । -------...-...----- -- ----- उत्कृष्ट काल एक पावलि है। अनुस्कृष्ट स्थिति उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल छह महीना है। अरनि, शोक और नपुसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जयन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त है। अनुरस्कृष्ट स्थितिउतीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। इतनी विशेषता है कि नपुसकवेदकी अमुत्कृष्ट स्थितिउदारणाका उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। विशेषार्थ...मिथ्यात्वी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहर्त तक होता है। इसीप्रकार इसकी अनुत्कृष्ट स्थितका बन्ध कमसे कम अन्तर्मुहूर्त तक और अधिकसे अधिक अनन्त काल तक होता है। इसीसे इसकी उत्कृष्ट स्थितिबदीर शाका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त तथा अनुत्कृष्ट स्थितिदीरणाका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गलपरिवर्सनप्रमाण अनन्त काल कहा है। जो मिथ्यात्यकी उत्कृष्ट स्थिति बाँधकर अन्तर्मुहूर्तमें स्थितिघात किये बिना वेद फसम्यग्दृष्टि हुआ है उसके संक्रमविधानसे दूसरे समयमें सम्यक्त्वको उत्कृष्ट स्थिति नदीरणा होती है, इसलिए इसकी उत्कृष्ट स्थिति दीररणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा ऐसे जीवके प्रथम समयमै अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरणा होती है इसलिए इसकी अनुत्कृष्ट स्थिति दीरणाका जघन्य काल एक समय कहा है और वेदकसम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागर है, इसलिए इसकी अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागर कहा है ? सभ्यग्मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिउदीगण अपने स्वामित्वके अनुसार सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान के प्राप्त होने के प्रथम समयमें होती है, इसलिए इसकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका जन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्पृष्ट काल अन्तमुहर्त है यह स्पष्ट ही है। सोलह कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य बन्ध काल एक समय और उत्कृष्ट बन्ध काल अन्तमुहूर्त है, इसलिए तो इनकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। भय, जुगुप्सा ये संक्रमसे उत्कृष्ट स्थितिवाली प्रकृतियां हैं, इसलिए इनकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण बन जानेसे यह भी उक्त प्रमाण कहा है। किन्तु सोलह कषाय तथा भव और जुगुप्साको उदय उदीरणाका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होने से इनका अनुत्कृष्ट स्थिति उदारणाका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। यह जघन्य काल ऐसे कि किसी जीवने एक समय तक काधकी अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरणा की और दूसरे समय में मानकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदारणा करने लगा। इसीप्रकार भय और जुगुप्साका उक्त काल भी घटित कर लेना चाहिए । इनके निरन्तर उदय-नदीरणाका नियम भी नहीं है, इसलिए भी यह काल बन जाता है । कषायोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके समय स्त्रीवेद और पुरुपवेदका बन्ध नहीं होता, इसलिए इनकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल एक आवलि बन जानेसे यह तत्प्रमाण कहा है। इसीप्रकार हास्य और रतिकी उत्कृष्ट उदीरणाका काल घदित कर Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदयो ५३५. प्रादेसेण गैरइय० मिच्छ०-णवुस०-अरदि-सोग० उक्क० विदिउदी० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । सम्म० उक्क० द्विदिउदी० जह० टक्क० एयस० | अणुक० जह• एयस०, . उक्क० तेत्तीसं सागरोवमं देणं । सम्मामि०-सोलसक०-मय-दुगुंछा० अोघ । हस्स-रदि. उक्क द्विदिउदी० जह० एयस०, उक. आवलिया । अणुक्क० जह• एगस०, उक्क० अंतोमु । एवं सत्तमाए । एवं पढमाए जाव छट्टि त्ति | परि समद्विदी । अरदि. सोग० डक्क० अणुक० द्विदिउदी. जह० एयस०, उक्क० अंतोमु०। लेना चाहिए। इन चारों प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाके जघन्य और उत्कृष्ट कालका कथन सुगम है। मात्र स्त्रीवेद और पुरुषवेदका अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाके जघन्य कालके फथनमें जो विशेषतासिकागेअचानेशालेविधिमासिएशोकपीरमपुसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल भय-जुगुप्साके समान घदित कर लेना चाहिए | अरति और शोककी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय भी यथा सम्भव उसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए । अरति और शोककी अनुत्कृष्ट उदोरणाका उत्कृष्ट काल जो साधिक तेतीस सागर बतलाया है उसका कारण यह है कि नरकमें गमनके पूर्व इनकी उदीरणा होने लगी और वहां तेतीस सागर कालतक इनकी चदीरणा होती रही। इसप्रकार यह काल बन जाता है । जो जीव नपुसकवेदसे उपशमश्रेणिपर आरोहण कर उतरते समय । एक समय तक नपुंसकवेदका उदीरक हुआ और दूसरे समयमें मरकर देव हो गया उसके । नपुसकवेदकी अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका जपन्य काल एक समय प्राप्त होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। इसीप्रकार स्त्रीवेदकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका एक समय जघन्य काल घटित कर लेना चाहिए । मात्र पुरुषवेदका भवके अन्तिम समयमें एक समयके लिए अनुत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा कराकर यह काल लाना चाहिए। नपुसकवेद और स्त्रीवेदका यह काल इसप्रकार भी प्राप्त किया जा सकता है। एकेन्द्रियोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति अनन्त काल है, इसलिए इसकी मुख्यतासे नपुसकवेदकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट काल सत्प्रमाण १५३५. आदेशसे नारकियों में मिथ्यात्व, नपुसकवेद, अरति और शोककी उत्कृष्ट स्थितिउदौरणाका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका भंग ओघके समान है। हास्य और रतिको उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल एक श्रावलि है। अनुस्कृष्ट स्थिति उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूते है। इसीप्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए। इसीप्रकार पहली पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियोंमें जानना । चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। अरति और शोककी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जपन्य फाल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरपट्टि दिखाए एयजीवेण कालो २४३ ५३६. तिरिक्खेसु मिच्छ० स०] उक्क० डिदिउड़ी० ० जह० एयस०, उक्क० तोमु० 1 अणुक० जह० एयस०, उक्क० अनंतकालमसंखेआ पोग्गलपरियट्टा । सम्म० उक० डिदिउदी जह० उक० एयस० । अक० जह० एयस०, उक्क० विणि पलिदो० देसूरणाणि । सम्माम्मि० सोलसक० - लोक० पदमाए भंगो । इरिथवे०पुरिसवे० उक० हिदिउदी० श्राधं । अणुक० जह० एयस०, उक० तिष्णि पलिदो ० मोर्गदर्शक आचार्य श्री सुविधियामर जी महाराज पुण्वको डिपुत्तं । एवं पचिदियतिरिक्खनिए । गवार मिच्छे० के० जह० एयस०, उक्क० सगट्टिदी | णव सं० अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० पुन्नकोडि धत्तं । वरि प० इत्थवेद० उदी० णत्थि । जोणिणीसु पुरिस०- सउदी० पत्थि | गा० ६२ ] विशेषार्थ - इनके स्वामित्व में ओघसे कोई विशेषता नहीं हैं, इसलिए ओघ प्ररूपणा के स्पष्टीकरणको ध्यान में रखकर तथा ग्रहांकी अवस्थितिको ख्याल में रखकर यहाँ स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए। मात्र मिथ्यात्व और नपुंसकवेदका अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणा भवके अन्तिम समयमें कराने पर इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय प्राप्त करना चाहिए | प्रथमादि छह पृथिवियोंमें अरति और शोककी उदय उदीरणा अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक होती है, इसलिए यहां इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। इसीप्रकार आगे भी कालको घटित कर लेना चाहिए। यदि कहीं कोई विशेषता होगी तो उसका अलग से स्पष्टीकरण करेंगे । $५३६ तिर्योंमें मिध्यात्व और नपुंसकबंदकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका जघन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जो असंख्यात पुलपरिवर्तनप्रमाण है । सम्यक्त्वक उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है । सम्यग्मिध्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायों का भंग प्रथम पृथिवीके समान है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका भंग श्रोध के समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल तीन पल्य अधिक पूर्वकोटिथक्त्व प्रमाण है। इसी प्रकार परचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है । नपुंसक अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और कष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकों में स्त्रीचेदकी उदीरणा नहीं है । तथा योनिनियों में पुरुषवेद और नपुंसकवेदको उदीरणा नहीं है । विशेषार्थ - भोगभूमिमें नपुंसकवेदी तिर्यश्व और मनुष्य नहीं होते, अतः पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्यातकों में नपुंसकवेदको अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट काल मात्र पूर्व कोटिपृथक्त्वप्रमाण कहा है। यह विशेषता आगे भी यथायोग्य जान लेनी चाहिए। शेष कथन स्पष्ट ही है । १. ता०ती उक्क पुनको रिपुधत्तं इति पाठः । २. ताभ्यक्क० नपुस० इति पाठः । ३. ताप्रती उक्क० तिरिएपलिदो ० पुग्वको दिपुधत्तं इति पाठः । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ १५३७. पंचिं० तिरि०पत्र० मणुस श्रपञ० मिच्छ० स०] उक्क० जहष्णुक ० एयस० | श्रणुक० जह० खुद्दाभव० समऊणं, उक्क० अंतोमु० । सोलसक० छण्णोक० उक्क० हिदिउदी० जह० उक्क० एयस० । अणुक्क० जह० एयस०, उक० अंतो० । माणुसतिए पंचिदियतिरिक्वतियभंगो । २४४ ६५३८. देवेसु मिच्छ० उक्क० डिदिउदी० जह० एस० उक० अंतोमु० । अणुक० जह० एयस०, उक्क० एकतीस सागरो० । सम्म० उक० डिदिउदी० जह० उक्क० एस० । अणुक० जह० एयस०, उक्क० तेतीसं सागरोवमाणि । सम्मामि०सोलसक० - अरदि-सोग-भय-दुर्गुछा० पढमपुढविभंगो इस्थिवे० उक० जह० एयस०, उक्क० आवलिया | अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० पणवरणपलिदो० । पुरिसवेद० उक० ओषं । अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० तेत्तीस सागरो० । हस्स-रदि० उक्क भ हिदिउदी० श्रोषं । अणुक० जह० एयसमत्र, उक्क० छम्मासा | एवं भवणादि जात्र सहस्सार त्ति | णवरि सगहिदी । हस्स~रदि० णारयभंगो । सहस्सारे हस्स -रदि० ओधं । भवण० त्राण जोदिसि० इस्थिवे० उक्क० श्रोधं । शुक० जह० एयस०, उक १५३७. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च श्रपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मिध्यात्व और नपुंसक बेकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय कम समयमा श्रीमहाराज श्रन्तर्मुहूर्त है | सोलह कषाय और छह नोकपायोंकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। मनुष्यत्रिक पश्चेन्द्रिय तिर्यश्वत्रिक के समान भंग हूँ । I ६५३८. देवोंमें मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त हैं । अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जयन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल इकतीस सागर है । सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट स्थित उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस खागर है । सम्यग्मिध्यात्व, सोलह कपाय, रति, शोक, भय और जुगुप्साका भंग प्रथम पृथिवीके समान है। स्त्रीवेदी उत्कष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल एक श्रवलि है । अनुत्कृष्ट स्थिति उद्धरणका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पचवन पल्य हैं । पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका भंग के समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीस सागर है । हास्य और रविकी उत्कृष्ट स्थितिदीरणाका भंग योधके समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल छह महीना है । इसीप्रकार भवनवासियों से लेकर सहस्रार कल्पतक जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। तथा इनमें हास्य और रतिका भंग नारकियोंके समान है। सहस्रारमें हास्य और रतिका भंग के समान है । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिपी देवामें स्त्रीवेदक उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका भंग श्रधके समान हैं । अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२] उत्तरपछिडिदिउदीरणांए एयजीवेण कालो २४५ तिष्णि पलिदोवमाणि पलिदोवमसादिरेयाणि पलिदोवमसादिरे । सोहम्मीसाणे इत्थिवेद ० देवोघं । उवरि इस्थिवे० णस्थि । ५३९, आणदादि गवगेवजा ति मिच्छ० उक० द्विदिउदी. जह• उक्क० एयस० । अणु० जह० अंतोमु०, उक० समट्टिदी । सम्म० उक० द्विदिउदी० जहण्णु० एयस० । अणुक० जह• एयसमओ, उक० सगट्टिदी | सम्मामि० ओघ । सोलसक०छण्णोक० उक० द्विदिउदी० जपणुक० एयस० । अणुक० जह• एयस०, उक० अंतोमु०। पुरिमवेद० उक० द्विदिलदी० जहण्णुक एयस० | अणुक० जहएणुक०द्विदी। मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ६५४०. अणुदिसादि सव्वट्ठा त्ति सम्म० उक० द्विदिउदी० जह० उक्क. एयस० । अणुक० जह० एयस०, उक्क • मगदिदी । बारसक०-छराणोक उक्क० हिदिउदी० जह० उक्क० एयस० । अणुक० जह• एयस०, उक्क ० अंतोमु । पुरिसवे. उक० टिदिउदी० जहण्णुक० एयस० | आणुक० जहण्णुक • जहएणुकस्सहिदी । एवं जाव०। है और उत्कृष्ट काल क्रमसे तीन पत्य, साधिक एक पल्य और साधिक एक पल्य है। सौधर्म और ऐशानकल्पमें स्त्री वेदका भंग सामान्य देवोंके समान है। शागे स्त्रीवेदकी उदारणा नहीं है। ३५३६. अानतकल्पसे लेकर नौ प्रवेयकतकके देवामें मिथ्यात्वी उत्कृष्ट स्थिति उदारणाका जघन्ग और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्वकी उत्कृप स्थिविउदोरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यग्मध्यात्वका भंग आपके समान है। सोलह कपाय और छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिउदीर गणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रशारण है। ६५४८, अनुदिशसं लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सम्यक्त्वका उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। बारह फषाय और छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति दीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट स्थिति उदारपाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। पुरुपवेदकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट स्थितिरदारणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदेशेकवलासमवायसायाहवे। विधिसागर जी महाराज [ वेदगो ७ ६५४१. जह० पदं । दुबिहो णि० ओघेण आदेसेण य । श्रोषेण मिच्छ० जह० डिदिउदी० जह० उक्क० एयस० । अज० तिष्णि भंगा । तत्थ जो सो सादिश्रो सपज्जवसिदो तस्स जह० अंतोसु०, उक्क० श्रद्धपोग्गलपरियहं देखणं । सम्म० जह० डिदिउदी ● जहण्णु० एयस० । अज० जह० अंतो० उक० छावट्टिसागरोवमाणि देणाणि । सम्मामि० जह० डिदिउदी० जह० उक्क० एयस० । श्रज६० जह० उक० अंतोनु० [० | बारसक० -भय-दुर्गुछ० जह० अज० हिंदिउदी० जह० एयसमयो, उक० ० , तोमु० । चदुसंज० जह० हिदिउदी० जह० उक० एयस० । अज० जह० एस ०, उक्क० अंतोमुडुतं । इस्थिवे ० पुरिसवे० स० जह० डिदिउदी० जह० उक० एयस० । अज० जह० एयस०, पुरिसवे० अंतो० । उक्क० पलिदोव मसदपुधत्तं सागरोत्रमसदपुधसं अांतकालमसंखे० पोग्गल परियहं । इस्स नदि० जह० डिदिउदी ० जह० उक्क० एस० । श्रज० जह० एयस०, उक० धम्मासं । अरदि-सोग० जह० जह० उक० एयसमत्रो । अज० जह० एयस०, उक्क० तेचीसं सागरो० सादिरेयाणि । २४६ ९५४१. जघन्यक्का प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है -- ओघ और आदेश । श्रोषसे मिध्यात्वकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य स्थितिउदीरणा के तीन भंग है। उनमें से जो सादि- सपर्यति भंग है उसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त हैं और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुलपरिवर्तनप्रमाण है। सम्यक्त्वा जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य स्थितिउदीरणा का जधन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागर है । सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्व है। बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जवन्य और अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। चार संज्वलन की जघन्य स्थितिउदीरणका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य स्थितिउदीरणाका जवन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त हैं । स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक. बेदी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य स्थितिउदीरणाका अन्य काल एक समय है, पुरुषवेदका अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल क्रमसे सौ पृथक्त्व, सौ सागरपृथक्त्व तथा असंख्यात पुदल परिवर्तनप्रमाण अनन्त काल है | हास्य और रतिकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । श्रजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल छह महीना है। रति और शोककी जघन्य स्थिति उदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजयन्य स्थितिउदीरणा का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर हैं। विशेषार्थ — जो मिध्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्व के अभिमुख हो एक समय अधिक एक अवलिप्रमाण प्रथम स्थितिके रहनेपर उपरितन एक स्थितिकी उदीरणा करता है उसके मिध्यात्वकी जघन्य स्थितिउदीरणा मात्र एक समय तक प्राप्त होनेके कारण इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। इसकी अन्य स्थितिउदीरणाके तीन संग प्राप्त होते हैंअनादि-अनन्त, अनादि सान्त और सादि- सान्त | उनमें से खादि- सान्त भंगका जो जघन्य और Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उतरफ्यविद्विदिखदीरणाए एयजीवेण कालो २४७ ५४२. आदेसेण णेरड्य० मिच्छणस०-अरदि-मोग० जह० विदिउदी० जह उक • एयस० | अज० जह० अंतोमु०, अरदि-सोगे० जह• एयसमो , उक्क. तेत्तीसंदर्यामशेषमाणिव सम्मतिमिहामर ट्रिदिखाडामह० उक० एयस० । अज० जह० एयसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । सम्मामि० ओघं । सोलसक०-हस्सरदि-भय-दुगुंछा. जह• द्विदिउदी. जह० उक्क० एयसमझो। अज० जह० एयस०, उत्कृष्ट काल मूलमें बतलाया है वह सुगम है, क्योंकि जो सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्व में जाकर अन्तमुहूर्त कालतक मिथ्याष्ट्रि बना रहकर पुनः सम्यग्दृष्टि हो जाता है उसके मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है और जो अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण काल के शेष रहने पर सम्यग्दृष्टि होकर पुनः अन्तर्मुहूर्तमें मिथ्यादृष्टि हो जाता है और मुक्ति लाभ करनेके कुछ काल पूर्व सम्यग्दृष्टि होता है उसके मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण प्राप्त होता है। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिउदीरणा अपने स्वामित्वके अनुसार क्षायिक सम्यक्त्वको प्राप्त करते समय एक समय अधिक एक श्रावलिप्रमाण स्थितिके शेष रहनेपर एक समय तक उपरितन स्थितिकी होती है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा वेदकसम्यस्त्वक जघन्य और उत्कृष्ट कालको ध्यानमें रखकर इसकी अजघन्य स्थिति उदीरणाका जघन्य काल अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागर कहा है। अपने स्वामित्वके अनुसार सम्यग्मि. भयावक्री जघन्य स्थिति उदीरणा सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानके अन्तिम समयमें प्राप्त होती है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा इस गुणस्थानके जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्तको ध्यानमें रखकर इसकी अजधन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उस्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति उदारणाका जो स्वामित्व बतलाया है उस ध्यानमें रखकर इनकी जघन्य स्थितिउदारणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल घटित कर लेना चाहिए । अजघन्य स्थिति उदीरणाका काल सुगम है। कालका निर्देश मूलमें किया ही है। चार संज्वलनोंकी जघन्य स्थिति दोनों श्रेणियों में विवक्षित कषायसे चढ़े हुए जीवके एक समयतक होनी है, इसलिए इनकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। इनकी अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है यह स्पष्ट ही है। इसीप्रकार आगे भी स्वामित्वका विचारकर काल घटित कर लेना चाहिए । सुगम होनेसे पृथक पृथक स्पष्टीकरण नहीं किया। यही बात गतिमार्गणाके सब उत्तर भेदोंमें जाननी चाहिए । जहाँ कुछ विशेषता होगी उसका स्पष्टीकरण अलगसे करेंगे। ६५४२. श्रादेशसे नारकियों में मिथ्यात्व, नपुसकवेद, अरति और शोककी जघन्य स्थितिउनीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल पक समय है। अजघन्य स्थिति उतीरणाका मिथ्यात्व और नपुसकवेदकी अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त, भरति और शोककी अपेक्षा जघन्य काल एक समय तथा सबका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । सम्यत्वको जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य स्थिति उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। सभ्यग्मिध्यात्वका भंग प्रोधके समान है । सोलह कषाय. हास्य, रति, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति उदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट 1. ता०प्रसौ अंतोमु.। .."अरदि-सोग इति पाठः । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयघवला सहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो मार्गदर्शक अंतोसुकार्य श्री रगडिदी । अरदि-सोग० जह० विदिउदी ० जह० उक्क० एयस० । अज० जह० एस० उक० अंतो० । ९ ५४३. बिदियादि जाव छडि त्ति मिच्छ० जह० डिदिउदी० जह० उक्क० एस० । श्रज० जह० अंतोमु०, उक्क० सगट्ठिदी। सम्म० जह० जह० उक्क० एयसमो । अज० जह० तो, उक्क० सगहिदी देखला । सम्मामि० श्रोषं । वारसक०छष्णोक० जह० द्विदिउदी० जह० उक्क० एयस० । अज० जह० एस ०, उक्क० अंतोमु० । श्रताणु०४ जह० जह० डिदिउदी० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । ग स० जह० द्विदिउ० जह० उक्क० एस० । अज० जहष्णुक्क० जहष्णुक्कस्सहिदी भाणियन्त्रा । २४८ $ ५४४. सत्तमाए मिच्छत्त-एस० - अरदि सोग- सम्मामि० - हस्स-रदि० णिरयोगं । सम्म० जह० बिदिउदी० जह० उक्क० एस० । अज० जह० अंतामु०, उक्क० ". काल एक समय है । श्रजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार प्रथम पृथिवी में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी स्थिति कहनी चाहिए। अरति और शोककी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है विशेषार्थ - अरति और शोककी अजघन्थ स्थितिउदीरणा प्रथमादि छह पृथिवियोंमें अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त कालतक ही होती है। यही कारण है कि प्रथम पृथिवी में उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । : ४४३. दूसरीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियोंमें मिध्यात्वको जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है । सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य स्थितिउदीरणाका जवन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है । सम्यग्मिथ्यात्वका भंग श्रोध के समान है । बारह कपाय और छह नोकवायोंकी जघन्य स्थितिउराका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य स्थितिउदः रणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककां जघन्य और अजघन्य स्थितिउदीरण का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य स्थितिउदारणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहना चाहिए । विशेषार्थ - इन नारकियोंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कके स्वामित्वको ध्यानमें लेनेपर इनकी जघन्य स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बन जाता है, इसलिए यह उक्त कालप्रमाण कहा है। ५४४. सातवीं पृथिवीमै मिध्यात्व, नपुंसकवेद, अरति, शोक, सम्यग्मिथ्यात्व हास्य और रतिका भंग सामान्य नारकियोंके समान है । सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति का Cop Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. .. .. . .. u u u u .. .. . . .. .. .... ...., गा० ६२] उत्तरपयधिष्टिविउदारणाए एय जीवेण कालो तेतीसं माग० देसूपाणि । सोलसक०-भय-दुगुंछ० जह. अजह. विदिउदी० जह यस, उक० अंतोमु । ५४५, तिरिक्खेसु मिच्छ ०-णघुस जह, हिदिउदी० जह० उक० एयस० । अज० जह. खुद्दाभव०, उक्क० अणंतकालमसंखे०पोग्गलपरियट्टा । सम्म० जह० हिदिउदी० जह• उक्क० एयस० । अज० जह. एयस०, उक्क० तिपिण पलिदो. देसणाणि । सम्मामि०-सोलसक०-भय-दुगुंछाणं सत्तमपुढविभंगो । इत्यिवे०-पुरिसवे. जह० द्विदिउदीयाक उकाशयम सावजाग जाग्रतामु० पलिदो पुवकोडिपुत्तेणब्भहियाणि । हस्स-रदि-अरदि-सोग. जह० टिदिउदी० जह. उक्क० एयस० । अज० जह० एयस०, उक० अंतोमु० । १५४६. पंचिंदियतिरिक्खतिय० मिच्छ० जह० द्विदिउदी० जह• उक्क० एयस०, अज० जह० खुद्दाभव. अंतोमु०, इत्थिवेद-पुरिसवे. जह० द्विदिउदी० जह• उक्क० एयस०, अज० जह० अंतोमु०, उक्क० तिराई पि सगहिदी । सम्म०जधन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य स्थिति उदीरणाका जयन्य काल अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य स्थितिचीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ यहाँ सोलह फषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य स्थितिउदीरणाके जघन्य और उत्कृष्ट कालका खुलासा ओघको ध्यान में रखकर लेना चाहिए। ६५४५, तिर्थञ्चोंमें मिथ्यात्व और नपुसकवेदकी जन्य स्थितिउदारणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजधन्य स्थिति उदीरणका जघन्य काल हुल्लक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। सम्यक्त्वको जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्यप्रमाण है। सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका भंग सातवीं पृथिवी के समान है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य स्थिति उदारणाका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पूर्वकाटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। हास्य, रति, अरनि और शोकको जघन्य स्थितिउदारणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। विशेपार्थतियों में कुत्यकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव भी मरकर उत्पन्न होते हैं, इसलिए इनमें सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थिति उदीरणाका जघन्य काल एक समय बन जाता है। इसीप्रकार सामान्यसे नारकियों में और प्रथम पृथिवीमें भी जान लेना चाहिए। आगे भी यह विशेषता यथायोग्य समझ लेनी चाहिए। ५४६. पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकर्म मिध्यात्वकी जघन्य स्थिति उदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है, अजघन्य स्थिनिउदीरणाका जघन्य काल सामान्य पंचेन्द्रिय सियों में सुरक्षा भवप्राणप्रमाण और शेष घोमें अन्तमुहर्स है, स्त्रीवेद और और पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिउदारणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एफ समय है, अजघन्य ३२ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जयश्ववासहिदे कसायपाहुडे [ बेगो ७ , सम्माभि० तिरिक्खोघं । सोलसक० रोक० जह० डिदिउदी० जह० उक० एस० । अज० जह० एस० उक० अंतो० । शत्रु स० जह० ट्ठिदिउदी० जह० उक्क० एयस० । अज० जह० अंतोमुहुतं, उक्क० पुन्त्रको डिप्रधत्तं । णवरि पञ्ज० इथिवे० खत्थि । जोणिणीसु पुरिसवे ० स० णत्थि । जोणिणी० सम्म० भज० जह० अंतोमु० । ५४७. पंचि०तिरिक्खअपज० मणुस अपज० मिच्छ० जह० डिदिउदी० जह० उक० एस० । अज० जह० चवलिया समघृणा, उक० अंतोमु० । सोलसक०दोक० जह० डिदिउदी० जह० उक० एयस० । श्रज० जह० एयस०, उक्क० अंतोमुहूतं । स० जह० द्विदिउदी० जह० उक० एयस० । अज० जह० उक० ★तोमु० । ५४८. मनुसतिय० पंचिदियतिरिक्खभंगो । णवरि सम्म० श्रज० जह० अंतोमु । तिष्णिषेक जाचार्य सा सुविधिसागर पञ० इत्थिवेदी णत्थि । सम्म० ० स्थितिउदीरणाका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल मिथ्यात्व आदि तीनोंका ही अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वका भंग सामान्य तिर्यखों के समान है | सोलह कषाय और छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। नपुंसक वेद की जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट का एक समय है । अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिप्रथस्त्त्रप्रमाण है । इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय निर्यश्व पर्यातकोंमें स्त्रीकी रण नहीं है तथा योनिनियों में पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी उदीरणा नहीं है। तथा योनिनी तिर्यश्चों में सम्यक्त्वकी भजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ - कृतकृत्यवेदक सम्यग्ट्रष्टि मनुष्य मरकर योनिनीतियोंमें नहीं उत्पन्न होते, अतः इनमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय न बन सकने के कारण वह अन्तर्मुहूर्त कहा है जो वेदकसम्यक्त्वकी अपेक्षा बन जाता है। ६५४७ पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मिध्यात्वकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय कम एक आवलि है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सोलह कषाय और छड् नोकषायकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजधन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ६ । नपुंसक वेद की जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य स्थिति उदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । ५४८. मनुष्यत्रिमें पंचेन्द्रिय तिर्यचांके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थितिउदारणका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त ६ । तानों वेदोंकी अजघन्य स्थितिउदीरणा का जघन्य काल एक समय है । मनुष्य पर्याप्तकों में स्त्रीवेदकी उदीरणा नहीं है । 3 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२) उत्तरपयडिहिदिउवारणाए एयजीषेण कालो २५१ अज० जह• एयसमयो । मणुसिणीसु पुरिसषेद०-णस० एत्थि । ६५४९. देवेसु मिच्छ० जह० द्विदिउदी. जह० उक्क० एयस० । अज. जह० अंतोमु०, उक. एकत्तीसं सागरोत्रमं । सम्प-पुरिसवे० जह• द्विदिउ० जह० उक्क० एयसः । अज० जह० एस०, पुरिसवे० अंतोमु०, उक्क० दोहं पि तेत्तीसं सागरो. वमं । सम्मामि०-सोलस कान्छण्णोक० पढमपुढविभंगो । णवरि हस्स-रदि० जह० हिदिउदी जहां उकठापिगममोजी राजह० एयस०, उक्क० छम्मास । इन्थिवे. जह द्विदिउदी. जह. उक० एगसः। अज० जह० अंतोमु०, उक्क. पणवएणं पलिदोषमं० । एवं भत्रण-घाणवें । णवरि सगद्विदी । सम्मत्त अज० जह, अंतोसु०, उक्क. सगहिदी देसूणा । इथिवे. अज० जह• अंतोमु०, उक्क० निणि पलिदो० पलिदो० सादिरेयाणि । हस्स-रदि० जह० द्विदिउदी० जह• उक० एयस० । अज० जह० एयसमओ, उक्क० अंतोमुहुर्त । माग तथा इनमें सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है। मनुष्यनियों में पुरुषवेद और नपुसकवेदकी उदीरणा नहीं है। विशेषार्थ--मनुष्यों में क्षायिक सम्यक्त्वकी उत्पत्ति उक्त तीनों प्रकारके मनुष्यों में हो सकती है। इसलिए क्षायिक सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाली जो कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि मनुध्यिनी मरकर उत्तम भोगभूमिमें उत्पन्न होती है वह भी मनुष्य पर्याप्तकोंमें ही उत्पन्न होती है। इसी बातको ध्यानमें रखकर यहाँ मनुष्य पयानको सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थिति उदीरणाका जधन्य काल एक समय बन जानेसे वह तत्प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। ५४६. देवोंमें मिथ्यात्यकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य स्थिनिउदीरणाका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल इकतीस सागर है। सम्यक्त्त और पुरुपवेद की जघन्य स्थित्तिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य स्थिति उदीरणाका जघन्य काल एक समय है, पुरुषवेदका अन्तमुहर्त है और दोनोंका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकपायोंका भंग प्रथम पृथिवीके समान है। इसनी विशेषता है कि हास्य और रतिकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य स्थिति उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल छह महीना है। स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिबदीरणका जधन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पचवन पल्य है। इसीप्रकार भवनवासी और व्यन्तरदेवों में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति प्रमाण है । स्त्रीवेदकी अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल अन्समुहते है और उत्कृष्ट काल क्रमसे तीन पल्य और साधिक एक पल्य है। हास्य-रतिकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य स्थितिउदीरणाका अघन्य काल एक समय है, और उत्कृष्ट काल भन्तर्मुहत है। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगी ७ १५५०. जोदिसियादि जाव सहस्सार ति मिच्छ० जह० द्विदिउदी० जह० उक० एयस० । अज० जह० अंतोमुद्दत्तं उक० सगहिदी । सम्म० जह० हिदीउदी ० जह० उक्क० एयस० । अजह० जह० एस० उक सगडिदी । सम्मामि० पोलसक०कवि हिंदीउदी० जह० उक० एयस० । अज० जह० पत्रिदो० अनुभागो पलिदो० सादिरेयं उक्क० पलिदो० सादिरेयं पणवणं पलिदोवमाणि । पुरिसवे० जह० डिदिउदी० जह० एस० । अजं० जहष्णुक० जहष्णुकस्सदि । वरि जोदिसि० सम्म० अ० जह० अंतोमु०, उक्क० पलिदो० सादिरेयं । सहस्सारे इस्स-रदि श्रोषं आमदादि बगेवजा नि सणकुमारभंगो ! वरि सगहिदी । अताणु०४ जह० द्विदिउदी० जह० उक० एयसमत्रो । अज० f २५२ विशेषार्थ – सामान्यकी अपेक्षा देवों में भी कृतकृत्यवेदक सम्यक्त्वकी अपेक्षा सम्यक्त्वक अन्य स्थितिउदीररणाका जघन्य काल एक समय बन जानेसे यह काल तव्यमाण कहा है । किन्तु भवनत्रिक में सम्यग्दृष्टि जीव मरकर नहीं उत्पन्न होते, इसलिए इनमें सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त से कम नहीं प्राप्त होनेसे यह अन्तर्मुहूर्त कहा है । पुरुषवेद और स्त्रीवेदकी जवन्य स्थितिउदीरगा जो हतसमुत्पत्तिक असंज्ञी जीव मरकर देवों में उत्पन्न होता है उसके उत्पन्न होने के अन्तर्मुहूर्त होनेपर होती है, इसलिए सामान्य देवोंमें पुरुषवेद और स्त्रीवेदक अजघन्य स्थितिउदीरणा का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। इसीप्रकार स्वामित्व और भवस्थिति आदिको जानकर अन्य सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिउदीरणाका काल घटित कर लेना चाहिए । १५४०. ज्योतिषी देवोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें मिध्यात्व की जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य स्थितिउदीर का जवन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण हैं । सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कमाय और छह नोकषायका भंग दूसरी पृथिवीके समान है। स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिउदीरणाकर जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघभ्य स्थितिउदीरणा का जघन्य काल ज्योतिषियों में एकपत्यका भाठवाँ भागप्रमाण और सौधर्म- पेशान कल्प में साधिक एक पत्यप्रमाण है तथा उत्कृष्ट काल ज्योतिषियों में साधिक एक पल्यप्रमाण और सौधर्म- ऐशानकल्प में पचवन पल्यप्रमाण है । पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है । श्रजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । इतनी विशेषता है कि ज्योतिषियों में सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक एक पल्य हैं । सहस्रार कल्पमें हास्य और रविका भंग ओके समान है । नत कल्पसे लेकर नी मैवेयक तक के देवोंमें सनत्कुमारकल्प के समान भंग है | इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य स्थितिउदीरणाका 1. यामी एस० ० इति पाठः । 1 - Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ गा० ३२] उत्तरपयविद्विविउदारणाए एयजीश्रेण कालो जह एयस०, उक० अंतोमु० । ५५१. अणुदिसादि सयट्ठा ति सम्म० जह• द्विदीउदी० जह• उक. एयस० | अज. जह• एयस०, उक्क. सगहिदी । पुरिसवेद० जह० हिदिउदी० जह. उक० एयस० । अजह० जहण्णुक० जहएणुकस्सद्विदी। बारसक०-छपणोक० जह० द्विदिउदी० जह० उक० एयस० । अज जह० एयस०, उक्क. अंतोमु० । एवं जाव० । जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषार्थ-ज्योसिर्वियोमम्सम्बष्ट्रिातीमित्वमहाहाहे, इसलिए ममें सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थितिउरिणाका जघन्य काल अन्तर्मुहर्त से कम नहीं प्राप्त होता, इसलिए वह अन्तर्मुहूर्त कहा है। तथा ज्योतिषियों की उत्कृष्ट स्थिति साधिक एक पल्य है, इसे ध्यानमें रखकर इनमें सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थिति नदीरणाका उत्कृष्ट काल तत्प्रमाण कहा है। किन्तु इसे कुछ कम ही जानना चाहिए । कारण स्पष्ट है । सहस्रार कल्पमें हास्य और रतिकी जघन्य और भजघन्य स्थितिउदीरणा ओवके समान बन जाती है इस बातको ध्यानमें रखकर इस कल्पमें हास्य और रतिका भंग श्रोधके समान कहा है। आमतकल्पसे लेकर नौ मवेयक तकके देवा में स्वामित्वके अनुसार सय प्रकृतियों की जघन्य और अजघन्य स्थिति उदीररणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल सनत्कुमारकल्पके देवोंके समान बन जाता है। मात्र यहाँ अपनी-अपनी स्थिति जाननी चाहिए। साथ ही इनमें अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य स्थितिमदीरणा अपने स्वामित्वके अनुसार भवके अन्तिम समयमें होती है, इसलिए इनमें अनन्तानुबन्धी चतुककी जघन्य स्थिति उदीरणाका जघन्य. और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। इनमें अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अजन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त स्पष्ट ही है। शेष कथन सुगम है। मात्र अपने-अपने स्वामित्वको जानकर काल घटित करना चाहिए। ६५५१. अनुदिशसे लेकर सार्थसिद्धितक के देवाम सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिवदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजधन्य स्थिति उदारणा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। पुरुषवेद की जघन्य स्थितिउदारणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य स्थितिउदीरणा का जघन्य और अत्कृष्ट काल अपनी-अपनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। बारह पाय और छह नोकषार्थीकी जघन्य स्थिनिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। विशेषार्थ—इन देवॉमें कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि जीव भी उत्पन्न होता है, इसलिए इनमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति उदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय बन जानेसे वह उनप्रमाण कहा है । इसमें सम्यक्त्व. की अजघन्य स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी उत्कृष्ट भवस्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। अपने स्वामित्वके अनुसार इनमें पुरुपवेदकी जघन्य स्थिति उदारणा भवके अन्तिम समयमं प्राप्त होती है, इसलिए इनमें पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य भीर उत्कृष्ट काला एक समय कहा है। इनमें गुरुपवेदकी अजघन्य स्थितिउदीरणाका वन्य Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयश्वलासहिये कसायपाहुडे [ वेदगो ७ ? 1 १५५२. अंतरं दुविहं जह० उक्क० । उकस्से पयदं । दुविहो णि० - श्रोषेण आदेसेण य । ओषेण मिच्छ० श्रणंवा ०४ उक० द्विदीउदी० जह० अंतोमु०, उक० अरणंतकालमसंखेला पोग्गलपरियट्टा । अणुक० जह० एयस०, उक० वेळा हिसागरो० देखणाणि | सम्म० सम्मामि० उ० अणुक० द्विदिदी जी तो बहुत्तं णवरि सम्म० अणुक्क० जह० एयस दर्शक आचार्य श्री सुविहिासागर उ० उवडपो० परियई । अट्ठक० उक० विदिउदी ● जह० अंतोमु०, उक० अतकालमसंखे ० पोग्गल परियई । अणुक० जह० एयसमओ, उक्क० पुन्त्रकोडी देसूरणा । एवं चदुसंजल० । णवरि अणुक० जह० एयस०, उक० अंतो० | इथिवे० - पुरिसवे० उक० अणुक० डिदिउदी० जह० एयसमत्रो, उक्क० अतकालमसंखेजा पोग्गलपरियड्डा । एवं बुंस० । वरि अणुक० जह० एयस०, उक्क० सागरोवमसदपृधत्तं । एवं इस्स- रदीर्णं । णवारे अणुक० जह० एयसमओ, उक्क० तेत्तीस सागरोत्रमं सादिरेयं । एवमरदि-सोग० । णवरि ऋणुक० जह० एयस०, २५४ और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी जघन्य और उत्कृष्ट भवस्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है । इनमें बारह कषाय और बह नोकपायोंकी जघन्य स्थितिउदीरणा अपने स्वामित्व के अनुसार भवके अन्तिम समय में ही प्राप्त होती हैं, इसलिए यहाँ इनकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है । $ ५५२. अन्तर दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट | उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्क की उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त काल है जो श्रसंख्यात पुलपरिवर्तनप्रमाण है । अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो छयासठ सागरप्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यास्वको उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जधन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । पाठ कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जन्य अन्तरकाल एक समय हूँ और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। इसीप्रकार चार संज्वलनोंका जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। श्रीवेद और पुरुषवेद. की उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । इसीप्रकार नपुंसक के विषय में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल सौ सागर पृथक्त्वप्रमाणु हैं । इसीप्रकार हास्य और रतिके विषय में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागर है। इसीप्रकार अरति और शोकके विषय में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदास जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा.१२] उत्तरपशिहिदिपोरणाए एयजीवेण अंतरं २५५ उक्क छम्मामा { एवं भय-दुगुंछाणं । णवरि अणुक० जह• एयस०, उक्क० अंतोमु० । छह महीना है। इसीप्रकार भय और जुगुप्साके विषयमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीराका जघन्य अन्सरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। चिशेपार्थ-मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट स्थिसिके धन्धके योग्य उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम जघन्यसे अन्तर्मुहर्तके अन्तरसे और उत्कृष्टसे अनन्त कालके अन्तरसे होते हैं, क्योंकि संज्ञी पग्नेन्द्रिय पर्याप्तका उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त काल श्रागममें बतलाया है और ऐसे परिणाम उक्त जीवके ही होते हैं। यही कारण है कि यहाँ उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका जघन्य अन्तरफाल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त कालप्रमाण कहा है। यहाँ अनन्त कालसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कालका ग्रहण हुआ है। इसलिए उसके स्पष्टीकरण के रूप में अनन्त कालको असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कहा है। उक्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कममाजिक समरस होगसलिए हालज प्रकृतियों की अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय बन जाता है। तथा जो सम्यग्दृष्टि जीव बीचमें अन्तर्मुहूर्व काल तक सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त कर सम्यक्त्वके साथ कुछ कम दो छयासठ सागर काल तक रहकर पुन: मिथ्याष्टि हो जाता है उसके उक्त कालतक उक्त प्रकृतियोंकी उदीरणा नहीं होती, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट स्थिति उदारणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो यासठ सागरप्रमाए कहा है। जो मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कर उसका स्थितिघात किये बिना वेदकसम्यग्दृष्टि बनता है उस वेदकसम्यग्दृष्टिके दूसरे समयमें सम्यक्त्वको उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा होती है तथा आगे अनुत्कृष्ट स्थितिउदारणा होती है। तथा अन्तर्मुहूर्तमें उसीके कदाचित् मिश्रगुणस्थानको प्राप्त होनेपर उसके प्रथम समयमै सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिको उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा होती है और आगे उसीकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणा होती है। इसके बाद अन्तर्मुहूर्तमें उसके मिथ्यादृष्टि हो जानेपर तथा उसी प्रकार पुनः अन्तर्मुहूर्त में यही सब क्रिया करनेपर सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी उत्कृष्ट और अनुस्कृष्ट स्थितिउदीररणाका जघन्य अन्तरकाल अन्समुहर्त प्राप्त होनेसे वह सत्प्रमाण कहा है। इतनी विशेषता है कि ऐसा जीव वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त कर प्रथम समय और तृतीय श्रादि समयोंमें सम्यक्त्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणा करता है और दूसरे समयमें उसकी उत्कृष्ट स्थितिवीपणा करता है, इसलिए इसकी भनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है। इनकी उक्त दोनों उदीरणाओंका उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। आठ कषायोंकी उदारणा क्रमसे पाँचवें और छठे आदि गुणास्थानों में नहीं होती और पाँचयें तथा छठे आदि गुणास्थानोंका जुदा-जुदा उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट अन्सरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है। यहाँ ऐसा समझना चाहिए कि इनकी उत्कृष्ट स्थिति नदीरणाका जो उत्कृष्ट अन्तरकाल बतलाया है वह इनकी अनुत्कृष्ट स्थिनिउदीरणाका नहीं घटिता होता, क्योंकि मिथ्यात्वमें इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिनुढीरणा उत्कृष्ट स्थितिउद्दोग्णाके कालको छोड़कर यथासम्भव होती रहती है। चार संज्वलनकी उदीरणा उपशमश्रेणिमें उदारणा व्युझिछत्ति के बाद पुनः उस स्थान प्राप्त होनेतक मध्यकालमें नहीं होती। यदि ऐसा जीव एक समयता अनुहीरक होकर दूसरे समयमें भरकर देव हो जाय तो एक समयके Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ बेदी ७ " ५५३. देसे रइय० मिन्द्र० सम्मामि० श्रताणु०४ उक० हिदिउदी० जह० अंतीमृ० अशुक० जह० एस० सम्मामि० उक० अणुक० जह० श्रंतो, हस्स - रदि० १० उक० अणुक० जह० एयसं०, उक० सच्चे ितेत्तीस सागरोवमाणि देखणाणि । वारसक० उक० हिदिउदी० जह० अंतीमु०, उक्क० तेवीस सागरो० देणाणि । श्रणुक्क० जह० 10, मुक्क० अंतोसु० एवं एवं स०-अरदि-सोग-भयदुर्गुछा० । वरि उक० द्विदिउदी० जह० एयस । एवं समाए | एवं पढमाए जाव छ िति । णवरि सगहिदी देखा | हस्स-रदि० अणुक० जह० एस० उ० अंतोसु० | आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज 1 २५६ ६५५४. तिरिक्खेसु मिच्छ० - अरांता ०४ श्रोषं । 0 वरि अणुक० जह० अन्तर के बाद भी इनकी उदीरणा होने लगती है। यही कारण है कि यहाँ इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणा का जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है। शेष कथन सुगम है। नौ नोकपायोंकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जयन्य अन्तरकाल एक समय कहा है। इन at areपायोंमें भय और जुगुप्साको छोड़कर शेष सात सप्रतिपक्ष प्रकृतियां है और इनका जघन्य बन्धकाल एक समय है, इसलिए इनकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय बन जानेसे वह उक्त कालप्रमाण कहा है। शेष कथन स्पष्ट ही है। आगे गति मार्ग के सब भेदों में स्वामित्व और उक्त विशेषार्थ तथा अपनी-अपनी स्थिति आदिको ध्यान में रखकर स्पष्टोकरा कर लेना चाहिए। यदि कहीं कोई विशेषता होगी तो उसका संकेत करेंगे । ६५५३, आदेश से नारकियों में मिध्यात्व, सम्यमिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त हैं, अनुत्कृष्ट स्थित उदार का जघन्य अन्तर काल एक समय है, सम्यग्मिध्यात्वकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है, हास्य और रविकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है तथा उत्कृष्ट अन्तरफाल सबका कुछ कम तेतीस सागर है। बारह कषायकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर है। अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार नपुंसकवेद, अरवि, शांक, भय और जुगुप्साके सम्बन्ध में जान लेना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है । इसीप्रकार सातवीं पृथिवी में जान लेना चाहिए । इसीप्रकार प्रथम पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तक जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनीअपनी स्थिति कहनी चाहिए। इन पृथिवियोंमें हास्य पर रतिकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणा का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। ६५५४. तियेवोंमें मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग अंघके समान है। १. ता० प्रती हरस-रंत्रि० अ० ज० ६० इति पाठः । २. ता०प्रतौ समहिदी सूयणा । उषक० अंतोमु० । तिरिक्लेसु इति पाठः । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ गा० ६२ ] उत्तरपय डिडिदिउदीरणाए एयजीवेण अंतरं एयस०, उक० तिष्णि पतिदोचाम चिकखान ०४इथिवे ० - पुरिसवे० श्रघं । श्रक० श्रोधं । णवरि अणुक० जह० एयस०, उक्क० अंनो | वसवे० ग्रोधं । णवरि अणुक० जह० एयस०, उक्क० पुन्त्रको डिपुधतं । इण्णोक० उक० श्रोषं । अणुक० जह० एयस०, उक्क० अंतोनुः । एवं पंचिंदिय. तिरिक्खतिय० । वरि सचपपडी० उक० द्विदिउदी० उक० पुच्चकोडिपुधत्तं । सम्म० सम्शमि० अ० जह० एयस० अंतोमु०, उक्क० निष्णि पलिदो० पुन्त्रकोडिपुत्र० । तिणिवेद उक्क० अणुक० जह० एस० उ० पु०नकोडिपुध० | पज० इस्थि० खन्थि । जोणिणीसु पुरिस० इथिवे० अणुक० जह० ० , स० प्रत्थि एम०, उक्क० आवलिगा । ६५५४, पंचिदियतिरिक्खा पञ्ज० मणुसका पञ्ज० मिच्छ० णवंस० उक्क ० अणुक० डिदिउदी० णत्थि अंतरं । सेसपयडी० उक० डिदिउदी० णत्थि अंतरं । अणुक० डिदिउदी० जह०णुक० अंतोमु० । - इतनी विशेषता है कि अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्य है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व अप्रत्याख्यानावरण चार, स्त्रीवेद और पुरुषवेदका भंग ओधके समान है। आठ कषायका भंग श्रोध के समान है । इतनी विशेषता है कि इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। नपुंसक वेदका भंग ओके समान हैं। इतनी ' विशेषता है कि इसकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिप्रथक्त्व प्रमाण हैं । छड़ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका भंग के समान है । अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चनिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि सब प्रकृतियों को उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्प्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल क्रमसे एक समय और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिप्रयक्त्व fedia पल्य है। तीन वेदोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। पर्याप्तकों में arathi उदीरणा नहीं है तथा योनिनीतिर्योंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी उदीरणा नहीं है। स्त्रीवेदी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक अवलिप्रमाण है। विशेषार्थ यहाँ योनिनीतिर्यञ्चोंमें स्त्रीवेदक अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जो उत्कृष्ट अन्तरकाल एक आवलि बतलाया है उस स्थितिविभक्ति भाग ३, पृ० ३२० को देखकर घांटत कर लेना चाहिए। तथा इसीप्रकार अन्य विशेषता भी जाननी चाहिए । A ६५५५. पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मिथ्यात्व और नपुंसक वेद की उष्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका अन्तरकाल नहीं है । शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका अन्तरकाल नहीं है। अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त हैं । ३३ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .... ...v v v ...... ... . ....." V v २५८ जयधवलासहिदे कसायपाहुई [ वेदगो ७ 3 ५५६. मणुमतिए पंचिंदियतिरिक्खभंगो । णवरि मणुसिणी० इस्थिवेद० मार्गदशक आचाचण्यास विराग संजोमहाराज ___ ५५७. देवगदीए देवेसु मिच्छ०-सम्म-अणंताणु ०४-सम्मामि० उक्क० विदिउदी० जह० अंतोमु०, उक्क० अट्ठारस सागरो० सादिरेयाणि। अणुक्क० जह० एयस०, सम्मामि० अणुक्क० जह० अंतोमु०, उक्क० सम्वेसिमेक्कत्तीसं सागरो. देसूणाणि । बारसक० उक० द्विदिउदी० जह० अंतोमु०, उक्क० अट्ठारसमागरो० सादिरेयाणि | अणुक्क० जह० एगम०, उक्क० अंतोमु० । एवं छण्णोक० | णवरि उक्क० जह० एयस०, अरदि-सोग० अणुक्क० जह• एगस०, उक्क. बम्मासं । इथिवे. उक. हिदिउदी० जह• एयस०, उक्क० पणवण्णं पलिदो० देवणं । अणुक्क० जह० एयम०, उक्क० श्रावलिया । एवं पुरिसवे | णवरि उक्क डिदिउदी० जह० एयस०, उक्क. अट्ठारस सागरोवमाणि सादिरेयाणि । एवं भवणादि जाव सहस्सार त्ति | णबरि सगढिदी भाणियया । णवरि भवण-बाणवें-जोदिसि०-सोहम्मीसाणेसु इस्थिवे. उक्क. विदिउदी० जह० एयस०, उक्क० तिणि पलिदो० देख ६५५६. मनुष्यन्त्रिक पञ्चेन्द्रियतियश्चोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यिनियोंमें नीवेदकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। विशेषर्षार्थ—उपशमश्रेणिकी अपेक्षा मनुष्यिनियों में वीवेदकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त बन जानेसे वह उक्त कालप्रमाण कहा है। ६५५७. देवगतिमें देवों में मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क और सम्यग्मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूते है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागर है। अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है, सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागर है। बारह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जधन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागर है । अनुत्कृष्ट स्थितिजदीरणा का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार छह नोकषायोंके विषयमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है। प्रारति और शोककी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है। स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिजदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पचवन पल्य है। अनुत्कृष्ट स्थितिजदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक आवलि है। इसीप्रकार पुरुषवेदके विषयमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता । है कि इसकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागर है। इसीप्रकार भवनवासियोंसे लेकर सहसार कल्पतकक देवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। इतनी विशेषता है कि भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी तथा सौधर्म-ऐशानकल्प के देवोंमें स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थिति Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपयष्टिडिदिउदीरणाए एयजीदेश अंतरं २५६ णाणि, पलिदो ० सादिरे०, पलिदो० सादिरे०, पणवण्णं पलिदो० देखणं । अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० आवलिया । उवरि इत्थिवेद० अणुदीरगा । सन्वेसिमरदिसोग० अणुक्क० जह० एयसमओ, उक्क० अंतोमु० | यवरि सहस्सारे अरदि-सोम ० अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० इम्मासा | १५५८, आणदादि उपरिमवजा चि सव्वपयडीमुक्क० द्विदिउदीरणा णत्थि अंतरं मिच्छ० सम्म० सम्भाभि० अरांता०४ अणुक्क० जह० अंतोमु०, ० सगहिदी देखणा । बारसक० छण्णोक० अणुक्क० जह० उक्क० अंतोमु० । पुरिसवे० उक्क० अणुक्क० रास्थि अंतरं । अणुद्दिसादि सबट्टा त्ति मम्म० - ७ - पुरिसके० उक्क० अणुक्क० डिदिउदी० गत्थि अंतरं । बारसक० छण्णोक० उक्क० डिदिउदी० यत्थि अंतरं । अणुक० जहण्णुक्क० अंतोमु० । एवं जान० । ५५९. जह० पदं । दुविहो णि० - प्रोघेण आदेसेण य । श्रघेण मिच्छ० जह० द्विदिउदी० जह० पलिदो० असंखे० भागो, उक्क० उवडपोम्गलपरियहं । श्रजह० जह० अंतोमु०, उक० वेळा सागरो० देसुणाणि । एवं सम्मामि० । यवरि अजह० उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल क्रमसे कुछ कम तीन पल्य, साधिक एक पल्य, साधिका और लीवर अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक आवति है । श्रागेके देव स्त्रीवेदके अनुदीरक हैं। सबमें अरति और शोककी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । इतनी विशेषता है कि सहस्रार कल्प में अरति और शोककी अनुत्कृष्ट स्थितिचदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है । $ ५५८. अनतकल्पसे लेकर उपरिम मैवेयऋतकके देवोंमें सच प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका अन्तरकाल नहीं है। मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्दानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। बारह कषाय और छह नोकषायकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्ध और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । पुरुषवेदकी उत्कृष्ट और स्थित दोरा का अन्तरकाल नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक के देवोंमें सम्यक्त्व और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका अन्तरकाल नहीं हैं । बारह कषाय और छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरण का अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । ५४६ जघन्य प्रकृत हैं। निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । प्रोसे मिथ्यात्व की जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपाधयुदल परिवर्तनप्रमाण है। अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो बासठ सागरप्रमाण है । इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यात्व के विषय में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसकी अजघन्य Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ देवगो 7 , जह० अंतोमु०, उक्क० उपोपरि । एवं सम्म० । णवरि जह० हिदिउदी ० णत्थि अंतरं । अथवा सम्म जह० डिदिउदी० जह० अंतोमु०, उक्क० उबड़पोग्गल परियहं । श्रताणु०४ जह० हिदिउदी० जह० अंतोमु० टक्क० असंखेजा लोगा । जह० जह० एयस०, उक० छावद्विसागरो० देखणाणि । एवमद्रुक० | वरि ज ० जह० एस० उक्क० पुव्वकोडी देखणा । एवं भय-दुर्गुबा० । णवरि ज० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । चदुसंजल० जह० डिदिउदी ० जह० अंतोमु०, उक० उबड्डूपोग्गल परिथङ्कं । अज० जह० एयस०, उक्क० अंतोनु० । इत्थवे० - पुरिसबे० जह० द्विदिउदी० जह० अंतोमु०, उक० उचढपोग्गलपरियहूं । ज० जह० अंतोमु०, पुरिसवे एयस० उ० अतकालमसंखेजा पोग्गल - सरक० सागरोवमसदपुधत्तं । हस्स -रदि० जह० विदिउदी ० जह० पलिदो० असंखे० भागो, उक० अतकालमसंखे० पोग्गल परियट्टा । अज० जह० एयस०, उक्क० तेत्तीस सागरो० ० , परिषड्डा AAM स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहुर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपाधपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । इसीप्रकार सम्यक्त्वके विषय में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जघन्य स्थितिउदीरणाका अन्तरकाल नहीं है। अथवा सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पापुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त हैं और उत्कर अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है । अजघन्य स्थितिउदीरणाका जवन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो बासठ सागरप्रमाण है। इसीप्रकार आठ कपायोंके विषय में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अजवन्य स्थितिउदीरणा का जघन्य अन्तरकाल एक समय है, और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है । इसीप्रकार भय और जुगुप्सा के विषय में जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि अजघन्य स्थिति वीरा का जघन्य अन्तरकाल एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। चार संज्वजनकी जघन्य स्थितिउदीरणा का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्थपुलपरिवर्तनप्रमाण हूँ । अजघन्य स्थितिउदीरणाका जधन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त हैं और उत्कृष्ट अन्तरकाल उर्धपुद् गल परिवर्तनप्रमाण है । अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त हैं और पुरुषवेदका एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल दोनोंका अनन्तकाल है जो असंख्यात मुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । इसीप्रकार नपुंसकवेदके विषय में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल सौ सागर पृथक्त्व प्रमाण है। हास्य और रतिकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल है जो असंख्यात पुदल परिवर्तनप्रमाण है। अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तरकाल खाधिक तास सागर Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज गा० ६२ ] उत्तरपयलिडिदिउदीरणाए एयजीवेण अंतर २६१ सादिरेयाणि । एवमरदि-सोग० । णवरि अज० जह० एयस०, उक्क० छम्मासं । है। इसीप्रकार अरति और शोकके विषयमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है । विशेषार्थ---प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी द्वितीय बार प्राप्ति कमसे कम पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके अन्तरके पूर्व नहीं होती, इसीलिए मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति उदीरणाका जनन्य अन्तरकाल अपने स्वामित्वके अनुसार उक्त कालप्रमाण कहा है । इसकी जघन्य स्थितिउन्दीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल उपापुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। मिथ्यात्व गुणस्थानके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालको ध्यान में रखकर इसकी अजन्य स्थिति उदीरणाका जगन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दा छयासठ सागर मारण कहा है । मिश्र गुणस्थानके अन्तरकालको ध्यानमें रखकर सम्यरिमथ्यात्वकी अजघन्य स्थिति उदारणाका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट प्रान्तरकाल उपाधंयुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कहा है । सत्यक्त्वकी जघन्य स्थिति दीरणा दर्शन माहनीयको क्षपणाके समय एक समय अधिक एक श्रावलिप्रप्ताण स्थितिके शेष रहने पर होती है, इसलिए इसके अन्तरकालका निषेध किया है। किन्तु द्वितीयोपशम सम्यक्त्वके अन्तरकालकी अपेक्षा इसका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण कहा है। बादर एकेन्द्रियों के अन्तरकालको ध्यानमें रखकर अनन्तानुचन्धीचतुष्ककी जघन्य स्थितिउदारणाका जवन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल कहा है। अन्तरकाल का निर्देश मूलमें है ही। जघन्य स्थिनितीरणाका जघन्य काल एक समय है, इसलिए तो इसकी अजघन्य स्थिति उदीरणाका जनन्य अन्तरकाल एक समग्र कहा है तथा मिथ्यावके उत्कृष्ट अन्तरकालको ध्यान में रखकर इसकी अजघन्य स्थिति उदीर शाका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो छयासठ सागरप्रमाए कहा है। संयमासंयम और संयमका उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है। और इनके क्रमशः अप्रत्याख्यानावरणचतुष्ककी तथा प्रत्याख्यानावरणचतुककी उदीरणा नहीं होती, इसलिए इनकी अजघन्य स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त कालप्रमाण कहा है। चार संज्वलनकी उपशम श्रेणिके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर कालको ध्शनमें रस्त्रकर जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्दरकाल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपाधयुद्गल परिवर्तनप्रमाण कहा है। तथा उपशमशेशि में चढ़ते समय अपनी-अपनी उदारणाव्युच्छित्तिसे लेकर उत्तरते समय पुनः उदीरणा प्राप्त होनेफे कालतक इसकी अनुदीरणा है। यह काल अन्त मुहूर्त है, इसलिए इसकी अजघन्य स्थिति उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त कहा है। भय और जुगुप्लाका अन्य सब विचार आठ कषायके समान ही है। मात्र इनकी कमसे कम एक समय तक और अधिकस अधिक अन्तमुहर्त कालतक उदीरणा नहीं होती, क्योंकि ये सान्तर उदय प्रकृतियाँ हैं, इसलिए इनकी अजघन्य स्थिनिनदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त कहा है। अपशामक और चपकके अपने-अपने स्वामित्वके अनुसार ही स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिउदीरणा होनी है, इसलिए उपशामककी अपेक्षा इनकी जघन्य स्थिति उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त प्राप्त होनेसे वह उक्त कालप्रमाण कहा है । स्पष्टीकरण सुगम है। उपशमश्रेशिमें स्त्रीवेदी मरकर देव होता है पर उसका वेद बदलकर पुरुषवेद हो जाता है, इसलिए तो इसकी अजघन्य स्थिनिजदीर शाका जन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त कहा है। मात्र पुरुपवेदका मरणकी अपेक्षा यह अन्तरकाल एक समय बन जाता है, इसलिए वह एक समय कहा है। इन दोनों की अजघन्य स्थिति उदारणाका उत्कृष्ट Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधमलासहिदे कमात्रपाहुडे [ वेदगो ७ ६५६०. आदेसेण णेरइय० मिच्छ.