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________________ उत्तरपयडिउदीरणगए भुजगारपरूवणा एपजीवेण अंतरं। १९६, सुगममेदमहियारपरामरसवकं । भुजगार-अप्पदर-अवडिदपदेसगंतरं केवधिरं कालादो होवि ? १९७. सुगमं । जपणे मांगी आचार्य श्री सुविहिासागर जी महाराज १६८. तं जहा-भुजगारस्स ताव उच्चदे। एको श्रोदरमागउवसामगो मदीरेमाणो परिसवेदमोकड्डिय भुजगारपवेसगो जादो । तदो से काले तशियसहिदो होदणंतरिदो । तदर्णतरसमा कालं कादूण देवेसुप्पएको भुजगारपवेसगो । लछमंतरं । हेछिमगुणहाणेसु चि लव्भदे । तं कधं ? भय-दुगुंछाविरहिदमप्पप्पणो भावारणमुदीरेमाणो अपणदरगुणट्ठागजीयो भयागमेणेगसमयं भुजगारं काद से लेकर नौ ग्रेवयक तक्रके देवों में सर्वोपशामनाकी प्राप्ति सम्भव नहीं होनेसे उनमें तीन की अपेक्षा कालका निर्देश किया। ये तीन पद पवेन्द्रिय तिर्यकच अपर्याप्त, मनुष्य पर्याप्त और अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें भी सम्भत्र हैं। परन्तु पन्चेन्द्रिय तिर्यकच पर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें एक मिथ्यात्व गुणस्थान होनेसे वहाँ भुजगार और अल्पतर का उत्कृष्ट काल दो समय ही बनता है तथा अनुदिशादिक में जो उपशमसम्यग्दृष्टि और त्योधक सम्यग्दृष्टि उत्पन्न होता है, उसके यह काल तीन समय भी बन जाता है। रामसम्यग्दृष्टिके प्रथम समयमें सम्यक्त्व प्रकृतिकी, दूसरे समयमै भयकी और तीसरे ग्रम जुगुप्साको उदीरणा करानेसे भुजगार प्रवेशकका तीन समय उत्कृष्ट काल बन जाता सषा अत्तकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिके प्रथम समयमें सम्यक्त्व प्रकृतिको, दूसरे समयमें भयको और वीसरे समयमें जुगुप्साको अनुदीरणारूपसे परिणत करने पर अल्पतर प्रवेशकका तीन समय उत्कृष्ट काल बन जाता है। शेष कथन सुगम है। * एक जीवकी अपेक्षा अन्तर । 5 १८६. अधिकारका परामर्श करनेवाला यह वाक्य सुगम है । * मुजगार, अल्पतर और अवस्थितप्रवेशकका अन्तरकाल कितना है ? 5 १६७यह सूत्र सुगम है। जघन्य अन्तरकाल एक समय है। FREE. यथा-सर्वप्रथम भुजगारका कहते हैं, संज्वलनकी उदीरणा करनेवाला उत्तरता असा एक उपशामक जीव पुरुपवेदका अपकर्षण करके भुजगारप्रवेशक हुआ। इसके बाद सदनन्तर समयमें उतनी ही प्रकृतियोंकी उदीरणाके साथ अवस्थित्तप्रवेशक होकर उसने भुजगार. का अन्तर किया। पुनः तदनन्तर समयमें मरकर और देवोंमें उत्पन्न होकर वह भुजगारदेशक हो गया। इसप्रकार भुजगारप्रवेशकका जघन्य अन्तर एक समय प्राप्त हो गया। यह तर नीचे के गुणस्थानों में भी प्राप्त होता है। . शंका-वह कैसे ? समाधान-भय और जुगुप्साकी उदीरणासे रहित अपने उदीरणास्थानकी उदीरणा करनेवाला अन्यतर गुणस्थानवी जीव भयके आगमन द्वारा एक समय तक भुजगारपद
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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