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________________ जयधरलासहिदे कसायपाहुरे [वेदगो ४०. कालाणु० दुविहो णि०–ोषेण आदेसे० । ओषेण मिच्छ०उदीर० फेवचिरं ? तिरिण भंगा । तत्थ जो सो सादियो सपज्जवसिदो तस्स इमो०-जह. अंतोमु०, उक० अद्धपोग्गल० देसू० । सम्म० उदीर० जहः अंतोमु०, उक्क० छावहिसागरोतमाणि प्रावलिजणाणि । सम्मामि० ज० उक्क. अंतोमु० । सोलसक०-भय-दुगुंछ० जह• एयस०, उक्क. अंतोमु० | हस्स-रदि० जह. एयसमओ, उक्क० छम्मासा । अरदि-सोग० जह० एयस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि । इस्थिवे. जह० एयस०, उक्क० पलिदोवमसदपुधत्तं । पुरिसवे. जह० अंतोमु०, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । णवूस. जह, एयस०, उक्क० अणंतकालमसंखज्जाविग्गिलपरियईली सुविधिसागर जी म्हाराज ६४१. श्रादेसेण णेरड्य० मिच्छ. उदी. जह• अंतोमु०, णस. जह. दसवस्ससहस्साणि, अरदि०-सोग०जह एयस, उक्क० सव्यसि तेत्तीसं सागरोवमं । सम्म जह० एप०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । सम्माम्मि० श्रोधं । विशेपार्थ---पश्चेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सम्यक्त्व, सम्य मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदके बिना चौबीस प्रकृतियोंकी उदीरणा सम्भव है। तथा अनुदिशादिकमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चतुष्क नपुसकवेद और स्त्रीवेदके बिना बीस प्रकृतियोंकी जदीरणा सम्भव है। शेष कथन सुगम है। ४०. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । श्रोधसे मिथ्यात्वके उदीरकका कितना काल है ? तीन भङ्ग हैं। उनमेंसे जो सादि-सान्त भंग है उसका यह निर्देश है-जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल उपाधं पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। सम्यक्त्वके उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पक पात्रलि कम छयासठ सागर है। सम्यग्मिथ्यात्वके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूत है । सोलह कषाय, भय और जुगुप्साके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । हास्य और रतिके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल छह महीना है। अरति और शोकके उदीरकका जघन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। स्त्रीवेदके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पृथक्त्व सौ पल्य प्रमाण है। पुरुषवेदके उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पथक्त्व सौ सागर प्रमाण है। नपुसकवेदके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है।। विशेषार्थ-प्रत्येक प्रकृतिका जो जघन्य और उत्कृष्ट उदय काल है वहीं यहाँ लिया गया है। श्ररति-शोकके उदीरकका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागर है । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका एक समय काल उपशम श्रेणिसे गिरकर मरने की अपेक्षा है । अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें भय जुगुप्साका एक समयके लिये वेदक होकर अनन्तर समयमें अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके प्राप्त होनेपर उक्त प्रकृतियोंकी उदीरणा व्युच्छित्ति देखी जाती है। ६४१. श्रादेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्वके उद्दीरकका जघन्य काल अन्तमुहर्त है, नपुसकवेदके उदीरकका जघन्य काल दश हार वर्ष है, अरति और शोकके उनीरकका जन्य काल एक समय है तथा सबका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। सम्यक्त्वके उदीरकका जघन्य काल
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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