-सम्मामि० जह• विदिउदी० जह० पलिदो० असंखे० भागो, अज० जह० अंतीमु०, उक्क. दोण्हं पि नेतीसं सागगे. देसूणाणि | एवं सम्म० । णवरि जह० णस्थि अंतरं । अणंताणु०४-हस्स-दि० जह० द्विदिउदी० णत्थि अंतरं । अज० जह० एयस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो. देसूणाणि | यारसक०-अदि-सोग०-भय-दुगुंछा जह• द्विदिउदी० णत्थि अंतरं । अजह० जह एयस०, उक. अंतोमु | 'स० जह० णत्थि अंतरं । अज. जह० उक्क० एयसभनी । एवं पढमाए | णवरि समर्शिदसणाहस क्षिविधिजागजही हाराज अन्तरकाल सुगम है। नपुसकवेदकी अजघन्य स्थितिउदीरणाके जघन्य अन्तरकालका स्पष्टीकरण स्त्रीवेदके समान कर लेना चाहिए । सौ सागरपृथक्व कालतक नपुसकवेदका उदय न हो यह सम्भव है, इसलिए इसकी अजघन्य स्थिति उदारणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल सौ सागर. पृथक्त्वप्रमाण कहा है। हास्यादि चारकी जघन्य स्थितिउदीरणा अपने स्वामित्वको देखते हुए दूसरी बार वह कमसे कम पल्यके मसंख्यातवें भागप्रमाण कालके पूर्व नहीं प्राप्त हो सकती है, इसलिए इनकी अजघन्य स्थिति उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल पल्यके 'असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । तथा जो बादर एकेन्द्रिय जीव हुनतमुत्पत्तिक होकर संज्ञी पश्चेन्द्रियों में उत्पन्न होने के अन्तमुहूर्त बाद इनकी जघन्य स्थितिदीरणा करता है वह पुनः इस अवस्थाको अधिकसे अधिक काल बाद यदि प्राप्त करे तो अनन्त काल बाद ही प्राप्त कर सकता है, क्योंकि संक्षी पञ्चेन्द्रियका उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल है, इसलिए. इनकी अजन्य स्थिति उदारणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त काल प्रमाण कहा है। इनकी अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य . अन्तरकाल एक समय है यह तो स्पष्ट हो है। मात्र उत्कृष्ट अन्तरकाल जुदा-जुदा है। कारण कि हास्य-रतिका उत्कृष्ट अनुदीरणाकाल साधिक तेतीस सागर है और अरति-शोकका उत्कृष्ट अनुदीरणाकाल छह महीना है। यही कारण है कि हास्य-रतिकी अजवन्य स्थिति उदारणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागर कहा है तथा अरति-शोककी अजघन्य स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना कहा है । शेष कथन सुगम है। आगे गतिमार्गगाके भेदोंमें अपने-अपने स्वामित्वके अनुसार इसे समझकर अन्तरप्ररूपणा घटित कर लेनी चाहिए। ६५६८. आदेशसे नारकियों में मिथ्यात्व और सम्पमिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल पल्पके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और दोनोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर है। इसीप्रकार सम्यक्त्वके सम्बन्धमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसकी जघन्य स्थितिउदीरणाका अन्तरकाल नहीं है। अनन्तानुबन्धी चार, हास्य और रतिकी जघन्य स्थितिउदीरणाका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य स्थिति उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर है। बारह कषाय, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति उदीररणाका अन्तरकाल नहीं है। अजवन्य स्थिति उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है । नपुसकावेदकी जघन्य स्थितिउदीरणाका अन्तरकाल नहीं है। अजयन्य स्थिति उदीरगाका जवन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है। इसीप्रकार प्रथम पृथिवीमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी स्थिति कहनी चाहिए | हास्य और रतिकी मजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरपट्टिदिदीरणाम एयजीवेण अंतरं २६३ गा० ६२ ] उक० अंतो० । ५६१. बिदियादि जान लट्ठि त्ति मिच्छ० सम्प्र० - सम्मामि० जह० हिंदी उदी० जह० पलिदो० असंखे० भागो, अज० जह० अंतोमु०, उक० दो पिस देखा । बारसक० छण्णोक० जह० पास्थि अंतरं । अजह० जह० एयस०, उके० तोमु० | अनंतापु०४ जह० शात्थि अंतरं । अज० जह० एयस०, उक्क० सगट्टिदी देणा । णत्रु स० ज० जह० द्विदीउदी० पत्थि अंतरं । सत्तमाए रियोधं । णवरि सम्म० सम्मामिच्छत्तभंगो' । 1 मा:-तिरिक्त्रािश्रणंता ०४ श्रघं वरि श्रताणु०४ अजह० जह० एस० मिच्छ० जह० जह० अंतोमु०, उक० दोह पि तिष्णि पलिदो० देणाणि | अपञ्चकखाण ०४ ओवं । अट्ठक० भय- दुगुंद्रा० जह० द्विदिउदी० जह० अंतोमु०, उक० असंखे लोगा । अज० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । इत्थिये० - पुरिसवे० जह० डिदिउदी० जह० पलिदो० श्रसंखे० भागो, अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । ९५६१. दूसरी से लेकर छठी पृथवीतकके नारकियों में मिथ्याल, सम्यक्त्व और सम्यमिध्यात्व की जयन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल पथके असंख्यातवें भाग मारा हैं, अंजघन्य स्थितउदीरणाका जवन्य अन्तरकाल अन्ममुहूर्त है और दोनोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है । बारह कपाय और छद्द नोकषायोंकी जघन्य स्थितिउदीरणाका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिउदाररणाका जनन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहू हैं। अनन्तानुबन्धचतुष्ककी जवन्य स्थितिउदीरणाका अन्तरकाल नहीं है । अजवन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्वर काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है । नपुंसकवेदकी जघन्य और अजयन्य स्थितिउदीरणाका अन्तरकाल नहीं है। सातवीं पृथिवी में सामान्य नारकियों के समान भंग है । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वका भंग सम्यग्निध्यात्वके समान है । ५६२ तिर्यञ्चों में मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी चारका भंग श्रोध के समान हैं। इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चारकी अजघन्य स्थितिउदीरणाका जनन्य अन्तरकाल एक समय है, मिध्यात्वकी अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और दोनोंका अत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्य है । अप्रत्याख्यानावरश्चतुष्कका भंग के समान है । आठ कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है । जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। जीवेद और पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर १ ता० अ० प्रत्योः जह० उक्क० इति पाठः । २ ० ० प्रत्यो वरि सम्मामिच्छुभंगो इति पाठः । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ अयधवलासहिदे कसायपाहुढे [वेदगो ७ उक० अणतकालमसंखे. पो० । अज० जह० एयस०, उक० अरणनकालमसंखेजा पोग्गलपस्थिट्टा । एवं हस्स-रदि-अरदि-सोग० । णवरि अज. जह० एयस० उक० अंतोमु० । एवं गवुस । पवार अज० जह० एयस०, उक० पुत्रकोडिपुधत्तं | १५६३. पंचिंदियतिरिक्खतिए मिच्छ. जह० ट्ठिदिउदी० जह० पलिदो० असंखे०भागो, उक्क० समद्विदी देसूरणा । अज. जह. अंतोमु०, उक्क० तिएिण पलिदो० देमृणाणि । एवं सम्मामि०। णवरि अज० जह० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी । एवं सम्म | णवरि जह० णस्थि अंतरं । अणताणु ०४ जह० द्विदिउदी० णस्थि अंतरं । अज० जह० एयस०, उक्क० तिरिण पलिदो० देसूणाणि । अपच्चक्खाण०४ जह० णत्थि अंतरं | अज. जह० एयम०, उक० पुचकोडी देसूरणा । अट्ठक-बण्णोक. जहद्विदिउदी णस्थि अंतरं | अज० जह० एपम०, उक्क. अंतीमु० । तिराहं वेदाणं जह० द्विदिउदी० एथि अंतरं | अज० जह० एयस०, उक्क. पुव्यकोडिषुधत्तं । रणवरि पञ्ज० इस्थिवे. एस्थि । जोणिणी० पुरिसवे- । ITHIH. राण है। काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल है जो . असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्यू अकाल पहाराज .. समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त काल हजी "अंसव्यति' पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। इसीप्रकार हास्य, रति, अरति भौर शोकके विषयमें जान लेना चाहिए । इतनी विशेषता है . कि इनकी अजघन्य स्थिति उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर. काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार नपुसावेदके विषयमं जान लेना चाहिए। इतनी विशेषता - है कि इनकी अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है, और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। १५६३. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल पल्यके असंख्यान भागप्रमास है और उत्कृष्ट अन्तरक.ल कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। अजघन्य स्थिति उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्य है। इसी प्रकार सम्बग्मिथ्यात्वके विषय में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अपनी स्थितिप्रमाण है। इसीप्रकार सम्यमत्वके विषय में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसकी जघन्य स्थितिउदीरणाका अन्तरफाल नहीं है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य स्थिति दीरपाका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है. और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम सीन पल्य है। अप्रत्याख्यानावरणचतुष्ककी जघन्य स्थिति उदीरणाका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थिति दीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोदि है। आठ कषाय और छह नोकपायकी जघन्य स्थितिउदीरणाका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थिति उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। तीन वेदोंकी जघन्य स्थिति उदीरणाका अन्तरकाल नहीं है। अजयन्य स्थिनिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिवृथक्त्वप्रमाण है। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकोंमें Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 Τ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज गा० ६२ ] उत्तरपयडिट्टि दिउदीरणाए एय जीवेण अंतर २६५ ण स० णत्थि । इत्थवे० ज० जपणुक० एस० सम्म सम्मामिच्छत्तभंगो । ५६४. पंचि०तिरिक्ख अपज ० - मणुस अपज० मिच्छ०-कुस० जह० रात्थि अंतरं । अज० जह० उक० एस० । सोलसक० छण्णोक० जह० पत्थि अंतरं । अज० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । ० $ ५६५. मणुसतिए मिच्छ० सम्म० सम्मामि० श्रताणु०४ - रोक पंचि०तिरिक्खभंगो | अधवा सम्म० जह० जह० अंतोमु०, उक्क० पुन्नकोडिपुधत्तं । अक० जह० रात्थि अंतरं । अज० जह० एयस०, उक० पुत्रकोडी देखणा । चदुसंज० जह० जह० अंतोसु०, उक्क० पुन्चको डिपुभ्रतं । अज० जह० एयसमओ किडीवेदयस्य, उक० अंतोमु० । तिष्णिवेद० जह० जह० जह० अंतोमु०, उक० पुत्रको डिपुधत्तं । णवरि प ० इत्थवेद० णत्थि । मणुसिणी० पुरिस० णवु स० णत्थि | इथिवेद० अ० जह० उक० अंतोमु० | - ३ ५६६. देवेसु मिच्छ्र० सम्मामि० जह० द्विदिउदी० जह० पलिदो० असंखे ० भागो । अज० जह० अंतोमुद्दत्तं उक० दोन्हं पि एकतीसं सागरो० देखणाणि । स्त्रीवेदक उदीरणा नहीं है और योनिनीतियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेदको उदीरणा नहीं है। वेद जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है । सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिध्यात्व के समान है । - ६५६४. पश्चेन्द्रिय तिर्यन अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मिध्यात्व और नपुंसकवेदी जघन्य स्थितिउदीरणाका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है । सोलह कषाय और छह नोकपायोंकी जघन्य स्थितिउदीरणाका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। ६५६५. मनुष्यत्रिक में मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्स्त्र, अनन्तानुबन्धी चार और a नोकषायका मंग पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्षों के समान है। अथवा सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण है। आठ कषायोंकी जघन्य स्थितिउदीरणाका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिउदीरणाका अधन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण हैं । चार संज्वलनोंकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है । अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल कृष्टिवेदक के एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। तीन वेदोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है | इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेदकी उदीरणा नहीं है तथा मनुष्यनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी उदीरणा नहीं है । तथा स्त्रीवेदी अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । ६५६६. देवोंमें मिध्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अजघन्य स्थितिउदीरणाका अन्य अन्तरकाल ३४ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ जयधक्लासहिदे कसायपाहु [वेदगो एवं सम्म० । णवरि जह. णस्थि अंतरं । अणताणु०४ जहणस्थि अंतरं । अज० जह एयस०, उक्क० एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि । बारसक०-अपणोक० जह० णस्थि अंतरं । अजह• जह० एयस०, उक० अंतोमु हुतं । णवरि अरदि-सोग० अज० जह० एयस०, उक्क० छम्मासं । इस्थिवे.-पुरिस० जह• गस्थि अंतरं । अज. जहण्णुक्क० एयसः । एवं भवण-बाण । वरि सगदिदी । णवरि सम्म. सम्मामि भंगो । अरदि-सोग. अज० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु०। ५६७, जोदिसि० दसणतिय - अणंताणु०४ वाणवेतरभंगो । बारसक०छण्णोक० जहपत्थि अंतरं । अज० जहण्णुक० अंतोमु० । इथिवे०-पुरिसवे. जह• अजह णस्थि अंतरं । ६५६८. सोहम्मादि जाव णवगेवजा त्ति दंसणतिय-अणंताणु०४ देवोपं । एपबरि सगद्विदी देसूणा | बारसक०-छएणोक० जह० णस्थि अंतरं । अज० जह उक्क० अंतोमु० । गरि सहस्सारे अगदि-सोग. ज. जह• अंतोमु०, उक० अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल दोनोंका कुछ कम इकतीस सागर है। इसीप्रकार सम्यक्त्वके विषयमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसकी जघन्य स्थितिउदीरणाका अन्तरकाल नहीं है। अनन्तानुयाधीवकककी अखबार्च स्थितिविधरिम्हाका अन्तरफाल नहीं है। अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागर है। बारह कषाय और छह नोकषायोंकी जघन्य स्थिति उदीरणाका अन्तरकाल . नहीं है। अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकालं अन्तर्मुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि अरति और शोककी अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिउदीरणाका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थितिउरणाका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है। इसीप्रकार भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए । इतनी और विशेषता है कि सम्यक्त्वका भंग सम्यम्मिथ्यात्वके समान है। अरति और शोककी अजघन्य स्थितिउदीरणा का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहर्त है। १५६७, ज्योतिषी देवाम तीन दर्शनमोहनीय और अन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग न्यन्तर देवोंके समान है। बारह कषाय और छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिउदीरणाका अन्तरकाल नहीं है। अजधन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। स्त्रीवेद् और पुरुषवेदकी जघन्य और अजघन्य स्थिति उदीरणाका अन्तरफाल नहीं है। ६५६८. सौधर्म कल्पसे लेकर नौ मैवेयक तकके देवोंमें तीन दर्शनमोहनीय और भनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग सामान्य देवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि कुछ कम । अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। बारह कषाय और छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिउदीरणाका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य स्थिति दीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट भन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि सहस्रार कल्पमें परति और शोककी अजघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल बह महीना है । स्त्रीवेद Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्सरपयविहिदिउदोरणाए सएिणयासो રદ્દ छम्मासं । इस्थिवेद-पुरिसवे० जह० अजह० णस्थि अंतरं । सोहम्मीसाण. इथिवे.. पुरिसवे. अस्थि । उवरि पुरिसवेदो चेव अस्थि । णवरि प्राणदादि गवगेवजा ति अणंनाणु०४ अज० जह० अंतोमु०, उक. सगहिदी देरणा । ५६९. अणुदिसादि सध्वट्ठा त्ति सम्म०-पुरिसवे. जह० अज. णस्थि अंतरं । बारसक०-छपणोकसाय० जह• णस्थि अंतरं । अज० जह० उक्क० अंतोमु०। एवं जाव०। । ५७०. सपिणयासो दुविहो--जह - उक० । उकस्से पयदं । दुविहो गि. ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० उक्क० द्विदिमुदीरतो सोलसक० सिया उदीर० सिया अणुदीर० । जदि उदीर० उक्कस्सा वा अणुकस्सा वा । उकस्सादो अणुक्कस्ता समयूणमादि कादण जाव पलिदोवमस्म असंखेञ्जदिमागेणूणा ति । इत्थिवेद०पुरिसके०-हस्स-रदि० मिया उदीर० सिया अणुदीर० । जदि उदीर० णियमा अणुकस्सा अंतोमुहुत्तणमादि कादृण जाव अंतोकोडाकोडि चि । णस० अरदिसोग०-भय-दुगुका० सिया उदीर० सिया अणुदीर० । जदि उदीर० उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा । उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समयणमादि कादूण जाव वीसं सागरोवममार्गदर्शक :-"आचार्य स विडसागर . ... ... ... ... ... ... .... ...... .. . . . .. ... ... ... ... और पुरुषवेदकी जघन्य और अजवन्य स्थितिउदीरणाका अन्तर काल नहीं है। सौधर्म और ऐशानकल्पमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उदीरणा दोनों हैं। आगे पुरुषवेदकी ही उदारणा है। इतनी विशेषता है कि आनतकल्पसे लेकर नौ ग्रंवेयक तकके देवोंमें अनन्वानुबन्धीचतुष्ककी अजघन्य स्थिति उदीरणा जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। ६५६९. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवों में सम्यक्त और पुरुषवेदकी जघन्य और अजवन्य स्थिति उदीरणाका अन्तरकाल नहीं है। बारह कपाय और छह नोकषायांकी जयन्य स्थिति उदोरणाका अन्तरकाल नहीं है। अजयन्य स्थिति उदारणाका जयन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ५७०, सन्निकर्ष दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-प्रोच और आदेश । ओघसे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा करनेवाला जीप सोलह कपायका काचित् उदीरक होता है और कदाचित् अनुदीरक होता है। यदि उदीरक होता है तो उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है तो उस्कृष्टसे एक समय कमसे लेकर पल्यके असंख्यातवें भाग कम तक अनुत्कृष्ट स्थिति का उदीरक होता है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य, और रतिका कदाचित् उदीरक होता है और कदाचित् अनुदीरक होता है। यदि उदीरक होता है तो नियमसे अन्तर्मुहूर्त कम स्थितिसे लेकर अन्तःकोड़ीकोड़ीप्रमाण स्थिति तक अनुत्कृष्ट स्थितिका चुदीरक होता है। नपुंसकवेद, भरति, शोक, भय, और जुगुप्साका कदाचित् उहीरक होता है और कदाचित् अनुदीरक होता है। यदि उदीरफ होता है तो उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका उहीरक होता है तो उत्कृष्टस एक समय कमसे लेकर पल्यका Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GIRI २६८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो ७ कोडाकोडीयो पलिदो० असंखे भागेण ऊणाओ। ५७१. सम्म० उक्क द्विदिउदी० वारसक० छष्णोक. सिया उदी० । जदि उदी० णियमा अणुकस्सा अंतोमुहत्तणमादि, कादण जाव पलिदो० असंखे०भागेणूया मार्गदर्त। एवं समामि सुविधाता ६५७२. अणताणु-कोध० उक्क० विदिउदो० मिच्छ० तिण्हं कोहाणं णियमा उदी०, उक्क० अणुक । उकस्सादो अणुक्कस्सा समगुणमादि कादण जार पलिदो० असंखे०भागेणूणा | रणवणोक० जहा मिच्छत्तण गीदं तहा रणेद्ध्वं । एवं पण्णारसकसाय० । ६५७३. इस्थिवेद० उक० विदिमुदी० मिच्छ० पिप० उदी. णिय. अणुकस्सा समयूणमादि कादूण जाब पलिदो० असंखे०भागेणूणा ति । सोलसक० सिया उदी० । णिय० अणुक० समयूणमादि कादण जाव आवलियणा ति । हस्स-रदि० सिया उदी० । जदि उदी० उक्क० अणुक्क० वा । उक्क • अणु० समयूणमादि कादूण जाय अंतोकोडाकोडि ति । अरदि-सोग० सिया उदी । जदि उदी० उक्क० अणुक० वा । उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समयणमादि कादण जाव वीसं सागगे० कोडाकोडीनो पलिदो० असंख्यातवाँ भाग कम बीस कोदाकड़ी सागरप्रमाण अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है ।। ५७१, सम्यक्त्वको उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक जीव बारह कपाय और छह नोकषायका कदाचित् नदीरक होता है। यदि जदीरक होता है तो नियमसे अन्तमुहूर्त कमसे लेकर पल्यके.' असंख्यातवें भाग का तक अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है । इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यात्वको उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकका विवक्षित कर सन्निकर्प जानना चाहिए। १५७२. अनन्तानुबन्धी क्रोधी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक जीव मिथ्यात्व और तीन क्रोधका नियमसे उदारक होता है जो उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट स्थितिका उदारक होवा है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा एक समय कमसे लेकर पल्यके असंख्यातवें भाग कम तककी अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरफ होता है। नौ नोकपायोंका सन्निकर्ष जैसे मिथ्यात्वके साथ ले गये हैं वैसे ले जाना चाहिए। इसीप्रकार पन्द्रह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति के उदीरककी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ५७३. स्त्रीधेदकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक जीव मिथ्यात्वका नियमसे उदीरक होता है जो नियमसे उत्कृष्ट की अपेक्षा एक समय कमसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम तककी अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। सोलह कषायोंका कदाचित् उदीरक होता है। यदि उदीरक होता है तो नियमसे उत्कृष्टकी अपेक्षा एक समय कमसे लेकर एक पावलि कम तककी अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है । हास्य और रतिका कदाचित् जहीरक होता है । यदि उदीरक होता है तो उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका । उदीरक होता है तो उत्कृष्ट की अपेक्षा एक समय कमसे लेकर अन्त:कोडाकोडी तकको अनुत्कृष्ट . स्थितिका उदीरक होता है । अति और शोकका कदाचित् उदीरक होता है । यदि नदीरक होता है तो उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है तो उत्कृष्ट की अपेक्षा एक समय कमसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम पीस कोड़ाकाड़ी Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६९ गा० ६२] उत्तरपयलिहिदिउदीरणाप सरिणयासो असंखे० भागेण्णाश्रो । भय-दुगुंछ. सिया उदी०। जदि उदी० णियमा उक्कस्सा । एवं पुरिसवेद । एवं हस्स० । णवरि अरदि-सोग० णस्थि । इथिवे-पुरिसवे. सिया उदी० । जदि उदीर० उक्क० अणुक्क ० वा। उक्क० अणु• अंतोमुहुत्तणमादि कादण जात्र अंतोकोडाकोडि सि । गस० सिया उदी० । जदि उदी. उक० अणुकस्सा वा । उक्कस्सादो अणुकस्सा समयूणमादि काद्ग जाव त्रीसं सागरोवमकोडाकोडीओ पलिदो० असंखे भागेणूणाम्रो । रदि० णियमा उक्कस्सा । एवं रदीए । १५७४. णस० उक्क हिदिमुदीरेंतो० मिच्छ. णिय. उदीर०, उक्क० अणुक्क० चा । उक्क० अणुक्क० समयणमादि कादण जाव पलिदो० असंखे० भागेणूणा । सोलसक० सिया उदीर० । जदि उदीरे० उक० अणुक० का। उक्कस्सादो अणुकस्सा समयणमादि कादण जाव आवलियुणा सि । हस्स-रदि-अरदि-सोग-भय-दुगुंछा. जहा इस्थिवेदेण णीदं तहा णेदव्यं । एवमरदीए । णवरि हस्स-दी० गस्थि । तिणि वेद० सागरप्रमाण तककी अनुपस्थितिक्षाचार्य की होमाईलाग्यौहानुषप्साका कदाचित् उदीरक होता है। यदि उदीरक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। इसीप्रकार पुरुपवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकको विवक्षित कर सन्निकर्ष जानना चाहिए । इसीप्रकार हास्यकी उत्कृष्ट स्थिति के उदीरक जीवको विवक्षित कर सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके अति और शोर की उदीरणा नहीं होती। वह स्त्रीवेद और पुरुषवेदका कदाचित उदीरक होता है । यदि उदीरक होता है तो उत्कृष्ट या अनुस्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है तो उत्कृष्ट की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त कमसे लेकर अन्तः कोड़ाफोड़ी सागर तककी अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। नपुसकवेदका कदाचित् उदीरक होता है। यदि दीरक होता है तो उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा एक समय कमसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम बीस कोडाकोड़ी सागर तककी अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। रतिको नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। इसीप्रकार रतिकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाको विवक्षित कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। ६५७४. नपुसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक जीव मिथ्यात्वका नियमसे उदीरक होता है जो उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा एक समय कमसे लेकर पल्यका भसंख्यातवाँ भाग कम तककी अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। सोलह कषायका कदाचित् उदीरक होता है। यदि उदीरक होता है तो उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। यदि अनुस्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा एक समय कमसे लेकर एक प्रावलि कम तककी अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। यहाँ हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका भंग जिस प्रकार स्त्रीवेदके साथ ले गये उस प्रकार ले जाना चाहिए । इसीप्रकार अरतिकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाको विवक्षिप्त कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसके हास्य और रतिकी उदीरणा नहीं है। इसके तीन वेदोका भंग जिस प्रकार हास्य और रतिके साथ ले गये Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गचर्मक :- आचार्य श्री सुविधिलयमवलीसहिदकसायपाहुडे [बेदगो जहा हस्स-रदीहिं तहा णेयव्यं । सोग णिय० उदी०, णिय० उकस्सं । एवं सोगः । । ५७५. भय० उक्क० द्विदिमुदी० मिच्छ ०-सोलमकल हम्स-रदि-अरदि-सोग. णस० भंगो। तिषिणवेद० हस्समंगो। दुगुंछ सिया उदी० । जदि उदी णिय. उक्क । एवं दुगुंछ । एवं सब्वणेरड्य० | णवरि णवु'स धुवं कादव्यं । ५७६. तिरिक्स-पंचिंदियतिरिक्खतिये ओघं । णवरि पञ्ज. इथिवे. णस्थि । जोणिणीसु इस्थिवेदं धुब कादव्वं । मणुसतिय० पंचिं०तिरिक्खतियभंगो । देवाणमोघं । णवरि णस० गस्थि । एवं भवण०-दाणवें-जोदिसि ०-सोहम्मीसाणा त्ति । एवं सणकुमागदि जाव सहस्सारे त्ति । णवरि पुरिसके० धुवं कायब्वं । ___५७७. पंचिं०तिरि० अपज० मिच्छ० उक्क० द्विदि उदी० सोलसक०० छण्णोक० सिया उदी० । जदि उदी• उक्क० अणुक० वा। उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समयणमादि कादूण जाव पलिदो० असंखे भागेणूणा ति । एवं णवुस० | णपरि .............AAAAAAy.. उस प्रकार ले जाना चाहिए। ग्रह शोकका नियमसे उदीरक होता है जो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। इसीप्रकार शोककी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाको विवक्षित कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। १.५७१. भयकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीवका मिथ्यात्य, सोलह कषाय, हास्य, रसि, . अरति और शोकके साथ सन्निकर्षका भंग नपुसकवेदकी उत्कृष्ट स्थिति के उदीरक जीवको विवक्षित कर इन प्रकृतियोंके साथ कहे गये भंगके समान है। तीन वेदका भंग हास्य प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीवको विवक्षित कर इन प्रकृतियों के साथ कहे गये भंगके समान है। यह जुगुप्साका कदाचित् उदीरक होता है। यदि उदीरक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। इसीप्रकार जुगुप्साकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाको विवक्षित कर सन्निकर्ष कहना चाहिए। इसीप्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें नपुसकवेदकी जदीरणाको ध्रुव करना चाहिए। ६५७६. निर्यकच और पश्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिको आंघ के समान भंग है। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकों में बीवेदकी उदीरणा नहीं है तथा योनिनियों में स्त्रीवेदकी उदीरणाको ध्रुव करना घाहिए। मनुष्यत्रिक पञ्चेन्द्रिय तिर्यत्रिकके समान भंग है । देषोंमें श्रोधके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें नपुसकवेदकी उदीरणा नहीं हैं। इसीप्रकार भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी तथा सौधर्म और ऐशानकल्पके देवोंमें जानना चाहिए । इसीप्रकार सनत्कुमारकल्पसे लेकर सहास्नारकल्प तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदकी उदीरणाको ध्रुव करना चाहिए। ६५७७. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों में मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक जीव सोलह कषाय और छह नोकपायोंका कदाचित् उदीरक होता है। यदि उदीरक होता है तो उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है । यदि अनुकृष्ट स्थितिका उदीरक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा एक समय कम स्थितिसे लेकर पल्यके असंख्यात भाग कम तककी अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। इसीप्रकार नपुसकवेदकी अपेक्षा भंग जान लेना चाहिए। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जामहाराज गा० ६२] सत्तरपयचिद्विदिउदीरणाए सरिणयासो २७१ णिय. उदी। ___६५७८. अर्णताणु०कोध० उक्क० द्विदिमुदीरें० तिण्हं कोधं स० णिय. उदी० णिय० उकसं शिणोकसिया दीदि जुदीः णियमा उक्कस्सं । मिच्छ० णिय० उदी० उक० अणुक्क० चा । उक्क० अणुक्क • समयूणमादि कादण जाव पलिदो० असंखे भागेणूणा । एवं पण्णारसक० । ५७९. हस्स० उक० हिदिमुदीरें सोलसक०-भय-दुगुंछ• सिया उदीरे० । जदि उदी० णिय० उक्कस्सं । मिच्छ० अणताणु०चउक्कभंगो । रदि-णवुम० णिय० उदी० णिय० उक० । एवं रदीए ! एवमरदि-सोगाणं । ५८०. भय-उक० विदिमुदीर० मिच्छ०-णवूस. हस्सभंगो । सोलसक०पंचणोक० सिया उदी० । जदि उदी, णिय० उक्क० । एवं दुगुबाए । ६५८१. गवुस० उक. विदिमुद्री० मिच्छत्त० हस्सभंगो । सोलसक.. छपणोक० सिया उदी० । जदि उदी०, णिय० उक० । एवं मणुसअपज्ज। इतनी विशेषता है कि वह इसका नियमसे उदीरक होता है। ६५७८. अनन्तानुबन्धी क्रोधकी उत्कृष्ट स्थितिफा उदीरक जीव तीन क्रोध और नपुंसमवेदका नियमसे उदीरक होता है जो नियमसे उत्कृष्ठ स्थितिका उदीरक होता है। छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक होता है । यदि उदीरक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है । मिथ्यालका नियम उदीरक होता है जो उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट स्थितिका जदीरक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है तो उत्कृष्टकी अपेक्षा एक समय कम स्थितिसे लेकर पल्य का असंख्यातवाँ भाग कम तककी अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। इसीप्रकार पन्द्रह कपायकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। ६५७६. हास्यकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक जीव सोलह कपाय, भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक होता है । यदि उदीरक होता है तो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है। मिथ्यात्वका भंग अनन्तानुबन्धीचतुष्कके समान है। रति और नपुंसकवेदका नियमसे उदीरक होता है जो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका उहीरक होता है। इसीप्रकार रतिकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए । तथा इसीप्रकार भरत्ति और शोककी उत्कृष्ट स्थितिको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए । F५८०. भयकी उत्कृष्ट स्थितिके उद्दीरक जीवके मिध्यात्व और नपुंसकवेदका भंग हास्यके समान है। मालइ कपाय और पाँच नोकषायका कदाचित् उदीरक है । यदि उदीरक है तो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक है। इसीप्रकार जुगुप्साकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए । ५८१. नपुसकवेदकी उत्कृष्ट स्थिठिके उदीरक जीवके मिथ्यात्वका भंग हास्यके समान है। सोलह कषाय और छह नोकषायकी उत्कृष्ट स्थितिका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है. तो नियगसे उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक है। इसीप्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ जयधवलासहिदे कसायपाहुद्दे [वेदगो ५८२. आणदादि रणवत्रा ति मिच्छ० उक. द्विदिमुदी० सोलसक०भय-दुगुका सिया उदी । जदि उदी०, णियमा उक्क० । हस्स-रदि-पुरिसवेद. णियमा उदीरेदि, णिय० उक्क० । एवं सम्म० | णरि अर्णताणु चउक्कं णस्थि । ५८३. सम्मामि० उक० ट्ठिदिमुदीर० बारसक०-छण्णोक० सिया उदीर० । जदि उदी०, णिय. अणुक० असंखे०भागहीणं । पुरिसवे० णिय० उदी०, णिय. अणुक्क० असंखे० भागही । ६.५८४. अणूताणूकोधाव सावद्धिविरुदीरम्हामिछ०-तिष्णिकोध-हस्सरदि-पुरिसके० मिय० उदी०, णिय० उक० । भय-दुगुछ• मिच्छत्तभंगो । एवं विण्हं कसायाणं। ६५८५. अपच्चक्खाणकोध० उक० द्विदिमुदी० मिच्छ०-सम्म०-अणंतागु०कोध-भय-दुगुछ• सिया उदी० । जदि उदी० णियमा उकस्सा | दोएहं कोधाएं हस्स-रदि-पुरिसवे० णिय० उदी०, णिय० उक्तः । एवमेक्कारसक० । ६५८६. हस्सस्स उक्क० द्विदिमुदी. मिच्छ०-सम्म०-सोलसक०-भय-दुगुक० पागदशक (५८२. मानतकल्पसे लेकर नौ अवेयक तकके देवों में मिथ्यात्वको उत्कृष्ट स्थितिका । उदीरक जीव सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है तो नियम से उत्कृष्ट स्थितिका बदीरक है। हास्य, रति और पुरुषवेदका नियमसे उदीरक है जो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक है। इसीप्रकार सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदारणाको मुख्प कर सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उदीरणा नहीं है। ६५८३. सम्यग्मिध्यात्यकी उत्कष्ट स्थितिका उदीरक जीव बारह कषाय और छह नोकषायका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे असंख्यातवें भागही अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक है। पुरुषवेदका नियमसे उनीरक है जो नियमसे असंख्यात भारहीन अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक है। ६५८४. अनन्तानुबन्धी क्रोधकी उत्कृष्ठ स्थितिका उदीरक जीव मिथ्यात्व, तीन क्रोध, हास्य, रति और पुरुषवेदका नियमसे उदीरक है जो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका उदोरक है। इसके भय और जुगुप्साका भंग मिथ्यात्वके समान है। इसीप्रकार मान प्रादि तीन कषायों की उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। 1. अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक जीव मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, अनन्तानुबन्धी क्रोध, भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है। यदि बदीरक है तो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक है। दो क्रोध, हास्य, रति और पुरुषवेदका नियमसे उदीरक है जो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक है। इसीप्रकार ग्यारह कषायकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। ५८६. हास्यकी उत्कृष्ट स्थितिका सदीरक जीव मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सोलह कषाय, Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपडिटिदिउदोरणाए सरिणयासो २७३ सिया उदी० । जदि उदी० णिय० उक्क० । रदि-पुरिसवे० णिय. उदी०, णिय० उकास्सं । एवं रदीए। ५८७. अरदि० उक्क० द्विदिमुदी० मिच्छ ०-सम्मा०-सोलसक०-भय-दुगु० सिया उदी । जदि. उदी, णिय. अणुक० असंखे०भागही । पुरिसवे० पिय. उदी०, णिय० · अणुक्क • असंखे०भागही । सोगं णिय. उदी०, णिय० उक० । एवं सोग। मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ५८८. भय उक्क० द्विदिमुदी० मिच्छ० - सम्म० - सोलसक० -हस्स-रदिपुरिभवे० अपञ्चक्खाणभंगो। दुगु'छा० सिया उदी० । जदि उदी०, गिय० उकस । एवं दुगुकाए । ५८१. पुरिसवेद० उक्क० हिदिमुदी० मिच्छ०-सम्म०-सोलसक०-भय-दुगुहा० सिया रदी । जदि उदी०, णिय० उक्कस्सं । हस्स-रदि० णिय उदी०, णिय० उकस्सं । १५९०. अणुद्दिमादि सब्वट्ठा ति सम्म उक्क० द्विदिमुदीरे० बारसक-भयदुगुंछा० सिया उदी० 1 जदि उदी. गिय० उक० । हस्स-रदि-पुरिसवे. णिय. उदी०, णिय० उक्कस्सं । भय और जुगुप्साका कदाचित् बदीरक है। यदि उदोरफ है तो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक है। रति और पुरुषवेदका नियमसे उदीरक है जो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक है। इसीप्रकार रतिकी उत्कृष्ट स्थितिकी जदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। ६५८७. अरतिकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक जीव मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सोलह कपाय, भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है। यदि अदीरक है तो नियमसे असंख्यातवें भागहीन अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक है। पुरुपयेदका नियमसे उदीरक है जो नियमसे 'असंख्यातवें भागहीन अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक है। शोकका नियमसे उदीरक है जो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक है। इसी प्रकार शोककी उत्कृष्ट स्थितिकी उदारणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। F५८८. भयकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीवके मिथ्यात्व, सम्यक्त्र, सोलह कषाय, हास्य, रति और पुरुषवेवका भंग अप्रत्याख्यानावरणके समान है। जुगुप्साका कद चित उदीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक है। इसीप्रकार जुगुप्साकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। ६५८९, पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक जीव मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सोलह कपाय, भय और जुगुप्साका कदाचित् उदोरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका उदीरफ है । हास्य और रतिका नियमसे उदीरक है जो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक है। ५६०. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक जीव बारह फपाय, भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है। यदि उनीरक है तो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक है। हास्य, रति और पुरुषवेदका नियमसे उदीरक है जो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक है। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य वषसिंहये कसाया पराज [ वेदगो ७ + १५९१. अपच्चक्ख. कोह उक्कत्स० डिदिमुदी० सम्म० - दोकोध-हस्स-रदिपुरिमवेद० णियः उदी०, णिय० उकस्सं । भय-दुगुं श० सम्मत्तभंगो । एवमेकारसक० । ૨૪ ९ ५९२. हस्सस्स उकः डिदिमुदी० सम्म० र दिपुरिसवेद० निय० उदीर०, सिय० उकरूपं । बारसक० -भय-दुगु छा० सम्मत्तमंगो | एवं रदीए । 2 O ६५९३. अरदि उक० डिदिमुदी० सम्म० पुरिस वे खिय० उदीर, जिय० क० असंखे० भागही | वारसक० -भय-दुगु ० सिया उदी० । जदि उदी० णिय० अणुक्क० असंखे० भागहीणं । सोगं जय० उदी०, निय० उकस्सं । एवं सोग० । १५९४. भय० उक्क० विदिमुदीरे० सम्मा०-हस्स~रदि- पुरिसके० रिणय० उदी० निय० उक्करसं । बार्सक० - दुगु छा० सिया० उदी० । जदि उदी०, निय० उक० । एवं दुगु छा० । ३५९५. पुरिस० उक० डिदिमुदी० सम्म ०~हस्स-रदि० निय० उदी०, णिय० उक्करसं० । चारसक०-भय-दुगु छा० सिया उदी० । जदि० उदी०, गिय० उक० । १५३१. अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक जीन सम्यक्त्व, दो क्रोध, हास्य, रति और पुरुषवेदका नियमसे उदीरक है जो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक है । इसके भय और जुगुप्साका भंग सम्यक्त्वके समान है । इसीप्रकार ग्यारह कपायकी उत्कृष्ट ferfast उदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए । ६५६२. हास्यकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक जीव सम्यक्त्व, रवि और पुरुषवेदका नियमसे उदीरक हैं जो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक हैं। इसके बारह कषाय, भय और जुगुप्साका भंग सम्यक्त्वके समान है। इसीप्रकार रतिकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए । ६ ५६३, अरति की उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक जीव सम्यक्त्व और पुरुषवेदका नियमसे दरक है जो नियमसे असंख्यातवें भागहीन अनुत्कृष्ट स्थितिका उदीरक है। बारह कपाय, भय और जुगुप्साका कदाचित् उदरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे श्रसंख्यातवें भागहीन अनुत्कृट स्थितिका उदीरक है। शोकका नियमसे उदीरक है जो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका aairs है । इसीप्रकार शोककी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष कहना चाहिए । $ ५६४. भयकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक जीव सम्यक्त्व, हास्य, रति और पुरुषवेदका नियम उदीरक हैं जो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका उद्दारक है। बारह कषाय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक है। इसीप्रकार जुगुप्साकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। १५६५. पुरुषवेदक उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक जीव सम्यक्त्व, हास्य और रतिका नियमसे उरक है जो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक है। बारह कषाय, भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे उत्कृष्ट स्थितिका उदोरक है I 1 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- उत्तरपयडिद्विदि उदीरणाए सविण्यासो · ० ६२. ] एवं जाव० । मिच्छ० ० $ ५९६. जण्णए पदं । दुविहो ०ि श्रषेण आदेसेण य । ओघेण १० जह० डिदिउदी० बारसक-ष्णोक० सिया उदी० । जदि उदी०, खिय अजह० संखे० गुण महियं । चदुसंजल० - तिण्णिवे० मिया उदी०, जदि उदी०, णिय० ज० असंखे०गुणन्महियं । एवं सम्म० सम्मामि० । वरि अनंतागु चकं णत्थि । २७५ $ ५९७ अनंताणु ० कोच० जह० डिदिउदी० मिच्छ० को संजल० एस० शिथ० उदी० मार्गनिया : अज्ञात दोष को धारणं शिय० उदी०, जहण्णा वा श्रजहण्णा वा । जहण्णादो अण्णा समयुत्तरमादि काढूण जाय पलिदो ० असंखे० भागमहियं | हस्म-रदि-अरदि-सोग० सिया उदी० । जदि उदी०, यि ० अजः असंखे० भागम्भहियं । भय-दुर्गुछा० सिया उदी० । जदि उदी०, जद्दण्णा अहरण वा । जहणादो अजहरुणा समयुत्तरमादि काढूण जाय आवलियन् महियं । एवमेकारसक० । ... ० ९५९८. कोहमंज० जह० हिदिउदी० सेसाणमणुदीरगो । एवं तिन्हं संजलगाणं । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ ५१६. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । घ मिथ्यात्की अन्य स्थितिका उदीरक जीव बारह कपाय और छह नोकषायका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे संख्यानगुणी अधिक अजधन्य स्थितिका उदीरक है। चार संकलन और तीन वेदका काचित् उदीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे असंख्यातगुणी अधिक अन्य स्थितिका उदीरक है । इसीप्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की जघन्य स्थितिकी उदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्षं जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके उदीरकके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उदीरणा नहीं है । ६. ५६७. अनन्तानुबन्धी कोधकी जघन्य स्थितिका उदीरक जीव मिध्यात्व, कोधसंज्वलन और संवेदका नियमसे उदीरक है जो नियमसे असंख्यातगुणी अधिक अन्य स्थितिका उदीरक है । दो धांका नियमसे उदरक है जो जघन्य वा श्रजघन्य स्थितिका उदरिक है । यदि अन्य स्थितिका उदीरक हैं तो जघन्यकी अपेक्षा एक समय अधिक से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तककी अन्य स्थितिका उदीरक है। हास्य, रति, अरति और शोकका कदाचित् उदीरक है। यदि उदारक है तो नियमसे असंख्यातवाँ भाग अधिक अजघन्य स्थितिका प्रदीरक हैं। भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्य या अजघन्य स्थितिका उदीरक है। यदि अजघन्य स्थितिका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा एक समय अधिक स्थितिसे लेकर एक प्रावलि अधिक तककी श्रजघन्य स्थितिका उदीरक है। इसीप्रकार ग्यारह कषायकी जघन्य स्थितिको उदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए | ३५६८. कोपसंज्वलनकी अन्य स्थितिका उदीरक जीव शेष प्रकृतियोंका अनुदीरक Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावधासागर जामहाराज HTHHTHHALEE २७६ - जयधवलासहिदे कसायपाहुढे [वेदगो ५९९, इथिवे. जह० द्विदिउदी० चदुसंज० सिया उदी० | जदि० उदी०, णिय० अज० असंखे गुणभ० । एवं पुरिसके। ६००. हस्सइस जह० द्विदिमुदी० मिच्छत्तं णिय० उदी०, णिय. अजह. असंखे०गुणब्भ० । बारसक०-भय-दुगुला० सिया उदी० । जदि उदी०, णिय ० अजह संखेन्गुणभहियं । चदुसंजलण-तिएिणवे. सिया उदी। जदि उदी०, णिय० अजन , असंखेगुणभ० । रदि० णिय. उदी०, णिय० जहरणं । एवं रदीए । एवम.दि-सोग० | ६६०१. भय० जह० द्विदिउदी० मिच्छ०-णम० णिय० उदी। णिय० अजहएणा असंखे०गुणभ० । बारसमसया उदो दि उदी, जह० अजहण्णा था। जहण्णादो अजहण्णा समयुत्तरमादि कादण जाय पलिदो० असंखे भागभ० । चदुसंजल० मिण उदी० । जदि० उदी०, गिय० प्रजह० असंखे गुण भ० । हस्सरदि-अरदि-सोग० मिया उदी० । जदि उदी, णिय. अज. असंखे भागभः । दुगुला० सिया उदी० । जदि० उदी०, णिय० जहण्णा । एवं दुगुलाए । है। इसीप्रकार तीन संज्वलनकी जन्य स्थितिउदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए । ५६६. स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिका उदीरक जीव चार संज्वलनोंका कदाचित् जीरक है। यदि उदीरफ है तो नियमसे असंख्यातगुणी अधिक अजघन्य स्थितिका उद्दीरक है। इसीप्रकार पुरुषवेदकी जघन्य स्थिसिउदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए । ६००, हास्यकी जघन्य स्थितिका उदीरक जीव मिथ्यात्वका नियमसे उदीरक है जो नियमसे असंख्यातगुणी अधिक अजघन्य स्थितिका उदीरक है। बारह क.पाय, भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे संख्यातगुणी अधिक अजघन्य स्थितिका जदीरक है। चार संज्वलन और तीन वेदका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है ता नियमसे असंख्यातगुणी अधिक 'अजघन्य स्थितिका उदीरक है। रतिका नियमसे उदीरक हैं जा नियमसे जघन्य स्थितिका उदोरक है। इसी प्रकार रसिकी जघन्य स्थिति उदारणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। तथा इसीप्रकार अरति और शोककी जचन्य स्थितिउदारणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। ६०१. भयकी जघन्य स्थितिका उदीरक जीव मिथ्यात्व और नपुंसकबेदका नियमसे उदीरक है जो नियमसे असंख्यात गुणी अधिक अजयन्य स्थितिका उदारक है । यारह कपायका कदाचित् दीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्य या अजघन्य स्थितिका उदीरक है। यदि अजघन्य स्थितिका उनीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा एक समय अधिकसे लेकर पल्यका असंख्यातवा भाग अधिक तककी अजयन्य स्थितिका जदीपक है। चार संज्वलनका कदाचित् उदारक है। यदि उहीरक है तो नियमसे असंख्यातगुणी अधिक अजघन्य स्थितिका उदीरक है। हास्य, रति, भरति और शोकका कदाचिन उदीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे असंख्यातवाँ भाग अधिक अजघन्य स्थितिका उदीरक है। जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है । यदि उदीर क है तो नियमसे जघन्य स्थितिका उदोरक है । इसीप्रकार जुगुप्साकी जयन्य स्थिति 1. आप्रती संखे गुणभ० इनि पारः । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयश्चिद्विदिउदीरणाए सरिणयासो २४७ १६०२, आदेसेण णेरड्य० मिच्छ० जह० द्विदिउदी० सोलसक०-छण्णोक० सिया उदी० । जदि उदी०, णिय० अज० संखे गुणब्भ | णस० णिय० उदी०, णिय० अजह. संखेन्गुणब्भ० । एवं सम्म० | णवरि अणंताणु०४ णस्थि । एवं सम्मामि । ६०३. अणताणु० कोध० जह० द्विदिउदी० मिच्छ० णिय. उदी०, णिय० अजह० असंखे गुणब्भ । तिण्डं कोधाणं जहण्णा बा अजहएणा वा । जहण्णादो अजहरणा समयुत्तरमादि कादण जाव पलिदो० असंखे भागभ० । अरदि-सोगणवूस० णिय० उदी०, णिय० अजह० असंखे भागभ० । भय-दुगुंछा० मिया उदी | जदि उदी, णिय० जहण्णा । एवं पण्णारसकसायाणमण्णमण्णस्म । ६०४. णबुंसयवेद० जह. द्विदिउदी० मिच्छ० णिय० उदी०, णिय. अजह० असंखेगुणब्भ० । सोलसक०-भय-दुर्गुला० सिया उदी० । जदि उदी०, णिय० अजह० संखेगणम । हस्स-रदि-अरदि-सोग० सिया उदी । जदि उदी०, णिय. अजह० विट्ठाणपदिदा असंख भागभः सखाजगुशी महिवयाह जी महाराज उदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए । १६०२. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्वको जघन्य स्थितिका उदीरक जीव सोलह कषाय और छह नोकषायोका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे संख्यातगुणी अधिक अजघन्य स्थितिका उदीरक है। नपुसकवेदका नियमसे उदीरक है जो नियमसे संख्यातगुणी अधिक अजघन्य स्थितिका उदीरक है । इसीप्रकार सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिकी उदीरणाको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसके अनन्लानुबन्धीचतुष्ककी उदारणा नहीं होती। इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिको उदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्प जानना चाहिए। ६०३. अनन्तानुबन्धी कोधकी जवन्ध स्थितिका पदोरक जीव मिथ्यात्वका नियमसे उदीरक है जां नियमसे असंख्यातगुणी अधिक अजघन्य स्थितिका उदीरक है। तीन क्रोधोंकी जघन्य या अजधन्य स्थितिका उदीरक है। यदि अजघन्य स्थितिका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा एक समय अधिकसे लेकर पल्यके असंख्यातवं भाग अधिक तककी अजघन्य स्थितिका उदीरक है । अरति, शोक और नपुसकवेदका नियमसे उदीरक है जो नियमसे असंख्यातवें भाग अधिक अजघन्य स्थिति का उदीरक है। भय और जुगुप्साका कदाचित् दीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे जघन्य स्थितिका उदीरक है। इसीप्रकार पन्द्रह कपायकी जघन्य स्थितिउदीरणाको मुख्य कर परस्पर सन्निकर्प कहना चाहिए । ६.४. नपुसकवेदकी जघन्य स्थितिका उदीरक जीव मिथ्यात्वका नियमसे उदीरक है जो नियमसे असंख्यातगुणी अधिक अजघन्य स्थितिका उदीरक है। सोलह कपाय, भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है ना नियमसे संख्यातगुणी अधिक अजघन्य स्थितिका उदीरक है । हास्य, रनि, अरति और शोकका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे अमन्यात भाग अधिक या संख्यातगुणी अधिक इसप्रकार विस्थानपतित भजघन्य स्थितिका उद्दीपक है। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ १६०५. हस्सस्स जह० द्विदिमुदी० मिच्छ० सोलसक०-भय-दुगुंछ० गईसयभंगो। णस० णिय उदी० णिय. अज० संखे०गुणब्भ० । रदि णिय उदी० णिय० जहण्णा । एवं रदीए । एवमरदि-मोगाणं ! ६०६. भय. जह० डिदिउदी० सोलसक० सिया उदी० | जदि० उदी, जहण्णा अजहण्णा था। जहण्णादो अजहण्णा बिट्टाणपदिदा असंखे०भागम० संखे०भागभ० वा । मिच्छ० अरदि-सोग-गस० अणंताणुबंधिभंगो । दुगुबा० सिया उदी० । जदि उदी०, णिय० जहण्णा | एवं दुगुंलाए । एवं पढमाए पुढवीए दछ । ६०७. विदियादि जाय छट्टि चि मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि० रिणरयोघभंगो । अणताणुकोध० जह. द्विदिउदी० मिच्छ० णिय उदी. णिय ० अज० असंखे०. गुणब्भ० । तिण्ड कोधाणं णवंसय० णिय ० उदी णिय. अजह. असंखेचभागम्भ। छएणोक० सिया उदी० । जदि उदी०, णिय० अजह. असंख० भागभ । एवं तिण्ई कसायाणं । मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी म्हारोज" | एष तिण्ह ६०८. अपचक्खाणकोष० जह० द्विदिउदी. दोण्हं कोधाणं एवंस० णिय० ६६०५. हास्यकी जघन्य स्थितिके उदीरक जीवके मिथ्यात्व, सोलह कपाय, भय और जुगुप्साका भंग नपुसकत्रेदके समान है। नपुसकवेदका नियमसे उदीरक है जो नियमसे संख्यातगुणी अधिक अजवन्य स्थितिका नदीरक है। रतिका नियमसे उदीरक है जो नियमसे. जयन्य स्थितिका उदीरक है। इसी प्रकार रतिकी जघन्य स्थितिकी उदीरणाको मुख्य के. सन्निकर्प जानना चाहिए। इसीप्रकार अरति और शोककी जघन्य स्थितिकी उदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। १६०६. भयकी जघन्य स्थितिका उदीरक जीव सोलह कपायका कदाचित् उदीरक है। यदि उदारक है. तो जघन्य या अजघन्य स्थितिका उदीरक है। यदि अजघन्य स्थितिका उदीरक है ता जवन्यकी अपेक्षा असरल्यात. भाग अधिक या संख्यातवें भाग अधिक द्विस्थानपतित अजवन्य स्थिति का उदीरक है। मिथ्यात्व, अरति, शोक और नपुसकवेदका भंग अनन्तानुबन्धीक समान है। जुगुप्साका कदाचित उदीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे जघन्य स्थिति का उधारक है । इसीप्रकार जुगुप्साकी जघन्य स्थितिकी उीदरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए | इसीप्रकार प्रथम पृथिवीमें सन्निकर्ष जानना चाहिए। ६६०७. दूसरोसे लेकर छटी पृथिवी तकके भारकियोम मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग सामान्य नारकियोंके समान है। अनन्तानुबन्धी क्रोधको जघन्य स्थितिका उदीरक जीव मिथ्यात्वका नियमसे उदीरक है जो नियमसे असंख्यातगुणी अधिक अजवन्य स्थितिका उदीरक है। तीन क्रोध और नपुंसकवंदका नियमसं उदीरक है, जो नियमसे प्रसंन्यात भाग अधिक अजघन्य स्थितिका उदीरक है। छह नोकपायांका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है ता नियमसं असंख्यानवें भाग अधिक अजघन्य स्थितिका उदारक है। इसीप्रकार तीन कपायोंकी जवन्य स्थिति उदारणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए । ३६०८, अप्रत्याख्यान काधकी जन्य स्थितिका उदीरक जीव दो क्रोध और नपुसकवेद Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२] उत्तरपडिष्टिविधारणाए सरिणयासो २७४ उदी० णिय जहण्णा । छण्णोक० सिया उदी । जदि उदी, णिय० जहण्णा | सम्म० रिणय० उदी० णिय० अज्ञ संख-गुणभः । एवमेकारसकमा । ६०९. हस्सस्स जह. विदिउदी. बारसक०-भय-दुगुंला. सिया उदी । जदि उदी०, णिय० जहण्णा । रदि-णबुस० णिय. उदी० मिय • जहष्णा । सम्मा० अपचक्खाणभंगो । एवं रदीए । एवमरदि-सोगाणं । :६१०. भय जह० द्विदिमुदी० सम्मा०-णस० हरसभंगो। बारसक०पंचणोक. सिया उदी० । जदि उदी०, णिय० जहण्णा । एवं दुगुंछाए । ६११. एस. जह. विदिउदी० सम्म हस्सभंगो । चारसक एणोकल सिया उदी० । जदि उदी०, णिय० जहण्णा । १६१२. सत्तमाए मिदम-सममाक्षि श्री शिलवेधांगर अणंडाशुभकोध० जह० द्विदिउदी० मिच्छ०-पण्णारसक० सत्तणोक. पिरयो । णवरि भय-दुगुंछा. सिया उदी० । जदि उदी. जण्णा चा अजहण्णा वा | जहण्णादो अजहण्णा का नियमसे उदीरक है जो नियमसे जघन्य स्थितिका उदीरक है। छह नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है । यदि उदीरक है तो नियमसे जघन्य स्थितिका उदीरक है। सम्यक्तका नियमसे उदीरक जो नियमसे संख्यातगुणी अधिक प्रजघन्य स्थितिका उदीरक है। इसीप्रकार ग्यारह . कषायोंकी जघन्य स्थिति उदारणाको मुख्य कर सन्निप जानना चाहिए। ६६०६. हास्यकी जघन्य स्थितिका उदोरक जीव मारह कपाय, भय और जुगुप्साका कदाचिन् उदीरक है। यदि उदीरक है नो नियमसे जघन्य स्थितिका उदीरक है। रात और नपुसकावेदका नियमसे उदीरक है जो नियमसे जघन्य स्थितिका उदीरक है। सम्यक्त्वका भंग अप्रत्याख्यानके समान है। इसीप्रकार रतिकी जघन्य स्थितिउदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। इसीप्रकार अरति और शोकको जघन्य स्थितिउदारणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। 