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________________ जयधवलासहिने कसायपाहुडे [ वेदगो ७ * २९५ तं जहा - तिन्हं छण्हं णत्रन्तं पवेसगेण जड़ाकमं माय-माण कोहजलसुडिदे यदङ्काणाणमेय समयमेत्तो कालो होह, तत्तो उवरिमसमएस जहाकमं छण्हं णवण्हं बारसहं च नियमेण पवेसदंसणादो । * पंच अड-एक्कारस-घोदसादि जाव अट्ठारसा न्ति एवाणि सुराणहाणाणि । २९६. कुदो ? पंच/रसवेसाणाणं सव्वत्थ सव्वकालमवलंभादो | सेसाणं च सत्थाणविवक्खाए मार्भववलाक्षाय तदी प्रदास जहएणुकस्सकालपरिक्खा यत्थि त्ति एसो एत्थ भावत्थो । * एकवीसाए पयडीए पवेसगो केवचिरं कालादो होदि ? २९७. सुगमं । जहएष चंतासं । ३ २९८. तं कथं ? चउची सयवेसगेण वेदगसम्माइडिया दंसणमोहणीय खविय इगिवीपवेसगभावसुवगण सच्चजह तो मुद्दत्तमेन कालेन खवणाए अन्भुट्टिय अट्ठ कसा खविदेसु शिरुद्ध पवेसाणविणासेण तेरसपवेसहाय्यमुप्पज्जइ । यहवा उवसमसम्माद्विणो तारबंधिचक्कं विसंजोइय सव्वजहणंतोमुहुत्तमेत्तकालमिगिवीसपवेसगभावेच्द्रिय लावलियावसेसे सासणं पडिवज्जिय वाची सपवेसगत्तमुवगयस्स एसो १३४ : २६५. यथा -- तीन, छह और नौ प्रकृतियोंके प्रवेशक जीवके द्वारा क्रमसे माया, मान और क्रोधसंज्वलन के अपकर्षित करने पर उसके प्रकृत स्थानोंका एक समयमात्र जघन्य काल होता है, क्योंकि उनसे उपरिम समय में क्रमसे छह, नौ और बारह प्रकृतियोंका नियमसे प्रवेश देखा जाता है । * पाँच, आठ, ग्यारह और चौदहसे लेकर अठारह प्रकृतियों तक के ये शून्यस्थान हैं । ९ २६६, क्योंकि पाँच और अठारह प्रकृतियोंके प्रवेशस्थान सर्वत्र सर्वदा उपलब्ध नहीं होते । तथा शेष स्थान स्वस्थान विवक्षा में सम्भव नहीं हैं । इसलिए इन स्थानोंके जघन्य और उत्कृष्ट कालकी परीक्षा नहीं है यह इस सूत्रका भावार्थ है 1 * इक्कीस प्रकृतियोंके प्रवेशकका कितना काल हैं ? २७. यह सूत्र सुगम है । * जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त है । २६८. वह कैसे ? क्योंकि चौषीस प्रकृतियोंका प्रवेशक कोई वेदकसम्यग्दृष्टि जीव दर्शनमोहनीयका क्षयकर इक्कोस प्रकृतियोंके प्रवेशकभावको प्राप्त हो सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा पखाके लिए उद्यत हो तथा आठ कषायका क्षयकर विवक्षित प्रवेशस्थानके विनाश द्वारा तेरहप्रकृतिक प्रवेशस्थान उत्पन्न होता है । अथवा जो उपशमसम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी त्रिसंयोजना कर और सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक इक्कीस प्रकृतियोंके प्रवेशक मासे रहकर छह श्रावलि काल शेष रहने पर सासादन गुणस्थानको प्राप्त
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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