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________________ २०७ गा० ६२] उत्तरपडिऔरणाए ठाणाणं सेसागियोगदारपरूवरणा असंखे०भागो। अणुक० मध्यद्धा । एवं सव्वणेग्य-तिरिक्खपंचिंदियतिरिक्खतियदेवा भवरणादि जाव महस्सार त्ति । ४५६. पंचितिरि०अपञ्ज० मोह. उपक द्विदिउदीर० जह० एयस०, उक्क० आचलि० असंखे भागो । अणुक्क० सम्बद्धा । एनं मणुम अपन० । गरि अएक्क० जह खुहाभवग्महणं समयूर्ण, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । ६४५७. मणुमतिए मोह० उक्काटिदिउदी० जह० एयस०, उक्क० अंगोमु० । अणुक्स० मध्यद्धा । प्राणदादि सबट्ठा ति मोह • उकास्स-द्विदिउदो० ज.१० पयस०, उक्क० संखेमा समया | अक्क० सचद्धा । एवं जाय० । अनुत्कृष्ट स्थिति के उदीरकोका काल सर्वा है। इसीप्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तियचत्रिक, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर सहसार कल्प तकके देवोंमें सानना चाहिए। मार्गदर्शक:- आचार्य श्री सविधिसागर जी महाराज विशेषार्थ-मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति के उदीरकोंका एक जीव की अपेक्षा जघन्य काल एक ममय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बलला आये हैं। अब यदि नाना जीव मोहीयको उत्कृष्ट स्थितिकी उदीरणा एक समय तक करें और द्वितीयादि समयमें न करें तो यह भी सम्भव है और सन्तानमें भंग पड़े बिना लगानार करते रहें तो यत् काल पल्यके असंख्यात भागप्रमाणसे अधिक नहीं हो सकता। इसी बातका विचार कर यहां मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिकी उदोरणाका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्तप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। . ४५६. पचेन्द्रिय तियच अपर्याप्तकों में मोहनीयको उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पावलिके असंख्यातवे भागप्रमाग है। अनुत्कष्ट स्थितिके उदीरकों का काल सर्वदा है। इसीप्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोका जघन्य काल एक समय कम शुल्लक भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। विशेषार्थ- उक्त जीवोंमें एक जीवकी अपेक्षा मोहनीयको उत्कृष्ट स्थिति के उदीरकों का जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय बवला पाये हैं। यही कारण है कि यहाँ नाना जीवोंकी अपेक्षा मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। ४५७. मनुष्यत्रि कमें मोहनीयको उत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट स्थितिके बदीरकोंका काल सर्वदा है। आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थ सिद्धि सकके देवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके आदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अनुत्कृष्ट स्थितिके उदीरकोंका काल सर्वदा है। इस प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ- यहाँ सामान्य मनुष्योंमें शेष दो प्रकारके मनुष्यों की मुख्यता है, इसलिए इनमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिकी खदीरणा यदि नाना जीव लगातार करते रहें तो भी उस कालका योग भन्तर्मुहूर्स ही होगा। यही कारण है कि यहाँ इनमें पस्कृष्ट स्थितिके एदारकोंका उत्कृष्ट
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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