5६१०. भयकी जघन्य स्थितिके उदीरक जीवके सम्यक्त्व और नपुसकवदका भंग हास्यके समान है। वह बारह कषाय और पाँच नोकषायका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे जघन्य स्थितिका उदीरक है। इसीप्रकार जुगुप्साकी जघन्य स्थितिउदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए । ६११. नपुसकवेदकी जघन्य स्थितिके उदीरक जीवक सम्यक्त्वका भंग हास्यके समान है। यह बारह कषाय और छह नोकषायका कदाचित उदीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे जघन्य स्थितिका उदीरक है। ६१२. सातवीं पृथिवीमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग सामान्य नारकियोंके समान है। अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जघन्य स्थितिके उदीरकके मिथ्यात्व, पन्द्रह कपाय और सात मोकपायका भंग सामान्य नारकियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्य या अजघन्य स्थितिका उदीरक है। यदि अजघन्य स्थितिका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा एक समय अधिकसे लेकर एक Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० अयधवलासहिदे कसायशाहुडे [ वेदगो समयुत्तरमादि कादरण जाब आलियम्भहिया । इस्स-रदि-अरदि-सोग शिया उदी० । जदि उदी०, णिय. अजह "असख भागमः । एवं यण्णारसक० । णमयवेदहस्स रदि-अरदि-सोग० पिरयोघं । भय-दुगुंछा रिणरयोधं | णवरि सोलसक० सिया उदी० | जदि उदी०, जहण्णा वा अजहण्णा वा । जहरणादो अजहरणा तिहारणपदिदा असंखे०भागभ० संखे० भागब्भ० संखेन्गुणब्भहिया वा। ६१३. तिरिक्खेसु मिच्छ० जह० द्विदिउदी० सोलसक०-णवणोक० सिया - उदी० | जदि उदी०, णिय. अजह. संखे गुणम्भः । एवं सम्मामि० । णवरि अणंताणु० चउकं णस्थि । एवं सम्मत्तं । गवरि पुरिसवेदं धुवं कायब्वं । सोलमक० सत्तमाए भंगो। ३६१४. इथिवेद. जह. हिदिउदी० मिच्छ० णिय उदी० णिय० 'अजह. असंखे गुणब्भ० । सोलसक०-भय-दुगुंछा० सिया उदो० । जदि उदी०, णियमा अजह० संखेजगुणम्भ । हस्स-रदि-अरदि-सोगः सिया उदी० । जदि उदी०, णिय० अजहण्णा संखे०गुणब्भहिया | एवं पुरिसके । मावलि अधिक तककी अजघन्य स्थितिका बदीरक है। हास्य, रति, अरति और शोकका कदाचित् उदीरक है । यदि उदीरक है तो नियमसे असंख्या भाग अधिक अजघन्य स्थितिका उदारक है। इसीप्रकार पन्द्रह कषायकी जघन्य स्थितिउदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए । नपुसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी जघन्य स्थितिउदीरणाको मुख्य कर ... सन्निकर्षका भंग सामान्य नारकियों के समान है। भय और जुगुप्साकी जयन्य स्थितिसदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्षका भंग सामान्य नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि सोलह कषायका कदाचित् उदीरक हैं। यदि उदीरक है तो जघन्य या अजघन्य स्थितिका उदीरक है । यदि अजघन्य स्थितिका बदीरक है तो जबन्यकी अपेक्षा असंख्यातवें भाग अधिक, संख्यातवें भाग अधिक या संख्यातगुणा अधिक त्रिस्थानपतित अजन्य स्थितिका उदीरक है। ६६१३. तिर्यञ्चोंमें मिध्यात्व की जन्य स्थितिका उदोरक जीव सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका कदाचित् उदोरक है। यदि उदोरक है तो नियमसे संख्यातगुणी अधिक अजघन्य स्थितिका उदीरक है। इसीप्रकार सम्यग्मिध्यात्लकी जघन्य स्थिति उदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसके अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उदीरणा नहीं है। इसीप्रकार सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिउदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्प जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके पुरुषवेदकी उदीरणाको ध्रुव करना चाहिए । सोलह कषायकी जयन्य स्थितिकी उदीरणाको मुख्य कर भंग सातवीं पृथिवीके समान जानना चाहिए। ६६१४. स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिका उदीरक जीव मिथ्यात्वका नियमसे उदीरक है जो नियमसे असंख्यातगुणी अधिक अजघन्य स्थितिका उदीरक है। सोलह कषाय, भय और : जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे संख्यातगुणी अधिक अजघन्य स्थितिका उदीरक है। हास्य, रवि, अरति और शोकका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है सो नियमसे संख्यातगुणी अधिक अजधन्य स्थितिका उदीरक है। इसीप्रकार पुरुषवेदकी जघन्य स्थिसिउदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्प जानना चाहिए । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मादर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज गा० ६२] उत्तरपयदिद्विदिवतीरणाए सएिण्यासों ६१५. हस्स० जह० ढिदिउदी० मिच्छ० इथिवेदभंगो । सोलसक०-णस.. भय-दुगंछा० सिया उदी० । जदि उदी०, णिय. अजह• संखे गुणब्भ० । इथिवे.. पुरिसवे० सिपा उदी । जदि उदी०, णिय० अजह विट्ठाणपदिदा असंखे०भागब्भ० संस्खे गुणमहिया वा । रदि णियमा जहण्णा । एवं रदीए । एक्मरदि-सोगाणं । भय-दुगुंछा० अगताणु०भंगो । णवरि सोलसक० सिया उदी । जदि उदी, जह० अनह० । जह• अजहण्णा समयुत्तरमादि कादूण जाव पलिदो० असंखे०भागभ० । णवुसवे० सत्तमपुढविभंगो। ६१६. पचितिरिक्खतिये मिच्छ-सम्म०-सम्मामि सनणोक० तिरिक्खोघं । अयंताणु० कोध० जह० हिदिउदी० मिच्छ० णिय० उदी० णिय. अजह ० असंखे०गुणभ । तिण्हं कोधाणं णिय० उदी०, जह० अजह । जह० अजह. समयुत्तरमादि कादण जाव पलिदो० असंखे०मागम० । भय-दुगुंडा० सिया उद्दी० । जदि उदी०, णिय. जहण्णा । सत्तणोक० सिया उदी० । जदि उदी०, णिय अज० असंखे भागभ० । एवं पण्णारसक० । भय-दुगुंछा०तिरिक्खोघं । गवरि सत्तणोक० ६१५. हास्यकी जघन्य स्थितिके उदीरक जीवके मिथ्यात्वका भंग स्त्रीवेदके समान है । वह सोलह कषाय, नपुंसकयेद, भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे संख्यातगुणी अधिक अजघन्य स्थितिका उदीरक है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदका कदाचित् 'उदीरक है । यदि उदीरक है तो नियमसे असंख्यातवें भाग अधिक या संख्यातगुणी अधिक द्विस्थानपसित अजघन्य स्थितिका उदीरक है। रतिका नियमसे उदीरक है जो नियमसे जघन्य स्थितिका उदीरक है। इसीप्रकार रतिकी जघन्य स्थितिउदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। इसीप्रकार अरति और शोककी जघन्य स्थिति उदीरणाको मुख्य कर सग्निकर्ष जानना चाहिए । भय और जुगुप्साका भंग अनन्तानुबन्धीके समान है। इतनी विशेषता है कि वह सोलह कपायका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्य या अजघन्य स्थितिका उदीरक है। यदि अजघन्य स्थितिका उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा एक समय अधिक स्थितिसे लेकर पल्यके असंख्यातवें भाग अधिक तककी अजघन्य स्थितिका उदीरक है। नपुसकवेदका भंग सातवीं पृथिवी के समान है। १६१६. पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिभ्यात्व और सात नोकपायका भंग सामान्य तियश्चोंके समान है। अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जघन्य स्थितिका दीरक जीव मिथ्यात्वका नियमसे उदीरक है जो नियमसे असंख्यातगुणी अधिक अजघन्य स्थितिका उदीरक है। वह तीन क्रोधका नियमसे उदीरक है जो नियमसे जघन्य या अजघन्य स्थितिका उदीरक है। यदि अजधन्य स्थितिका उदीरक है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा एक समय अधिक स्थितिसे लेकर पल्यके असंख्यातवें भाग अधिक तककी अजघन्य स्थितिका उदीरक है। भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक हैं तो नियमसे जघन्य स्थितिका उदीरक है। सात नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे असंख्यातवें भाग अधिक अजघन्य स्थितिका उदीरक है। इसीप्रकार पन्द्रह कषायकी जघन्य स्थितिउदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। भय और जुगुप्साका भंग सामान्य Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ जयधवला सहिदे कसाय पाहुडे [ बेदगो ७ सिया उदी० । जदि उदी०, निय० जह० असंखे० भागव्य० | णवरि पञ्ज० इत्थवेद० णत्थि । जोगिणीसु इत्थिवेदो ध्रुवो कायव्वो । ६ ६१७. पंचिदियतिरिक्खश्रपज ० - मणुस प्रपञ्ज० मिच्छ० जह० डिदिउदी - सोलसक० -भय-दुर्गुछा० सिया उदी० । जदि उदी०, जहण्णा वा अजहण्णा वा । जह० जह० समयुत्तरमादि काढूण जाव पलिदो० श्रसंखे० भाग०भ० । इरूस-रदिअरदि-सोग० सिया उदी० । जदि उदी०, शिय० जह० असंखे० भाग०म० । एवं ण स० | वरि णिय० उदी० । O $६१८. अणताणु कोध० जह० विदिप्रदी० मिच्छ० तिन्हं कोधाणं णिय उदी०, जह० जह० | जह० जह० समयुत्तरमादि काढूण जाव पलिदो० असंखे०भागभ० । भय-दुगु छा० सिया उदी० । जदि उदी०, निय० जहण्णा । चदुणोक ०स० [मिच्छत्तमंगो | एवं पण्णारसक० । ९६१९. इस्सस्स जह० हिदिउदी० मिच्छ०-ण स० णिय० उदी० निय० अजह० संखे० गुण म० । एवं सोलसक० -भय-दुगु बा० | णवरि सिया उदी । रदिं तिर्यखों के समान है । इतनी विशेषता है कि वह सात नोकषायों का कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरको कम चासंगीत में मिलियस धान्य स्थितिका उदीरक हैं। इतनी विशेषता है कि पर्यातकों में स्त्रीवेदकी उदीरणा नहीं है । योनिनियोंमें स्त्रीवेदकी उदीरणा ध्रुव करना चाहिए । ३६१७. पश्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मिध्यात्वकी जघन्य स्थितिका उदीरक जीव सोलह कपाय, भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है तो जघन्य या अजघन्य स्थितिका उदीरक है। यदि अजघन्य स्थितिका उदीरक है तो जघन्य की अपेक्षा एक समय अधिक से लेकर पल्य के असंख्यातवें भाग अधिक तककी भजघन्य स्थितिका उदीरक हैं । हास्य, रति, अरति और शोकका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक हैं तो नियमसे असंख्यातवें भाग अधिक अजघन्य स्थितिका उदीरक है । इसीप्रकार नपुंसककी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसका नियमसे उदीरक है । ६१८. अनन्तानुबन्धी कोधकी जघन्य स्थिविका उदीरक जीव मिध्यात्व और तीन क्रोधों की नियमसे जघन्य या अजघन्य स्थितिका उदीरक हैं। यदि भजघन्य स्थितिका उद्दीरक है तो जवन्यकी अपेक्षा एक समय अधिकसे लेकर पत्य के असंख्यातवें भाग अधिक तककी अजघन्य स्थितिका उदीरक है। भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे जघन्य स्थितिका उदीरक है । चार नोकषाय और नपुंसकवेदका भंग मिध्यात्वके समान है । इसीप्रकार पन्द्रह कषायकी जघन्य स्थितिउदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्षं कहना चाहिए | ६६१६. हास्यकी जघन्य स्थितिका उदीरक जीव मिथ्याव और नपुंसकवेदका नियमसे उदीरक है जो नियमसे संख्यातवें भाग अधिक अजघन्य स्थितिका उदीरक है। इसीप्रकार सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी अपेक्षा कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनका कदाचित उदीरक है। रतिका नियमसे उदीरक है जो नियमसे जघन्य स्थितिका उदीरक है । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३ गा० ६२] उत्तरपयदिद्विदिउदीरणाए सरिणयासो णिय० उदी० णिय० जहण्णा । एवं रदीए । एवमरदि-सोग० । ६६२०. भयस्स जह• डिदिसदीमिच्छाम्पहुंएफ सुमधुशायरमणताहयंधीभंगो। सोलसक० मिच्छत्तभंगो । दुगुला० सिया उदी । जदि उदी०, णिय० जहण्णा । एवं दुगुंछाए। १६२१. गवसजह. विदिउ० मिच्छ०-सोल सक०-भय-दुगुका० हस्सभंगो । हस्स-रदि-अादि-सोग० सिया० उदी० । जदि उदी०, णिय० अजह बिट्ठाणपदिदा असंखे० भागम्भ० संखे गुणब्भ० वा । ६२२. मणुमतिए ओघं । वरि बारसक०-छण्णोक०-पंचिंतिरिक्खभंगो । पन्ज० इत्यिवे. णस्थि । मणुसिणीसु इस्थिवेदो धुवो कायव्यो । ६२३. देवेसु मिच्छ• जह. विदिउ० सोलसक० अट्ठयोक. सिया उदी। जदि उदी०, णिय. अज० संखे०गुणा । एवं सम्मामि० | णवरि अणताणु०४ पस्थि । सम्म० पंचिदियतिरिक्खभंगो । ६६२४. अवंताणु०कोध० जह. विदिउदी० मिच्छ. णिय. उदी० णिय० अजह संख०गुणभ० । तिण्हं कोधारा णिय उदी०, जह, अजह । जह० अजह इसीप्रकार रतिको जघन्य स्थितिउदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष कहना चाहिए । तथा इसीप्रकार अरति और शोकको जघन्य स्थितिकी उदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष कहना चाहिए। ६६२०. भयकी जघन्य स्थितिके उदीरक जीवके मिथ्यात्व, चार नोकषाय और नपुसकवेदका भंग अनन्तानुबन्धी के समान है। सोलह, कषायका भंग मिथ्यात्वके समान है । जुगुःसाका कदाचिम् सदीरक है यदि उदीरक है तो नियमसे जघन्य स्थितिका जदीरक है। इसीप्रकार जुगुप्साकी जघन्य स्थितिउदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। ६६२५. नपुसकवेदकी जघन्य स्थितिके उदीरक जीके मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका भंग हास्यके समान है। हास्य, रति, अरवि और शोकका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे असंख्यातवें भाग अधिक या संख्यातगुणी अधिक अजघन्य स्थितिका उदीरक है। ६२२. मनुष्यत्रिकमें ओघके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि बारह कषाय और छह नोकपायका भंग पछेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेदकी उदीरणा नहीं है और मनुध्यिनियोंमें स्त्रीवेदको ध्रुव करना चाहिए। ६२३. देवोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका उदीरक जीव सोलह कषाय और पाठ नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है. तो नियमसे संख्यातगुणी अधिक अजघन्य स्थितिका उदीरक है। इसीप्रकार सम्यग्मिध्यात्वकी जघन्य स्थितिउदीरणाको मुख्य कर जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उदीरणा नहीं है। सम्यक्त्वका भंग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। ६२४. अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जघन्य स्थितिका उदीरक जीव मिथ्यात्वका नियमसे उदीरक है जो नियमसे संख्यातगुणी अधिक अजघन्य स्थितिका उदीरक है। तीन क्रोधोंकी Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ 01 समयुत्तरमादि कारण जान पलिदो० श्रसंखे० भागन्भ० । भय-दुगुंडा० सिया उदी० । जदि उदी०, निय० जहणा इत्थवे पुरिवेशमिया उदी० । जदि उदी०, मार्गदर्शक :- अरचार्य श्री सुवासीगर श्री महाराज निय ० जह० यस० भागमः । हस्स-रदि निय० उदी० लिय० जह० श्रसंखे०भाग भ० । एवं पण्णारसक० । २८४ ३६२५. इस्थिवे० जह० डिदिउदी० मिच्छ० प्रणताणु० मंगो | सोलसक०भय-दुगु छा० चदुयोक० सिया उदी० । जदि उदी०, गिय० जह० संखे० गुणभ० । एवं पुरिसवेद० । $६२६. हस्सस्स जह० डिदिउदी० वेदभंगो । इत्थवेद० - पुरिसवे० सिया उदी पदिदा असंखे० भागन्भ० संखे० गुण०म० । एवं रदीए। एवमरदि-सोग० । मिच्छ० सोलसक० -भय-दुगु छा० इस्थि। जदि० उदी०, निय० अजह० चिट्ठाण - रदि० शि० उदी० वि० जहण्णा । ६६२७. भय० जह० विदिउदी० मिच्त्र० - इत्थिवेद० - पुरिसवे ० - हस्स-रदि० श्रताणु० मंगो | सोलसक० सिया उदी० । जदि उदी०, जहण्णा वा श्रजह० वा । जन्य या अजघन्य स्थितिका उदीरक है । यदि अजघन्य स्थितिका उदीरक है तो नियमसे जघन्यकी अपेक्षा एक समय अधिक से लेकर पल्यके असंख्यातवें भाग अधिक तककी अजयन्यस्थितिका उदीरक है। भय और जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे जघन्य स्थितिका उदीरक है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीर है तो नियमसे असंख्यात भाग अधिक जघन्य स्थितिका उदीरक है। हास्य और रतिका नियमसे उदीरक है जो नियमसे श्रसंख्यातवें भाग अधिक अजघन्य स्थितिका उदीरक है । इसीप्रकार पन्द्रह कषायकी जघन्य स्थितिउदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। ३६२५. स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिके उदीरक जीवके मिथ्यात्वका संग अनन्तानुबन्धी के समान | सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा और चार नोकषायका कदाचित् उदीरक है। यदि उदोरक है तो नियमसे संख्यातगुणी अधिक अजयन्य स्थितिका उदीरक है। इसीप्रकार पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिउदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए । १ ६२६. हास्यकी जघन्य स्थितिके उदीरक जीवके मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका मंग स्त्रीवेदके समान है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे असंख्यातवें भाग अधिक या संख्यातगुणी अधिक द्विस्थानपतित जघन्य स्थितिका उदीरक है। रतिका नियमसे उदीरक है जो नियमसे जघन्य स्थितिका उदीरक है । इसीप्रकार रतिकी जघन्य स्थितिउदीरणा को मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए तथा इसीप्रकार अरति और शोककी जघन्य स्थितिउदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए । ६६२७. भयकी जघन्य स्थिति के उदरीक जीवके मिध्यात्व, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और अरतिका भंग अनन्तानुबन्धी के समान है | सोलह कषायका कदाचित् उदरक है। यदि उदीरक है तो जघन्य या अन्य स्थितिका उदीरक है। यदि श्रजवन्य स्थितिका उदीरक है तो नियमसे . " Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - . ....vvm-vvvv गा• ६२] उत्तरपडिद्विदिवदीरणाए सरिणयासो २५ जहण्णादो अजहण्णा मिट्ठाणपदिदा असंखे भागभ० संखे भागन्भहिया वा । दुगु'छा० सिया उदी । जदि उदी, णिय० जहपणा । एवं दुगुना० । ६६२८. एवं भवण-वाण णवार सम्म सम्मामिच्छत्तमोजा महाराज ६२९. जोदिसि० मिच्छ०-सम्मत्त-सम्मामि०भवणवासियभंगो । अणंतागु०कोध० जह० हिदिउदी० मिच्छ० णिय उदी. णिय. अजहअसंखे गुणभहियं । तिण्हं कोधाणं णिय. उदी. णिय. अजह. असंखे०भागब्भ । अट्ठणोक० सिया उदी० । जदि उदी०, णिय० अज० असंखेनभागब्भ० । एवं तिएहं कसायाणं | ६३०. अपश्चक्खाशकोह० जहरू विदिउदी० दोण्हं कोधाणं णिय० उदी. णिय० जहण्णा । अहणोक सिया उदी० । जदि उदी०, णिय. जहएणा । सम्म० णिय० उदी० णिय० अज० संखे गुणब्भ । एवमेकारसक० । १६३१. हस्सस्स.जह. द्विदिउदी. बारसक-भय-दुगुंछा०-इथिवे०-पुरिसके० सिया उदी० । जदि उदी०, थिय० जहण्णा | सम्म० अपञ्चक्खाणभंगो । रदि णिय. उदी णिय. जहण्णा । एवं रदीए । एवमरदि-सोग । असंख्यात भाग अधिक या संध्यातवें भाग अधिक द्विस्थानपतित अजघन्य स्थितिका उदीरक है । जुगुप्साका कदाचित् उदीरक है । यदि उदीरक हैं तो नियनसे जघन्य स्थितिका उदीरक है। इसीप्रकार जुगुप्साकी जघन्य स्थिति उदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्प जानना चाहिए। ६६२८. इसीप्रकार भवनवासी और व्यन्तर देवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिध्यात्त्रके समान है। ६६२६. ज्योतिषी देवों में मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वका भंग भवनवासियोंके समान है। इनमें अनन्तानुबन्धी क्रोधकी अघन्य स्थितिका उदीरक जीव मिथ्यात्वका नियमसे उदीरक है जो नियमसे असंख्यातगुणी अधिक अजघन्य स्थितिका उदीरक है। तीन क्रोधीका नियमसे उदारक है जो नियमसे असंख्यातवें भाग अधिक अजघन्य स्थितिका उदीरफ है। आठ नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे असंख्यातवें भाग अधिक अजधन्य स्थितिका उदीरक है। इसीप्रकार तीन कषायोंकी जघन्य स्थितिउदीरणाको मुख्य कर सनिकर्ष जानना चाहिए। १६३०. अप्रत्याख्यान क्रोधकी जघन्य स्थितिका उदीरक जीव वो क्रोधों का निययसे दीरक है जो नियमसे जघन्य स्थितिका उदीरक है। पाठ नोकषायोंका कदाचिन उदीरक है। यदि उनीरक है तो नियमसे जघन्य स्थितिका उदीरक है। सम्यक्त्वका नियमसे उदीरक है जो नियमसे संख्यानगुणी अश्विक अजघन्य स्थितिका उदीरक है। इसीप्रकार ग्यारह कपायोंकी जघन्य स्थितिउदीरणाको मुख्य कर सन्त्रिकप जानना चाहिए । ६६३१. हास्यकी जघन्य स्थितिका उदीरक जीव बारह कपाय, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद और पुरुपवेदका कदाचित उदीरक है। यदि चीरक है तो नियमसे जघन्य स्थितिका उदीरक है। इसके सम्यक्त्वका भंग अप्रत्याख्यानके समान है। रतिका नियमसे नदीरक है जो नियमसे जन्य स्थितिका उदीरक है। इसीप्रकार रतिकी जयन्य स्थितिउदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ . जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो. ६६३२. भय० जह• हिदिउदी. बारसक०-सत्तणोक० सिया उदी । जदि उदी, णिय० जहण्णा । सम्मत्तं हस्सोंगो । एवं दुगुकाए । ६६३३. इस्थिवे. जह. द्विदिउदी. बारसक० छण्णोक० सिया उदी। जदि उदी०, णिय० जहण्णा । सम्म० हस्सभंगो । एवं पुरिसवे । ६३४. सोहम्मीलाणेसु मिच्छ०-सम्मामि० देवोघं । सम्म० जह० द्विदिउदी बारसक०-छष्णोक. सिया उदी । जदि. उदी०, णिय. अजह• बिट्ठाणपदिदा संखे०भागब्भ० संखे०गुणन्महिया वा । एवं पुरिसवे । णवरि णिय० उदी० । १६३५. अणंताणुकोध० जह० ट्ठिदिउ० मिच्छ० णियः उदी० णिय० अजह. असंखेगुणब्भ० । तिण्हं कोधाणं पुरिसवे. णिय० उदी० णिय० अज० संखे गुणभ० । छण्णोक० सिया उदी. । जदि उदी०, णिय० अजह• संखेन्गुणभ०। एवं तिण्हं कसाया - आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ६३६. अपच्चक्खाणकोह० जह० द्विदिउदी० दोण्हं कोधाणं पुरिसवे० णिय. जानना चाहिए। इसीप्रकार अरति और शोककी जघन्य स्थिति उदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। ६६३२, भयकी जघन्य स्थितिका उदीरक जीव बारह कषाय और सात नोकषायका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे जघन्य स्थितिका उदीरक है। इसके सम्यक्त्वका भंग हास्यके समान है। इसीप्रकार जुगुप्साकी जघन्य स्थितिउदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। ६६३३. स्लीवेदकी जघन्य स्थितिका उदीरक जीव बारह कषाय और छह नोकषायका कदाचित् बदीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे जघन्य स्थितिका उदीरक है। इसके सम्यक्त्वका भंग हास्य के समान है। इसी प्रकार पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिउदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। ६६३४. सौधर्म और ऐशानकल्पमें मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग सामान्य देवकि समान है। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका उदीरक जीव बारह कषाय और छह नोकषायका कदाचिन् उदीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे संख्यातवें भाग अधिक या संख्यातगुणी अधिक द्विस्थानपतित अजघन्य स्थितिका उदीरक है । इसीप्रकार पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना वाहिए । इतनी विशेषता है कि इसका नियमसे उदीरक है। ६३५. अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जघन्य स्थितिका उदीरक जीव मिथ्यात्वका नियमसे उदीरक है जो नियमसे असंख्यातगुणी अधिक अजघन्य स्थितिका उदीरक है। तीन क्रोध और पुरुषवेदका नियमसे उदीरक है जो नियमसे संख्यातगुणी अधिक अजघन्य स्थितिका दीरक है। छह नोकषायका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे संख्यातगुणी अधिक अजघन्य स्थितिका उदीरक है। इसीप्रकार तीन कषायोंकी जघन्य स्थितिउदीरणाको पुख्य कर सन्निकर्प जानना चाहिए । s६३६, अप्रत्याख्यान क्रोधकी जघन्य स्थितिका उदीरक जीव दो क्रोध और पुरुषवेदका Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 -. गा० ६२ ] उत्तरपयडिडिदिउदीरणाए सख्ण्यिासो उदी ० वि० जहण्णा । छष्णीक० सिया उदी० । जदि उदी०, शिय० जहण्णा | एवमेकारसक० । २८७ १६३७. पुरिसवे० जह० द्विदिउदी० चारसक० दण्णोक० सिया उदी० । जदि उदी०, निय० जहण्णा | ३६३८. इत्थवे० जह० ङ्किदिउदी० सम्म० लिय० उदी० लिय० श्रज० श्रसंखे० गुण भ० । चारसक० छणोक० सिया उदी० । जदि उदी०, निय० ज० संखे० गुणन्म० । ३६३९. इस्सस्स जह० द्विदिउ० बारसक० -भय-दुर्गुछा ० सिया उदी० । जदि उदी०, यि० जहण्णा । पुरिसवे० -रदि० खिय० उदी० लिय० जहएणा | एवं रदीए| एवमरदि- सोग० । जी ६ ६४०. भय० जह० डिदिउदी० बारसक० पंचणोक० सिया उदी० । जदि उदी०, निय० जहण्णा । पुरि पिण्ड पाहणारा दुवाए । ३६४१. सरककुमारादि जाव णत्रमेवजा चि एवं चेव । खवरि इत्थि वेदो णत्थि । पुरिसवे० धुवो कायच्यो । अशुद्दिसादि जाव सच्चट्ठा त्ति सम्म० चारसक० - ० नियमसे उरक है जो नियमसे जघन्य स्थितिका उदीरक है। छह नोकषायों का कदाचित् उates है। यदि afteक है तो नियमसे जघन्य स्थितिका उदीरक है। इसीप्रकार ग्यारह - कषायोंकी जघन्य स्थितिउदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए । ६६३७. पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिका उदीरक जीव बारह कषाय और छह नोकषायका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे जघन्य स्थितिका उदीरक है । ९६३८. स्त्रीवेदकी जचन्य स्थितिका उदीरक जीव सम्यक्त्वका नियमसे नदीरक है जो नियमसे असंख्यातगुणी अधिक जघन्य स्थितिका उदीरक हैं। चारह कषाय और छह नोकषायका कदाचित् उदीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे संख्यातगुणी अधिक अजघन्य स्थितिका उदीरक हैं । ६३. हास्यकी जघन्य स्थितिका उदीरक जीव बारह कपाय, भय और जुगुप्साका कदाचित् चदीरक है। यदि उदीरक है तो नियमसे जघन्य स्थितिका उदीरक है । पुरुषवेद और रतिका नियमसे उदीरक है जो नियमसे जघन्य स्थितिका उड़ीरक है। इसीप्रकार रतिकी जघन्य स्थितिउदीरणा को मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए तथा इसीप्रकार अरति और शोककी जघन्य स्थितिउदीरणाको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए। I ६ ६४०. भयकी जघन्य स्थितिका उदीरक जीव बारह कषाय और पाँच नोकषायका कदाचित् उदीरक है । यदि उदीरक है तो नियमसे जयन्य स्थितिका उदीरक है । पुरुषवेदका नियमस्रे उदीरक है जो नियमसे जघन्य स्थितिका उदीरक है। इसीप्रकार जुगुप्साकी जघन्य स्थितिउदीरणको मुख्य कर सन्निकर्ष जानना चाहिए । ३६४१. सनत्कुमार कल्पसे लेकर नौ मैवेयक लकके देवोंमें इसीप्रकार सन्निकर्ष है । इतनी विशेषता है कि इनमें श्रीवेदकी उदीरणा नहीं है । पुरुषवेदको ध्रुव करना चाहिए । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथधवला बहिदे कसायपाहुडे २८८ सत्तलोक एवगेवजभंगो । एवं जाव । ६ ६४२. णाणाजीवेहि भंगविचओ दुविहो जह० उक० | उकस्से पथदं । दोषेण सुमहीसागर एक दुविहो णि० - श्रोषेण आदेसे डिदिनदी० तिष्णि भंगा। सम्मामि० उक० अणुक्क० द्विदिउदी० भट्ट मंगा । सन्त्ररक्ष्य सव्यतिरिक्त सत्रामणुस - सच्चदेवा त्ति जाओ पडीओ उदीरिति तासिमोधं । raft मणुसअप चडवीसपय० उक्क० अणुक० हिदिउदी० अड्ड भंगा। एवं जाव० । $ ६४३. जहराए पयदं । दुविहों णि०- - ओवेण श्रादेसेण य । श्रघेण मिच्छ० सम्म० चदुसंजल० तिष्णिवे ० चदुणोक० जह० अजह० डिदिदी० तिष्णि भंगा। सम्मामि० ज० जह० विदिउदी० अट्ट भंगा। वारसक० -भय-दुर्गुछा जह० अजह० हिदिउदी० णिप० अस्थि । सव्त्ररहय-सव्त्रपंचिदियतिरिक्ख-सन्त्र मणुससच्चदेवा त्ति उक्करसभंगो । 01 [ वेदगो ― 9 ० ६ ६४४, तिरिक्खेमु सोलसक० भप दुर्गुबा० जह० जह० हिदिउदी० जिय० अस्थि । दंसणतिय सत्तरोक० श्रघं । एवं जाव० । | ६४५. भागाभागाणु० दुविहो- जह० उक० । उक्कस्से पयदं । दुविहो अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें सम्यक्त्व, बारह रूपाय और सात नोकषायका के समान है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए । I १६४२. नाना जीवों की अपेक्षा संगविचय दो प्रकारका है -- जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृटका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - आंघ और आदेश । श्रोघसे सत्ताईस प्रकृतियों की पत्र और अनुत्कृष्ट स्थितियोंके उदीरक जीवोंके तीन भंग हैं । सम्यग्मिध्यात्वकी उत्कृष्ट और अनु स्थिति उदीर जीवोंके आठ भंग हैं। सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सब मनुष्य और सब देव जिन प्रकृतियोंकी उदीरणा करते हैं उनका भंग श्रोध के समान है। इतनी विशेषता है कि मनुष्य अपर्याप्तकों में चौबीस प्रकृतियांकी उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट स्थितिरकों के पाठ अंग हैं। इसीप्रकार अनाहारक मार्गातक जानना चाहिए। १६४३. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है- प्रोव और आदेश । श्रघसे मिध्यात्व, सम्यक्त्व, चार संज्वलन, तीन वेद और चार मोकषायके जघन्य और अजघन्य स्थितिके उदीरकों के तीन भंग हैं। सम्यग्मिध्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिउदीरकों के आठ भंग हैं। बारह कपाय, भय और जुगुप्खाकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके उदीरक जीव नियमसे हैं । सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, सब मनुष्य और सब देवोंमें उत्कृष्टके समान भंग है । $ ६४४. तिर्थोंमें सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य स्थिति उरक जीव नियमसे हैं। तीन दर्शनमोहनीय और सात नोकपायका भंग प्रोघके समान है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए । ६६४५, भागाभागानुगम दो प्रकारका है जघन्य और सस्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - -- गा०६२] उत्तरपडिविविउदीरणाए भागाभागो २८९ णि.-ओघेण आदेसेण य । ओघेण चवीसाए पयडी० उकस्सविदिउदी० सव्वजी० केव ? अणतभागो । अणुक. अणता भागा । सम्म०-सम्मामि०-इथिव-पुरिसके. उक्क० द्विदिउदी० सब्बी० केव० ? असंखे०भागो | अणुक० द्विदिउदी असंखेजा भागा । एवं तिरिक्खा० । .६४६. सधणेरड्य-सव्यपंचितिरिक्ख-मणुस अपज०-देवगदिदेवा भवणादि जाव अवराजिदा ति सबषयः उक० विदिउदी० मन्यजी. केव० ? असंखे०. भागो । अणुक० असंखेजा भागा । ६४७. मणुसेसु चउवीसपय० उक्क० द्विदिउ० असंखे० भागो। अणुक ०द्विदिउदी. असंखेजा भागा। सम्म०-सम्मामि०-इस्थिवेद-पुरिसवेद० उक० द्विदिउदी. संखे०भागो । अणुक० संखेजा भागा। एवं मणुसपनः । गवरि संखेनं कायछ । इस्थिवेदो णस्थि माविक मणुसिणी मी सांपरिणदुरिसके पगबुंत णस्थि । सबढे वीसं पय० उक्त द्विदिउदी० संखे० भागो । अणुक० मंखेजा भागा । एवं जाव। १६४८, जहण्णए पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । श्रोधेण निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे चौबीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीव सब जीवों के कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं। अनुस्कृष्ट स्थिति के 'उदीरक जीव अनन्त बहुभागप्रमाण हैं। सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके पदीरक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यात भागप्रमाण हैं। अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। इसीप्रकार तिर्यञ्चों में जानना चाहिए। ६४६. सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यकच, मनुष्य अपर्याप्त, देवगतिके देव और भवनवासियोंसे लेकर अपराजित कल्पतकके देश में सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यानवें भागप्रमाण हैं 1 अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं । ६४७, मनुष्योंमें चौवीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके उद्दीरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । अनुस्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थिति के उदोरक जीव संख्यासवें भागप्रमाण हैं। मनुस्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण है। इसीप्रकार मनुष्य पर्याप्तकॉमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि असंख्यातके स्थानमें संख्यात करना चाहिए। इनके स्त्रीवेदकी उदीरणा नहीं है। इसीप्रकार मनुष्यनियों में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें पुरुषवेद और स्त्रीवेदकी उदीरणा नहीं है। सर्वार्थसिद्धि में बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिनिके जदीरक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं तथा अनुत्कृष्ट स्थिलिके उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए । 5६४८. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-मोघ और आदेश। ओघसे Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.६० जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ बेवगो ७ महाराज मिच्द्र० चदुसंज० - बुंस ० चदुणोक० जह० डिदिउ० सव्वजी० अांतभागो । अज० अनंता भागा | सम्म सम्मामि० इष्ठिरस के उच्चार के संभागो । अजह० श्रसंखेजा भागा । सव्वणेर० सव्वपंचि०तिरिक्ख० सव्त्र मणुम सचदेवा त्ति उकरसभंगो । ९६४९. तिरिक्खेसु मिच्छ० सय ० चदुणोक० जह० श्रांतभागो । अजह अरांता भागा । सम्म० सम्मामि० सोलसक० - इत्थिवेद - पुरिसवेद-भय- दुगु छा० जह० श्रसंखे० भागो । अजह० श्रसंखेजा भागा । एवं जाब० । 41 ६ ६५० परिमाणं दुविहं जह० उक्क० | उकस्से पयदं । दुविहो णिः श्रोषेण आदेसेण य । ओषेण मिच्छ०-सोलसक० सत्तणोक० उक्क० हिदिउदी० केतिया ? संखेजा । श्रणुक० केत्ति ० १ अरांता । सम्म० सम्मामि० - इत्थिवे ० - पुरिसवे० उक्क० अणुक्क० द्विदिउदी० ति० ? असंखेजा । - $ ६५१. सच्चरइय सव्वपंचिदियतिरिक्ख-मणुसअप ० देवादिदेवा भवणादि जाव सहस्सारे चि सच्चपघडी ० उक० अणुक० केचिया ? श्रसंखेज्जा । मणुसेसु चउस पगडीणं उक० द्विदिउदी० संखेज्जा । अणुक्क० केत्ति ० १ असंखेज्जा | मिथ्यात्व, चार संज्वलन, नपुंसकवेद और चार नोकषायकी जघन्य स्थितिके उरीरक जीव सब जीवोंके अनन्त भागप्रमाण है। अजघन्य स्थितिके उदीरक जीव अनन्त बहुभागप्रमाण हैं । सम्यक्त्व, सम्यग्मध्यात्य, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, बारह कपाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिके उदीरक जीव श्रसंख्यातवें भागप्रमाण हैं। अजघन्य स्थितिके उदीरक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं । सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्रच, सब मनुष्य और सब देवोंमें भंग उत्कृष्ट समान है । 1 १६४६ तिर्यञ्चों में मिध्यात्व, नपुंसकवेद और चार नोकषायकी जघन्य स्थिति के हीरक जीव अनन्त भागप्रमाण है। अजघन्य स्थितिके उदीरक जीव अनन्त बहुभागप्रमाण हैं । सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व, सोलह कषाय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिके उदीरक जीव श्रसंख्यातवें भागप्रमाण हैं । अजघन्य स्थितिके उदीरक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए । ६ ६५० परिमाण दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - घ और आदेश । श्रोघसे मिध्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । सम्यक्त्व, सम्यर्गमेध्यात्य, स्त्रीवेद और पुरुषवेद की उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । ६ ६५१. सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च मनुष्य अपर्याप्त, देवगतिके देव और 1 भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार फल्पतकके देवों में सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके aatee जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। मनुष्यों में चौबीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जोत्र संख्यात हैं । अनुत्कृष्ट स्थिति के उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात है । सम्यक्त्व, Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ उपसरपयडिविदिउदीरणाए परिमारणं सम्म०-सम्मामि० इस्थि-पुरिस० उक्क० अणुक० केत्ति ० १ संखेज्जा । मणुसपज्जामणुसिणी-सबढदेवेसु सधपय० उक० अणुक्क० केत्ति ? संखेज्जा । आणदादि जाव अपराजिदा ति सव्वफ्य० उक० केत्ति ? संखेज्जा । अणुक० केत्ति ? असंखेजा । एवं जाव० । ५६५२. जहण्णए पयदं । दुविहो णि--श्रोघेण आदेसेण य । श्रोघेण मिच्छ०-चदुगोक०, जह, द्विदिउदी० केत्ति ? असंखेजा। अजह० द्विदिउदी० केत्ति. अणंता । णवूम-चदुसंजल० जह. विदिउदी० केत्ति० १ संखेजा। अजह केत्ति ? अतीक सम्मान विधये लिलागतहको पहिसिलदी० केतिया ? संखेजा । अजह० असंखेजा। सम्मामि० जह० अजह० केत्ति ? असंखेजा । बारसक०भय-दुगुंछा० जह० अजह• हिदिउदी० केत्ति ? अणंता । ६५३. आदेसेण णेरड्य० सवपय० जह० अजह. केत्ति ? असंखेजा । णवरि सम्म० जह• केत्ति ? संखेजा। एवं पढ़माए । विदियादि जाव छडि ति दंगणतिय० जह० अजह० असंखेजा । सेसपयडी जह० केनिया ? संखेओ । अजह. के ? असंखेजा । सत्तमाए सन्त्रपय. जह० अजह. असंखेजा। सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। मनुष्य पर्याप्त, मनुयिनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट .और अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। श्रानतकल्पसे लेकर अपराजित विमानतकफे देवोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। ६६५२. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और भादेश। ओघसे मिथ्यात्व और चार मोकषायकी जघन्य स्थितिके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात है । अजघन्य स्थिति के नदीरक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। नपुसकवेद और चार संज्वलनकी जघन्य स्थितिके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात है। अजवन्य स्थितिके उदीरक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। सम्यक्त्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी जघन्य स्थिति के उदीरक जीव कितने हैं। संख्यात हैं। अजयन्य स्थितिके उदीरक जीव असंख्यात हैं। सम्यग्मिध्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थिति के उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और मजघन्य स्थितिके उदीरक जीव कितने हैं. १ अनन्त हैं। ५.६५३. प्रादेशसे नारकियों में सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजधन्य स्थिति के उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिके उदीरक जोक कितने हैं ? संख्यात हैं। इसीप्रकार प्रथम पृथिवीमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर छटी पृथिवी तक नारकियों में तीन दर्शनमोहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके उदीरक जीव असंख्यात है। शेष प्रकृतियोंकी जयन्य स्थितिके उदीरक जीव कितने है ? संख्यात । । अजवन्य स्थिति के उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। सातवीं पृथिवीके नारकियोंमें सब १, श्रा०प्रती असंखेन्जा इति पाठः । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधक्लासहिदे कसायपाहुरे [दगो ६६५४. निरिक्खेतु सोलमक-भय-दुगुंछा. जह• अजह० केत्ति ? अणंता 1 मिझारणत्रु सचम लोकविशिल्याकेमि०पहारनसंखेजा। अजह० केत्ति ? अणंता । सम्म० ओघ । सम्मामिदस्थिवे०-पुरिसवे. जह० अजह० केत्ति ? अमखेला। पंचिंदियतिरिक्खतिय० सम्म० ओघ । सेमपयडी. जह० अजह । केत्ति ? असंखेजा । णवरि पत्त० इथिवे णस्थि । जोणिणीसु पुरिम-गर्बुस० णस्थि । सम्म० सम्मामि० भंगो । पंचिंदितिरिक्ख अपञ्ज-मणुसअपज-सवणवाणवे० सबपयडी० जह• अजह, संखेचा । ६६५५. मरणुसेसु मिच्छणबुस-चदुसंज०-चदुणोक० जह० मखेजा । अज. कत्ति ? असंग्वेजा । सम्म०-समामि०-इस्थिवे-पुरिसवे० जह• अजह० संखेजा। पारसक-भय-दुगुछा० जह० अजह० असंखेजा । मणुभपज०-मणुसिणी-सव्वदेवसु सअपय० जह० अजह० संग्वेजा। ६६५६. देवेसु मम्म० ओघ । सेसपय० जह. अजहर केत्तिया ? असंखेजा। जोदिमियादि जाव गवगेवज्जा ति दसणतियस्स देवोपं । सेसपय.. प्रकृतियोंकी जगन्ध और अजघन्य स्थितिके उदीरक जीव असंख्यात हैं। ६५४. तिर्यों में सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य स्थितिफे उहीरक जीव कितने हैं ? अनन्न हैं 1 मिथ्यात्त्र, नपुसकवेद और चार नोकपायकी जघन्य स्थिनिफे उहीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। अजघन्य स्थिति के उदीरक जीव कितने हैं ..." अनन्त हैं। सम्यक्त्वका भंग ओवक समान है। सम्याग्निच्यात्व, स्त्रीचंद और पुरुषवेदकी जघन्य और अजयन्य स्थितिक उदीपक जीव फितन हैं ? असंख्यात हैं। पञ्चेन्द्रिय निर्यकचत्रिकमें सम्यक्त्वका भंग भोपन ममान है। शंप प्रकृतियांकी जघन्य और मजघन्य स्थिनिक उदीरक जीव कितने हैं ! असम्यान है। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तका में स्त्रीवेदकी उदारणा नहीं है। तथा योनिनीतिर्यचौम पुरुषवेद और, नपुंसकवेषकी उनीगणा नहीं है। तथा इनमें सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वक समान है। पञ्चेन्द्रिय निर्यञ्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्यात, भवनवासी और व्यन्तर देवीमें सब प्रकृनियोंकी जघन्य और प्रजघन्य स्थितिके वीरक जीव मख्यात हैं। ६५५. मनुष्यों में मिथ्यात्व, नपुसकवेद, चार मंज्वलन और चार नोकपायी जघन्य स्थितिके उदीरक जीव संख्यात हैं। अजघन्य स्थितिके वीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुपयेदी जघन्य और अजघन्य स्थितिक उदारक जीव संख्यान हैं। घारह कपाय, भय और जुगुप्माकी जनन्य और अजघन्य स्थिनिके उदीरफ जीव असंख्यात है। मनुष्य पर्यान, मनुध्यिनी और सर्वार्थसिद्धिके देवामें सब प्रकृतियांकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके उदीरक जीव संख्यात हैं। ६५६. दवाम सम्यकालका भंग प्रोत्रके समान है। शेष प्रकृनियों की जघन्य और अजघन्य स्थितिके पदीरक जाय कितने है ? असंख्यात है। ज्योतिपियार लेकर नौ प्रबेयक नक वाम तीन दर्शनमोहनीयका भंग सामान्य देवाके समान है। शंप प्रकृतियोंकी जघन्य Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयछिटिदिउदीरणार खेत जह० केत्ति ? संखज्जा। अजह० केत्ति० असंखेज्जा। णवरि जोदिसि० सम्म० जह० अजह० द्विदिउदी० केत्तिया ? असंखेज्जा । अणुदिसादि अवराजिदा त्ति सम्म०-बारसक०-सत्तणोक० जह० संखेज्जा । अजह० असंखज्जा । एवं जाव० । ६५७. खेत्तं दुविहं-जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि०-ओघेश आदेसेण य । ओषेण मिच्छत्त-सोलसक०-सत्तणोक० उक्क० द्विदिउदी० लोगस्स असंखे० भागे | अणुक० सव्वलोगे। सम्म०-सम्मामि०-इथिवे०-पुरिसवे० उक्क० अणुक लोग० असं०भागे । एवं तिरिक्खा । सेसगदीसु सव्वपय० उक्क० अणुक्क . लोग० असंखे० भागे । एवं जात्र । ६६५८. जहएणादायदं । अविकशिविहाओघेणा शाइसेण य । ओघेण स्थिति के उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अजधन्य स्थितिके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इतनी विशेषता है कि ज्योतिपियों में सम्यक्त्यकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। अनुदिशसे लेकर अपराजित विमानतकके देवाम सम्यक्त्व, बारह कपाय और सात नोकषायकी जघन्य स्थितिके उदीरक जीव संख्यात हैं। अजधन्य स्थितिके उदीरक जीव असंख्यात हैं। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए । ६६५७. क्षेत्र दो प्रकारका है--जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरणा है । निर्देश दो प्रकारका है--श्रीध और श्रादेश । मोबसे मिथ्यात्व, सोलह कपाय और सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति के उदीपक जीयाका क्षेत्र लोकके असंख्यात भागप्रमाण है। अनुस्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीवोंका क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसीप्रकार तिर्यकचोंमें जानना चाहिए । शेष गतियोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गगणातक जानना चाहिए। विशेपार्थ-जो संझी पन्चेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि पर्याप्त जीव उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते है वे ही अपने-अपने स्वामित्वके अनुसार मिध्यात्वादि प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा करते हैं। यतः इनका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अतः वह उक्त प्रमाण कहा है। इन प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणा एकेन्द्रियानि जीवों में भी होती है और उनका क्षेत्र सर्व लोक है, अतः इनकी अनुत्कृष्ट स्थिति के उदीरकोंका क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण कहा है। रही सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेद ये चार प्रकृतियाँ सा इनकी उदीरणा यथायोग्य पञ्चेन्द्रिय जीवों में ही सम्भव है, यतः इन जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अतः उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। शेप कथन सुगम है। ६५८. जघन्य का प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-आध और आदेश । ओघसे 1. तास-प्रा०प्रायोः मिस इति पाठः नास्ति । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधवलास जी महाराजाले [वेदगो ७ ओघेण मिच्छ०-चदुसंज०-गवुस० चदुणोक० जह० द्विदिउदी० लोग० असंखे०. भागे । अजह सबलोगे । सम्म०-सम्मामि० इस्थिषे०-पुरिसवे. जह० अजह० लोगस्स असंखे० । बारसक०-भय-दुगुं० जह• लोगस्स संखेजदिभागे। अजह. सबलोगे। ६६५९. तिरिक्खेसु मिच्छ०-णवुस०-चदुणोक. जह० लोगस्स असंखे०भागे । अजह सबलोगे | सम्म० सम्मामि०-इत्थिवे पुरिसवे० जह अजह । लोग. असंखे० भागे। सोलसक०-भय-दुगुका. जहा लोग० संखे०भागे । अजह. मिथ्यात्व, चार संज्वलन, नपुसकवेद और चार नोकपायोंकी जघन्य स्थितिके उद्दीरकोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य स्थितिके उदीरकों का क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण है। सम्यक्त्व, सम्बग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी जघन्य और अजन्य स्थितिके उदीरकोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमागा है। बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिके उदीरकोका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य स्थितिके उद्दीरकोका क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण है। विशेषार्थ--मिथ्यात्वकी उपशमसम्यक्त्वके अभिमुख जीवक, चार संज्वलन और नपुसकवेदकी गुणस्थान प्रतिपन्न जीवके तथा चार नोकषायोंकी जो इतसमुत्पत्तिक बादर एकेन्द्रिय जीव संज्ञी पञ्चन्द्रियोंमें उपन्न होता है उसके यथास्थान अपने-अपने स्वामित्वके अनुसार जघन्य स्थिति उदीरणा होती है, यतः ऐसे जीवोका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग- • र प्रमाण है, अतः उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति के उदीरक जीवीका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाग कहा है। इनकी अजघन्य स्थिति के उदीरक जीवोंका क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण है यह स्पष्ट ही है । सम्यक्त्व आदि चार प्रकृतियों की जघन्य और अजघन्य स्थितिकी उदीरणा अपने-अपने स्वामित्वके अनुसार पञ्चेन्द्रिय जीव ही करते हैं, यतः इनका क्षेत्र लोकके असंख्यातवे भागप्रमाण है, अतः उक्त प्रकृत्तियों की जन्य और अजघन्य स्थितिके उदीरकोंका क्षेत्र भी उक्तप्रमाण कहा है। बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति उदीरणा बादर एकेन्द्रिय जीव करते हैं और इन जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण हैं, अतः उक्त प्रकृतियों की जघन्य स्थिति के उदीरकोका क्षेत्र उक्तप्रमाण कहा है। इनकी अजघन्य स्थिनिके उदीरकोका क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। इसीप्रकार गतिमार्गणाके सब भेदोंमें अपने-अपने स्वामित्वको जानकर क्षेत्र घटित कर लेना चाहिए । सुगम होनेसे यहाँ निर्देश नहीं कर रहे हैं। ६५६, नियंत्रों में मिथ्यात्व, नपुसकवेद और चार नोकषायोंकी जघन्य स्थितिके उदीरक जीवाका क्षेत्र लोकके असंख्यात भागप्रमाण है। अजघन्य स्थितिके उदारक जीवों का क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, वीवेद और पुरुषवेदकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके उदीरक जीवाका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति के उदीरक जीवीका क्षेत्र लोक संख्यात भागप्रमाण है। अजघन्य १. मानती असंखेजदिभागे इति पाठः । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिद्विदिउदीरणाप पोसणं सव्वलोगे । सेमगदीसु सन्नपय० जह० अजह लोग० असंखे०भागे । एवं जाव० । ६६०. पोमणं दुविहं-जह० उक्क० । उक्स्से पयदं ! दुविहो णि०श्रोघेण आदेसेण य । ओषेण मिच्छ०-सोलसक०-छपणोक० उक० द्विदिउदी. लोग० असंखे०भागो अट्ठ-तेरहचोदस० । अणुक० सव्वलोगो । सम्म० सम्मामि० उक० अणुक० लोग० असंखे०भागो अट्ठचोद्दस० । इत्यिवे०-पुरिसवे. उक० लोगस्स असंखे० अढचोइस० | अणुक० लोग० असंखे भागो अट्ठयोः सबलोगो वा । णवुसय० उक्क० हिदिउदी० लोग० असंखे० भागो तेरहचोइस० । अणुक सबलोगो। स्थितिके उदीरक जीवोंका क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण है। शेष गतियोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके उदीरकोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। ३६६०. स्पर्शन दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्ट का प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्य सोलह, कपाय और छह नोकषायकी उत्कृष्ट स्थितियादिको जोवेचविसंग्रामासासामनराशाजथा त्रसनाली के चौदह भागों में से कुछ कम आठ और कुछ कम तेरह भागप्रमाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थितिकं उदीरकाने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यम्मिथ्यात्यकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिक उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनाली के चौदह भागों से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थिति के उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनाली के चौदह भागों से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा प्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम पाठ भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नपुसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और वसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम तेरह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट स्थिति के उदीरकोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ—जो संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्व और सोलह कषायका उत्कृष्ट स्थिति बन्धकर पक श्रावलि काल बाद उक्त कर्मों की उदीरणा करते हैं उनके उक्त कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा होती है। यतः ऐसे जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन असनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम तेरह भागप्रमाण पाया जाता है, अत: उक्त प्रतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। इनकी अनुत्कृष्ट स्थिति उदारणा एकेन्द्रियादि जीव भी करते हैं और उनका स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण है, अतः इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरकोंका स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण कहा है। छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके उदारकों की अपेक्षा भी स्पर्शन उक्त प्रकारसे घटित कर लेना चाहिए। स्वामित्व सम्बन्धी विशेषता स्वामित्व अनुयोगद्वारसे जान लेनी चाहिए । यतः वेदकसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्याष्टिका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण है, अतः सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्यकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरकोका स्पर्शन उक्तप्रमाण कहा Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो ७ ६६१. आदेसेणे णेरड्य० मिच्छ०-सोलसक० सत्तणोक० उक० अणुक. लोग० असंखे०भागो छचोदस० । मुम-सम्मामि० उक० अणुक० खेत्तं । एवं बिदियादि सत्तमा ति । वरि सगपोसणं कायव्वं । पढमाए खेतं । ६६६२. तिरिक्खेसु मिच्छ०-सोलसक०-रणवुस-अरदि-सोग०-भय-दुगुछा० उक्क डिदिउदी० लोग० असंखे०भागो छचोदस० । अणुक० सव्यलोगो । हस्स-रदि० उक्क० ट्ठिदिउदी० लोग० संभामो भवणुकश्वासनलीगीएवमिास्य-पुरिसवे०। णवरि अणुक० लोग. असंख० भागो सबलोगो वा | सम्म० उक० डिदिउदी । है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा अपने स्वामित्वके अनुसार मनुष्य, तिर्यञ्च और देवगतिके जीव करते हैं । यतः इनका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यात भागप्रमाण और प्रतीत स्पर्शन त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ पाठ भागप्रमाण ही बनसा है, अतः इनकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है। किन्तु इन कोकी अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरणाको अपेक्षा विचार किया जाता है तो उक्त स्पर्शनके साथ सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन भी बन जाता है, अतः इन कर्मों की अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके चौदह भागों से कुछ कम आठ भाग और सर्व लोकप्रमाण कहा है। नपुसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा अपने स्वामित्वके अनुसार यतः चारों गति के जीव करते हैं, अतः इस प्रकृतिके उत्कृष्ट स्थितिउदीरकों का वर्तमान स्पर्शन लोकक असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सनालीके चौदह भागोंमेंसे मध्यलोकसे नीचे छह और ऊपर सात इसप्रकार कुछ कम तेरह भागप्रमाण घननेसे वह उक्तप्रमाण कहा है। नपुसावेदकी अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीव सर्व लोकमें पाये जाते हैं, इसलिए वह सर्च लोकप्रमाण कहा है। भागे चारों गतियों और उनके भवान्तर भेदामें स्पर्शनका विचार अपने-अपने स्वामित्व और स्पर्शनको जान कर घटित कर लेना चाहिए । सुगम होनेसे उसका हमने अलगसे निर्देश नहीं किया है। १६६१. 'प्रादेशसे नारकियों में मिथ्यात्व, सोलह कपाय और सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ठ स्थितिके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनाली के चौदह भागों में कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । इसीप्रकार दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवी पृथिवीतक जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपना-अपना स्पर्शन कहना चाहिए । पहिली पृथिवीमें क्षेत्रके समान भंग है। ६६६२. तिर्यश्चों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और उसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। हास्य और रतिको उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंने लोकके असंख्यात भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और अनुत्कृष्ट स्थिति के उदीरकोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शच किया है। इसीप्रकार स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अपेक्षा स्पर्शन जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी अनुत्कृष्ट स्थिति के उदीरकोंने लोकके असंख्यातर्फे 1. ता०प्रती सम्पन्चोगो ।.....'आयसेवा इसि पाठः । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२] उत्तरपयडिविदिउदारणाए पोसणंखेतं । अणुक० लोग. असंखे०भागो छचोइस० । सम्मामि० खेतं । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिए । णवरि जम्हि सबलोगो तम्हि लोग० असंखे भागो सव्यलोगो वा । पजत्त० इथिवेदो णस्थि । जोणिणीसु पुरिसवेल-णबुस० णस्थि । पंचिंदियतिरिक्खअपज-मणुसनपज्ज० सञपय० उक्क० हिदिउदी• लोग० असंखे०भागो । अणुक्क. लोग० असंखे० भागो मचलोगो वा । ६६३. मणुसतिए सम्म०-सम्मामि० खेतं । सेसपय० उक्क० खेत्तं । श्रण लोग असंखे भागो सबलोगो वा । १६६४. देवेसुमिछ-सोलसक-छपणाक० उक० अणुक्क० द्विदिउदी० लोग० असंखे०भागो अह-णवचोद० । सम्म०-सम्मामि० उक० अणुक्क० हिदिउदी. लोग० असंखे भागो अढचोद्द० । इस्थिवे०-पुरिसवे. उक्क० लोग. असंखे०भागो अट्टचोद्दम० दे० । अणुक्क० लोग० असंखे भागो अट्ठ-णवचोद्दस० दे० । एवं सोहम्मीसाणे । भत्रण-वाण-जोदिसि एवं चेव । वरि सगपोसणं । भागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकों का स्पशेन क्षेत्रके समान है । अनुत्कृष्ट स्थिति के उदीरकोंने लोकके असंख्यात भाग और समालीके चौदह भागोमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यगिमथ्यात्वको उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । इसीप्रकार • पच्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेपना है कि जहाँ सर्व लोक कहा है वहाँ शोकका असंख्यातषां भाग और सर्व लोक कहना चाहिए। पर्याप्तकों में स्त्रीवेदकी उदीरणा नहीं है तथा योनिनियों में पुरुषवेद और नपुसकवेदकी उदीरणा नहीं है। पन्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति के उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थिति के उदीरकोंने लोकके असंख्यात भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। ६६६३. मनुष्यत्रिकमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके पदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति के उदीरकों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। 5६६४. देवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट और अजुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ और नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वको उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवे माग और असनालीके चौदह भागों से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकाने लोकके असंख्यातवें भाग और मनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम पाठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंने लोकके भसंख्यातवें भाग और वसनालीके चौवह भागार्मेसे कुछ कम माठ और नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसीप्रकार सौधर्म और ऐशानकरूपमें जानना चाहिए । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें इसीप्रकार जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपना-अपना स्पर्शन कहना चाहिए । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PEE जयधमलासहिने कसायपाहुरे [ वेदो ६६५. सणकुमागदि सहस्सार त्ति सव्यपयडी० उक. 'अणुक डिदिउदी. लोग असंख० भागो अडचीद । आणदादि अच्चुदा ति सबषयडी० उक० द्विदिउदी• खेतं । अणुक्क० लोग० असंखे भागो छचोदसः । उवरि खेसं । एवं जार० । ६६६६. जहण्णए पपदं । दुविहो णि--प्रोण प्रादेसेण य । श्रीधेण मिच्छचदुसंजल०-णवंस०-चदुणोक० जह• अजह० खेत्तं । गरि मिच्छ० जह• लोग. ( असंखे०भागो अढचोइस० । बारसक-भय-दुगुंछा० जह० लोगस्स संखे भागो। अजह सव्वलोगो। सम्म० जह० खेत्तं । अजह लोग० असंखे०भागो अट्ठयोइस० । सम्मामि० जह० अजह लोग० असंखे०भागो श्रद्धवादस०। इथिवे०-पुरिस० जह० खेत्तं | अजह. लोग० असंखे०भागो अटुचोइस० दे० सबलोगो वा । 5६६५. सनत्कुमारकल्पसे लेकर साकल्पतरोबोधानास्तविकृतियोंकीमास्कहान और अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंने लोकके असंख्यात भाग और प्रमनालीके चौदह भागमेसे कुछ कम पाठ भागत्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आननकल्पसे लेकर अच्युन कल्पतकके देवों में सय प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति के बदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अनुत्यूनीष्ट स्थितिके नदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और अमनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ काम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। ऊपर स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इसीप्रकार अवगाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। ६६६६, जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-मोघ और प्रादेश। ओघसेर मिथ्यात्व चार संचलन, नपुसकवेद और चार नोकपायोंकी जघन्य और अजघन्य म्पितिके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इतनी विशंपना है कि मि अध्यात्यकी जघन्य स्थिति के रदीरकोंने लोकके असंख्यासर्व भाग और असनालीके चौदह भागांमसे कुछ कम पाठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिक उदीरफोंने लोकके संख्यान भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजय स्थिनिके उदीरकोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति के उशीरकका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य स्थितिके उदीरकोंने लोकके असंख्यात भाग श्री सनालीके चौदह भागों से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सभ्यग्मिध्यात्वाकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके पदीरकोंने लोकके असंख्यात भाग और समालीके चीदार भागोमेसे कुछ कम पाठ भागप्रमागा क्षेत्रका स्वर्शन किया है। खीवद और पुरुषवेदकी जघन्य । स्थितिके बदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजयन्य स्थितिके उदीरकाने लोकके सख्यातवें भाग, असनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग और सर्व प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ-चार संज्वलन और नपुसकवेपकी जान्य स्थितिजदीरणा उपशमणि या क्षपश्रेणिमें अपने-अपने स्वामित्वके अनुसार होती है पवे तथा हास्यादि चारकी जघन्य स्थिति पदारणा अपने स्वामित्वके अनुसार संशी पन्चेन्द्रिय दोपर्यातकोंके होती है। यतः इनकी १. प्रा०प्रती असंखे० भागो इति पाठः । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयविद्विदिग्दोरणाए पोसणं २९ ६६६७. आदेसेण रहय० मिच्छ-सोलसक०-सत्तणोक. जह० अजह. लोग० असंखे० भागो छचोइस० । सम्म०-सम्मामि० जह० अजह० खेत्तं । एवं जघन्य स्थितिके उदीरकोंका स्पर्शन मात्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है । तथा इनकी अजघन्य स्थिति उदीरणा एकेन्द्रियादि जीवों के भी होती है, इसलिए इनकी अजघन्य स्थितिके उदीरकों का सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन प्राप्त होता है। इनकी जघन्य और अजघन्य स्थिति के उदोरकों का, क्षेत्र भी क्रमसं लोकके असंख्यात● भागप्रमाण और सर्व लोक है, अतः यहाँ इनकी जघन्य और अजयन्य स्थिति उदारकाका स्पशनाक्षात्रक समान कहा है । मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थिति के उदीरकोंका स्पर्शन तो उनके क्षेत्रके समान सर्व लोक ही है। मात्र जघन्य स्थिति के उदीरकोंके स्पर्शनमें फरक है। बात यह है कि मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति उदीरणा उपशमसम्यक्त्वके सन्मुख हुश्रा जीव प्रथम स्थिति में एक समय अधिक एक प्रावलिप्रमाण स्थिनिके शेष रहनेपर करता है, यतः ऐसे जीवोंका अतीत स्पर्शन त्रसनालीके चौदह भागोमसे कुछ कम आठ भागप्रमाण प्राप्त होता है अतः मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिके उदीरकों का वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन त्रस्नालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण कहा है। बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिउदारणा अपने स्वामित्वके अनुसार बादर एकेन्द्रिय जीव करते हैं, यतः इनका स्पर्शन लोकके संख्यातवें मागप्रमाण है, अतः उक्त प्रकृतियों की जघन्य स्थितिके उदीरकोंका स्पर्शन लोकके संख्यातवें भागप्रमाण कहा है। इनकी अजघन्य स्थिति के उदीरकोका स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। सम्यक्स्यकी जघन्य स्थिति उदीरणा दर्शनमोहनीयका क्षपक जीव सम्यक्त्वकी स्थितिके एक समय अधिक एक आवलि शेप रहनेपर करता है। यतः ऐसे जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है, क्षेत्र भी इतना ही है, अतः इसे क्षेत्रके समान कहा है। वेदकसम्यग्दृष्टियों के स्पर्शनको देखते हुए सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थितिके उदीरकों का वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातचे भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन असनालीके चौदह भागोंमसे कुछ कम आठ भागप्रमाण कहा है। सम्यग्मिथ्यात्वकी उदीरण। सम्यग्मिथ्यादृष्टि जी करते हैं, अतः उनके स्पर्शनके अनुसार सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके उदीर कोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन वसनालीके चौदह भागों से कुछ कम आठ भागप्रमाण कहा है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी जघन्य स्थिति उदीरणा उपशामफ या ज्ञपकके यथासम्भव होती है। यतः ऐसे जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान ही होता है, अत: इनकी जघन्य स्थितिके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। तथा इनकी अजघन्य स्थितिजदीरणा तिर्यञ्चादि तीन गतिमें भी सम्भव है। इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर इनकी अजघन्य स्थिलिके उदीरकोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग और अतीत स्पर्शन त्रसनालीके चौदह भागों से कुछ कम पाठ भाग और सर्व लोकप्रमाण कहा है। आगे चारों गतियोंमें और उनके अवान्तर भेदोंमें अपने-अपने स्वामित्वको और स्पर्शनको जानकर प्रकृतमै स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए। कोई विशेष न होनेसे यहाँ उसका अलगसे निर्देश नहीं किया है। ६६७. प्रादेशसे नारकियों में मिथ्यात्व, सोलह कपाय और सात नोकषायोंकी जयन्य और अजघन्य स्थितिक उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके चौदह भागों से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके उदीरकोका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इसीप्रकार दूसरी पृथिवीसे लेकर Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयधवलासहिदे कसायपाहुदे [षेदगी विदियादि जाव सत्तमा चि । णवरि सगपोसणं । पढमाए खेत्तं । ६६८. तिरिक्खेसु मिच्छन्-सोलसक०-सत्तणोक०-सम्मामि० जह० अजह. खेत्तं । इस्थिवे०-पुरिसवे. जह० खेत्तं । अजह० लोग० असंखे०भागो सचलोगो वा । सम्म० जह० खेत्तं । अजह० लोग असंख० भागो छचोहसः ।। ६६९. पंचिंदियतिरिक्खतिए सम्म०-सम्मामि० तिरिक्खोपं । सेसपय० जह० खेत्तं । अज० लोग० असंखे भागो सबलोगो वा । