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________________ जयधवलासहिदे कसायपाटुडे [वेदगो । १६२. तं जहा–दसपयडीओ उदीरेभाणस भय-दुगु'छाणमुदयवोच्छेदेख प्पदरं कादूणावट्टिदस्स जाव पुणो भय-दुगुंछाणमणुदयो ताव अंतोमुहुनमेनो अवहिरी पवेसगस्स उकस्सकालो होइ । अवत्तव्यपवेसगो केवचिकालादो साल भी सुविधिसागर जी म्हा ३ १९३. सुगमं । ॐ जहरणकारसेण एयसमयो । ६ १९४. कुदो ? सब्बोवसामग्णादो परिवदिदपढमसमयं मोतूणण्णस्थ तदसम वादा । एवमोघेण कालाणुगमो समतो । ६ १९५. एवं मणुसतिए । प्रादेसे गेरइय० भुज०-अप्प०-अद्वि. ओष ।। एवं सब्बोरइय-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खतिय-देवा भवणादि जाव गवगेवज्जा चि। पंचिंदियतिरिक्खनपज्ज०-मणुसअपज्ज. भुज० जह० एगस०, उक्क० वेसमया। एचमपदर० । अवढि० ओघं । अणुदिसादि सषट्ठा ति भुज-अप्प० जह० एयस०, उक० तिरिण समया-। अवटि अोघं । एवं जावः ।। ६६६२. यथा-दस प्रकृतियों की उदीरणा करनेवाला जो जीव भय और जुगुप्साको उदयव्युच्छित्तिके द्वारा अल्पतरपद करके अवस्थित है । पुनः जबतक उसके भय और जुगुप्साका अनुदय बना रहता है तबतक उसके अवस्थित प्रवेशकसम्बन्धी अन्र्मुहूर्तप्रमाण उत्कृष्ट काल प्राप्त हो जाता है। * अपक्तव्यप्रवेशकका कितना काल है ? ६ १६३. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य और उत्कर काल एक समय है। १४. क्योंकि सर्वोपशामनासे गिरते हुए प्रथम समयको छोड़कर अन्यत्र प्रवक्तव्यपद असम्भव है। इस प्रकार ओघसे कालानुगम समाप्त हुना। : १९५. इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। श्रादेशसे नारकियों में भुजगार, अल्पतर और अवस्थितप्रवेशकका काल अोधके समान है। इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यच, पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिक, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर नी अवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तियांश्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्यातकोंमें भुजगार प्रवेशकका जघन्य काल एक समय है, और उत्कृष्ट काल दो समय है। इसी प्रकार अल्पतरप्रवेशकका काल है। अवस्थितप्रवेशकका काल ओघके समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें भुजगार और अल्पतरप्रवेशकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दीन समय है। अवस्थितप्रवेशकका काल ओघके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ---मनुष्यत्रिकमें प्रथमादि सर्वोपशामना तकके सब गुणस्थान सम्भव हैं, इसलिए उनमें ओघप्ररूपणा अषिकल बन जानेसे वह श्रोघके समान जाननेकी सूचना की है। परन्तु सब नारकी, सामान्य तिर्याच, पञ्चेन्द्रिय तिम्वत्रिक, सामान्य देव और भवन
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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