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________________ १२२ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ बेदगो ७ + वरि अपद० जह० एस० उक० कम्मामा । एवमरदि-सोग० | णवरि अप० जह० एस० उक० पतिदो० असंखे० भागो । एवमिस्थिवे० : णवरि अप० जह० 1 एस० उक पणवण्णपलिदो० देणायि । एवं पुरिसवे० । णवरि अप० जह० O " एस० उक० तेवद्विसागरोवमसदं तीहि पत्तिदोषमेहि सादिरेयं । एवं स ० । वरि अप्पद० जह० एस० उक० तेत्तीस सागरो देखलाखि । Q ? हास्य और रतिकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनकी अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल छह महीना है । इसीप्रकार अरति और शोककी अपेक्षा आर्थनाहिए इस विशेष स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमास है । इसीप्रकार स्त्रीवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसकी अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम पचवन पल्ध है । इसीप्रकार पुरुषवेदी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसकी अल्पतर स्थितिउदीररणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठ सागर है। इसीप्रकार नपुंसकवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इसकी अल्पतर स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है I विशेषार्थ - जिस जीवने मिध्यात्वका कमसे कम एक समयतक भुजगारस्थितिबन्ध किया है उसके तदनुसार एक समयतक भुजगार स्थितिउदीरणा होनेपर मिध्यात्वकी भुजगार स्थितिउदीरणका जघन्य काल एक समय कहा है। तथा जिस जीवने श्रद्धाक्षय और संक्लेशक्षय आदि के क्रम से अधिक से अधिक चार समयतक मिध्यात्वकी भुजगार स्थितिका बन्ध किया है उसके चार समयतक भुजगार स्थितिउदीरणा सम्भव होनेसे मिथ्यात्वकी भुजगार स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट काल चार समय कहा है। जिस जीवने कमसे कम एक समयतक अल्पतर स्थितिका बन्च किया है उसके मिध्यात्व की एक समय तक अतर स्थितिउदीरणा सम्भव होनेसे उसका जघन्य काल एक समय कहा है। तथा नौवें मैवेयक में मिथ्याष्ट्रिके मिध्यात्की निरन्तर अल्पतर स्थितिउदीरणा होनेसे उसका उत्कृष्ट काल इकतीस सागर कहा है। जिस जीवने सत्कर्मके समान मिध्यात्वकी अवस्थित स्थितिका एक समयतक बन्ध किया है उसके एक समयतक उसकी अवस्थित स्थितिउदीरणा सम्भव होनेसे उसका जघन्य काल एक समय कहा है | तथा जिसने सत्कर्म के समान श्रन्तर्मुहूर्तं कालतक उसका अवस्थित स्थितिबन्ध किया है उसके उतने कालतक मिध्यात्वकी अवस्थित स्थितिउदीरणा सम्भव होनेसे उसका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। इसकी अवक्तव्य स्थितिउदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है यह स्पष्ट ही है, क्योंकि जो सम्यग्दृष्टि जीव मिध्यात्वका अनुदारक होकर मिध्यादृष्टि होनेपर प्रथम समय में इसकी उदीरणा करता है उसकी अवक्तव्य संज्ञा है । वेदकसम्यक्त्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागर है, इसलिए सम्यक्त्वकी अल्पतर स्थितिराका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागर कहा है । जो मिध्यादृष्टि जीत्र सम्यक्त्व सत्कर्म से दो समय अधिक आदि मिध्यात्वकी स्थिति बाँधकर वेदकसम्यग्दृष्टि होता है उसके सम्यक्त्वकी भुजगार स्थितिविभक्ति एक समय तक पाई जाने से उसका जत्रन्ध और उत्कट का एक समय कहा है। जो निवार िजांच 1
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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