SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०६ जयधवलासहिदे कसायपाहुले [वेदगो ७ जह द्विदिउदीर० लोग. असंखे० भागो | अज० सबलोगो । आदेसे० पेरहम० मोह. जह० ट्ठिदिउदी. लोग. असंखे० भागो। अज लोग. असंखे०भागो छचोदम० देमणा । एवं विदियादि मत्तमा त्ति । णवरि सगपोसणं । पढमाए खेतं । :४५४. तिरिक्खेसु मोह. जह द्विदिउदी. लो० संखे०भागो। अज. सबलोगो । सन्त्रपंचिंदियतिरिक्ख-मनमणुस्सेसु मोह. जहः लोग० असंखे भागो । अज० लोग० असंखे भागो सबलोगो वा । देवा जाच सहस्सार ति जह द्विदिउदीर लोगअसिखंभोगी जहविनिगपासण हारणदादि अच्चुदा ति जह० लोग० असले०भागो: अजह लोग. असंखे० भागो छचोहम० देसूणा । उारि वेत्तं । एवं जाव० । ४५५. कालाणु० दुत्रिह-जह० उक्क० । उकस्से पयदं । दुविहो णि० - ओघेण आदेसे० । ओषेण मोह. उक०डिदिउदी० जह० एयसमओ, उक्क० पलिदो० मोहनीयको जघन्य स्थिनिके उदीपकॉन लोकक असंख्यासर्व भागप्रमाण क्षेत्रका स्पशन किया है तथा अजघन्य स्थिति के उदारमाने सर्व लोकका स्पर्शन किया है। आईशस नारकियों में मोहनीयकी जघन्य स्थितिके उदीर कोने नोकके असंख्यासवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है तथा अजघन्य स्थितिके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और प्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसीप्रकार दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक नारकियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपना-अपना पर्शन कहना चाहिए। पहली पृथिवीमें क्षेत्रके समान स्पर्शन है। ४५४. तिर्यचोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थिनिक उदारकाने लाक के असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है नथा अजघन्य स्थिति के उदारकोंने सर्व लोकका स्पर्शन किया है। सत्र पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और सब मनुष्यों में मोहनीयकी जघन्य स्थितिके उदीरकोंने लोकके असंख्यातर्फे भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है तथा अजघन्य स्थितिके उदीरकोंने लोकके असंख्यानवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सामान्य देव और सहस्रार कल्पतकके देशों में मोहनीयकी जघन्य स्थिनिक उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है तथा अजघन्य स्थितिके उदीरकोंका अपना-अपना स्पर्शन है। पानस लेकर अच्युत कल्प तकके देवोंमें भोहन यकी जघन्य स्थिति के उदारकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है तथा प्रजघन्य स्थितिके उदोरकोंन लोकके असंख्यातवें भाग तथा बसनालोके चौदह भागामसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पशन किया है। ऊपर के देवोंमें स्पर्शन क्षेत्र के समान है। इसीप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ-स्वामित्र और अपने-अपने स्पर्शनका विचार कर यह स्पर्शन घटिन कर लेना चाहिए। ४५५. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्ट का प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है--ओघ और मादेश । भोघसे मोहनीयको उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है. और उपकृष्ट काल पल्यके मसंख्यात भरगप्रमाण है।
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy