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________________ गा० ६२] उत्तरपयडिविदिउदीरणा: भुजगारअरिणश्रोगहारं ३२३ ७१५. आदेसेण रहय० मिच्छ०-सोलमक-ठूषणोक० भुजद्विदिउदी. जह० एयस०, उक्क० निणि समया अट्ठारम समया । अप्प० अवढि० जह एयस०, उक्क० अंतोमु० । अपत्त० जहरू उक्त० एयसः। परि अरदि-सोग अप्पद० जह० एयस०, उक्क० पलिदो० अमंखे भागो । हस्स-रदि-भुजद्विदिउदी. स्वादासागर जा पहारा सम्यक्त्व सत्कर्मसे मिथ्यात्व की एक समग्र अधिक स्थिति बाँधकर वेदकसम्यग्दृष्ट होता है उसके सम्यक्त्वकी अवस्थित स्थितिविभक्ति एक समयतक पाई जानेसे उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा जो मिथ्यादष्टि या उपशमसम्यग्दृष्टि जीव वेदकसम्यग्दष्टि होता है, उसके प्रथम समयमें एक समयता प्रवक्तव्य स्थितिउदीरमा होनेसे उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। सम्यमिथ्यास्व गुणस्थानका काल अन्तमुहूर्त है, इसलिए सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर स्थितिग्दीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । तथा इस गुणस्थानके प्रथ्यागसमें सम्युपिया तलय स्थिति जुदीरणा होती है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहाँ हैं। सोलह कषाय और नी नोकषायोंकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थिति उदीरणाका जघन्य काल एक समय मिथ्यात्वकी भुजगारादि स्थिनिउदीरणाके जघन्य कालके समान घटित कर लेना चाहिए । इन सब प्रकृतियोंकी भुजगार स्थितिब्दीरणाका जो उत्कृष्ट काल उन्नीस समय बतलाया है उसका खुलासा इस प्रकार है --जिस एकेन्द्रियकी सत्रह समय अधिक एक श्रावलि प्रायु शेष है वह विवक्षित कषायके सिवाय शेष पन्द्रह कषायोंका क्रमसे अद्धाक्षय होनेसे स्थिति बढ़ाकर बन्ध करे. फिर बन्धक्रमसे एक श्रावलि काल जानेपर उभी क्रमसे पन्द्रह समयोंके भीतर विवक्षित -कषायमें उनका संक्रम करें। इसप्रकार भुजगारके ये पन्द्रह समय हुए । पुनः सोलहवें समयमें श्रद्धाक्षयसे विवक्षित कपायका स्थिति बढ़ाकर बन्ध करे, पुनः सत्रहवें समयमें संक्लेशक्षयसे विक्षित कपायके साथ सब कषायोंका स्थिति बढ़ाकर बन्ध फरे, पुन: अठारहवें समय में मरकर एक विमइसे संक्षियों में उत्पन्न होकर असंझी के योग्य भुजगार स्थितिका बन्ध करे, पुनः उन्नीसवै समयमें संज्ञी के योग्य स्थिति बढ़ाकर बन्ध करे । इस प्रकार प्रत्येक कपायके भुजगारके उन्नीस समत्र होकर इसी क्रमसे उदीरणा होनेपर प्रत्येक कषायकी भुजगार स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट काल उन्नीस समय कहा है। इसीप्रकार नौ नोकषायोंकी भुजगार स्थितिउदीरणाका काल यथासम्भव जान लेना चाहिए। इन सब प्रकृतियोंको प्रवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जयन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है यह स्पष्ट ही है। इन सब प्रकृतियोंकी अविस्थित स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त है यह भी स्पष्ट है । मात्र इनको अल्पतर स्थितिउदारणाका कान १८ का अन्तर्मुहूर्त और शेषका जुदा-जुदा है सो जानकर घटित कर लेना चाहिए। कोई काठनाई न होनेस यहां अलगसे स्पष्टीकरण नहीं किया। ७१५. श्रादेशसं नारकियों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायकी भुजगार स्थिति उदारणाका अवन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन समय तथा अठारह समय है। अल्पतर और अवस्थित स्थिति उदीरणाका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। प्रवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। इतनी विशषता है कि अरति और शोककी अल्पतर स्थितिउतारणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। हास्य और रतिकी भुजगार
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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