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गा० ५२] मूलपयडिउदीरणाए अणियोगहारपरूवणा
मार्गदर्शकअंतरावा? पिहो लोवे ठहाबादेसे० । ओघेण मोह० उदी० पत्थि अंतरं । अणुदी० जह० एयसमओ, उक. वासपुधत्तं । एवं चदुसु गदीसु ।
वरि मणुसतियं मोत्तूणएणत्थ अणुदीरगा पत्थि । मणुसअपज० मोह० उदी. जह० एयसमो, उक० पलिदो० असंखे०भागो । एवं जाच० ।
६ ३२. भावो सव्वत्थ ओदइओ भावो ।
६३३. अप्पाबहुगाणु० दुविहो णि०-ओघे० आदेसे० । ओघेण मोह० सब्बत्योवा अणुदी० । उदीरगा अणंतगुणा | मणुसेसु सब्बत्थो० मोह. अणुदी० । उदीरगा असंखे०गुणा । एवं मणुसपज०-मणुसिणी. | णवरि संखेनगुणा कायच्चा । सेसगदी पत्थि अप्पाबहुअं । एवं जाव ।
और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। तथा मनुष्य अपर्याप्त यह अन्तर मार्गणा है और उसका जघन्य काल क्षुल्लकभवप्रमाण तथा उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होनेसे इस मागेगामें उदीरकोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल क्रमसे उक्त प्रमाण कहा है। शेष गतिमार्गणाके भेदोंमें उदीरकोंका काल जो सर्वदा कहा है सो वह उन मार्गणाओंके निरन्तर होनेसे ही कहा है।
६३१. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश श्रोषसे मोहनीयके उदीरकका अन्तरकाल नहीं है। अनुदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षवृथक्त्वप्रमाण है। इसी प्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्यत्रिकको छोड़कर अन्यत्र अनुदीरणा नहीं है। मनुष्य अपर्याप्तकों में मोहनीयके उदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय है. और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गरणा तक जानना चाहिए।
विशेषार्थ उपशमश्रेणिमें मोहनीयके अनुदीरक जीव होकर तथा एक समयका अन्तर देकर पुनः दूसरे जीव अनुदीरक हो जावें यह भी सम्भव है और वर्षपृथक्त्वके अन्तरसे अनुदीरक हों यह भी सम्भव है। यही कारण है कि यहाँ श्रोध और मनुष्यत्रिककी अपेक्षा अनुदीरकोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण कहा है। मनुष्य अपर्याप्तक सान्तर मार्गणा होनेसे उनका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इनमें मोनीयके उदीरकोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर क्रमसे उक्त कालप्रमाण कहा है। गतिमार्गणाके शेष भेदोंमें अनुदीरक न होकर उदीरक ही होते हैं, इसलिए उनमें उदीरकोंके अन्तरकालका निषेध किया है। ओघसे भी सब या नाना जीव मोहनीयके उदीरक पाये जाते हैं, इसलिए इस अपेक्षासे भी उदीरकोंके अन्तरका निवेध किया है।
5 ३२. भाव सर्वत्र प्रौदयिक होता है।
६३३. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश 1 ओघसे मोहनीयके अनुदीरक जीव सबसे स्तोक है। उदीरक जीव अनन्तगुणे हैं। मनुष्यों में मोहनीयके अनुदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणे करने चाहिए । शेष गतियोंमें अल्पबहुत्व नहीं है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।