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जामणुसअपज्ज. सधपयडी० जह० खेत्तं । अजह० लोग. असंखे०भागो सबलोगो वा। मसतिय० पंचिदियतिरिक्खतियभंगो। चरि सम्म० जह• अजह • लोग असंखे०भागो। ६६७०. बेमेश्सलसकाठमाणोका दिमागवत्ती म्जह ० लोग. असंखे०. भागो अह-परचोद्दस० | एवं मिच्छ । गवरि जह• अदुचौदस | सम्म० जह० खेत्तं । अजह लोग० असंखे भागो अदुचोद्दस० । सम्मामि० जह० अजह० लोग० सातवी पृथिवीतक जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपना अपना स्पर्शन कहना चाहिए । पहली पृथिवीमें स्पर्शन क्षेत्रके समान है। ६६६८. तिर्योंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, साल नोकषाय और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य स्थितिके उदीरकोंने लोकवें असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्वा जघन्य स्थितिके उदीरकोका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य स्थितिके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और प्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। ६६६. पन्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकमें सम्यक्त्व और सभ्यग्मिध्यात्वको जघन्य और अजघन्य स्थितिके उदीरकोंका मंग सामान्य तिर्यशांके समान है। शेष प्रकृतियोंकी जयन्य स्थितिके उदारकीका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य स्थितिके उदीरकाने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यन्त्र अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति के उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य स्थितिके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यत्रिको पञ्चन्द्रिय तिर्यचत्रिकके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी जघन्य और अजयन्य स्थितिके उदीरकाने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। १६७०. देवोंमें सोलह कपाय और आठ नोकपायोंकी जघन्य स्थिति के उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजन्य स्थितिके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा असनालीके चौदह भागॉमसे कुछ कम पाठ और नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसीप्रकार मिथ्यात्व- . की अपेक्षा स्पर्शन जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसकी जघन्य स्थितिके उदीरकोंने प्रसनालीके चौदह भागामसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्वकी जयन्य स्थितिके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य स्थितिके उदीरकांने लोक Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वादासागर जी महाराज गा०६२] उत्तरपयडिहिदिउदीरणाए पोसणं असंखे० भागो अढचोइस० । एवं भवणवाणवें । णवरि सगपोसणं । सम्म सम्मामि० भंगो। जोदिसि० भवणभंगो। णवरि अणंताणु०४ जह• अछुट्ट-अट्ठचोद्दस० । अजह० लोग० असंखे०भागो अधुट्ठ-अट्ट-णवचोइस० । ६७१. सोहम्मीसाणे देवोघं । णवरि अणंताणु०चउक्क० जह• अट्ठचोइस० देसूणा । अजह• अट्ठ-णवचोइस० देसूणा ! ६७२. सणकुमारादि जाव सहस्सार त्ति मिच्छ०-सम्मामि०-अणंताणुकचउक्क० जह० अज० लोग० असंखे० भागो अढचोहम० देसणा। सम्म० बारसक.. सत्तणोक. जह० खेतं । अजह० लोग० असंखे०भागो अटुचोद्दसः । मार्गदर्शक :- आचाई सणादि जाव अच्चुदा ति सम्म०-सोलसक०-सत्तणोक० जह. खेत्तं । अजह लोग असंखे भागो छचोद्दस । मिच्छ०-सम्मामि० जह. अजहः असंख्यात भाग और मनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम पाठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सभ्यम्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके उदीरकाने लोकके असंख्यातवें भाग और बसनालीके चौदह भागोंमसे कुछ कम पाठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसीप्रकार भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनाअपना स्पर्शन कहना चाहिए | तथा इनमें सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। ज्योतिषी देवोंमें भवनवासियोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें अनन्तानुबन्धीचतुडककी जघन्य स्थितिके उदीरकोंने समालीके चौदह भागमिसे कुछ कम साहे तीन भाग और आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शत किया है । अजघन्य स्थितिके उदारकोंने लोकके असंख्यातवें भाग, त्र्सनालीके चौदह भागों से कुछ कम साढ़े तीन भाग, पाठ भाग और नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । ६६७१. सौधर्म और ऐशामकल्पमें सामान्य देवोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्की जघन्य स्थितिके उदीरकोंने घसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ मागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य स्थिति के उदीरकोंने त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग और नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। १६७२. सनत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिध्यात्व और अतन्तानुबन्धीमतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिके उदीरकोंने लोकके पसंख्यातवें भाग और असमालीके चौदह भागों में से कुछ कम पाठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्व, बारष्ट्र कष य और सात नोकपायोंकी जघन्य स्थितिके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य स्थितिके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और प्रसनालीके चौदह भागॉमसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। ६७३. अानतकल्पसे लेकर अच्युत कल्पतकके देवा में सम्यक्त्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य स्थिति के उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और बसनालीके चौदह भागों से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और बमनालीफे चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ [ वेदगो . श्री सविधिसागर जी जयधवलासहिदे कसायपाहुड़े लोग० असंखे०भागो छचोइस० । उपरि खेत्तभंगो । एवं जावः । ६७४. गाणाजीवेहि कालो दुविहो-जह० उक्क । उक्कसे ययदं । दुविहो णि०–ोघेण आदेसेण य । श्रोघेण छब्बीसं पयडीणं उक० जह• एगस कु. पलिदो० असंखे मागो। अणुक० सम्वर्द्ध।सम्मा-सम्मामि उक. जह. एगसमो, उक्क० आवलि. असंखे भागो । अणुक्क० सम्वद्धा | णवरि सम्मामि० अणुक्क० जह० अंतोमु०, उक्क० पलिदो० असंखे भागो। १६७५, सन्बणेरइय०-सव्यतिरिक्ख-देवा सहस्सारे ति जाओ पयडीओ उदीरिजंति नासिमोघं । णवरि पंचिंदियतिरिक्ख अपज्जः सवपय० उक० जह० भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। ऊपर क्षेत्रके समान भंग है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। ६६७४. नाना जीवोंकी अपेक्षा काल दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है.-श्रोध और आदेश । मोबसे छब्बीस प्रकृतिको उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकांका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यात भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका काल सर्वदा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समरा है और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमागा है। अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोका काल सर्वदा है। इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यफे असंख्यातवें भागप्रमाण है। विशेषार्थ- पहले एक जीवी अपेक्षा काल बतला आये हैं। उसमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति के उदीरकाका जघन्य काल बतलाया है। वह यहाँ नाना जीवोंकी अपेक्षा भी बन जाता है, अतः उसका अलगसे खुलासा नहीं किया। अब रही उत्कृष्ट कालकी बात सो यदि नाना जीय अत्रुटन् सन्तानरूपसे उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा करें तो छब्बीस प्रकृतियोंकी पत्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालता और सम्यक्त्व-सम्यग्मिध्वात्यकी श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक ही उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा बनती है। यही कारण है कि यहाँ पर छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोका उत्कृष्ठ काल पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको उत्कृष्ठ स्थिति के उदीरकोंका उत्कृष्ट पावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल कहा है। अब रहा इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंके कालका विचार मी सत्ताईस प्रकृतियोंकी निरन्तर उदीरणा सर्वदा सम्भव है, इसलिए सो इनकी अनुत्कृष्ट स्थिति के उदीरकों का काल सर्वदा कहा है। अब रहा सम्यग्मिथ्याघकी अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकों के काल का विचार सो नाना जीवों की अपेक्षा सभ्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानका ही उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। यही कारण है कि यहाँ सम्यग्मिथ्यात्त्रकी अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है यह स्पष्ट ही है। ६६७५. सघ नारकी, सब तिर्यच और सामान्य देवासे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवाम जिन प्रकृतियोंकी उदीरणा होती है, उनका काल श्रोध के समान है। इतनी विशेषता है. Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिहिदिउनीरणाप णाणाजीओहि कालो ३०३ एयस०, उक्क० आवलि० असंखे भागो । अणुक० सन्त्रद्धा । १६७६. मणुसतिए सम्म० उ० द्विदिउदी० जह० एगम०, उक० संखेजा समया । अणुक्क० सव्वद्धा । एवं सम्मामि० । णवरि अणुक्क० जह० उक्क० अंतोमु० । सेसपय • उक्क० द्विदिउदी० जह• एयस०, उक्क० अंतोमु० । अणुक्क सचद्धा । मार्गदर्शक : 9 मागसमपथाउकद्विदिउदी० जह० एयसमओ, उक्क० श्रावलि. असंख० भागो। अणुक० जह० एयस०, उक० पलिदो० असंखे भागो। णवरि मिच्छ०-णस. अणुक० जह० खुदाभवगहरणं समयूणं, उक्क पलिदो. असंखे०भागो। कि पंचेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्यापकोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति के उदीपकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट स्थितिके जदीरकोंका काल सर्वदा है। विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तकोंका प्रमाण यद्यपि असंख्यात है, फिर भी इनमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा मात्र एक समयप्रमाण बनती है, इसलिए अटत सन्तानकी अपेक्षा नाना जीवोंके उक्त कालका योग आवलिके असंख्यात भागप्रमाग ही बनता है। यही कारण है कि उनमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति के उदीरकोंका उत्कृष्ट काल आबलिके असंख्यात भागप्रमाण कहा है। शेप कथन सुगम है। ६६७६. मनुष्यत्रिकमें सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थिति के उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका काल सर्पदा है। इसीप्रकार सम्यग्मिध्यात्य प्रकृतिकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सभ्यरिसध्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोका काल सर्वधा है। विशेषार्थ- मनुष्यन्त्रिकका प्रमाण संख्यात है इस तथ्यको ध्यागमें रखकर यहाँ सम्यक्त्र प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थिति के उदीरकोंका उत्कृष्ट काल वहा है । शेष कथन मुगम है। ७६७७. मनुष्य अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है | अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण है। तनी विशेषता है कि मिथ्यात्व और नपुंसकवेदकी अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय कम तुल्ल कभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल पल्के असंख्यातवें भागप्रमाण है। विशेषार्थ—मनुष्य अपर्याप्तकोंका प्रमाण यद्यपि असंख्यात है, फिर भी इनमें सब प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट काल भी एक समयमात्र है। यदि अत्रुटत् सन्तान रूपसे ऐसे जीव इनमें उत्पन्न हो तो भावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक ही वे उत्पन्न होंगे। यही कारण है कि इनमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका उत्कृष्ट काल भावलिके असंख्सातवें भागप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयंधवलास हिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ : ३६७८. श्राणदादि जाय राववज्जा त्ति सव्वपय० उक० जह० एयस०, उक० संखेज्जा समया । अशुकः सव्वद्धा । णवरि सम्मामि० अणुक० जह० अंतोमु०, उक० पलिदो० श्रसंखे भागो । अदिसादि सच्चा ति सव्यपय० उक० जह० एयस०, उक्क० संखेज्जा समया । क ६६७९. जहण पद । दुविहो णि०-मार्गदर्शकणार्या महाराज मिच्छ० चदुणोक० जह० हिदिउदी० जह० एस० उक्त० आवलि० असंखे ० भागो, - ओषेण आदेसेण य । श्रोण अज० सव्वद्धा । एवं सम्मामि० । वरि अजह० जह० अंतोमु०, उक्क० पलिदो ० श्रसंखे० भागो । सम्म० चदुसंजल० - तिष्णिवेद० जह० हिदिउदी० जह० एस ०, संखेज्जा समया । जह० सच्चद्धा । बारसक० भय-दुर्गुछा० जह० अजह० सव्वद्धा । 1 + उक्क० ३०४ ६६७८, मानवकल्पसे लेकर नौ मैवेयकतक के देवोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति के उदीरकों का जघन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल संख्यात समय उदीरकोंका काल सर्वदा है। इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिके | अनुत्कृष्ट स्थिति के उदीरकों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके श्रसंख्यातवें भागप्रमाा है | अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक के देवों में सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकों का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका काल सदा है । इसीप्रकार श्रमाहारक मार्गणातक जानना चाहिए । विशेषार्थ - नौ मैवेयकसे लेकर उक्त सब देवों में मनुष्यत्रिक ही मरकर जन्म लेते हैं और उनका प्रमाण संख्यात है। यही कारण है कि इनमें अपनी-अपनी उदीरणा प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका उत्कृष्ट काल संख्यात समय प्राप्त होनेसे वह उक्तप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है । ६७. जघन्य का प्रकरण हैं। निर्देश दो प्रकारका है - श्रोष और आदेश । श्रोघसे मिथ्यात्व और चार नोकपायोंकी जघन्य स्थिति के उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । अजघन्य स्थितिके उदीरकोंका काल सर्वदा है। इसीप्रकार सम्यग्मध्यात्य प्रकृतिकी शपेक्षासे जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसकी अजघन्य स्थिति के उदीरकों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त हैं और उत्कृष्ट काल पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण है । सम्यक्त्व, चार संज्वलन और तीन वेदकी जघन्य स्थितिके दीरकोंका जयन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय हैं । जघन्य स्थितिके atraint काल सर्वदा है। बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य स्थिति उदीरकों का काल सर्वदा है । विशेषार्थ - मिथ्यात्व और चार नोकषायोकी जघन्य स्थितिउदीरणाके स्वामित्वको ध्यानमें लेनेपर ऐसे नाना जीव लगातार यदि इनकी जघन्य स्थितिउदीरणा करें तो उस कालका योग भावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है। यहीं कारण है कि इनकी जघन्य स्थितिके उदीरकों का उत्कृष्ट काल उक्तप्रमाण कहा है। इसीप्रकार सम्यग्मिध्यास्त्र प्रकृति के विषय में जान लेना चाहिए। सम्यक्त्व, चार संज्वलन और तीन वेदों की जघन्य स्थितिउदीरणा करनेवाले जीव ही अधिक-से-अधिक संख्यात हो सकते हैं । यदि त्रुदत् Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] सतरपयडिद्विदिवदीरणाए णाणाजीदेहि कालो २०५ ६८०. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० गोलमक०-सत्तणोका जह० द्विदिउदी. जह० एयस०, उक० आवलि० असंखे भागो । अजह सव्वद्धा । सम्म०-सम्मामि० प्रोपं । एवं पढमाए । ६८१. विदियादि जाव लट्ठि ति सम्म०-मिच्छ जह जह० एयस०, उक्क० श्रावलि० असंखे०भागो । अजह० सम्बद्धा । सम्मामि० श्रीधं । अणंतागु०४ जह० द्विदिउदी. जह• एयस०, उक्क० अंतोमु० । अज० सम्बद्धा। बारसक०-सत्तणोक० जह विदिउदी० जह० एस०, उक्त संखेजा समश । अजह सव्वद्धा । सत्तमाए सोलसक०-भय-दुगुंडा० जह० द्विदिउदी० जह० एयस०, उक्क पंलिदो० असंखे.. भागो । अज० सम्बद्धा । सम्मा०-मिच्छ०-पंचणोक० जह० द्विदीउदीर० जह० एयस०, उक० श्रावलि. असंखे०भागो । अज० सम्बद्धा । सम्मामि० श्रोधं । सन्तानकी अपेक्षामविचार किया जाय ताविलासागल का यानामा संख्याप्त समय होगा यही कारण है कि इन प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके उदीरकोंका उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है । शेष कथन सुगम है। ६८०. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कपाय और सात नोकषायों की जघन्य स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवे __ भागप्रमाण है । अजघन्य स्थिति के उदीरकोंका काल सर्वदा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग प्रोधके समान है । इसीप्रकार प्रथम पृथिवीमें जानना चाहिए । विशेषार्थ_सामान्यसे नारकियोंमें मिध्यात्व, सोलह कपाय और सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। यदि माना जीवोंकी अपेक्षा अत्रुटत् संतानकी अपेक्षा यह काल लिया जाय तो वह आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है। यही कारण है कि यहाँ उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति के उदीरकोंका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है । शेष कथन सुगम है । ६८१. दूसरी पृथिवीसे लेकर छटी पृथिवी तकके नारकियों में सम्यक्त्व और मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलि. के असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य स्थिति के उदीरकोंका काल सर्वदा है। सम्यग्मिध्यात्वका भंग ओघके समान है। अनन्तानुबन्धी चारका जघन्य स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य स्थितिके उदीरकोंका काल सर्वदा है। बारह कपाय और सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिके उदोरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अजघन्य स्थितिके उदीरकोंका काल सर्वदा है । सातवीं पृथिवी में घोलह कषाय, भय और जुगुप्साको जघन्य स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है पीर अत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य स्थिति के उदीरकोंका काल सर्वदा है। सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और पाँच नोकषायोंकी जघन्य स्थितिके उदीरफोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पावलिके असंख्यासवे भागप्रमाण है। अजघन्य स्थितिके उदीरकों का काल सर्वदा है। सम्यग्मिथ्यात्वका भंग आपके समान है। 1. पा प्रती उस संखेमा समया पलिदो० इति पाउः । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ३०६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे 1 [वेदगो । ६८२. तिरिक्खेसु पिच्छ०-सत्तणोक० जह• टिदिउदी० जह० एयस०, उक्क ० श्रावलि. असंखे०भागो। अजह सब्बद्धा । सोलसक०-भय-दुगुला० जह. अजह. द्विदिउदी. सनद्धा। सम्म-सम्मामि० श्रोधं । पंचि०निरिक्खतियः दसणतियमोघं । सेसपय० जह. जह० एयस०, उक्क, आवलि० असंखे भागो । अजह सब्बद्धा। णवरि जोणिणीसु सम्मत्त० मिच्छत्तभंगो। पंचिंतिरि०अपन० ...' सचपय० जह. द्विदिउदी. जह० एयसमओ, उक्क, आवलि. असंखे० भागो । अजह सव्वद्धा। ६६८३. मणुसेसु मिच्छ ०-सम्म०-चदुसंजल-सत्तणोक. जहविदिउदी० जह० एयस०, उक्क० असंखेजा समया । अजह सव्वद्भा । बारसक०-भय-दुगुंडा० जह० हिदिउदी जह० एपसमयो, उक्त आवलि असं० भागो । अजह सव्वद्धा । सम्मामि० जह. जह• एयस०, उक० संखेजा समया । अज० जह• उक० अंतोमुहुखं । मणुसपज्ज ०-मणुसिणी० सयपयडी० जह• विदिउदी. जह• एगसमो, उक० संखेज्जा समया । अजह० सम्बद्धा । णवरि सम्मामि० मणुमोघं । मणुस विशेषार्थ-इसके पूर्व जो स्पष्टीकरण किया है उसे और साथ ही अपने-अपने स्वामित्वको ध्यानमें लेनेपर सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजधन्य स्थितिबदीरणाका माना जीवोंकी जो अपेक्षा काल कहा है वह समझमें आ जाता है, इसलिए यहाँ और आगे अलगसे खुलासा नहीं किया। ६८२, तिर्यश्चोंमें मिथ्यात्व और सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिके उदीरकोंका जश्न्य काल एक समय है, और उत्कृष्ट काल पावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य स्थितिके दीरकोंका काल सर्वदा है। सोलह कपाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके उदीरकोंका काल सर्वदा है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओषके समान है। पन्चेन्द्रिय निर्यञ्चत्रिकर्म दर्शनमोहनीयत्रिकका भंग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके उदीरकोका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पालिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य स्थितिके उदीरकोंका काल सर्वदा है। इतनी विशेषता है कि योलिनियों में सम्यक्त्यका भंग मिथ्यात्वके समान है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियों की जघन्य स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल प्रालिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अजघन्य स्थितिके उदीरकोंका काल सर्चदा है। ६६८३. मनुष्यों में मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, पार संज्वलन और सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल असंख्यात समय है। भजधन्य स्थितिके उदीरकोंका काल सर्वदा है। बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पावलि के असंख्यातय भागप्रमाण है। अजघन्य स्थितिके उदीरकोंका काल सर्वदा है। सम्यग्मिथ्यात्यकी जघन्य स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ण काल संख्यात समय है। अजघन्य स्थिति के उदीरकोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्स है। मनुष्य पर्याप्त और मनुध्यिनियोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति के उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा० ६२ ] उत्तरपयडिडिदिउदीरणाए णाणाजीवेहिं कालो ३०७ "हार्द उदी सुविधिहागर मार्गदर्शक :- आहार्य सहारा क अपज० मिच्छ० एस० जह० ० आवलि० श्रसंखे० भागो । अज० जह० श्रावलिया समयुणा, वुंस० अंतोमुहुत्त, उक० पलिदो० श्रसंखे० भागो | सोलसक० एणोक० एवं चैत्र । णवरि जह० द्विदिउदी० जह० एस०, उक्क पलिदो ० असंखे० भागो ५ ६८४. देवे दंसणतियमोघं । सेसपय० जह० द्विदिउदी० जह० एयसमत्रो, उक० श्रावलि० असंखे० भागो । अजह० सव्वद्धा । एवं भवण० वाणवें० । णवरि सम्म मिच्तभंगो | जोदिसियादि जाव वगेवज्जा चि सखतियमोघं । सेसपय जह० द्विदिउदी० जह० एयसमत्रो, उक्क० संखेज्जा समया । श्रजह० सव्वद्धा । वरि अणताणुचक्क० जह० डिदिउदी० जह० एयसमय, उक्क० अंतोसु० 1 णवरि जोदिमि० सम्म० मिच्छत्तभंगो | आणदादि णवगेवत्रा ति अणताणु ०४ जह० डिदिउदी० जह० एस० उक० संखेञ्ज समया । श्रजह० सव्वद्धा । अणुद्दिसादि सम्बडा ति सव्वपप० जह० ङ्किदिउदी० जह० एस० उक० संखेजा समया । अजह० सव्वद्धा । एवं जाव० । , , संख्यात समय है। अजघन्य स्थितिके उदीरकों का काल सर्वदा है। इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यग्मिध्यात्वका भंग सामान्य मनुष्यों के समान है। मनुष्य अपर्याप्तकों में मिध्यात्व और नपुंसक वेद की जघन्य स्थितिके उदीरकों का जन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल धावलिके असंख्यात भागप्रमाण है। अजघन्य स्थितिके उदीरकों का जघन्य काल मिध्यात्वका एक समय कम एक भावलिप्रमाण है, नपुंसकवेदका अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्के असंख्यातवें भागप्रमाण है। सोलह कपाय और छह नोकपायोंका इसीप्रकार है। इतनी विशेषता है कि अजघन्य स्थिति उरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्के संख्यात भागप्रमाण है । ६८४. देवोंमें दर्शनमोहनीयत्रिकका भंग ओधके समान है। शेष प्रकृतियों की जघन्य स्थिति straint जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यात वें भागप्रमाण है । अजघन्य स्थिति के उदोरकों का काल सर्वदा है । इसीप्रकार भवनवासी और व्यन्तर देवों में जानना चाहिए। इसनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वका भंग मिथ्यात्व के समान है। ज्योतिषी देवोंसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें दर्शन मोहनी यत्रिका भंग ओके समान है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके उदीरकोंका जवन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अजवन्य स्थितिके उदीरकोंका काल सर्वदा है। इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धचतुष्ककी जवन्य स्थितिके उदीरकों का जयन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि ज्योतिषी देवोंमें सम्यक्त्वका भंग मिध्यात्व के समान है। तथा आनतकल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तक के देवोंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थिति उदीरकों का जघन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अजघन्य स्थिति के उदीरकों का काल सर्वदा है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धिसकके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति उदीरकीका जयम्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अन्य स्थितिके उदीरकोंका काल सर्वदा है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गातक Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधासहि कसायवाडे १६८५. अंतरं दुविहं -- जह० उक्क० । उक्कस्से पथदं । दुविहो णि० श्रोषेण श्रादेसेण य | ओघेण सब्वपय० उक्क० हिदिउदी० जह० एयस०, उक्क० अंगुलस्स असंखे० भागो । अणुक० णत्थि अंतरं । वरि सम्मामि० अणुक० जह० एम०, उक० पलिदो० असंखे ० भागो । आदेसेण सव्वरइय० सव्यतिरिक्ख - सच्च मणुस्स सच्चदेवा सि जाओ पयडीओ उदीरिति तासिमोघं । णवरि मणुस० अपज० सच्चामिमणुक ० जह० एयस०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । एवं जाब ० | ६८६. जहणए पदं । दुविहो णि० - श्रोषेण आदेसेण य | ओघेण मिच्छ० ० जह० डिदिउदी० जह० एयस०, उक्क० सत्त रार्दिदियाणि । अजह० णत्थि अंतरं । सम्म० लोभसंजल० जह० डिदिउदी० जह० एयस०, उक० छम्मासं । जानना चाहिए | ६ ६८५. अन्तर दो प्रकारका है- जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरणा है। निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । श्रोघसे सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका जघन्य अन्तर काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर काल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट स्थिति उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । इतनी विशेषता है किं सम्यग्मिथ्यात्व की अनुत्कृष्ट स्थिति के उदीरकों का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्य के असंख्यात भागप्रमाण है । आदेश से सब नारकी, सब तिर्थन, सब मनुष्य और सब देत्रों में जिन प्रकृतियोंकी उदीरणा होती है उनका भंग श्रोध के समान है। इतनी विशेषता है कि मनुष्य पर्यातकों में सब प्रकृतियांकी अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गात जानना चाहिए। वेदगी [ ७ विशेषार्थ - नाना जीव यदि सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके सिवा शेष सत्र प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा न करें तो कमसे कम एक समयतक और अधिक से अधिक अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमारण कालतक नहीं करते । यही कारण है कि यहाँ प्रोघसे उक्त सब प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकों का जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल गुल के असंख्यात भागप्रमाण कहा है। मात्र सम्यग्मिध्यात्व गुणस्थानका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है। इसलिए सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिकी अपेक्षा उक्त प्रकारसे अन्तरकालका निर्देश अलग से किया है। चारों गतियों में यह अन्तरकाल बन जाता है, इसलिए उसे ओघ के समान जानने की सूचना की है। मात्र मनुष्य अपर्याप्त यह सम्यग्विध्यात्व गुणस्थानके समान सान्दर मार्गणा है, इसलिए इस बातको ध्यान में रखकर इनमें सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। १६८६. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है - प्रोध और आदेश । भोधसे मिध्यात्वकी जघन्य स्थितिके उदीरकों का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर काल सात रात्रि-दिवस है । अजघन्य स्थितिके उदीरकों का अन्तरकाल नहीं है । सम्यक्त्व और लोभसंज्वलनकी जघन्य स्थितिके उदीरकों का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपट्टिवीरणाए सारणा जीवेहिं अंतरं ३०६ ७. अज० णत्थि अंतरं । सम्मामि० जह० डिदिउदी० जह० एयस०, उक्क० अंगुलस्स असंखे० भागो । अजह० जह० एक्स०, उक्क० पलिदो० श्रसंखे० भागो । चारसक०भय-दुर्गुहा० जह० अजह० णत्थि अंतरंगता संजलै रिस वेद डिदि उदाहराज ज० यस०, उक्क० वासं सादिरेयं । अजह० पस्थि अंतरं । इत्थिवेद - एस० जह० विदिउदी० जह० एयसमत्रो, उक्क० वासुपुधत्तं । अजह० णत्थि अंतरं । चदुणोक० जह० द्विदिउदी० जह० एगसमओ, उक्क० अंगुलस्स असंखे० भागो । अज० णत्थि अंतरं । अन्तरकाल छह महीना है। अजघन्य स्थितिके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं हैं । सम्यग्मिभावकी जघन्य स्थिति के उदीरकों का जघन्य अन्तरकाल एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुल असंख्यातवें भागप्रमाण है । अजघन्य स्थितिके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है। तीन संज्वलन और पुरुषवेदी जघन्य स्थितिके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एक वर्षप्रमाण है। अजघन्य स्थितिक उद्दीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । स्त्रीवेद और नपुंसक वेद की जघन्य स्थिति के उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। अजघन्य स्थिति के उदीरकों का अन्तरकाल नहीं है । चार की जघन्य स्थिति के उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है, और उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुल के असंख्यात भागप्रमाण है। अजघन्य स्थितिके उदीरकों का अन्तरकाल नहीं है। विशेषार्थ - उपशमसम्यक्त्वकी प्राप्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल सात दिन-रात है। इसलिए यहाँ मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति के उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल सात दिन-रात कहा है । सम्यक्त्वकी क्षपणा और क्षपकश्रेणिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है, इसलिए यहाँ सम्यक्त्व और लोभसंज्वलनकी जघन्य स्थिति के उदीरकोंका जघन्थ अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना कहा हैं । ऐसे जीव जो सम्यग्मिथ्यात्व की जघन्य स्थितिकी उदीरणा करते हैं उनका अघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुलके असंख्यात भागप्रमारण बन जाता है, इसलिए यहाँ सम्यग्मिध्यात्व प्रकृतिकी अपेक्षा यह अन्तरकाल उक्त कालप्रमाण कहा है। बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिकी उदीरणा करनेवाले जीव निरन्तर पाये जाते हैं, इसलिए इनकी अपेक्षा जघन्य स्थितिके उदीरकों के अन्तरकालका निषेध किया है। तीन संज्वलन और पुरुषवेदके उदीरक जीव क्षपकश्रेणिपर न चढ़ें तो अधिक से अधिक साधिक एक वर्षतक नहीं चढ़ते, इसलिए यहाँ इनकी जघन्य स्थिति उदोकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एक वर्ष कहा है। स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी जीवों की अपेक्षा क्षपकभेगिका उत्कृष्ट अन्तरकाल agesप्रमाण है, इसलिए यहाँ स्त्रीवेद और नपुंसकवेदक जघन्य स्थिति के उदीरकों का जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षे प्रथक्त्व कहा है। चार नोकषायोंकी जवन्य स्थितिके उदीरकोंके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालका स्पष्टीकरण सम्यग्मिध्यात्वकी Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयधवलासहिदे कत्रायपाहुडे [ वेदगो ७ :- सुविधिसागर ६८७. आदेसेण णेरड्य० मिच्छ० सम्मामि० श्रधं । सम्म० जह० हिदिउदी० जह० एयसमओ, उक्क० वासपुधत्तं । अजह० णत्थि अंतरं । सेसपयडी० जह० डिदिउदी० जह० एस० उक० अंगुल अमंखे भागोज - णत्थि अंतरं । एवं पदमाए । बिदियार्दा सतमा ति एवं चेत्र । रावरि सम्म० अता० भंगो। ६८८ तिरिक्खेसु मिच्छ० सम्म० सम्मामि० रिओघं । सोलसक० -भयदुर्गुछा० जह० जह० णत्थि अंतरं । सत्तणोक० जह० द्विदिउदी० जह० एयसमओ, उक्क० अंगुलस्स असंखे ० भागो । अजह० णत्थि अंतरं । पंचिदियतिरिक्खतिय० दंसणतिय० णायमंगो | सेसपयडी० जह० द्विदिउदी० जह० एस० उक० अंगुलम्स असंखे० भागो । अजह० णत्थि अंतरं । वरि जोणिणीसु सम्मं० बिदिय पुढ विभंगो । पंचि०तिरि० अपज० सच्चपय० जह० डिदिउदी० जह० एयस०, उक्क० अंगुलम्स असंखे० भागो । जह० एरिथ अंतरं । एवं मणुसप० । णवरि अजह० जह० ३१० जघन्य स्थितिके उद्दीरकोंके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल के समान है। शेष कथन सुगम है । ६६८७ श्रादेशसे नारकियोंमें मिध्यात्व और सम्यग्मिध्यात्वका भंग बांधके समान है। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षथक्त्व प्रमाण है। अजघन्य स्थितिके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति उदीरकों का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुल असंख्यातवें भागप्रमाण है । अजघन्य स्थिति के उदीरकों का अन्तरकाल नहीं हैं । इसीप्रकार प्रथम पृथिवी में जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक इसोप्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वका भंग अनन्तानुचन्धी चतुष्क के समान है । 1 विशेषार्थ – प्ररूपणा में जो खुलासा किया है उसे और अपने-अपने स्वामित्र को समझकर यहाँ स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए । आगे भी इसीप्रकार खुलासा कर लेना चाहिए। $ ६८८. तिर्यों में मिध्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यमिध्यात्वका संग सामान्य नारकियों के समान है | सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजवन्य स्थिति उatesोंका अन्तरकाल नहीं है । सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिके उद्दीरकों का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृट अन्तरकाल अंगुल के श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है। अजयन्य स्थिति के उदीरकों का अन्तरकाल नहीं है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक दर्शन मोहनीयत्रिकका संग नारकियों के समान है। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके उदोरकों का जन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमारा है । अजघन्य स्थिति के उदीरकों का अन्तरकाल नहीं है । इतनी विशेषता है कि योनिनीतियोंमें सम्यक्त्वा मंग दूसरी पृथिवीके समान हैं । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियोंकी जवन्य स्थितिके उदीरकों का जघन्यः अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुल के श्रसंख्यातवें भाग मारा है। अजघन्य स्थिति उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । इसीप्रकार मनुष्य पर्याप्तकों में जानना चाहिए। इतनी १. तर प्रतौ अंतरं । एवं जोगिणीसु एवरि सम्म० इति पाठः । す Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२] उत्तरपयडिडिदिउदीरणाए. जीवप्पाबहुध एयसमो, उक० पलिदो० असंखे०भागो। ६८६. मणुसलिए श्रोघं । गणवरि बारमक-भय-दुगुंछ० पंचिंदियनिरिक्सभंगो। णवरि पञ्जत्तएमु इस्थिवेदो कि मणुमिनी सिहालसखुस्सङ पथरिका । अम्हि छम्मासं वासं सादिरेयं तम्हि वासपुधत्तं । ६९०. देवेसु दंसणतिथं णारयभंगो । सेयपय० जह. द्विदिउदी० जह. एयसमश्रो, उक० अंगुलस्स असंखे०भागो। अजह ० णस्थि अंतरं । एवं भवणादि जाव णवगेवजा ति । णवरि भवणा-याणवे-जोदिसि० सम्म विदियपुढविभगो। अणुदिसादि मुबट्ठा ति सम्म०-बारसक०-मत्तणोक. प्राणभंगो । णारि सबढे सम्म० जह• 'द्विदिउदी० जह० एयस०, उक्क० पलिदो० संखे०भागो। अजह० णस्थि अंतरं । एवं जाव। १६९१. भावाणु० सम्वत्थ अोदइओ भावो । ६६९२. अप्पाबहुअं दुविहं-जीवप्पाबहुअं द्विदिअप्पाबहुअं चेदि । जीवअप्पाबहुधे दुविहं-जह. उक्क । उक्कस्से पयदं । दुत्रिहो णि०–ोघेण आदेसेण य । ओषेण मिच्छ०-सोलसक०-पत्तणोक० सम्वत्थोवा उक्क० द्विदिउदी० जीवा | अणुक० विशेषता है कि इनमें अजअन्य स्थितिके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। १६८६. मनुष्यत्रिक प्रोघके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि बारह कपाय, भय और जुगुप्लाका भंग पञ्चेन्द्रिय नियंचोंके समान है। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकामें स्त्रीयेदकी उदीरमा नहीं है तथा मनुपियनियों में पुरुषवेद और नपुसकवेदकी उदीरमा नहीं है। जहाँ छह माह और साधिक एक वर्ष कहा है. वहाँ वर्षपृथक्त्व कहना चाहिए। ६६६०. देवोंमें दर्शनमोहनीयत्रिकका भंग मारकियोंके समान है। शेष प्रकृतियों जघन्य स्थितिके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगर के असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य स्थितिके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है। इसीप्रकार भवनवासियोंसे लेकर नौ प्रेधेयक तकके देवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सम्यक्त्वका भंग दूसरी पृथिवी के समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवों में सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकषायोंका भंग प्रानतकल्पके समान है। इतनी विशेषता है कि सर्वार्थसिद्धिमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य स्थितिके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। १६६१. भावानुगमकी अपेक्षा सर्वत्र औदयिक भाव है। ७६९२. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-जीव अल्पबहुत्व और स्थितिअल्पबहुत्व 1 जीव अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ अयघवलासहिये कसायपाहुडे [ वेदगो ७ डिदिउदी० जीवा अनंतगुणामाजिक-सम्भावित डिदिउदी० जीवा । अणुक० डिदिउदी० जीवा श्रसंखेअगुणा । एवं तिरिक्खा० । • पुरिसवे० सव्त्रत्थो० उक० ६ ६९३. सब्बणेरड्य० सन्वपंचिदियतिरिक्ख मनुसप्रपञ्ज०- देवा जाव अवराजिदा ति सव्वपय० सव्वत्थोवा उक० हिदिउदी० जीवा । ऋणुक० हिदिउदी० जीवा श्रसंखे० गुणा | मणुसेसु सम्म० सम्मामि० इथिवे ० पुरिसके० सव्वत्थोचा उक० डिदिउदी० जीवर | अणुक्क० हिदिउदी० जीवा संखे० गुणा । सेसपयडीणं सव्वत्थोवा उक्क० डिदिउदी० जीवा । अणुक० डिदिउदी० जीवा यसंखे० गुणा । मणुसपज०मसिपी- सव्वदेवे सव्त्रपय० सव्वत्थोवा उक्क० हिदिउदी० । अणुक० डिदिउ दी० जीवा संखे० गुणा । एवं जाव० । १६९४, जह० पदं दुविहो णि० - प्रघेण आदेसेण य । श्रघेण मिच्छ०चदुसंजल ० - चुंस० - चदुणोकसाय० सव्वत्थोवा जह० द्विदिउदी० जीवा । अजह० हिदिउदी० जीवा असंतगुणा । सम्म० सम्मामि० बारसक- ० इत्थवे ० पुरिस०-भयदुर्गा० सव्त्रत्थोश जह० हिदिउदी० जीवा । अजह० डिदिउदी० श्रसंखेज गुण | तिरिक्खेसु मिच्छ० - सय ० चदुणोक० सव्वत्थोवा जह० डिदिउदी० जीवा । श्रज० डिदिउदी० जीवा प्रणतगुणा । सम्म सम्मामि० सोलसक० - मय दुगु० - इत्थि वेद० - स्थिति उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीव अनन्तगुणे हैं । सम्यक्त्य, सम्यग्मिध्यास्त्र, स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं | उनसे अनुकृष्ट स्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार तिर्यञ्चों में जानना चाहिए। ६ ६६३. सब नारकी, सत्र पञ्चेन्द्रिय तिर्यन, मनुष्य अपर्याप्त और सामान्य देवोंसे लेकर अपराजित विमानतक के देवोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्वोक हैं। नसे अनुत्कृष्ट स्थिति प्रदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। मनुष्यों में सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व, वेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अनुत्कृष्ट स्थिति के उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति के उदीरक जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और सर्वार्थसिद्धि देवोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे अनुत्कृष्ट स्थिति के उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार अनाहारक मार्गशासक जानना चाहिए । § ६६४. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । श्रोसे मिध्यात्व, चार संज्वलन, नपुंसकवेद और चार नोकषायोंकी जघन्य स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अजघन्य स्थिति के उदीरक जीव अनन्तगुणे हैं। सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व, बारह कषाय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अजघन्य स्थितिके बदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। तिर्यखों में मिध्यात्व नपुंसकवेद और चार नोकषायकी जघन्य स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे जघन्य स्थितिके उदीरक जीव अनन्तगुणे हैं। सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व, सोलह कषाय, Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिासागर जी महाराज गा०६२] उत्तरपयलिहिदिउदारणाए द्विदिमप्पाबहुध पुरिसवे. सव्यस्थोवा जह० द्विदिउदी० [ अजह• छिदिउदी० जीवा असंखेगुणा । सेमगदीसु सध्यपयडीणं जह• अजह० उक्करसभंगो । एवं जाव० । ६९५. विदिअप्पाबहुअं दुविहं----जह ० उक्क० । उकस्से पयद । दुविहो णि-श्रोघेण प्रादेसेण य । श्रोघेण सम्बत्थोवा एणवणोक० उक्क० द्विदिउदी । सोलसक० उक. द्विदिउदी. विसेसा० । सम्मामि० उक्क० द्विदिउदी विसेमा० । सम्म० उक्क० द्विदिउदी. विसेसा० । मिच्छ, उक्क० डिदिउदी० विसेसा० । एवं सम्ब रहय० । परि इत्थिवे०-पुरिस० णस्थि । तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खतिए प्रोपं । पवरि पञ्जतएसु इस्थिवे० णस्थि । जोणिसीसु.पुरिस०-णवुम० णस्थि । पंबिंदियतिरिक्खअपज मणुस अपञ्ज० सव्वत्थोवा सोलसक.. सत्तणोक० उक० विदिउदी० । मिच्छ० उक्क० द्विदिउदी. विसेसा० | मणुसतिए पंचिंदियतिरिक्खतियभंगो । ६९६. देवाणमोघं । णवरि णस० णत्थि ! एवं भवण-वाण-जोदिसि०सोहम्मीसाणे ति । सणकुमारादि सहस्सारे चि एवं चेव । णवरि इत्थिवे. पत्थि । आणदादि जाव णचगेवा ति सम्वत्थोत्रा अरदि-सोग० उक० द्विदिउदी। ".AAIAPr-i __ भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद और पुरुषवेदको जघन्य स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अजघन्य स्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे है। शेष गतियों में सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति के उदीरकों का भंग उत्कृष्टके समान है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। ६६६५. स्थिति अल्पबहुत्य दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-श्रोत्र और आदेश । मोघसे नौ मोकपायोंकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा सबसे स्तोक है। उससे सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है। उससे सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा विशेष अधिक है। उससे सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है। उससे मिध्यात्वको उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है। इसीप्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उदारणा नहीं है। तिर्यञ्च और पश्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिको अोधके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि सिर्यश्च पर्याप्तकों में स्त्रीवेदकी उदीरणा नहीं है तथा योनिनी तिर्यच्छोंमें पुरुषवेद और नपुंसक बेदकी उदीरणा नहीं है। पञ्चन्द्रिय तिर्यकच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में सोलह कषायें और सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिउदोरणा सबसे स्तोक है। उससे मिथ्यात्वको उत्कृष्ट स्थितिजदीरणा विशेष अधिक है। मनुष्यत्रिकमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्वत्रिकके समान भंग है। ६६. देवों में आपके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें नपुसकवेदकी उदीरणा नहीं होती। इसीप्रकार भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी तथा सौधर्म और ऐशानकल्पतकके देवों में जानना चाहिए। सनत्कुमारकल्पसे लेकर साहसार कल्पतकके देवोंमें इसीप्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेदकी उदीरणा नहीं होती। पानत. कल्पसे लेकर नौ अवेयक तफके देवोंमें अरति और शोककी उत्कृष्ट स्थितिउदोरणा सबसे स्तोक ४० Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ร ३१४ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ सोलसक० - पंचणोक० उक डिदिउदी० विसेमा० । सम्मामि० उक्क० डिदिउदी० विसेसा० | सम्म० - मिच्छ० उक० हिदिउदी० त्रिसेसा | अणुद्दिसादि सच्चड्डा त्ति सव्वत्थो० अरदि-सोग० उक्क० डिदिउदी० । बारसक० - पंचरणोक० उक्क० हिदिउदी ० विसे० | सम्म० उक्क० डिदिउदी० विसेसा० । एवं जाव० । 10 श्री ० ६९७. जण्णए पयदं । दुविहो शि० - श्रीवेण आदेसेण य । श्रोषेण सन्वत्थोवा मिसाउदा० । जडिदिउदीर असंखे० गुणा । इस्स-रदि० जह० द्विदिउदी० असंखे० गुणा । घरदि-सोग० जह० डिदिउदी ० विसेसा० । भय-दुर्गुछा० जह० विदिउदी० विसे० । बारसक० जह० डिदिउदी० विसेसा० । सम्मामि० जह० डिदिउदी० संखे० गुणा । Q १६९८. देसेण खेरइय० सव्वत्थोवा मिच्छ० सम्म० जह० हिदिउदी० । जट्टिदिउदी० असंखे० गुणा सम्मामि० जह० डिदिउदी० असंखे० गुणा | इस्स-रदि० जह० डिदिउदी० संखे० गुणा । अरदि-सोग० जह० ड्रिदिउदी० विसेसा० । स ० *** उन ५०.. इस्रोना एवं पढमाए । Site है। उससे सोलह कपाय और पाँच नोकषायकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है । उससे सम्यग्मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिदीर विशेष अधिक है। उससे सम्यक्त्व और मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक के देवों में परति और शोककी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा सबसे स्तोक है। उससे बारह कपाय और पाँच नोकपायकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा विशेष अधिक हैं। उससे सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए । $ ६६७, जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका हैं— श्रघ और आदेश । श्रघसे i मिध्यात्व, सम्यक्त्व, चार संज्वलन और तीन बेदको जघन्य स्थितिउदीरणा सबसे स्थि स्तोक है। उससे स्थितिउदीरणा असंख्यातगुणी है। उससे हास्य और रतिको जघन्य थोड़े स्थितिउदीरणा असंख्यातगुणी है। उससे अति और शोककी अधन्य स्थितिउदीरणा विशेष और है। उससे भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है। उससे बारह कषायकी जघन्य स्थिति उदीरणा विशेष अधिक है। उससे सम्यग्मिध्यात्वकी जघन्य स्थितिउदीरणा संख्यातगुणी है । ६८. देशसे नारकियोंमें मिध्यात्व और सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिउदीरणा सबसे स्तोक है। उससे स्थितिउदीरणा असंख्यातगुणी है । उससे सम्यग्मिध्यात्वकी जघन्य स्थितिउदीरणा असंख्यातगुणी है। उससे हास्य और रतिकी जघन्य स्थितिउदीरणा संख्यातगुणी है। उससे अरति और शोककी जघन्य स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है। उससे नपुंसकवेदी जघन्य स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है। उससे सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है। इसीप्रकार पहली पृथिवी में जानना चाहिए । Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज उत्तरपय डिडिदिउदीरणाए हिंदिप्पाबहु गा० ६२ ] ३१५ O १६९९ विदियादि जाव छडि ति सव्वत्थोवा मिच्छ० जह० विदिउदी० । दिउदी असंखे० गुणा सम्मामि० जह० डिदिउदी० असंखे० गुणा सम्म० जह० द्विदिउ० बिसेसा० । बारसक० सत्तरोक० जह० डिदिउदी० संखे० गुणा । अनंताशु० चउक्क० जह० ङ्किदिउदो विसे० । ६७००. सत्तमा सव्वत्थोवा मिच्छ० जह० डिदिउदी० । जडिदि० असंखे ०गुणा । सम्मामि० जह० विदिउदी० श्रसंखे० गुणा । सम्म० जह० विदिउदी० विसेसा० | हरूस-रदि० जह० डिदिउदी० संखे० गुणा | अरदि-सोग० जह० डिदिउदी० विसे० | वंस० जह० विदिपदी० त्रिसे० मग दुगुंछा० जह० डिदिउदी० विसेसा | सोलसक० जह० विदिउदी० विसेसा० । | १७०१. तिरिक्खेसु सव्वत्थोवा मिच्छ० सम्म० जह० डिदिउदी० | जट्ठिदि ० असंखे० गुणा । पुरिसवे० जह० डि दिउदी० असंखे०गुणा । इत्थिवेद० जह० हिदिउदो० विसेमा० । हस्स-रदि० जह० द्विदिउदी० विसेसा० । श्ररदि-सोग० जह० द्विदिउदी ० विसेसा० । स० जह० द्विदिउदी ० विसेसा० । भय-दुगु छा० जह० हिदिउदी ० विसेसा० | सोलसक० जह० द्विदिउदी ० विसंसा० | सम्मामि० जह० ६. दूसरीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियोंमें मिध्यात्वकी जघन्य स्थितिउदीरणा सबसे स्तोक हैं। उससे यत्स्थितिउदीरणा असंख्यातगुणी है। उससे सम्यग्मिध्यात्व की धन्य स्थितिउदीरणा असंख्यातगुणी है। उससे सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है। उससे बारह कषाय और सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिउदीरणा संख्यातगुणी है। उससे अनन्तानुवन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है । ३७०० सातवीं पृथिवीमें मिध्यात्वकी जघन्य स्थितिउदीरणा सबसे स्तोक है। उससे यस्थितिउदीरणा असंख्यातगुणी है। उम्र से सम्यग्मिध्यात्वकी जघन्य स्थितिउदीरणा असंख्यातगुणी है। उससे सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है। उससे हास्य और रति जघन्य स्थितिउदीरणा संख्यातगुणी है। उससे अरति और शोककी जघन्य स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है। उससे नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है। उससे भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है। उससे सोलह कषायकी जघन्य स्थितिउदीरणा विशेष अधिक हैं । 1 ६७०१ तिर्यों में मिध्यात्व और सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिउदीरणा सबसे स्तोक है । उसे स्थितिउदीरणा असंख्यातगुणी है। उससे पुरुषवेदको जयन्य स्थितिउदीरणा संख्यातगुणी हैं। उससे स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है। उससे हास्य और रतिकी जघन्य स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है। उससे अरति और शोककी जघन्य स्थिर विशेष अधिक है। उससे नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है। उससे भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है। उससे सोलह कषायकी जघन्य स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है। उससे सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ वेदगो 'मार्गदर्शक :- आचार्य प्रा सुधालसाहिासाझाशकडे द्विदिउदी. संखे गुणा । एवं पंचिंदियतिरिक्खेसु । णवरि मोलमक०-भय-दुगुका० जह० द्विदिउदी. सरिसा विससाहिया । एवं पंचिदियतिरिक्खपज० । णवरि इस्थिवेदो गस्थि । ७०२. जोणिणीसु सव्यस्थोवा मिच्छ० जह० द्विदिउदी० । जट्टि उदी० असंखे०गणा । इस्थिवेद० जह० द्विदिउदी० असंखे गुणा । हस्स-रदि० जह० हिदि. उदी० विसेसा० । अरदि-सोग० जह• विदिउदी. विसेसा० । सोलसक०-भय-दुगंला० जह द्विदिउदी. विसेसा० | सम्मामि० जह० विदिउदी० संखे०गुणा । सम्मः जह० द्विदिउदी० बिसेसा० । ६७०३. पंचिंदियतिरिक्खअपज ०-मणुसअपज्ज. सव्वस्थोवा हस्स-रदि० जह० द्विदिउदी० । अरदि-सोग. जह० द्विदिउदी. विसे० । णवुस० जह• द्विदिउदी. त्रिसेसा० । सोलपक०-भय-दुर्गुला० जह० द्विदिउदी. विसेसा० । मिच्छ० जह. हिदिउदी. विसेसा० । मणुसतिए ओघं । वरि पारसक० - भय - दुगु छा० जह ० हिदिउदी० सरिसा । पजत्तइत्थि वेदो णस्थि | मणुसिणी. पुरिसवेणम० एस्थि । ७०४. देवेसु सव्वत्थोवा मिच्छ ०-सम्म० जह० द्विदिउदी० । जहिदि उदी० उदीरणा संख्यातगुणों है। इसीप्रकार पञ्चेन्द्रिय निर्यश्चोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति उदीरणा सहश होकर विशेष अधिक है। इसीप्रकार परचेन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्तकोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेदकी उदीरणा नहीं है। ६७०२. योनिनी तिर्यञ्चों में मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिउदीरणा सबसे स्तोक है । उससे यस्थितिखदीरणा असंख्यातगुणी है। उससे स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिउदीरणा असंख्यातगुणी है। उससे हास्य और रतिको जघन्य स्थितिजदीरण। विशेष अधिक है। उससे अरति और शोककी जघन्य स्थितिउतोरणा विशेष अधिक है। उससे सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है। उससे सम्यग्मिथ्यात्यकी जघन्य स्थितिउदारणा संख्यातगुणी है । उससे सम्यक्त्वको जघन्य स्थिति उदीरणा विशेष अधिक है। ६७०३. पन्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें हास्य और रनिकी जघन्य स्थितिजदीरणा सबसे स्तोक है। उनसे अरति और शोककी जघन्य स्थितिउदीरणा विशेप अधिक है। उससे नपुसकवेदको जघन्य स्थिति उदीरणा विशेष अधिक है। उससे सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जयन्य स्थितिउदीरणा विशेष अधिक हैं। उससे मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है। मनुष्यत्रिकमें आपके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिउदीरणा सदृश है। पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेदकी उदारणा नहीं है. तथा मनुध्यिमियोंमें पुरुषवेद और नपुसकवेदकी उदीरणा नहीं है। { ७०४. देषों में मिथ्यात्व और सम्यक्त्वको जघन्य स्थितिउदीरणा सबसे स्तोक है। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] पुत्तरपयडिछिदिउदीरणाप हिदिअप्पाबहु असंखे०गुणा। सम्मामि० जह० द्विदिउदी० असंखे० गुणा ! पुरिसवे० जह० विदिउदी० संखे०गुणा । इत्थि वेद० जह• हिदिउदी. विसेसा० । हस्स-रदि० जह० द्विदिउदी० बिसेसा० । अरदि-सोग जह० विदिउदी. विसेसा० । सोलसक०-भयदुगुंछा० जह• हिदिउदी० विसेसा० । ७०५. भवण-बाणवें० सम्वत्थोया मिच्छ० जह० द्विदिउदी० 1 जद्विदि०७० . असंखेगुणा 1 सम्मामि० जह• द्विदिउदी. असंखे०गुणा । सम्म० जह• हिदिउदी. विसे० । पुरिमवेद० जह० द्विदिउदी० संखेवगुणा । उपरि देवोघं । ७०६. जोदिसि सब्यस्थोवा मिच्छ० जह० टिदिउदी० । जट्टि०३० असंखे०गुणा । सम्मामि० जह० हिदिउदी. असंखे०गुणा । सम्म० ज० टिदिउदी. विसेमा० । बारसक०-अट्ठणोक० जह० द्विदिउदी० संखे.गुणा । अणंताणु०४ जह० विदिउदीधानिक । आचार्य श्री सुविहिासागर जी महाराज ७०७. मोहम्मीसाण सच्चत्योवा मिच्छ० सम्म जह० द्विदिउदी। जट्टि० उ० असंखेन्गुणा । सम्मामि० ज० द्विदिउदी असंखे० गुणा । बारसक-पत्तणोक० जह द्विदिउदी० संखे०गुणा । अणंताणु०४ जह० द्विदिउदी० संखे० गुणा । इस्थिवेद० उससे यस्थिति उदीरशा। असंख्यातगुणी है। उमसे सम्पग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति उदीमा असंख्यातगुगी है 1 उससे पुरुपदकी जघन्य स्थिति उदीरणा संख्यातगुणी है। उससे स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिजदीरणा विशेष अधिक है। उससे हास्य और रतिको जघन्य स्थिति उदीरा विशेष अधिक है। उससे अरति और शोककी जघन्य स्थिति उदीरमा विशेष अधिक है। उससे सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति उदीरणा विशेष अधिक है। 5 ०५. भवनवासी और व्यन्तर देयोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिउदीरणा सबसे स्तोक है। उससे यस्थिति उदीरणा असंख्यातगुणी है। उससे सम्यरिमध्यात्यकी जघन्य स्थितिउदारणा असंख्यातगुणी है। उससे सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है। उससे पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिउदीरणा संख्यातगुणी है। इससे श्रागे सामान्य देवोंके समान भंग है। ०६. ज्योतिषी देवों में मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिउदीरणा सबसे स्तोक है। उससे यस्थितिउदीरणा असंख्यातगुणी है। उससे सम्पग्यिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिउदीरण असंख्यातगुणी है। उससे सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति उवारण विशेष अधिक है। उससे बारह कषाय और पाठ नोकधायकी जघन्य स्थिति उदीरणा संख्यातगुणी है। उससे अनन्तानुषन्धीचतुष्ककी जघन्य स्थितिजदीरणा विशेष अधिक है। 5७०७. सौधर्म और ऐशानकल्पमें मिथ्यात्व और सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति उदीरणा सबसे स्तोक है । उससे यस्थितिउदीरणा असंख्यातगुणी है । उससे सम्यग्मिध्यात्वकी जघन्य स्थितिकदीरणा असंख्यातागणी है। उससे बारह कषाय और सात नोकषायकी जघन्य स्थितिउदीरणा संरळ्यातगुणों है। उससे अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य स्थितिउदारणा संख्यातगुणी Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ ज०डिदिउ दी ० विसेसा० । एवं सणक्कुमारादि जाव णवगेवज्जा ति । णवरि इत्थवेदो गत्थि । अणुद्दिसादि सव्वा त्ति सम्वत्थोवा सम्म० जह० द्विदिउदी० । जहि० उ० श्रसंखे० गुणा | वारसक० सत्तणोक० जह० बिदिउदी० असंखेजगुणा एवं जाव० । ७०८ भुजगारडिदिउदीरणा त्ति तत्थ इमाणि तेरस आणि ओगद्दाराणि -- समुत्तिणादि जाव अप्पा बहुए ति । समुक्कित्तणाणु० दुविहो णि० प्रोघेण आदेसेण य | ओघेण मिच्छ० सम्म० सोलसक० णवणोक० श्रत्थि भुज० श्रप्प० > अवद्वि०अवत० उदी० | सम्मामि० श्रत्थि अप्प० अवत्त ० विदिउदी ० । १७०९. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० सम्म० सोलसक० छण्णोक० अस्थि भुज० - अप्य० - अबट्टि० - अवत०उदी० । धुंस० अस्थि भुज० अप्प० अडि० ड्डिदिउदी० । सम्मामि श्रघं । एवं सत्तसु पुढवीसु । तिरिकखाणमोवं । एवं पंचिदियतिरिक्खतिए । वरि पजतएस इत्थवेदो णत्थि । जोणिणीस पुरिसवेद-ण स० णत्थि । इन्थिवे० अवत्त० खत्थि | पंचिदियतिरिक्ख प्रपत्र - पशुप० मिच्छ० एस० अस्थि भुज० अप्प ० अड्डि ०उदी० | सोलसक० ऋणोक० श्रघं । मणुस 2 - - है। उससे स्त्रीवेदी जवन्य स्थितिउदीरणा विशेष अधिक है। इसीप्रकार सनत्कुमारकल्पसे लेकर नौ मैवेयक देवेंजिका शिवावेदक उदीरणा नहीं है। अनुदिश लेकर सर्वार्थसिद्धितक के देवों में सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिउदीरणा सबसे स्तोक है। उससे यत्स्थितिउदीरणा असंख्यातगुणी है। उससे बारह कषाय और सात नोकषायकी जघन्य स्थितिउदीरणा असंख्यातगुणी है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए । १७०८. भुजगार स्थित्तिउदीरणाका प्रकरण है । उसमें समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुतक ये तेरह अनुयोगद्वार हैं । समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है -- श्रो और आदेश । श्रधसे मिथ्यात्व सम्यक्त्व, सोलह कषाय और नौ नोकपायकी भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यस्थितिके उदीरक जीव हैं । सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर और अवव्यस्थितिके उदीरक जीव हैं। ४ ७०६. आदेश से नारकियोंमें मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सोलह कषाय और हद नोकषायकी भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यस्थितिके उदीरक जीव हैं। नपुंसकवेदकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थिति के उदीरक जीव हैं । सम्यग्मिध्यात्वका भंग के समान है । इसीप्रकार सातों पृथिवियोंमें जानना चाहिए। सामान्य तिर्यों का भंग श्रधके समान हैं । इसीप्रकार पचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकर्म जाननना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पर्यास कोम उदीरणा नहीं है, योनिनियों में पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी उदीरणा नहीं है तथा स्त्रीवेदक अवक्तव्य स्थिति के उदरक नहीं हैं । