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________________ हमार्गदर्शक :- आचार्य श्री सुविधवलास जी महाराजाले [वेदगो ७ ओघेण मिच्छ०-चदुसंज०-गवुस० चदुणोक० जह० द्विदिउदी० लोग० असंखे०. भागे । अजह सबलोगे । सम्म०-सम्मामि० इस्थिषे०-पुरिसवे. जह० अजह० लोगस्स असंखे० । बारसक०-भय-दुगुं० जह• लोगस्स संखेजदिभागे। अजह. सबलोगे। ६६५९. तिरिक्खेसु मिच्छ०-णवुस०-चदुणोक. जह० लोगस्स असंखे०भागे । अजह सबलोगे | सम्म० सम्मामि०-इत्थिवे पुरिसवे० जह अजह । लोग. असंखे० भागे। सोलसक०-भय-दुगुका. जहा लोग० संखे०भागे । अजह. मिथ्यात्व, चार संज्वलन, नपुसकवेद और चार नोकपायोंकी जघन्य स्थितिके उद्दीरकोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य स्थितिके उदीरकों का क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण है। सम्यक्त्व, सम्बग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी जघन्य और अजन्य स्थितिके उदीरकोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमागा है। बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिके उदीरकोका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य स्थितिके उद्दीरकोका क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण है। विशेषार्थ--मिथ्यात्वकी उपशमसम्यक्त्वके अभिमुख जीवक, चार संज्वलन और नपुसकवेदकी गुणस्थान प्रतिपन्न जीवके तथा चार नोकषायोंकी जो इतसमुत्पत्तिक बादर एकेन्द्रिय जीव संज्ञी पञ्चन्द्रियोंमें उपन्न होता है उसके यथास्थान अपने-अपने स्वामित्वके अनुसार जघन्य स्थिति उदीरणा होती है, यतः ऐसे जीवोका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग- • र प्रमाण है, अतः उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति के उदीरक जीवीका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाग कहा है। इनकी अजघन्य स्थिति के उदीरक जीवोंका क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण है यह स्पष्ट ही है । सम्यक्त्व आदि चार प्रकृतियों की जघन्य और अजघन्य स्थितिकी उदीरणा अपने-अपने स्वामित्वके अनुसार पञ्चेन्द्रिय जीव ही करते हैं, यतः इनका क्षेत्र लोकके असंख्यातवे भागप्रमाण है, अतः उक्त प्रकृत्तियों की जन्य और अजघन्य स्थितिके उदीरकोंका क्षेत्र भी उक्तप्रमाण कहा है। बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति उदीरणा बादर एकेन्द्रिय जीव करते हैं और इन जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण हैं, अतः उक्त प्रकृतियों की जघन्य स्थिति के उदीरकोका क्षेत्र उक्तप्रमाण कहा है। इनकी अजघन्य स्थिनिके उदीरकोका क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। इसीप्रकार गतिमार्गणाके सब भेदोंमें अपने-अपने स्वामित्वको जानकर क्षेत्र घटित कर लेना चाहिए । सुगम होनेसे यहाँ निर्देश नहीं कर रहे हैं। ६५६, नियंत्रों में मिथ्यात्व, नपुसकवेद और चार नोकषायोंकी जघन्य स्थितिके उदीरक जीवाका क्षेत्र लोकके असंख्यात भागप्रमाण है। अजघन्य स्थितिके उदारक जीवों का क्षेत्र सर्व लोकप्रमाण है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, वीवेद और पुरुषवेदकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके उदीरक जीवाका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति के उदीरक जीवीका क्षेत्र लोक संख्यात भागप्रमाण है। अजघन्य १. मानती असंखेजदिभागे इति पाठः ।
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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