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________________ गा०६२] उत्तरपयडिउदीरणाए अणिोगदारपरूवणा ३९. सामिसाणु० दुविहो णि-ओषे० आदेसे० । श्रोषेण मिच्छ.. सम्म०-सम्मामि० उदीर० करस अराणदाय मिच्छाहाहस्सर सम्माइंटिस्स सम्मामिच्याइद्विस्स । अणंताणु०४ उदीर० कस्स ? अण्णद० मिच्छाइद्वि० सासणसम्माइद्विस्स वा ! बारसक०-णवणोक. उदीरणा कस्स ? अण्णद० मिच्छाइट्ठि० सम्माइद्विस्स वा। आदेसेण णेरइय० ओघ । णवरि इथिवे०-पुरिसवे. पत्थि उदीर० । एवं सन्धणेरड्य० । 'तिरिक्खेसु अोघं । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिए। णपरि पंचिंदियतिरिक्खपञ्ज० इथिवेद उदीरणा पत्थि । जोणिणीसु पुरिसवे०-ण_सय उदीरणा णस्थि । पंचिंतिरि०अपज.-मणसअपज्ज. चउवीसंपयडीएं उदीर० कस्स ? अण्णद० । मणुसतिए पंचिंतिरिक्खतियभंगो । देवेसु ओघं । णवरि गवंस उदीर० णस्थि । एवं भवण-वाणवें०-जोदिसि० सोहम्मीसाण | मणक्कुमारादि जाव गवगेवज्जा ति एवं चेव । णवरि इस्थिवे. उदीरणा पत्थि । अणुदिसादि सबट्ठा त्ति चीसएहं पयडीणमुदीरणा कस्स ? अण्णद० । एवं जाव।। विशेषार्थ-मिथ्यात्व प्रकृतिकी उदीरणा मिथ्यात्व गुणस्थानमें निरन्तर होती रहती है, इसलिए ओघसे भव्य और अभव्य दोनोंकी अपेक्षा इतकी उदारणाके सादि श्रादि चारों भंग बन जाते हैं। किन्तु अन्य प्रकृतियोंकी उदीरणा अपने अपने उदयानुसार कादाचित्क है, इसलिए उनकी उदीरणाके सादि और अध्रुव ये दो ही भंग बनते हैं। यह प्रोघनरूपणा है। गति आदि मार्गणारे प्रत्येक जीवकी अपेक्षा काहाचित्क हैं, इसलिए इनमें सब प्रकृतियोंकी उदीरणा सादि और अध्रुव ही है। ३९. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है--श्रीध और आदेश । श्रोषसे मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उदारणा किसके हाती है ? अन्यतर मिथ्याष्टि, सभ्यष्टि और सम्यग्मियादृष्टिके होती है। 'अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उदीरणा किसके होती है ? अन्यतर मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टिके होती है। बारह कयाय और नौ नोकपायोंकी उदीरणा किसके होती है ? अन्यतर मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टिके होती है। आदेशसे नारकियोंमें ओघके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उदारणा नहीं होती। इसी प्रकार सब नारकियों में जानना चाहिए। तियश्चों में श्रोधके समान भङ्ग है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि पश्चेन्द्रिय तियेच पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेदकी उदारणा नहीं होती। तथा योनिनी तिर्यञ्चों में पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी उदीरणा नहीं होती। पञ्चन्द्रिय तियश्च अपयाप्त और मनुष्य 'अपयानका चौबीस प्रकृतियोंकी उदीरणा किसके होती है ? अन्यतरके होती है। मनुष्यन्त्रिकमें पञ्चेन्द्रिय तिर्याचत्रिकके समान भङ्ग है । देवोंमें ओरके समान भङ्ग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें नपुसकवेदकी उदीरणा नहीं है। इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी सौधर्म और ऐशानदेवोंमें जानना चाहिए । तथा सनत्कुमारसे लेकर नौ ग्रेवेयक तकके देवामें इसी प्रकार जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेपता है कि इनमें स्लोवेदकी उदीरणा नहीं होती। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें बीस प्रकृतियोंकी उदीरणा किसके होती है ? अन्यतरके होती है। इसीप्रकार अनाहारक मागणातक जानना चाहिए ।
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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