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मिथ्यात्व और नपुंसकबेदकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितस्थितिके उदीरक जीव हैं | सोलह कषाय और छह नोकषायका भंग आंघ के समान है। मनुष्यत्रिक ओके Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ गा० ६२ ] उत्तरपथ डिडिदिदीरणाए भुजगारअणि भगद्दारं तिए श्रघं । वरि पञ्ज० इस्थिवे त्थि । मणुसिणीसु पुरिसवे० एस० पत्थि । $ ७१०. देवेसु मिच्छ० सम्म० सम्मामि० सोलसकः-शोक ० श्रोषं । वरि इत्थवे ० - पुरिस० अवत्त० णत्थि । एवं भवरण० वाणये ० - जोदिसि ० - लोहम्मी5 साणे ति । सक्कुमारादि सहस्सार चि एवं वेव । वरि इस्थिवे ० पत्थि | आणदादि ववजा तिमिच्छ०-सम्मामि० सोलसक० छण्णोक० अस्थि अप०अवत्त० | पुरिसवे० अस्थि अप्प०ड्डि दिउदी० | सम्म अस्थि भुज० अप्प० श्रवत्त ०डिदिउदी 10 | अणुद्दिसादि वा ति सम्म बारसकः छण्णोक० श्रत्थि अभ्य०मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज अत्तः । पुरिसवे० अस्थि अप्प • डिडिउदी० । एवं जाव ० 0 50 a Teza t ६ ७११. सामित्ताणु० दुविहो णि०- - ओघेण आदेसेण य । श्रघेण मिच्छ०श्रताणु०४ भुज० श्रप्प० द्वि० अवत्त० कस्स ? अण्णद० मिच्याइट्टिस् | सम्मत्तस्स भुज० - अप० अत्र डि० ० अवत्त० कस्स १ अण्णद० सम्माइट्टि । सम्मामि० अप० श्रवत्त० कस्स १ अण्णद० सम्मामिच्छादिट्ठि० । बारसक० णवणोक० भुज:अवट्टि ० कस्स ? अण्णद० मिच्छाइडि० । अप्प० श्रवत्त० कस्स ? श्रण्णद० मिच्छा O समान भंग है। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तका में स्त्रीवेदक उदीरणा नहीं है और मनुष्यनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी उदीरणा नहीं है । ७१०. देवों में मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और आठ नोकषायका भंग के समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें बीवेद और पुरुषवेदकी अवक्तव्यस्थिति के उदीरक जीव नहीं हैं। इसीप्रकार भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्म ऐशानकल्पके देवों में जानना चाहिए। सनत्कुमारकल्प से लेकर सहस्रार कल्पतकके देवा इसीप्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें श्रीवेदक उदीरणा नहीं है । श्रानन्तकल्प से लेकर नौ मैवेय तक देवोंमें मिध्यात्व, सम्यग्मिध्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायकी अन्तर और अवक्वव्यस्थितिके उदीरक जीव हैं । पुरुषवेदकी अल्पतरस्थितिके उदीरक जोष हैं। सम्यक्त्वकी भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्यस्थितिके उदीरक जीव हैं। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक के देवोंमें सम्यक्त्व, बारह कषाय और छह नोकषायकी अल्पतर और वक्तव्य स्थिति उदीरक जीव है । पुरुषबेरकी श्रल्पतरस्थितिके उदीरक जीव हैं। इसीप्रकार अनाहारक भार्गवक जानना चाहिए । ३७११. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । घोघसे मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी भुजगार, अल्पयर, अवस्थित और अवक्तव्य स्थिति के उदीरक जीव कौन हैं ? अल्पतर मिथ्यादृष्टि जीव उदीरक हैं। सम्यक्त्वकी भुजगार, अल्पतर, sattra और अवक्तव्यस्थितिके उदीरक जीव कौन हैं ? श्रन्यतर सम्यग्दृष्टि जीव उदोरक हैं। सम्यग्मध्यात्यकी अल्पतर और अवक्तव्य स्थितिके उदीरक जीव कौन हैं ? अन्यतर सम्यग्मध्यादृष्टि जीव उदीरक हैं। बारह कषाय और नौ नोकषायकी भुजगार और अवस्थितस्थिति उatre जीव कौन हैं ? अन्यतर मिध्यादृष्टि जीव उदीरक हैं। अल्पतर और Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० जयधवालासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो. माग इद्विस्स सम्माइटिस्स बा . आचार्य श्री सुविहिासागर जी महाराज ७१२. श्रादेसेण णेरइय० मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-सोलसक०-सत्तणोक० ओयं । णवरि णस० अवत्त० णस्थि । तिरिक्खेसु भो । णवरि तिण्णिवे. अवत० मिच्छाइद्विम्स । एवं पंचिदियतिरिक्खतिए । णवरि पजत्तएसु इस्थिवेदो यत्थि | जोणिणीसु पुरिसवे०-णस० णस्थि । इत्थिवे. अवत्तव्यं च गस्थि । पंचिंतिरि०अपज०-मणुसअपज. सधपयडी. सव्वपदा कस्स ? अण्णद० । मणुसतिए ओघं । णवरि पञ्जत्तएस इस्थिवेदो णस्थि । मणुसिणी० पुरिसवे०-गस० स्थि । इथिवे. अवत्त० कस्स ? अण्णद० सम्माइविस्स ।। ७१३. देवेसु सत्तावीसपयडी० ओघं । णचरि इस्थिवे०-पुरिसके० अवत्ता णस्थि । एवं भवण-वाण-०-जोदिसि०-सोहम्मीसाणा ति। एवं सणकुमारादि सहस्सारा ति । णबरि इथिवे. णस्थि । प्राणदादि गवगेवज्जा ति मिच्छ०अणंताणु०४ अप्प०-अवत्त० कस्स ? अण्णद० मिच्छाइद्वि० | सम्म० भुज०-अप्प.. अवस० कस्स०१ अण्णद० सम्मा० । सम्मामि० ओथं । वारसक०-छपणोक० अप्पा प्रवक्तव्यस्थितिके उदीरक जीव कौन हैं ? अन्यतर मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि जीव नदीरक हैं। ६७१२. प्रादेशसे नारकियामें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायका भंग भोधके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसकवेदकी श्रवक्तव्य स्थितिके उदीरक जीव नहीं है । तिर्यकचामें ओरके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें तीन घेदकी श्रवक्तव्यस्थितिके उदीरक जीव मिथ्या दृष्टि हैं। इसीप्रकार पञ्चेन्द्रिय तियश्चत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकों में स्त्रीवेदकी उदारणा नहीं है और योनिनियों में पुरुषवेद तथा नपुसकवेदकी उदीरणा नहीं है। सथा इनमें स्त्रीवेदके उदीरकोवा प्रवक्तव्यपद नहीं है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृनियोंके सब पदोंके उदीरक जीव कौन हैं ? अन्यतर जीव उदीरक हैं। मनुष्यत्रिको ओधके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेदकी उदीरणा नहीं है तथा मनुष्यिनियों में पुरुषवेद और नपुसकवेदकी उदीरणा नहीं है। मनुष्यनियों में खोवेदकी प्रवक्तव्यस्थितिके उदीरक जीव कौन हैं ? भन्यतर सम्यग्दृष्टि जीव उदीरक हैं। ७२३. देवोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंका भंग अोधके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदको अबक्तव्यस्थितिके उदीरक जीव नहीं हैं। इसीप्रकार भवनवासी, न्यन्तर, ज्योतिषी तथा सौधर्म और ऐशानकल्पके देवोंमें जानना चाहिए। इसीप्रकार सनत्कुमारसे लेकर सहस्रारकल्पतकके देवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेदकी उदारणा नहीं है। पानत कल्पसे लेकर नौ अवेयकतकके देवोंमें मिथ्यात्व और अनन्सानुबन्धोपसुष्ककी अल्पतर और प्रवक्तध्यस्थितिके उनीरक जीव कौन हैं ? अन्यवर मिध्यादृष्टि जीव उदारक हैं। सम्यक्त्वको भुजगार, अल्पतर और श्रवक्तव्य स्थिसिके उदीरक जीव कौन हैं अन्यतर सम्यग्दृष्टि जीव उदीरक हैं । सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना० ६२ ] उत्तरपट्टिउदीरणार भुजगाराणियोगारं ३२१ G अवत्त०] कस्स ? अण्णद० मिन्त्राइट्टि० सम्माइट्टिस्स वा । एवं पुरिसवे० | गवरि अवत्त० रात्थि । श्रणुहिसादि सब्बड्डा त्ति वीस पय० सच्चपदा कस्स ? अण्ण६० । एत्थोघपरूवणाए पुरिसवे० चदुसंज लग्भनगारो सम्माहि सुलह जो महाराज मणुसतिए चदुसंजलणभुजगारो बत्तव्वो । वरि एस संभवो एत्थ ण विवक्खियो । एवं जाव० । ६७१४. कालानुगमेण दुविहो णि० - ओषेय श्रादेसेण य । श्रोषेण मिच्ल० भुज० जह० एयस०, उक्क० चत्तारि समया । अप्प०डिदिउदी० जह० एयसमश्र, उक० एकतीसं सागरो० सादिरेयाणि । अवडि० डिदिउदी० जह० एगसमओ, उक० अंतोमुद्दत्तं । अवत >डिदिउदीरणा० जह० उक० एस० । सम्म० ज० अबडि० अवत० डिदिउदी० जह० उक० एस० । श्रध्य० डि दिउदी ० जह० अंतोमु०, उक० छात्र हिसागरो देसूणाणि । सम्मामि० अप्प ०डिदिउदी● जह० उकू० अंतोमु० । अवत्त० जह० उक० एस० । सोलसक० -भय-दुगु छा० भुज० ट्ठिदिउदी ० जह० एस० उक० एगूणवीसं समया । अप० अट्टि० ट्ठिदिउदी ० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । ग्रवत्त० जह० उक० एस० एवं हस्स -रदि० । बारह कषाय और छह नोकषायकी अल्पतर और अवक्तव्य स्थितिके उदीरक जीव कौन है ? अन्यतर मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि जीव उदीरक हैं। इसीप्रकार पुरुषवेदके विषय में समझना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें पुरुषवेदकी अवक्तव्य स्थितिउदीरणा नहीं है। अनुविशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक के देवोंमें बीस प्रकृतियोंके सब पदोंके उदीरक जीव कौन है। अन्यतर atraon हैं । यहाँपर ओघारूपणा के अनुसार पुरुषवेद और चार संज्वलनका भुजगारपद यष्टि भी उपलब्ध होता है । इसीप्रकार मनुष्यत्रिमें चार संज्वलनका भुजगारपद कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यह सम्मत्र है इसकी यहाँ विवक्षा नहीं है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणावक जानना चाहिए । ३७१४. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आवेश | प्रोसे मिध्यात्वको भुजगार स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल चार समय है । अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर है । अवस्थित स्थितिउदीरणाका जयन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त .' श्रवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । सम्यक्त्वकी भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम छ्यासठ सागर है । सम्यग्मिथ्यात्व की अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त हूँ । श्रवक्तव्यस्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी भुजगार स्थितिउदीरणाका जवन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल उन्नीस समय है । अल्पतर और अवस्थित स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तत्र्य स्थितिरका जयस्य और उत्कुष्टकाल एक समय है। इसीप्रकार ४१ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ बेदगो ७ + वरि अपद० जह० एस० उक० कम्मामा । एवमरदि-सोग० | णवरि अप० जह० एस० उक० पतिदो० असंखे० भागो । एवमिस्थिवे० : णवरि अप० जह० 1 एस० उक पणवण्णपलिदो० देणायि । एवं पुरिसवे० । णवरि अप० जह० O " एस० उक० तेवद्विसागरोवमसदं तीहि पत्तिदोषमेहि सादिरेयं । एवं स ० । वरि अप्पद० जह० एस० उक० तेत्तीस सागरो देखलाखि । Q ? हास्य और रतिकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल छह महीना है । इसीप्रकार अरति और शोककी अपेक्षा आर्थनाहिए इस विशेष स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमास है । इसीप्रकार स्त्रीवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसकी अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम पचवन पल्ध है । इसीप्रकार पुरुषवेदी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसकी अल्पतर स्थितिउदीररणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठ सागर है। इसीप्रकार नपुंसकवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसकी अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है I विशेषार्थ - जिस जीवने मिध्यात्वका कमसे कम एक समयतक भुजगारस्थितिबन्ध किया है उसके तदनुसार एक समयतक भुजगार स्थितिउदीरणा होनेपर मिध्यात्वकी भुजगार स्थितिउदीरणका जघन्य काल एक समय कहा है। तथा जिस जीवने श्रद्धाक्षय और संक्लेशक्षय आदि के क्रम से अधिक से अधिक चार समयतक मिध्यात्वकी भुजगार स्थितिका बन्ध किया है उसके चार समयतक भुजगार स्थितिउदीरणा सम्भव होनेसे मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट काल चार समय कहा है। जिस जीवने कमसे कम एक समयतक अल्पतर स्थितिका बन्च किया है उसके मिध्यात्व की एक समय तक अतर स्थितिउदीरणा सम्भव होनेसे उसका जघन्य काल एक समय कहा है। तथा नौवें मैवेयक में मिथ्याष्ट्रिके मिध्यात्की निरन्तर अल्पतर स्थितिउदीरणा होनेसे उसका उत्कृष्ट काल इकतीस सागर कहा है। जिस जीवने सत्कर्मके समान मिध्यात्वकी अवस्थित स्थितिका एक समयतक बन्ध किया है उसके एक समयतक उसकी अवस्थित स्थितिउदीरणा सम्भव होनेसे उसका जघन्य काल एक समय कहा है | तथा जिसने सत्कर्म के समान श्रन्तर्मुहूर्तं कालतक उसका अवस्थित स्थितिबन्ध किया है उसके उतने कालतक मिध्यात्वकी अवस्थित स्थितिउदीरणा सम्भव होनेसे उसका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। इसकी अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है यह स्पष्ट ही है, क्योंकि जो सम्यग्दृष्टि जीव मिध्यात्वका अनुदारक होकर मिध्यादृष्टि होनेपर प्रथम समय में इसकी उदीरणा करता है उसकी अवक्तव्य संज्ञा है । वेदकसम्यक्त्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागर है, इसलिए सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिराका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागर कहा है । जो मिध्यादृष्टि जीत्र सम्यक्त्व सत्कर्म से दो समय अधिक आदि मिध्यात्वकी स्थिति बाँधकर वेदकसम्यग्दृष्टि होता है उसके सम्यक्त्वकी भुजगार स्थितिविभक्ति एक समय तक पाई जाने से उसका जत्रन्ध और उत्कट का एक समय कहा है। जो निवार िजांच 1 Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिविदिउदीरणा: भुजगारअरिणश्रोगहारं ३२३ ७१५. आदेसेण रहय० मिच्छ०-सोलमक-ठूषणोक० भुजद्विदिउदी. जह० एयस०, उक्क० निणि समया अट्ठारम समया । अप्प० अवढि० जह एयस०, उक्क० अंतोमु० । अपत्त० जहरू उक्त० एयसः। परि अरदि-सोग अप्पद० जह० एयस०, उक्क० पलिदो० अमंखे भागो । हस्स-रदि-भुजद्विदिउदी. स्वादासागर जा पहारा सम्यक्त्व सत्कर्मसे मिथ्यात्व की एक समग्र अधिक स्थिति बाँधकर वेदकसम्यग्दृष्ट होता है उसके सम्यक्त्वकी अवस्थित स्थितिविभक्ति एक समयतक पाई जानेसे उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा जो मिथ्यादष्टि या उपशमसम्यग्दृष्टि जीव वेदकसम्यग्दष्टि होता है, उसके प्रथम समयमें एक समयता प्रवक्तव्य स्थितिउदीरमा होनेसे उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। सम्यमिथ्यास्व गुणस्थानका काल अन्तमुहूर्त है, इसलिए सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिग्दीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । तथा इस गुणस्थानके प्रथ्यागसमें सम्युपिया तलय स्थिति जुदीरणा होती है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहाँ हैं। सोलह कषाय और नी नोकषायोंकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थिति उदीरणाका जघन्य काल एक समय मिथ्यात्वकी भुजगारादि स्थिनिउदीरणाके जघन्य कालके समान घटित कर लेना चाहिए । इन सब प्रकृतियोंकी भुजगार स्थितिब्दीरणाका जो उत्कृष्ट काल उन्नीस समय बतलाया है उसका खुलासा इस प्रकार है --जिस एकेन्द्रियकी सत्रह समय अधिक एक श्रावलि प्रायु शेष है वह विवक्षित कषायके सिवाय शेष पन्द्रह कषायोंका क्रमसे अद्धाक्षय होनेसे स्थिति बढ़ाकर बन्ध करे. फिर बन्धक्रमसे एक श्रावलि काल जानेपर उभी क्रमसे पन्द्रह समयोंके भीतर विवक्षित -कषायमें उनका संक्रम करें। इसप्रकार भुजगारके ये पन्द्रह समय हुए । पुनः सोलहवें समयमें श्रद्धाक्षयसे विवक्षित कपायका स्थिति बढ़ाकर बन्ध करे, पुनः सत्रहवें समयमें संक्लेशक्षयसे विक्षित कपायके साथ सब कषायोंका स्थिति बढ़ाकर बन्ध फरे, पुन: अठारहवें समय में मरकर एक विमइसे संक्षियों में उत्पन्न होकर असंझी के योग्य भुजगार स्थितिका बन्ध करे, पुनः उन्नीसवै समयमें संज्ञी के योग्य स्थिति बढ़ाकर बन्ध करे । इस प्रकार प्रत्येक कपायके भुजगारके उन्नीस समत्र होकर इसी क्रमसे उदीरणा होनेपर प्रत्येक कषायकी भुजगार स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट काल उन्नीस समय कहा है। इसीप्रकार नौ नोकषायोंकी भुजगार स्थितिउदीरणाका काल यथासम्भव जान लेना चाहिए। इन सब प्रकृतियोंको प्रवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जयन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है यह स्पष्ट ही है। इन सब प्रकृतियोंकी अविस्थित स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त है यह भी स्पष्ट है । मात्र इनको अल्पतर स्थितिउदारणाका कान १८ का अन्तर्मुहूर्त और शेषका जुदा-जुदा है सो जानकर घटित कर लेना चाहिए। कोई काठनाई न होनेस यहां अलगसे स्पष्टीकरण नहीं किया। ७१५. श्रादेशसं नारकियों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायकी भुजगार स्थिति उदारणाका अवन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन समय तथा अठारह समय है। अल्पतर और अवस्थित स्थिति उदीरणाका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। प्रवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। इतनी विशषता है कि अरति और शोककी अल्पतर स्थितिउतारणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। हास्य और रतिकी भुजगार Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ अयघवला सहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७९ 1 , जह० एयस०, उक्क० सत्तारस समया । सम्म० भुज० अबडि० ० प्रवत्त० जह० उक० एगस० । अप्प० • विदिउदी ० ० जह० एस० उक० तेत्तीस सागरो० देसूरणाणि । सम्मामि० श्रघं । वुंम० ज० ड्डि दिउदी० जह० एस० उक० अट्ठारस समया । अप० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीस सागरो० देसूणाणि । अवडि० जह० एयस०, उक्क अंतोमु० । एवं पदमाए । वरि सगट्टिदी | अरदि-सोग० अप्प० जह० एस०, उक० अंतीमु० । O ३ ७१६. बिदियादि सत्तमा चि मिच्छ० - सोलसक० दण्णोक० भुज० जह० एयसमत्रो, उक्क० बेसमया सत्तारस समया । अप्पद० अडि० श्रवत्त ० पढमाए गंगो । सम्म० ओघं । णवरि अप्पद० जह० अंतोमु०, उक० सगहिदी देखणा । सम्मा० श्रवं । णवुंस० भुज० डिदिउदी० जह० एयस०, उक्क० सत्तारस समया । अपद० जह० एस० उकदम कट्टिदी असून श्री सोच र मतमाए स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सत्रह समय है । सम्यक्त्वकी भुजगार अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है, और उत्कुट काल कुछ कम तेतीस सागर है । सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघ के समान है। नपुंसकवेदकी भुजगार स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अठारह समय है । अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । अवस्थित स्थिति " उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसीप्रकार प्रथम पृथिवी में जानना चाहिए। इननी विशेषता है, कि अपनी स्थिति कहनी चाहिए। अरति और शोककी अल्पत्तर स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ — एकेन्द्रिय जीव मरकर नरकमें नहीं उत्पन्न होता, इसलिए यहाँ मिध्यात्वकी भुजगार स्थितिउदीरणाके तीन समय और सोलह कपाय तथा अरति शोक और भयजुगुप्साकी भुजगार स्थितिउदीरणाके अठारह समय कहे हैं। मात्र भुजगार स्थितिउदीरणा के अठारह समय हास्य और रतिके नहीं प्राप्त होते, इसलिए इनकी अपेक्षा सत्र समय कहे हैं। शेष कथन सुगम है । ६७१६. दूसरी पृथिवी से लेकर सातवीं पृथिवीतकके नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायकी भुजगार स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है धर उत्कृष्ट काल दो समय तथा सत्रह समय है । अल्पतर अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका भंग प्रथम पृथिवीके समान हैं। सम्यक्त्वका भंग श्रोघके समान है- इतनी विशेषता है कि अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त हैं और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है । सम्यग्मिध्यात्वका भंग ओघके समान है । नपुंसकवे दकी भुजगार स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सत्रह समय है । अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। अवस्थित स्थितिउदीरणाका भंग ओघ के समान है। इतनी विशेषता है कि वीं पृथिवी में 1 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपडिहिदिउदीरणाए भुजगारणियोगहार ३२५ अादि-सोग० अप्प० जह० एयम०, उक्क पलिदो. असंखे०भागो। ७१७. तिरिक्खेसु मिच्छ० अोघं । णवरि अप्प० जह• एयस०, उक्क० तिणि पलिदो० सादिरेयाणि । एवमित्थिवेद-पुरिसवेदाणं । सोलसक०-छण्णोक० प्रोघं । णवरि अरदि-सोग०-हस्स-रदि० अप्प० जह• एयस०, उक्क० अंतोमु० । सम्म० ओघ । वरि अप्प० जह० एयस०, उक० तिषिण पलिदो० देसूरणाणि । सम्मामि० ओघं । णम० अोघं । णवरि अप्प० जह• एगस०, उक्क० पलिदो० असंखेशक एवं अंजिनिअतिमिलिशाच जाहीरामस० अप्प० जह० एयस०, उक० पुच्चकोडि पुधत्तं । पजत्त० इत्यिवे० पत्थि | जोगिणीसु पुरिसवेद-णवुस० रणस्थि । इथिवे० अवत्तव्यं च पत्थि । सम्म० अप० जह० अंतोमु०, उक्क० तिषिण पलिदो० देसूणाणि । अरति और शोककी अल्पतर स्थिति उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। विशेषार्थ-द्वितीयादि नरकोंमें असंज्ञी जीव मरकर नहीं उत्पन्न होता, इसलिए इनमें मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट काल दो समय तथा सोलह कषाय और सात नोकषायोंकी भुजगार स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट पात सत्रह समय बचता है। परति और शोककी अल्पतर स्थिति उदारणाका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण सातवें नरकम ही प्राप्त होता है। शेष कथन सुगम है। ८ ७१७. तिर्यनीमें मिथ्यात्वका भंग ओधके समान है। इतनी विशेषता है कि अल्पतर स्थिति उदीररणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है । इसीप्रकार स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। सोलह कषाय और छह नोकषायका भंग ओषके समान है। इतनी विशेषता हूं कि अरति-शोक तथा हास्य-तिकी अल्पतर स्थितिउदीरणाका जधन्य काल एक समय है और उस्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है। सम्यक्त्वका भंग योधके समान है। इतनी विशेषता है कि इसकी अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है। सम्यम्मिथ्यात्वका भंग ओषके समान है। नपुंसकवेदका भंग बोधके समान है। इतनी विशेषता है कि अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसीप्रकार पञ्चेन्द्रियत्तिर्यश्चत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें नपुसकवेदकी अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेदकी उदीरणा नहीं है और योनिनियोंमें पुरुपवंद तथा नपुसकवेदकी उदीरणा नहीं है । योनिनियों में स्त्रीवेदकी प्रवक्तव्य स्थितिउदीरणा नहीं है। सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थिति उदीरणाका जयन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है। विशेषार्थ-नपुसकवेदकी अल्पतर स्थिति उदीरणाका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण सामान्य तियञ्चों ही बनता है। शेष कथन सुगम है। '-: ---- Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयधवासहिदे कायपाहुडे मिच्छ० भुज० डिदिउदी० एयस०, उक्क ० $ ७१८. पंचिदियतिरिक्ख अपज० - मणुस अपज० जह० एस० उक० चत्तारि समया । अप्प० - श्रवट्टि० जह० तोमु० | एवं पुंस० । णवरि भुज० जह० एस० उक० एगूणत्रीसं समया । एवं सोलसक० छण्णोकः । णरि अवत्त० जह० उक० एयसमत्रो | * ६७१९. मणुमतिए पंचिदियतिरिक्खतियभंगो। णवरि सम्म० अप्प० जह० अंतोमु० । पञ्जत० सम्म० अप्प० जह० एस० । मसिरणी० इस्थिवे० श्रवत्त० जद्द० उक० एस० । ३२६ [ वेदगो 55 , १७२०. देवदेवे पिढमढविगो । वरि मिच्छ० प० जह० एस० उक्क० एकतीसं सागरोमाणि | इस्स-रदि० भुज० जह० एयस०, उक्क० अट्ठारस समया । अध्य० जह० एम०, उक्क० छम्मासं । श्ररदि-सोगाएँ भुज० जह० यस०, उक्क० सत्ताइस समया। सम्म० श्रर्घ । वरि ७१८. पचेन्द्रिय तिर्यख अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मिथ्यात्वकी भुजगार उदीरणाका जघन्य काल एक समय है, और उत्कृष्ट काल चार समय है । अवतर और अवस्थित स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार नपुंसकवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसके भुजगार स्थितिउदीरणका अनम्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल उन्नीस समय है । इसीप्रकार सोलह का और वह नोकषायकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । ३७१६. मनुष्यत्रिक पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक के समान भंग है । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । मनुष्य पर्याप्तकों में सम्यक्त्व की अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है । मनुष्यिनियोंमें स्त्रीदकी अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । विशेषार्थ उत्तम भोगभूमिकी अपेक्षा मनुष्य पर्याप्तकों में सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय बन जाता है, क्योंकि जो मनुष्यनी क्षायिक सम्यक्त्वको उत्पन्न कर रही हैं उसके सम्यक्त्वकी उदीरणामें एक समय शेष रहने पर मरकर वहाँ के मनुष्य पर्याप्तकों में उत्पन्न होनेपर यह काल प्राप्त होता है तथा उपशमश्रेणिकी अपेक्षा मनुष्यिनियोंमें स्त्रीवेदकी अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय चन जाता है। शेष कथन सुगम है । १७२०. देवगति में देवों में मिध्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकपायका भंग प्रथम पृथिवीके समान है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व की अल्पत्तर स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल इकतीस सागर हैं। हास्य और रतिकी भुजगार स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल अठारह समय है । अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल छह महीना है । अरति और शोककी १. ता००मा० प्रत्योः उक्त० देवमदीप इति पाठः । -1 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२] उत्तरपयडिद्विदिउदीमाए भुजगारमणियोगदारं अप्प० जह० एयस०, उक० तेत्तीसं सागरोवमाणि । मम्मामि० ओथं । इत्थिवे०पुरिसबे० हस्यभंगो। णचरि श्रप्प० जह० एयस०, उक्क. पणवपणं पलिदोवमं देणं तेत्तीसं सागगेवमं । अवत्त० णस्थि । एवं भवण-वाणयें । णचरि सगट्टिदी । मिच्छ० अप० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । सम्म० अप्प० जह० अंतोमु० । इत्थिव श्रध्ध महर्य यसविडिबाट तस्मिाजपलिदो० देसूणाणि पलिदो० सादिरेयाणि । हस्स-रदि० अप्प० जह० एगम०, उक्क० अंतोमु० । जोदिसि० वाणवैतरभंगो। णवरि मिच्छ०-सोलसक. अहणोक. भुज. जह० एगस०, उक० बे समया सत्तारम समया । सोहम्मादि जाव सहस्सारे ति एवं चेत्र । गवरि मगहिदी । सम्म० अप्प० जह० एस०. उक्क, सगहिदी। इस्थिवेद० अप्प० जह० एयस०, उक्क. पणवण्णं पलिदोवमं देसूगळं । सणकुमारादिसु इत्यिवेदो णस्थि । महमारे हस्म-दि० अप्प० श्रोघं । भुजगार स्थिति उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सत्रह समय है। सम्यक्त्वका भंग ऑपके समान है। इतनी विशेषता है कि अल्पतर स्थिति दीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। सम्यग्मिथ्यात्त्रका भंग ग्राघके समान है। स्त्रीचेद और पुरुषवेदका भंग हास्यके समान है। इतनी विशेषता है कि अल्पतर स्थितिउदीगाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कमसे कुछ कम पचवन पल्य और पूंग लेतीस सागर है। इनकी प्रवक्तव्य स्थिति उदारणा नहीं है। इसीप्रकार भवनवासी और व्यन्तर देयोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी स्थिति कहनी चाहिए। मिथ्यास्त्र की कल्पतर स्थिति दीरणाका जयन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिलदीरणाका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है। स्त्रीवेदकी अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य और साधिक एक पल्प है। हास्य-रनिकी अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है। ज्योतिषी देवों में व्यन्तरदेवोंक समान भंग है । इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व, सोलह कषाय और आठ नोकषायकी भुजगार स्थिति उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय और सत्रह समय है। सौधर्म आदिसे लेकर सहस्रार कल्पनकके देवोंमें इसीप्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी स्थिति कहनी चाहिए। सम्यक्त्वकी अल्पसर स्थिति उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। स्त्रीवेदकी अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम पचवन पल्य है। सनत्कुमादिमें स्त्रीवेदकी उदारणा नहीं है। सहस्रारमें हास्य और रतिकी अल्पतर स्थितिउदीरणाका भंग प्रषिके समान है। विशेषार्थ जो जीव मरकर देवोंमें उत्पन्न होता है उसके मरणके पूर्व अरति मौर शोकका बन्ध नहीं होता, इसलिए देवोंमें अरति और शोककी भुजगार स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट काल सत्रह समय कहा है। इसीप्रकार नारकियोंमें मरफर जो जीव उत्पन्न होता है उसके मरणके पूर्व हास्य और रतिका बन्ध नहीं होता, इसलिए नारकियों में हास्य और रतिकी भुजगार स्थिति उदीरणाका उत्कृष्ट काल सत्रह समय कह पाये हैं। शेष कथन सुगम है। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ बेदगो ७ १७२१. श्रदादि जाव णवमेवजा त्ति मिच्छ० अप्पं० जह० अंतोमुहुतं, उक० सगहिदी । श्रवत्त० जह० उक्क० एस० सम्म० भुज०- अवत० जह० उक० एस० । अप० जह० एस० उ० समडिदी। सम्मापि० ओघं । सोलसक०कृष्णोक० ० अप्प० जह० एस० उक्क० अंतोमु० । अवत्त० जह० उक० एस० । 1 " पुरिसवे० अप्प० जहण्णुक० जणुकरसङ्किदी | ३२८ 2 ३ ७२२. अणुद्दिसादि सबडा सि सम्म० अप्प० जह० एगस०, उक्क० सगट्टिदी | अवत० जह० एयस० उक० एगसमग्र । पुरिसवे० अ० जद्दण्णुक० जणुकस्सदि । चारसक० दण्णोक० अप्प० जह० एस० उक० अंतो० । अवत्त० जह० उक्क० एस० । एवं जाव० । , ६७२३. अंतरा० दुविहो णि० - ओघेण प्रदेसेण य । ओघेण मिच्छ ज० अट्टि० जह० एयस०, उक्क० तेवद्विसागरोपमसदं तीहिं पलिदो मेहिं सादिरेयं । अप्प० जह० एयस०, उक० बेला हिसागरो० देसूणाणि । अवत्त० जह० अंतोमु०, १७२१. नवकल्प से लेकर नौ मैवेयक तकके देवोंमें मिध्यात्व की अल्पतर स्थितिउदीरणा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है । अवक्तव्य स्थिकिंकीएका विशिष्टाकाली एका समय है। सम्यक्त्वकी सुजगार और अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अल्पतर स्थितिउदीराका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है । सम्यग्मध्यात्वका भंग के समान है । सोलह कषाय और छह नोकषायकी भल्पतर स्थितिउदीरणा का जन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । पुरुषवेदका अल्पतर स्थितिराका जघन्य र उत्कृष्ट काल जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । ६७२२. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय दें और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है । अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल एक समय है । पुरुषवेदी अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। बारह कषाय और छह नोकषायकी अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। १ ७२३. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओ और आदेश | ओघसे मिध्यात्वकी भुजगार और अवस्थित स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्वर तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठ सागर है । अल्पचर स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागरप्रमाण है । अवक्तव्य (भु) इति पाठः । १. प्रती मिच्छ० जह० __.. Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिहिदिउनीरणा भुजगारप्रणिोगहारं ३२६ उक० उबड्डपोन्गलपरियढें । एवमणंताणु०४ । वरि अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० वेलायडिसागरो० देसूणाणि । एवमट्टकसाय० । णवरि अप्प०-अवत्त० जह• एयस० अंतोमु०, उक्क० पुग्यकोडी देखुणा । एवं चदुसंजलण-भय-दुगुंछा० । णवरि अप्प०अवत० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं हस्स-रदि० । णवरि अप्प-अवत्त० जह० एगम० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि । एवमरदि-सोग । गरि अप्प० जह• एगस०, उक्क. छम्मासं । सम्म० भुज०-अप्प०-अवढि०-अवत्त० सम्पामिक अप्प० अवत्त० जह० अंतोमुहत्तं, उक्क० उपयोग्गलपरियट्टं ! इस्थिवे. पुरिसवे. भुज-सम्पदवष्टुि० असहर्ष श्रीपसमासयमा पाहाब अंतोमु०, उक्क० सम्वेसिमरणतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । गमवे. भुज-अप्प०-अबढि० जह० एगम, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । अबत्त० इथिवेदभंगो । स्थिनिन दोरण का जवन्य अन्तर अन्न मुहत है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल. परिवर्तनप्रमाण है। इसीप्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा जान लेना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागरप्रमाण है। इसीप्रकार पाठ कषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अल्पतर और अवक्तव्य स्थिति उदीरणाका जघन्य अन्तर क्रमसे एक समय और अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। इसीप्रकार चार संज्वलन, भय और जुगुप्साकी अपेक्षा जान लेना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अल्पतर और प्रवक्तव्य स्थितिउदीरण।का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । इसीप्रकार हास्य और रतिकी अपेक्षा जान लेना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अल्पतर और प्रवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर क्रमसे एक समय और अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है 1 इसीप्रकार अरति और शोककी अपेक्षा जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि अल्पतर स्पिति उदारणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। सम्यक्त्वकी भुजगार, 'अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका तथा सम्यग्मिध्यात्वकी अल्पतर और प्रवक्तव्य स्थितिउदारणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्थ पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगार, पाल्पतर और अवस्थिन स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है. श्रवक्तव्य स्थिति उदारणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूते है और सबका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त फाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। नपुंसकवेदकी भुजगार, अस्पतर और अवस्थित स्थिति उदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्वप्रमाण है । अवक्तव्य स्थिति उदीरणाका भंग आंघ के समान है। विशेषार्थ-जिन्होंने मनुष्यों और तियश्चोंमें भिध्यात्वको भुजगार और अवस्थित स्थितिका उदीरणा प्रारम्भ किया। पुनः वहींपर अन्तर्मुहूर्त कालतक अल्पतर स्थितिउदारणास उन्हें अन्तरित किया। पुनः वे तीन पल्यकी आयुवाले जीवोंमें उत्पन्न होकर और एफसी वेसठ सागर फालतक परिभ्रमण करके मनुष्योंमें उत्पन्न हुए और वहाँपर उन्होंने अन्तर्मुहूर्त 1. ता०प्रती प्रवत्त-अप इति पारः। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज ३३० जयधवलासहिदे कसायपाहुहे [वेदगो १७२५. आदेसेण णेरड्य० मिच्छ०-अणताणु०४-हस्स-रदि. भुज-अप्प०भवडि• जह० एयस०, अवत्त० जह. अंतोमु०, उक्क० अन्वेसि तेत्तीसं सागरो. . काल के बाद संक्लेशकी पूर्ति करके भुजगार और अवस्थित स्थितिका बन्ध कर उनकी उदीरणा की । इसप्रकार मिथ्यात्वकी इन दोनों स्थितिउदीरणाओंका तीन पल्य अधिक एकसौ बेसठ सागरप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर काल प्राप्त होनेसे वह उक्तप्रमाण कहा है । जो जीव बीच में सम्यग्मिथ्यात्व. को प्राप्त कर कुछ कम दो छयासठ सागर कालतक सम्यक्त्वके साथ रहकर मिथ्यात्वमें । भाकर मिथ्यात्व की अल्पतर स्थितिउदीरणा करता है उसके मिथ्यात्वकी अस्पतर स्थिति उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम दो छयासठ सागरप्रमाण प्राप्त होनेसे वह उक्तप्रमाण कहा है। किसी जीवके सम्यक्त्वकी कमसे कम अन्तर्मुहर्त के अन्तरसे और अधिकसे अधिक कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन कालके अन्तरसे उदीररणा होती है, इसलिए इसकी अवक्तव्य स्थितिधदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन. प्रमाण कहा है। कोई जीव कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल के अन्तरसे और अधिकसे अधिक कुछ कम दो छयासठ सागर कालके अन्तरसे पुन: मिथ्या दृष्टि हो सकता है, इसलिए अनन्तानुषन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागर कहा है। क्रमसे देशसंयम और सकल संयमका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकाटि है, इसलिए पाठ कषायोंकी श्रवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त और अल्पतर व अवक्तव्य स्थितिअदीरणाका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि बन जानेसे तत्प्रमाण कहा है। उपशमश्रेणिमें । चार संज्वलन, भय, जुगुप्साकी उदोरणा अन्तर्मुहूर्त कालके अन्तरसे होती है, इसलिए इनकी + मल्पतर और प्रवक्तव्य स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है। सातवें नरकमें तथा उसमें उत्पन्न होनेके पूर्व और वहाँसे निकलने के बाद अन्तर्मुहूर्त कालतक हास्य और रतिको उदारणा न हो यह सम्भव है, इसलिए हास्य और रतिकी अल्पतर और अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट अन्तर काल साधिक तेतीस सागर कहा है। सहस्रार कल्रमें परति और शोककी छह माहतक उदीरणा न हो यह सम्भव है, इसलिए इनकी अल्पतर स्थिति उदीरणाका उत्कृष्ट अन्दर फाल छह महीना कहा है। यह जीव अनन्त काल अर्थात असंख्यात पुदलपरिवर्तन फालतक नपुसकयेदी बना रहे यह सम्भव है, इसलिए स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगारादि चारों स्थितिउदीरणाओंका उत्कष्ट अन्तरकाल उक्त कालप्रमाण कहा है। यह जीव सौ सागर पृथक्त्व कालतक पुनः नपुसकवेदी न हो यह सम्भव है, इसलिए नपुसकवेदकी भुजगार, अल्पदर और अवस्थित स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट अन्तर उक्त कालप्रमाण कहा है । कोई जीव नपुंसकवेवकी प्रवक्तव्य स्थितिउदीरणा करके अनन्त काल अर्थात् असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन कालतक नपुंसकवेदी रहा, पुनः मरणपूर्वक अन्य वेदी होकर अन्तर्मुहूर्त काल पाद मरणपूर्वक पुनः नपुंसकवेदी हो गया उसके स्त्रीवेदके समान नपुसकवेदकी प्रवक्तव्य स्थिविदीरणाका उत्कृष्ट अन्तर काल बन जानेसे वह उक्तप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। ६७२४. भादेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, अनन्तानुसन्धीचतुष्क, हास्य और रतिकी मुजगार, मल्पतर और अवस्थित स्थितिउदीरणाका जघन्य भन्सर एक समय है, प्रवक्तव्य स्थितिउछोरणाका जघन्य अन्तर मन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतोस सागर है। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] " उत्तरपडिविदिउतीरणाए भुजगारअणियोगद्दारं ३३१ " मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज देमूणाणि । एवमरदि-मोग० । चरि अप्प० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । एवं बारसक०-भय-दुगुंछा० । वरि अवत्त० जह० उक० अंतोमु० । एवं णव॒सः । गरि प्रवत्त० णस्थि ! सम्म० भुज०-अप-अबढि०-अवत्त० सम्मामि० अप्प०अवत्त० जह. अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देमूणाणि । एवं सत्तमाए । एवं पढमादि जाव छडि सि । णवरि सगहिदी देसूणा । णवरि हस्स-रदि. अप्प.. अवत्त • अरदि-सोग० अवत्त० जह• एगस० अंतोमु०, उक. अंतोमु० । ७२५. तिरिक्खेसु मिच्छ० भुज०-अवढि जह० एपस०, उक्क० पलिदो. असंखे०भागो। अप्प. जह० एगस०, उक्क तिरिण पलिदोवमाणि देसूपाणि । अवत्त. ओघं । एवमणताणु०४ । णवरि श्रवत्त० जह• अंतोमु०, उक्क० तिरिण पलिदो० देसूणाणि । एवमपञ्चक्खाण चउक्क० । णवरि अप्पद-अवत्त० जह० एगस० अंतोमु०, उक्क० पुषकोडी देसूणा । एवमट्टकसा०-छपणोक० । वरि अप्प०-अवत्ता इसीप्रकार अरति और शोककी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त है। इसीप्रकार बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी प्रवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार नपुसकवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसकी अबक्तव्य स्थिति उदीरणा नहीं है। सम्यक्त्वकी भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य स्थिति उदीरणाका तथा सम्यग्मिध्यात्वकी अल्पसर और प्रवक्तव्य स्थिति उदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। इसीप्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए। इसीप्रकार प्रथम पृथित्रीसे लेकर छठी पृथिवीतक जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनीअपनी स्थिति कहनी चाहिए। इतनी और विशेषता है कि हास्य और रतिकी अल्पतर और श्रवक्तव्य स्थितिउदीरणाका तथा अरति और शोककी अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। ६७२५. तिर्यञ्चोंमें मिथ्यात्वकी भुजगार और अवस्थित स्थिति उदारणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पत्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। अवक्तव्यका भंग अोधके समान है। इसीप्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। इसीप्रकार अप्रत्याख्यानावरण चतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी अल्पतर और प्रवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। इसीप्रकार आठ कपाय और छह नोकपायकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी अल्पतर और प्रवक्तव्य स्थिति उदीरयाका जघन्य अन्तर क्रमसे एक समय और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसोप्रकार नपुसकवेदकी अपेक्षा आनना चाहिए । इतनी Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३५ जयधवलासहिदे कसायपाहुढे [ वेदगो मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज जह. एगस० अंतोमु०, उक्क० अंतोमु० । एवं णचुस० । णवरि अप्प० जह० एयस०, उक. पुनकोडिपुधत्तं । अवत्त० ओघ । सम्म-सम्मामि०-इस्थिवे.-पुरिसवेद० सोधं । ७२६. पंचिदियतिरिक्वतिय० मिच्छ० भुज०-अववि० जह• एयसमो, उक्क० पुच्चकोडिपुधत्तं | अप्प० तिरिक्खोघं । अबत्त० जह• अंतीमु०, उक्क० सगद्विदी। एवमणंताणु०४ । णवरि अवत्त० तिरिक्खोघं । एवं बारसक-दण्णोक० । वरि अप्प०-अवत्ततिरिक्खोघं । सम्म० मज-अप्प०-अवत्त० सम्मामि० अ०-प्रवत्त. जह. अंतोमु०, उक्क. सगद्विदी देसूणा । सम्म० अवटि. जह• अंतोसु०, उक्क पुत्रकोडिपुधत्तं । तिरिणवेद० भुज. अप्प०-अवढि जह० एयस०, अवत्त० अंतोमु०, उक्क० पुग्यकोडिपुधत्तं । णवरि पजत्तासु इत्थिवेदो णस्थि । जोणिणोसु पुरिस.. णवुस० त्थि । इस्थिवे० अवत्त० णस्थि । अप्प० जह० एयस०, उक्क० अंतीमु० । ६७२७. पंचिंदियतिरिक्खअपज०-मणुसअपज्ज० मिच्छ०-णबुस० भुज.. अप्प-अबाहि० जह• एयस०, उक० अंतोमु० । एवं सोलसक०-छराणोक० । णवरि विशेषता है कि इसकी अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है । अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका भंग श्रोचके समान है । सम्यक्त्व, सम्यस्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदका भंग ओधके समान है। ७२६. पञ्छेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें मिथ्यात्वकी मुजगार और अवस्थित स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोदिपृथक्त्व प्रमाण हैं। अल्पतर स्थितिउदीरणाका भंग सामान्य तिर्यों के समान है। श्रवक्तव्य स्थितिउदीरगा।का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थितिप्रमाण है। इसीप्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनकी श्रवक्तव्य स्थिति उदारणाका भंग सामान्य तिर्यश्चोंके समान जानना चाहिए। इसीप्रकार बारह कपाय और छह नोकषायी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी अल्पतर और अवक्तव्य स्थितिउतीरणाका भंग सामान्य तियश्चोंके समान है। सम्यत्वी भुजगार, अल्पतर और श्रवक्तव्य स्थितिउदीरणाका तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर और अवक्तव्य स्थिति दीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्वकी अवस्थित स्थितिउदारणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। तीन वेदोंकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थिति उदारणाका जयन्य अन्तर एक समय है और प्रवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकोमेस्त्रीवेदको उदीरणा नहीं है और योनिनियों में पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी उदीरणा नहीं है। तथा इनमें स्त्रीवेदकी प्रवक्तव्य स्थितिउदीरणा नहीं है। तथा अल्पतर स्थिति उदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। ७२७. पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व और नपुसकवेदकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार सोलह कषाय और छह नोकषायकी अपेक्षा जानना Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ↓ उत्तरपय डिडिदिउदीरणाए भुजगारअणि श्रोगहारं गा० ६२ ] श्रवत० जह० उक्क० अंतोनु० । सिंगो ० १७२८. मणुसतिए मिच्छ० अता ०४ - चदुसंजलण-दरपोक० भुज०अवद्वि० जह० एयसमओ, उक्क० पुन्नकोडी देसूणा । अप० श्रवत्त० पंचिंदियविशेन जह० एयस०, अवत्त० अंतोमु०, उक० सव्वेसिं पुव्त्रकोडी देखणा । सम्म० सम्मामि० - तिष्णि वेद० पंचिदियतिरिक्खभंगो | वरि पजत्तर इस्थिवेदो णत्थि । मणुसिणी० पुरिस० स० णत्थि । इत्थवे० भुज० कि० जह० एस० उक्क० पुन्त्रकोडी देखणा | अप्प० जह० एयस०, उक० अंतोमु० । अवत० जह० अंतोमु, उक्क० पुण्वकोडिपुचतं । १७२९. देवेसु मिच्छ० - अनंतापु०४ भुज० - श्रवट्टि० जह० एयस, उक्क० हारस सागरो० सादिरेयाणि । श्रप्प० श्रवत्त० जह० एगसमओ अंतोमु०, उक्क० एकतीसं सागरो देख्नुपाणि । एवं बारसक०-भय-दुर्मुहा० । खवरि अप०-३ - अवत्त० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । एवमरदि- सोग० । णवरि अप्प० अवत्त ० एस० [अंतीम], उक० लम्मासं । एवं हस्य-रदि० | णवरि अध्य० जह० चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी वक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। जह० ३३३ १७२८. मनुष्यत्रिक में मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धीचतुष्क और छह नोकषायकी भुजगार और अवस्थित स्थितिउदीरणास जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। अल्पतर और अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका भंग पञ्चेन्द्रिय तिर्यों के मान है। आठ कषायकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिउदीरणाका जवन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त हैं और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व और तीन वेदोंका मंग पश्चेन्द्रिय तिर्यों के समान है। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकों में श्रीवेदकी उदीरणा नहीं है और मनुष्यनियों में पुरुषवेद तथा नपुंसकवेदकी उदीरणा नहीं है। तथा इनमें स्त्रीवेदको भुजगार और अवस्थित स्थितिउदीरणाका जयन्त्र अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिप्रमाण हैं । ६७२६. देवों में मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी भुजगार और अवस्थित स्थितिउदीरणाका जनन्य अन्तर एक समय है और उत्कृट अन्तर साधिक अठारह सागर है। अल्पतर और अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जन्य अन्तर एक समय और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। इसीप्रकार बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी अल्पतर और अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार अति और शोककी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी अल्पतर और अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है । इसीप्रकार Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो. एयस०, उफ. अंतोमु | एवं पुरिस० । णपरि अवत्त० णस्थि । सम्म० भुज०-. अप्प०-अवत० सम्मामि० अप्प०-अवत्त. जह० अंतोसु०, उक्क० एकतीसं सागरो० देसूणाणि । सम्म० अवढि जह. अंतोमु०, उक्क अवारस सागरो सादिरेयाणि । इस्थिवे. भूजल-अवढि० जह० एयस, उक्क पणवण्णं पलिदो० देसूणाणि । अप्पा जह० एगस०, उक्क • अंतोमु० । एवं भवणादि जाब सहस्सार ति । णवरि सगहिदीओ भारिणदबाओ । हस्म-रदि अरदि-सोग० अप्प०-अवत्त० जह० एगस० अंतीमु०, उक० अंतोमु० । सहस्सारे हस्स-रदि-अरदि-सोग० अप्प०-प्रवत्त० देवोघं । वरि भवण.. वारणवे-जोदिसि०-सोहम्मीसाण० इत्थिवेद० भुज०-अवडि• जह० एगस०, उक्क. पाहिरिया पलिोध शुशिहालिदोषासादियाणि-पलि. सादिरे. पणवएणं पलिदो० देसूणाणि । अप्प० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । उवरि इत्थिवेदो गस्थि । ६७३०. आणदादि पवगेवजा ति मिच्छ०-सम्मामि०-अणंताणु०४ अप्प०अवत्त० सम्म० भुज०-अप्प० अवत्त० जह. अंतोमु०, उक्क. सगढिदी देमणा । बारसक-छपणोक० अप्प-अवत्त० जह० उक० अंतोमु० । पुरिसवे. अप्प० स्थि हास्य और रतिकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसकी अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमहते है। इसीप्रकार पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसकी प्रवक्तव्य स्थितिउदीरणा नहीं है। सम्यक्त्वकी भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य स्थितिउदीररणाका तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर और प्रवक्तव्य स्थिति नदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्महूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । सम्यक्त्वकी अवस्थित स्थिति नदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्महूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है। स्त्रीवेदकी भुजगार और अवस्थित स्थितिजदीरणाका जवन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचवन पल्य है। अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार भवनवासियोंसे लेकर सहस्त्रार कल्पतक जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए। हास्य-ति और अरनि-शोककी अल्पतर और प्रवक्तव्य स्थितिउदीरणाफा जघन्य अन्तर एक समय और अन्तर्मुहर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहर्त है। सहस्रार कल्पमें हास्य रति तथा अति-शोककी अल्पतर और अवक्तव्य स्थिति उदीरणाका भंग सामान्य देवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी तथा सौधर्म और ऐशानकल्पमें स्त्रीवेदकी भुजगार और अवस्थित स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम सीन पल्य, साधिक एक पल्य, साधिक एक पल्य और कुछ कम पचवन फ्ल्य है। अल्पतर स्थिति रदीरणाका जयन्य अन्तर पक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुबूत है। आगे स्त्रीवेदकी उदीरणा नहीं है। ६७३०. पानतकल्पसे लेकर नौ ग्रेवेयकतकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अल्पतर और अवक्तव्य स्थिति उदारणाका तथा सम्यक्त्वकी भुजगार, अल्पतर और प्रवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। बारह कषाय और छह नोकपायको अल्पतर और Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२] उत्तरपयडिविविवदीरणाए भुजगारप्रणियोगदार २३५ अंतरं। अणुद्दिसादि सबट्ठा ति सम्म० अप्प०-अवत्त० पुरिसवे० अप्प० णस्थि अंतरं । वारसक० -छपणोक० अप्पद०-अवत्त० जह० उक० अंतोमु० । एवं जाव | ७३१. णाणाजीवेहि भंगविचयाणु० दुविहो णि-मोघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-णस० भुज-अप्प० अबढि० णिय० अस्थि, सिया एदे य अचत्तवगो य, सिया पदशक अवतचा असा अपाणिः अस्थि । सेसपदाणि भयणिजाणि । सम्मामि० अप्पद-अवत्त० भयणिञ्जा। सोलसक०छण्णोक० सयपदा णिय० अस्थि । इथिवे०-पुरिसवे अप्प० अवद्वि० णिय० अस्थि । सेसपदा० भयणिजा० । एवं निरिक्खा० । ६. ७३२. श्रादेसेण णेरड्य० मिच्छ०-सोलसक०-छण्णोक० अप्प अवट्टि णिय. अस्थि । सेसपदा० भयणिजाणि । मुम्म-सम्मामि० अोघं । णस० अप्पाअवट्ठि• पिय. अस्थि, सिया एदे य भुजगारहिदिउदीरगो य, सिया एदे च सुज०-विदिउदीरगा च । एवं सत्रणेरइय० । ७३३. पंचिंदियतिरिक्वतिए मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक० अप्प०-अवट्टि णिय० अस्थि । सेसपदा भयणिज्जा । सम्म० सम्मामि० श्रोघं । णयरि पञ्ज० इस्थिवेदो अवक्तव्य स्थिति उदीरमाका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। पुरुषवेदकी अल्पतर स्थिति उदीरणाका अन्तरकाल नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धिसकके देवों में सम्यक्त्वकी अल्पतर और प्रवक्तव्य स्थिति उदीरणाका तथा पुरुषवेदकी अल्पतर स्थितिउदीरणाका अन्तरकाल नहीं है। बारह कपाय और छह नोकषायकी अल्पतर और प्रवक्तव्य स्थिति उदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। ७३१. नाना जीवों का अवलम्बन लेकर भंगविचयानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है--प्रोघ और आदेश। प्रोबसे मिथ्यात्व और नपुसकवेदकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिके उदीरक जीव नियमसे हैं, कदाचित् ये जीव हैं और प्रवक्तव्य स्थितिका उदीरक एक जीव है, कदाचित् ये जीव हैं और अवक्तव्य स्थितिके उदीरक नाना जीव हैं। सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थिति के उदीरक जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं । सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतर और प्रवक्तव्य पद भजनीय हैं। सोलह कषाय और छह नोकषायके सब पदक उदीरक जीव नियमसे हैं। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अल्पतर और अवस्थित स्थितिके उदीरक जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं । इसीप्रकार तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। ७३२. आदेशसे मारकियों में मिथ्यात्व, सोलह कपाय और छह नोकपायकी अल्पतर और भय स्थित स्थितिके लदीरक जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। नपुसकवेदकी अल्पतर और अवस्थित स्थितिके उद्दीरक जीव नियमसे हैं, कदाचित् ये जीव हैं और भुजगार स्थितिका उदीरक एक जीव है, कदाचित् ये जीव हैं और भुजगार स्थितिके उदीरक नाना जीव है। इसीप्रकार सष नारकियों में जानना चाहिए। ६७३३. पंचेन्द्रिय तिर्यचत्रिकर्मे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायकी अल्पतर चौर भवस्थित स्थितिके उदीरक जीव नियमसे हैं । शेष पद भजनीय है। सम्यक्त्व और सम्यग्मि Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ जयधवलाहिने कसायपाहुडे स० पत्थि । इत्थवे० अवत्त० स्थि० | पंचिदिय यि । जोली पुरिसवे० तिरिक्ख अपज० मिच्द० ए० अध्य० अट्टि० निय० भुज० डिदिउदीरगो चुसिया पढ्डे च भूज हिदिदी अप्प० - अवट्टि णिय० अस्थि । सेसंपदाणि भणिजाणि । मणुसतिए पंचि ०तिरिक्खतियभंगो। एवरि मणुसिणी ० इस्थिवे० प्रवत्त अस्थि । मणुस अपज० सध्यपयडीणं सच्चपदा० भवणिजाणि । श्रत्थि, सिया एदे च सोलसक० अष्णोक० :- श्री 0 [ बेदगो 0 १७३४. देवेसु मिच्छ०- सोलसक० कृष्णोक० सम्म० सम्मामि० पंचिदियतिरिक्खभंगो। इत्थिदे० - पुरिसवे० अप्प० श्रवट्टि० निय० अस्थि, सिया एदे च भुजगारी च, सिया एदे च भुजगारा च । एवं भवण० त्राण ० - जोदिसि ०सोहम्मीसाण० । एवं सणकुमारादि जाव सहस्सार ति । णवर इन्थिवेदो णत्थि | १७३५. ऋणदादि एवगेवजा चि मिच्छ०- सोलसक० छण्णोक० अप्प० निय० अस्थि, सिया एदे च अवत्तन्नगो च, सिया एदे च श्रवं । वरि अव० णत्थि । सम्मामि० ओषं । पुरिसवे० I तव्वगा च । सम्म० अप्प० निय० श्रत्थि । ध्यात्वका भंग ओघ के समान है। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकों में स्त्रीवेदको उदीरणा नहीं है तथा यानिनियों में पुरुषवेद और नपुंसकवेदको उदीरणा नहीं है। इनमें स्त्रीवेदकी अवक्तव्य स्थितिउदीरणा नहीं है । पञ्चेन्द्रिय नियंच अपर्याप्तकों में मिध्यास्त्र और नपुंसकवेदक अल्पतर और अवस्थित स्थितिके उदीरक जीव नियमसे हैं, कदाचित् ये जीव हैं और भुजगार स्थितिका उदीरक एक जीव है, कदाचित् ये जीव हैं और भुजगार स्थितिके उदीरक नाना जीव हैं । सोलह कषाय और छह नाकषायकी अलवर और अवस्थित स्थितिके उदीरक जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं। मनुष्यत्रिक में पंचेन्द्रिय तिर्यंचत्रिक के समान भंग हैं । इतनी विशेषता है कि मनुष्यनियोंमें स्त्रीवेद्रकी प्रवकव्य स्थितिउदीरणा है। मनुष्य अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियों के सब पद भजनीय हैं। ७३४. देवों में मिथ्यात्व, सोलह कपाय, छह नोकषाय, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग पंचेन्द्रिय तिर्थचोके समान है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अल्पतर और अवस्थित स्थिति के उदीरक जीव नियमसे हैं, कदाचित् ये जीव हैं और भुजगार स्थितिका उदीरक एक जीव है, कदाचित् ये जीव हैं और भुजगार स्थितिके उदीरक नाना जीव हैं । इसीप्रकार भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी तथा सौधर्म- ऐशानकल्पके देवामें जानना चाहिए। इसीप्रकार सनत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्पतक देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेदकी स्थितिउदीरणा नहीं है । ७ ३ ७३५, आनतकल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयकतकके देवों में मिध्यात्य, सोलह कषाय और छह नोकषाय की अल्पतर स्थितिके उदीरक जीव नियमसे हैं, कदाचित् ये जीव हैं और अवक्तव्य स्थितिका उदीरक एक जीव है, कदाचित् ये जीव हैं और अवक्तव्य स्थितिके उदीरक नाना जीव हैं। सम्यक्त्वका भंग ओके समान है । इतनी विशेषता है कि अवस्थित पद नहीं है । सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघ के समान है । पुरुषवेदकी अल्पतर स्थितिके उदीरक जीव नियमसे Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 मा० ६२ ] उत्तरपयडिडिदिउदीरणाए भुजगारअगिद्दारं ३३७ अणुद्दिसादि सच्चा त्ति बामणोगमा हा भंगो | एवं जाव० । ३ ७३६. भागाभागानु० दुविहो णि० - श्रोषेण आदेसेण य । श्रोषेण मिच्छ० - बुंस० भुज० सन्नजी० के० भागो ? असंखे ० भागो । अप० संखेज्जा भागा | अवष्टि० संखे० भागो । श्रवत्त० श्रणंतभागो । सम्मामि० अप्प० द्विदिउदी० असंखेजा भागा। सेमपदा असंखे० भागो । सोलसक० - अशोक० चप्प० संखेजा भागा | अवडि० संखे० भागो । सेसपदा० श्रसंखे भागो । एवं तिरिक्खा | ६७३७. आदेसेख रइय० मिच्छ०-सोलसक० सत्तयोकंद अप्प०डिदिउद्दी संखेजा भागा । श्रवदि० संखे० भागो सेमपदा० श्रसंखे० भागो । सम्म० - सम्मामि० श्रोधं । एवं सव्वरइय० । 5 C i ६७३८. पंचि०तिरिक्खतिय० मिच्छ०- सोलसक० - वोकै० अप्प >डिदिउदी० संखेजा भागा । श्रवट्टि ० संखे - भागो । सेसप० सं० भागो । सम्म० - सम्मामि० श्रोघं । णवरि पञ्ज० इस्थि वेदो पत्थि । जोणिणीस पुरिसवे० - चुंस० णत्थि । इत्थिये० J 1 हैं। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक के देवोंमें बारह कषाय और श्रनवकल्प के समान है | सम्यक्त्वका भंग हास्य के समान है । मार्गातक जानना चाहिए । O मात नोकषायका भंग इसीप्रकार अनाहारक ६ ७३६. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और श्रादेश । श्रघसे मिध्यात्व और नपुंसकवेदकी भुजगार स्थितिके उदीरक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । अल्पतर स्थितिके उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । अवस्थित स्थितिके उदीरक जीव संख्यातवें भागमा हैं । अवक्तव्य स्थितिके उदीरक जीव अनन्तयें भागना हैं। सम्यमिध्यात्वकी अल्पतर स्थितिके उदीरक जॉब असंख्यात भागप्रमाण हैं। शेष पदोंके उदीरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । सोलह कषाय और आठ लोकपाकी अल्पतर स्थितिके उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । अवस्थित स्थितिके उदीरक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। शेष पदोंके उदीरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । इसीप्रकार तिर्यों में जानना चाहिए । ६७३७. आदेश से नारकियों में मिध्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकपायकी अल्पतर स्थिति के उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । अवस्थित स्थितिके उदीरक जीव संख्यात भागप्रमाण हैं। शेष पदोंके उदीरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यमिध्यात्वका भंग ओधके समान है । इसीप्रकार सब नारकियों में जानना चाहिए । ३८. पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चनिकमें मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौं सोकषायकी अल्पतर स्थितिके उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । अवस्थित स्थितिके उदीरक जीव संख्या सर्वे भागप्रमाण हैं। शेष पदोंके उदीरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाया हैं। सम्यक्त्व और सम्बग्मिध्यात्वका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकों में स्त्रीवेद नहीं है । योनिनियामें १. ता० प्रती यव (सप्त) गोक० इति पाठः । २ ता०प्रतौ सन्तोक इति पाठः । ४३ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो अवत्त० णस्थि । पंचितिरिक्खअपज०-मणुसअपज० मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक० अप्पद० संखेजा भागा । अवडि० संखे०भागो । सेसपदा० असंखे०भागो।। 3. ७३९. मणुसेसु मिच्छत्त-सोलयक०-सत्तणोक० पंचिंदियतिरिक्खभंगो।। सम्म०-सम्मामि०-इत्थिवे.