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________________ गा० ६२] उत्तरपयछिटिदिउदीरणार खेत जह० केत्ति ? संखज्जा। अजह० केत्ति० असंखेज्जा। णवरि जोदिसि० सम्म० जह० अजह० द्विदिउदी० केत्तिया ? असंखेज्जा । अणुदिसादि अवराजिदा त्ति सम्म०-बारसक०-सत्तणोक० जह० संखेज्जा । अजह० असंखज्जा । एवं जाव० । ६५७. खेत्तं दुविहं-जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि०-ओघेश आदेसेण य । ओषेण मिच्छत्त-सोलसक०-सत्तणोक० उक्क० द्विदिउदी० लोगस्स असंखे० भागे | अणुक० सव्वलोगे। सम्म०-सम्मामि०-इथिवे०-पुरिसवे० उक्क० अणुक लोग० असं०भागे । एवं तिरिक्खा । सेसगदीसु सव्वपय० उक्क० अणुक्क . लोग० असंखे० भागे । एवं जात्र । ६६५८. जहएणादायदं । अविकशिविहाओघेणा शाइसेण य । ओघेण स्थिति के उदीरक जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अजधन्य स्थितिके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इतनी विशेषता है कि ज्योतिपियों में सम्यक्त्यकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके उदीरक जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। अनुदिशसे लेकर अपराजित विमानतकके देवाम सम्यक्त्व, बारह कपाय और सात नोकषायकी जघन्य स्थितिके उदीरक जीव संख्यात हैं। अजधन्य स्थितिके उदीरक जीव असंख्यात हैं। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए । ६६५७. क्षेत्र दो प्रकारका है--जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरणा है । निर्देश दो प्रकारका है--श्रीध और श्रादेश । मोबसे मिथ्यात्व, सोलह कपाय और सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति के उदीपक जीयाका क्षेत्र लोकके असंख्यात भागप्रमाण है। अनुस्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीवोंका क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरक जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसीप्रकार तिर्यकचोंमें जानना चाहिए । शेष गतियोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गगणातक जानना चाहिए। विशेपार्थ-जो संझी पन्चेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि पर्याप्त जीव उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करते है वे ही अपने-अपने स्वामित्वके अनुसार मिध्यात्वादि प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा करते हैं। यतः इनका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अतः वह उक्त प्रमाण कहा है। इन प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिउदीरणा एकेन्द्रियानि जीवों में भी होती है और उनका क्षेत्र सर्व लोक है, अतः इनकी अनुत्कृष्ट स्थिति के उदीरकोंका क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण कहा है। रही सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेद ये चार प्रकृतियाँ सा इनकी उदीरणा यथायोग्य पञ्चेन्द्रिय जीवों में ही सम्भव है, यतः इन जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अतः उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। शेप कथन सुगम है। ६५८. जघन्य का प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-आध और आदेश । ओघसे 1. तास-प्रा०प्रायोः मिस इति पाठः नास्ति ।
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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