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________________ [ बेहगो ७ ६२३५. पायाजीवेदि भंगविचया० दुविहो गिद्देसो-- ओवेण आदेसेण य । श्रघेण संखे० भागवड्डि-हारिण-अवडि० लिय० अस्थि, सेसपदाणि भयणिखाणि । भंगा २७ । आदेसेण णेरइय० अवट्टि० निय० श्रत्थि, सेसपदा भयरिणा । भंगा ९ । एवं सब्बणेरइय० सब्जपंचिंदियतिरिक्ख मरणसतिय सव्वदेवाति । वरि भंगविसेसो जाणियच्च । तिरिक्खेसु संखे० भागवड्डी हासी अवडि० यि० अस्थि, सिया एदे च संखे० गुणवडिउदीरगो च, सिया एदे च संखेजगुरव डिउदीरगा च ३ । मपुस - मार्गदर्शक १०६ आचार्य श्री सुविधिसागर जी महाराज 'जयधवलासाहि कसायपाहुडे दृष्टि जीव नौकी उदीरणा करता हुआ संयत हो चारकी उदीरणा करके संख्यातगुणहानि करता है। पुनः वह अन्तर्मुहूर्त बाद मिध्यात्वमें जाकर और अन्तर्मुहूर्त के भीतर संयत हो नौकी उदीरणा के बाद चारकी उदीरणा करने लगता है उसके संख्यातगुगृहानिका जधन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त बन जाता है। यही कारण है कि यहाँ पर से संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय और संख्यात गुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा है। संख्यातगुणहानिका यह जघन्य अन्तर दो घार उपशमश्र पर चढ़ाने से भी प्राप्त किया जा सकता है। यथा कोई उपशामक अपूर्वकरण जीव चारकी उदीरणा करता हुआ अनिवृत्तिकरण हो दोकी उदीरणा द्वारा संख्यातगुणहानि करता है । पुनः वह अन्तर्मुहूर्त के भीतर संवेदभाग में दोकी उदीरणा करता हुआ अवेदभाग में नपुंसकयेदकी उदयव्युच्छित्तिकर एककी उदीरणा द्वारा संख्यातगुणहानि करता है उसके संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। पूर्व में दिये गये उदाहरणकी अपेक्षा इस दूसरे प्रकार में अन्तर कालका समय कम है, इसलिए यहाँ इसकी प्रधानता है । पिछला उदाहरण केवल अन्तरका प्रकार बतलाने के लिए दिया है। इन दोनों पदोंका उत्कृष्ट अन्तर उपार्ध पुदल परिवर्तन प्रमाण है यह स्पष्ट ही है। सामान्य तिर्यखों में पाँचकी उदीरणा करनेवाला जो जीव दसकी उदीरणा करता है वह उपशमसम्यग्दृष्टि संयतासंयतले च्युत होकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ जीव ही हो सकता है। और ऐसे जीवकी यह अवस्था पुनः कमसे कम पल्पका असंख्यातवाँ भाग काल जाने पर और अधिकसे अधिक उपार्श्वपुल परिवर्तन प्रमाण काल जानेपर ही प्राप्त हो सकती है, इसलिए यहाँ पर उक्त जीवों में संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर उपाध पुल परिवर्तनप्रमाण बतलाया है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यत्रिकी कर्मभूमिकी अपेक्षा उत्कृष्ट कायस्थति पूर्व कोटिपू वस्त्रप्रमाण ही है, अतः इनमें दो बार संख्यातगुणवृद्धिका प्राप्त होना सम्भव न होने से इनमें उक्त पदके अन्तरकालका निषेध किया है। मनुष्यत्रिक में अन्तर्मुहूर्त के अन्तरसे दो बार उपशमश्रेणिपर चढ़ना और उतरना सम्भव है तथा पूर्वकोटिपृथक्त्व के अन्तर से भी यह सम्भव है इसलिए इनमें संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानिका जधन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिप्रथक्त्व प्रमाख कहा है। शेष कथन सुगम है । ३ २३५. नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचयानुगमका आश्रय लेकर निर्देश दो प्रकारका हैलोव और आदेश । श्रोघसे संख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागहानि और अवस्थित पदके उदीरक जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं। भंग २७ होते हैं। आदेश से नारकियोंमें अवस्थित पदके उदीरक जीव नियमसे हैं। शेष पद भजनीय हैं। भंग नौ होते हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पचेन्द्रिय तिर्यख मनुष्यत्रिक और सब देवोंमें जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि भंगविशेष जानने चाहिए । तिर्यञ्चमं संख्यात भागवृद्धि, संख्यातभागद्दानि और अवस्थित पदके उदीरक जीव नियमसे हैं। कदाचित् ये हैं और एक संख्यातगुणवृद्धिका उदीरक
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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