-पुरिसके० अप्प० संखेा भागा। सेमपदा संखे भागो।। मणुसपन्ज-मसिणी. सव्वषय० अप्पद० संखेजा भागा । सेसपदा संखे भागो। ७४०. देवेसु मिच्छ०-सोलसक०-अट्ठणोक० अप्प संखेजा भागा। अवढि० संखे०भागो । सेसप० असंखे०भागो । सम्म०-सम्मामि० श्रोघं । एवं भवण-घाणवेंजोदिसि०-सोहम्मीसाणे ति । एवं सणकुमारादि सहस्सार त्ति । णवरि हस्थिवेदो णस्थि। 5 ७४१. प्राणदादि णवगेवजा त्ति मिच्छ०-सम्मामि०-सोलसक०-छण्णोक० अप्प० असंखेजा भागा। सेसप० असंखे०भागो। पुरिमबे० णत्थि भागाभागो। अणुद्दिसादि सबट्ठा ति सम्म०-बारसक-पणोक. अप्प. असंखे०भागा । अवत्त. असंखे०भागो। पुरिसवे. एस्थि भागाभागो। एबरि सबढे संखैझं कादध्वं । एवं जाव० । मार्गदर्शक: शौचावासावधिसागर जी महाराज पुरुषवेद और न सकवेद नहीं है। इसमें स्त्रीवेदकी अवक्तव्य स्थितिजदीरणा नहीं है। पंचेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात . नोकषायकी अल्पतर स्थितिके उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। अवस्थित स्थित्तिके उदीरक जीव संख्यात भागप्रमाण हैं। शेष पदोंके उदीरक जीव असंख्यातवें भागनमाण हैं ! :--. $७३९. मनुष्योंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायका भंग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अल्पतर स्थितिके उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। शेष पदोंके उदीरक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में सब प्रकृतियोंकी अल्पतर स्थितिके उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । शेष पदोंके उदीरक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। ७४०. देवोंम मिथ्यात्व, सोलह कषाय और आठ नोकपायकी अल्पतर स्थिसिके उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण है । अवस्थित स्थितिके उदीरक जीव संख्यातवे भागप्रमाण हैं। शेष पदोंके उदीरक जीव असंख्यातवे भागप्रमाण हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग पोषके समान है। इसीप्रकार भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी देवों तथा सौधर्म और ऐशान कल्पके देवों में जानना चाहिए । इसीप्रकार सनत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है। ६७४१. मानतकल्पसे लेकर नौ अवेयकतकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायकी 'अल्पतर स्थितिके उदीरक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण है। शेष पदोंके उदीरक जीव असंख्यात भागप्रमाण हैं। पुरुषवेदकी अपेक्षा भागाभाग नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सम्यक्त्व, बारह कषाय और छह नोकषायकी अल्पतर स्थिति के उदीरक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। अवक्तव्य स्थिति के उदीरक जीव असंख्यातवे भागप्रमाण हैं। पुरुषवेदकी अपेक्षा भागाभाग नहीं है। इतनी विशेषता है कि सार्थसिद्धि में असंख्यातके स्थानमें संख्यात करना चाहिए। इसीप्रकार अनाहार क. मार्गणा Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिद्विविउदीरणाए भुजगारअणिमोगहारं २३६ ७४२. परिमाणाणु० दुविहो णि-ओघेण आदेसेण य । भोघेण मिच्छ०णधुस० भुज० अप्प०-अवटि केत्तिया ? अणंता । अवत्त० केत्ति० १ असंखेजा । सोलसक०-छण्णोक० सयपदा के० १ अणता | सम्म०-सम्मामि०-इस्थिवे०-पुरिस० सव्यपदा के० ? असंखेसा । एवं तिरिकखा० । ७४३. सब्बणेर-सव्वपचितिरिक्ख-मणुसअपञ्ज-गबदेवा ति सबपय० "दिसिनपदी कार्सयाँ सुनिसिखान जी कारिअणुदिसादि अवराजिदा ति सम्म० अवत्तक केत्ति ? संखेजा । सबढे सयपयडीरणं सवपदा केत्ति या ? संखेना । ७४४. मणुसेसु मिच्छ० मोलमक०-सत्तणोक. सनपदा के० ? असंखेजा। णवरि मिच्छ०-णबुस० अवत्त० के० ? संखेजा। सम्म-सम्मामि-इस्थिवे०पुरिसवे. सधपदा के० ? संखेजा। मणुस पज-मणुसिणी० सम्वपयडीणं सबपदा के ? संखेजा । एवं जाव० 1 ७४५. खेत्ताणुगमेण दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०सोलसक० सत्तणोक. सधपदा केवडि खेत्ते ? सन्चलोगे। णवरि मिच्छन्-एवंसक तक जानना चाहिए। ७४२. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है--ओघ और आदेश । श्रोधके - मिथ्यात्व और नपुंसकवेदकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिके उदीरक जीव कितने हैं ? अनन्त है। अवसव्य स्थिति के उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। सोलह कपाय और छह नोकषायके सब पदोंके उदीरक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। सम्यक्त्व. सम्यग्मिध्यात्व, जीवेद और पुरुषवेदके सब पदोंके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसीप्रकार तियचोंमें जान लेना चाहिए। ४३. सब नारकी, सब पंचेन्द्रिय सियच, मनुष्य अपर्याप्त और सब देवों में सब प्रकृतियोंके सब पदोंके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात है । इतनी विशेषता है कि अनुदिशसे लेकर अपराजिततकके देवोंमें अवक्तव्य पदके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । सर्वार्थसिद्धिमें सब प्रकृतियोंके सब पदोंके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । ६७४४. मनुष्योंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायके सब पदोंके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व और नपुंसकवेदकी प्रवक्तव्य स्थितिके उनीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके सब पदोंके उदीरक जीव कितने हैं ! संख्यात हैं। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियों में सब प्रकृतियोंके सब पदों के उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा सक जानना चाहिए। F७४५. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-प्रोध और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायके सब पदोंके उदीरक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सर्वलोक क्षेत्र है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व और नपुसकवेदकी प्रवक्तव्य स्थितिके Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शक:- आचाय ३४० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो अवत्त० सम्म०-सम्मामि०-हस्थिधे०-पुरिसवे० सञ्चपदा लोगस्स असंखे भागे । एवं तिरिक्खा० । सेसगदीसु सम्पयडीणं सव्वपदा लोग० असंखे०मागे । एवं जाव० । ५७४६. पोसणाणु० दुविहो णिक-प्रोघेण श्रादेसेण य । श्रोघेण मिच्छ.. सोलसक० सत्तणोक० सम्बपदेहि केवडियं खेत्तं पोसिदं ? सबलोगो । णवरि मिच्छ. अवत्त० लोग० असंखे०भागो, अह-बारहचोइस भागा वा देसूणा । णस० अवत्त० लोग० असंखे भागो, सबलोगो वा । सम्म०-सम्मामि सब्बपदा लोग० असंखे०. भागो, अट्ठचोदस० देखणा | इस्थिवे-पुरिसवे० सबप. लोग. असंखे० भागो, अडचोइस० दे० सबलोगो वा । णवरि प्रवत्त लोग. असंखे०भागो, सबलोगोवा । जदीरक जीवोंका तथा सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके सष पदोंके उदीरक जीवांका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसीप्रकार सामान्य तिथंचामें जानना चाहिए। शेष गतियों में सब प्रकृतियों के सब पदोंके उदीरक जीवोंकाव बोकही असंख्यातये भागप्रमाण है। इसीप्रकार अनाहौरक मार्गणातक जानना चाहिए""" ४६. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और भादेश 1 ओघसे मिध्यात्व, सोलह कषाय और सास नोकषायके सब पदोंके उदीरकोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सर्व लोकक्षेत्रका स्पर्शन किया है। मिथ्यात्वकी श्रवक्तव्य स्थितिके उदीरकोंने लोकके असंख्यातये भाग तथा त्रसनाली के चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और बारह भागप्रमा क्षेत्रका स्पर्शन किया है । नपुसकवेदकी प्रवक्तव्य स्थिति के उदीरक जीषोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सब.. पदोंके वदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा वसनालीके चौदह भागों से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद और पुरुषबदके सब पदोंके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यासवें भाग तथा सनाली के चौदह भागोंमसे कुछ कम आठ भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि इसकी प्रवक्तव्य स्थिति के उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ—जो देव विहारयत्स्वस्थानके समय सम्यक्त्वसे च्युत होकर मिथ्यात्वको प्राप्त होते हैं उनके मिथ्यात्वकी अवक्तव्य स्थिति के उदीर कोका बसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण स्पर्शन पाया जाता है 1 तथा नीचे कुछ कम पाँच राजु और ऊपर छ कम सात राजु इसप्रकार मिथ्यात्वकी प्रवक्तव्य स्थिनिके उदीरकोंका बसनालोके चौदह भागों में से कुछ कम बारह भागप्रमाण स्पर्शन भी बन जाता है। यहाँ मिथ्यात्वकी श्रवक्तव्य स्थितिके उन्दीरकोंका जो स्पर्शन कहा है उसमेंसे स्पष्टीकरण योग्य स्पर्शन यह खुलासा है । वेदकसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्याइष्टि जीवोंके स्पर्शनको ध्यानमें रखकर यहाँ सम्यक्त्त और सम्यग्मिथ्यात्वके सब पदोंके उदीरकोंका स्पर्शन कहा है। उससे अन्य कोई विशेषता न होनेसे यहाँ अलगसे खुलासा नहीं किया है। पञ्चेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके स्पर्शनको । ध्यान में रखकर यहाँ स्त्रीयेद और पुरुषवेदके सब पदोंके उदीरकोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवे भाग तथा वसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम पाठ भाग और सर्व लोकप्रमाण कहा है। मात्र आगमसे इन जीवोंके लोकका असंख्यान बहुभाग स्पर्शन प्रतरसमुद्घातकी अपेक्षा कहा गया है, किन्तु स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उदारणा करनेवाले जीवोंके प्रतरसमुद्घात नहीं होता, Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४१ गा० ६२] उत्तरपयसिद्विविउदारणाए मुजगारप्रणियोगहार ६७४७. आदेसेण णेरड्यन्वर्गमिछल-लपर्क प्रमाणीकायगावपारलोग० असंखे०भागो, छचोदस० । णवरि मिच्छ० अक्त्त. लोग० असंखे भागो, पंचचोदस० । सम्म०-सम्मामि० खेत्तं । एवं विदियादि सत्तमा त्ति । णवरि सगपोसणं । सत्तमाए मिच्छ० अवत्त० खेत्तं । पढमाए खेत्तभंगो। १८४८. तिरिक्खेसु मिच्छ• ओधं । गवरि अवत्त. लोग० असंखे० भागो, सत्तचोदस० । सम्म० अप्प० छचोहमः । सेसपदाणं खेत्तं । सम्मामि० खेत्तं । सोलसक०-सत्तणोक० अोघं । इस्थिवे०-पुरिसवे० सच्चपदा लोग० असंखे० भागो सबलोगो वा । अतः उक्त स्पर्शनका उल्लेख यहा नहीं किया गया है। इनना विशेष यहाँ और समझना चाहिए कि स्त्रीयेद और पुरुषवेदकी अवक्तव्य स्थितिके उदीरमाके समय त्रसनालीके चौदह भामों में से कुछ कम आठ भागप्रमरण स्पर्शन नहीं घटित होता, इसलिए यहाँ खीवेद् और पुरुषवेदकी अवक्तव्य स्थितिके उदीरकोंका पर्शन मात्र लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकपमाण बतलाया गया है। शेष कथन सुगम है। ६७४७, प्रादेशसे नारकियोंमें मिध्यास्त्र, सोलह कपाय और सात नोकषायके सब पदोंके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और उसनालीके चौदह भामि से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि मिथ्य त्वकी अबक्तव्य स्थिति के उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और बसनालीके चौदह भागों से कुछ कम पाँच भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग क्षेत्रके समान है। इसीप्रकार दूसरी पृथिवी से लेकर सातवीं पृथिवीवक जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपना-अपना स्पर्शन कहना चाहिए । सातवीं पृधिवीमें मिथ्यात्वकी अयक्तव्य स्थितिके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। प्रथम पृथिवीमें स्पर्शन क्षेत्रके समान हैं। विशेषार्थ-मिथ्यात्वको अवक्तव्य स्थितिरदारणा होती तो सातों पृश्रिवियों में है, किन्तु सात नरकमें मारणान्तिक समुद्घातके समय और वहाँ उत्पन्न हानेके प्रथम समय में मिथ्यात्वकी श्रवक्तव्य स्थितिउदीरणा सम्भव नहीं है, इसलिए मिथ्यात्वकी श्रवक्तव्य स्थिति के उदीरकाका स्पर्शन सामान्यसे नारकियों में सनाली के चौदह भागोंमसे कुछ कम पाँच भागप्रमाण और सातवे नरकमें लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । शेष कथन सुगम है। ८. तिर्योंमें मिथ्यात्वका भंग प्रोघके समान है। इतनी विशेषता है कि इसकी अवक्तव्य स्थिति के उदीरकांने लोकके भसंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम सान भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिके उदीरकोंने वसनालीके चौदह भागों से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेप पदोंका भंग क्षेत्रके समान है। सम्यग्मिध्यात्वका भंग क्षेत्रके समान है। सोलह कषाय और सात नोकषायका भंग ओघ के समान है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदके सत्र पदोंके जदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ—जो तिर्यश्च या मनुष्य मरणके बाद प्रथम समयमै मिथ्यादृष्टि होकर एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं वे ऊपर मनालीके चौदह भागों से कुछ कम सात भागप्रमाण Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ अयधवलासहिदे कसायपाहुरे [ वेदगो ७४९. पंचिंदियतिरिक्खतिए मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक० सव्यपदा लोग असंखे०भागो सव्वलोगो चा। णवरि मिच्छ० अवत्त० सत्तचोद्दस० | णवंस० श्रवत्त० इस्थिवे०-पुरिसवे. भुज-अवढि०-अवत्त० खेत्तं । सम्म-सम्मामि० तिरिक्खोघं । वरि पजत्त० इत्थिवेदो गस्थि । जोणिणीसु पुरिसवे०-गईंस० णस्थि । इस्थिवे. अवत्त० णस्थि । पंचिंतिरिक्खअपज-मणुसअपज० सवपयडीणं सवपदा लोग. असंखे भागो सबलोगो का । मणुसतिए मिच्छ -सोलसक०-णवणोक० पंचितिरिक्खतियभंगो । सम्म० सम्मामि० खेत्तं । परि पज्ज० इत्थिवे. गस्थि । मणुसिणी० पुरिसवे०-णस० णस्थि । इस्थिवे. अयत्त० खेत्तं ।। ७५०. देवेसु सब्वपयडीणं सधपदा लोग० असंखे भागो अट्ठ-णवचोइस० । णवरि इथिवे०-पुरिसवे. भुज०-अवढि० सम्म०-सम्मामि० मध्यपदा लोग० असंखे०. भागो अनुचोद्दस० । एवं सोहम्मीसाणे । एवं भवण बाणवें०-जोदिसि० । णवरि क्षेत्रका स्पर्शन करते हैं, इसलिए यहाँ पर मिथ्यात्वकी अवक्तव्य स्थिति के उदीरकों का स्पर्शन उक्त क्षेत्रप्रमाण कहा शोष कथन सगम सुविद्यासागर जी महाराज ६७४६. पश्चेन्द्रिय तियश्चत्रिक में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायके सम पदों के उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि मिध्यात्वकी प्रवक्तव्य स्थितिके उदीरकोंने बसनालीके चौदह भागामसे। कुछ कम सात भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। नपुसकवेदकी श्रवक्तव्य स्थिति के उदीरका .. का तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिफे उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वका भंग सामान्य तियचोंके समान है। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है तथा योनिनियां में पुरुपवेद और नपुसकवेद नहीं है। इनमें स्त्रीवेदकी प्रवक्तव्य स्थिति उदारणा नहीं है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियोंके सब पदवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यधिकमें मियात्य, सोलह कषाय और नौ नोकपाय का भंग पञ्चेन्द्रिय तिर्यज्यत्रिकके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वका भंग क्षेत्रके समान है। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकों में स्त्रीवेद नहीं है तथा मनुष्यनियों में पुरुषवेद और नपुसकावेद नहीं है । इनमें स्त्रीचेदकी प्रवक्तव्य स्थिति के उदीरकोंफा भंग क्षेत्रके समान है। विशेषार्थ-पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकके ऊपर एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात करते समय मिथ्यात्वकी श्रवक्तव्य स्थितिब्दीरणा बन जाती है, इसलिए मिथ्यात्वकी प्रवक्तव्य स्थिति के उद्दीरकोंका स्पर्शन वसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम सान भागप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। ५०. देवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पवालोंने लोकके असंख्यानवे भाग तथा घसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगार और अवस्थित स्थिति के उदीरकोंने तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सब पदवालोंने लोकके असंख्यातवे भाग तथा प्रसनालीके चौदह भागों से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसीप्रकार सौधर्म और ऐशान Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ $ → गा० ६२ ] उत्तरपट्टिदिदीरणाए भुजगारमणिश्चगारं ३४३ सगपोसणं | सणकुमारादि जाव सहस्सार त्ति सव्वपयडीणं सव्वपदा लोग० असंखे ०भागो अचोस० । श्राणदादि अच्चुदा ति सव्वथडीखं सव्वपदा लोग० श्रसंखं० भागो, छोदस० । उवरि खेत्तं । एवं जाव० । 1 $ ७५१. णाणाजीवेहिं कालाणु० दुविहो णि० - श्रोषेण श्रादेसेण य । श्रोषेण मिच्छ० - सोलसक० सत्तणोक० सम्यदर्श सव्यद्वार सुछि कुंजय हालख० जह० एयस०, उक्क० श्रावलि० श्रसंखे ० भागो । इत्थवेद- पुरिसवेद० श्र०श्रबडि० सव्वद्धा । सेसपदार्थ जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । सम्म० अ० सव्वद्धा । सेसपदा जह० एस० उक० आवलि० असंखे० सम्मामि० अप० जह० अंतीमु०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । अवत० मिच्छत्तभंगो | एवं तिरिक्खा | कल्प में जानना चाहिए | इसीप्रकार भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपना अपना स्पर्शन कहना चाहिए। सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार arrass देवों में सब प्रकृतियोंके सब पदवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके चौदह भागमिसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आनतकरूपसे लेकर अयुत कल्पतक के देवों में सब प्रकृतियों के सब पदवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाणु क्षेत्रका स्पर्शन किया है । ऊपर क्षेत्रके समान स्पर्शन है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गगातक जानना चाहिए। विशेषार्थ — देवोंके एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात करते समय स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगार और अवस्थित उदीरणा सम्भव नहीं है और न ही इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्यकी उदय उदीरण सम्भव है, इसलिए स्त्रीवेद और पुरुषवेदके उक्त दो पदवालों का तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के सब पदवालोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भाग और श्रसनालीके चौदह भागमिंसे कुछ कम आठ भागप्रमाा कहा है। शेष कथन सुगम है। १७५१. नाना जीनोंका आलम्बन लेकर कालानुगम की अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओ और आदेश | ओघसे मिध्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायके सब पदवालों का काल सर्वदा हैं। इतनी विशेषता है कि मिध्यात्व और नपुंसकवेदकी अवक्तव्य स्थितिके उदीरकोंका जवन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । स्वेद और पुरुषवेदी अल्पतर और अवस्थित स्थितिके उदीरकोंका काल सर्वदा है। शेष पदके वीरोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिके उदीरफोंका काल सर्वदा है। शेष पदके उदीरकोंका अधन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सम्यग्मिध्यात्व की अल्पतर स्थितिके उदीरकोंका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल संख्यातवें भागप्रमाण है । अवक्तव्य स्थितिके उदीरकोंका भंग मिध्यात्वके समान है। I इसी प्रकार सामान्य तिर्यखोंमें जानना चाहिए | विशेषार्थ – यहाँ जिन प्रकृतियोंके जिन पदके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है उन्हीं का उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। सम्यग्मिध्यात्व Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयघवला खहिदे कसायपाहुडे ३७५२. आदेसेण णेरड्य० मिच्छ०-सोलसक० सत्तणोक० अप्प० श्रवडि ० सव्वद्धा । सेसपदा० जह० एम०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । सम्म०सम्मामि० श्रघं । एवं सव्वणेरइय० । ३४४ [ वेदगी .. , - मिच्छ० - सोलसक० ७५३. पंक्तिकार अडि० सच्चद्वा । सेसपा० जह० एस० उ० ग्रावलि असंखे० भागो । वरि सम्म० सम्मामि० श्रोधं । पंचि०तिरिक्ख० अपज० सच्चपयडीणं अप० श्रवद्वि० सव्वद्धा । सेमपदा जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । मणुसेसु सतलोक पंचिदियतिरिक्खभंगो | णवरि मिच्छ० उक्क० संखेजा समया । इत्थिवे ० पुरिसवे० अप्प०-अबड्डि ० सेसपदा० जह० एम०, उक्क० संखेजा समया । सम्मामि० अप्प० जह० उक्क० तो० | अवत्त० सम्मतभंगो | I स० स० जह० एस ०, ० सम्म० अध्य० सच्वद्धा । गुणका एक जीवको अपेक्षा भी उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त हैं, इसलिए यहाँ सम्यग्मिथ्यात्वकी पर स्थिति उरकोंका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है । ७५२. आदेश से नारकियोंमें मिध्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायकी अल्पतर और अवस्थित स्थिति के उदीरकों का काल सर्वदा है। शेष पदोंके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वका भंग प्रोध के समान है । इसीप्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए । ९ ७५३. पचेन्द्रिय तिर्यश्वत्रिक में सब प्रकृतियों की अल्पतर और अवस्थित स्थिति के उदीरकों का काल सर्वदा है। शेष पदोंके उदीरकों का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलि असंख्यातवें भागप्रमाण है । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका मंग आपके समान है । पचेन्द्रिय तिर्यश्व पर्यत जीवों में सब प्रकृतियोंकी अल्पतर और अवस्थित स्थिति उदीरकोंका काल सर्वदा है। शेष पढ़ोंके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल भावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। मनुष्यों में मिध्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायका भंग पश्चेन्द्रिय तिर्यखां के समान है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व और नपुंसक वेदकी अवक्तव्य स्थितिके उदरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अल्पतर और अवस्थित स्थितिके उदोकोंका तथा सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिके उदीरकोंका काल सर्वदा है। शेष पदों के उदीरकों का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । सम्यग्मिथ्यात्व की अल्पतर स्थिति उदीरकोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य स्थितिके उदीरकोंका भंग सम्यक्त्व के समान है । विशेषार्थ – मनुष्यों में मिध्यात्व, नपुसकवेद, और पुरुषवेदको अवक्तव्य स्थितिकी उदीरणा मनुष्य पर्याप्त तथा मिध्यात्व और स्त्रीवेदकी अवक्तव्य स्थितिकी उदीरणा मनुष्यनी जीव ही करते हैं । यतः इनकी संख्या संख्यात है अतः मनुष्यों में उक्त प्रकृतियों की अवक्तव्य स्थितिकी दीरणा करनेवालों का उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। शेष कथन सुगम है । + Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ३२] अत्तरपडिद्विदिउदीराए भुजगारअणिोगहारं ३४५ ६७५४. मणुसपज-मणमिणी सधपयडी० अप्प.-अवडि. सन्नद्धा । सेसपदा जह• एयस०, उक० संखेना समया | णवरि सम्म०-सम्मामि० मणुसभंगो । अणुसअपम० सन्चपयडी. अप्प.-अवष्टि जह० एस०, उस पलिदो० असंखे०भागो । सेसपदा० जह० एयस०, उक्क, आवलि० असंखे०भागो । ६७५५. देवेसु सम्बपद० अप्प०-प्रवद्वि० सम्बद्ध | सेमपदा० जह० एयम, उक. आवलिं, असंखे०भागो । णवरि सम्म सम्मामि प्रोघं । एवं मवणादि जात्र सहस्सार त्ति | आणदादि णवमेवजा ति मिच्छ०-मम्म०-सोलसक०-छण्णोक० अप्प सम्बद्धा । सेस पदा० जह० एगस०, उक्र० प्रायलि. असंखे० भागो । पुरिसके. अप० सन्चद्धा । सम्मामि० ओघं | अणुद्दिमादि अवराजिदा ति सम्म० अप्प. सम्बद्धा । अवत्त० जह. गगममो, उक्क संखेजा समया । बारमक छष्णोक. अप्प सम्बद्धा । अवत्त • जह० एपम०, उक्क, आवलि. असंख० मागो । पुरिसवे० अप्पमासया । वसन्सविणवार अवतारजह० एयसमयो, उक्क० संखेजा ५४. मनुष्य पर्यात और मनुष्यनियोंमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर और अवस्थित स्थिति के बदीरकोका काल सर्वदा है। शेष पाके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। इननी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिन्यात्वका भंग मनुष्यों के समान है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंको अल्पतर और अवस्थित स्थिति के उदीरकोका जयन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। शेष पदोंके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल मावलिके असंख्यातवें भायप्रमाण है। 5७५५. देयॉमें सब प्रकृतियोंकी अल्पतर और अवस्थित स्थिनिके उदीरकाका काल सर्वदा है 1 शेष पदोंके उदीरकोंफा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल प्रापलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्त और सभ्यग्मिथ्यालका भंग ओघके समान है । इसीप्रकार भवनवासियोंसे लेकर सहनार कल्पतकके देवों में जानना चाहिए । आनत कल्पसे लेकर नी धेयकतकके देवीमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिध्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकपायकी अल्पतर स्थितिके उदीरकों का काल सर्वदा है। शेष पदोंके उनीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। पुरुषवेदको अल्पतर स्थितिके उमीरकोंका काल सर्वदा है। सम्याग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। अनुदिशसे लेकर अपराजिततकके देवामें सम्यक्त्रको अल्पतर स्थिति के उदीरक जीवोंका काल सर्वया है। श्रवक्तव्य स्थितिके उदीरक जीवांका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। बारह कषाय और छह नोकपायकी अल्पतर स्थितिके बदीरक जीवोंका फान सर्वदा है। श्रवक्तव्य स्थितिके बदीरक जीयोंका जघन्य फाल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातचे भागप्रमाण है। पुरुषवेदकी अल्पतर स्थितिके उदीरक जीवोंका काल सर्वदा है। इसीप्रकार सर्वार्थसिद्धि में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अषक्तव्य स्थितिके उदीरकोका जघन्य काल एक समय है और उत्कृय काल संख्यात समय है। इसीप्रकार .. तर०प्रती पलिदो० इति पाठ । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - --.-Nann. ३४६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो . समया । एवं जाव० । ७५६. अंतराणु० दुविहो णि०-~ोघेण श्रादेसेण य । ओघेण मिच्छसोलसक०-सत्तणोक० सवपदाणं णत्थि अंतरं । णवरि मिल० अवत्त० जह० एयस०, उक्क० सत्त रादिदियाणि । एस. अचत्त० जह० एयस०, उक्क० चउवीसमुहुन् । सम्म० भुज० जह० एयस०, उक० चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे । अप्प० गस्थि अंतरं । अवत्त० जह० एयस०, उक्क० सत्त रादिदियाणि । अबढि जह० एगसमो , उ० अंगुलस्स असंखे भागो। सम्मानिती अपहासात्ती महाराज एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागी । इस्थिवेद-पुरिसवेद. भुज० जह० एयस०, उक० अंतोमु० । अप्प०-प्रवद्रि पत्थि अंतरं । अवत्त० णस भंगो । एवं तिरिक्खा० ।। मनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। ५६. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-प्रोघ और आदेश। प्रोषसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकपायके सब पदोंके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वको प्रवक्तव्य स्थितिके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल सात दिन-रात है। नपुसकवेदकी अबक्तव्य स्थितिके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक सगय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल चौबीस मुहूर्त है। सम्यक्त्वकी भुजगार स्थितिके उदीरकोका जघन्य अन्तरफाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक चौबीस दिन रात है। अल्पतर स्थितिके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । प्रवक्तव्य स्थितिके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल सात दिन-राम है। अवस्थित स्थितिके उदीरकीका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल श्रावलिके असंख्यातचे भागप्रमाण है। सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर और अवक्तव्य स्थितिके चदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्य के असंख्यासर्वे भागप्रमाण है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगार स्थितिके उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। अल्पतर और अवस्थित स्थितिके उदीरकोका अन्तरकाल नहीं है। प्रवक्तव्य स्थिति के उदीरकोंका भंग नपुसकवेदके समान है। इसीप्रकार सामान्य तियंञ्चामें जानना चाहिए । विशेषार्थ-आयके अनुसार व्यय होता है इस नियमके अनुसार उपशमसभ्यक्त्वकी प्रवक्तव्य स्थितिके बदीरकोंके उत्कृष्ट अन्तरकालके समान यहाँ मिथ्यात्यकी प्रवक्तव्य स्थितिके उदीरकोंका उत्कृष्ट अन्तर सान दिन-रात कहा है। नपुसकवेदकी प्रवक्तव्य स्थिति के उदीरक जीव सामान्यसे यदि अधिकसे अधिक काल तक न हों तो चौबीस मुहूर्त तक नहीं होते । इसीसे यहाँ इसकी अवक्तव्य स्थिति के उदीरकोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल चौबीस मुहूर्त कहा है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अवक्तव्य स्थितिके उदीरकोंका अन्तरकाल इतना ही है, इसलिए उसे नपुंसकवेदके समान जानने की सूचना की है। जो मिथ्याष्टि जीव सम्यक्त्वके सत्कर्मसे अधिक मिध्यात्वको स्थिति बाँधकर स्थितिघात किये बिना वेदकसम्यग्दृष्टि होते हैं उनके सम्यक्त्वकी भुजगार स्थितिउदीरणा बनती है। यतः यह उत्कृष्टरूपसे साधिक चौबीस दिनरातके अन्तरसे प्राप्त होती है, इसलिए सम्यक्त्वकी भुजगार स्थिति के उदीरकोंका उत्कृष्ट अन्तर. Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ } मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज उत्तरपयडिद्विदिउदीरणाए भुजगौरमणिय गरें ३४७ गा० ६२ ] ३७५७ आदेसेण येरइय० सोलसक० - दोक० भुज० - श्रवत्त० जह० एगस०, उक० अंतोनु० । सेसं णत्थि अंतरं । एवं मिच्छ० । णवरि अवत्त० श्रघं । एवं स० । वरि अवत्त० णस्थि । सम्म० सम्मामि० श्रघं । एवं सव्वणेरइय० । मिच्छ० सम्म० सम्मामि० - सोलसक०३७५८ पंचिदिपतिरिव खतिय० ऋणोक सारयभंगो | तिरिपवेद० भुज० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० | झवत्त० श्रधं । एवं पदाणं पस्थि अंतरं । णवरि पज० इत्थवेदो णत्थि । जोगिणीसु पुरिसके० एस० रात्थि । इत्थवे अवत० णत्थि । पंचिदियतिरिक्ख अपज० मिच्छ० - सोलसक० सत्तणोक० णारयभंगो। रावरि मिच्छ० अवत० णत्थि । मणुस दिए पंचि०तिरिक्खतियभंगो | एवर मणुसिणी० इत्थिबे० अवत्त० जह० एस० उ० बासपृधत्तं । मणुस अपज० सचत्रपग० सव्यपदा० जह० एयस०, उक्क० पलिदो ० श्रसंखे० भागो । O מ - काल साधिक चौबीस दिन-रात कहा है। सम्यक्त्वकी श्रवक्तव्य स्थितिके उदीरकोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल सात दिन-रात उपशमसम्यक्त्वके उत्कृष्ट अन्तरकालको ध्यान में रखकर कहा है । शेष कथन सुगम हैं। आगे गतिमार्गणा के उत्तर भेदों में यह अन्तरकाल इस अन्तरकालको ध्यान में रखकर यथायोग्य जान लेना चाहिए। १७५७. आदेश नारकियों में सोलह कषाय और छह नोकषायकी भुजगार और वक्तव्य स्थिति के उद्दीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त हैं । शेष पदोंके उदीरका अन्तरकाल नहीं हैं । इसीप्रकार मिध्यात्वकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसकी अवक्तव्य स्थिति के उदीरकों का अन्तरकाल ओघके समान है । इसीप्रकार नपुंसकवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यहाँ इसका अवक्तव्य पद नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वका भंग श्रोधके समान है। इसीप्रकार सज नारकियों में जानना चाहिए । ७८. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक में मिथ्यात्व सम्यक्त्व, सम्यग्प्रिध्यात्व, सोलह कपाय और छह नोकषायका भंग नारकियोंके समान है। तीन वेदोंकी भुजगार स्थितिके उदीरकों का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवक्तव्य पदका भंग श्रोष 1 समान है । इसीप्रकार शेष पदोंके उद्दीरकोंका अन्तर नहीं है । इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्च पर्याप्तकों में स्त्रीवेद नहीं हैं तथा योनिनियों में पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है। इनमें स्त्रीवेदकी अवक्तव्य स्थितिउदीरणा नहीं है । पश्चेन्द्रिय तिर्यख अपर्याप्तकों में मिध्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायका भंग नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें मिथ्यात्वको अवक्तव्य स्थितिउदीरणा नहीं है। मनुष्यत्रिक में पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक के समान भंग है । इतनी विशेषता है कि मनुष्यिनियों में स्त्रीवेदकी अवक्तव्य स्थितिके उदीरकों का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। मनुष्य अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियों के सब पदके उदरका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । • Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेवगो. ७५९. देवेसु मिच्छ०-सोलसक-अट्ठणोक०-सम्म०-सम्मामि० पंचिंदियतिरिक्खभंगो। णवरि इथिवे गरिमः अश्वत्तापरिहासामचं आयाशिवाण ०. जोदिसि०-सोहम्मीसाणे त्ति । एवं समकमारादि सहस्सार त्ति । णवरि इस्थिवेदो णस्थि । ७६०. आणदादि जाव णवगेवजा त्ति मिच्छ०-सम्मामि०-सोलसक.. छण्णोक० अप्प०-अवत्त० णारयभंगो । पुरिसवेद० अप्प० णत्थि अंतरं । सम्म० श्रोघं । णवरि अवढि णस्थि । अणुद्दिमादि सबट्ठा ति सम्म० अप्प० णस्थि अंतरं । अवत्त० जह० एयस०, उक० चामपुधत्तं पलिदो संखे भागो । बारमक.. अण्णोक०-पुरिसवेद आणदभंगो । एवं जाव० । ६ ७६१. भावाणु० मध्यस्थ प्रोदइओ भावो । ३७६२. अप्पाबहुआणु० दुविहो णि०–ोण आदेसेण य। ओघेण मिच्छ०-गवूस. सव्वत्थोवा अवत्त । भुज.द्विदिउदी. अणंतगुणा । अवट्टि असंखेगुणा। अप्प० संखेगुणा । सम्म० सम्वत्थोत्रा अवट्टि उदी० । भुज. असंखे०गुणा । अवत्त० असंखे०गुणा। अप्प. असंखे०गुणा । सम्मामि. सनत्थो० ६ ७५६. देवा में मिथ्यात्व, सोलह कषाय, आठ नोकषाय, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अवक्तव्य स्थितिउदीरणा नहीं है। इसीप्रकार भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी तथा सौधर्म और ऐशानकल्पके देवोंमें जानना चाहिए । इसीप्रकार सनत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है। ६७६०, आनतकल्पसे लेकर नौ अवयकतक देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिध्यात्व, सोलइ कषाय और छह नोकपायकी अल्पतर और प्रवक्तव्य स्थितिके उदारकोंका भंग नारकियोंके समान है। पुरुषवेदकी अल्पतर स्थिति के उदीरकाका अन्तरकाल नहीं है। सम्यक्त्वका भंग श्रोचके समान है। इतनी विशेषता है कि यहाँ इसकी अवस्थित स्थिति उदारणा नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धित्तकके देवोंमें सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिके उदोरकाका अन्तरकाल नहीं है। इसकी अवक्तव्य स्थितिके उदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे वर्षपृथक्त्व और पत्यके संख्यात भागप्रमाण है। बारह कषाय, छह नोकषाय और पुरुषवेदका भंग आनतकल्पके समान है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। ६७६१. भावानुगमकी अपेक्षा सर्वत्र औदयिक भाव है। १७६२. अल्पबहुत्वानुगमको अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । श्रोषसे मिथ्यात्व और नपुसकचेदकी अवक्तव्य स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे भुजगार स्थितिके उदीरक जीव अनन्तगुणे हैं। इनसे अवस्थित स्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतर स्थितिके उदीरफ जीव संख्यातगुणे है। सम्यक्त्वकी अवस्थित स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे मुजगार स्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे प्रवक्तव्य स्थिति के उदोरक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे मल्पतर Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A उत्तर पर्याडद्विदिदीरणाए भुजगारअणियोगारं गा० ६२ ] ३४६ संखे० गुणा । सोलसक० - इराणोक० अवत्त ०डिदिउदी० । अप्प०डिदिउदी० द्विविदो श्रच द्विद्धिउदी ० संखे० गुणा । प्रत्रट्टि० द्विदिउदी० मार्ग त्यो ० मार्गदर्श 拼 संखे० गुणा । अप०डिदिउदी० संखे० गुणा । इत्थिवे० - पुरिसवे० सच्त्रस्थोवा अवत० । अडि० डिदिउदी० श्रसंखे० गुणा । अप्प० ड्डि दिउदी ० भुज ० द्विदिउदी० संखे० गुणा । संखे० गुणा । एवं तिरिक्खा० । Q ९ ७६३. आदेसेण णेरइय० सोलसक० छण्णोक० सम्म० सम्मामि० श्रोषं० । मिच्छ० सव्वत्थोवा श्रवत्त ० ड्डि दिउदी० | भुज० असंखे० गुणा । अडि० असंखे० गुणा । • डिदिउदी० संखे० गुणा । एवं रास० । वरि प्रवत्त० रात्थि । एवं सव्वणेरइय० । अप० 0 १७६४. पंचिदियतिरिक्खतिए ओघं । णवरि मिच्च० शत्रुस० सव्यत्थोवा अवस०डिदिउदी० । भुज० डिदिउदी० असंखे० गुणा । अवडि० उदी० असंखे० गुणा | अप० विदिउदी संखे० गुणा । एवरि पजत्तएस इस्थिवेदो गत्थि । सय० स० पत्थि । इत्थवे अवत्त० णत्थि । य पुरिसभंगो | जोखिली पुरिस० ९७६५. पंचि०तिरि० पञ्ज० - मणुस आपज० मिच्छ० णवु सय० सव्त्रत्थोवा स्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं । सम्यग्मिथ्यात्व की अवक्तव्य स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अल्तर स्थितिके वीरक व असंख्यातगुणे हैं। सोलह कषाय और नोकषायकी भुजगार स्थितिके वीरक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे अवक्तव्य स्थिति के उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित स्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अल्पर स्थितिके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। स्त्रीवेद और पुरुषवेदी प्रवक्तव्य स्थिति उदीर जी सबसे स्तोक हैं। इनसे भुजगार स्थितिके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। इसे स्थित स्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतर स्थितिके उदोक जीव संख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार सामान्य तिर्यों में जानना चाहिए । ९७६३. आदेश से नारकियों में सोलह कषाय, छह नोकषाय, सम्यक्त्व और सम्यग्मि ध्यात्वा भंग श्रोघके समान है । मिध्यात्वकी अवक्तव्य स्थितिके उदोरक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे भुजगार स्थिति के उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित स्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पत्तर स्थितिके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं । इसीप्रकार नपुंसक वेद की अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यहाँ इसकी अवक्तव्य स्थिति के उदीरक जीव नहीं है । इसीप्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए । ६४. पचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक में ओके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि ference और नपुंसकवेदकी अवक्तव्य स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे भुजगार स्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अवस्थित स्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतर स्थिनिके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकों में वेद नहीं है । नपुंसकवेदका भंग पुरुषवेदके समान है। यानिनी तिर्यों में पुरुषवेद और नपुंसक वेद नहीं है। इनमें श्रीवेदकी अवक्तव्य स्थितिउदीरणा नहीं है। ३७६५ पचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मिध्यात्व और नपुंसक. Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० अयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो व संखे a ज० । श्रवट्टि० श्रसंखे० गुणा | अध्पद० संखे० गुणा । सोलसक० छण्णोक० श्रोधं । ९७६६. मणुसेसु मिच्छ०-सोलसक० सत्तणोक० पंचिदियतिरिक्खभंगो । सम्म० सब्वस्थोवा अवद्विः । भुजः संखे० गुणा | गणराज सम्मामि० सव्वत्थोवा अवत० | अप्पः संखे० गुणा । इत्थवे ० - पुरिसवे० सव्वत्थोवा अवत्त० । भुज० संखे० गुणा । अवद्वि संखे० गुणा । श्रप्पः संखे० गुणा । एवं मणुसप० । वरि संखेजगुणं कादव्वं । इत्थवेदो रास्थि । नुंस० पुरिसभंगो | ससिणी० एवं चेत्र । वरि पुरिसवे ० नपुंस० णत्थि । इत्थवेद ० मणुसोधं । ३७६७. देवेसु मिच्छ्र०-सोलसक० छण्णोक० सम्म० सम्मामि० णाश्यभंगो । इस्थिवेद- पुरिसवेद० मिच्छत्तभंगो | णवरि अवत्त० णत्थि । एवं भवणादि जाब सोहम्मीसाणेति । एवं सणक्कुमारादि जाव सहस्सार ति । खवरि इत्थिवेदो णत्थि । आणदादि णवगेवजा चि मिच्छ० सम्मामि सोलसक० इराणोक० सच्चत्थोवा श्रवत्त० । अप्पद० असंखे० गुणा । सम्म० सच्चस्थोवा भुज० । श्रवत्त० श्रसंखे० गुणा । वेदकी भुजगार स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे अवस्थित स्थिति उदीरक जीव असंख्यातगुण हैं । इनसे अल्पतर स्थितिके उदीस्क जीव संख्यातगुणे हैं। सोलह कषाय और छह नोकपाका भंग ओधके समान है । ९७६६. मनुष्यों में मिध्यात्व, सोलह कपाय और सात नोकपायका भंग पञ्चेन्द्रिय तिर्यों के समान है। सम्यक्त्वकी अवस्थित स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे भुजगार स्थितिके उदरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे अवक्तव्य स्थितिके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतर स्थितिके उदोरक जीव संख्यातगुणे हैं । सम्यमिध्यात्व की अवक्तव्य स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अल्पतर स्थितिके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। स्त्रीवेद और पुरुषवेदक अवक्तव्य स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे भुजगार स्थिति के उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे अवस्थित स्थितिके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे श्रल्पतर स्थितिके हीरक जीव संख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार मनुष्य पर्यातकों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि संख्यातगुण करना चाहिए। स्त्रीवेद नहीं है । नपुंसक वेदका भंग पुरुषवेद के समान है । मनुष्विनियोंमें इसीप्रकार जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है । ववेदका भंग सामान्य मनुष्यों के समान है । O $ ७६७, देशों में मिध्यात्व, सोलह कषाय, छह नोकषाय, सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वका भंग नारकियोंके समान है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदका भंग मिध्यात्व के समान है । इतनी विशेषता है कि इनकी अवक्तव्य स्थितिउदीरणा नहीं है । इसीप्रकार भवनवासियोंसे लेकर सौधर्म और ऐशान कल्पतकके देवोंमें जानना चाहिए। इसीप्रकार सनत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है। श्रम कल्पसे लेकर नौ मैत्रेयकतकके देवों में मिध्यात्व, सम्यरिमध्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकपायकी अवक्तव्य स्थितिके उदरिक जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे अल्पतर स्थिति के उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। सम्यक्त्वकी भुजगार स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। } F Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 गा० ६२] उत्तरपउिद्विदिउदीरणाए पदणिक्खेवमणिमोगद्दारं अप्प० असंखे गुणा । पुरिसवेद पत्थि अप्पाबहुअं । अदिसादि सम्वट्ठा त्ति सम्म०बारसक०-छएणोक० सम्वत्थोवा अवत्त । श्रप्प. असंखे गुणा । पुरिस० णस्थि अप्पाबहुअं । णवरि सबढे संखेजगुणं कादब्बं । एवं जाक० ।। ___ मार्गदर्शक आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज भुजगाराष्ट्रादउदारणा समत्ता। १७६८. पदणिखेचे तत्थ इमाणि तिषिण अणियोगद्दाराणि-समुक्त्तिणा सामित्तमप्पाबहुरं च । समुकित्तणाणु० दुविहं-जहण्णुक्कस्सभेएण | उकस्से पयर्द । दुविहो wिo---श्रोघेण आदेसेण य । श्रोघेण मिच्छ० सम्म०-सोलसक०-णवणोक० अस्थि उक्क० वड्डी० हाणी अबढाणं च ! सम्मामि० अस्थि उक्क. हाणी | आदेसेण सधणेरइय-सब्बतिरिक्ख-सव्यमणुस्स-सव्वदेचा त्ति जाओ पयडीओ उदीरिज्जति तासिमोघं । णवरि प्राणदादि णवगेवजा ति सम्म० अस्थि उक्क० वड्डी हाणी च | अवट्ठाणं णस्थि । सेसषयडीणपस्थि उक० हाणी । अणुहिसादि सन्नहा. त्ति सम्म०बारसक सत्तयोक० अस्थि उक० हाणी । एवं जाय० । ७६९, एवं जहण्णयं पिणेदव्वं । । ७७०. सामित्तं दुविहं-जह ० उक० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि--- ओघेण आदेसेण य । अोघेण मिच्छ०-सोलसक० उक्क वहिहिदिउदी० कस्स ? - इनसे प्रवक्तव्य स्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतर स्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुरणे हैं । पुरुषवेदकी अपेक्षा अल्पबहुत्व नहीं है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्व, बारह कषाय और छह नोकषायकी श्रवक्तव्य स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अल्पतर स्थितिके उदीरक जीव असंख्यासगुणे हैं। पुरुषवेदकी अपेक्षा अल्पबहुत्व नहीं है। इतनी विशेषता है कि सार्थसिद्धि में संख्यातगुणा करना चाहिए। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। इसप्रकार भुजगार स्थितिउदीरणा समाप्त हुई। ७६८. पदनिक्षेपमें ये तीन अनुयोगद्वार हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । समुत्कीर्तनानुगम दो प्रकारका है--जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है--ओघ और श्रादेश। ओरसे मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सोलह कषाय और नौ नोकपायकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थान है । सम्यग्मिथ्यात्वको उत्कृष्ट हानि है । आदेशसे सब नारकी, सब तिर्यछ, सत्र मनुष्य और सब देव जिन प्रकृसियोंकी उदीरणा करते हैं उनका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि मानतकल्पसे लेकर नौ अवेयकतकके देवोंमें सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट वृद्धि और हानि है। प्रस्थान नहीं है। शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट हानि है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकपायकी उत्कृष्ट हानि है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। F७६६. इसीप्रकार जघन्यका भी कथन करना चाहिए । ६७७०. स्वामित्व दो प्रकारका है-जधन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयथवालासहिदे कसायपाहुडे [बेगो . अण्णद. जो तप्पागोग्ग-जहण्णद्विदिमुदीरेमाणो उकस्सविदि पबंधो तस्स आरलियादीदस्स तस्स उक्क० बलिउदी | तस्सेव से काले उक० अवठ्ठाणं । उक्क० हाणी कस्स ? अणदूरस्म जो करसद्दिशिदीमागे उहासडिदिखंडयं हणदि तस्स उक० हाणी । एवं णवणोक । णवरि उक० वड्डी कस्स ? अण्णद. जो तप्पाअोग्गजहण्णद्विदिमुदीरेमाणो उकस्सहिदि पडिच्छिदो तस्स आवलियादीदस्स उक्क० वड्डी | तस्सेत्र से काले उक्क० अवट्ठाणं । सम्म० उक्क. चड्डी कस्स ? अगद० मिच्छत्तस्स उकस्सदिदि बंधिऊण अंतोमुत्तेण डिदिघादमकाण सम्मत्तं पडिवण्णो तस्स विदियसमयवेदगमम्माइद्विस्स उक्क० वड्डी । उक० हाणी कस्स ? अण्णद० जो उकस्स हिदिमुदीरेमाणो उक्क डिदिखंडयं हणदि तस्स उक्क हासी । उक. यहाणं कस्स ? अण्णद. जो पुव्वुप्पएगादो सम्मत्तादो मिच्छत्तस्स सययुत्तरद्विदि बंधिऊण सम्मत्तं पडिवपणो तस्स बिदियसमय वेदगसम्भाइडिस्स उक० अबढाणं । सम्मामि० उक्क. हाणी कस्स ? अण्णद० जो उकस्सद्विदिमुदीरेमाणो उक• डिदिखंडयं हणदि तस्म उक. हाणी । सब्बणेरइय-निरिक्ख-पंचिंदिय-तिरिक्खतिय-मणुमतिय-देवा भरणादि जाव सहस्मार त्ति जाओ पपडीयो उदी रज्जति तासिमोघं । दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व और सोलह कषायकी उत्कृष्ट वृद्धि स्थितिउदीरणा किसके होती है ! जो तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिकी उदारणा करनेवाला उत्कृष्ट । स्थितिका बन्ध करता है, एक आवलिके बाद अन्यतर उस जीवके उत्कृष्ट वृद्धि स्थितिउदीरणा' होती है। तथा उसीके अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। उत्कृष्ट हानि स्थितिउदीरणा किसके होती है ? जो उत्कृष्ट स्थिति की उदीरणा करनेवाला जीव उत्कृष्ट स्थितिकाण्डकका बात करता है अन्यतर उस जीवके उत्कृष्ट हानि स्थिति उदीरणा होती है। इसीप्रकार नौ नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी उत्कृष्ट वृद्धि स्थिति उदीरणा किसके होती है ? जो नत्यायोग्य जघन्य स्थितिकी उदारणा करनेवाला जीव उस्कृष्ट स्थितिका नौ नोकपायरूप संक्रम करता है, अन्यतर उसके एक प्रावलिके बाद उत्कृष्ट वृद्धि स्थितिउदीरणा होती है। उसीके तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। सम्यक्त्वको उत्कृष्ट वृद्धि स्थितिउदीरणा किसके होती है ? जा मिध्यात्वको उत्कृष्ट स्थिति बाँधकर स्थितिघात किये बिना अन्तर्मुहूर्त में सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ अन्यतर द्वितीय समयवर्ती उस वेदक सम्यन्द्रष्टिके उत्कृष्ट वृद्धि स्थितिउदीररणा होती है। उत्कृष्ट हानि स्थिति उदारणा किसके होती है. ? जो उत्कृष्ट स्थितिकी बदौरा करनेवाला उत्कृष्ट स्थितिकाण्डकका घात करता है अन्यतर उसके उत्कृष्ट हानि स्थिति उदीरणा होती है । उत्कृष्ट भवस्थान किसके होता है ? जो पूर्वम उत्पन्न हुए सम्यक्त्वसे ( पूर्वमें उत्पन्न हुई सम्यक्त्वकी स्थितिसे) मिथ्यात्वकी एक समय अधिक स्थितिका बन्धकर सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ दूसरे समय में स्थित हुए अन्यतर उस वेदकसम्यादि जीवके उत्कृष्ट अवस्थान होता है । सभ्यमिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि स्थिति उदोरणा किसके होती है ? जो उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा करनेवाला जीव उत्कृष्ट स्थितिकारकका घात करता है अन्यतर उसके उत्कृष्ट हानि स्थिति उदीरणा होती है । सब नारकी, सामान्य तिर्यश्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिक, मनुष्यत्रिक, देव तथा भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देष जिन प्रकृतियों को उदीरणा Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरपयडिडिदिउदीरणाए पदवियोगारं ३५३ पंविदिषतिरिक्त मिच्छ० - सोलसक० सत्तणोक० उक० वड्डी कस्स ? अगद० जो तप्पा ओग्गजहणट्ठिदिमुदीरे माणो तप्पा ओग्गउक्क०द्विदमुदीरेदि तस्स उक्क० बढी । तस्से से काले उक्क० श्रवाणं । उक्क हाणी कस्स ? अण्णदरस्स मणुस्स - मणुस्सिणीए वा पंचिदियतिरिक्खजोणिणीयस्स वा उस्सट्टिदि वादयमाणो अपजतपसु उववरणो तस्त्र उक्क० डिदिखंडगे हदे तस्स उक० हाणी । गा० ६२] १७७२. श्राणदादि गाववजा त्ति मिच्छ०-सोलसक० सत्तणोक० उक० हाणी कस्स ? अण्णद० तप्पाश्रोग्गउक० डिदिमुदीरेमाणो पढमसम्मत्तादिमुहेण पढमे द्विदिखंडए हदे तस्स उक० हाणी | सम्म० उक० वड्डी० कस्स १ प्रणद० जो वेदगसम्मत्तपाश्रोग्गजहण्णडिदिसंतकम्मि० सम्मत्तं पडित्रणो तस्य विदिवसमयवेदसम्माइट्टिस्स उक वही । उक० दाणी कस्स १ अण्णद० जो तप्पा योग्गउक०द्विदिसंतकमि० श्रणंताणुर्वधि विसंजोजयस्स पढमे ट्ठिदिखंडए हृदे तस्स उक्क० हाणी | सम्मामि० उ० हाणी कस्स १ अण्णद० अट्ठिदिं गालेमाणमस्स तस्स उक० हाणी | ६ Ame hain. 0 करते हैं उनमें उनका भंग ओघ के समान है । ६ ७७१. पचेन्द्रिय तिर्यन अपर्याप्त और मनुष्य अपर्यातकों में मिध्यात्व, सोलह कपाय और सात नोकपायकी उत्कृष्ट वृद्धि स्थितिउदीरणा किसके होती है ? जो तत्रायोग्य जघन्य स्थितिकी उदीरणा करनेवाला जीव तत्प्रायोग्य उत्कुष्ट स्थितिकी उदीरणा करता है अन्यतर उसके उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा होती है । उसीके तदनन्तर समय में उत्कृष्ट अवस्थान होता है । उत्कृष्ट दानि स्थितिउदीरणा किसके होती है ? जो मनुष्य या मनुष्यिती या पञ्चेन्द्रिय तिर्यखयोनि जीव उत्कृष्ट स्थितिका घात करता हुआ अपयशको उत्पन्न हुआ अन्यतर उस जीवके उत्कृष्ट स्थितिकाडकका घात करनेपर उत्कृष्ट हानि स्थितिउदीरणा होती है । ७ ७७२. अनतकल्पसे लेकर नौ मैत्रेयक तक के दवा में मिथ्यात्य, सोलह कषाय और सात नोकषायकी उत्कृष्ट हानि स्थितिउदीरणा किसके होती है ? तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिको उदीरणा करनेवाला जो जीव प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख होकर प्रथम स्थितिका एडकका घात करता है अन्यतर उसके उत्कृष्ट हानि स्थितिउदीरणा होती हैं। सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट वृद्धि स्थितिउदीरणा किसके होती है ? वेदकसम्यक्त्वके प्रायोग्य सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिसत्कर्मवाला जो जीव सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ दूसरे समय में स्थित अन्यतर उम्र वेदकसम्यग्दृष्टि जीवके उत्कृष्ट वृद्धि स्थितिउदीरणा होती है । उत्कृष्ट हानि स्थितिउदीरणा किसके होती है ? तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मवाले जिस जीवने अनन्तानुबन्धीकी त्रिसंयोजना करते हुए प्रथम स्थितिकाण्डकका घात किया है उसके उत्कृष्ट हानि स्थितिउदीरणा होती है। सम्यग्मिध्यात्वकी उत्कृष्ट हानि स्थितिश्वदोरणा किसके होती है ? अधःस्थितिको गलानेवाले अन्यतर जीवके उसकी उत्कृष्ट हानि स्थितिउदीरणा होती है । ४५ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयघषलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो. ६७७३. अणुद्दिसादि सव्वट्ठा त्ति सम्म०-बारसक०-सत्तणोक० उक्क • हाणी कम्स ? अपणद० अर्णताणुबंधि विसंजोजयस्स पढमे छिदिखंडए हदे तस्स उक. हाणी । एवं जाव० । ७७४, जहण्णए पयदं। दुविहो णि-पोधेण श्रादेसेण य । ओषेण मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक० जह० वड्डी कस्स ? अएणद. जो समयणहिदिमुदीरेमाणो उकस्सद्विदिसुदीरेदि तस्स जह० वड्डी। जह० हाणो कस्म ? अण्णद. जो उक० द्विदिमुदीरेमारणो समऊणहिदिमुदीरेदि तस्स जह० हाणी । एगदरस्थावद्वाणं | सम्भ० जइ. बड्डी कस्स १ अण्णद० जो पुच्चुप्पण्णादो सम्मत्तादो मिच्छत्तस्स दुसमयुत्तरं मरिलिक्विंधिवासम्मतपडिवण्णी तस्स विदियसमय वेदगसम्माइहिस्स जह० वड्डी | जब० अवहारणमुक्कस्मभंगो। जह० हाणी कस्स ! अण्णद० अधहिदि गालेमाणयस्स तस्स जह• हाणी । सम्मामि० जह० हाणी कस्स ? अण्ण अधदिदि गालेमाणगस्स । 5७७५. प्रादेसेण सत्रणेरइय-सव्यतिरिक्ख-सब्वमणुस्स-देवा भवणादि जाव सहस्सार त्ति जाओ पयडीओ उदीरिजंति तासिमोघं | श्राणदादि पवगेवजा सि ७७३. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवों सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात मोकषायकी उत्कृष्ट हानि स्थिति उदीरणा किसके होती है ? अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवालेके प्रथम स्थितिकाण्डकका घात करनेपर उनकी उत्कृष्ट हानि स्थितिउदीरणा होती है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणाचक जानना चाहिए। ६७७४. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-मोघ और भादेश । भोरसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायकी जघन्य वृद्धि स्थितिजदीरणा किसके होती है जो एक समय कम स्थितिकी उदीरणा करनेवाला जीव उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा करता है अन्यतर उसके जन प्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धि स्थितिउदीरणा होती है । जघन्य हानि स्थितिउदीरणा किसके होती है जो उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा करनेवाला जीव एक समय कम स्थितिकी उदीरणा करता है अन्यतर उसके उन प्रकृतियोंकी जघन्य हानि स्थितिउदीरणा होती है। तथा किसी एक स्थानपर जघन्य अवस्थान होता है। सम्यक्त्वकी जघन्य वृद्धि स्थितिउदीरणा किसके होती है ? जो पूर्वमें उत्पन्न हुए सम्यक्त्वकी स्थितिसे मिथ्यात्वकी दो समय अधिक स्थितिका बन्ध कर सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ, दूसरे समयवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टि अन्यतर उस सभ्यग्दृष्टिके उसकी जघन्य वृद्धि स्थितिउदीरणा होती है। जघन्य अवस्थानका भंग उत्कृष्टके समान है। जघन्य हानि स्थिति उदीरणा किसके होती है ? अधःस्थितिको गलानेवाले अन्यतर उस जीवके उसकी जघन्य हानि स्थिति उदीरणा होती है। सभ्यग्मिध्यात्वकी जघन्य हानि स्थिति उदीरणा किसके होती है ? अधःस्थितिको गलानेवाले अन्यतर जीवके उसकी जघन्य हानि स्थितिउदीरणा होती है। ९७७५. आदेशसे सच नारकी, सब तिर्यञ्च, सब मनुष्य, देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देव जिन प्रकृतियोंकी प्रदीरणा करते हैं उनका भंग प्रोपके समान है। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तं Jud " गा० ६२ ] उत्तरपयडिहि दिउदीरणाए पदणिक्खेवमणिओगारं सम्म० जह० वड्डी कस्स १ अण्णद० जो सम्माइट्ठी मिच्छतं गंतरा एममुच्वेल्लणकंदयमुब्वेल्लेऊण सम्मतं पडिवण्णो तस्स बिदियसमयवेदयसम्पादट्ठिस्स जह० बढी | जह० हाणी कस्स० १ ऋणद० श्रघट्टिदि गालेमाणगस्स तस्स जह० दाणी | मिच्छ०सम्मामि० सोलसक० - सत्तरोक० जह० हाणी कस्स ? अण्णदरस्स अधविदि गालेमाणगस्स । अणुद्दिसादि सव्वा ति सम्म०-वारसक० सत्तणोक० जह० हाणी कस्स १ ० विदिं गालेमाणयस्स तस्स जह० हारणी । एवं जाव० । ३५५ 11 ७७६. अप्पा वहु दुविहं जह० उक० | उकस्से पयदं । दुविहो शि० - घे आदेय । श्रषेण मिच्छ० सोलसक० णवणोक० सव्वत्थोवा उक० हाणी | चड्डी अडाणं च विसेसाहियं । सम्म० सव्वत्थोवमुक्कस्समवद्वाणं । उक्क० हाणी अखेर उफाळी दिसेनासमाजास्थि अप्पाबहूअं । - O ७७७ आदेसेण सुवणेरयतिरिक्ख-पंचिदियति रिक्वतिय मणुसतिय- देवा भवणादि जाव सहस्सार त्ति जाओ पयडीओ उदीरिजंति वासिमोघं । पंचिंदियतिरिक्खश्रपञ्ज० - मणुस पल० मिच्छ० सोलसक० - सुत्तोक० सव्वत्थोवा उक० चड्डी श्रवद्वाणं च । उक्क० हाणी संखे० गुणा । श्राणदादि बगेवजा त्ति खत्थि अध्याबहुअं । श्रान्तकल्पसे लेकर नौ मैवेयक तक्के देवों में सम्यक्त्वको जघन्य वृद्धि स्थितिउदीरणा किसके होती है ? जो सम्यग्दृष्टि मिथ्यात्वको प्राप्त होकर एक उद्वेलना काण्डक्की उद्वेलना कर सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ, दूसरे समय में स्थित अन्यतर उस वेदकसम्यम्द्रष्टि जीवके उसकी जन्य वृद्धि स्थितिउदीरणा होती है । जयन्य हानि स्थितिउदीरणा किसके होती है १ अधःस्थितिको गलानेवाले अन्यतर जीवके उसकी जघन्य हानि स्थितिउदीरणा होती है | मिध्यात्व, सम्यग्मिध्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकपायकी जघन्य हानि स्थितिउदीरणा किसके होती है ? अधःस्थितिको गलानेवाले अन्यतर जीवके उनकी जघन्य हानि स्थितिउदीरणा होती है । शिसे लेकर सर्वार्थसिद्धितके देवोंमें सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकषायकी जघन्य हानि स्थितिउदीरणा किसके होती हैं ? अधःस्थितिको गलानेवाले अन्यतर जीवके उनकी जघन्य हानि स्थितिउदीरणा होती है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। ९७७६. अल्पमत्व दो प्रकारका है- जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-- श्रोध और आदेश । श्रघसे मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायकी उत्कृष्ट हानि सबसे स्तोक है। उससे उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान विशेष अधिक है । सम्यक्त्वका उत्कृष्ट अवस्थान सबसे स्तोक है। उससे उत्कृष्ट हानि श्रसंख्यातगुणी हैं। उससे उत्कृष्ट वृद्धि विशेष अधिक है। सम्यग्मिथ्यात्वका अल्पबहुत्व नहीं है । १७७७ आदेश से सब नारकी, तिर्यख पञ्चेन्द्रिय तिर्यवत्रिक, मनुष्यत्रिक, देव और भवनवासियों से लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंमें जिन प्रकृतियों की उदीरणा होती है उनका भंग ओके समान हैं । पञ्चेन्द्रिय तिर्या अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मिध्यात्व सोलह कपाय और सात नोकषायकी उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान सबसे स्तोक है। उससे उत्कृट हानि संख्यातगुणी है। श्रामतकल्पसे लेकर नौ मैत्रेयकतकके देवोंमें अल्पबहुत्व नहीं Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ णवरि सम्म सव्यस्थोवा उक्क० हाणी। बड्डी संखे गुणा | अणुद्दिसादि सव्वट्ठा त्ति णस्थि अप्पाबहुअं। एवं जाव० । ७७८, जहः पयद । दुविहो णि.--ोघेण श्रादेसेण य । श्रोघेण मिच्छ.. सोलसक०-णवणोक-सम्म० जह० बड्डी हाणी अवट्ठाणाणि सरिसाणि । सम्मामि० णस्थि अप्पाबहुअं। ७७९. श्रादेसेण सधणेग्इय०-सच्चतिरिक्ख-सन्धमणुस-देवा भवणादि जाव सहस्सारा त्ति जाओ पयडीओ उदीरिजति तासिमोघं । आणदादि णयगेवजा त्ति णत्थि अप्पाबहुअं । गरि सम्म० सन्चथोवा जहणिया हाणी। जहरिणया बड्डी असंखेजगुणा । अणुद्दिसापिला तिमयि श्रीप्पवित्राणाची जागान ७८०. बड्डिष्टिदिउदीरणाए तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणिसमृक्तित्तणा जाव अपायहुए ति । समुकिवणाणु० दुविहो गि-अोघेण आदेसेण य । श्रोघेण मिच्छ०-सम्म० इस्थिवे०-णस० अत्थि तिएिणववि-चत्तारिहाणिअवद्विदाणि-अवत्त० । सम्मामि० अस्थि तिणिहाणि-अवत्त० । बारसक० छण्णोक० अस्थि तिण्णिववि-हाणि-अवढि०-अयत्त । चदुसंज०-पुरिसवे० अस्थि चत्तारिखड्डिहाणि-अवठ्ठाणमवत्तव्ययं च । एवं मणुसतिए । रणवरि पुरिसवे. असंखेगुणबड्डी० है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट हानि सयसे स्तोक है। उससे उत्कृष्ट वृद्धि । संख्यातगुणी है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धिनकके देवों में अल्पबहुत्व नहीं है। इसीप्रकार . अनाहारक मागेरणातक जानना चाहिए। ७८. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है.