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________________ PEE जयधमलासहिने कसायपाहुरे [ वेदो ६६५. सणकुमागदि सहस्सार त्ति सव्यपयडी० उक. 'अणुक डिदिउदी. लोग असंख० भागो अडचीद । आणदादि अच्चुदा ति सबषयडी० उक० द्विदिउदी• खेतं । अणुक्क० लोग० असंखे भागो छचोदसः । उवरि खेसं । एवं जार० । ६६६६. जहण्णए पपदं । दुविहो णि--प्रोण प्रादेसेण य । श्रीधेण मिच्छचदुसंजल०-णवंस०-चदुणोक० जह• अजह० खेत्तं । गरि मिच्छ० जह• लोग. ( असंखे०भागो अढचोइस० । बारसक-भय-दुगुंछा० जह० लोगस्स संखे भागो। अजह सव्वलोगो। सम्म० जह० खेत्तं । अजह लोग० असंखे०भागो अट्ठयोइस० । सम्मामि० जह० अजह लोग० असंखे०भागो श्रद्धवादस०। इथिवे०-पुरिस० जह० खेत्तं | अजह. लोग० असंखे०भागो अटुचोइस० दे० सबलोगो वा । 5६६५. सनत्कुमारकल्पसे लेकर साकल्पतरोबोधानास्तविकृतियोंकीमास्कहान और अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंने लोकके असंख्यात भाग और प्रमनालीके चौदह भागमेसे कुछ कम पाठ भागत्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आननकल्पसे लेकर अच्युन कल्पतकके देवों में सय प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति के बदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अनुत्यूनीष्ट स्थितिके नदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और अमनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ काम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। ऊपर स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इसीप्रकार अवगाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। ६६६६, जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-मोघ और प्रादेश। ओघसेर मिथ्यात्व चार संचलन, नपुसकवेद और चार नोकपायोंकी जघन्य और अजघन्य म्पितिके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इतनी विशंपना है कि मि अध्यात्यकी जघन्य स्थिति के रदीरकोंने लोकके असंख्यासर्व भाग और असनालीके चौदह भागांमसे कुछ कम पाठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिक उदीरफोंने लोकके संख्यान भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजय स्थिनिके उदीरकोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति के उशीरकका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य स्थितिके उदीरकोंने लोकके असंख्यात भाग श्री सनालीके चौदह भागों से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सभ्यग्मिध्यात्वाकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके पदीरकोंने लोकके असंख्यात भाग और समालीके चीदार भागोमेसे कुछ कम पाठ भागप्रमागा क्षेत्रका स्वर्शन किया है। खीवद और पुरुषवेदकी जघन्य । स्थितिके बदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजयन्य स्थितिके उदीरकाने लोकके सख्यातवें भाग, असनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग और सर्व प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ-चार संज्वलन और नपुसकवेपकी जान्य स्थितिजदीरणा उपशमणि या क्षपश्रेणिमें अपने-अपने स्वामित्वके अनुसार होती है पवे तथा हास्यादि चारकी जघन्य स्थिति पदारणा अपने स्वामित्वके अनुसार संशी पन्चेन्द्रिय दोपर्यातकोंके होती है। यतः इनकी १. प्रा०प्रती असंखे० भागो इति पाठः ।
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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