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________________ गा० ६२] उत्तरपयडिउदोरणाए ठाणाणं सेसाणियोगदारपरूषणा २०५ ४५१. पचितिरि० अपज०-सब्वमणुस० मोह. उक्कविदिउदी० लोग। असंखे०भागो । अणुक्क० लोग० असंखे०भागो सबलोगो वा । .४५२. देवेसु मोह. उक्क०-अणुक० द्विदिउदीर० लोग० असंख०भागो अट्ठणवचोदस देसूणा । एवं सोहम्मीसाणे । मवण०-वाण-जोदिसि० मोह० उक्क.. अणुक ट्ठिदि उदीर० लोग. असंखे० भागो अन्धुढा बा अद-णवचोइस० । सणकुमारादि सहस्सार ति मोह० उक० अणुक विदि० उदीर० लोग० असंखे भागो अदुचो६० दे। आणदादि अच्चुदा ति मोह० उक० द्विदिउदी० लोग० असंखे०भागो । अणुक्क० लोग० असंखे भागो छचोदस० । उपरि खेत्तं । एवं जाव० । ४५३. जह० पयदं । दुविहो णि-पोषेण आदसे० । ओघेण मोह. . . समुद्घातकी मुख्यतासे बतलाया है, क्योंकि ऐसे जीवोंका नीचे सातवी पृथिवीप्तकके नारकियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करना बन जाता है । शेष कथन सुगम है । ६४५१, पंचेन्द्रिय तिर्यच अपयशक्रिोरं मनापीप्तकमिमामायकी उष्ट्रास्थतिके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है तथा अनुत्कृष्ट स्थिसिके उदीरकोंने लोकके असंख्यात भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। विशेषार्थ_जो मनुष्य, मनुयिनी या 'चेन्द्रिय तिथंच उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कर और उसका घास किये बिना अन्तर्मुहर्तमें वक्त दोनों प्रकारके जीवों में मरकर उत्पन्न होते है उन्हीं के - माहनीयको उत्कृष्ठ स्थितिकी उदीरणा होती है। यतः ऐसे जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है अतः इ. में यह स्पर्शन उक्तप्रमाण कहा है । शेष कथन सुगम है। ६४४२. देवीमें मोहनीयकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और बसनालोके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम पाठ तथा कुछ कम नौ भागप्रमाण मंत्रका स्पर्शन किया है। इसीप्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पमें जानना चाहिए | भवनवासी, व्यस्तर और ज्योतिषी देवों में मोहनीयको उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके सदीरकोंने लोकके असंख्यात भाग तथा असनालीके चौदह भागामसे कुछ कम साढ़े तीन भाग तथा कुछ कम आठ और नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सनत्कुमारसे सहस्रार कल्प तकके देवोंमें मोहनीयको उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति के उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग तथा बसनालीके चौदह भागों से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पानतसे लेकर अच्युत कल्पतकके देवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति के उदीरकाने लोकके श्वसंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है तथा अनुत्कृष्ट स्थिति के उतीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और खनालीके चौदह भागामसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। प्रागेके देवा में स्पर्शन इंत्रके समान है। इसप्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ..यहाँ अपनी-अपनी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति की उदीरणाके स्वामित्व का विचार कर स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए । सामान्य और अवान्तर देवांका जो स्पर्शन बतलाया है उससे यहाँ कोई विशेषता नहीं है। इसलिए इसका स्पष्टीकरण नहीं किया । ॐ ४५३. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-प्रोच और भादेश । भोधसे
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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