-ओघ और आदेश । मोघसे मिध्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय और सम्यक्त्वकी जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान समान हैं। सम्यग्मिथ्यात्वका अल्पबहुत्व नहीं है। ६७७६. श्रादेशसे सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सब मनुष्य, देव और भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकक देवों में जिन प्रकृतियाकी उदीरंगा होती है उनका भंग ओघके समान है। आनतकल्पसे लेकर नौ अवेयकतकके देवों में अल्पबहुत्व नहीं है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी जघन्य हानि सबसे स्तोक है। उससे जघन्य वृद्धि असंख्यातगुणी है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धिलकके देवोंमें अल्पबहुत्व नहीं है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। ६७८०. वृद्धि स्थितिउदीरणाका प्रकरण है। उसमें ये तेरह अनुयोगद्वार हैंसमुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक । समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैऔर और प्रादेश। ओघसे मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, स्त्रीवेद और नपुसकवेदकी तीन वृद्धि, चार हानि, अवस्थान और अवक्तव्य स्थिति उदारणा है। सम्यग्मिध्यात्वकी तीन हानि और अवक्तव्य स्थितिउदीरणा है। बारह कषाय और छह नोकपायकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अबक्तव्य स्थितिउदीरणा है। चार संज्वलन और पुरुषवेदकी चार वृद्धि, चार हानि, अवस्थान और प्रवक्तव्य स्थिति उदीरणा है। इसीप्रकार मनुध्यत्रिकमें जानना Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ j मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज उत्तरपयडिद्विदिउदीरणाए वडिडिदिदीरा ३५७ मा० ६२ ] गारं त्थि । पञ्जए इत्थवेदो गत्थि । मणुसिणी० पुरिस० एस० णत्थि | ६ ७८१. श्रादेसेण णेरड्य० मिच्छ० सम्मामि० श्रोषं । सम्म० - सोलसक०सत्तणोक० अस्थि तिष्णिवड्डि- हाणि वडि० अवत्त० । खबरि बुंस० अवत० स्थि । एवं सव्वरइय० । ९ ७८२ तिरिक्खेसु मिच्छ० सम्म० सम्मामि० सोलसक० छण्णोक० णारयभंगो | तिणिवेद अस्थि तिष्णिवड्डि हारिण- श्रवट्टि० - अवत्त० । एवं पंचिदियतिरिक्खतिर । वरि पज्जतए इत्थिवेदो णत्थि । जोणिणीसु पुरिसवेद - णवुंस० णत्थि । इत्थवेद० अवत्तः णत्थि । पंचिदियतिरिक्खञ्चपज ० - मणुस पज० मिच्छ५- णत्रु स० अस्थि विष्णिवडितिष्णिहाणि वडि० | सोलसक० ऋणोक० पारयभंगो | ३७८३. देवेसु दंसणतिय - सोलसक० अणोक० तिरिक्खभंगो । णवरि इत्थवेद - पुरिसवेद० अवत्त० णत्थि । एवं भणादि जाव सोहम्मीसारखा ति । एवं सणकुमारादि जाव सहस्सारा त्ति । णवरि इत्थवेदो स्थि । ९ ७८४. आणदादि एत्रमेवजाति मिच्छ० अस्थि असंखे० भागहारिण-संखे० भागहाणि संखे० गुणहाणि अवत्त० उदीर० । सम्म० तिण्णिवड्डि- दोहाणि अवत्त०चाहिए | इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदक असंख्यात गुणवृद्धि नहीं है। पर्याटकों में स्त्रीवेद नहीं है तथा मनुष्यनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है । } ६५८१. आदेश नारकिया में मिथ्यात्व और सम्यग्मिध्यास्त्रका भंग श्रधके समान है। सम्यक्त्व, सोलह कषाय और सात नोकपायकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिउदीरणा है। इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदको अवक्तव्य स्थितिउदीरणा नहीं है । इसीप्रकार सब नारकियों में जानना चाहिए । ७ ६७८२ तिर्यञ्चा में मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकाया भंग नारकियोंके समान है। तीन वेदोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिउदीरणा है। इसीप्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है । योनिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है । इनमें स्त्रीवेदकी अवक्तव्य स्थितिउदीरणा नहीं है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यक्रच अपर्याप्त और मनुष्य पर्यातकों में मिध्यात्व और नपुंसक वेदकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित स्थितिउदीरणा है | सोलह कपाय और छह नोकषायका भंग नारकियों के समान है । ६७८३. देवों में तीन दर्शनमोहनीय, सोलह कषाय और आठ मोकषायका भंग सामान्य तिर्यों के समान है । इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अवक्तव्य स्थितिउदीरणा नहीं है । इसीप्रकार भवनवासियोंसे लेकर सौधर्म और पेशान कल्पतकके देवों में जानना चाहिए तथा इसीप्रकार सनत्कुमार कल्पसे लेकर ससार कल्पतकके देवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है । ७४. नतकल्पसे लेकर नौ प्रवेयकतकके देवोंमें मिथ्यात्व की असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि, असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्य स्थितिउदीरणा है । सम्यक्त्वकी तीन Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक- प्रचार्य श्री सांवधिसागर जी मह ३५८ अयधवलासहिदे कसायपाहुडे 1 [वेदगो उदी० । सम्मामि० अस्थि असंखे भागहाणि-अवतः । सोलसक०-छण्णोक अस्थि असंखे भाणहाणि संखे भागहाण अवतरला एवं पुरिसवेद । णवरि अवस० स्थि । अणुहिसाँदि सब्वट्ठा ति सम्म०पारसक-एणोक० अस्थि दोहाणि-अवत्त । एवं पुरिसवेद० । णवरि अवत्त० पस्थि । एवं जाव।। ६७८५. सामित्ताणु० दुविहो णि-अोघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०. अणंताणु० चउक्क. सबपदा कस्स ! अण्णद० मिच्छाइद्विस्स | सम्म सवपदा कस्स ! अण्णद० सम्माइद्विस्स | सम्मामि. सधपदा कस्स ! अण्ण सम्मामिच्छाइदिस्स । बारस०-गवणोक० तिण्णिवड्डि-अयहि कस्स ? अण्णद मिच्छाइद्विस्स । तिष्णिहाणि-अवत्त० कम्म ? अण्णद० सम्माइ द्रु० मिच्छाइद्विस्स वा । णवरि चदुसं जल-पुरिसवे. असंखे०गुणवड्डि-हाणि० इत्थिवे०-णवुस० असंखे०गुणवड्डि-हाणि कस्स ? अण्णद० सम्माइद्विस्स । एवं मणुसतिए । णवरि पुरिसवे०चदुसंजल० असंखेजगुणवड्डि० णस्थि । णिसेयपहाणत्ते चदुसंजल० असंखे गुणवडि. मणुसतिए वि संभवइ, खबगसेढीए किट्टीवेदगम्मि संगहकिट्टीणं संधीसु तदुचलंभादो । लोभसंजलणस्स पुण कालपहाणसे वि असंखेजगुणवाहि. अस्थि, उत्रसमसेढीए सुहुम वृद्धि, दो हानि और प्रवक्तव्य स्थितिउदीरणा है। सम्यग्मिध्यात्यकी असंख्यात भागहानि और अवक्तव्य स्थिति उदीरणा है। सोलह कषाय और छह नोकपायकी असंख्यान भागहानि, . संख्यात भागहानि और अवक्तव्य स्थिति उदीरणा है। इसीप्रकार पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसकी प्रवक्तव्य स्थिति उसीरणा नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धिलकके देवों में सम्यक्त्त, बारह कषाय और छह मोकपायकी दा हानि और प्रवक्तव्य स्थिति उदीरणा है । इसीप्रकार पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसकी प्रवक्तव्य स्थितिउदीरणा नहीं हैं । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। fu६५. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-प्रोध और आदेश । ओघसे मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके सब पद किसके होते हैं ? अन्यतर मिध्यादष्टिके होते हैं । सम्यक्त्वके सब पद किसके होते हैं । अन्यतर सम्यग्दृष्टिके होते हैं । सम्यग्मिध्यात्वके सब पद किसके होते हैं। अन्यतर सभ्यग्मिथ याष्टिके होते हैं। बारह कवाय और नी नोकषायकी तीन वृद्धि और अवस्थित स्थितिउदीरणा किसके होती है ? अन्यतर मिथ्याष्टिके होती है। तीन हानि और अवक्तव्य स्थितिउदोरणा किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि या मिथ्याटिके होती है। इतनी विशेषता है कि चार संज्वलन और पुरुषवेदको असंख्यात गुणवृद्धि और असंख्यात गुणहानि तथा खीवेद और नपुंसकवेदकी असंख्यात गुणवृद्धि और असंख्यात गुणहानि स्थितिउदीरणा किसके होती हैं ? अन्यतर सम्यग्दृष्टिक होती है। इसीप्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि पुरुषवेद और चार संसल नको असंख्पास गुणवृद्धि स्थिति उदारणा नहीं है। निषेकोंकी प्रधानतामें चार संचलनको असंख्पात गुणवृद्धि स्थिति उदीरणा मनुष्यत्रिको भी सम्भव है, क्योंकि क्षपकौणिमें कृष्टिरेदकके संप्रहकृष्टियों को सन्धियोंमें बह पाई जाती है। परन्तु लोभसंज्वलनको कालकी प्रधानतामें भी प्रसंख्यात Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा• ६२] सत्तरपयडिटिदिउदीरणाए व िद्विविउदीरणाणियोगहारं ३५६ किट्टीवेदगयढमसमए परिप्फुडमेव तदुत्रलंभादो । णवरि एवंविहसंभवो उच्चारणाकारेण ण विवक्खियो । पञ्जत्तएसु इस्थिवेदो णस्थि । मणुसिणीसु पुरिसवेद-णवंस० णस्थि । इथिवेद० अवस० सम्माइडिस्स ! ७८६. प्रादेसेण णेरहय० मिच्छ०-सम्मामि० अणंताणु०४ श्रोघं । सम्म० ओ । परि असंखे०गुण हाणि० णस्थि । बारसक०-छण्णोक० ओघं । णवरि चदुसंज० असंखे०गुणवडि-हाणि गस्थि । एवं णवुस । णयरि अवत्त स्थि । एवं सवणेरइय । तिरिक्खेसु पढमपुढविभंगी। वरि तिण्णवे. तिण्णिवडि-हाणि-अद्विः ओघ । अवत्तकसी अग्ण मिसाइटिस कम्पादियतिरिक्ख तिए । गवरि पज० इस्थिवेदो णस्थि । जोणिणीसु पुरिसवेल-गबुस० णथि । इथिवे. अवत्त० पथि । पंचिंतिरिक्खअपज०-मणुसअपज. अणुद्दिसादि सव्वट्ठा ति सबपयडीणं सवपदा कस्स ? अण्णदरस्स । ७८७. देवेसु मिच्छ०-सम्मामि०-सम्म०-सोलसक०-अतुणोक० तिरिक्खभंगो। णवरि इस्थिवे०-पुरिसवे० प्रवत्त० णस्थि । एवं भवणादि जाव सोहम्मीसाणा गुणधृद्धि स्थितिउदीरणा है, क्योंकि उपशम श्रेणिमें सूक्ष्म कृष्टिवेदकके प्रथम समय में स्पष्ट रूपसे बह उपलब्ध होती है। इतनी विशेषता है कि इसप्रकारका सम्भव उच्चारणाकारने विवक्षित नहीं किया । पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है तथा मनुज्यिनियों में पुरुषवेद और नसकवंद नहीं है। इनमें स्त्रीवेदकी श्रवक्तव्य स्थिति उदीरणा सम्यग्दृष्टिके होती है। ७८६. श्रादेशसे नारकियों में मिथ्यात्व, सम्यम्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुरुकका भंग पोषके समान है । सम्यक्त्वका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि असंख्यात गुणहानि स्थितिउदीरणा नहीं है। धारह कषाय और छह नोकषायका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि चार संज्वलनकी असंख्यात गुणवृद्धि और असंख्यात गुणहानि स्थितिउदीरणा नहीं है। इसीप्रकार नपुसकवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य स्थितिब्दीरणा नहीं है। इसीप्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। तिर्यञ्चों में प्रथम पृथिवीके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि तीन वेदोंकी तीन वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित स्थिति उदीरणाका भंग ओघके समान है। प्रवक्तव्य स्थितिउदीरणा किसके होती है ? भन्यतर मिथ्यादृष्टिके होती है। इसीप्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है। योनिनियों में पुरुषवेद और न सकवेद नहीं है। इनमें स्त्रीवेदकी प्रवक्तव्य स्थितिउदारणा नहीं है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पद किसके होते है ? अन्यतरके होते हैं। ६७८७. देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व,सोलह कषाय और आठ नोकषायका भंग तिर्योंके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी प्रवक्तव्य स्थितिउदारणा नहीं है । इसीप्रकार भवनवासियोंसे लेकर सौधर्म और ऐशान कल्पतकके देवों में Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगवलासहिये कसायपाहुडे ३६० ति । एवं सरणकुमारादि सहस्सार ति । णवरि इस्थिवेदो णत्थि | Q १७८८ आणदादि णचगेवञ्जा त्तिमिच्छ०- प्रांता०४ सव्वपदा कस्स १ अण्णद० मिच्छाइट्टि० | सम्म० सम्पदा सम्माइट्टिस्स | सम्मामिच्द्र० सगपदा सम्मामिच्छाइट्टिस्स | बारसक० सत्तणोक० सगपदा कस्स ? अण्णद० सम्माइडि० मिच्छाइडि० वा । एवं जाव० । [ वेदगो < १७८९. कालानु० दुविहो णि० - श्रधेण आदेसेल य । श्रघेण मिच्छ० तिष्णिवडि० जह० एम०, उक० वे समया । श्रसंखे० भागहाणि० जह० एयस०, उक० एकतीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । तिरिणहाणि श्रवत्त० जहण्णुक० एयसमओ । श्रहि० जह० एगममश्र, उक० अंतोमु० | सम्म० असंखे ० भागहाणि ० जह० अंतो०, उक्क० यावद्विसागरो० देखूणाणि । सेसपदा० जह० उक० एगसमओ | सम्मामि० असंखे ० भागहारिण० जह० उक० अंतोमु० | दोहाणि अवत० जह० उक्क० एगमः | सोलसक--भय-दुर्गुछ० असंखे० भागवडि० जह० एस० उक० सत्तारस समया भागहाणि श्रम, उतीमु० | सेसपदाणं मिच्छत्तभंगी । वरि चदुसंजल० असंखेजगुणवडि-हाणि० जह० उक० एस० । पुरिसवे० असंखे०जानना चाहिए। इसीप्रकार सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्पतकके क्षेत्रों में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद् नहीं है। 7 ७८८. नवकल्प से लेकर नी मैत्रेयकतक के देशों में मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धीare सब के होते हैं ? श्रन्यतर मिध्यादृष्टिके होते हैं। सम्यके अपने पद सम्यग्दपिके होते हैं । सम्यग्मिथ्यास्त्र के अपने पद सम्यग्मिध्यादृष्टिके होते हैं। बारह कषाय और सात नोकराके अपने पद किसके होते हैं ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि या मिध्यादृटिके होते हैं । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए | ९ ७८. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— श्रघ और आदेश । श्रोषसे मिध्यात्वकी दीन वृद्धि स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर है। तीन हानि और अवक्तव्य स्थितिउदीरखाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अवस्थित स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्वकी असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणाका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम छासठ सागर हैं। शेष पद स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यात भागद्दानि स्थितिउदीरणाका जनन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। दो हानि और अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृ काल एक समय है | सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी असंख्यात भागवृद्धि स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सत्रह समय है । असंख्यात भागद्दानि स्थितिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। शेष पदोंका भंग मिथ्यात्व के समान है । इतनी विशेषता है कि चार संज्वलनकी असंख्यात गुणवृद्धि और Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपडिविविउदीररणाए पड्डिडिदिजदीरणाणिप्रोगहार ३६१ भागहाणि जह० एगस०, उक्क० तेवद्विसागरोवमसदं । संखे०भागवडि० जह० उक० एगस० । सेसपदा संजलणभंगो । एवमिस्थिवेद । णवरि असंखे गुणवटी पत्थि । असंखे०भागहाणिक जह० एगस०, उक० पणवण्णपलिदो० देसूणाणि । एवंस० संजलणभंगो । णवरि असंखे०गुणवड्डि. णस्थि । असंखे०भागहाणि० जह० एगस०, उक० तेसीसं सागरो० देसूणाणि । हस्स-रदि० असंखे०भागहा. जह० एगस०, उक्क० लम्मासं । सेसपदाणं भयभंगो। अरदि-सोग. असंखे० भागहा० जह० एगस०, उक्क० पलिदो. असंख० भागो । सेसपदाणं भयानगशीक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज असंख्यात गुणहानि स्थिति उदारणाका जवन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। पुरुषवेदकी असंख्यान भागहानि स्थिति उदीरखाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल एकसो त्रेसठ सागर है । संख्यान भागवृद्धि स्थिति उदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। शेष पदोंका भंग संचलनके समान है। इसीप्रकार स्त्रीवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि असंख्यात गुणवृद्धि स्थितिउदीरणा नहीं है। असंख्यात भागहानि स्थिति उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम पचवन पल्य है । नपुसक. वेदका भंग संज्वलनके समान है। इतनी विशेषता है कि असंख्यात गुणवृद्धि स्थिति उदारणा नही। असंख्यात भागहालि स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कोकम तेतीस सागर है। हास्य और रतिकी असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है भीर उत्कृष्ट काल छह महीना है । शेष पदीका भंग भयके समान है। अरति और शोककी असंख्यात भागहानि स्थिति उदीरणाका जघन्य काल एक समय है भौर उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यात भागप्रमाण है। शेष पदोंका भंग भयके समान है। विशेषार्थ जो जीव अचाक्षय या संक्लेशक्षयसे एक समयता मिथ्यात्वकी स्थितिको बढ़ाकर बाँधता है और एक श्रावलि के बाद उसी रूपमें उसकी उदीरणा करता है। उसके मिथ्यात्वकी वृद्धि स्थितिउदीरणा पाई जाती है जो असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि और संख्यात गुणवृद्धि इन तीनों रूप सम्भव है। इसलिए मिथ्यात्वकी इन तीन वृद्धि स्थिति उदारणाओंका जघन्य काल एक समय कहा है। इनका उत्कृष्ट काल दो समय है। खुलासा इस प्रकार है-प्रथम समयमें अद्धाक्षयसे और दूसरे समयमें संक्लेशक्षयसे मिथ्यात्वका असंख्यात वृद्धिरूप स्थिति बन्ध कराके एक मावलिके बाद उसी रूपमें उदीरणा होनेपर मिथ्यात्वकी संख्यात वृद्धि स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट काल दो समय प्राप्त हो जाता है। किसी हीन्द्रिय जीवने संक्लेश क्षयसे एक समयतक मिथ्यात्वका संख्यातवृद्धि रूप स्थितिबन्ध किया। इसके बाद दूसरे समयमें वह मरा और बीन्द्रियों में उत्पन्न होकर वहाँ प्रथम समयमें पुनः संख्यात भागवृद्धिको लिये हुए तत्प्रायोग्य स्थितिबन्ध किया । अनन्तर एक भावलिके बाद उनकी उसी क्रमसे उदीरणा हुई। इसप्रकार मिथ्यात्वकी संख्यात भागवृद्धि स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट काल दो समय प्राप्त होता है। तथा किसी एक एकेन्द्रिय जीवने एक विग्रहसे संझी पञ्चेन्द्रियों में उत्पन्न होकर असंझीके योग्य मिथ्यात्वका स्थितिबन्ध करके संख्यात गुणवृद्धि की तथा दूसरे समयमें शरीरको ग्रहण करके संन्त्री के योग्य मिथ्यात्वका स्थितिबन्ध करके संख्यात गुणवृद्धि की। अनन्तर एक पावलिके बाद उनकी उसी कमसे उदीरणा की। इसप्रकार मिथ्यात्यकी संख्यात गुणवृद्धि स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट काल दो समय प्राप्त होता है । जो जीव एक समयतक मिथ्यात्वके स्थितिसरवसे एक समय कम स्थितिका बन्ध कर बन्धावलिके बाद Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पेदगो ७९० श्रादेसेण णेरइय० मिच्छ०-सोलसफ०-हस्स-रदि-भय-दुगुंछाणं असंखे०भागवड्डी जह० एयस०, उक्क० बेसमया ससारस समया। असंखे० भागहारिण-अवहि. जह० एयस०, उक्क० अंतोसु० । सेसपदाणं जह० उक्क० एगस० । सम्म० असंखेभागहा० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । सेसपदाणं बह० उक० एगस० । अरदि-सोगाणं इस्सभंगो। णवरि असंखे० भागहा. जह• एयस०, उक्कर पलिदो० असंखे भागो । एवं रणवुस० | णवरि असंखे० भागहाणी ओघं | सम्मामि० श्रोधं । एवं सत्तमाए । णवरि सम्म० असंखे०भागहाणी अह. अंतोमु०, उक्क. उसी क्रमसे उसकी उदीरणा करता है उसके मिथ्यात्वकी असंख्यात भागहानि स्थिसिमीरणाका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है। तथा जो जीव नीव प्रवेयकमें इकतीस सागर कालतक मिथ्यात्वकी असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणा करके मनुष्यों में उत्पन्न हो तत्प्रायोग्य काल तक प्रसंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणा करता रहता है उसके मिथ्यात्यकी असंख्याद भागहानि स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर प्राप्त होता है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि नौवें अवेयकमें जानेके पूर्व भी तत्प्रायोग्य काल तक मसंख्यात भागहानि स्थितिजदीरणा बन जाती है। मिथ्यात्वको संख्यात भागहानि और संख्यात गुणहानि स्थितिउदीरणा अपने-अपने योग्य काण्डकघातकी अन्तिम कालिके पतनके समय एक समयतक ही होती है तथा असंख्यात गुणहानि स्थितिबदीरमा मिथ्यात्वकी उपशमनाके कालमें एक समय तक होती है, इसलिए इन तीन हानियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय ही प्राप्त होता है। अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अवस्थित स्थिति। उदीरणाका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है यह स्पष्ट ही है। यहाँ मिथ्यात्व कर्मकी असंख्यात भागवृद्धि स्थितिउदीरणा आदिके जघन्य और उत्कृष्ट कालका जिस प्रकार खुलासा किया उसीप्रकार अन्य प्रकृतियोंके यथायोग्य पदोंका खुलासा कर ले चाहिए। तथा गतिमार्गणाके भेद-प्रभेदोंमें भी इसीप्रकार विचार कर कालप्ररूपणा आन लेनी चाहिए। ६०. श्रादेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, हास्य, रति, भय और जुगुप्साकी असंख्यात भागवृद्धि स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल मिध्यात्वका दो समय तथा शेषका सत्रह समय है। असंख्यात भागहानि और अवस्थित स्थितिषदोरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। शेष पदोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । सम्यक्त्वकी असंख्यात भागहानि स्थिति उचारणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। शेष पदोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अरति और शोकका भंग हास्यके समान है। इतनी विशेषता है कि इनकी असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यात भागप्रमाण है । इसीप्रकार नपुंसकवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणाका काल ओघके समान है। सम्यग्मिध्यात्वका भंग बोचके समान है। इसीप्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणाका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " गा• शर्मदर्शक : उत्तरपयविहिदिउदीरणाप डिडिदिउदीरणाणि श्रगारं : ३६३ 1 तेत्तीसं सागरो० देणाणि । एवं पदमाए जाव छट्टि ति । त्ररि सगहिदी देवणा । अरदि- सोग० हस्तभंगो । खवरि पढमाए सम्म० श्रसंखे० भागहा० जह० एयस०, उक० सागरोवमं देणं । I ६७९१. तिरिखखे मिच्द्र० श्रोधं । वरि असंखे० भागहारिण० जह० एस ०, उक० तिरिए पलिदो० नादिरेयाणि । सम्म० संखे० भागहारिण 1० जह० एयस०, उक० तिष्णि पलिदो० देणाणि । सेसपदाणं जह० उक० एयम० । सम्मामि० श्रोधं | सोलमक० छोक० असंखे० भागवडि० श्रोधं । असंखे० भागहा० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० | सेसपदा मिच्छत्तभंगी । इत्थिषे० - पुरिसवेद० अष्पष्पणो पदाणमोचं । वर असंखे० भागहाणि० मिच्छत्तभंगो | स० इस्समंगो । गवरि असंखे ० भागहा० जह० एस० उक० पलिदो ० श्रसंखे० भागो । एवं पंचिदियतिरिक्खतिए । वरि मिच्छ० - सोलसक० सत्तणोक० संखे० भागवडि० जह० उ० एस० | स० असंखे० भागहा० जह० एस ० उक० पुन्त्रकोडिषुधत्तं । वरि पजत इस्थिवेदो गत्थि । जोगिणी० पुरिस० स० णत्थि । इस्थिवे० प्रवत्तन्वं च णत्थि । सम्म० असंखे० भागहाणि० जह० अंतीमु०, उक० तिरिए पलिदो ० t काल कुछ कम तैतीस लागर है । इसीप्रकार पहली पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवीतकके नारकियोंमैं जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए । अरति और शोकका भंग हास्य के समान है । इतनी विशेषता है कि पहली पृथिवी में सम्यक्त्वकी संख्या भागानि स्थितिउदीरखाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक सागर है। ७१. तिर्यों में मिध्यात्वका भंग घोघके समान है। इतनी विशेषता है कि असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है । सम्यक्त्वकी असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणा का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है। शेष पदोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । सम्यग्निध्यात्वा भंग के समान है। सोलह कषाय और छह नोकपायोंकी असंख्यात भागवृद्धि स्थितिउदीरणाका भंग श्रोध के समान है। असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और चरकृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त हैं। शेष पदोंका भंग मिथ्यात्व के समान है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदके अपने-अपने पदोंका भंग भोधके समान हैं। इतनी विशेषता है कि असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणाका भंग मिध्यात्वके समान है। नपुंसक वेदका भंग हास्यके समान है । इतनी विशेषता है कि असंख्यात भागद्दानि स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके श्रसंख्यातवें भाग मा है । इसीप्रकार पचेन्द्रिय तिर्यवत्रिक में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मिध्यात्व, सोलह कषाय और सात लोकषायकी संख्यात भागवृद्धि स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । नपुंसक वेद की असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रभारण 電 । इतनी विशेषता है कि पर्यातकों में स्त्रीवेद नहीं है तथा योनिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं हैं और योनिनियोंमें खोवेदक अवक्तव्य स्थितिउदीरणा नहीं है। तथा इनमें की Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयथबलासहिदे कसायपाहुडे ३६४ देसूणाणि । १७९२. पंचि०तिरिक्खप्रपत्र ०- मणुस अपज० मिच्छ० - सोलसक० - सत्तणोक० असंखे० भागवडि० जह० एयस०, उक्क० बेसमया सत्तारस समया । असंखे ० भागहाणिअवडि० जह० एयस०, उक्क० तोमु० | संखे० गुणवष्टि० जह० एयस० उक० बेसमया । सेपदाणं जह० उक्क० एस० । ; ६ ७९३. मणुसतिय० पंचिदियतिरिक्खतियभंगो । वरि जासि पयडी असंखे० गुणहारिणः स्थि तामि जह० उक्क० एस० । णवरि सम्म० श्रसंखे० भागहा ० जह० अंतोमु०, उक्क० तिष्णि पलिदो० देखणाणि । पजत्त० इथिवे० णत्थि । सम्म० असंखे ० भागहाणि० जह० एयस०, उक्क० तं चैव । मणुसिणी पुरिसवे ० - र्पुस ० त्थि | इथिवे अवत्त० जहण्णुक्क० एगस० । ० 1 ७९४. देवेषु मिच्छ० सोलसक० छण्णोक० सम्मामि० पढम पुढ विगो | वरि मिच्छ० असंखे० भागद्दा० जह० एयस० उ० एकतीसं सागरो० । हस्स-रदिअसंखे० भागहाणि० श्रधं । इत्थवेद - पुरिसवे ० हस्तभंगो । वरि अवत० रात्थि । असंखे० भागहाणि० जह० एस० उक्क० पलवर पलिदो० देणाणि तेत्तीसं असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणाका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्य है । मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज 1 [ बेहो ६७२२. पश्चेन्द्रिय तिर्यन अपर्याप्त और मनुष्य अर्यामकामें मिध्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायकी असंख्यात भागवृद्धि स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल मिथ्यात्वका दो समय तथा शेष का सत्रह समय है । असंख्यात भागहानि और अवस्थित स्थितिउदीरणाका जवन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त हैं । संख्यात भागवृद्धि स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । शेष पदका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । १७८३. मनुष्यत्रिक में पश्चेन्द्रिय तिर्यवत्रिक के समान भंग है। इतनी विशेषता है कि जिन प्रकृतियोंकी असंख्यात गुणहानेि स्थितिउदीरणा है उनका जघन्य और उत्कृष्ट फाल एक समय है । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणाका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम दीन पल्य है। पर्याप्तकोंमें लीवेद नहीं है । इनमें सम्यक्त्वकी असंख्यात भागद्दानि स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल बड़ी हैं। मनुष्यिनियम पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं हैं। इनमें स्त्रीवेदकी अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । ७४. देवों में मिध्यात्व, सोलह कषाय, वह नोकषाय और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग प्रथम पृथिवीके समान है। इतनी विशेषता है कि मिध्यात्वकी असंख्यात भागहानि स्थिति उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल इकतीस सागर हैं। हास्य और रतिकी असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणाका काल ओोधके समान है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदका भंग हास्य के समान है। इतनी विशेषता है कि इनकी अवक्तव्य स्थितिउदीरणा नहीं है । असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल क्रमशः Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२] उत्तरपयछिद्विदिउदीरणाप. बब्लिडिदिउदीरणाणिमोगदार ३६५ सागरोचमाणि । सम्म० असंखे भागहाणि जह• एगस०, उक० तेत्तीसं सागरो । सेसपदार्ग जह-उका एगैसमाधाएछ साहमादि जाव सहस्सार त्ति | णवरि सगहिदी । हस्स-रदि० अरदि-सोगभंगो। मिच्छ० असंखे भागहाणि० जहः एमस०, उक० अंतोप्नुहुतं । णवरि सहस्सारे हस्स-रदि देवोपं । सोहम्मीसारणे इस्थिवेद० देवोघं । उवरि णस्थि । ७९५. भवण वाणवें०-जोदिसि० सोहम्मभंगो । णवरि सगहिदी । सम्म असंखे० भागहाणि० जह• अंतोमु०, उक० सगद्विदी देसूणा । इत्थिवेद० असंखे०भागहाणि० जह० एयस०, उक्क तिष्णि पलिदो० देसूणाणि पलिदो० सादिरेयाणि २ । ७९६. प्राणदादि जाव वगेवजा नि मिच्छ०-पुरिसवे. असंखे भागहाणिक जह० अंतोमु०, उक्क. सगद्विदीओ णादवाओ। सेसपदाणं जह• उक्क० एयस० । सम्म० असंखे०भागहाणि जह• एयस०, उक० सगद्विदी देसूणा । सेसपदाणं जह. उक्क० एयस०। सम्मामि० असंखे०भागहाणिक जह० उक० अंतोमु० । अवत्त. जह ० उक्क० एयम० | सोलसक०-इण्णोक० असंखे०भागहाणि जह• एगस०, उक्क० कुछ कम पचवन पल्य और तेतीस सागर हैं। सम्यक्वकी असंख्यात भागहानि स्थितिदीरणाका अघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल ते तीस सागर है। शेप पदाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। इसीप्रकार सौधर्म कल्पसे लेकर सहस्रार कल्पतक जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। हास्य और रतिका भंग श्ररति और शोकके समान है। मिथ्यात्वकी असंख्यात भागहानि स्थिति उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि सहस्त्रार कल्पमें हास्य-रतिका भंग सामान्य देवोंके समान है। सौधर्म और ऐशानकल्पमें स्त्रीवेदका भंग सामान्य देवोंके समान है। ऊपर स्त्रीवेद नहीं है। ७६५. भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिपी देवोंमें सौधर्म कल्पके समान भंग है। इतनी विशेपता है कि अपनी स्थिति कहनी चाहिए। सम्यक्त्वकी असंख्यात भागहानि स्थितिउदारणाका जघन्य काल अन्त मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। स्त्रीवेदकी असंख्यात भागहानि स्थिति उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्प, साधिक एक पल्य और साधिक एक पल्य है। ६६. आनतकल्पसे लेकर नौ अवेयकतकके देवों में मिथ्यात्न और पुरुषवेदको असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणाका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनीअपनी स्थितिप्रमाण जानना चाहिए। शेष पदोंका जपन्य और उत्कृष्ट फाल एक समय है। सम्यक्त्वकी असंख्यात भागहानि स्थितिजदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। शेष पदोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। सम्यग्मिध्यात्यकी असंख्यात भागहानि स्थिति उदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अवतव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। सोलह कषाय और छह नोकषायकी असंख्यात भागहानि स्थितिजदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ अयपबलासहिदे कसायपाहुड़े मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी म्हारोगा . -n ... ... ...... ..mara. अंतोनु । सेसपदाणं जहण्णुक्क० एगस० । ७९७. अणुद्दिसादि सबट्ठा ति सम्म०-पुरिसवेद० असंखे०भागहाणि. जह. एयस० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी। सेसपदा जह• उक्क० एगस | बारसक०छण्णोक. आणदभंगो । एवं जावः । १७९८, अंतराणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । अोघेण मिच्छ. असंखे०भागवडि-अवढि जह० एगस०, उक्क० तेवद्विसागरोवमसदं तीहि पलिदोवमेहिं सादिरेयं । असंखे० भागहाणि जह० एयस०, उक्क बेछावद्धिसागरोवमारिण देसूणाणि । दोपडि-हाणि० जह० एम० अंतोमु०, उक० अणंतकालमसंखेजा० । असंखे० गुणहाणि जह० पलिदो० असंख० भागो, अवत्त० जह• अंतोमु०, उक्क. दोएहं पि उवठ्ठपोरालपरियट्ट । एवमणंताणु०४। णवरि असंख-गुणहाणि णस्थि । अवत्ता जह अंतोमु०, उक्क० वेछावहिसागरो० देसणाणि । एवमट्टकः । वरि असंखे०भागहाणि-अवत्त० जह० एयस० अंतोमु०, उक० पुचकोडी देसूरमा । एवं हस्स-रदि० । वरि असंखे०भागहाणि-अयत्त० जह. एयस. अंतोमु०, उक० तेत्तीसं सागरोवमं अन्तर्मुहूर्त है। शेष पदोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। ९७६७. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सम्यक्त्व और पुरुषवेदकी संख्यास भागहानि स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। शेष पदों का जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। बारह कषाय और छह नोकषायका भंग पानतकल्पके समान है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। ६६८. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-प्रोव और आदेश | भोषसे मिध्यात्यकी असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थित स्थितिउदीरणाका जवन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर तीन पल्य अधिक साधिक एकसौ त्रेसठ सागर है। असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है. और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागर है। दो वृद्धि और दो स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय और अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुदलपरिवर्तनप्रमाण है। असंख्यात गुणहानिका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है और प्रवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुलपरिवर्तनप्रमाण है। इसीप्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्कको अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसकी असंख्यात गुणहानि स्थिति उदारणा नहीं है। अवक्तव्य स्थितिउहीरणा का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उस्कृष्ट अन्सर कुछ कम दो छयासठ सागरप्रमाण है। इसीप्रकार पाठ कवायकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि असंख्यात भागहानि और अवक्तव्य स्थिसिउदीरणाका अघन्य अन्तर एक समय और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। इसीप्रकार हास्य और रमिकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि असंख्यात भागहानि और प्रवक्तव्य स्थितिउचीरणाका जघन्य अन्तर एक समय और अन्तमुहूर्स है तथा Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ गा० ६२] उत्तरपयछिद्विदिउनीरणाए वडिडिदिलवीरणाणिोगहारं सादिरेयं । एवमरदि-सोग । वरि असंखे०भागहाणि० जह० एयस०, उक्क० छम्मास । एवं चदुसंजल-भय-दुगुंछा। णवरि असंखे भागहाणि-अवत्त० जह• एयस० अंतोनु० । उक० अंतोमु० । वरि चदुसंजलण० असंखे० गुणवति णथि अंतरं । असंखे०गुणहाणि० जह• अंतोमु०, उक्क० उवलपोग्गलपरियई । इस्थिवेद० असंखे०भागवडि-हाणि-अवटि संखे० गुणवडि० जह० एयस०, संखे०भागवटि हाणि-संखे०गुणहाणि-अवतः जह• अंतोमु०, उक० सम्वेसिमणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । असंखेन्गुणहाणि संजलणभंगो । एवं पुरिसवेद । णयरि असंखे० गुणवडि० स्थि अंतरं । एस० असंखे भागवडि-हाणि-अवढि० जह• एयसमओ, उक्क • सागरोवमसदपुधत्तं । सेसपदाणामस्थिवदर्भगौशवाणवार सखभागवडी अहाज एयम०, उक्क० तं घेत्र 1 सम्म० सम्मामि० असंखे० भागहाणि० जह० एयसमश्रो, सेमप० जह० अंतीमु०, उक्क० सव्वेसि मुबड्डपोग्गलपरियई । उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागर है। इसीप्रकार अरति और शोककी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि असंख्यात भागहानि स्थिति उदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। इसीप्रकार चार संज्वलन तथा भव और जुगुप्साकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि असंख्यात भागहानि और प्रवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि चार संज्वलनी असंख्यात गुणवृद्धि उदीरणाका अन्तरकाल नहीं है। मसंख्यात गुमशहानि स्थिति उदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। स्त्रीवेदकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि, अवस्थित और संख्यात गुणवृद्धि स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है. संख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागहानि, संख्यात गुणहानि और अवक्तव्य स्थितिउदीरयाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, और सबका उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुगलपरिवर्तनप्रमाण है। असंख्यात गुणहानि स्थितिउदीरणाका भंग संज्वलनके समान है। इसीप्रकार पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि असंख्यात गुणवृद्धि स्थितिउदीरणाका अन्तरकाल नहीं है। नपुसकवेदकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित स्थितिउदीरणाका जवन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागर पृथक्त्वप्रमाण है। शेष पदोंका भंग स्त्रीवेदके समान है। इतनी विशेषता है कि संख्याव भागवृद्धि स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वही है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी असंख्यात भागहानि स्थिति उदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है, शेष पदोका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, और सषका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। विशेषार्थ-भुजगारप्ररूपणामें मिथ्यावकी भुजगार और अवस्थित स्थिसिउदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन पल्य अधिक एकसौ ब्रेसठ सागर घटित करके बतला आये हैं वही यहाँ मिथ्यात्वकी असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थित स्थिति उदीरणाका प्राप्त होनेसे उक्त प्रमाण कहा है । मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो छयासठ सागरप्रमाण है उसे ध्यानमें रखकर यहाँ मिथ्यात्यकी असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त काला Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ जयधवलासाहिने कसायपाहुरे [ वेदगो . ६७९९. आदेसेण गैरइय० मिच्छ. असंखे०भागवटि-हाणि-अवढि० जह. एयस०, दोपडि-हाणि-अवत्त० जह• अंतोमु०, असंखे० गुणहाणि० जह० पलिदो० असंखे भागो, उक्क. सव्वेसि तेत्तीसं सागरो० देसूरणाणि | एवमणंताणु०४-हस्सरदीएं। णवरि असंखेगुणहाणि णस्थि । एवमादि-सोग। णयरि प्रसंखे० . . . ... ... .. . .. . त्पादशी प्रमाण कहा है। निरन्तर एकेन्द्रियों में रहनेका उत्कृष्ट काल अनन्त काल है। इस कालके मध्य मिध्यात्वकी दो वृद्धि और दो हानि स्थिति उदीरणा नहीं होती, इसलिए इनका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्तकालप्रमाण कहा है। एक जीवकी अपेक्षा प्रथमोपशम सम्यक्त्वका जयन्य अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है और मिथ्यात्व गुणस्थानका जयन्य अन्तरकाल अन्तमुहर्त है, इसलिए तो मिथ्यात्वकी असंख्यात गुणहानि स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण और उसकी प्रवक्तव्य स्थितिउदीरण।का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है तथा सामान्यसे सम्यक्षका उमाल किसागहमतीमालालपरिवर्तनप्रमाण है। इतने कालतक कोई जाव'प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि न हो और मिथ्यादृष्टि बना रहे यह सम्भव है, इसलिए मिथ्यात्वके उक्त दोनों पदोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कहा है। इसीप्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्कके सब पदोंका अन्तरकाल बन जानेसे उले मिथ्यात्वके समान जाननेकी सूचना की। मात्र अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी असंख्यात गुणहानि स्थिति उदारणा नहीं होती, इसलिए उसका निषेध किया है। यहाँ इतना और विशेष समझना चाहिए कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कका श्रवक्तव्य पद मिथ्याष्टिके होता है, इसलिए मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अन्तरकालको ध्यान में रखकर यहाँ उसका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो.छयासठ सागरप्रमाण कहा है। जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है यह सुगम है। इसीप्रकार पाठ कषायोकी अपेक्षा जानना चाहिए मात्र इनकी उदीरणा क्रमसे पाँचवें और छठे गुणस्थानमें नहीं होती, इसलिए उन गुणस्थानोंके उत्कृष्ट कालको ध्यान में रखकर यहाँ इनकी असंख्यात भागदानि और श्रवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है। इनका जघन्य अन्तरकाल क्रमसे एक समय और अन्तर्मुहर्त सुगम है। हास्य और रतिकी किसी जीवके सातवें नरकमें उदीरणा ही न हो यह सम्भव है, इसलिए इनकी असंख्यात भागहानि और अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागर कहा है। प्रारति और शोककी किसी जीवक बारहवें कल्पमें छह माह तक उठीरणा न हो यह भी सम्भव है. इसलिए इनकी असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल छह माह कहा है। चार संज्वलनको उदीरणा उपशमश्रेणिम अन्तमुहर्त कालतक नहीं होती, तथा भय और जुगुप्साकी निरन्तर उदीरणाका नियम नहीं । हाँ संसार अवस्थामें अधिकसे अधिक अन्तर्मुहर्त काल के बाद इनकी उदीरणा अवश्य होती है, इसलिए इनकी असंख्यात भागहानि और अयक्तव्य स्थितिजदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहतं कहा है। शेष कथन सुगम है। ६७६६. मादेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्वकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है, दो वृद्धि, दो हानि और प्रवक्तव्य स्थितिजदीरणाका जघन्य अन्सर अन्तमुहूर्त है और असंख्यात गुणहानि स्थिति उदीरणाका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर हैं । इसीप्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्क, हास्य और रसिकी अपेक्षा जान लेना चाहिए। इसनी विशेषता है कि इनकी असंख्यात गुणहानि स्थितिउदीरण नहीं है। इसीप्रकार अरति Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य भी सुविधिसागर जी महाराज उत्तरपयडिट्टि दिउदीरगाए बडिडिदिउदीरणारि गद्दा ३६८ गा* ६२ ] ० भागहाणि० जह० एगऩमश्र, उक्क० अंतीमु० । एवं बारसक० - भय- दुगुं । वरि अचत्त० जह० उक्क० अंतोमु० । एवं पुंस० । वरि अवत्त० णत्थि । सम्म०सम्मामि श्रसंखे० भागहाणि० जह० एम०, सेमपदाएं जह० अंतोसु०, उक० 1 सन्वेसि तेत्तीस सागरो० देभ्रूणाणि । एवं सत्तमाए । पढमादि जाव छट्टि त्ति एवं चैव । वरि सगट्टिदी देभ्रूणा । णवरि हस्स~रदि- अरदि- सोग० भयभंगो | s I ६ ८००. तिरिक्खेसु मिच्छ० असंखे० भागवड्डि-अडि० जह० एस० उक० पलिदो ० असंखे० भागो । असंखे भागहारिण० जह० एगसमओ, उक्क० तिष्णि पलिदो० देणाणि । सेसमोघं । एवमणंताणु०४ । णवरि असंखे० गुणहारिण० पत्थि । श्रवत्त० जहर अंतोमु, उक० तिरिए पलिदो० देणारिण । एवमपञ्चकखाण०४ | वरि असंखे० भागहाणि श्रवत्त० जह० एस० अंतोमु, उक्क० पुच्चकोडी देणा । एवमटुक छष्णोः । वर असंखे० भागहाणि प्रवत्त० जह० एस० उक्क० अंतोमु० | सम्म० सम्मामि० इत्थवे ० - पुरिसवे० सव्यपदाणमोधं । रणबुंस० हस्सभंगो । ० O 2 और शोककी अपेक्षा जान लेना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी असंख्यात भागहानि स्थितिरका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त हैं । इसीप्रकार बारद कषाय, भय और जुगुप्साकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त हैं । इसीप्रकार पुसकोकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसकी अवक्तव्य स्थितिउदीरणा नहीं है । सम्यक्त्व और सम्यम्मिध्यात्वकी असंख्यात भागद्दानि स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय हैं, शेष पदका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त हैं तथा सबका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस खागर है। इसीप्रकार सातवीं पृथिवी में जानना चाहिए। प्रथम पृथिवी से लेकर छठी पृथिवीतक इसीप्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। इतनी विशेषता है कि हास्य, रति, अरति और शोकका भंग भयके समान है । १८०० तिर्यों में मिध्यात्वकी असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थित स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण है । श्रसंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पत्य है । शेष भंग के समान है। इसीप्रकार अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि असंख्यात गुणहानि स्थितिउदीरणा नहीं है। अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । इसीप्रकार अप्रत्याख्यान वरण चतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि असंख्यात भागात और rano स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है। इसीप्रकार आठ कपाय और छह नोकषायकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि असंख्यात भागहानि और अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेद के सब पदोंका मंग ओघ के समान है । नपुंसकबंदुका मंग हास्यके समान ४७ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० जयभवाखहिदे कसा पाहुडे [ बेगो ७ वर असंखे० भागहाणि० जह० एस० उक० पुत्रको डिपुधत्तं । भवत्त० ओघं । ६ ८० १. पंचिदियतिरिक्खतिय० मिच्छ० असंखे ० भागवड्डि-संखे० गुणबड्डिवडि० जह० एयसमयो, संखे० भागचड्डि-संखे० गुणहाणि० जह० अंतोमु०, उक्क ० सव्वेसिं पुत्रको डिपुधत्तं । श्रसंखे० भागहारिण० तिरिक्खोघं । श्रसंखे० गुणहाणि अवत्त० जह० पलिदो ० असंखे० भागो अंतोमु०, उक्क० सगहिदी । संखे० भागहारिण० जह० अंतीमु०, उक्क० तिष्णि यलिदो० सादिरेयाणि । एवं सोलसक० छण्णोक | वरि असंखे० गुणहारिण० णत्थि । असंखे० भागहाणि अवत्त० तिरिक्खोधं । सम्प० तिष्णि बड्डि-संखे - भागहाणि - अवत्त० जह० अंतोमु०, असंखे० भागहाणि० जह० एस ०, उक्क० सव्वेसिं सगहिदी । संखे० गुणहाणि श्रवद्वि० जह० अंतीमु०, उक्क० पुव्यकोडिपुधतं । सम्मामि० संखे ० भागहाणि० जह० एस० अवत्त० जह० अंतो, उक्क० दोन्हं पि समहिंदीओ | दोहाणि० जह० अंतोमु०, उक० पुच्त्रको डिपृधत्तं । इस्थिवे ० - पूरिम वेद० हस्तभंगी श्री पावकः हसभी श्री सुवाणि श्रवत० जह० एस० अंतोमुद्दत्तं, उक्क० पुष्त्रको डिपुधतं । एवं स० । णवरि संखे ० भागहा० जह० $ I है । इतनी विशेषता है कि असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिप्रथम प्रमाण है । अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका भंग श्रोके समान है । १८०१. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक में मिध्यात्वको असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि और अवस्थित स्थितिउदीरणाका जवन्य अन्तर एक समय है, संख्यात भागवृद्धि और संख्यात गुणवृद्धि स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है तथा सबका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है। असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणा का भंग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान हैं। असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर पत्यके असंख्यातवें भागप्रमाण और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थितिप्रमाण है। संख्यात भागद्दानि स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तीन पल्य है । इसीप्रकार सोलह कपाय और छह नोकषायकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि श्रसंख्यात गुगाहानि स्थितिउदीरणा नहीं है। असंख्यात भागहानि और भवक्तव्य स्थितिउदीरणाका भंग सामान्य तिर्यखों के समान है । सम्यक्त्वकी तीन वृद्धि, संख्यात भागहानि और अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, असंख्यात मागहानि स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और सबका उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थितिप्रमाण है । संख्यात गुणहानि और अवस्थित स्थितिउदीरणाका जवन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण है । सम्यग्मिध्यात्वकी असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है, अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और दोनों का ही स्त्कृष्ट अन्तर अपनी स्थितिप्रमाण है । दो हानि स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरपूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदका भंग हास्य के समान हैं। इतनी विशेषता है कि असंख्यात भागहानि और अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर पूर्व कोटिपृथक्त्व प्रमाण है । इसीप्रकार Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. गा० ६२ ] अन्तरपयडिडिदिउदीरणाए बडिदिउदी राखियो गद्दारं ३७१ अंतोमु०, उक्क० पुव्यको डिपुधत्तं । गवारे पञ्जत्त० - इत्थिवेदो णत्थि । जोणिणीसु पुरिस० स०स्थि । इत्थवे० श्रवत्तव्यं पि णत्थि । असंखे० भागहाणि० जह० एयसमत्रो, उक्क० अंतोमु० । 0 ८०२. पंचिदियतिरिक्ख पञ्ज० - मणुस अपज० मिच्छ० - सोलसक० सत्तणोक० श्रसंखे० भागवड्डि हाणि संखेज गुणवड्डि- अडि० जह० एम० उक० अंतोमु० । अंतीमु० । १ पदाणं जहर o , I ३८०३. मणुसेसु मिच्छ० श्रसंखे० भागचड्डि-संखेजगुणवष्डि यत्रडि० जह० एस० संखे० भागवढि संखे० गुणहाणि० जह० अंतोमु०, उक्क० मच्चेसिं पुञ्चकोडी देणा । सपदाणं पंचिदियतिरिक्तभंगो | सूत्रमता०४ । णवरि असंखे० गुणहाणि स्थिश्राचादातर मटुक । वरि असंखे० भागहा०अत्रत्त० श्रोषं । एवं चदुसंजलण० छण्णोक | रावर असंखे० भागवडि-वडि० जह० एयस, उक्क० अंतोमुहूर्त्त । वरि चदुमंज० असंखे० गुणहाणि० जह० अंतोमु०, 2 • नपुंसक वेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि संख्यात भागहानि स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है । इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकों में स्त्रीवेद नहीं है। तथा योनिनियोंमें पुरुपवेद और नपुंसकवेद नहीं है । तथा योगिनियों में स्त्रीवेदकी अवक्तव्य स्थितिउदीरणा भी नहीं है। असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । ९८०२. पचेन्द्रिय तिर्यद्ध अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और साव तोकषायकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागद्दानि संख्यात गुणवृद्धि और अवस्थित स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । शेष पदोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । ६८०३. मनुष्यों में मिध्यात्व असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि और अवस्थित स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है, संख्यात भागवृद्धि और संख्यात गुणहानि स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। शेष पदोंका भंग पश्चेन्द्रिय तिर्यखों के समान है । इसीप्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि असंख्यात गुणहानि स्थितिउदीरणा नहीं है | अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका भंग पश्चेन्द्रिय तिर्थयोंके समान है । इसीप्रकार आठ कषायकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि असंख्यात भागहानि और अवक्तव्य स्थितिरका भंग ओघके समान है । इसीप्रकार चार संज्वलन और छह नोकषायकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थित स्थिति - उदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इतनी विशेषता है कि चार संज्वलनकी असंख्यात गुणहानि स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और १ श्र०प्रसौ लोक० 1 श्रसंखेभागवति जह० इति पाठः । 10 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ जयधक्लासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो उक्क पुब्धकोडिपुवरं । सम्म०-सम्मामि०-तिपिणवेदाणं पंचितिरिक्खभगो । णवरि तिराहं वेदाणं सम्म० असंखे गुणहाणि संजलणभंगो । बरि पञ्जन० इथिवेदो णस्थि । मणुसिणी० पुरिस० णबुस० णस्थि । इथिवे. संजलणभंगो। णवरि अवच० जह० अंतोमु०, उक्क० पुचकोडिपुधत्तं । ६.८०४. देवेसु मिच्छ. असंखे०भागवड्डि० अवट्टि० जह० एयस०, उक्क० अट्ठारस सागरो० सादिरेयाणि असंखे०भागहाणि जह० एयस०, संखे० भागहाणिअवत्त० जह० अंतोमु०, असंखे० गुणहाणि जह. पलिदो. असंखे० भागो, उक० चदुरहं पि एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि । सेसपदाणं जह० अंतोमु०, उक्क० अट्ठारस सागरो० सादिरेयाणि । एवमयंतागु०४ । णवरि असंखे गुणहाणि रणथि । एवं बारसक०-छएणोक० | परि असंखे०भागहाणि-अवत्त० जह० एगस० अंतोमु०, उक्क. अंतोमु० । वरि हस्स-रदि० अवत्त० जह० अंतोमु०, उक० छम्मासं । अरदिसोग० असंखे भागहाणि-अवत्त० जह० एयस अंतोमु०, उक्क० अम्मासं । सम्मक तिष्णियविभागमाणिग्राम हानिहलाप्रती हासखे भागहा. जह० एयस०, उक० सम्वेसिमेकत्तीसं सागगे देसूणाणि । संखेगुणहाणि-अवट्टि सम्मामि० उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। सम्यक्त्व, सम्यस्मिथ्यात्य और तीन वेदोंका भंग ' पंचेन्द्रिय तियचोंके समान है। इतनी विशेषता है कि तीन वेद और सम्यक्त्वकी संख्यात गुणहानि स्थितिबदीरणाका भंग संज्वलनके समान है। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकों में..... स्त्रीवेद नहीं है, मनुयिनियों में पुरुषवेद और नपुसकवेद नहीं है। स्त्रीवेदका भंग संज्वलनके समान है। इतनी विशेषता है कि श्रवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक प्रमाण है। ८०४. देवोंमें मिथ्यात्वकी असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थित स्थिति उदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उस्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है। संख्यात भागहानि स्थितिवीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है. संख्यात भागहानि और प्रवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है, असंख्यात गुणहानि स्थिति उदीरणाका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यात मागप्रमाण है तथा चारोंका ही उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। शेष पदोका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है। इसीप्रकार अनन्तानुबन्धी चतुष्कको अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि असंख्यात गुणहानि स्थितिब्दीरणा नहीं है। इसीप्रकार बारह कषाव और छह नोकषायकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि असंख्यात भागहानि और अवक्तव्य स्थितिउदीरणका जघन्य अन्तर एक समय और अन्तमुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त हैं । इतनी विशेषता है कि हास्य और रतिकी प्रवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। अरति और शोककी असंख्यात भागहानि और अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय और अन्तमुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। सम्यक्त्वकी तीन वृद्धि, संख्यात भागहानि और प्रवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तमुहर्त है, प्रासंख्यात भागहामि स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयडिद्विदिउदीरणाए बढिहिषिउदीरणाणिप्रोगहार दोहाणि० जह० अंनोमु०, उक० श्रद्वारस सागरो० सादिरेयाणि । असंखे० भामहाणिअवत्त० जह• एयस० अंतोमु०, उक्क० एकत्तीसं सागरो० देमूणारिख । इत्थिवेद० असंखे०भागवडि-अववि० जह० एयस०, दोवडि-हाणि. जह० अंतोमु०, उक. सम्वेसि पणवण्णं पलिदो० देसूणाणि । असंखे०भागहाणि० जह० एयस०, उक० अंतोमु०। पुरिसवेद० भय-दुगुंछभंगो। गरि अवत्तब्य० णस्थि । एवं मवणादि जाव सहस्सारा त्ति । णबरि सगहिदीओ । हस्स-रदि-अरदि-सोग० भयमंगो । बरि सहस्सारे हस्स-रदि-अरदि-सोग० असंखे० भागहाणि-अवस० देवोघं । गवरि भवणबाण-जोदिसि० इथिवे. असंखे०भागवड्डि-अवढि जह० एयस०, दोवल्डि-हाणि. जह अंतोमु०, उक० सव्वेसि तिणि पलिदो० देसूरणाणि पलिदो. सादिरेयाणि पलि. सादिरे । असंखे० भागहाणि जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । सोहम्मीसाणे इस्थिवेद. देवोघं । उवरि इस्थिवेदो णस्यि । ८०५. आणदादि जाव एवगेवजा ति मिच्छ० असंखे०भागहाणि जह एपस०, सहमनिहारिणनवर्स छीजाविनितीमुजी असख गुणहाणि जह० पलिदो० और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। संख्यात गुणहानि और अवस्थित स्थितिउदीरणाका तथा सम्यग्मिण्यात्यकी दो हानि स्थितिउदीरणाका जघन्य भन्सर अन्तर्मुहूर्स है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । असंख्यात भागहानि और श्रवक्तव्य स्थितिदीरणाका जयन्य अन्तर एक समय और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकसीस सागर है। स्त्रीवेदकी असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थित स्थिति उदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है, दो वृद्धि और दो हानि स्थितिउदीरणाका जवन्य अन्तर मन्तमुहूर्त है तथा सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचवन पल्य है। असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। पुरुषवेदका भंग भय और जुगुप्साके समान है। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य स्थितिबदीरणा नहीं है। इसीप्रकार भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार फल्पतकके देवा में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। हास्य, रति, अरति और शोकका भंग भयके समान है। इतनी विशेषता है कि सहस्रार कल्पमें हास्य, रति, अरति और शोककी असंख्यात भागहानि और भवक्तव्य स्थिति उदीरणाका भंग सामान्य देवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि भवनवासी, व्यन्सर और ज्योतिषी देवों में स्त्रीवेदकी असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थित स्थितिउदीरणाका जवन्य अन्तर एक समय है, दो वृद्धि और दो हानि स्थिति उदारणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य, साधिक एक पल्य और साधिक एक पल्यप्रमारण है। असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्दर अन्तर्मुहूर्त है। सौधर्म और ऐशानकल्पमें स्त्रीवेदका भंग सामान्य देवोंके समान है। भागे स्त्रीवेद नहीं है। Sear, आनतकल्पसे लेकर नौ येथेयकतकके देवोंमें मिथ्यात्वकी पसंख्यात भागहानि स्थितिब्दीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है, संख्यात भागहानि और अवक्तव्य स्थिति उदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, असंख्यात गुणहानि स्थितिउदारणाका जघन्य अन्तर Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो असंख० भागो, उक्क० सम्वेसिं सगद्विदी देसूणा । एवमणंताणु०४ । णवरि असंखे०. गुणहाणि णस्थि । एवं बारसक०-छण्णोक० । परि असंख०भागहाणि अवत्त० जह: एयस० अंतोमु०, उक० अंतोमु० । सम्म० असंखे भागहाणि जह० एयस०, असंखे भागवडि-संखे० भागहाणि-अवत्त० जह० अंतोमु०, दोपड्डि० जह. पलिदो. असंखे० भागो, उक्क० सन्वेसि सगहिदी देसूरणा । सम्मामि० असंखे०भागहाणि-अवत्त. जह० अंतोमु०, उक० सगहिदी देसूणा । पुरिसवे. असंखे भागहाणिक जह० उक. एयस० । संखे०भागहाणि मिच्छत्तभंगो। 5८०६. अणुदिसादि सव्वट्ठा त्ति सम्म० असंखे०भागहाणि. जह० उक्क० एयस० 1 संखे० भागहाणि जहणुक ० अंतोमु० । अवत्त० णस्थि अंतरं । एवं पुरिसवे । पवरि अवत्त० णस्थि । बारसक०-छण्णोक० असंखे०भागहाणि० जह० एगस०, उक्क छु । संसोजमगतीनिमित्ताही महक्काच अंतोमुहुत्तं । एवं जाव० । ८०७. णाणाजीवेहि भंगविचयाणु० दुविहो णि०–ोघेण आदेसेण य । भोषेण मिच्छ०-णस० असंखे०भागवड्डि-हाणि-अवढि० णिय० अस्थि । सेसपदा भयणिजा। सोलसक०-छपणोक० असंखे भागवड्डि-हाणि-अवढि० अवत्त णिय० पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है तथा सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। इसीप्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेपता है कि भसंख्यात गुणहानि स्थिति उदीरणा नहीं है। इसीप्रकार बारह कपाय और छह नोकषायकी अपेशा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि असंख्यात भागहानि और अवक्तव्य स्थितिउदोरणांका जघन्य अन्तर एक समय और अन्तर्मुहत है तथा उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्वकी असंख्यात भागहानि स्थिति उदीरणाका जघन्य अन्तर एक समय है, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागहानि और अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तमुहूत है, दो वृद्धियोंका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है तथा सषका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यग्मिध्यात्वकी असंख्यात भागहानि और अवक्तव्य स्थितिजवीरणाका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उस्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है । पुरुपरेदकी असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। संख्यात भागहानि स्थिति दीरणाका भंग मिथ्यात्वके समा।है। ८०६. