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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[वेदगो ७ ३४. उत्तरपयडिउदीरणा दुविहा–एगेगउत्तरपयडिउदीरणा पयडिट्ठाणउदीरणा च । एगेगउत्तरपयडिउदीरणाए तत्थ इमाणि चउवीसमणि प्रोगद्दाराणिसमुकित्तणा जाब अप्पावहुए त्ति । समुकित्तणाणु० दुविहो णि०–ोघे० आदेसे० । ओघेण अद्यावीसपयडीणमस्थि उदीरगा अणुदीरगा च । श्रादेसेण णेरइय० इत्थिवे.. पुरिसये. अणुदीरगा, सेसाणमुदीरगाणुदीरंगा अस्थि । एवरि णबुसय० अणुदी० णस्थि । एवं सधणेरइय० । तिरिक्खाणमोघभंगो। एवं पंचिदियतिरिक्खतिए । णवरि पंचिं०तिरि०प० इथिवे. अणुदी० । जोणिगी० पुरिस०-रणवंस० अणुदी० । इस्थिवे. अणुदी० णस्थि । पंचिंतिरि० अपञ्ज०-मणुसअपञ्ज० सम्म०. सम्मामि०-इस्थि-पुरिसवे. अणुदी० । मिच्छ०-णस० अस्थि उदीरगा, अणुदीरगा णस्थिसिलिमकवाणिोंक प्रास्थामुदारी अखुदीर० । मणुसतिए ओघ । णवरि मणुसपन० इथिवे. अणुदी० । मणुसिणी० पुरिस०-णवंसयवे० अणुदीर० । देवेसु
ओघ । णवरि णस० अणुदी० । एवं भवण०-वाणवे०-जोदिसिय-सोहम्मीसाणदेवाणं | सणकुमारादि जाव णवगेवजा सि एवं चेव । णवरि इत्थिवे. अणुदी० । पुरिसके० अणुदी० णत्थि । अणुदिसादि सव्वट्ठा ति मिच्छ०-सम्मामि० अणंताणु०४-इत्थिवे०णस० अणुदी० । सेसाणमस्थि उदीर० अणुदी० । णवरि पुरिसवे० अणुदी० णस्थि ।
३४. उत्तरप्रकृति उदीरणा दो प्रकारकी है-एकैकप्रकृति उदीरणा और प्रकृतिस्थान उतीरणा । एकैकप्रकृति उदारणाके विषय में ये चौबीस अनुयोगद्वार होते हैं-समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक | समुहकीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और 'प्रादेश । ओघसे अट्ठाईस प्रकृतियोंके उदीरक और अमुदीरक जीव हैं। प्रादेशसे नारकियोंमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदक्के अनुदीरक जीव है। शेष प्रकृतियोंके उदीरक और अनुदीरक जीव है। किन्तु इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदकी अनुदारणा नहीं है। इसीप्रकार सब नारकियों में जानना चाहिए। तिर्यम्चा में श्रोत्रके समान भंग है। इसीप्रकार पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि पश्चेन्द्रिय तिर्णञ्च पर्याप्तक स्त्रीवेदके अनुदीरक होते हैं तथा योनिनी जीव पुरुषवेद और नपुसकवेदके अनुदीरक होते हैं। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त जीव सायक्त्व, सम्यग्मिथ्याव, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके अनुदीरक होते हैं। मिथ्यात्व और नपुसकवेदके उदीरक होते हैं, अनुदीरक नहीं होते । सोलह कपाय और छह नोकषायोंके उदीरक और अनुदीरक दोनों प्रकारके होते हैं। मनुष्यधिकमें ओघके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्य पर्याप्त खीवेदके अनुदीरक होते हैं तथा मनुष्यनी पुरुषवेद और नसकवेदके अनुदीरक होते हैं। देवोंमें ओघके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि ये नपु'सकवेदके अनुदीरक होते है। इसीप्रकार भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, तथा सौधर्म और ऐशानकल्पके देघोंमें जानना चाहिए । सनत्कुमारसे लेकर नौवेयकतकके देवोंमें इसीप्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि ये स्त्रीवेदके अनुदीरक होते हैं। इनमें पुरुषवेदकी अनुदीरणा नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव मिथ्यान, सभ्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चतुष्क, स्त्रीवेद और नपुसकवेदके अनुदीरक होते हैं। शेष प्रकृतियोंके उदीरक भी होते हैं और अनुदीरक भी होते हैं। इतनी विशेषता है कि ये पुरुषवेदके अनुदीरक नहीं होते ।