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________________ गा० ६२] उत्तरपडिविविउदीररणाए पड्डिडिदिजदीरणाणिप्रोगहार ३६१ भागहाणि जह० एगस०, उक्क० तेवद्विसागरोवमसदं । संखे०भागवडि० जह० उक० एगस० । सेसपदा संजलणभंगो । एवमिस्थिवेद । णवरि असंखे गुणवटी पत्थि । असंखे०भागहाणिक जह० एगस०, उक० पणवण्णपलिदो० देसूणाणि । एवंस० संजलणभंगो । णवरि असंखे०गुणवड्डि. णस्थि । असंखे०भागहाणि० जह० एगस०, उक० तेसीसं सागरो० देसूणाणि । हस्स-रदि० असंखे०भागहा. जह० एगस०, उक्क० लम्मासं । सेसपदाणं भयभंगो। अरदि-सोग. असंखे० भागहा० जह० एगस०, उक्क० पलिदो. असंख० भागो । सेसपदाणं भयानगशीक :- आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज असंख्यात गुणहानि स्थिति उदारणाका जवन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। पुरुषवेदकी असंख्यान भागहानि स्थिति उदीरखाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल एकसो त्रेसठ सागर है । संख्यान भागवृद्धि स्थिति उदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। शेष पदोंका भंग संचलनके समान है। इसीप्रकार स्त्रीवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि असंख्यात गुणवृद्धि स्थितिउदीरणा नहीं है। असंख्यात भागहानि स्थिति उदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम पचवन पल्य है । नपुसक. वेदका भंग संज्वलनके समान है। इतनी विशेषता है कि असंख्यात गुणवृद्धि स्थिति उदारणा नही। असंख्यात भागहालि स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कोकम तेतीस सागर है। हास्य और रतिकी असंख्यात भागहानि स्थितिउदीरणाका जघन्य काल एक समय है भीर उत्कृष्ट काल छह महीना है । शेष पदीका भंग भयके समान है। अरति और शोककी असंख्यात भागहानि स्थिति उदीरणाका जघन्य काल एक समय है भौर उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यात भागप्रमाण है। शेष पदोंका भंग भयके समान है। विशेषार्थ जो जीव अचाक्षय या संक्लेशक्षयसे एक समयता मिथ्यात्वकी स्थितिको बढ़ाकर बाँधता है और एक श्रावलि के बाद उसी रूपमें उसकी उदीरणा करता है। उसके मिथ्यात्वकी वृद्धि स्थितिउदीरणा पाई जाती है जो असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि और संख्यात गुणवृद्धि इन तीनों रूप सम्भव है। इसलिए मिथ्यात्वकी इन तीन वृद्धि स्थिति उदारणाओंका जघन्य काल एक समय कहा है। इनका उत्कृष्ट काल दो समय है। खुलासा इस प्रकार है-प्रथम समयमें अद्धाक्षयसे और दूसरे समयमें संक्लेशक्षयसे मिथ्यात्वका असंख्यात वृद्धिरूप स्थिति बन्ध कराके एक मावलिके बाद उसी रूपमें उदीरणा होनेपर मिथ्यात्वकी संख्यात वृद्धि स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट काल दो समय प्राप्त हो जाता है। किसी हीन्द्रिय जीवने संक्लेश क्षयसे एक समयतक मिथ्यात्वका संख्यातवृद्धि रूप स्थितिबन्ध किया। इसके बाद दूसरे समयमें वह मरा और बीन्द्रियों में उत्पन्न होकर वहाँ प्रथम समयमें पुनः संख्यात भागवृद्धिको लिये हुए तत्प्रायोग्य स्थितिबन्ध किया । अनन्तर एक भावलिके बाद उनकी उसी क्रमसे उदीरणा हुई। इसप्रकार मिथ्यात्वकी संख्यात भागवृद्धि स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट काल दो समय प्राप्त होता है। तथा किसी एक एकेन्द्रिय जीवने एक विग्रहसे संझी पञ्चेन्द्रियों में उत्पन्न होकर असंझीके योग्य मिथ्यात्वका स्थितिबन्ध करके संख्यात गुणवृद्धि की तथा दूसरे समयमें शरीरको ग्रहण करके संन्त्री के योग्य मिथ्यात्वका स्थितिबन्ध करके संख्यात गुणवृद्धि की। अनन्तर एक पावलिके बाद उनकी उसी कमसे उदीरणा की। इसप्रकार मिथ्यात्यकी संख्यात गुणवृद्धि स्थितिउदीरणाका उत्कृष्ट काल दो समय प्राप्त होता है । जो जीव एक समयतक मिथ्यात्वके स्थितिसरवसे एक समय कम स्थितिका बन्ध कर बन्धावलिके बाद
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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