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितफके देवोंमें सम्यक्त्वकी असंख्यान भागहानि स्थिविउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। संख्यात भागहानि स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। प्रवक्तव्य स्थिति उदीरणा नहीं है। यारह कषाय और छह नोकपायकी असंख्यात भागहानि स्थितिपदीरणाका जघन्य अन्तर एफ समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। संख्यात भागहानि और प्रवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए । ६८०७. नाना जीवों का अवलम्बन कर भंगविचयानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और प्रादेश । प्रोबसे मिथ्यात्व और नपुसकवेदकी असंख्यात भागवृद्धि, भसंख्यात भागहानि और अवस्थित स्थिति उदीरणा नियमसे है। शेष पद भजनीय हैं। सोलह कलाय Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तर पर्याडट्टिदि उदीरणाए वडिट्टि दिउदी राणि गारं ३७५ अस्थि । सेसपदा भयणिञ्जा सम्म असंखे ० भागहाणिः णियमा अस्थि । सेसपदा मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज भणिजा । सम्मामि० सच्चपदा भयणिका । इत्थवेद- पुरिसवेद असं भागिहाि वडि० नियमा अस्थि । सेसपदाणि भयणिञ्जारिण । एवं तिरिक्खा ० । १८०८. देसेण रइय० मिच्छ० - सोलसक० सत्तणोक० श्रसंखे० भागझणि० शियमा अस्थि । सेसपदा भयशिज्जा | सम्म० सम्मामि० सच्चपदारण मोघं । एवं सव्वरय सव्वपचिदियतिरिक्ख-मरणुसतिय देवा भवणादि जाव सहस्सार ति सव्वथडीणमसंखे० भागहारिण अवडि० शियमा अस्थि । सेसपदा भयखिखा । णवरि सम्म० - सम्मामि० श्रधं । मपुसअप सन्त्रपयडी० सच्च० भयणिञ्जा । १८०९. आणदादि णवगेवजा चि सव्वपय० असंखे० भागहाणि० नियमा श्रत्थि । सपदा भणिञ्जा । वरि सम्मामि० सव्वपदाणि भयणिजाणि । अणुद्दिसादि सव्वा चि सव्यपयडी० असंखे० भागहाणि० णियमा अत्थि । सेसपदा० भयणिज्जा । एवं जाव० । ६८१०. भागाभागाणु० दुविहो णि० - ओधेर श्रादेसेण य । श्रोषेण मिच्छ० एस० असंखे० भागवडिउदी० सम्पजी० के० ? असंखे० भागो । असंखे० - श्रीर छह नोकषायकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि, अवस्थित और अवक्तव्य स्थितिउदीरणा नियमसे है । शेष पद भजनीय है। सम्यक्त्वकी असंख्यात भागद्दानि स्थितिउदीरणा नियमसे है। शेष पद भजनीय हैं। सम्यग्मिध्यात्वके सब पद भजनीय हैं। स्त्रीवेद और पुरुषवेदी असंख्यात भागहानि और अवस्थित स्थितिउदीरणा नियमसे है । शेष पद भजनीय हैं। इसीप्रकार तिर्यों में जानना चाहिए । १८०८ आदेश से नारकियों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और खात नोकषायकी असंख्यात भागहानि और अवस्थित स्थितिउदीरणा नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं। सम्यक्ता और सम्यग्मिथ्यात्व के स्रम पदोंका भंग ओघ के समान हैं । इसीप्रकार सब नारकियों में जानना चाहिए | सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्यत्रिक, सामान्य देव तथा भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहानि और अवस्थित स्थितिउदीरणां नियमसे है। शेष पद भजनीय हैं। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व सम्यग्मिध्यात्वका भंग श्रोघके समान है । मनुष्य अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियोंके सब पद भजनीय हैं। ९८०६. आजतकल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयकतकके देवामं सब प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणा नियमसे है। शेष पद भजनीय हैं। इतनी विशेषता है कि सम्यग्निध्यात्व के सब पढ़ भजनीय हैं। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सब प्रकृतियों की असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणा नियमसे है । शेष पद भजनीय हैं। इसीप्रकार अनाहारक मार्गात जानना चाहिए। 1 ३८१०. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— श्रोत्र और आदेश । श्रोषसे मिध्यात्व और नपुंसकवेदकी असंख्यात भागवृद्धि स्थितिके उीरक जीव सब जीवोंके कितने Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ वेदगो जयघवलासहिदे कसायपाहुडे मागहा० संखेा भागा। अवडि० संखे०भागो। सेसपदा० अणंतभागो । एवं सोखसक०-छाणोक०। णवरि अवत्त. असंखे०भागो | सम्म०-सम्मामि० असंखेमागहा. असंखेजा भागा। सेसपदा० असंखे०भागो। इथिवे.-पृरिसवे. अत्रहि. सं० भागो। असंखे भागहाणि० संखेजा भागा । सेसपदा० असंखे भागो । एवं लिरिक्खा। ६८११. सपणेरड्य-सव्वचिंदियतिरिक्ख-मणुसअपज. देवा भवणादि जाब सहस्सारा ति सवपयडी अवढि० संखे०भागो । असंखे०भागहाणि संखेजा भागा। खेसपदा० असंखे भागो । णवरि जम्मि सम्म०-सम्मामि० अस्थि तम्मि सन्चपदाणमोघं । ६.८१२. मणुसेसु सम्म०-सम्माभि०-इस्थिवेद-पुरिसवेद० असंखे०भागहाणिक संखेमा भागा। सेसपदा० संखे भागो। सेसपयडीणं णारयभंगो । पजत्त-मणुसिणीसम्बहुदेवेसु सत्रपयडीएमसंखे०भागहाणि संखेज्जा भागा | सेसपदा० संखे भागो। माणदादि अवराजिदा ति अप्पप्पणो पयडीणमसंखे०भागहाणि. असंखेजा भाया । सेसपदा० असंखे० भागो । एवं जाव० । भागप्रमाण है ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यात भागहानि स्थिनिके उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। अवस्थित स्थिसिके उदीरक जीव संख्यात भागमा होता म्हाराज . पदोंके उचीरफ जीव अनन्त भागप्रमाण हैं। इसीप्रकार सीलह कैंपाय और छहै नोकषायकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी श्रवक्तव्य स्थिति के उदीरक जीव असंख्यातवे भागप्रमाण हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी असंख्यात भागहानि स्थितिके वहीरक जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। शेष पदोंके उदीरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अवस्थित स्थितिके उदीरक जीव संख्यात भागप्रमाण है। मसंख्यात भागहानि स्थितिके उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। शेष पदोंके उदोरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । इसीप्रकार विर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। ६.११. सब नारकी, सब पंचेन्द्रिय तियंच, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर सहस्त्रार कल्पतकके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी अवस्थित स्थितिके उदीरक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यात भागहानि स्थितिके उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण है। शेष पदोंके उदीरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। इतनी विशेषता है कि जहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व है वहाँ सब पोका भंग श्रोधके समान है। ६८१२. मनुष्यों में सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्त्र, स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी असंख्यात भागहानि स्थितिके उदीरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। शेष पदोंके उदीरक जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं । शेष प्रकृवियों की अपेक्षा भंग नारकियोंके समान है। मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहानि स्थितिके उदोरक जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। शेष पदोंके उदीरक जीव संख्यातवें भागप्रमाण है । आनतकल्पसे लेकर भपराजित कल्पतकके देवोंमें अपनी-अपनी प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहानि स्थितिके श्रीरक जीष असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। शेष पदोंके उदीरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। इसीप्रकार बनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा०६२] उत्तरपयडिटिदिनदीरणाए. वडिविदिजदीरणाणियोगदारं ३७७ ४ ८१३. परिमाणाणु० दुविहो णिक-पोषेण आदेसेण य | ओघेण मिच्छ०"पुंस० असंखेजभागवडि-हाणि-अवढि० केसि० ? अर्णता। सेसपदा० केसि ? असंखेजा । णवरि णबुंसक असंखे०गुणहाणि केनि० ? संखेजा । सम्म० असंखेगुणहाणि० के० ? संखेजा । सेसपदा० के० १ असंखेञ्जा । एवमिस्थिवेद-पुरिसवेद० । णवरि पुरिसवे० असंखे०गुणवडि० के० १ सेर्खा सोलसक०-छण्णोक० मिच्छत्तमंगो । वरि अयत्त० अणता। चदुसंजल० असंखे गुणववि-हाणि केत्ति ? संखेजा । ८१४. सव्यणेरइय०-सव्यपंचिदियतिरिक्ख-मणुसअपजाविशिदवार भवणाद जाव एवरीवजा त्ति अप्पप्पणो पयडीणं सन्चपदा० के० ? असंखेना । 3८१५. तिरिक्खेसु सव्यपयडी० सवपदा० अोघं । मणुसेसु मिच्छ०-णबुंसक असंखे गुणहाणि-अवत्त० के० ? संखेजा । सेसपदा० केत्ति ? असंखेजा । एवं चसंजलण। रणवरि अवत्त० केत्ति ? असंखेजा । सम्म-सम्मामि०-इस्थिवेपुरिसवे. मुखपदा० के० १ संखेजा । बारसक०-दण्णोक सवपदा० के०? असंखेजा। मणुसपजत्त-मणुसिणी-सव्वदेवा० अप्पप्पणो पयडी० सवपदा० के० १ संखआ । ६८१३. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-प्रोध और आदेश । ओषसे मिथ्यात्व और नपुसकवेदकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित स्थितिके उदीरक जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। शेष पदोंके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात है। इतनी विशेषता है कि नपुसकवेदकी असंख्यात गुगाहानि स्थितिके उदीरक जीव कितने है । संख्यात हैं । सम्यकस्वकी असंख्यात गुणहानि स्थितिके उदीरक जीव कितने है ? संख्यात हैं। शेष पद की स्थितिके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसीप्रकार स्त्रीधेद और पुरुपवेदकी अपेक्षा ज्ञानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पुरुपवेदी असंख्यात गुणवृद्धिके चंदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। सोलह कषाय और छह नाकपायका भंग भिध्यात्वके समान है। इतनी विशेषता है कि इनकी प्रवक्तव्य स्थितिके उदोरक जोव अनन्त हैं। चार संज्वलनकी असंख्यात गुग्णबृद्धि और असंख्यात गुणहा के उदीरक जीत्र कितने हैं ? संख्यात हैं। ८१४. सब नारकी, सघ पंचेन्द्रिय तियंच, मनुष्य अपर्याप्त सामान्य देव तथा भवनवासियोंसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें अपनी-अपनी प्रकृतियों के सब पदोंके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। ६८१५. तिर्यचौम सब प्रकृतियोंके सत्र पदोंके उदीरक जीवोंका भंग श्रोधके समान है । मनुष्यों में मिथ्यात्व और नपुसकवेदकी असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्य स्थितिके दीरक जीव कितने हैं ? संख्याप्त हैं। शेष पदों के उदीरक जीव कितने हैं! असंख्यात हैं। इसीप्रकार चार संज्वलनकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि प्रवक्तव्य स्थितिके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके सन पदों की स्थिति के पदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। बारह कषाय और छह नोकषायके सब पड़ों की स्थिति के उदीरक जीव कितने है ? असंख्यात है। मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ or-....--------- ३५८ अयधवलासहिदे कसायपाहुबे [ वेगो. अणुदिसादि अवराजिदा ति सबपरडीणं सधपदा० के० १ असंखेजा। णवरि मम्म० अवत्त० केति ? संखेजा । एवं जाव० ।। ६८१६. खेत्ताणु० दुविहो णिद्देसो-ओघेण प्रादेसेण य | ओषेण मिच्छ०पत्रुस असंखे०भागववि-हारिण-अवट्टि० केवडिखेत्ते ? सबलोगे । सेसपदा० लोग० असंखे भागे। एवं सोलमा शरणोधार्थ प्रावतार आलोपोन। सम्म०सम्मामि०-इस्थिवेद-पुरिसवेद. सव्वपदा० लोग. असंखे० भागे । एवं तिरिक्खा। सेसगदीसु सन्चपयडी० सव्वपदा० लोग० असंखे०भागे । एवं जाव० । ८१७. फोसणाणु० दुविहो णि-श्रोघेण श्रादेसेण य । अोघेण मिच्छ० असंखे०भागवडि-हागि-अबढि० के० फोसिदं ? सबलोगो । दोरड्डि-हाणि. लोग० असंखे०भागो अट्ठचोदस० सबलोगो वा। असंखे०गुणहाणि० लोग० असंखे भागो अढचोदस० । अवत्त लोग. असंखे० मागो अट्ठ-बारहचोद्दस० । एवं सोलसक-छण्णोक० । णवरि अवत्त सबलोगो। चदुसंज. असंखे गुणवडिसर्वार्थसिद्धिके देवोंमें अपनी-अपनी प्रकृलियोंके सब पदोंकी स्थितिके उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात है। अनुदिशसे लेकर अपराजित तकके देवमि सब प्रकृतियोंके सब पदोकी स्थितिके उद्दीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी प्रवक्तव्य स्थितिक उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए । ८१६. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- प्रोध और आदेश | ओघसे मिथ्यात्व और नपुसकवेदकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित स्थितिके उदीरक जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सर्व लोकक्षेत्र है। शेष पद स्थितिके उदीरक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसीप्रकार सोलह कषाय भौर छह नोकपायकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनकी प्रवक्तव्य स्थिति के उदीरक जीवोंका क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, खीवेद और पुरुषवेदके सब पदोंकी स्थिति के उदीरक जीवों का क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसीप्रकार सामान्य नियंत्रोंमें जानना चाहिए । शेप गतियों में सब प्रकृतियोंके सब पचोंको स्थितिके उदीरक जीवोंका क्षेत्र लोको असंख्यात भागप्रमाण है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए । ८.. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और प्रादेश। ओघसे मिथ्यात्यकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित स्थिति के उदीरक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। दो वृद्धि और दो हानि स्थितिके उदीरक जीवाने लोकके असंख्यातवे भाग तथा प्रसनालीके चौदह भागों से कुछ कम आठ भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। असंख्यात गुणहानि स्थितिके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातव भाग और प्रसनालीके चौदह भागीमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अबक्तव्य स्थितिके उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा सनालीके चौदह भागोंमेसे कुछ कम आठ और बारह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसीप्रकार सोलह कषाय और छह नोकषायकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी श्रवक्तव्य स्थितिके उदीरक जीवोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयद्धिद्विविउदीरणाए वविडिदिउदीरणाणिश्रोगहार ३७६ हाणि केन० फोसिदं ? लोग असंखे भागो। सम्मसम्मामि० सव्यपद० केव० पोसिदं ? लोग० असंखे०भागो । अनुचोइस० । णवरि सम्म० असंखेजगुणहाणि. खेत्तं । इथिवे०-पुरिसवे. तिण्णिवडि-अपट्टि० के० फोसिद्ध ? लोग० असंखे०भागो अट्टचोद्दस । तिपिणहाणि केव० पोसिदं ? लोग० असं०भागो अट्टचोइस० देसूरमा सबलोगो वा। अवत्त० लोग असंखे भागो सबलोगो बा। असंखे०गुणहाणि खेत्तं । पुरिस० असंखे गुणवडि-हाणि खेत्तं । णस० मिच्छत्तमंगो । णवरि दोबडि-हाणि-अवत्त. लोग असंभागो सबलोगों वा । असंखेगुणहाणि खेत्तं । १८. आईसेण णेरडय० मिच्छ-सोलसक-सनणोक० मध्यपदा० केव० मार्गपरेको लगवा संखेसम्मणीबोइस हायवरि मिच्छ० असंखे० गुणहाणि० खेत्तं । अवत्त० लोग० असंखे०भागो पंचचोदस० । सम्म०-सम्मामि० सेत्तं । एवं विदियादि स्पर्शन किया है। चार संज्वलनकी असंख्यात गुणवृद्धि और असंख्यात गुग्गाहानि स्थितिके जदीरक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमागम क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सच पदीकी स्थिति के उदीरक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग तथा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम भाठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी असंख्यात गुणहानि स्थितिके उदीरक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रक समान है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदका तीन वृद्धि और अवस्थित स्थितिके उदीरक जीवाने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्याता भाग और त्रसनाली के चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तीन हानि स्थितिके उदीरक जीवोने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यानवें भाग, मनालीके चौदह भागोंमेंसे आठ भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्य स्थितिके उदीरक जीवाने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। असंख्यात गुण हानि स्थितिक उदीरक जीवाका स्पर्शन क्षेत्र के समान है। पुरुषवेदकी असंख्यान गुणवृद्धि और असंख्यात गुगाहानि स्थिति के उदीरक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रक समान है। नपुंसकवेदका भंग मिथ्याल्के समान है। इतनी विशेषता है कि दो घृद्धि, दो हानि और प्रवक्तव्य स्थिति के उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यान माग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। असंख्यात गुरणहानि स्थिति के उदीरक जीवाका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। विशेषार्थमिथ्यात्वादि किस प्रकृतिके कौन कौन पद हैं और उनका स्वामी कौन-कौन जीव है. इसका स्वामित्वानुगमसे विचार कर स्पर्शन जान लेना चाहिए। इसीप्रकार चार्ग गतियों और उनके अवान्तर भेदोंमें भी स्पर्शन ज्ञान लेना चाहिए । ८१८. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कपाय और सान नोकपायके सब पदोंकी स्थितिके उदीरक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ! लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंसे छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वकी असंख्यात गुगाहानि स्थिति के उदीरक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। भवक्तव्य स्थिति के उदीरक जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और बसनाली के चौदह भागामसे Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० जयधवलासहिदे कसायपाहुङ । वेदगो . जाव सत्तमा त्ति । बरि सगयोसणं । एवरि सत्तमाए मिच्छ० अबत्त० खेत्तं । पढ़माए खेत्तभंगो। ८१९. तिरिक्खेसु मिच्छ० असंखे०भागवटि-हाणि-अवष्टि सबलोगो । दोवडि-हाणि लोग० असंखे भागो सब्बलोगो वा। अवत्त० लोग० असंखे भागो सत्तचोदस० | असंखे०गुणहाणि० खेत्तं । एवं गबुस । णवरि असंम्खे गुणहाणि. णथि । अवत्त० लोग. असं भागो सब्दलोगो वा । एवं सोलसक०-छण्णोक० | णवरि अवत्त० के० पो. ? सन्नलोगो । सम्म०-सम्मामि० खेतं । णवरि सम्म० असंखे०भागहाणिक लोग असंखे भागो लचोदसः। इस्थिवेद-पुरिसवेद० तिण्णिबड्डि०-अववि० खेत्तभंगो। तिणिहाणि अयत्त लोग असंखे०भागो सबलोगो वा । ८२०, पंचिंतिरिक्खतिय० मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक० सव्यपद० लोग० असंखे०भागो मुघलोगो बा । णवरि मिच्छ० अवत्त० लोग. असंखे०भागो " कुछ कम पाँच भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यम्मिथ्यात्वका भंग क्षेत्रके समान है। इसीप्रकायाभूपविधिवशेोर्वरीसाधीक्विीनका महापकियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपना-अपना स्पर्शन कहना चाहिए। इतनी और विशेषता है कि सातवीं पृथिवीमें मिथ्यात्वकी प्रवक्तव्य स्थिति के उदीरक जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। पहिली पृथिवीम स्पर्शन क्षेत्रके समान है। ६८१६. त्तियश्चोंमें मिथ्यात्वकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित स्थितिके उदीरकाने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका पर्शन किया है। दो वृद्धि और दो हानि स्थितिके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्य स्थिति के उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और वसमालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम सात भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। असंख्यात गुणहानि स्थितिके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इसीप्रकार नपु'समवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसकी असंख्यात गुणहानि स्थिति नदीमा नहीं है। प्रवक्तव्य स्थितिके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसीप्रकार सोलह कषाय और छह नोकषायकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेपता है कि इनकी प्रवक्तव्य स्थितिके उदारांने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्रम और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग क्षेत्रके समान है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी असंख्यात भागहानि स्थितिके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और बसनालाक चौदह भागांमसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन क्रिया है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी तीन वृद्धि और अवस्थित स्थितिक उदीरकोका सर्शन क्षेत्रके समान है। तीन हानि और अवक्तव्य स्थितिके उदीरकोंने लोकके असंख्यात भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। ६८२०, पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकमें मिथ्यात्व, सोलह कपाय और नौ नोकपायके सब पदोंकी स्थितिके उदीरकोंने लोकके असंख्यानवे भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वी प्रवक्तव्य स्थिति के उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज गा० ६२] उत्तरपयडिविदिउदीरणाए वढिविदिउदीरणाणियोगारं ३८१ सत्तचोदस० । असंखे० गुणहाणि० इस्थिवेद-पुरिसवेद तिग्णिवाहि-अवढि०-अवत्ता पत्रुस०-अवत्त० केव० पो० ? लोग० असंखे०भागो। सम्म० सम्मामि० तिरिक्खोपं । णवरि पज० इस्थिवेदो पत्थि । जोणिणीसु पुरिस०-णवूस. णस्थि । इथिवेद० अवत्त० णस्थि । पंवि०तिरिक्खअपञ्ज-मगुसअपज० मिच्छ०-सोलसक०-सत्तणोक. सयपद केव० खेत्तं पोमिदं ? लोग० असंखे० भागो सबलोगो वा। मणुसतिए पंचिंदियतिरिक्खतियभंगो। णवरि सम्म०-सम्मामि० खेत्तं । मिच्छ०-चदुसंजल.. तिण्णिवेद. असंखेगुणहाणिक खेत्तं । वरि पज. इस्थिवे. पत्थि । मणुसिणी. पुरिसवे०-णबुस० णस्थि । ८२१. देवेसु अप्पणो पडि० सव्वपद० लोग० असंखे०भागो अट्ठ. चोइस० । णवरि मिच्छ० असंखे गुणहाणि० सम्म-सम्मामि० सम्वपदा० इथिवेकपुरिसवे० तिरिणवडि-अवट्ठि. अट्टचोद्दम० । एवं सोहम्मीसाण० | एवं भरणबागवे ०-जोदिसि० । परि जम्हि अट्टचोदस० तम्हि अधुट्ठा या अनोइस० । भाग और त्रमनालीके चौदह भागामें कुछ कम सात भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसकी असंख्यात गुणहानि स्थिति, स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी तीन बृद्धि, अवस्थित और अवक्तव्य स्थिति तथा नपुसकबंदकी श्रवक्तव्य स्थिति के उदीरकोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिन्यात्वका भंग सामान्य निर्योंके समान है। इतनी विशेषता है कि पर्यातकोंमें स्त्रीवेद नहीं है । योनिनियों में पुरुषवेद और नपुसकवेद नहीं है तथा स्त्रावेदकी श्रवक्तव्य स्थितिउदीरणा नहीं है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यन अपर्याम और मनुष्य अपर्याप्तकों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय भोर सात नोकषायके सब पदोंकी स्थिति के उदीरकोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। मनुष्यत्रिक पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व श्रीर सभ्यग्मिथ्यात्वका भंग क्षेत्रके समान है। मिथ्यात्व, चार संज्वलन और तीन वेदकी असंख्यात गुणहानि स्थितिके उदोरकों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है तथा मनुपियमियों में पुरुपवेट और नपुसकवेद नहीं है। ६८२१. देवों में अपनी-अपनी प्रकृतियोंके सब पदोंकी स्थिति के उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौवह भागों से कुछ कम पाठ भागममाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वकी असंख्यात गुणहानि स्थिति, सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वके सत्र पदोंकी स्थिति तथा स्त्रीवेद और पुरुपवेदकी सीन वृद्धि और अवस्थित स्थितिके नदीरकोंने ब्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसीप्रकार सौधर्म और ऐशानकल्प में जानना चाहिए | सथा इसीप्रकार भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जहाँ 'वसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम पाठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।' यह कहा है वहाँ 'सनातीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम साढ़े तीन और आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। यह कहना चाहिए। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज जयधत्रलासहिदे कसायपाहुडे ३८२ [ वेदगो ७ O 91 ६८२२. सणकुमारादि सहस्सार ति सच्चपयडी० सञ्चपदा० के० फोसिद ? लोग असंखे० भागो चोस० । आसदादि अच्चुदाति सव्यपयडि० सव्त्रपद० केव० पोसिदं ? लोग० श्रसंखे- भागो छचोदस० । उवरि खेत्तभंगो। एवं जाव० । ९८२३. काला० दुविहो णि० - प्रघेण आदेसेण य । श्रघेण मिच्छ० असंखे० भागवड्ढि - हाणि अवद्वि० केवचिरं सव्वद्धा । सेसपद० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । एवं स० । णवर असंखे० गुणहाणि० जह० एम०, उक्क० संखेजा समया । एवं च संजल० । णरि अवत्त० सव्वद्धा । श्रसंखे ० गुणत्रडि ० जह० एयस०, उक्क० संखेज्जा समया । एवं बारसक० कृण्णोक० | णवरि असंखे ०गुणवड- हाणि० णत्थि । सम्म० श्रसंखे ० भागहाणि सब्वद्धा । सेमपदा० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । असंखे० गुणहारिण० जह० एस० उक० संखेज्जा समया । सम्मामि० असंखे० भागहा ० जह० अंतोमु०, उक्क० पलिदो० श्रसंखे० भागो । सपदा० जह० एस० क० आवलि० असंखे० भागो । इत्थवेद J 1 ३८२२. सनत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार वल्पतक के देवों में सब प्रकृतियोंके सब पदों की स्थिति प्रदीरकांने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके चौदह भागों से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आनतकल्प से लेकर अच्युत कल्पतकके देवामें सब प्रकृतियोंके सब पदोंकी स्थिति के उदीरकोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके चौदह भाग में से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। ऊपर स्पर्शन क्षेत्र के समान है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। ६८२३. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश | ओघसे मिथ्यात्व की असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित स्थितिके उदीरकों का कितना काल हैं । सर्वदा काल है। शेष पदकी स्थिति के उदीरकों का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसीप्रकार नपुंसकवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि असंख्यात गुणहानि स्थितिके उदीरकों का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। इसीप्रकार चार लोकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अवक्तव्य स्थितिके उदीरकोंका काल सर्वदा हैं । असंख्यात गुणवृद्धि स्थिति उदीरकों का जयन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । इसीप्रकार बारह कषाय और छह नोकपायों की अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी असंख्यात गुणवृद्धि और असंख्यात गुगुहानि स्थितिउदीरणा नहीं है। सम्यक्त्वकी असंख्यात भागहानि स्थिति के उदीरकोंका काल सर्वदा है। शेष पदों की स्थिति के उदीरकॉका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण है । असंख्यात गुणानि स्थितिके उदीरकों का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । सम्यरिमध्यात्व की असंख्यात भागहानिको स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्के असंख्यात भागप्रमाण है । शेष पदों की स्थिति के उरका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आबलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा. ६२] पसरपथचिद्विदिउदीरणाए वडिविदिउदीरणारिओगहार ८३ पुरिसवेद० असंखे० भागहाणि-अवष्टि सम्बद्धा । सेसपदा० सम्मत्तभंगो । णवरि पुरिसवे. असंखे० गुणवड्डि• जह• एगस०, उक० संखेना समया । ८२४. श्रादेसेण सव्वणेग्इय० -पंचिंदियतिरिक्सनिय-देवा भवणादि जाव सहस्सारा ति अप्पप्पणो पयडि० असंखे० मागहाणि-अबढि० सव्वद्धा । सेसपदा० जह० एमासवर्थक उकाशावधि सुरवातमागाहारि सम्मामि० ओघं । सम्म० असंखे० भागहाणि सव्वद्धा । सेसपदा० जह० एगस०, उक्क० श्रावलि असंखे भागो। ८२५. तिरिक्खेसु सवपयडी० सयपदा० ओघ । पंचिंदियतिरिक्खअप० सब्बषयडी० असंखेजभागहा० अबहिः मन्बद्धा । सेमपदा० जह• एग०, उक्क. आवलि. असंखे०भागो। * ८२६. मणुसेसु मिच्छ०-गवूम० पंचिंदियतिरिक्तभंगो। णवरि असंखे०गुणहाणि-अवत्त० जह० एगस, उक० संखेजा समया। सम्म० असंखे भागहाणि. इस्थिवे०-पुरिस० असंखे०भागहा.-अववि० सव्यद्धा । सेसपदा० जह० एगम, खीयेद और पुरुषवेदकी असंख्यात भागहानि और अवस्थित स्थिनिके उधीर कोका काल सर्वदा है। शेष पदोंकी स्थिति के उदीरकोका भंग सम्यक्त्वके समान है। इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदकी असंख्यात गुणवृद्धिकी स्थितिके उदारकोका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। ८२५. आदेशसे सब नारकी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिक, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवों में अपनी-अपनी प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहानि और अवस्थित स्थितिके उदीरकोंका काल सर्वदा है। शेष पदोंको स्थितिके उदीरकोका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सालिके आसंख्यातवें भागप्रमाण है। इसनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वका भंग अोधके समान है। सम्यक्त्वकी असंख्यात भागहानि स्थितिके उदीरकोंका काल सर्वदा है। शेष पदोंकी स्थिति के उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। १८२५. तिर्यश्वोंमें सब प्रकृतियोंके सब पदोंकी स्थितिके उदीरकोंका भंग ओषके समान है। पछेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोकी असंख्यात भागहानि और अवस्थित स्थिति के उदीरकोका काल सर्वदा है। शेष पदोंकी स्थिति के उपीरकोका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल भावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। ८२६. मनुष्याम मिथ्यात्व और नपुसकवेदका भंग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। इतनी विशेषता है कि असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्य स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है. और उत्कृष्ट काल संख्यास समय है। सम्यक्त्वकी असंख्यात भागहानि स्थिति तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेड़की असंख्यात भागहानि और अवस्थित स्थिति के उदीरकोंका काल सर्वदा है। शेष पदोंकी स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिद कसायपाहुढे [वेदगो. उक० संखेला समया | सम्मामि० असंखे०भागहा. जह० उक्क० अंतोमु० । सेसपदा० जह. एगस०, उक्क० संग्वेखा समया। सोलसक. पणोक. पंचिदियतिरिक्खभंगो । णबरि चदुसंज. असंखेञगुणहाणि ओषं । ८२७. मणुसपज्जा-मणुसिणीसु सव्यपयडी. असंखे०भागहाणि-अघटि. सम्बद्धा । सेसपदा० जह० एयस०, उक्क० संखेज्जा समया । णकार सम्म०-सम्मामि० मणुसोघं । मणुसअपज्ज० सयपयडी० असंखे०भागहाणि-अवहिः जह० एगस०, पलिदो० असंखे भागो । सेसपदा० जह० एगस०, उक्क० श्रावलि. असंखे०भागो। १८२८. रणदादि जाव रणवगेवाजा ति मिच्छत्त-सम्म०-सोलमक.. सत्तणोक० असंखे भागहाणि० सव्यद्धा । सेमपदा० जह० एगस०, उक० आबलिक असंखे०भागो । सम्मामि० असंखे०भागहाणि-अवत्त० ओघं। ८२९. अणुदिमादि सबट्ठा त्ति सव्यपडि० असंखे० भागहाणि सम्बद्धा । सेसपदा० जद्द० एगस०, उक० आवलि. असंखे०भागो । गरि सम्म० अवत्त जह० एयस०, उक० संखेज्जा समया। गवारि सबढे संखेज्जममया कादया । संख्यात समय है। सम्यग्मिध्यात्यकी असंख्यात भागहानि स्थिति के उदीरकों का जघन्य और उत्कृष्ट मालिशव-तमुहसाव शेष पदको स्थितिक उदारकाका जघन्य काल एक समय है और उत्मय काल संख्यात समय है। सोलह कषाय और छह नोकषायका भंग पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चोंके .. समान है। इसनी विशेषता है कि चार संचलनकी असंख्यात गुणहानि स्थिति के उदीरकोंका . भंग श्रोघके समान है। १८२७. मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनिया में सब प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहानि और अवस्थित स्थिति के उदीरकोंका काल सबंदा है। शेष पदोंकी स्थिति के अदीरकाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृए काल संख्यात समय है। इननी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग सामान्य मनुष्योंके समान है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहानि और अवस्थित स्थिति के उारकोका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यात भागप्रमाण है। शेष पदों की स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है. और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवे भागप्रमाण है। ६८२८. मानतकल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयकतकके देवोंमें मिथ्याल, सम्यक्त्व, सोलह कपाय और सात नोकषायकी असंख्यात भागहानि स्थितिके उदोरकाका काल सर्पदा है। शेष पदोफी स्थित्तिके दीरकाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल प्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यग्मिध्यात्वकी असंख्यात भागहानि और प्रवक्तव्य स्थितिके उदीरफोंका भंग ओघके समान है। १८२६. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सब प्रकृतियों को असंख्यात भागहानि स्थितिके उदीरकोंका काल सर्वदा है। शेष पदों की स्थिति के उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल मावलिके असंख्यात भागप्रमाण है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व की प्रवक्तव्य स्थितिके उदीरकोका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। इतनी विशेषता है कि सत्रार्थसिद्धिमें बावलिके असंख्यासर्वे भागके स्थानमें Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तरपट्टिदिदीरा वडिट्टि दिउदीराणगद्दारं ३८५ ०६२ ] एवं जाय० । 1 १८३०. अंतरा० दुविहो शि० - श्रघेण आदेसेण य । श्रघेण मिच्छ०'सश्रसंखे० भागवडि-हाणि वडि० णत्थि अंतरं । सेसपदा० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । वरि संखे० गुणहारिण अत्रत्त० जह० एस० उक० सत्त रार्दिदियाणि । स० [अ० ज०भंगो । असंखे० गुणहाणि० जह० एस० उक० चासपुधत्तं । सम्म असंखे० भागहाशि० णत्थि अंतरं । श्रवडि श्रवत्तः भुजमंगो । सेसपदा० जह० एम०, उक्क० चडवीसमोर ते सादिरेगे । असंखे० गुणहाणि० जह० एस ०, I t ० दम्मासं । सम्मामि० सच्चपदा० जह० एस० उक० पलिदो० असंखे ० भागो । मार्गदावोस की सुविक्रि भागमणि श्रव ड्डि० - श्रवत्त० पत्थि अंतरं । सेसपदा० जह० एस० उक० तोमु० । णवरि चदुसंज० असंखे० गुणचड्डि० जह० एयस०, उक्क० वासपुधत्तं । श्रसंखे गुणहाणि० जह० एयस०, उक्क० वासं सादिरेय । " ८ वरि लोसंभजल० असंखं० गुणहारिण० जह० एगस०, उक्क० छम्मासं । इत्थवे ० पुरिसके० असंखे० भागहारिण-अवट्टि० णत्थि अंतरं । सेसप० जह० एस० उक० संख्यात समय कहना चाहिए । इसीप्रकार अनाहारक मार्गातक जानना चाहिए। 1 $ ८३० अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है--बोध और आदेश । श्रघसे मिध्यात्व और नपुंसक वेद की असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित स्थिति उदीरको अन्तरकाल नहीं है । शेष पदोंकी स्थितिके उदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इतनी विशेषता है कि संख्यात गुणहानि और अवक्तव्य स्थितिके उदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय हैं और उत्कृष्ट अन्तर सात दिन-रात हैं। नपुंसकवेदी वक्तव्य स्थितिके उदीरकों का भंग भुजगारके समान है । असंख्यात गुणहानि स्थिति उदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्णपृथक्त्वप्रमाण है । सम्यक्त्वकी असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणाका अन्तरकाल नहीं है । अवस्थित और अवक्तव्य स्थिति के उदीरकों का भंग भुजगार के समान हैं । शेष पदोंकी स्थिति के उदोरकों का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन-रात प्रमाण है । असंख्यात गुणहानि स्थिति के उद्दीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना प्रमाण हैं । सम्यग्मिध्यात्व के सब पदों की स्थिति के उदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके प्रसंख्यातवें भागप्रमाण है। सोलह कपाय और छह नोकपायकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि, अवस्थित और अवक्तव्य स्थिति के उदीरकों का अन्तरकाल नहीं है । शेष पड़की स्थिति के उदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इतनी विशेषता है कि चार संज्वलनकी असंख्यात गुणवृद्धि स्थिति के I rator जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। असंख्यात गुणहानि स्थितिके उदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्वर साधिक एक वर्ष है। इतनी विशेषता है कि लोभसंज्वलनकी असंख्यात गुणद्दानि स्थितिके उदीरकोंका अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी ख्यात भागहानि और अवस्थित स्थितिके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है। शेष पकी 1 ४६ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो सयभंगो । असंखे० गुणहाणि जह० एयस०, उक० 2 ३८६ तोमु० । चरि वत्त० वासपुचतं । पुरिमवे असंखे० गुणपट्टि हाणि० कोहसंजलणभंगो । 0 * ८३१. आदेसेण णेरइय मिच्छत्त- सोलसक० सत्तणोक० असंखे० भागहारिणअव०ि पत्थि अंतरं । सेमपदा० जह० एस० उक० अंतोमु० | णवरि मिच्छ० असंखे० गुणहाणि प्रवत्त० श्रधं । सम्म० - सम्मामि० सव्यपदा० श्रोषं । एवं सवणेरइय० । : १८३२. तिरिक्स पंचिंदिय तिरिक्खति णारयभंगो | णवरि तिरिणवेद० श्रसंखे भागड़ा० - श्रवट्टि० णत्थि अंतरं । सपदा० जह० एस० उक० अंतोमु० । श्रवत्त० श्रघं । णवरि पज्जत्त० इत्थवेदो गत्थि । जोणिणीमु पुरिसवे ० णवुंस० णत्थि । इस्थिवे अवत्त ० णस्थि । पंचि०तिरि० अपज्ज० सव्वपय० श्रसंखे० भागहाणि अनङ्कि० रात्थि अंतरं । सेसपदा० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । ० ३८३३. मणुसतिए पंचिदियतिरिक्खमंगो | णारि सम्म० सम्मामि० श्रोषं । पीवाय पारा' 10 D स्थितिके उदीरकोंका अधन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट श्रन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि इनकी अवक्तव्य स्थितिके उदीरकों का भंग नपुंसकवेद के समान है । श्रसंख्यात गुणहानि स्थितिके उदीरकों का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षेपृथक्स्वप्रमाण है | पुरुपवेदकी असंख्यात गुग्गुणवृद्धि और असंख्यात गुणहानि स्थितिके उदीरकोंका भंग क्रोधसंज्वलन के समान है । १८३१. आदेश से नारकियों में मिध्यात्व, सोलह कपाय और सात नोकपायकी असंख्यात भागहानि और अवस्थित स्थितिके उदीरकों का अन्तरकाल नहीं है। शेष पदोंकी स्थितिके उदीरकों का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वकी असंख्यात गुणहानि और अवक्तव्य स्थितिके उदीरकों का भंग ओके समान हैं । सम्यक्त्व और सम्यन्मिथ्यात्व के सब पदकी स्थिति के उदीरकों का भंग ओके समान हैं । इसीप्रकार सब नारकियों में जानना चाहिए । 1 १८३२. निर्यनों में सब प्रकृतियों के अपने-अपने पदों की स्थितिके उदीरकों का भंग श्रोधके समान हैं । पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्वत्रिक में नारकियों के समान भंग है। इतनी विशेषता है कि तीन वेदोंकी असंख्यात भागहानि और अवस्थित स्थितिके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । शेष पदोंकीस्थितिके उदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर मन्तर्मुहूर्त है। अवक्तव्य स्थितिके उदीरकका भंग ओोधके समान है । इतनी विशेषता है पर्यातकों में स्त्रीवेद नहीं हैं | योगिनियो पुरुपवेद और नपुंसक वेद नहीं है। स्त्रीवेदकी अवक्तव्य स्थितिउदीरणा नहीं है । पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियोंकी असंख्यात भागहानि और अवस्थित स्थितिके उदीरकों का अन्तरकाल नहीं है । शेष पकी स्थिति के उदीरकोंका जयन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । I १८३३. मनुष्यत्रिक पञ्चेन्द्रिय तिर्यों के समान भंग है । इतनी विशेषता है कि 17 Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२ ] उत्तरपट्टिदिउदीरणाएवढडिदिदी रोगारं चदसंजल० - तिणिवेद० असंखे० गुणहाणि० ओषं । णवरि पज्ज० इत्थवेदो णत्थि । मणुसिणी० पुरिस० स० खत्थि । इस्थिवे० श्रवत० जह० एस० उक० वासपुधत्तं । जहि लम्मासं वासं सादिरेयं तम्हि वासपुधत्तं । मणुस अपज्ज० सव्यपडीणं सच्चपदा० जह० एस० उक० पलिदो० प्रसंखे० भागो । ९८३४. देवाणं पंचिदियतिरिक्खमंगो | णवरि घुस० पत्थि । इरिथवे ०पुरिसवे० अवत्त णत्थि । एवं भवणादि सोहम्मा ति । एवं सणकुमारादि जाव सहस्सारा ति । णरि इत्थिये ० पत्थि । , १८३५. आणदादि णवगेवज्जा त्ति मिच्छ० असंखे० भागहाणि० णत्थि अंतरं । सेसप० जह० एस० उक्क० सत्त रार्दिदियाणि । सम्म० तिष्णिवड्डिदोहारिण अवत० श्रोषं । सम्मामि० श्रसंखे० भागहाणि प्रवत्त० ओघं । सोलसक०मार्गदर्शऋण्णोश्वाशसंवेदी पहिअंतरं । संखे० भागहाणि० जह० एम०, उक० सत्त रादिदियाणि । अवत्त० जह० एस० उक० अंनोमु० । एवं पुरिस० । वरि अवत० रात्थि | ३८७ 0 सम्यक्त्व और सम्यमिध्यात्वका भंग ओघ के समान है । चार संज्वलन और तीन वेदकी संख्यातगुणानिके स्थिति का भंग के समान है । इतनी विशेषता है कि पर्याप्त स्त्रीद नहीं है । मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है। स्त्रीवेदकी अवक्तव्य स्थिति के उदीरकों का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष प्रथक्त्व प्रमाण है । जहाँ बह माह और साधिक एक वर्ष अन्तर कहा है वहाँ वर्षपृथक्त्व कहना चाहिए । मनुष्य अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियोंके सब पदों की स्थिति उदीरकों का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । ९ ८३४. देवोंमें पचेन्द्रिय तिर्यखोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसक वेद नहीं है । तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अवक्तव्य स्थितिउदीरणा नहीं है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सौधर्म- पेशान कल्पतकके देवोंमें जानना चाहिए। तथा इसीप्रकार सनत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्पनकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद नहीं है । १८३५. आनत कल्पसे लेकर नौ मैवेयकतक के देवी में मिध्यात्वकी असंख्यात भागहानि स्थिति उदichter अन्तरकाल नहीं है। शेष पकी स्थिति के उदीरकोंका जवन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर सात दिन-रात है । सम्यक्त्वकी तीन वृद्धि, दो हानि और श्रयक्तव्य स्थिति उदीरकोंका भंग श्रधके समान है | सम्यग्मिध्यात्वकी असंख्यात भागहानि और वक्तव्य स्थिति के उदीरकों का भंग ओघ के समान है। सोलह कषाय और छह नोकषायकी असंख्यात भागहानिकी स्थितिके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । संख्यात भागहानि स्थिति के उदीरकों का जन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर सात दिन-रात है | भवकन्य स्थिति उदीरकों का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इसीप्रकार पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसकी अवक्तव्य स्थितिउदीरणा नहीं है । Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [बेहगां - ८३६. अणुदिसादि सव्वट्ठा त्ति सम्म० असंख०भागहा. पत्धि अंतरं ! संखे०भागहाणि-अवत्त० जह० एगस०, उक० वासपुधत्तं । सबढे पलिदो० संखे०भागो । एवं पुरिसवे० । णवरि प्रवत्त० पत्थि । एवं बारसक०-लण्णोक० | परि अचत्त० जह० एयस०, उक० अंतोमु० । एवं जाव० । ६८३७. भावाणुगमेण सव्वस्थ ओदइओ भावो । १८३८, अप्पाबहुआणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । श्रोघेण मिच्छ०-चुंस० सम्वत्थो० असंखे गुणहाणि । अवत्त० उदीर० असंखेगुणा । संखे.गुणहाणि० असंखे०गुणा । संखे०भागहाणि० संखे०गुणा | संखेगुणवहि असंखे०गुणा। संखे भागवष्टि• संखे० गुणा। असंखे भागवड्डि. अणंतगुणा । अचट्ठि० असंखे० गुणा | असंखे० भागहारिण० संखे०गुणा । ८३९. सम्मत्त० सवयोवा असंखेन्गुणहारिणः । अवढि० असंखे० गुणा । असंखे० भागवडि. असंखे.गुणा | संखेजगुणवड्डि० असंखे०गुणा । संखे०भागड्डि. संखे गुणा । संखे गुणहाणि. असंखेगुणा । संखे० भागहाणि० असंखे०गुणा । ८३६. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सम्यक्त्वकी असंख्यात भागहानि स्थितिके उदीरकोका अन्तरकाल नहीं है । संख्यात भागहानि और अवक्तव्य स्थितिके उदीरकों का जघन्य अन्तर्गदर्षसमय भारभितरवषयमाप्रमाण है। सर्वार्थसिद्धिमें पल्य के संख्यातवें भागप्रमाण है। इसीप्रकार पुरुपवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि इसकी प्रवक्तव्य स्थितिडदीरणा नहीं है। इसीप्रकार बारह कषाय और छह नोकषायकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनकी श्रवक्तव्य स्थिति के उदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। ६८३७. भावानुगमकी अपेक्षा सर्वत्र औदयिक भाव है। FE३८. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व और नपुंसकवेदकी असंख्यात गुणहानि स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्ताक है। उनसे अवक्तव्य स्थितिक उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यात गुणहानि स्थितिक उचारक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यात भागहाभि स्थितिके वीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यात गुणवृद्धि स्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुग्ग हैं। उनसे संख्यात भागवृद्धि स्थितिके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यात भागवृद्धि स्थितिके उरिक जीव अनन्तगुणे हैं। उनसे अवस्थित स्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यात भागहानि स्थिति के उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। १८३९. सम्यक्त्वकी असंख्यात गुणहानि स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थित स्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यात भागवृद्धि स्थिसिक उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यात गुणवृद्धि स्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यात भागवृद्धि स्थिति के उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे संस्शत गुणहानि स्थितिक उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनस संख्यात भागहानि स्थिति के उदीरक जीव Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा८ ६२ ] उत्तरपयडिटिदिउदीरणाए वडिविदिउदीरणाणियोगदारं ३८६ अवत्त० असंखे०गुणा । असंखे०भागहा. असंखे गुणा । ४०. सम्मामि० सम्वत्थो० संखे गुणहाणि । संखे भागहाणि० संखे०गुणा | अवत० असंखे गुणा । असंखे०भागहाणि० असंखे०गुणा । ११. बारसक-कृष्णोफ० सम्बत्यो संखे०गुणहाणि० । संखे०भागहाणिक संखे-गुणा । संखेनगुणवड्डि असखे० गुणा । संखे भागवष्टि० संखे गुणा । असंखे०भागवढि० अणंतगुणा । प्रवत्त० संखे० गुणा । अववि० असंखे० गुणा । असंखे०भागहाणि संखे० गुणा। E४२. चदुसंजलण० सम्वत्थोत्रा असंखे गुणवडि० । असंखे गुणहाणिक संखेगुणा । संखे गुणहाणि असंखे० गुणा । सेसं कसायभंगो।। ८४३. इत्यिवेद० सबथोवा असंखे०गुणहाणि | संखेगुणहाणिक असंखे० गुणा ! संखे० भागहाणि० संखे० गुणा । संखे गुणवडि• असंखे० गुणा । संखे०भागववि० संखे०गुणा | असंखे०भागवडि० असंखे० गुणा । अबत्त० सं०गुणा । अवदि० असंखे गुणा । असंख० भागहाणि० संखे-गुणा । । असंख्यातगुणे हैं । उनसे अबक्तव्य स्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे असंख्यात भागहानि स्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं । 5८४०. सम्यमिथ्यात्वकी संख्यात गुणहानि स्थितिक उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे संख्यात भागहानि स्थिति के बहीरक जीव संख्यान पुरखे हैं। उनसे अवक्तव्य स्थितिके उदरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यात मागहानि स्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। ८४१. बारह कपाय और छह नोकषायकी संख्यात गुणहानि स्थितिक उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे संख्यात भागहानि स्थितिके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यात गुणवृद्धि स्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुण है। उनसे संख्यात भागवृद्धि स्थिति के उद्दीरक जीव संख्यातगुपे हैं। उनसे असंख्यात भागवृद्धि स्थिति के उदीरक जोत्र अनन्तगुणे हैं। उनसे अवक्तव्य स्थिति के उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे अवस्थित स्थिति के उदीरक जीव असंख्यातगुगणे हैं। उनसे असंख्यात भागहानि स्थित्तिके उदारक जीव संख्यातगुणे हैं। १. ८४२. चार संज्वलनको असंख्यात गुणा वृद्धि स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे असंख्यात गुणहानि स्थिति के उदारक जीव संख्यातगुण हैं। उनसे संख्यात गुणहानि स्थिति के उदीरक जीव असंख्यातगुठो हैं। शेष भंग कपायोंके समान है। ६८४३. स्त्रीवेदकी असंख्यात गुणहानि स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे संख्यात गुणहानि स्थितिके वदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यात भागहामि स्थितिके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यात गुणवृद्धि स्थिति के उदीरक जीव असंख्यातगुण हैं। उनसे संख्यात भागवृद्धि स्थिति के उदीरक जीव संस्पातगुणे हैं। उनसे असंख्यात भागवृद्धि स्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अवक्तव्य स्थिति के दीरक जीव संख्यातगुरणे हैं। उनसे अवस्थित स्थिति के उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यात भागहानि स्थितिके पदीरक जीय संख्यातगुणे हैं। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि:- आचार्यश्री सविधिार TURUT D ३६० जयधवलासहिदे कसायपाइड [ बंदगी ४४. पुरिसवेद० सम्बत्थोरा असंखे० गुणवाड्डि। असंखे० गुणहाणि संखेगुणा | सेसमिस्थिवेदभंगो । एवं तिरिक्खा० । णवरि चदुसंजलण-तिष्णिवेदसम्म० असंखे०गुणववि-हाणि पाथि। ८४५. प्रादेसेण णेरड्य० मि. सुबत्योबा असंखे गुणहाणि । अवत्त. असंखे०गुणासिख गुणहाणि असखे गुणा । संखे गुणवाड्डि. विसेसाहिया | संखे०. भागरड्डि-हाणि• दो वि सरिसा संखे०गुणा। असंखे०भागवड्डि० असंखे०गुणा । अवत्त० संखे गुणा। अबढि० असंखे गुणा | असंखे भागहाणि संखेन्गुणा । सम्म ओधं । णरि असंखेजगुणहा० णस्थि । सम्मामि० श्रोघं । १८४६. सोल सक०-छण्णोक० सम्वत्थोवा संखंजगुणहा० । संखे० गुणवट्टि० विसेसा । संखेजभागवडि-हा. दो वि सरिसा संखे० गुणा | असंख०भागवड्डि. असंखेजगुणा । अक्त० संखे गुणा । अवड्डि० असंखेजगुणा। असंखे० भागहा. संखे० गुणा । एवं णqस० । वरि अवत्त० णस्थि । एवं पढमाए । बिदियादि सत्तमा ८४५. पुरुपबंदकी असंख्यात गणवृद्धि स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे असंख्यात गुणहानि स्थिति के उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। शेष भंग स्त्रीवेदके समान है। इसीप्रकार सामान्य तिर्यग्नामें जानना चाहिए। इसनी विशेपता है कि इनमें चार संज्वलन, तीन वेद और सम्यक्त्वकी अगख्यात गुणवृद्धि और असंख्यात गुणानि स्थितिउदीरणा नहीं है। १८४५. आदेशसे नारकियों में मिथ्यात्वकी असंख्यात गुणहानि स्थितिक उदीरक जीव सबसे स्तोक है। उनसे प्रवक्तव्य स्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुरणे हैं। उनसे संख्यात गुणहानि स्थिति के उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यात गुणवृद्धि स्थिति के मारक जीव विशेष अधिक हैं। उनसे संख्यात भागवृद्धि और संख्यात मानहानि इन दोनों ही स्थितियोंक उदीरक जीव समान होकर संख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यात भागवृद्धि स्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अवक्तव्य स्थिति के उदीरक जांध राख्यातगुणे हैं। उनसे अवस्थित स्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यात भागहानि स्थितिके उदीरक जीव संख्यात गुणे हैं। सम्यक्त्यका भंग ओवके समान है। इतनी विशेषता है कि इसकी संख्यात गुणहानि स्थिति उदीरणा नहीं है । सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओपके समान है। ८४६. सोलह कषाय और छह नोकषायकी संख्यात गुणहानि स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे राख्यात गुणवृद्धि स्थितिके उदीरक जीव विशेष अधिक हैं। उनसे संख्यात भागवृद्धि और संख्यात भागहानि इन दोनों स्थितियों के उदीरक जीव परस्पर समान होकर संन्यातगणे हैं। उनसे असंख्यात भागवृद्धि स्थिति के जदीरक जीव असंख्यातगणे हैं। उनसे अवक्तव्य स्थिति के उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे अवस्थित स्थिति के नदीरक जीव असंख्यातगणे हैं। जनस असंख्यात भागहानि स्थिति के उद्दीरक जीव संख्यातमुरणे हैं। इसीप्रकार नपुसकवेदको अपेक्षा जानना चाहिए। इसी विशेषता है कि इसकी अवाच्य स्थिसिउदीरणा नहीं है। इसीमकार पहिलो पृथिवा में जानना चाहिए। दूसरसे लेकर सातवीं पृथिवीतकी Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] उत्तरपयरिद्विदिउदीरणाप बढिविदिदीरणाणियोगहार ६९१ त्ति एवं चेव । णवरि मिच्छ-सोलमक०-सत्तणोक० संखे गुणवाटि-हाणि दो वि सरिसा | पंचिंदियतिरिक्खतिए पारयभंगो। णवरि इस्थिधे०-पुरिसवे० कपायभंगो । गस० मिच्छत्तभंगो । णवरि असंखे०गुणहाणि० पत्थि । पञ्जत्त० इस्थिवेदो गस्थि । णबुंसय० पुरिमवेदभंगो। जोणिणीसु पुरिस०-णस० पत्थि । इस्थिवे० अवत. णस्थि । पंचिंदियतिरिक्खअपञ्ज-मणुसअपज्ज. सोलसक०-छण्णोक. पंचिंतिरिक्खभंगो | एवं मिच्छ०-णधुम० । णवरि अवत्त० णस्थि । ...८४७. मणुसेस मिळू-णबुस० सम्वत्थोवा असंखे गुणहाणि० । अत्रत्त. संखागुणा । सेस पाँचदियतिरिक्खभगा । सम्मासम्मामि० ओघं । णयरि संखेजगुणं कायव्यं । वारसक०-छण्णोक० पंचिदियतिरिक्खभंगो। चदुसंजल० सम्वत्थो० असंखे गुणहाणि । संखे०गुणहाणि असंखे० गुणा । संखेनगुणवडि. विसेसाहिया। सेसं पंचितिरिक्खभंगो । इथिवे०-पुरिस० एवं चेच । परि संखे०गुणं कायव्यं । एवं मणुसपज० । गरि संखे गुरणं कायव्यं । णवरि इथिवेदो णस्थि । णधुस० पुरिस भंगो । मणमिणी० एवं चेव | णवरि पुरिस-णस० णस्थि । इथिवेद. इसीप्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व, सोलह कपाय और सात नोकषायकी संख्यात गणाधुद्धि और संख्यात गुणहानि इन दोनों स्थितियोंके जुदीरक जीव समान हैं । पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिक, नारकियोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुष बदका भंग कपायके समान है। नपुसकवेदका भंग मिथ्यात्षके समान है। इतनी विशेषता है कि असंख्यात गुणहानि स्थिति उदोरणा नहीं है। पर्याप्तकों में स्त्रीवेद नहीं है। नपुसकवेदका भंग पुरुपयेदके समान है। योनिनियों में पुरुषवेद और नपुसकवेद नहीं है । स्त्रीवेदका प्रवक्तव्य स्थिति उदारणा नहीं है। पञ्चन्द्रिय तिर्थश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सोलह कषाय और छह नोकषायका भंग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। इसीप्रकार मिथ्यात्व और नसकवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेपता है कि अवक्तव्य स्थिति उदीरणा नहीं है। ६८४७. मनुष्योंमें मिथ्यात्व और नपुसकवेदकी असंख्यात गुणहानि स्थिति के मदीरक जीव सबस स्तोक है । उनसे श्रवक्तव्य स्थितिके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। शेष भंग पंचेन्द्रिय तिर्यश्चांक समान है । सम्यक्त्व और सम्बग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणा करना चाहिए । घारह कपाय और छह नोकपायका भंग पञ्चेन्द्रिय तिर्योंके समान है। चार संज्वलनकी असंख्यात गुणहानि स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे संख्यात गुणहामि स्थितिक उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे संरूयात गुगणवृद्धि स्थितिके उदीरक जीव विशेष अधिक हैं। शेष भंग पंचेन्द्रिय तियंवोंके समान है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदका भंग इसीप्रकार है। इतनी विशेषता है कि संख्यासगुणा करना चाहिए। इसीप्रकार मनुष्य पर्याप्तकोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणा करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है। नपुसकवेदका भंग पुरुषवेदके समान है । मनुष्यिनियों में इसीप्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पुरुपवेद और नपुसक ताप्रती एवं चेन । एवं इति पाठः । Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ जयधक्ला सहिदे कसायपाहुडे [ बेदगो सन्त्रस्थोवा अवत्त । श्रसंखे० ' गुणहाणि० संखे० गुणा । सेसं तं चैव । १८४८. देवाणं पंचिदतिरिक्तभोगीतिकथने ०पुरिसवे० श्रवत्त पत्थि । एवं भवण० वाणर्चे० - जोदिसि० । सोहम्मीसाल ० विदियढत्रिभंगो | वरि इस्थिवे० - पुरिसवेद० कसायभंगो । श्रवत्त० णत्थि । स० [पस्थि । एवं सनकुमारादि जाव सहस्सारा ति । वरि इत्थवेदो पत्थि । ९८४९, आणदादि नवमेवजाति मिच्छ० सव्वथोत्रा असंखे० गुणहाणि० 1 संखे - भागहारिण० संखे ० ० गुणा । वत्त० श्रसंखे० गुणा । श्रसंखे ० भागहा० श्रसंखे० गुणा । सम्म० सव्वत्थोवा श्रसंखे० भागवडि० | संखे० गुणवडि० श्रसंखे० गुणा । संखे० भागवडि० संखे० गुणा । संखे० भागहाणि० श्रसंखे० गुणा । श्रवत्त० श्रसंखे० गुणा | श्रसंखे० भागहाणि० असंखे० गुणा । सम्मामि० सव्वत्थोवा श्रवत्त० । असंखे ० भाग हा ० असंखे० गुणा । सोलसक० छण्णोक० सम्वत्थोवा संखे ० भागहारिण० | अवत्त० श्रसंखे० गुणा | असंखे० भागहाणि० असंखे० गुणा । एवं पुरिस० | दरि अवत्त० णत्थि । वेद नहीं है। इनमें स्त्रीवेदक अवक्तव्य स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे असंख्यात गुणहानि स्थिति उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। शेष उसी प्रकार है । Ow १४. देवों में पंचेन्द्रिय तिर्यश्वों के समान भंग है। इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेद नहीं है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अवक्तव्य स्थितिउदीरणा नहीं है । इसीप्रकार भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिपी देवोंमें जानना चाहिए। सौधर्म और ऐशान कल्पमें दूसरी पृथिवीके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदका भंग कषाय के समान है। इनकी अवक्तव्य स्थितिउदीरणा नहीं है । नपुंसकवेद नहीं है । इसीप्रकार सनत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्पतक के देवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद नहीं है । ९८४८. श्रान्त कल्पसे लेकर नौ मैत्रेयकतकके देवोंमें मिध्यात्वकी असंख्यात गुणहानि स्थितिके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे संख्यात गुणहानि स्थितिके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे अवक्तव्य स्थितिक उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे श्रसंख्यात भागहानि स्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। सम्यक्त्वकी असंख्यात भागवृद्धि स्थिति के उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे संख्यात गुणवृद्धि स्थितिके उदीरक जीव संस्थान गुणे हैं । उनसे संख्यात भागवृद्धि स्थितिके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे संख्यात भागहानि स्थिति के उदीरक जीव श्रसंख्यातगुण हैं। उनसे अवक्तव्य स्थिति के उदारक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यात भागदानि स्थितिके उदीरक जीव श्रसंख्यातगुणे दें। सम्यग्मिध्यात्व की वक्तव्य स्थितिके उदरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे असंख्यात भागद्दानि स्थितिके उदोरक जीव श्रसंख्यातगुणे हैं। सोलह कपाय और छह नोकपायकी संख्यात भागहानि स्थिति उदीरक जीव सबसे स्वोक हैं। उनसे अवक्तव्य स्थितिके उदीरक जीव श्रसंख्यातगुणे हैं । उनसे असंख्यात भागद्दानि स्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार पुरुषवेद की अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसकी व्यवक्तव्य स्थितिउदीरणा नहीं है । १ भा०प्रतौ संखे इति पाठः । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गा० ६२] असरपयडिद्विदिउदीरणाए वढिविविउदीरणाणियोगदारं ८५०. अणुदिसादि सबट्ठा ति सम्म० सम्वत्थोवा अवत्तः । संखे०. भागहाणि असंखे०गुणा । असंखे० भागहाणि असंख० गुणा । वारसक-सत्तणोक० श्राणदभंगो । णवरि सबढे जम्हि असंखे गुणा तम्हि संखेनगुणं कादब्बं । एवं जाव० । ___ एवं वडिउदीरणा समत्ता। ८५१. पत्थ हाणपरूयणे कीरमाणे द्विदि-संकमभंगो। णवरि अप्पप्पणो उकस्सविदिउदीरणमादि कादूण जाव अप्पुप्पणो उदीरणा-पानग्गजहण्णढिदिसंतकम्मे ति प्रोदारिय । तदो को कदमाए हिदीए पचेसगो ति पदस्स अत्थो समत्तो । गेण्ह्यिब्वं एवं द्विदिउदीरणा समत्ता । ८५०. अनुदिशसे लेकर सार्थसिद्धितक देवोंमें सम्यक्त्वकी श्रवक्तव्य स्थिति के उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे संख्यात भागहानि स्थितिके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यात भागहानि स्थितिके सदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। बारह कषाय और सात नोकषायका भंग पानतकल्पके समान है। इतनी विशेषता है कि सर्वार्थसिद्धि में जहाँ असंख्यात गुणा है वहाँ संख्यातगुणा करना चाहिए। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। इसप्रकार वृद्धिजदीरणा समाप्त हुई। F८५१. यहाँपर स्थानप्ररूपणा फरनेपर स्थितिसंक्रमके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिबदीरणासे लेकर अपने-अपने उदीरणा प्रायोग्य जघन्य सत्कर्मतक उतारकर ग्रहण करना चाहिए । इसके बाद 'को कदमाए हिदीए पवेसगो' इस पदका अर्थ समान हुश्रा। इसप्रकार स्थिविदीरणा समाप्त हुई। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र अशुद्धि शुद्धि पृष्ठ पं. जानना चाहिए / प्रथम नरतामें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेगता है कि इनमें अपना-अपना स्पर्शन बाहना चाहिए / प्रथम नरक में अनुदीरक होते हैं। पञ्चेन्द्रिय अनुदारक होते हैं। योनिनी तिर्योंमें स्त्रीवेदयी अनुदीरणा नहीं है। पञ्चेन्द्रिय पलिदोवमगि पुच्चकोहियुवतमहियाणि ? पुवकोजिYधत्तं ? मन्मुख क्षायिक गम्पग्दष्टि मामुमकिक मलार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज रहता है। गम्भव है। दो क्रोधोंका नियमसे दो प्रोपोंका तथा नपरवेदका नियम स्त्रोवेदकी नगंगक्रयेदस्ती सिया / उदीर खिया उदीर. भीतर दो बार भीतर मंथमागबमम नाथ को चार 16 सूचना महापर हमने प्रकृत गागके कुछ उपयुक्त संशोधन दिये हैं। इसमें यदि विषम-सम्बन्धी कुछ संशोधन स्वाध्यायप्रेमियों के व्यानमें आवे तो उनकी सूचना मिलनेपर परामर्श करके उन्हें अगले गागमें दे दिया जायगा। जयधवलाके पूरे गुद्रणके अनमें इस ग्रन्थ के विषय-गम्बन्पी पव संशोधनोंको देनेका भी हमारा विचार है।