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________________ उत्तरपयलिउदोरणार भुजगारपरूवणा । गव० उदी० संखे गुणा । अड्ड. उदी० संखेनगुणा । सत्त. उदी० संखे.. । एयमणुदिसादि पव्वट्ठा त्ति । णवरि दम० उदीरणा पत्थि । एवं जाव० । एवमप्यावहुए समत्ते पयडिट्ठाणउदीरणाए सत्तारस :- आचार्य श्री सुविधामोगद्वारासमत्वाणि । ...: १ एप्तो भुजगारपधेसगो। १७५. एत्तो उबरि पपडिहाणउदीरणाए भुजगारपवेसगो कायन्यो त्ति सहवं पइण्णायक मेदं तत्थ अट्ठपदं कायचं । १७६. तम्मि भुजगारपवेशगपरूवणाए पुव्यमेव ताव अद्वपदपरूत्रणा कायव्वं, भएणहा भुजगारादिपदविसेसविसथगिएणयाणुप्पत्तीदो । तं जहा–अणंतरादिकंतसमए थोवयरपयडिपवेसादो एहि बहुदरियायो पयडीयो पवेसेदि ति एसो भुजगारपवेसगो। अणंतरवदिकंतसमए बहुदरपयडिपत्रेसादो एम्हि थोवयरपयडीओ पवेसेदि सि एसो अप्पदरपत्रेसमो। अणंतरविदिक्तसमए एहि च तत्तियाओ चैव पयडीओ विसेदि ति एसो अवविदपवेसगो। अणंतरविदिक्कतसमए अपवेसगो होदूण एणिंह पोसेदि त्ति एस अवत्तव्यपवेसगो । एवमट्ठपदपरूवणा गया। प्रकृधियोंके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे नौ प्रकृतियों के उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे पाठ प्रकृतियोंके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे सात प्रकृतियोंके उदीरक जीव संख्यातगणे हैं। इसीप्रकार अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में जानना चाहिए । किन्तु सनी विशेषता है कि इनमें दस प्रकृनिचोंके उदीरक जीव नहीं हैं। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । इसप्रकार अल्पबहुत्वके समाप्त होने पर प्रकृतिस्थानउदीरणामें सत्रह अनुयांगद्वार समाप्त हुए। * आगे भुजगारप्रवेशकका अधिकार है। 3 १७४. इससे आगे प्रकृतिस्थान उदीरणामें मुजगारप्रवेशक करना चाहिए इस प्रकार यह प्रतिज्ञावचन कहने योग्य है। * उसके विषयमें अर्थपद करना चाहिए। १७६. उस भुजगारप्रवेशकप्ररूपणामें सर्वप्रथम अर्थपदकी प्ररूपणा करनी चाहिए, अन्यथा भुजगार आदि पदविशेषविषयक निर्णय नहीं हो सकता। यथा-अनन्तर अतिक्रान्त समयमै हुए स्ताकतर प्रकृतियोंके प्रवेशसे वर्तमान समयमें बहुनर प्रकृतियोंको प्रवेश कराता है यह भुजगारप्रवेशक है। अनन्तर अतिक्रान्त समयमें हुए बहुतर प्रकृतियोंके प्रवेशसे वर्तमान समयमै स्तोक तर प्रकृतियों को प्रवेश कराता है यह अल्पतरप्रवेशक है । अनन्तर अतिक्रान्त समयमें और वनमान समय में उतनी ही प्रकृतियों को प्रवेश कराता है यह अवस्थितप्रवेशक है। अनन्तर अतिक्रान्त समय में अप्रवेशक होकर वर्तमान सययमें प्रवेश कराता है यह प्रवक्तव्यप्रवेशक है। इस प्रकार अर्थपद प्ररूपणा समाप्त हुई । . . . . . . . . . . .
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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