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________________ मागदर जयधवलासहिने कसायपाहुडे [ वेदगो पंचादि-अणिहणा विरदाविरदे उदीरणट्ठाणा। एगादी तिगरहिदा सत्तुक्कस्सा च विरदेसु ॥३॥ ९८. एत्थ ताव पढमसुत्तगाहाए अस्थो बुञ्चदे । तं कधं ? सत्त आदि काण । जाब दस ताव एदाणि चत्तारि उदीरणट्ठाणाणि मिच्छाइद्विगुणहाणे होति । तं जहामिच्छत्तमणंताणुबंधीणमेकदरमपञ्चक्खाणाणमेकदरं पञ्चक्खाणाणमेकदरं संजलणाणमेकदरं तिण्हं वेदाणमेकदरं दोण्हं जुगलाणमेक्कदरं भय-दुगुलाबो च धेषण दसएहमुदीरणड्डाणं होइ १० । एत्थ भय-दुगुकाणमएणदरेण विणा एवण्हमुदीरणहाणं होइ ९ । दोहि मि विणा अहण्हमुदीरणा ८ । भय-दुगुकाणताणुवंधीहि विणा सत्ताहमुदीरणा होइया बदामदेखिमिकाही खामी होइ ति भावस्थो। 'मिस्सए णबुकस्सा' सत्तादिग्गहणमिहाणुवट्टदे, तेणेवं सुत्तस्थसंबंधो कायबो-मिस्सए सम्मामिच्छाइद्विगुणवाणे सत्त आदि कारण जाव एव ताव एदाणि तिएिण उदीरणाट्ठाणाणि लभंति त्ति । तं जहा-सम्मामिच्छत्तमपञ्चक्खाणाणमेकदरं, पञ्चक्खाणाणमेकदरं, संजलणाणमेक्कदरं, तिएहं वेदाणमेक्कदरं, दोण्हें जुगलाणमेक्कदरं, भय-दुगुलाश्रो घेत्तण एवमेदाओ णव ९ । एत्थ भय-दुगुकाणमण्णदरेण विणा अट्ट ८ । दोहि मि विणा हैं, छहसे लेकर उत्कृष्टरूपसे नौ तकके चार उदीरणास्थान अविस्तसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें होते हैं, पाँचसे लेकर पाठ तकके चार उदीरणास्थान विरताविरत गुणस्थानमें होते हैं तथा तीनके सिवा एकसे लेकर उत्कृष्टरूपसे सात तक उदीरणास्थान विरत गुणस्थानों में होता है ॥२-३॥ ८. यहाँ पर सर्वप्रथम पहली सूत्रगाथाका अर्थ कहते हैं। यथा-सातसे लेकर दस तकके ये चार उदीरणास्थान मिध्यावष्टि गुणस्थानमें होते हैं। यथा-मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धियोंमेंसे कोई एक, अप्रत्याख्यानावरणचतुक से कोई एक, प्रत्याख्यानावरणचतुष्कोसे कोई एक, संज्वलनचतुष्कर्मसे कोई एक, तीन वेदोंमेंसे कोई एक, दो युगलोंमेंसे कोई एक युगल तथा भय और जुगुप्सा इनको लेकर दसप्रकृतिक १० उदीरणास्थान होता है। यहाँ पर भय और जुगुप्सामेंसे किसी एकके विना नौ प्रकृतिक ६ उदीरणास्थान होता है। इन दोनोंके विना आठ प्रकृतिक ८ उदीरणास्थान होता है। तथा भय, जुगुप्सा और अनन्तानुबन्धीके विना सातप्रकृतिक ७ उदीरणास्थान होता है, इसलिए इनका मिथ्याष्टि जीव स्वामी है यह उक्त कथनका भावार्थ है। 'मिस्सए णवुकस्सा' इस पदका व्याख्यान करते समय 'सत्तादि' इस पदको महण कर उसकी अनुवृत्ति करनी चाहिए । इसलिए सूत्रका अर्थके साथ इस प्रकार सम्बन्ध करना चाहिए-मिश्र अर्थात् सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें सातसे लेकर नौ तक ये तीन उदीरणास्थान प्राप्त होते हैं। यथा -सम्यग्मिथ्यात्व, अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कोसे कोई एक, प्रत्याख्यानावरणचतुष्कमेंसे कोई एक, संज्वलनचतुष्कोसे कोई एक, तीन वेदोंमेंसे कोई एक, दो युगलोमैसे कोई एक युगल तथा भय और जुगुप्सा इनको ग्रहणकर इस प्रकार ये नौ र प्रकृतियाँ होती हैं। इनमें भय और जुगुप्सामेसे किसी एकके विना पाठ ८ प्रकृतियाँ होती हैं तथा दोनों के ही विना
SR No.090222
Book TitleKasaypahudam Part 10
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherMantri Sahitya Vibhag Mathura
Publication Year1967
Total Pages407
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size13 MB
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